शोध आलेख : हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में जेंडर और जेंडर-बराबरी की अवधारणा / सुजाता

हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में जेंडर और जेंडर-बराबरी की अवधारणा
- सुजाता


शोध सार : हज़ारीप्रसाद द्विवेदीके उपन्यासों के लगभग सभी पात्र भले ही वह बाण हो, राजा सातवाहन, रैक्व, सीदी मौलाया महामाया सभी तलाश में हैं। दुनिया के प्रति संकीर्ण नज़रिया बदलने की कोशिशें उनमें दिखाई देती हैं। प्राप्त विश्वास को भी मनुष्य एक समय के बाद टटोलता है, जो सिखाया गया है उस पर प्रश्न चिह्न लगाता है। यही सत्य की राह का पहला पड़ाव है। इसलिए सामान्य समझ से, कॉमनसेंस से टकराने की कोशिशें इन पात्रों में दिखाई देती हैं। इसी राह में एक या एकाधिक पड़ाव स्त्री-पुरुष के एकांतिक, साझा, या टकराते हुए सच के भी हैं। हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास इस सत्य की गूँज हैं कि स्त्री-पक्ष के बिना ज्ञान, इतिहास और सत्य अधूरा है। यह शोध- आलेख हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में स्त्री-पुरुष बराबरी के उन पहलुओं की पड़ताल करता है जो उनके अनुसार सामाजिक समरसता के लिए आवश्यक हैं और जिनके लिए बदलते समय में नए सिरे से अन्वेषण करना होगा। पोथियों पर निर्भरता से काम नहीं चलेगा।

बीज शब्द : हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, उपन्यास, ज्ञान, इतिहास, जेंडर, जेंडर-विभेद, पुरुष-दृष्टि, स्त्री-पुरुष बराबरी, समरसता, वर्जीनियावूल्फ़, हेलेनसिक्सू, स्त्री-भाषा, स्त्रीत्व।

सबको अपने किए का फल भोगना पड़ता है, व्यक्ति को भी, जाति को भी, देश को भी।[i]हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के चारों उपन्यासों के मूल में यही बात है, और चारों को एक साथ पढ़ने से बहुत सारे सूत्र एक-दूसरे से जुड़ते हैं। नामवर सिंह ठीक कहते हैं कि वे एक ही उपन्यास बार-बार लिख रहे थे।[ii] अलग-अलग कथावस्तु और पात्रों के सहारे वह जिस बात को कहना चाह रहे हैं उसे चारों उपन्यासों को सामने रखकर किसी जासूस की तरह कड़ियाँ यहाँ से वहाँ जोड़ने पर हम वह सत्य पाते हैं जिसके संधान में द्विवेदी जी लगे थे। सत्य यह कि किसी भी पोथी में लिखा कोई सत्य अंतिम नहीं है। संधान इस बात का कि मानवता का अंतिम लक्ष्य क्या हो? जिज्ञासा यह कि स्त्री और पुरुष जेंडर वास्तव में कैसे निर्मित होते हैं? हैरानी यह कि जागतिक अनुभव और दूसरों का सत्य अपनी ही मान्यताओं को बदलने को विवश कर सकता है। निष्कर्ष यह कि जातीय, लैंगिक, ज्ञान, कौलीन्य और शास्त्रों का सब अहंकार झूठा है।[iii] क्या शैव, क्या बौद्ध, क्या वैष्णव, क्या जैन ...यदि हम बाह्य विभेदों पर अब भी अड़े रहेंगे तो विनाश निश्चित है।[iv] ये बातें आज के समय में भी किसी संजीवन सूत्र की तरह प्रतीत होती हैं।   

शास्त्रों के सामने न झुकना, नई राहों के अन्वेषण के लिए और उनपर चलने के लिए भय न रखना यही मानवता की भलाई का सूत्र है। सत्य के लिए किसी से न डरना- गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं- यही सूत्र अवधूत बाबा देता है जिसे देखने पर किसी सम्प्रदाय का कोई चिह्न उस पर दिखाई नहीं देता। और एक सत्य यह भी है जिसे बार-बार कहना होगा कि समाज पितृसत्तात्मक है, स्त्रियों को बराबरी पर देखने की न उसे आदत है न ही ऐसा कोई प्रशिक्षण। समाज की तमाम बड़ी समस्याओं के बीच जेंडर-बराबरी के लिए संघर्ष करने का विचार पैदा ही नहीं होता क्योंकि इसे किसी सामाजिक समस्या की तरह देखना एक तरह के वैचारिक खुलेपन की, स्थापित से विद्रोह की मांग करता है।

स्त्री-विग्रह और पुरुष-विग्रह -

जेंडर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के यहाँ एक बड़ा सवाल है। सामाजिक समरसता और देश की उन्नति इन सवालों को हल किए बिना कैसे हो सकती है? सबसे महत्त्वपूर्ण है कि स्त्री के विषय में वे अपनी पुरुष-दृष्टि से क, , ग से शुरु करते हैं। आरम्भ से। रैक्व की तरह। जिसने ख़ूब तपस्या की है लेकिन जिसकी सांसारिक समझ शून्य है। उसके पास दिव्य शक्ति है लेकिन जेंडर-भेद के बारे में उसे कुछ नहीं मालूम। वह जानता ही नहीं कि स्त्री क्या है, कौन है? लेकिन जब जानना शुरु करता है तो समझ आता है कि दुनिया स्त्री के बिना असम्भव है। कोई कहानी स्त्री के बिना पूर्ण नहीं होती। शुभा उसकी गुरु हो जाती है। अनामदास के रैक्व की इस कहानी का सूत्र चारु चंद्रलेख में है- “स्त्री को गुरु बनाए बिना सिद्धि नहीं मिल सकती”[v] स्त्री-पक्ष के बिना ज्ञान अधूरा है, इतिहास अधूरा है, भविष्य अधूरा है। उसे गुरु बनाए बिना पूर्ण सत्य कैसे हासिल हो सकेगा?

जेंडर को लेकर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी की समझ से स्त्री-पुरुष का विग्रह पुरुष-तत्त्व और प्रकृति-तत्त्व के बँटवारे में है। क्वेयर विमर्श में जिस तरह जेंडर पहचानें  इसलिए धुंधली हैं कि दरअस्ल एक ही व्यक्ति के भीतर पुरुष और प्रकृति तत्व या कहना चाहिए, स्त्रैण और परुष, मस्क्युलिन और फेमिनिन, गुण दोनों विद्यमान होते हैं।[vi] उनकी मात्रा भिन्न होती जाती है।[vii]

स्त्री-पुरुष भेद से स्त्री-पुरुष अभेद की ओर -

रैक्व के सवाल हैं कि शुभा और उसमें अंतर क्या है? क्यों स्त्री स्त्री है? वह क्यों पुरुष है? क्यों दोनो के लिए मर्यादाएँ अलग हैं (याद कीजिए वह प्रसंग जब उसे समझ नहीं आता कि शुभा को अपनी पीठ पर उठा ले चलने का विचार पाप क्यों है, उसकी तबियत अच्छी नहीं है ऐसे में तो यह सही कदम ही होगा! लेकिन शुभा बताती है कि किसी कुँवारी कन्या के बारे में ऐसा सोचना भी पाप है)

बाण को महामाया कहती है- “जब तक तुम पुरुष और स्त्री का भेद नहीं भूल जाते, तब तक तुम अधूरे हो, अपूर्ण हो,आसक्त हो।” एक उपन्यास है जहाँ स्त्री और पुरुष का फ़र्क़ रैक्व को लगातार समझाया जा रहा है और एक यह उपन्यास जहाँ महामाय कहती है तुम्हारी तपस्या अधूरी है अगर तुम जेंडर-विभेदों को भूल नहीं सकते। लेकिन गहराई से देखें तो रैक्व की उलझन और बाण की उलझन असल में एक है। इस उलझन की चाभी है- स्त्री और पुरुष का सत्य अलग होता है।

स्त्री-पुरुष या कोई और जेंडर होना भिन्नता है, लेकिन यह भिन्नता भेद-भाव की वजह नहीं हो सकती। इस भिन्नता, अलग-अलग सत्यों का सम्मान करना स्त्री-पुरुष के भेद को भूलना है। भट्टिनी कहती है- “यह देखो, तुम यदि किसी यवन-कन्या से विवाह करो तो इस देश में यह एक भयंकर सामाजिक विद्रोह माना जाएगा। परंतु क्या यह सत्य नहीं है कि यवन-कन्या भी मनुष्य है और ब्राह्मण युवा भी मनुष्य है! महामाया जिन्हें म्लेच्छ कह रही हैं वे भी मनुष्य हैं।”[viii]

भट्टिनी जानती है कि साधना की हर पद्धति आधा ही सच देखती है। पूरा सच है पूरी मानवता को दुख और दारिद्र्य से बचाना। साधना की कोई एकांत पद्धति इसे हासिल नहीं कर सकती। 

स्त्री की सार्थकता और पूर्णता -

द्विवेदी जी के स्त्री और पुरुष पात्र निरंतर प्रश्न उठाते चलते हैं। पारम्परिक, शास्त्रीय और लोक-ज्ञान पर भी। क्या स्त्री को अपनी सार्थकता के लिए पुरुष की शक्ति पर भरोसा करना चाहिए? महामाया कहती है- “न! उससे स्त्री अपना कोई उपकार नहीं कर सकती, पुरुष का अपकार कर सकती है। स्त्री प्रकृति है। वत्स, उसकी सफलता पुरुष को बांधने में है, किंतु सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है।”[ix]

स्त्री की सार्थकता पुरुष को मुक्त करने में है? रस्सियों को जो हाथ पकड़े रहते हैं वे भी तो मुक्त नहीं होते? यह बात दोनों ओर है। किसी और को बाँधे रखने की ख़्वाहिश में हम अपनी आज़ादी भी ताक पर रखते हैं। लेकिन लैंगिक ग़ैर-बराबरी की व्यवस्था में क्या स्त्री और पुरुष दोनों के लिए यह सत्य बराबर प्रभावशाली हो सकता है? स्त्री हो या क्वेयर समुदाय से कोई भी व्यक्ति, उसकी आज़ादी की व्याख्या हम पुरुष को संदर्भ-बिंदु बनाकर करते रहें , यही अपने आप में एक समस्याग्रस्त प्रमेय है।

शायद इसलिए ही, इस को एक बार याद करते हुए महामाया कहती है गुरु ने बताया कि नारी की सार्थकता पुरुष को मुक्त करने में है, मैं मानती रही... फिर सोचती हैं नारी की सार्थकता!एक दीर्घ नि:श्वास के साथ और फिर चुप हो जाती हैं। दी गई परिस्थितियों में, प्राप्त विश्वास को भी आप एक समय के बाद टटोलने लगते हो, जो सिखाया गया है जिसपर हमेशा चलते आए हो आख़िरक्या है वह? यही सत्य की राह का पहला पड़ाव है।

स्त्री की सार्थकता और पूर्णता के लिए अगर एक माध्यम चाहिए होता है[x] तो क्या वह पुरुष ही हो सकता है? एक शिशु के साथ विधवा स्त्री को देखकर रैक्व को याद आया कि ऋषि औषस्ति ने कहा था कि विवाह से स्त्री और पुरुष को पूर्ण मनुष्य बनते हैं। तो, यह स्त्री पूर्ण मनुष्य बन चुकी है। पूर्ण बनने पर इसकी ऐसी दुर्दशा क्यों है?[xi] रैक्व लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ है इसलिए वह स्त्री-पुरुष भेद-भाव पर टिकी संरचना पर सवाल उठा पाता है। इसलिए सामाजिक प्रशिक्षण से मिला पौरुष का अहंकार उसके पास नहीं है। तो क्या है जो स्त्री को सार्थकता देता है? उसके भीतर का देवत्व?

रानी भी तुम्हारी, पिंजड़ा भी तुम्हारा -   

रानी चंद्रलेखा में एक विचित्र प्रकार का साहस है, बिना भयभीत हुए वह जनता के बीच निकल जाती है। वह दृष्ट सत्य को तत्काल स्वीकार कर लेती है। लेकिन एक विचित्र कुंठा भी है। उनके मन में थोड़ा सा स्थान ख़ाली रह जाता है, वे वहीं चूक जाती हैं। उसीके कारण उन्हें कष्ट होता है।[xii] इसी वजह से वह अपने को छिपाती है, पूर्ण कभी अभिव्यक्त नहीं होती, यही उसका पिजड़ा है, जिसके लिए वह राजा सातवाहन को कहती है रानी भी तुम्हारी पिंजड़ा भी तुम्हारा।[xiii]

उस छिपे हुए अंश की वजह से वह कल्पनाएँ करती है और उन्माद में उन्हें सच मान लेती है, वही ख़त में लिख-लिखकर भेजा करती थी। यह नारी द्वैत है। जब बाणभट्ट कहता है निउनिया से कि तुम अब भी अभिनय करने के लिए प्रस्तुत हो? तो कहती है वह– “अभिनय ही तो कर रही हूँ। जो वास्तव में है उसको दबाना और जो अवास्तव है उसका आचरण करना- यही तो अभिनय है। सारे जीवन यही अभिनय किया है। एक दिन रंगमंच पर उतर जाने से क्या बिगड़ जाएगा!”[xiv]

स्त्री-भाषा -

स्त्री को एक माध्यम खोजना पड़ता है, क्या यह माध्यम भक्ति है? अभिनय है? भाषा तो नहीं? चंद्रलेखा जब अपने विचित्र- विचित्र अनुभवों की कहानियाँ लिख  भेजती है तो कहती है कि– “मैं ठीक नहीं कह सकती कि मैंने जो कुछ देखा है और जिसे भगवती विष्णुप्रिया की आज्ञा से लेखबद्ध किया है, उसमें कितना रहस्य है, कितना भाषा का खेल है, कितना कल्पित है, कितना तथ्य है। मैं केवल इतना कह सकती हूँ कि मैंने वही लिखा है जो मुझे प्रत्यक्ष दीखा है।”[xv] राजा सातवाहन न रानी को टोकता है कभी न रोकता है, सदैव रानी के लिए प्रस्तुत है, सदैव धैर्य से प्रतीक्षारत। रानी के मन में अमोघवज्र के प्रति आकर्षण पैदा होता है। बाद में वह ग्लानि भी करती है इसे याद करके। अपने तूफ़ानी ख़्यालों पर वह शर्मसार रही, ख़ुद को राक्षसी प्रवृत्ति का समझती रही क्योंकि यक़ीन करवाया गया था कि स्त्रियों में तो दैवीय संयम और शांति होती है।[xvi] लेकिन यह सत्य एक दूसरी स्त्री, मैना (जो पुरुष मैनसिंह के वेश में राजा सातवाहन की सेवा करती है) समझती है और बोधा प्रधान को भी समझाती है- “देखो न, दीदी ने कितना-कुछ लिखा था! पढने वाले को लग सकता है कि कोई वास्तविक अनुभूति की बात कही जा रही है। परंतु सत्य यह है कि अमोघवज्र ने उनके अंतरतर की वासनाओं और कल्पनाओं की मानसिक उत्सारणा की थी। लिखने की ओर प्रवृत्त करना उत्सारण का एक कौशल मात्र था। अपने मुँह से कहकर उस बात को सुनने का अवसर भी दे सकते थे। मन में कितनी ही वासनाएँ छिपी रहती हैं प्रधान, हम सब जान भी नहीं पाते”[xvii] और सच है कि स्त्री के लिए अपने अंतरतर को दबाना ही समाज में काम्य है। स्त्री का उतना ही सत्य समाज को प्रिय है जिससे पितृसत्तात्मक संरचनाओं को चोट न पहुँचे। यही जीवन का द्वैत उसकी भाषा को भी प्रभावित करता है। लेखन, एक तरह से दमित स्त्री मन का उत्सारण हो जाता है। इसे सुनने के लिए धैर्य लाना पड़ता है। इसे समझने के लिए स्त्री को गुरु बनाए बिना बात नहीं बनेगी। इसीलिए स्त्री की भाषा हर दमित लैंगिक अस्मिता की भाषा है। पिंजड़ा तो स्त्री के साथ ही लगा-लगा रहेगा। उसी के साथ उसका स्वीकार करना होगा।  

साहित्य और कथाओं में दिखने वाली स्त्री आम स्त्रियों-सी नहीं हैं?

उनकी हर स्त्री पात्र में यह उत्कंठा है कि वह समाज में अपनी अवस्थिति के बारे में जाने। समाज और देश के उत्थान के लिए वह क्या अवदान दे दकती है यह वह निरंतर सोचती है।इसलिए भी समाज और देश के कुछ कर गुज़रने को उद्यत मृणालमंजरी जैसी किशोरी को पिता समझाता है कि यह सब किताबों में अच्छा लगता है, वास्तव में लड़कियाँ देश, समाज को बचाने के काम नहीं करतीं, क्रांति और उत्सर्ग उनके लिए नहीं है। तब चुपचाप सुन लेती है लेकिन सुमेर काका से पूछती है-– ऐसा क्यों है कि जो कविता में फबता है व्यवहार में नहीं फबेगा? लड़कियाँ अनाचार उन्मूलन में कुछ हाथ नहीं बँटा सकती, काका?[xviii] क्यों है ऐसा कि साहित्य और कथाओं में दिखने वाली स्त्री आम स्त्रियों सी नहीं हैं? क्यों वे कविताओं और किताबों में वे अलग़ हैं। इसी को संदर्भ करते हुए  वर्जीनियावूल्फ़ लिखती हैं-  “काल्पनिक रूप से उसका (स्त्री का) महत्त्व सर्वोच्च है; व्यावहारिक रूप से वह पूर्णत: महत्त्वहीन है। कविता में वह पृष्ठ-दर-पृष्ठ व्याप्त है; इतिहास से वह अनुपस्थित है। कथा साहित्य में वह राजाओं और विजेताओं की ज़िंदगी पर राज करती है; वास्तविकता में वह उस किसी भी लड़के की ग़ुलामी करती है जिसके माँ-बाप उसकी उँगली में अँगूठी ठूँस देते हैं। साहित्य में कुछ अत्यंत प्रेरक शब्द, कुछ अत्यंत गम्भीर विचार उसके होंठो से झरते हैं; असल ज़िंदगी में वह कठिनाई से पढ़ सकती है, कठिनाई से बोल सकती है और अपने पति की सम्पत्ति है।“[xix]

सुमेर काका कहते हैं कि अगर भैंसा हमला कर दे तो तेरे जैसी लड़की को जो सामने मिले उसी से दमादम भैंसे को पीट देना चाहिए। नाक पर मार सको तो क्या कहना! आँख फोड़ सको तो और अच्छा! सज्जन है चरण की धूल लो, दुर्जन है नाक तोड़ दो।[xx] रक्षिता नहीं है स्त्री। अपने ऊपर आए संकट में कौन पहले दूसरों को पुकारता है? पहली सहज और स्वाभाविक प्रतिक्रिया तो किसी भी मनुष्य की यही होगी कि वह भाग निकले, पलट कर मारे।

यहाँ फिर पोथी आती है। सुमेर कहता है मेरा तो यही ख़याल है कि पुरुष की शक्ति का आह्वान करने से अच्छा है पहला प्रहार ख़ुद करो। सिंह बाद में आएगा। लेकिन तेरा पिता देवरात पोथीके बल पर मुझे हरा देता है। स्त्री की सार्थकता, देवत्व, पूर्णता तमाम सवालों के जवाब मानो पुनर्नवा में सुमेर काका के इन शब्दों में निहित हों- देवी क्या है? तेरे भीतर जो अभयहै, वही देवी है। पिशाची क्या है जानती है? तेरे भीतर जो भयहै वही पिशाची है।[xxi]

निउनिया और पुरुष-दृष्टि -

निउनिया एक पान की दुकान पर बैठी थी। ऐसा लगता था वह पान कम बेच रही थी, मुस्कान ज़्यादा।[xxii] निउनिया वैधव्य को प्राप्त हुई, अपहृत की गई और इस दशा को आ पहुँची। निउनिया के दुखों की एक वजह वह समाज में लक्षित करता है कि निउनिया का पुनर्विवाह हो गया होता लेकिन अस्पृश्य समझी जाने वाली जाति, जिससे निउनिया आती थी, वहाँ अब विधवा-विवाह बंद हो गया था ब्राह्मणों की नकल करने के चक्कर में।[xxiii] फिर भी, बाण निउनिया के दुख और कष्ट को समझने में ख़ुद को असफल पाता है। उसके सामने अपने अभिमान को धराशायी भी पाता है। आवारा हूँ लेकिन मैं लम्पट नहीं हूँइस आत्म-स्वीकार के साथ जो अपनी बात कहना प्रारम्भ करे उसकी जेंडर-संवेदी दृष्टि के बारे में बहुत कहने को रह नहीं जाता लेकिन एक सवर्ण पुरुष होने के नाते जो सत्ता आपके हाथ होती है वह दुनिया को एक मेल-रेफ़्रेंस कोण से देखने की एक सहज कोशिश बन जाती है। बाण कहता है - “मेरी मंडली की स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक सुखी थीं। बहुत छुटपन से मैं स्त्री का सम्मान करना जानता हूँ। साधारणत: जिन स्त्रियों को चंचल और कुलभ्रष्टा माना जाता है उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है, यह बात लोग भूल जाते हैं। मैं नहीं भूलता। मैं स्त्री शरीर को देव मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ। उस पर की गई अननुकूल टीकाओं को मैं सहन नहीं कर सकता। इसलिए मैंने मंडली में ऐसे कठोर नियम बना रखे थे कि स्त्रियों की इच्छा के विरुद्ध उनसे कोई बोल तक नहीं बोल सकता था”[xxiv]

यह कन्सेंटयानी सहमति के महत्त्व को समझने के लिए अच्छा उदाहरण हो सकता है। लेकिन वह भले ही कहे कि स्त्री-देह को देव मंदिर सा पवित्र मानता हूँ, एक भेद-दृष्टि यहाँ निरंतर विद्यमान है, आम पुरुष और उनसे अलग सोचने वाला मैंऔर वेयानी स्त्रियाँ। वह भेद-दृष्टि जो आवारा होने से, ‘भाखा-बोलि न जानहिं जिनके कुल के दासऐसे परिवार से आने के बावजूद कभी नट बनने,  पुतलियों का नाच दिखाने और कभी पुराण-वाचक बनकर जनपदों को धोखा देने सेभी बाण को पतित नहीं बनाती और न ही किसी विशेष व्यवहार या दया का पात्र बनाती है लेकिन निउनिया के लिए, मंडली की स्त्रियों के लिए, किसी भी स्त्री के लिए जो व्यवहार होना चाहिए उसे अपनी विशेषता बताता है।

एक काली स्त्री जो द्वार-रक्षक है, उसके सौंदर्य का मनभावन वर्णन बाण करता है, उसेजीवित नीलमणि की सुकुमार पुत्तलिका[xxv]कहता है। लेकिन वाक्य का आरम्भ यद्यपि वह काली थीसे होता है जहाँ यद्यपिकाली स्त्री को सुंदर मानने की उदारताका असर कम कर देता है।

ऐसी ही बातों की ओर इशारा करती है महामाया कि जब तक स्त्री-पुरुष का भेद भूल नहीं जाता तेरी तपस्या अधूरी है। शास्त्रों ने स्त्री के विषय में दो विरोधी मत प्रकट किए हैं। एक महिमामंडित और एक गर्हित। जजमेंट की वजह से हम इसमें उलझते है। इसका मकसद भी यही है। जिस पुरुष को लगता हो कि वह बेहद प्रगतिशील है उसमें भी जेंडर-प्रशिक्षण को अनसीखा करने के लिए ख़ूब गुंजाइश होती है।

तपस्या की कसौटी तो समाज है -

स्त्रीत्व से जुड़े तमाम सवालों और सामाजिक सच्चाइयों की ओर द्विवेदी जी का ध्यान जाता है। चित्रलेखा स्त्री-पूजा के लिए कहती है यह प्रथा मुझे एकदम समझ नहीं आती। वहीं एक बच्ची को देवदासी बनने से माताजी और मैना धर्मशास्त्रियों से बचाते हैं। सीदी मौला जैसा पात्र हिंदू-मुस्लिम सौहार्द्र के उदाहरण हैं। लेकिन परम्परा और आधुनिकता में मेल बैठाने के उपक्रम में कभी-कभी तीखे सवालों से बचना पड़ता है या उनके ऐसे स्पष्टीकरण खोजने पड़ते हैं जो न परम्परा-विरोधी दिखाई दें न आधुनिकता-विरोधी। जगन्नाथपुरी के जिस मंदिर में माताजी पर मंदिर के पुजारियों की श्रद्धा हो गई और वहाँ उनके अच्छे दिन कटने लगे; वहीं देवदासी प्रथा भी चलती थी। गृहस्थ-भक्त अपनी बेटियों को सजा-बनाकर देवताओं को अर्पित करते थे। इस प्रथा और इसमें व्याप्त बुराई की व्याख्या द्विवेदी जी इस प्रकार करते हैं “पर धर्म हर समय देवता को लक्ष्य करके ही नहीं चल पाता। देवता के भक्त भी कभी-कभी उसके लक्ष्य बन जाते हैं।”[xxvi] लक्ष्य देवता हो या भक्त, अपने आप में देवदासी प्रथा मानवता-विरोधी है। धर्म के नाम पर किसी कर्मकांड की कोई वैज्ञानिक वजह खोजी जा सकती है या युग-बदलने के साथ उसकी व्यर्थता बताई जा सकती है, लेकिन बालिकाओं के इस शोषण को सम्मत करने वाला कोई भी धर्म, किसी भी स्पष्टीकरण से रक्षित नहीं किया जा सकता।

            कोई भी लेखक अपने देश-काल और परिस्थितियों से बनता है, उनका दबाव उसके लेखन पर होता ही है लेकिन यह भी सच है कि पाठक का एक समय और उसका दबाव है और वह भी अपने समय के दबावों के अनुरूप पाठ बनाता है। पुरानी कथाओं के माध्यम से आधुनिक बात कहने की कोशिशों में कुछ सफलताएँ होंगी तो कुछ ऐसे व्यवधान आएंगे ही।

निष्कर्ष : पोथियों के लिए बार-बार कई तरह के अवहेलनात्मक वाक्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में आते हैं जो उनके इस विचार को पुष्ट करते हैं कि बना-बनाया कोई सत्य भविष्य के लिए ग्राह्य नहीं हो सकता। असल में, हर पीढी को नए सिरे से सत्य के साथ अपने प्रयोग करने होते हैं। समाज के लिए, व्यक्ति के लिए, देश के लिए क्या शुभ है इसका शोध हर बार करते रहना होता है। अगर धर्म, ज्ञान, विद्वत्ता, क्रांति, विचार, विकास सबके लिए नहीं हैं और उनका लक्ष्य सामाजिक समरसता नहीं है तो वह तपस्या नहीं है। छोटे रास्तों और तुरंता उपायों से, बिना पूरी क़ीमत अदा किए निजी सफलता तो मिल सकती है लेकिन कोई बड़ा बदलाव नहीं आता। तपस्या की कसौटी तो समाज है। शास्त्रों को समय अनुसार संशोधित न करना और सदा के लिए मान लेना महाविनाश का कारण बनता है। अवस्था-विशेष के लिए बनाए गए नियमों की जब अंधानुपालना की जाने लगे तो यह महादोष बन जाता है, समाज की स्थिरता के लिए, देश की आर्थिक स्थिति के लिए। धर्म भी अगर किसी को ज़रूरी लगता है जीने के लिए तो उसे समझना होगा कि धर्म के पालन का कोई अगवाह (short-cut)रास्ता नहीं होता। जो स्वयं को प्रगतिशील कहे, विद्वान माने, क्रांतिकारी समझे, किसी भी आधुनिक विचार को मानता हो उन सबके लिए यह सही है कि कोई अगवाह रास्ता नहीं होता।

संदर्भ :
[i] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, चारु चंद्रलेख, राजकमल प्रकाशन, पाँचवा संस्करण, दिल्ली, 2021, पेज-13,
[ii] नामवर सिंह से महावीर प्रसाद का साक्षात्कार, पुस्तक-वार्ता, अंक-48-49, सितम्बर-दिसम्बर 2013, पेज-5
[iii] मेरे पुरुषत्व का गर्व, कौलीन्य का गर्वऔर पांडित्य का गर्व भर भराकर गिर गए। निपुणिका को पहचानने में मैंने कितनी भूल की थी- हज़ारीप्रसादद्विवेदी,बाणभट्ट की आत्मकथा, राजकमल प्रकाशन, बाईसवाँ संस्करण, 2021, पेज-26 
[iv] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, चारु चंद्रलेख, राजकमल प्रकाशन, पाँचवा संस्करण, दिल्ली, 2021,पेज-131
[v] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, चारु चंद्रलेख, राजकमल प्रकाशन, पाँचवा संस्करण, दिल्ली, 2021, पेज-101
[vi] वही, पेज-319
[vii] यद्यपि तुझमें तेरे ही प्रक्रति तत्व की अपेक्षा पुरुष तत्व अधिक है, पर वह पुरुष तत्व मेरे भीतर के पुरुष तत्व की अपेक्षा अधिक नहीं है। मैं तुमसे अधिक नि: संग, अधिक निर्द्वंद्व, और अधिक मुक्त हूँ। मैं अपने भीतर की अधिक मात्रावालीप्रक्रति को अपने ही भीतर वाले पुरुष तत्व से अभिभूत नहीं कर सकती। इसलिए मुझे अघोर भैरव की आवश्यकता है, जो कोई भी पुरुष प्रज्ञप्तिवाला मनुष्य मेरे विकास में साधन नहीं हो सकता।- हज़ारीप्रसादद्विवेदी,बाणभट्ट की आत्मकथा, राजकमल प्रकाशन, बाईसवाँ संस्करण, 2021,पेज-88
[viii] हज़ारीप्रसादद्विवेदी,बाणभट्ट की आत्मकथा, राजकमल प्रकाशन, बाईसवाँ संस्करण, 2021,पेज-256
[ix] वही,पेज-88
[x] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, चारु चंद्रलेखराजकमल प्रकाशन, पाँचवा संस्करण, दिल्ली, 2021
पेज-154
[xi] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, अनामदास का पोथा, राजकमल प्रकाशन, नौवां संस्करण, 2021,पेज- 70,
[xii] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, चारु चंद्रलेखराजकमल प्रकाशन, पाँचवा संस्करण, दिल्ली, 2021
पेज-179
[xiii] वही,पेज-34
[xiv] पेज-266,हज़ारीप्रसादद्विवेदीबाणभट्ट की आत्मकथा, राजकमल प्रकाशन, बाईसवाँ संस्करण, 2021
[xv] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, चारु चंद्रलेखराजकमल प्रकाशन, पाँचवा संस्करण, दिल्ली, 2021
पेज-167
[xvi] हेलेनसिक्सू अपने प्रसिद्ध निबंध द लाफ़ ऑफ द मेड्यूसामें स्त्री-लेखन के लिए यह शब्द एक्रीचरफेमिनाइन गढ़ती हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि स्त्रियों को भाषा से वैसे ही बाहर किया गया जैसे कि उन्हें उनकी देह से। स्त्री की देह पर कब्ज़ा कर लिया गया। इसलिए स्त्री का लिखना न सिर्फ़ अपनी आवाज़ वापस पाना है बल्कि अपनी देह पर भी पुन: अपना कब्ज़ा पाना है। लिखेगी तो वह अपनी देह की ओर वापस लौटेगी। वह स्त्री को सम्बोधित करती हुई कहती हैं जानती हूँ तुम इसलिए नहीं लिखती कि लिखना महान काम है और इतना महान काम तो महापुरुषों का रहा है। ख़ुद भी तो न बोल पाई थी, न लिख पाई थी। अपने हिस्से की आधी दुनिया को तो उसने भी रंग दिया ही नहीं इस डर से कि शायद वह पागल है।–हेलेनसिक्सू, कीथकोहेन, पौलाकोहेन, द लाफ़ ऑफ मेड्यूसा, साइन्स, वॉल्यूम- 1, नम्बर-4, समर, 1976, देखें, पेज- 886
[xvii] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, चारु चंद्रलेख, राजकमल प्रकाशन, पाँचवा संस्करण, दिल्ली, 2021, पेज-317,
[xviii] हज़ारीप्रसादद्विवेदी,पुनर्नवा, राजकमल प्रकाशन, सातवाँ संस्करण, दिल्ली, 2021,पेज-42
[xix] वर्जीनियावूल्फ, अपना कमरा, अनु. गोपाल प्रधान, संवाद प्रकाशन, 2002, पेज-52
[xx] हज़ारीप्रसादद्विवेदी,पुनर्नवा, राजकमल प्रकाशन, सातवाँ संस्करण, दिल्ली, 2021, पेज-42
[xxi] वही, पेज-42
[xxii] हज़ारीप्रसादद्विवेदी,बाणभट्ट की आत्मकथा, राजकमल प्रकाशन, बाईसवाँ संस्करण, 2021,पेज-20
[xxiii] वही, पेज-20
[xxiv] वही, पेज-21,
[xxv] वही, पेज-33
[xxvi] हज़ारीप्रसादद्विवेदी, चारु चंद्रलेख, राजकमल प्रकाशन, पाँचवा संस्करण, दिल्ली, 2021, पेज-224

डॉ. सुजाता
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभागश्यामलाल कॉलेज (दिवस), दिल्ली विश्वविद्यालयदिल्ली
chokherbali78@gmail.comsujatatewatia@gmail.com9911869977

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

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