प्रवासी हिन्दी कहानियों में सेक्सुएलिटी
- तरुण
कुमार
शोध
सार : जब से
इस
सृष्टि
पर
मनुष्य
का
जन्म
हुआ
है
तब
से
वह
कुछ
चीज़ों
की
तलाश
में
है
जिनमें
सबसे
महत्त्वपूर्ण
है
खाना,
पानी,
सुरक्षा
और
प्रेम।
इस
प्रेम
के
कई
रूप
हैं
जैसे-
स्त्री-पुरुष
का
प्रेम,
स्त्री-स्त्री
का
प्रेम
और
पुरुष-पुरुष
का
प्रेम
इत्यादि।
भारतीय
समाज
में
प्रत्यक्ष
रूप
से
एक
ही
रूप
प्रचलित
है
‘स्त्री-पुरुष का
प्रेम’।
इसके
अलावा
अन्य
प्रेम
स्वरूपों
को
कई
कारणों
से
उपेक्षित
रखा
जाता
है।
इस
बात
में
कोई
संदेह
नहीं
है
कि
हमारे
समाज
में
यौनिकता
की
बातों
को
नैतिकता
की
चादर
ओढ़ाकर
प्रस्तुत
किया
जाता
है।
भारत
में
एलजीबीटी+ समुदाय के
लोगों
का
एक
बड़ा
तबका
मौजूद
है।
एलजीबीटी+
प्राइड
2021 में हुए वैश्विक
सर्वेक्षण
के
अनुसार
भारत
की
कुल
आबादी
का
3% (4 करोड़ से अधिक)
हिस्सा
उन
लोगों
का
है
जो
समलैंगिक
हैं।
ये
केवल
दर्ज
संख्या
है
वास्तव
में
अनुमानित
संख्या
बहुत
अधिक
है
क्योंकि
बहुत
से
ऐसे
लोगों
ने
खुद
को
समाज
के
डर
से
दर्ज
नहीं
कराया।
कोई
व्यक्ति
स्वयं
के
विषय
में
क्या
सोचता
है,
अपने
शरीर
के
बारे
में
कैसा
महसूस
करता
है
और
दूसरे
व्यक्ति
के
बारे
में
क्या
सोचता
है,
कैसा
व्यवहार
करता
है,
मुख्यतः
इसीसे
उसकी
लैंगिकता
(Sexuality) निर्धारित होती
है।
बीज
शब्द : लैंगिकता,
सेक्शूऐलिटी,
समलैंगिकता,एलजीबीटी+, यौनिकता, क्वीर
विमर्श,
थर्ड
जेंडर, ट्रान्सजेन्डर, यौन
अस्मिता, प्रवासी साहित्य
आदि।
मूल
आलेख : लैंगिकता
(Sexuality) को लेकर
वर्तमान
भारत
में
जो
परंपरागत
मान्यताएँ
हैं
ये
हमेशा
से
नहीं
थी,
कई
विशेष
परिस्थितियों
के
कारण
इनका
जन्म
हुआ।
हिंदू
पौराणिक
कथाओं
महाभारत,
रामायण
आदि
में
लगातार
हमें
ऐसे
संकेत
मिलते
हैं
जो
एलजीबीटी+ समुदाय की
ओर
इशारा
करते
हैं।
इन
कथाओं
में
हमें
ऐसे
पुरुष
मिलते
हैं
जो
स्त्री
बन
गए,
ऐसी
स्त्रियाँ
जो
पुरुष
बन
गईं।
ऐसी
स्त्रियाँ
जिन्होनें
पुरुषों
के
सहयोग
के
बिना
बच्चे
को
जन्म
दिया।
ऐसे
पुरुष
जिन्होंने
बिना
स्त्री-योगदान
के
बच्चे
को
जन्म
दिया।
हालाँकि
कई
कथाओं
में
ऐसे
जीवधारियों
का
भी
ज़िक्र
है,
जिनमें
दो
अलग-अलग
जीवधारियों
का
थोड़ा-थोड़ा
अंश
है,
जैसे-
‘मकर’ और ‘यलि’।
‘मकर’ जिसका आधा
शरीर
मछली
का
है
और
आधा
शरीर
हाथी
का।
‘यलि’ का शरीर
शेर
और
हाथी
के
योग
से
बना
दिखाई
देता
है।1 कांचीपुरम,
तिरुवनंतपुरम,
कोणार्क
और
खजुराहो
जैसे
भारत
के
मंदिरों
की
दीवारों
पर
समलिंगी
सम्भोग
की
छवियाँ
मिलती
है
जो
तत्कालीन
लैंगिक
दृष्टिकोण
की
ओर
इशारा
करती
है।
तारसप्तक
की
भूमिका
में
अज्ञेय
लिखते
हैं
“आधुनिक युग
का साधारण
मनुष्य यौन-वर्जनाओं
का पुंज
है… आज
के मानव
का मन
यौन-परिकल्पनाओं
से लदा
हुआ है,
और वे
कल्पनाएँ दमित
हैं, कुंठित
हैं।”2
बचपन
से
हमारी
परवरिश
एक
ऐसे
वातावरण
में
की
जाती
है
जहाँ
अपनी
इच्छाओं
तथा
यौन
भावनाओं
को
दबाना
एक
बड़ी
उपलब्धि
मानी
जाती
है।
एलजीबीटी+
हमारे
समाज
का
ऐसा
उपेक्षित
वर्ग
है
जो
समाज
की
पारंपरिक
मानसिकता
से
पीड़ित
हैं।
तेजेंद्र
शर्मा
द्वारा
रचित
कहानी
'होमलेस' की स्टेला
और
एंजेला
जो
समलैंगिक
औरतें
(Lesbian) हैं। स्टेला
पति
के
हिंसक
व्यवहार
से
पीड़ित
और
एंजेला
परिवार
में
उपेक्षित
होने
के
कारण
एक
दूसरे
के
प्रति
आकर्षित
होती
हैं।
अपने
सम्बन्ध
को
लेकर
एंजेला
कहती
है
“हमें आज
पता चला
है कि
अपनी खुशी
के लिए
हमें किसी
‘आदमी’ की
ज़रूरत नहीं
है। हम
दोनों अपने
आप में
संपूर्ण हैं।”3
अर्चना
पैन्यूली
की
कहानी
'मैं लड़का हूँ'
में
भी
इवान
जो
कि
एक
ट्रांस
(Drag Queen) है, उसके
आस-पास
के
ही
लोग
उसे
अनुचित
संबोधन
से
लज्जित
अनुभव
कराते
हैं
“मतलब ट्रांस?
हिजड़ा? छक्का?
वे उसकी
खिल्ली उड़ाते
थे।”4
लैंगिक अल्पज्ञान
के
कारण
इस
प्रकार
की
प्रतिक्रियाएँ
देखने
को
मिलती
हैं।
आज
का
समाज
केवल
स्त्री
और
पुरुष
का
समाज
नहीं
है
हमें
ये
बात
स्वीकार
करते
हुए
प्रकृति
के
विविध
आयाम
और
विस्तार
को
समझने
की
आवश्यकता
है।
प्रवासी
कहानियों
में
जहाँ-जहाँ
समलैंगिकता
की
बात
आती
है,
वहाँ
पर
विशेष
प्रकार
की
एक
लैंगिक-आत्मनिर्भरता
दिखाई
देती
है।
ये
कहानियाँ
इस
बात
पर
प्रश्नचिह्न
लगाती
हैं
कि
क्या
हमारा
समाज
इस
बात
को
स्वीकार
कर
सकता
है
कि
किसी
स्त्री
का
जीवन
बिना
पुरुष
या
किसी
पुरुष
का
जीवन
बिना
स्त्री
के
चल
सकता
है?
पर
वास्तव
में
ऐसा
है।
अरुणा
सब्बरवाल
की
कहानी
'क्लब क्रॉलिंग'
में
रॉबर्ट
नामक
समलैंगिक
(Gay) पात्र है, जो
जीवन
में
लड़की
की
ज़रूरत
महसूस
नहीं
करता।
तेजेंद्र
शर्मा
की
कहानी
‘होमलेस’ में स्टेला
और
एंजेला
जीवन
में
पुरुष
के
न
होने
से
खुश
हैं।
इससे
एक
बात
स्पष्ट
हो
जाती
है
कि
‘क्वीर’ हमारे समाज
का
वह
वर्ग
है
जिसकी
यौन
प्राथमिकताएँ
हमारी
पारंपरिक
सोच
से
अलग
हैं।
ट्रांस आधारित
कहानियों
को
परंपरागत
बुद्धिजीवी
की
दृष्टि
से
देखने
पर
एक
भिन्न
प्रकार
का
निहितार्थ
मिलता
है।
एक
ओर
अर्चना
पैन्यूली
की
कहानी
'मैं लड़का हूँ'
है
तो
दूसरी
ओर
अरुणा
सब्बरवाल
की
कहानी
'आख़िरी धागा'।
पहली
कहानी
की
पात्र
इड़ा
और
दूसरी
कहानी
का
पात्र
विलियम
दोनों
अपने
शरीर
से
विपरीत
महसूस
करते
हैं,
दोनों
ही
विपरीत-लिंगी
वेशधारक
(Cross Dresser) हैं। इस
संबंध
में
अरुणा
सब्बरवाल
लिखती
हैं
“इंसान शरीर
से महिला
होते हुए
भी दिमाग़
से पुरुष
हो सकते
हैं और
शरीर से
पुरुष होते
हुए भी
दिमाग़ से
महिला हो
सकते हैं।
….बच्चे का
लिंग उसके
शरीर से
अधिक उसके
दिमाग़ में
होता है।”5
पर
हैरानी
की
बात
तब
सामने
आती
है
जब
हम
ये
देखते
हैं
कि
विलियम
लड़की
के
वस्त्र
पहनना
चाहता
है
पर
समाज
के
बीच
असहज
महसूस
करता
है।
दूसरी
और
इड़ा
लड़को
के
कपड़े
पहनने
में
बिलकुल
असहज
महसूस
नहीं
करती।
विलियम
जानता
है
कि
पुरुष
प्रधान
समाज
उसे
लड़की
के
कपड़ो
में
स्वीकार
नहीं
करेगा।
इस
प्रकार
लैंगिकता
के
ऊपर
भी
पितृसत्ता
(Heteropatriarchy) का प्रभाव
हम
लक्षित
कर
सकते
हैं।
'होमलेस'
कहानी
में
एंजेला
और
स्टेला
दोनों
अकेलेपन
से
ग्रस्त
होने
के
कारण
एक-दूसरे
के
प्रति
आकर्षित
होती
हैं।
'क्लब क्रोलिंग'
का
रॉबर्ट
रईस
सुविधा
संपन्न
होने
के
बाद
भी
आलीशान
महंगे
घर
में
अकेले
जिंदगी
जीने
के
लिए
विवश
है।
'आख़िरी धागा' का
पात्र
विलियम
कहता
है
“आसपास लोग
होते हुए
भी कोई
इंसान कितना
अकेला होता
है आप
भी जानती
हैं। खुद
को धोखा
देने के
लिए खोल
चढ़ा रखा
है।”6
एलजीबीटी+
समुदाय
के
सन्दर्भ
में
यह
यथार्थ
है
कि
एकाकीपन
से
ग्रस्त
जीवन
जीने
के
लिए
ये
वर्ग
बाधित
है।
प्रवासी
रचनाकारों
द्वारा
कहानियों
में
कई
ऐसे
पात्र
रचे
गए
हैं,
जो
इस
प्राकृतिक
व्यवहार
और
यौन
आकर्षण
को
समझने
का
प्रयास
करते
हैं।
'होमलेस' कहानी में
बाजी
भारतीय
पात्र
है
जो
एंजेला
और
स्टेला
के
संबंध
को
समझने
का
प्रयास
करती
है
और
उन्हें
प्रोत्साहन
देती
है।
अरुणा
सब्बरवाल
की
कहानी
'क्लब क्रोलिंग'
में
चार
व्यक्ति
कर्ण,
एश,
जस्सी
और
थॉमस,
जो
बचपन
से
मित्र
रहें
हैं,
बड़े
होते
हैं
तो
एक
दिन
क्लब
क्रोलिंग
के
दौरान
‘गे क्लब’ जाते
हैं
तब
उन्हें
पता
चलता
है
कि
उनमें
से
एक
दोस्त
थॉमस
समलैंगिक
है
इसपर
दोस्तों
की
प्रतिक्रिया
घृणात्मक
नहीं
होती।
संवेदनशीलता
दिखाते
हुए
जस्सी
कहता
है
“थॉमस, मेरा
तो दिल
तेरे लिए
रोता है।
मैं तो
नृत्य मुखौटा
चढ़ाकर थोड़ी
देर में
दुखी हो
जाता हूँ
और तू
चौबीस घंटे
मुखौटा चढ़ाकर
कब तक
जिएगा ये
दोहरा जीवन।”7
सब्बरवाल
की
कहानी
'आख़िरी धागा' में
विलियम
आत्मप्रकटीकरण
(Come
Out) करता है “…तुम्हारा
दोस्त एक
ड्रैग-क़्वीन(Drag
Queen) (पुरुष जो
अक्सर गे
होते हैं
व औरतों
के भेष
में मंच
पर नाटक
करते हैं)
और एक
ट्रांसवेस्टायेट
(Transvestite, Cross Dresser) (जो
पुरुष स्त्री
का लिबास
पहनता हो)
है। सॉरी
डियर…”8 इसके बाद
भी
उसकी
मित्र
शीला
उसकी
भावनाओं
का
सम्मान
करते
हुए
उसकी
दोस्त
बनी
रहती
है।
पैन्यूली
की
कहानी
'मैं लड़का हूँ'
में
इड़ा(Transgender)
को
अच्छे
से
उसकी
सौतेली
माँ
जूलिया
समझती
है।
यौन-परिवर्तन
की
दर्दनाक
वर्षो
की
प्रक्रिया
तक
माँ
जूलिया
उसके
साथ
रहती
है।
साथ
ही
इड़ा
के
पिता
मार्टिन
शुरुआत
में
इस
स्थिति
को
समझ
नहीं
पाते
वो
कहते
हैं
“तेरे दिमाग़
में विकार
घुस गया
है। तुम
टीनएजर पता
नहीं क्या-क्या
इंटरनेट पर
पढ़ते रहते
हो, इतने
सनकी हो
जाते हो
कि अपना
लिंग बदलने
पर उतारू
हो जाते
हो।”9
पर
कथा
के
अंत
में
सब
ये
देखकर
खुश
होते
हैं
कि
इड़ा
अब
इवान(इच्छा
के
अनुरूप
लड़का)
बन
गया
है।
उसके
पास
अब
नौकरी
भी
है
और
उसीके
जैसा
एक
जीवन
साथी
भी।
ऐसा
नहीं
है
कि
इड़ा
के
पिता
मार्टिन
ही
केवल
ऐसे
व्यक्ति
हैं
जो
एलजीबीटी+ समुदाय को
मानसिक
विकार
के
तौर
पर
लेते
हैं।
भारत
में
भी
ऐसे
कई
बुद्धिजीवी
लोग
हैं
जो
ये
दावा
करते
हैं
कि
समलैंगिकों
को
सामान्य
बनाया
जा
सकता
है।
प्रवासी
रचनाकार
जहाँ
एक
और
तथाकथित
पारम्परिक
सोच
रखने
वाले
पात्र
अपनी
कहानियों
में
दिखा
रहे
हैं
वही
दूसरी
ओर
ऐसे
पात्र
भी
रख
रहे
हैं
जो
पाठक
को
नयी
दृष्टि
प्रदान
करने
में
मदद
करें।
प्रवासी
कहानियों
में
देखने
को
मिलता
है
कि
सामान्यतः
स्त्रियों
की
तुलना
में
पुरुष
यौन
जीवन
को
लेकर
चिंतित
नहीं
रहते।
समाज
इतना
उदार
है
कि
वो
आसानी
से
विवाहेत्तर
यौन
संबंध
बना
लेते
हैं।
जब
बात
स्त्रियों
की
आती
हैं
तो
उनको
मानसिक
द्वंद्व
से
गुज़रना
पड़ता
है।
सुधा
ओम
ढींगरा
की
कहानी
'क्षितिज से परे'
में
पात्र
सारंगी
शारीरिक
माँग
पूरी
ना
होने
के
कारण
कहती
है
“भीतर की
औरत के
उमड़ते संवेगो
को दबाकर
संस्कारों में
बँधी चलती
रही। वे
तो अपने
आपको संतुष्ट
कर लेते
थे। तड़पती
तो मैं
रहती थी।…
प्रकृति जब
मजबूर करती
तो ठंडे
पानी के
शवर में
खड़ी होकर
देह शांत
करती.”10
तेजेंद्र
शर्मा
की
कहानी
'कल फिर आना'
में
घटित
बालात्कार
देखते
ही
देखते
यौन-सुख
में
बदल
जाता
है
इसके
पीछे
का
कारण
रीमा
की
दबी
हुई
यौन
कुंठा
ही
थी,
जिसको
उसके
पति
ने
उपेक्षित
किया
था।
हमें
विचार
करना
चाहिए
कि
क्या
हमारे
आसपास
ऐसे
लोग
हैं
जो
अपनी
माँ,
पिता,
ससुर
आदि
के
जीवन
साथी
के
अभाव
में
उन्हें
नया
जीवन
साथी
खोजने
के
लिए
प्रोत्साहित
करते
हैं?
प्रवासी
कहानियों
में
ये
प्रोत्साहन
स्पष्ट
रूप
से
नज़र
आता
है।
सुमन
कुमार
घई
की
कहानी
'स्वीटडिश' में
बहू
सास
की
मृत्यु
होने
के
बाद
अपने
ससुर
विजय
को
डेट
पर
जाने
के
लिए
ज़ोर
देती
है।
विजय
कहीं
न
कहीं
द्वंद्व
में
रहता
है
“इस आयु
में एक
अकेले इंसान
की भावनाओं
को, इस
उम्र का
इंसान ही
समझ सकता
है और
हमारा समाज
और संस्कृति
तो इस
ओर देखना
ही नहीं
चाहती”11
पर बच्चों
के
प्रोत्साहन
से
वह
अपना
जीवन
जीने
का
निर्णय
लेता
है।
स्नेह
ठाकुर
की
कहानी
'पहली डेट' में
एक
बेटी,
माता-पिता
के
तलाक
के
बाद
माँ
को
नये
व्यक्ति
के
साथ
डेट
पर
जाने
के
लिए
अपने
हाथों
से
उन्हें
तैयार
करती
है।12 ऐसा
नहीं
है
कि
बच्चे
ही
अपने
बड़ो
को
यौन
जीवन
जीने
की
आज़ादी
देते
हैं
बल्कि
तेजेंद्र
शर्मा
की
कहानी
'इंतज़ाम' में एक
माँ
अपनी
बेटी
के
यौन
सुख
का
प्रबंध
खुद
से
करती
है।13 प्रवासी
कहानियों
में
ये
प्रवृत्तियाँ
इसलिए
नज़र
आती
है
क्योंकि
वास्तव
में
वहाँ
स्थितियाँ
ऐसी
हैं।
भारत
में
यौनिकता
को
लेकर
इस
प्रकार
की
कहानियाँ
नगण्य
हैं।
सुमन कुमार
घई
की
कहानी
'स्वीट डिश' और
'पगड़ी' में पात्र
यौन
सुख
और
एक
जीवन
साथी
की
महत्त्वाकांक्षा
रखते
हैं।
'स्वीट डिश' कहानी
में
अपने
परिवार
द्वारा
प्रोत्साहन
मिलने
पर
विजय
समाज
व
मर्यादा
की
सीमा
को
पार
कर
जाता
है।
पर
‘पगड़ी’ कहानी का
हरभजन
ये
सीमा
नहीं
लाँघ
पाता।
हरभजन
अपने
यौन
सुख
के
लिए
'स्ट्रिपटीज़' देखने
जाता
है
पर
वहाँ
से
भाग
आता
है।
तथाकथित
संस्कृति,
समाज
और
परिवार
की
जड़े
उसके
दिमाग
में
इतनी
गहरी
हैं
कि
जब
मंच
पर
फिरंगी
लड़की
आती
है
तो
उसकी
कामुकता
चरम
छूने
को
होती
है
पर
जैसे
ही
एक
भारतीय
लड़की
आती
है
तो
उसका
सारा
नशा
उतर
जाता
है।
उसे
उस
लड़की
में
अपने
समाज
में
से
ही
किसी
की
पोती
होने
की
छवि
दिखाई
देती
है।
इसी
कहानी
में
हरभजन
का
मित्र
बचन
सिंह
है।
बचन
सिंह
अपने
जीवन
को
समाज
की
सोच
से
दूर
जाकर
जीता
है।
बचन
सिंह
कहता
है
“भजन याद
है बचपन
में बुज़ुर्ग
कहा करते
थे कि
जिसने लाहौर
नहीं देखा
वह जन्मा
ही नहीं”14
यहाँ
बचन
सिंह
लाहौर
को
‘काम जीवन’ (स्ट्रीप
टीज़)
भावना
के
रूप
में
देखते
हुए
जीवन
में
सेक्स
की
सार्थकता
को
कहीं
न
कहीं
सिद्ध
करने
का
प्रयास
करता
है।
प्रवासी
कहानियाँ
यौन
जीवन
के
महत्त्व
को
समझने
का
प्रयास
करती
हैं
साथ
ही
समाज
और
संस्कृति
की
खाल
को
उतार
कर
जीवन
साथी
के
अभाव
में
व्यक्ति
के
बचे
हुए
यौन
जीवन
के
अन्वेषण
हेतु
प्रोत्साहन
देती
है।
प्रवासी कहानियों
में
यौनिकता
के
प्रति
पश्चिमी
समाज
का
उदार
व्यवहार
तो
झलकता
है
पर
साथ
हीवहाँ
के
समाज
की
कुरूपता
भी
हमें
देखने
को
मिलती
है।
कई
कहानियाँ
ऐसी
है
जहाँ
सेक्स
की
सीमा
का
अतिक्रमण
दिखाई
देता
है।
जाकिया
ज़ुबैरी
की
कहानी
'मारिया' में एक
पंद्रह
वर्ष
की
लड़की
मारिया
गर्भवती
हो
जाती
है।
'मारिया' के गर्भधारण
का
कारण
उसकी
माँ
का
साथी
होता
है।15 'मैं
तुम्हे
जानता
हूँ'
कहानी
में
चौदह
वर्ष
की
लड़की
गर्भवती
हो
जाती
है,
उसके
नवजात
शिशु
को
देश
के
निर्धारित
नियम
के
अनुसार
गोद
लेने
के
लिए
दे
दिया
जाता
हैं।16 घई
की
कहानी
'लाश' में जिस
लड़की
को
कुछ
समय
तक
सामने
वाले
व्यक्ति
को
भाई
मानने
को
कहा
जाता
है,
बाद
में
उसी
से
शादी
करा
दी
जाती
है।
'उसने सच कहा
था'
में
जैनी
नाम
की
बच्ची
10 वर्ष की आयु
में
अपने
पिता
द्वारा
बलात्कार
की
शिकार
होती
है।17 यहाँ
एक
चीज़
ध्यान
देने
वाली
है
कि
भारत
में
भी
94.6% बलात्कार पीड़ित/
जीवित
लोग
आरोपी
को
जानते
थे।18 उनके
साथ
जबरन
संबंध
बनाने
वाले
उनके
आसपास
के
लोग
या
रिश्तेदार
ही
थे।
अतः
जो
घटनाएँ
भारत
में
होती
हैं
वो
कहीं
ना
कहीं
बाहरी
देशों
में
भी
होती
हैं
इसकी
झलक
हम
प्रवासी
कहानियों
में
देख
सकते
हैं।
निष्कर्ष
:
भारतीय हिन्दी
साहित्य
में
केंद्रीय
विमर्श
के
रूप
में
अभी
‘क्वीर या एलजीबीटी+
विमर्श’
की
गणना
नहीं
की
जाती।
हालाँकि
भारत
में
भी
क्वीर
सम्बन्धी
लेखन
अब
शुरू
हो
चुका
है।
कई
भारतीय
रचनाकारों
ने
अपनी
कहानियों
में
इस
विषय
को
केंद्र
में
रखा
है।भारत
में
एलजीबीटी+ समुदाय को
लेकर
सामान्यतः
लोगों
की
उदासीन
प्रतिक्रिया
रही
है।
इस
वर्ग
की
स्थिति
केवल
क़ानूनी
परिवर्तन
(अनुच्छेद 377 के
हटने)
से
ही
नहीं
सुलझेगी।
लोगों
को
भी
अपने
विचारों
पर
प्रश्नचिह्न
लगाने
की
आवश्यकता
है।
इस
सन्दर्भ
में
प्रवासी
रचनाकारों
को
पढ़ने
से
भारत
का
पाठक
वर्ग
लाभान्वित
होगा
इसमें
कोई
संदेह
नहीं
है।
पश्चिमी
देश
हमेशा
से
आधुनिकता
के
सन्दर्भ
में
आगे
रहें
हैं।
हालाँकि
सभी
क्षेत्रों
में
उनका
अनुकरण
नहीं
किया
जा
सकता
पर
हम
इस
बात
को
अस्वीकार
भी
नहीं
कर
सकते
कि
मानवता
के
बीच
पनपे
भेद
को
सबसे
पहले
उन्होंने
दूर
किया
है।
हमारे
लिए
ये
बहुत
गर्व
की
बात
है
कि
हिन्दी
के
प्रवासी
साहित्यकार
विदेशी
भूमि
पर
रहकर
अपने
भारत
के
पाठक
वर्ग
के
लिए
इस
विषय
पर
लिख
रहें
हैं।
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‘मारिया’, साँकल,
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- ज़किया
ज़ुबैरी, ‘मैं
तुम्हें जानता
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प्रकाशन, 2021
- सुमन
कुमार घई,
'उसने सच
कहा था',
वह लावारिश
नहीं थी,
प्रलेक प्रकाशन,
2021, पृ. 53
- राष्ट्रीय
अपराध रिकॉर्ड
ब्यूरो, 2016
तरुण
कुमार
शोधार्थी, हिन्दी
विभाग, केरल केन्द्रीय
विश्वविद्यालय
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