शोध
सार : आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक
व्यक्तित्व एवं चिंतन अत्यंत विराट है। अध्यापक, आलोचक, निबंधकार, और उपन्यासकार के
रूप में द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य को अमूल्य निधि प्रदान की है। उनमें शास्त्रीय
परम्परा तथा आधुनिकता और सांस्कृतिक चेतना का अद्भुत समन्वय है। इतिहास और मिथक,
यथार्थ और कल्पना, निजत्व और लोकधर्मिता, पांडित्य और कवित्व, शब्द और अर्थ के अंत:
संयोजन का उदात्त प्रतिफलन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के औपन्यासिक सृजन में दिखाई
देता है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी का उपन्यास 'बाणभट्ट की आत्मकथा' अपनी विशिष्ट प्रेम-संवेदना के लिए
प्रसिद्ध है। इस उपन्यास में स्त्री-मुक्ति के प्रश्नों पर गहराई से विचार हुआ है।
उपन्यास की संवेदना पर इस विचार का निर्णायक प्रभाव पड़ा है। उपन्यास की स्त्री
पात्र भट्टनी, निपुणिका, महामाया, सुचरिता, सभी का चरित्र लोकहित में संघर्षरत दिखाई
पड़ता है। ये नारी पात्र सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध संघर्ष करती नज़र आती हैं |
पराधीनता की यातना से नारी की मुक्ति ही उपन्यास का अभीष्ट है।
बीज शब्द : बाणभट्ट की आत्मकथा, हजारीप्रसाद प्रसाद द्विवेदी, स्त्री, चेतना, आख्यान, निपुणिका, भट्टिनी, महामाया, बाणभट्ट, उपन्यास, नमिता सिंह, रोहणी अग्रवाल, चौथीराम यादव, राधावल्लभ त्रिपाठी, विमर्श, प्रश्न, प्रेम।
मूल आलेख : विपुल संदर्भ और अर्थ की कई संभावित परतें किसी कृति को बड़ा कर देती हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ अब तक अर्थ-संदर्भो के कई मोड़ से गुजर चुका है, बावजूद नई व्याख्याओं की संभावना उसमें बनी हुई है। यह उपन्यास ‘बीस उच्छ्वासों’ में विभक्त है जिसमें सातवीं-आठवीं सदी के भारत की राजनैतिक स्थिति दर्ज है। आचार्य द्विवेदी ने इस उपन्यास में इतिहास और कल्पना का अद्भुत प्रयोग किया है। उपन्यास में द्विवेदी जी ने ‘हर्षचरित’ नामक संस्कृत-ग्रन्थ को उपजीव्य बनाया है। साथ ही युगीन समस्याओं और जीवन मूल्यों पर आए संकट को ऐतिहासिकता के सन्दर्भ में देखा है। इसके वातावरण और परिवेश में कुछ ऐसी समस्याएँ उभरती हैं जो वर्तमान समय की परिस्थितियों को प्रतिध्वनित करती हैं। भारत का स्वाधीनता आन्दोलन हो या द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से उपजा संकट हो, स्त्री-पुरुषों के संबंधों की कहानी हो या चारों तरफ फैला अविश्वास का संकट हो, आचार्य द्विवेदी के इस उपन्यास में इन सब की गूंज सुनी जा सकती है।
इस उपन्यास में बाणभट्ट और स्त्री पात्रों के माध्यम
से स्त्री विमर्श के विविध आयाम खुलते नजर आते हैं। निपुणिका, भट्टिनी, महामाया, चारुस्मिता
और सुचरिता के सवाल बाणभट्ट तो क्या उपन्यास के हर पुरुष पात्र के लिए चुनौती उत्पन्न
करते हैं। यह उपन्यास जितना बाणभट्ट की कथा को संबोधित है उतना ही स्त्री पात्रों के
सवालों को उठाता है। स्त्री पात्रों के बिना बाणभट्ट भी अधूरा है। बाणभट्ट की अधिकांश
कथा स्त्री पात्रों के इर्द-गिर्द घूमती है।
इस उपन्यास में निपुणिका सबसे गतिशील एवं स्मरणीय
पात्र है। विवाह के एक वर्ष बाद ही निपुणिका विधवा हो जाती है और घर छोड़कर अभाव में
जीवन यापन करती है | सामाजिक रूढ़ियों से सबक सीखती है और संघर्ष से अपने जीवन को नयी
दिशा देती है। उसमें बाणभट्ट को स्त्री वेश में छोटे राजकुल के अन्तःपुर में ले जाने
की हिम्मत है और भट्टिनी को मुक्त कराने का साहस है। निपुणिका उन तमाम विद्रूपताओं पर सवाल खड़े करती है
जो स्त्री जीवन को नारकीय बना रहे हैं। उपन्यास में निपुणिका जैसी साहसी स्त्री पात्र
की निर्मिति अभूतपूर्व है।
निपुणिका
बाणभट्ट से प्रेम करती है, लेकिन बाण की हँसी और उसके उपहास उड़ाने से आहत होकर, वह
एक दिन नाटकमंडली छोड़ कर बिना बताए चली जाती है। एक दिन स्थाणवीश्वर
के बाज़ार में बाण
के मिलने पर संवाद के दौरान कहती है, “तुम जड़ पाषाण-पिंड हो; तुम्हारे भीतर न देवता
है, न पशु; है एक अडिग जड़ता।”1 वह अपने
प्रेम के प्रति बाण की इसी पाषाण जड़ता के कारण नाटक मंडली छोड़कर भागी थी। जिसे, उसने
बाण के सामने निर्भीकता से स्वीकार किया। वह बाण से स्पष्ट कहती है, “तुम नारी-देह
को देव-मंदिर के समान पवित्र मानते हो, पर एक बार भी तुमने समझा होता कि यह मंदिर हाड़-मांस
का है, ईंट-चूने का नहीं।”2 यहाँ आचार्य द्विवेदी ने
निपुणिका के माध्यम से स्त्री-ह्रदय के मनोवैज्ञानिक सच को दिखाया है। एक स्त्री संसार के किसी भी कष्ट को झेल सकती है लेकिन प्रेम
में उपेक्षा सहन नहीं कर सकती। इसलिए आचार्य द्विवेदी ने इस सत्य को समझाने का प्रयास
किया है कि प्रेम मनुष्यत्व में फलता है न कि देवत्व में। यह सामान्यतः मानवगत स्वभाव
है। प्रेम में उपेक्षा व्यक्ति को व्यथित कर देती है। प्रेम मानवीय संवेदनाओं का सबसे
नाजुक पक्ष है। यह कभी मजबूत बनाता है तो कभी कमजोर ह्रदय को आघात देता है। अतः प्रेम
मानवीय होने में है, देवत्व में नहीं।
स्त्री शरीर को देव मंदिर
के समान पवित्र मानने वाला बाणभट्ट इस सच्चाई को नहीं देख पाता। निपुणिका को उससे बहुत
अपेक्षाएँ हैं लेकिन बाण उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता। निपुणिका उससे कहती है,
“मेरा कौन-सा ऐसा पाप चरित्र है जिसके कारण मैं आजीवन दुःख की निदारुण भट्टी में जलती
रही; क्या स्त्री होना ही मेरे सब अनर्थों की जड़ नहीं है?”3 निपुणिका
का यह कथन की स्त्री होना ही सब अनर्थों की जड़ है, उस विद्रूप सामाजिक व्यवस्था पर
कुठाराघात है, जहाँ स्त्री एवं पुरुष के जीवन के लिए दोहरे मानदंड बनाए गए है,
जहाँ स्त्री को सिर्फ भोग की वस्तु समझा गया है, जिसे खरीदा एवं बेचा जा सकता है,
बिना किसी दोष के नारकीय जीवन जीने के लिए विवश किया जाता है। उसे न प्रेम करने का
अधिकार है और न ही जीवनसाथी चुनने का! बाणभट्ट निपुणिका की स्थिति को देखकर कहता है,
“स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसका दशमांश भी नहीं बता सकते।...निपुणिका
में इतने सारे गुण हैं कि वह समाज और परिवार की पूजा का पात्र बन सकती थी, पर हुई नहीं।...वह
हंसमुख है, कृतज्ञ है, मोहिनी है, लीलावती है- ये क्या दोष हैं? मेरा चित्त कहता है
कि दोष किसी और वस्तु में है जो इस सारे सद्गुणों की दुर्गुण कहकर व्याख्या करा देती
है। वह वस्तु क्या है? निश्चय ही कोई बड़ा असत्य समाज में सत्य के नाम पर घर कर बैठा
है।”4 द्विवेदी जी
के अनुसार मनुष्य के सामाजिक संबंधों की जड़ में ही कहीं बहुत बड़ा दोष रह गया है। यह
असत्य ही इस समाज में स्त्री के दुख का कारण है।
उपन्यास में निपुणिका की राजनीतिक समझ अचंभित
करती है, महाराजाधिराज श्रीहर्षदेव के
दरबार में बाणभट्ट को सभापंडित नियुक्त किया गया है यह समाचार सुनते ही निपुणिका सिंहिनी
की भांति गरजकर कहती है “धिक्कार है भट्ट,
तुम कैसे भट्टिनी का अपमान करने पर राजी हो गए! कान्यकुब्ज का लम्पट
शरण्यराजा क्या भट्टिनी के सेवक को अपना सभासद बनाने का स्पर्धा रखता है ?...
धिक्कार है भट्ट, तुम अत्यंत सहज बात भी न समझ सके?”5 भट्टिनी को कैद
कर रखने वाले छोटे राजकुल को शरण देने वाले महाराजा का सभासद नियुक्त होना,
भट्टिनी का अपमान करना नहीं है
तो क्या है परन्तु इतनी सी बात बाणभट्ट समझ नहीं पाता। इतना ही नहीं कुमार
कृष्णवर्धन के बुलावे पर निपुणिका कहती है “भट्टिनी स्थाणवीश्वर जाएँगी; परन्तु वे
वहां किसी की अतिथि नहीं होंगी। उनका अपना स्वाधीन राज्य उनके साथ-साथ रहेगा।
लोरिकदेव को तुम इस बात पर राजी कर लो कि उनकी कम-से-कम एक सहस्त्र मल्ल-सेना
भट्टिनी की सेवा में नियुक्त रहे। स्थाणवीश्वर भट्टिनी उसी प्रकार रहेंगी जिस
प्रकार स्वतंत्र देश की रानी अपने राज्य में रहती है”6 राजनीति की
जितनी गूढ़ बातें बाणभट्ट सोच भी नहीं पाता उसे निपुणिका आसानी से कह देती है। राजसत्ता
के विरुद्ध आचरण करने पर निपुणिका को अपराधी बना दिया गया और इस अपराध के लिए उसे मृत्युदंड
मिलना निश्चित है। बावजूद इसके वह निडर है। वह घोषणा करती है कि भट्टिनी की रक्षा और
सेवा के लिए वह स्थाणवीश्वर अवश्य जाएगी। उसका प्रश्न है “किस अपराध पर कान्यकुब्ज
का लंपट शरण्य राजा मुझे फांसी देना चाहता है। अगर निउनिया को स्थाणविश्वर के व्यवहार में घसीटा गया तो वहाँ रक्त की नदी बह जाएगी।”7
वह भलीभांति समझती है कि महाराजा, म्लेच्छवाहिनी से कान्यकुब्ज की रक्षा करने के
लिए भट्टिनी के पिता तुवरमिलिंद से मित्रता करना चाहता है; इस लिए निपुणिका
भट्टिनी को निराश्रित अतिथि नहीं बल्कि रानी के रूप में स्थाणवीश्वर जाने को कहती है। निपुणिका को न केवल राजनीति की अच्छी
समझ है बल्कि वो दूरदर्शी भी है। आचार्य द्विवेदी बाणभट्ट के माध्यम से यह कहलवाने
में जरा भी संकोच नहीं करते की “हाँ निउनिया, भूल करता हूँ मैं और रास्ता निकालती
है तू”8
बाणभट्ट की आत्मकथा में भट्ट, भट्टिनी और निपुणिका के प्रेम का त्रिकोण है।
ये तीनों पात्र एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। एक-दूसरे के लिए त्याग करते हैं लेकिन
किसी के मन में अन्य के प्रति वैर-भाव नहीं है। प्रेम जो दो व्यक्तियों में फलता फूलता
है लेकिन बाणभट्ट की आत्मकथा में यह त्रिकोण कैसे सफल है? यह सवाल उठना स्वाभाविक है।
दरअसल मित्रता के प्रेम में बंधन नहीं होता। भट्ट, भट्टिनी और निपुणिका का प्रेम भी
मित्रता में ही फलता है। बाणभट्ट की मित्रता का अनुराग इन दोनों से है। निपुणिका भट्ट
का भट्टिनी के प्रेम अनुराग समझ गई इसलिए उसने अपने प्रेम का उत्सर्ग करना ही उचित
समझा। इसलिए बाणभट्ट की आत्मकथा में बाणभट्ट, भट्टिनी और निपुणिका का प्रेम, संयम और त्याग
की प्रतिमूर्ति के रूप में अनुपम स्थिति को छू गया है।
नमिता सिंह ने लिखा है, “हर्ष लिखित ‘रत्नावली’ का
मंचन करते हुए निपुणिका वासवदत्ता की भूमिका में उतरती है और अंतिम दृश्य में जिसे
सब उसका सर्वोत्तम अभिनय समझ रहे हैं; बाण उसके उन्मादित अभिनय से अभिभूत है; उसने
यह सिद्ध कर दिया है कि अभिनय में निहित हर्ष, शोक और प्रेम की उत्कृष्टता उसके जीवन
की वास्तविकता है। सारा जीवन वह अभिनय करती रही लेकिन अंतिम अभिनय में उसके जीवन का
अपना ही सत्य निहित था।”9
इस
उपन्यास की अन्य स्त्री पात्रों की तुलना में निपुणिका का व्यक्तित्व सबसे ज्यादा
प्रभावित करता है। वह मुखर है, साहसी
है, स्वाभिमानी है, बुद्धिमान है, उसकी
राजनीतिक समझ से बाणभट न केवल आश्चर्यचकित होता है बल्कि पूरे उपन्यास
में बाणभट्ट की शंका का निवारण निपुणिका ही करती है।
भट्टिनी
इस उपन्यास के केन्द्रीय पात्रों में से एक है। छोटे राजकुल के अन्तःपुर में कैद भट्टिनी
की मुक्ति और सुरक्षा ही इस उपन्यास का अभीष्ट है। चौथीराम यादव लिखते
हैं, “सवाल केवल एक भट्टिनी के उद्धार का नहीं है। सवाल केवल छोटे राजकुल के अन्तःपुर
में सौतों के उस भयानक जंगल का भी नहीं है जिसके सूने गलियारों को भरने के लिए न जाने
कितनी सुन्दर जिन्दगियों को कैद कर रखा गया है। सबसे बड़ा सवाल लाखों-करोड़ों की संख्या
में अकारण दंडित उस मानवता का है जो सामंती-पुरोहिती समाज व्यवस्था की दमन चक्की के
नीचे पिस रही है। इन सवालों से बाणभट्ट भी टकराते हैं किन्तु प्रभावशाली रूप में इस
बड़े सवाल को उठाया है भैरवी महामाया ने जो स्वयं राजकुल के अन्तःपुर की कैद से मुक्त
होकर भी सामाजिक मुक्ति के लिए अशांत बैठी हुई है। इस प्रश्न को एक व्यापक सामाजिक
सन्दर्भ देती हुई महामाया कहती है- “इस उत्तरापथ में लाख-लाख निरीह बहुओं और बेटियों
के अकारण और विक्रय का व्यवसाय क्या नहीं चल रहा?...क्या निरीह प्रजा की बेटियां उनकी
नयनतारा नहीं हुआ करती? क्या राजा और सेनापति की बेटियों का खो जाना ही संसार की दुर्घटनाएँ
हैं?”10 महामाय द्वारा उठाया हुआ सवाल आज भी प्रासंगिक है। इतिहास
साक्षी है कि युद्ध की विभीषिका में अकारण ही स्त्री को दंडित किया जाता रहा है।
बिना किसी दोष के सिर्फ स्त्री होने के कारण शारीरिक शोषण का शिकार होती आ रही है।
द्विवेदी जी ने लाखों निरीह बहु-बेटियों के इस शोषण के प्रश्न को गंभीरता से
रेखांकित किया है।
भट्टिनी
के इर्द-गिर्द ही उपन्यास की कहानी चलती
है। वह दूसरे देशों और जातियों के सामाजिक समीकरणों को जानती है; इसलिए सामाजिक जटिलताओं
और आडम्बरों के प्रति सहजता से बाण से बोल पाती है। आचार्य द्विवेदी ने इस उपन्यास
में बाणभट्ट को भट्टिनी के माध्यम से कहलवाया है, “यही देखो, तुम यदि किसी यवन-कन्या
से विवाह करो तो इस देश में यह भयंकर सामाजिक विद्रोह माना जाएगा। परन्तु यह क्या सत्य
नहीं है कि यवन कन्या भी मनुष्य है और ब्राह्मण युवा भी मनुष्य है! महामाया जिन्हें
म्लेच्छ कहती है वे भी मनुष्य हैं।...क्यूँ भट्ट, क्या यह नहीं हो सकता कि ऊँची भारतीय
साधना उन तक पहुंचाई जा सके और निकृष्ट सामाजिक जटिलता यहाँ से हटाई जा सके।”11
उपन्यास के किसी पुरुष पात्र में यह चेतना नहीं दिखाई पड़ती। वह जाति, वर्ण, धर्म, राष्ट्रीयता से ऊपर मनुष्यता को स्थापित करती है। यह विश्व कल्याण की दृष्टि है जहाँ कोई पराया
नहीं है सब अपने हैं। भट्टिनी के माध्यम से द्विवेदी जी सामाजिक सौहार्द्र के लिए रोटी-बेटी
के संबंध की बात करते हैं, उसकी प्रासंगिगता
आज भी बनी हुई है।
रमेश कुंतल मेघ का मानना है, “महामाया और भट्टिनी दोनों ही समाज दर्शन प्रस्तुत
करती हैं किन्तु भट्टिनी का समाज दर्शन मानव-चित्त के उन्मेष तथा समन्वयवाद पर आधारित
है जबकि महामाया का समाज दर्शन मानव कर्म के मंगल और क्रांतिवाद पर आधारित है।”12
महामाय
अपने आप को अपमानित, लांछित और अकारण दंडित की गई बेटियों का प्रतिनिधि मानती
है और राजाओं के अंत:पुर में चल रहे घृणित
व्यवसाय का पोल खोलती हुई कहती है “मैं तुम्हारे देश की लाख-लाख अपमानित, लांक्षित
और अकारण दंडित बेटियों में से एक हूँ। कौन नहीं जनता कि इस घृणित व्यवसाय के प्रधान
आश्रय सामंत और राजाओं के अन्तःपुर हैं? आप में से किसे नहीं मालूम है कि महाराजाधिराज
की चामरधारिणीयाँ और करंकवाहिनियाँ इसी प्रकार भगाई हुई और खरीदी हुई कन्याएँ हैं?”13
महामाया निडर है
सत्य चाहे कितना भी कटु क्यों न हो, वो कहने से नहीं डरती। मलेच्छवाहिनी के आक्रमण
के भय से समाज के प्रबुद्धजन महाराजा से प्राण रक्षा की बात करना चाहते हैं, तभी
महामाया सिंहिनी की भांति गरज उठती
है “मैं मृत्यु से नहीं डरती। आप मेरी गर्दन
उड़ा दे सकते हैं; परन्तु
सत्य कहने से मुझे नहीं रोक सकते।... आप कहते हैं कि उत्तरापथ के ब्राह्मण और श्रमण, वृद्ध और बालक, बेटियाँ और बहुएँ किसी प्रचंड नरपति-शक्ति की छाया
पाए बिना नहीं बच सकती। आर्य सभासदों, उत्तरापथ के लाख-लाख नौजवानों ने क्या
कंकण-कलय धारण किया है? क्या
वे वृद्धों और बालकों, बेटियों
और बहुओं, देवमन्दिरों और विहारों
की रक्षा के लिए अपने प्राण नहीं दे सकते? क्या इस देश के विद्वानों में स्वतन्त्र
संघटन-बुद्धि का विलोप हो गया है?...
धिक्कार है आप सभासदो, जो
उत्तरापथ के विद्वान् और शीलवान् नागरिक इन राजाओं का मुँह जोह रहे हैं! मैं पूछती
हूँ, यदि महाराजाधिराज ने
आपकी प्रार्थना का प्रत्याख्यान कर दिया, तो आप क्या करेंगे? आप लोगों में से कौन
नहीं जानता। महाराजाधिराज स्वयं शुद्ध-शील होकर भी सैकड़ों ऐसे सामन्तों को आश्रय दिए
हुए हैं,
जिनका एकमात्र प्रताप कन्याहरण में ही प्रकट होता है! आर्य सभासदो,
यदि मैं असत्य कहती हूँ, तो मेरे इस त्रिशूल से
मेरा खंड-खंड कर दो।"14
महामाया यहीं नहीं रूकती, निराश जनता के मन में
आशा का संचार करती हुई कहती है "अमृत के पुत्रों, मृत्यु का भय माया है, राजा से भय दुर्बल-चित्त का विकल्प है। प्रजा ने राजा की सृष्टि की है। संघटित
होकर, म्लेच्छवाहिनी का सामना करो। देवपुत्रों और महाराजाधिराजों
की आशा छोड़ो। समस्त उत्तरापथ की लाज तुम्हारे हाथों में है।... अमृत के पुत्रो,
धर्म की रक्षा अनुनय-विनय से नहीं होती, शास्त्रवाक्यों
की संगति लगाने से नहीं होती; वह होती है अपने को मिटा देने से।
न्याय के लिए प्राण देना सीखो, सत्य के लिए प्राण देना सीखो,
धर्म के लिए प्राण देना सीखो। अमृत के पुत्रो, मृत्यु का भय माया है! "एक सहस्र कंठों ने दीर्घदीर्घायित स्वर में प्रतिध्वनि
की, ‘मृत्यु का भय माया है!’ दुर्द्धर्ष म्लेच्छवाहिनी का सामना
राजपुत्रों की वेतनभोगी सेना नहीं कर सकेगी। क्या ब्राह्मण और क्या चांडाल, सबको अपनी बहू-बेटियों
की मान-मर्यादा के लिए तैयार होना होगा। मैं भविष्य देख रही हूँ। अमृत के पुत्रों, बड़ा दुर्घट काल उपस्थित
है। राजाओं, राजपुत्रों
और देवपुत्रों की आशा पर निश्चेष्ट बने रहने का निश्चित परिणाम पराभव है। प्रजा में
मृत्यु का भय छा गया है, यह
अशुभ लक्षण है। अगर तुम आर्यावर्त को बचाना चाहते हो, तो प्राण देने के लिए
तत्पर हो जाओ। धर्म के लिए प्राण देना किसी जाति का पेशा नहीं है, वह मनुष्य-मात्र का उत्तम
लक्ष्य है।”15
आचार्य द्विवेदी जी ने इस उपन्यास में अनेक ऐसे सवाल
उठाए हैं जो हर्षकालीन समाज में स्त्री की दयनीय स्थिति को प्रकट करते हैं। जिस समाज
में राजकुल की बेटियों का अपहरण हो रहा हो, उस समाज में सामान्य नारी का क्या हश्र
हो रहा होगा? यह सोचने वाली बात है कि उस पतनशील समाज में मानवीय मूल्य किस स्तर तक
बचे होंगे? आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी बाणभट्ट
की आत्मकथा में स्त्री पात्रों को लेकर काफी सजग हैं। वह स्त्री को देवी, भगवती, महामाया
और त्रिपुर भैरवी की तरह दिव्यात्मा मानते हैं। आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों में नारी
का सम्मान बहुत है लेकिन देखने वाली बात यह है कि उनकी दृष्टि समाज में व्याप्त सामाजिक
व्यवस्था के विरुद्ध नारी की स्थिति पर विचार करना नहीं चाहती?
बाणभट्ट की आत्मकथा पर विचार करते हुए रोहिणी
अग्रवाल लिखती हैं, “आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि
उनकी अभिजात मनोवृत्ति सामाजिक व्यवस्था की क्रूरता से संत्रस्त सामान्य स्त्री पात्रों
की नियति पर विचार करना ही नहीं चाहती। दरअसल व्यवस्था की क्रूरता उन्हें दिखाई ही
नहीं पड़ती। बेशक वे जानते हैं कि शहर में गणिकाएँ हैं, मंदिरों में देवदासियाँ हैं,
राह चलती बालाओं को अपह्रत करते दस्यु हैं, यौन हिंसा से सभी वर्गों की कन्याओं में
भ्रम फैलाते लम्पट अभिजन हैं, जहां-तहां शार्विलक के अड्डे हैं जिनमें दिन-दहाड़े कन्याओं
की खरीद फरोख्त होती है और घरों में एक अलग तरह का उत्पीड़न झेलती विधवाएँ हैं जिन्हें
घर की तुलना में सड़कें अधिक निरापद जान पड़ती हैं।”16 अब सवाल यह है, क्या
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी उपर्युक्त सारी समस्याओं को देखकर भी मौन हैं? या फिर
मध्यकालीन घटनाक्रम को सामने रखकर स्त्री की समस्याओं से वर्तमान समाज को अवगत कराना
चाहते हैं?
इस पूरे उपन्यास में एक बात साफ है कि नारी चरित्रों
में विशेषकर निपुणिका, भट्टिनी, महामाया, सुचरिता अथवा चारुस्मिता के माध्यम से नारी
जीवन के आतंरिक मन की गुत्थियों को प्रेषित किया गया है। इस उपन्यास में भट्टिनी, निपुणिका,
महामाया और सुचरिता सभी स्त्रियाँ सामाजिक रूप से शोषण का शिकार हैं। इन सब के शोषण
के रूप अलग-अलग हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि अन्दर से सभी की पीड़ा एक जैसी है।
नमिता सिंह लिखती हैं,
“आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस उपन्यास के माध्यम से संभवतः नारी चरित्रों की उदात्तता
को स्थापित कर परंपरागत सामंती समाज में नारी को मात्र देह गाथा से मुक्त कर उसे पुरुष
समाज की शक्ति तथा प्रेरणा के स्रोत के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। इसलिए निपुणिका
का परिचय देते हुए लेखक का यह कथन दृष्टव्य है कि ‘जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा
माना जाता है उनमें एक दैवीय शक्ति भी होती है’।”17 दरअसल यह शक्ति आचार्य
द्विवेदी के संघर्षशील पात्रों में अक्सर देखने को मिलती है। वह संघर्षशील पात्रों
को सजीव रूप प्रदान करने के लिए यथार्थ की जड़ताओं के विरुद्ध विद्रोह कराते हैं। यह
उन्होंने इस उपन्यास में भी किया है। शायद इसलिए राधावल्लभ त्रिपाठी ने लिखा
है, “द्विवेदी जी स्त्री के भीतर पुरुष और पुरुष के भीतर विराजमान स्त्री का दर्शन
करने वाले विरले रचनाकार हैं।”18
निष्कर्ष : बाणभट्ट की आत्मकथा मध्यकालीन सामंती जड़ता के विरुद्ध स्त्री चेतना का बृहद आख्यान है। उपन्यास का मुख्य पात्र बाणभट्ट के होने के बावजूद बृहद स्तर पर सामंती समाज में स्त्री की स्थिति को विविध रूप में दिखाया गया है। इस उपन्यास में एक ओर क्लासिक रोमांटिक एवं औदात्य का संयम, मध्यकालीन मूल्यों के प्रति जड़ता तथा उससे बाहर निकलने की छटपटाहट है तो दूसरी ओर स्त्री के सवालों में विचारों की स्पन्दचेतना को सृजनात्मकता के साथ प्रकट करने की उत्कंठा भी है। अपनी सारी सीमाओं के बाद भी इस उपन्यास में स्त्री प्रसंग को जैसे रेखांकित किया गया है, वो उपन्यास के रचनाकाल के हिसाब से श्लाघनीय है।
1. द्विवेदी हजारीप्रसाद (2023), बाणभट्ट की आत्मकथा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 24
2. वही, पृष्ठ सं. 24
3. वही, पृष्ठ सं. 241
4. वही, पृष्ठ सं. 241
5. वही, पृष्ठ सं. 216
6. वही, पृष्ठ सं. 230
7. वही, पृष्ठ सं. 230
8. वही, पृष्ठ सं. 230
9. मधुरेश,(सं) (2015) बाणभट्ट की आत्मकथा पाठ और पुनर्पाठ,आधार प्रकाशन, हरियाणा पृष्ठ सं.282
12. मधुरेश,(सं) (2015) बाणभट्ट की आत्मकथा पाठ और पुनर्पाठ,आधार प्रकाशन, हरियाणा पृष्ठ सं.162
14. वही, पृष्ठ सं. 192
15. वही, पृष्ठ सं. 192
16. मधुरेश,(सं) (2015) बाणभट्ट की आत्मकथा पाठ और पुनर्पाठ,आधार प्रकाशन, हरियाणा पृष्ठ सं.43
18. त्रिपाठी राधावल्लभ (सं.) (प्रथम संस्करण : 2001) हजारीप्रसाद द्विवेदी संचयिता, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नयी दिल्ली, पृष्ठ संख्या-56.
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
9821253602, omsahjnu@gmail.com
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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