जब सात समुद्र पार से आए विजातीय आस्था और विश्वास वाले व्यापारी वर्ग ने भारत के दुर्बल और क्रमशः शनैः शनैः क्षीण पड़ते जाने के क्रम में आक्रमणकारी के रूप में केंद्रीय सत्ता हथिया ली और फिर वह सत्ता ब्रिटिश राज के नियंत्रण में चली गयी, तब दीर्घकालीन संघर्ष के क्रम में यह महसूस किया जाने लगा कि भारत की राजनैतिक-सांस्कृतिक एकता को संवैधानिक रूप दे दिया जाना परम आवश्यक है। तब यह भारत के संविधान के रूप में सामने आया जो ‘अर्ध-संघीय’ या ‘संघात्मक कम एकात्मक अधिक’ है। भारत की सांस्कृतिक राष्ट्रीय एकता की संप्रेषणीयता आदिकाल से ही विद्यमान रही है। फिर भी ‘जिजीविषा’ केंद्रित ‘ग्रहण’–‘त्याग’ मूलक संस्कृति,सामासिक संस्कृति,संस्कारधर्मी संग्राहक संस्कृति और संश्लिष्ट संस्कृति के सिद्धांत गढ़े जाते रहे और भारतीय परम्परा के स्वरों और भारतीय राजत्व सिद्धांत को भुलाया जाता रहा। इस ओर सजग प्रयत्न की चेष्टा अपेक्षाकृत उतनी नहीं दिखी जितनी अभीष्ट थी। यह विविधता के संदर्भ में ही परिभाषित होती रही! उत्तर आधुनिक दौर में तो यह दृष्टि उत्कर्ष पर पहुँच गयी।
भारतवर्ष की राजनीतिक चेतना-सांस्कृतिक चेतना एकात्मवाद के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित होती रही है। काल के फैलाव में इस चेतना का स्पंदन अलग-अलग स्तर पर दिखता रहा है, लेकिन स्पंदन रहा ज़रूर है! भूमि आधारित राजनीतिक चेतना का संदर्भ व्यापक है और हम एक ऐसे परिवेश में रह रहे हैं जो विविधता से भरा हुआ है और एकता की नींव पर अवस्थित है, यह भावना भी आदिकाल से ही इस देश में स्वतः संचरित होती चली आयी है। भारत भूमि में अनेक जाति-रेसेज़ हैं, अनेक वर्णों के लोग हैं। विविधता में एकता, भेदों में अभेद, अद्वैत दर्शन की पीठिका का भाव लम्बे समय से व्याप्त रहा है। अपने-अपने समय में हरिश्चंद्र, अश्वमेध यज्ञ करने वाले रघुवंशी सम्राट, युधिष्ठिर, अशोक, विक्रमादित्य की उपाधि धारण करने वाले सम्राट समुद्रगुप्त एवं हेमचंद्र, भारत की केंद्रीय राजनीतिक शून्यता को पहचानने वाले राजनीतिज्ञ, अलग-अलग कालों में भारत अभिधान का प्रयोग करने वाले चिंतक, विदेशियों के मन में विद्यमान भारतीयता की अवधारणा, भारतीयों के मन में विद्यमान भारतीयता की अवधारणा, भक्त दार्शनिक आचार्यों की दिग्विजय यात्राएँ, नामों की साम्यता, सेंगोल (ब्रह्म दंड) की मान्यता-ये सभी राष्ट्र की चेतना के संकेतक रहे हैं। देशवासियों के मन में अरुणाचल प्रदेश के संदर्भ में कल्हण द्वारा वर्णित उदयाद्रि की परिकल्पना प्राचीन काल से ही रही है। ऋग्वेद की रचना के काल से ही ‘राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग बड़े सजग भाव से होता रहा है तब मनीषी अरुणाचल प्रदेश के प्रसंग में भारतीय राष्ट्रीय पहचान संबद्धता के लिए यदि अतीत को भी उल्लिखित करें तो इसे स्वाभाविक माना जाना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश अपनी भारतीय पहचान संबद्धता के लिए पौराणिक काल की ओर उन्मुख होता रहा है तो ऐतिहासिक काल की ओर भी उन्मुख होता रहा है।
बीज शब्द: भारत बिम्ब, प्रादेशिक बोध, दुभाषिये, पोसा, वाचिक परम्परा, ऐतिहासिक यथार्थ, स्वतंत्रता सेनानी, भारत: एक बनता हुआ राष्ट्र, अंग्रेज़ी राज, प्रतिरोध, स्वतंत्रता सेनानी, सांस्कृतिक राष्ट्र , राष्ट्रीय चेतना
भारत बिम्ब के निर्माण में अरुणाचल प्रदेश का अनिवार्य रूप से योगदान रहा है। इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा दर्शाया जा सकता है–
भारतीय भाषाओं और संस्कृति में पायी जाने वाली एकता
भारतीय भाषाओं में बोधगम्यता के तत्व कम हैं, यह एक सुविदित तथ्य है। लेकिन भाषाविदों ने भारत को एक भाषाई क्षेत्र भी माना है। अरुणाचल प्रदेश के विशेष संदर्भ में विविधता में एकता जैसे प्रतिपादित सिद्धांत के आधार पर भारतीय राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना की बात सम्भव है। भौतिक मानवशास्त्री यह मानते हैं कि भारत में प्रागैतिहासिक काल से ही मंगोलायड समूह का अंशदान रहा है। “मंगोलायड समूह दो शाखाओं में उपविभाजित है: पुरा-मंगोलायड और तिब्बती-मंगोलायड। हिमालय क्षेत्र के आदिवासी समूह और पूर्वोत्तर के लोग इसी समूह के लोग हैं ।”(1) अरुणाचल प्रदेश की जनजातियाँ इन्हीं में से हैं।
प्रादेशिक बोध की निर्मिति
अरुणाचल प्रदेश जनजातीयबहुल प्रदेश है। इस प्रदेश में अनेक जनजातियाँ-ह्रुसो, आदी, गालो, अपातानी, खाम्प्ती, बुगुन, खांबा, तागिन, वांग्सा, त्युत्सा, नोक्ते, न्यीसी, फकियल, मिश्मी, मीजी, मेम्बा, मोन्पा, योबिन, वाङ्चा, शेरदुक्पेन, सिंगफो, पुरोईक आदि निवास करती हैं। आदिकाल और मध्यकाल में इन जनजातियों में यह भावना नहीं थी कि सभी एक ही पर्वतीय अंचल के निवासी हैं। अर्थात् पर्वतीय अंचल के आधार पर अधिकांश जनजातियों में एकता का अभाव था। सभी जनजातियों में पृथक-पृथक अस्मिता बोध थी। प्रादेशिक बोध अत्यंत लघु भू खंड तक ही सीमित था। अर्थात् प्रदेश के महायानियों एवं स्थविरवादियों में एक प्रदेश में रहने का बोध नहीं था। न्यीसी जनजातियों और स्थविरवादियों में यह बोध नहीं था कि दोनों एक ही प्रदेश के नागरिक हैं। प्रादेशिक बोध काफ़ी बाद की बात है। एक दूसरे के क्षेत्र में आवागमन और यातायात की सुविधा ने इस बोध में शीघ्रता ला दिया। इस क्षेत्र में ब्रिटिश राजसत्ता के हस्तक्षेप ने शनैः शनैः प्रादेशिक बोध का बीज बोया। ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत यह बोध तीव्र होता गया कि सभी जनजातियाँ एक ही प्रदेश की नागरिक हैं। आबोतानी से अपने आप को जोड़ने वालों में वंश परम्परा के आधार पर क्षेत्रीय बोध का एक दुर्बल आधार विद्यमान था, साथ ही यह भी कि वे बहुत सी जन जातियाँ उत्तर, उत्तर पूर्व या दक्षिण पूर्व से स्थानांतर गमन के माध्यम से इस क्षेत्र में आकर रह रही हैं। राज्य विषयक नागरिकता बोध की भावना न थी। क्षेत्र विषयक भावना ही विद्यमान थी। कदाचित् इसीलिए त्वेनसांग के पृथक होने पर प्रादेशिक बोध को भावात्मक आघात का अनुभव न हुआ।
मैदानी क्षेत्र से सम्बंध का बोध
ब्रिटिश राज से पहले सभी जनजातियों में यह भावना पृथक-पृथक रूप में विद्यमान थी कि पर्वतीय अंचल के लोगों और मैदानी क्षेत्र के लोगों में समानता के साथ-साथ भेद भी है। लेकिन मैदानी क्षेत्र के लोगों से पर्वतीय अंचल के लोगों का सम्पर्क बना रहता था। एल.एन. चक्रवर्ती ने लिखा है कि “जिसे अरुणाचल नाम से जाना जाता है, उस पर्वतीय क्षेत्र में निवास करने वाले लोगों के असम के मैदानी क्षेत्र के निवासियों के साथ निकट के सम्बंध थे। इन सम्बंधों के कई संदर्भ इस क्षेत्र से सम्बंधित उपलब्ध अभिलेखों में प्राप्त होते हैं।”(2)
द्विभाषिकता और दुभाषिये
भारत में विद्यमान द्विभाषिकता कमोबेश यहाँ भी थी। इसीलिए इस क्षेत्र का सम्पर्क असमिया भाषा के माध्यम से, अधिकतर असमिया जानने वाले दुभाषियों के माध्यम से सम्भव हो पाता था।
पोसा
अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल में रहने वाली अनेक जनजातियाँ अहोमों के समय में ‘पोसा’ प्राप्त करती थीं, ब्रिटिश राज में भी इन्हें बहुत दिनों तक पोसा मिलता रहा। पोसा ‘‘सामान्य उद्देश्य के लिए किए गए चंदे का संग्रह’’(3) रूप में होता था जिसे इस पर्वतीय अंचल की अनेक जनजातियाँ लेती थीं। पोसा को ‘भत्ते’ के रूप में भी समझा गया है और ‘अवैध वसूली’ के रूप में भी जिसे दारंग और लखीमपुर के क्षेत्र में पर्वतों में रहने वाली कुछ पहाड़ी जनजातियों को, “अवैध रूप से लूट’ रोकने के बदले में या कुछ दुआरों पर से अपने ‘अधिकारों या दावों’ को त्याग देने के लिए दिया जाता था”(4)। मैदानी क्षेत्र में रहने वाले अहोम शासित गाँव वालों द्वारा पर्वतीय अंचल की जनजातियों को दिए गए ‘चंदे’ की राशि को अहोम शासकों ने कर के स्तर पर स्वीकृति प्रदान कर रखी थी-इसलिए इसे देने वालों को सरकार को कर नहीं देना पड़ता था। अंग्रेज़ी राज में प्रशासन ने इसे राजकीय स्तर पर स्वीकृति प्रदान करते हुए इसे सरकारी ख़ज़ाने से देना स्वीकार किया। इसके पीछे अंग्रेज़ी राज का एक और उद्देश्य था-वह “सरकार की स्थिति को पर्वतीय क्षेत्र में और सुदृढ़”(5) होते देखना चाहती थी’। आगे चल कर ब्रिटिश सरकार ने इस पर पुनर्विचार किया और जिन्हें पोसा दिया जाता था उनके बारे में निर्णय लिया कि, “सभी मामलों में, स्वतंत्र व्यक्तियों का पोसा, वर्तमान पोसा प्राप्त करने वाले की मृत्यु के बाद बंद कर दिया जाए तथा जो परिवार दूसरों के ग़ुलाम हैं उनका पोसा तत्काल से बंद कर दिया जाए”(6)। आदी जनजाति के क्षेत्र में भेजे गए “एक दल की यात्रा के बाद”(7) आदी जनजाति का पोसा बंद कर दिया गया था। इस तरह पोसा के इतिहास से स्पष्ट है कि अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल से मैदानी क्षेत्र के लोगों से पोसा प्राप्ति के स्तर पर घनिष्ठ सम्बंध था।
वाचिक परम्परा में पुराणकथा विषयक स्मृतियाँ
ब्रह्मा के पुत्र से सम्बंधित ब्रह्म कुंड और परशुराम कुंड की स्मृतियों को मिशमी जनजाति के लोगों ने संजोए रखा है। डॉक्टर एम.सी. बेहरा के अनुसार, “11वीं शताब्दी के इंद्रपाल के कॉपर प्लेट में मिले वर्णन से परशुराम कुंड की ऐतिहासिकता का पता चलता है। इससे पूर्व का कोई ऐतिहासिक प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। जबकि कालिका पुराण के अनुसार इसका अस्तित्व छठी शताब्दी में होने का पता चलता है।”(8) ब्रह्म कुंड का पानी तप्त था। 1950 ई. के भूकंप से पहले यह विद्यमान था। ब्रह्म कुंड से निकलकर बनने वाला दूसरा शीतल कुंड अभी भी विद्यमान है, जो परशुराम के नाम के साथ प्रख्यात है। मातृहन्ता परशुराम के हाथ से चिपका खून लगा फरसा यहीं डुबकी लगाने से अलग हुआ था। दिगारू मिशमी और मिजू मिशमी उपजनजाति दोनों में यह कथा प्रचलित है। मिजू मिशमी की एक अन्य कथा में परशुराम की जगह ‘ड़्रापकाप’ उल्लिखित है।”(9) देऊरी समुदाय में भी परशुराम से संबंधित स्मृतियाँ सुरक्षित हैं। वे उन्हें राम का अवतार मानते हैं। खाम्ती जनजाति में भी परशुराम से संबंधित स्मृतियाँ सुरक्षित हैं। वे कुंड को बुद्ध से संबंधित स्थल मानकर भ्रमण करते हैं। बाहर से आने वाले तीर्थ यात्रियों में यह मान्यता थी कि परशुराम कुण्ड में स्नान करके पहने हुए गीले वस्त्र वहीं छोड़ दिए जाने चाहिए। लोक मान्यता है कि सारे पाप कपड़ों के माध्यम से अलग हो जाते हैं, इसलिए यही श्रेयस्कर मान लिया जाता है! गुरु नानकदेव पहली उदासी (1500-1506 ई.) में परशुराम कुंड होते हुए बर्मा (ब्रह्म देश-अब म्यानमार) गए थे। म्यानमार, ढाका, असम, सिक्किम, भूटान, नगालैंड आदि से सम्बंधित स्थलों का उल्लेख डॉक्टर कुलदीप मेहंदीरत्ता ने किया है। डॉक्टर आलोक सिंह ने लिखा है कि “सन 1505 ई. में उनकी भेंट श्रीमंत शंकरदेव से भी हुई थी”(10)। गुरु नानकदेव ढाका से धुबड़ी गए और “कहा जाता है कि गुरु नानकदेव असम के धुबड़ी से रंगामाटी, जोगीगोफा, ग्वालपाड़ा, कामाख्या, हाजो, सदिया, अरुणाचल प्रदेश परशुराम कुंड से होते हुए तिब्बत चले गये ।”(11)
रामकथात्मक साहित्य और लौहित्य प्रदेश
राजनीतिक सामान्यता के आधार पर स्वयं को पहचानने का प्रमाण कालिदास कृत रघुवंश के चतुर्थ सर्ग में रघु की दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में दिखाई पड़ता है। “रघु किरात, किन्नर प्रदेश से होते हुए मान सरोवर क्षेत्र से होते हुए, लौहित्य नद होते हुए प्राग्ज्योतिषेश्वर-कामरूपेश्वर के राज्य की ओर बढ़े थे”(12)। कालिदास ने कामरूपेश्वर द्वारा रघु के पैरों की छाया की पूजा का उल्लेख करते हुए रघु के पैरों के लिये हेमपीठ की अधिदेवी (“हेमपीठाधिदेवताम”(13)) शब्द का आलंकारिक प्रयोग किया है। हेमपीठ में समस्त पूर्वी अरुणाचल क्षेत्र आ जाता है। रघु के पैर अरुण वर्ण को समोए हुए दिव्य की तरह हो गए थे। हेमपीठ की अधिदेवी से यह आशय है। पीठ से अभिप्राय है रघु के पैरों के लिए उदयाद्रि की भूमि आसन हो गयी थी। उस भूमि पर रघु के पाँव थे। इस आलंकारिक उक्ति में यथार्थ की झलक भी है। पैरों की छाया के उल्लेख से यह स्पष्ट है। कृष्ण नारायण प्रसाद ‘मागध’ ने “रघुवंश के चतुर्थ सर्ग के इस साक्ष्य से अरुणाचल क्षेत्र को ‘हेमपीठ’ की मान्यता दी है।“(14)
राम कथात्मक साहित्य की बौद्ध परंपरा
स्थविरवादी खाम्ती जनजाति रामकथा की बौद्ध परंपरा को “लिकचाओलामाङ (श्रीराम काव्य) अथवा चाओआलाङलामाङ (श्री रामावतार कथा)”(15) नामक ग्रंथ के रूप में बड़े यत्नपूर्वक संजोए हुए है।
लोक कथाओं में राम कथात्मक साहित्य के सदृश वर्णन
डॉक्टर दिनेश कुमार चौबे ने मिश्मी जनजाति में प्रचलित एक ऐसी लोक कथा का उल्लेख किया है “जो राम कथा से साम्य रखती है”(16) उनका मानना है कि “इस कथा में राजा की कन्या का आठ सिरों वाले राक्षस द्वारा अपहरण, राजा द्वारा बानरों के राजा की सहायता लेना, बंदर द्वारा कन्या की खोज, बंदर की पूँछ में आग लगा देना, पूँछ की आग से पूरे नगर को जलाना एवं कन्या का उद्धार करना आदि वर्णित है। यहाँ राजा, कन्या, राक्षस, बंदर में राम, सीता, रावण एवं हनुमान का अनुमान कर सीता-अपहरण, खोज, लंकादहन, सीता उद्धार आदि घटनाओं का अनुमान कर इस कथा का साम्य राम कथा से स्थापित करना अप्रासंगिक प्रतीत नहीं होता।”(17)
वाचिक परम्परा में वर्णित कृष्ण विषयक स्मृतियाँ
1965 ई. नारी नामक ग्राम में वासुदेव थान और देवकी थान की पहचान की गयी। इस स्थान पर लगभग 80 फीट की परिधि में एक श्याम वर्ण की गोलाकार बड़ी शिला है। यहीं वासुदेव के बैठने का स्थान बताया जाता है। वहीं थोड़ी दूरी पर स्थित एक इससे छोटी श्याम वर्ण की ही एक और शिला है। इससे थोड़ी दूर पर स्थित एक मंदिर हैI “कहा जाता है कि वासुदेव की माँ देवकी का यह थान (स्थान) हैI”(18)
लेकिन सबसे जीवंत स्मृति है द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की जो ईदु मिशमी लोगों के मानस में आज भी यथावत विद्यमान है। भीष्मकनगर और रुक्मिणी नटी के दुर्ग इस स्मृति को रूपायित करते प्रतीत होते हैं। श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के भाई को पराजित कर उसके सिर के आगे के बालों को सुदर्शन चक्र से काट दिया था। इस घटना के बाद से ही इस जनजाति में सिर के आगे के बालों को काटकर रखने की परंपरा चली आ रही है। उल्लेखनीय है कि श्रीकृष्ण जब रुक्मिणी को हरकर ले जा रहे थे तब अरुणाचल का ही मालिनी थान रास्ते में पड़ा था। श्रीकृष्ण को देवी पार्वती (पार्वती के साथ शिव थे) ने फूलों की माला भेंट किया था। श्रीकृष्ण ने पार्वती को परिहासस्वरूप मालिनी (माला गुँथने वाली) कहकर पुकारा था। तभी से यह स्थान मालिनी थान के नाम से पुकारा जाने लगा। मालिनी थान की खोदाई में लगभग 14-15वीं शती के धार्मिक स्थल के अवशेष प्राप्त हुए हैं। “इस खोदाई में पत्थर की मूर्तियों में भगवान इंद्र को ऐरावत हाथी पर, कार्तिकेय को मयूर पक्षी पर सवार तथा दो हाथियों की पीठ पर चार शेरों की आकृति मंदिर के चारों कोनो पर पायी गयी हैI”(19) मंदिर, दस भुजा पार्वती की तीन टुकड़ों में टूटी मूर्ति, टूटा हुआ शिवलिंग प्राप्त हुआ है। शिव का वाहन नन्दी, वीणावादिनी सरस्वती, दुर्गा, मूषक पर सवार गणेश, सात घोड़ों से खींचे जाने वाले रथ में सूर्य तथा चाँदी के पुष्प भी मिले हैंI
रोईंग के आसपास मानव निर्मित लगभग 10 पुष्करिणी पायी गयी हैं, जिनमें कुछ वर्गाकार हैं, एक v वी आकार की है। एक का नाम इतानात या रुक्मिणी पोखरी है जो आयताकार है। यह नामकरण देशज आस्था और विश्वास को मानने वाले लोगों द्वारा किया गया है। इनमें कुछ ईंट की बनी हैं, कुछ कच्ची हैं। एक नहर और सड़क का पाया जाना बताता है कि यहाँ कभी सुनियोजित बस्तियाँ थीं जिन्हें काल ने लुप्त कर दिया। इनका निर्माण काल 10वीं से 16वीं शताब्दी बताया गया है।
अका जनजाति यह मानती है कि उन्हें असम के मैदानी क्षेत्रों से रुक्मिणी का अपहरण कर द्वारका जाते समय, कुछ के अनुसार, बाणासुर के साथ युद्ध करते समय कृष्ण और बलराम ने उन्हें वर्तमान क्षेत्रों की ओर भगा दिया था।(20)
वाचिक परम्परा में पुराण वर्णित कथा विषयक स्मृतियाँ
प्रहलाद के पुत्र विरोचन हुए। विरोचन के पुत्र चिरंजीवी महाबलि हुए। महाबलि के सबसे बड़े पुत्र बाणासुर हुए। बाणासुर के धर्म पुत्र (धर्म सम्मत पुत्र, जो कर्त्तव्य ज्ञान की दृष्टि से उत्पन्न किया या माना गया हो, केवल कामवासना का परिणाम न हो) शिवासुर हुए। शिवासुर की धर्म पत्नी-पतिव्रता शिवानी थी। इसी का पुत्र भालुका या भालुक हुआ। अका जनजाति में परंपरा से चले आ रहे मान्य विश्वास के अनुसार ईस्ट कामेंग ज़िला में भराली नदी के दाहिने तट पर स्थित भालुकपोङ् गिरि- “दुर्ग का निर्माण शोणितपुर-नरेश वाणासुर के पौत्र भालुका अथवा भालुक ने कराया था।”(21) कहीं-कहीं यह उल्लिखित मिलता है कि भालुका बाणासुर का नाती था।(22) इस क़िले को 10वीं से 12वीं शताब्दी का बताया गया है।
ऐतिहासिक यथार्थ से सम्बंधित खंडहर
अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल में मध्यकाल से सम्बंधित खंडहर पाए गए हैं। ये खंडहर असम के मैदानी क्षेत्र को अरुणाचल प्रदेश के पर्वतीय अंचल से जोड़ते हैं। यहाँ रहने वाली न्यीसी जनजाति में प्रचलित कहानी में यह बताया गया है कि ईंटानगर में पाए जाने वाले दुर्ग के खंडहर असम के किसी शरणार्थी राजा से सम्बंधित हैं।
अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर का नाम राजधानी में मिले ईटों से बनी दुर्गनुमा संरचना के आधार पर पड़ा है। एल.एन. चक्रवर्ती द्वारा दिए गए विवरण से ज्ञात होता है कि यह दुर्ग 14वीं सदी के उत्तरार्ध में बना था। राजा रामचंद्र ने इसका निर्माण करवाया था। रामचंद्र ने इस शहर का नाम मायापुर रखा था। राजा का दूसरा नाम मायामत्त भी था।(23) उल्लेखनीय है कि असम और अरुणाचल की सीमाएँ मध्यकाल में नहीं थीं। डॉक्टर वाणीकांत काकती का मानना है कि मार्कण्डेय पुराण में “लौहित्य समन्वित प्राग्ज्योतिष” उल्लिखित है: प्राग्ज्योतिषा: सलौहित्या: (श्लोक-55/13) (24)।
बालिजान और तारासो के अंतर्गत रामघाट के निकट व्यास कुंड नामक गुफा है। यह गुफा अहोमों के समय से विद्यमान है। पहले यह गुफा बड़ी थी। वर्षा एवं भूस्खलन के कारण छोटी हो गयी। श्री तेची तागुङ् ने लिखा है कि “खुदाई में 226 मीटर लम्बे क़िलेबंदी का पता चला है जो पत्थर के ब्लॉक, जली हुई ईंटों और पत्थर के शिलाखंडों से बना जिसमें एक द्वार है। कुछ पत्थरों में धनुष और तीर, त्रिशूल जैसी आकृति मिली है। खुदाई के स्थल से टूटा हुआ शिवलिंग भी प्राप्त हुआ है।...पत्थर की सीढ़ी के अवशेष भी पाए गए हैं।”(25) इसे 12वीं-13वीं शताब्दी का बताया गया है।
14वीं-15वीं शताब्दी के पत्थरों से बनी संरचना के खंडहर सेइजोसा स्थित नक़्शा (नक्षत्र?) पर्वत पर पाए गए हैं। इसका समय 14-15वीं शताब्दी बताया गया है। पत्थरों से बना गोल कुआँ, शिला में उत्कीर्ण आकृतियाँ, घर के लिए बनी पत्थर की कुर्सियाँ (जिस पर घर बनाया जाता है) और स्तंभ पाए गए हैं। इन्हें असम के राजाओं द्वारा बनवाया हुआ माना जाता है।प्रदेश में तेजू के पास एक मिट्टी से बना दुर्ग भी प्राप्त हुआ है। इसे 14वीं-15वीं शताब्दी का बताया जाता है।
शंकरदेव से दीक्षा
शंकरदेव भारतीय चेतना से समन्वित थे तो उनसे दीक्षित और अपनी जाति से उन्हें जोड़ कर देखने वाली दृष्टि में यदि भारतीय चेतना की झलक दिखे तो यह स्वाभाविक माना जाएगा। नोक्ते जनजाति के बहुत से लोगों में विद्यमान सनातन धर्म समन्वित स्थानीय संस्कृति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। डॉक्टर सी.ई.जीनी ने लिखा है, “कहा जाता है कि ‘वोकते’ (पुस्तक में नोक्ते लिखा होना चाहिए था) जाति के एक सरदार ने असम के महापुरुष शंकरदेव से दीक्षा ग्रहण की थी तथा उन्हें नाम नरोत्तम नाम से जाना जाने लगा था। इस दृष्टि से वोकते एवं असमीया वैष्णव धर्म के अनुयायियों में सांस्कृतिक सम्पर्क और साम्य दिखाई पड़ता है। वे अपने को हिंदू कहते हैं।”(26)
शंकरदेव और मिसिंग जनजाति
मिसिंग जनजाति जो पहाड़ी क्षेत्र के मीरी (जो अब निशी जनजाति के रूप में अपनी पहचान घोषित करती है) से अलग मैदानी क्षेत्र में मीरी के रूप में जाने जाते थे और जिनके कुछ लोग अभी भी अरुणाचल की आबादी का अभिन्न हिस्सा हैं, शंकरदेव को अपनी जनजाति का मानती है। डॉक्टर देवकांत पांगिङ् ने मिसिंग जनजाति में पाए जाने वाले इस विश्वास का उल्लेख किया है कि “शंकर देव मूलतः मिसिङ जाति के थे इसलिए शंकर देव द्वारा प्रचारित वैष्णव मत को मिसिङ् लोगों ने स्वीकार कर लिया, किंतु पूर्ण रूप से नहीं। शंकर देव के मत को मानते हुए भी मिसिंग लोगों में अपने आदि धर्म की प्रथाओं-परम्पराओं का भी पालन किया जाता है।”(27) शंकरदेव कायस्थ जाति से थे, लेकिन महापुरुष जाति से ऊपर उठे होते हैं। लोग महापुरुष को अपने समुदाय से जोड़ने में गौरवान्वित महसूस करते हैं।
बोन धर्म, बुद्ध मत
यहाँ बोन नामक अत्यंत प्राचीन धार्मिक संप्रदाय के लोगों की बस्ती भी है जो कैलाश-मानसरोवर में भी आस्था रखती है और यमराज की प्रतिमा की पूजा भी करती हैं। लेकिन यह अलग धर्म है जो बौद्ध धर्म से अधिक समानता रखता है। स्थविरवादी एवं महायानी शाखाएँ भी हैं। मोनपा और शेरदुकपेन क्षेत्र में एक क़िला, स्तूप और गोमपा पाए गए हैं जो मध्यकाल के हैं। अन्य क्षेत्रों में भी बौद्ध धर्म के वज्रयान सम्प्रदाय से सम्बंधित मूर्तियाँ मिली हैं। अनेक ग्रंथों में बुद्ध को विष्णु का अवतार माना गया है, हालाँकि “कुमारिल भट्ट जैसे विद्वान बुद्ध के अवतार को स्वीकार नहीं करते थे; वृद्धहारीत स्मृति बुद्ध के पूजन का वर्जन करती है”(28)। बौद्धों का वाङमय है। जब तावांङ में नानकदेव आए थे तब यहां महायानी शाखा के मतावलंबी अपने मत का प्रचार कर चुके थे। उनके निर्माणाधीन गोम्पा थे, कुछ का निर्माण हो भी चुका था। नानकदेव मेचुका में भी साधना के लिए अल्प अवधि के लिए ठहरे थे। ऐसा वहाँ के स्थानीय लोगों का मानना है। यह समय पहली ‘उदासी’ का था या तीसरी का, यह ज्ञात नहीं है। ज़्यादा सम्भावना है पहली उदासी में वे तवाँग आए होंगे, क्योंकि भूटान के पड़ोस में तवाँग है। तीसरी उदासी में “माना जाता है कि चीन भी गए गए थे, इसके समर्थन करने के लिए साक्ष्यों का संग्रह चल रहा है।”(29) चीन में वे संभवतः नानकिंग तक गए थे। सम्भवतः नानकिंग (Nanking-अब Nanjing) नाम भी तभी से पड़ा हो। चूँकि वे तिब्बत के सुमेरु पर्वत होते हुए आए थे, इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि तीसरी उदासी (1514-1518 ई.) में मेचुका आए हों! लेकिन इस अनुमान के साक्ष्य नहीं हैं। तावाँङ में स्थित एक गोम्पा-तावाङ गालदान नामगिये ल्हात्से-का निर्माण 1681 ई. में हुआ था। इसे दूसरा सबसे बड़ा प्राचीन गोम्पा माना जाता है। इसे मीरा लामा द्वारा निर्मित किया गया था। मीरा लामा बौद्ध धर्म का प्रचार करना चाहते थे, मगर बात बन नहीं पा रही थी। तब पाँचवें दलाई लामा ने स्थानीय लोगों को सहयोग करने के लिए संदेश भेजा, साथ ही एक सूत का एक गोला भी दिया और कहा कि वे वहाँ जाकर अपनी इच्छा से जगह का चुनाव करके सूत के गोले में से निकले सूत से उस जगह को घेर दें। यही जगह की चौहद्दी होगी। चूँकि उन्होंने अपने पोनी नामक अश्व से स्थान के लिए संकेत प्राप्त किया था, इसलिए उस स्थान का नाम तावाङ् पड़ा। “ता का अर्थ है घोड़ा और वाङ् का अर्थ है चुना गया। अर्थात् वह स्थान जिसका चुनाव घोड़े ने किया हो।”(30) उल्लेखनीय है कि “रूपा गोम्पा में वासुदेव विष्णु की भी एक मूर्ति (ग्यारहवीं शती की अनुमानतः) है”।(31) जातक कथाओं में उल्लिखित है कि बुद्ध ने पिछले जन्म में वासुदेव के रूप में भी जन्म लिया था।(32) महायानियों में प्रचलित लिपि ब्राह्मी वंश-वृक्ष की शाखा के आधार पर निर्मित है। स्थविरवादियों की लिपि ब्राह्मी वंश-वृक्ष की एक शाखा है!
विजयनगर में अष्टभुजीय चबूतरे पर एक स्तूप के अवशेष पाए गए हैं। इस स्तूप के आसपास सैकड़ों मिट्टी के सैकड़ों टीले पाए गए है जिनमें शव दफ़नाएँ गए है। खोदाई में बुद्ध की बहुत सी मूर्तियाँ भी मिली हैं। इस क्षेत्र के आसपास स्थविरवादियों की बस्ती है। यहाँ के बौद्ध विहारों में भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध की बैठी हुईं मूर्तियाँ भी पायी गयी हैं जिनका निर्माण काल 18वीं शताब्दी बताया गया है।
भारत का मुक्ति संग्राम और अरुणाचल प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानी
अक्सर आधुनिक राष्ट्र से संबंध रखने वाली चेतना को ही राष्ट्रीय चेतना के रूप में जाना जाता रहा है। ब्रिटिश राजका प्रतिरोध करने के क्रम में इस क्षेत्र में आधुनिक भारत से सम्बंधित राष्ट्रीय चेतना, भारतीय राष्ट्र से सम्बंधित स्पंदन शनैः शनैः पनपता चला गया। इसमें संदेह नहीं। लेकिन आधुनिक राष्ट्रीय चेतना से पूर्व इस क्षेत्र में सांस्कृतिक राष्ट्रीय चेतना की परम्परा भी सक्रिय रहती चली आयी है। जब देश के और क्षेत्रों में राष्ट्रीय चेतना के अंकुरित होने के कारण राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि का निर्माण हो रहा था तब इस क्षेत्र में भी अंग्रेज शासकों के प्रति प्रतिवादी चेतना हिंसक प्रतिरोध के रूप में कई बार दिखी। स्वातंत्र्योत्तर भारत में अरुणाचल प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय चेतना विशेष रूप से आज के रूप में दिखी। अंग्रेज शासकों ने इस क्षेत्र में इनर-लाइन परमिट लागू कर रखा था। इसलिए यह क्रम दिखाई पड़ता है। चूंकि अंग्रेज शासकों ने प्रदेश विषयक चेतना के आदि रूप का निर्माण कर रखा था, इसलिये यहाँ भारतीय राष्ट्रीय चेतना को प्रकट होने में देरी नहीं हुई। भारतीय संविधान ने प्रदेश विषयक चेतना को भारतीय राष्ट्रीय चेतना के साथ संश्लिष्ट कर आज के अरुणाचल प्रदेश को क्रमशः एक संगठित रूप प्रदान किया।
आज के अरुणाचल प्रदेश को भारतीय राष्ट्रीय चेतना के विद्यमान रूप तक पहुँचने में बड़ी लंबी यात्रा तय करनी पड़ी है। इस पर विहंगावलोकन आवश्यक है। चूंकि अंग्रेज़ी राज के प्रतिरोध में आधुनिक राष्ट्रीय चेतना ने रूप ग्रहण करना आरंभ किया, इसलिए इस क्षेत्र में हुए प्रतिरोधों का संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक है। अंग्रेजों की साम्राज्यवादी-उपनिवेशवादी नीति भारत में अपना शिकंजा कसती चली जा रही थी। एक बड़ा वर्ग समूचे भारत में इसका प्रतिरोध कर रहा था। प्रतिरोध की इस परम्परा में अपने ढंग से अरुणाचल भी शामिल हुआ। अरुणाचल प्रदेश में तागी राजा, मेदी राजा, ताना नान्ना, तेची गुबिन, लाङ्ङा पोज़ा (गुङ्ली), मोज़े रीबा, मोज़ी रीबा, लीगिन बोमजेन, चौउपा प्लाङ्गलू अलियास रोनुआ गोहांई, तोवा गोहांई, मातमुर जामो, कुङ्जिङ् वाङ्गम, वाङ्सिन वाङ्स्पा, ताजी देले, पोङ्गे देले, नीङ्गरू तुमुङ्ग, बोम सिङ्पो, बीसा गाम जैसे अल्पख्यात नायकों की बड़ी गौरवशाली परम्परा रही है। मोजे रीबा, मोजी रीबा और लीगिन बोमजेन दीपा कांग्रेस आंदोलन से जुड़े हुए थे।(33) अंग्रेजों से संघर्ष के क्रम में अनेक लोग शहीद हुए जिनमें 76 के नाम ज्ञात हैं। इस संघर्ष में अनेक स्वतंत्रता सेनानी शामिल हुए जिनमें 128 के नाम ज्ञात हैं। इन्होंने अंग्रेजों का प्रतिरोध करने में अपने अदम्य साहस का परिचय दिया। प्रतिरोध की परंपरा विरल और खंडित रही। लेकिन इसी से यह अनुल्लेखनीय नहीं हो जाता।
पहले प्रतिरोध का विवरण देते हुए पूजा शर्मा ने लिखा है, “अका जनजाति के साथ अंग्रेजों की पहली टक्कर सन् 1829 ई.में हुई। इसके बाद अका जनजाति के सरदार तागी राजा को अंग्रेज सरकार ने क़ैद कर गोहाटी जेल में भेज दिया। जेल से छूटने के बाद सन् 1835 ई.में उन्होंने अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने के लिए बालीपाड़ा चौकी के रक्षक सैनिकों को मार चौकी पर क़ब्ज़ा कर लिया।”(34) सन् 1841 ई. में भी अका जनजाति के लोग अंग्रेजी चौकी में काम कर रहे लोगों को पकड़ कर ले गये। सन् 1883 ई. में भी अका लोगों ने प्रतिरोध किया। सन् 1830 ई. में सिंग्फो जनजाति के लोगों ने अंग्रेजों का प्रतिरोध किया था। लेकिन “सिंग्फो जनजाति द्वारा किए गए विद्रोह में ख़ामतियों ने अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया।”(35) 1839 ई. में खाम्ती जनजाति के लोगों ने प्रतिरोध करने के क्रम में अंग्रेजों पर हमला कर दिया। “उन्होंने सदिया में स्थित पूरी रेजिमेंट जला दी, मेडिकल स्टोर ध्वस्त कर दिया, तोपें, बंदूक आदि सब कुछ जला दिया, अंग्रेज़ी शासन के सारे चिह्नों को जला दिया। यहाँ तक कि मेजर ह्वाइट को मार डाला।”(36) सन् 1848 ई. में अंग्रेजों की पहली टक्कर गालो जनजाति के साथ हुई। सन् 1854 ई. में लोहित सीमांत मंडल में क्रिक और उसके सहकर्मी ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए निकले थे। इन्हें मार डाला गया। फरवरी, 1878 ई. में तिरप सीमांत मंडल के नीनू बस्ती में जयपुर के सहायक आयुक्त लेफ्टिनेंट होल्कोब और उसके 8 आदमियों को मार डाला गया। इसमें 50 अन्य घायल हुए। सन् 1858 ई. में मिन्योंग जनजाति के लोगों ने अंग्रेजों का प्रतिरोध किया। 1859 ई. में पासी जनजाति के लोगों ने अंग्रेजों का प्रतिरोध किया। 1893 ई. में पादाम जनजाति के लोगों ने अंग्रेजों का प्रतिरोध किया। “उन्होंने अंग्रेजों के एक मिलिटेरी सिपाही को मार दिया और उसकी राइफ़ल छीन ली।”(37) थोड़े दिनों बाद उन्होंने गश्ती कर रहे 7 सिपाहियों पर हमला किया। इसमें एक सिपाही की मृत्यु हुई। एक घायल हुआ। इसे शमित करते हुए अंग्रेजों के 40 लोग मरे और 40 घायल हुए। 1911 ई. में मिन्योंग लोगों ने पुनः प्रतिरोध किया। “विद्रोह में विलियम्सन, उनके मित्र ग्रेगरसन तथा कई कुली और सेवक मारे गए।”(38) इसके बाद अंग्रेजों ने अपना केंद्र स्थापित किया, शिक्षण संस्थान आदि स्थापित किए।
वाचिक परंपरा में अभिव्यक्त भारतीय राष्ट्रीय चेतना
अरुणाचल प्रदेश में आधुनिक भारत में विद्यमान राष्ट्रीय चेतना को लोक साहित्य में अभिव्यक्ति के स्तर पर भी चिह्नित किया गया है जिसमें महात्मा गांधी की तरह बनने की आकांक्षा व्यक्त की गयी है। उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त कर सभी को एकरूप देखने का संकल्प व्यक्त किया गया है। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, चंद्रशेखर आजाद की भांति भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होकर संघर्ष करने का संकल्प व्यक्त किया गया है। सुभाषचंद्र बोस की भाँति भारतवासियों को अंग्रेजों से संघर्ष करने के लिए जाग्रत करने की भावना को अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। राजेंद्र प्रसाद, इंदिरा गांधी की भाँति देश की सेवा करने का संकल्प लिया गया है। महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा वाले रास्ते पर चलने का संकल्प व्यक्त किया है–
ङो गानदी किसापे अिये/ आर आगम् आगिन पे लुये
ताकाम आमिअेम पे लुये/ ताकाम आमिअेम आतेल् पे काये-
आरलक् आमिअेम लुकुमये-/ ङ गानदी किसापे अिये।
ङ जहरलाल किसापे अिये-/ ङम आगिन् पे ङिरदपे काये-
बारत् सादीन निसनेम् ताम्ते पे बमये-/ तालेङ कितकुसिम् आङपे अियिन् ये-
ङ जहरलाल किसापे अिये।/ ङ आजाद किसापे अिये-
आग्मल आतेत् आगेरल आतेत्-/ आमङ् लेगापे आगिअेम् कसिअे-
आसि लेगापे आपिअे तरये-/ ङ आजाद किसापे अिये।
ङ नेताजी सुबास पे अिये-/ आगमे अमप दर्दपे लुये-
जयहिनलक् अिपना किदारेम अुतये-/ दीतै मापाङ् कगङ् यिङकङे तातेय-
ङ नेताजी सुबास् पे अिये।/ ङ सरुजिनी नाअिदु पे अिये-
आगमे तिनामे आगेरे कामपुवे-/ आगमलक् आमिअेम मेरये-
ताकामेम आतेल कपे लादुम सियेकु-/ ङ सरुजिनी नाअिदु पे अिये।
ङ राजेन्दर परसाद् पे अिये-/ मिनिर मिकाङ आबुपे अिये-
आपिअे आतेत आगेरे मिनाङ-/ मिबम् सिनाम् देम् अिमामिल मेमाङ-
ङ अिन्दीरा गान्दी पे अिये-/ कङेस केबाङ रुतुम् पे अिये-
आगमे रेमाक् आपिअि तरनामे-/ आमि ताकामेम् आङपे अियिनये-
ङ अिन्दीरा गान्दी पे अिये।“(39)
इसी तरह एक अन्य गीत में कहा गया है कि भारतमाता के सब प्रदेशों में से एक हमारा अरुणाचल प्रदेश है।
राजनीतिक पराधीनता के दिनों में देश के एकीकरण की प्रक्रिया भी जाने अनजाने चलती रही। गैर ब्रिटिश भारत को भारतीय गणराज्य में विलय कराने वाले एकीकरण के शिल्पी सरदार वल्लभभाई पटेल के सफल प्रयासों के बाद भी यह प्रक्रिया जारी रही। उदाहरणार्थ-पुदुच्चेरी, गोवा और सिक्किम। इस दृष्टि से आज के अरुणाचल प्रदेश के इतिहास पर सरसरी निगाह आवश्यक है।
अरुणाचल प्रदेश के आधुनिक इतिहास के बारे में लिखित जानकारी 24 फरवरी 1826 को यन्दाबो में ईस्ट इंडिया कम्पनी और बर्मा के राजा के बीच हुई संधि के बाद से प्राप्त होती है। इस संधि के फलस्वरूप तत्कालीन असम राज्य, जिसमें सदिया भी शामिल था, ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया। अंग्रेजों द्वारा शासन की बागडोर अपने हाथ में रखते हुए राजा पुरंदर सिंह को सन् 1833 ई. में ऊपरी असम के इलाक़े पर शासक के रूप में प्रतिष्ठित करना और फिर सन् 1838 ई. में उनके राज्य को ब्रिटिश राज्य में मिला लेना, असम के पूर्वांचल क्षेत्र में ख़ामती जनजाति का निवास करना और ब्रिटिश भारतीय सेना और बर्मी सेना के बीच हुए युद्ध में ख़ामती जनजाति वाले क्षेत्र को अंग्रेजों के अधीन कर लिया जाना-यह इंगित करता है कि यह क्षेत्र सीमांत क्षेत्र था। अंग्रेजों को विरासत में यह मिला। गालो जनजाति के क्षेत्र का “दख़लि इलाका”(40) यह सूचित करता है कि अंग्रेज शासक आवश्यकता के अनुसार आगे बढ़कर स्थानीय निवासियों के समक्ष अपने अधिकार क्षेत्र को इंगित करते जाते थे। सन् 1835 ई. में ब्रिटिश भारत की सरकार ने नॉर्थ-ईस्ट फ्रण्टियर (असम) को नोन रेग्युलेशन प्राविन्स-ग़ैर विनियमन प्रांतों-के अंतर्गत ला दिया। 27 अगस्त 1873 को बंगाल इस्टर्न फ्रण्टियर रेगुलेशन, 1873 को अधिनियमित करते हुए इनर लाइन का सूत्रपात किया गया और अरुणाचल में आने के लिए शासन से इनर लाइन परमिट लेना अनिवार्य हो गया। डॉक्टर सी.इ .जीनी का कथन है कि “यह बाहरी रेखा प्रशासनिक सुविधार्थ थी। इसका उत्तरी भू-भाग भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य का अभिन्न अंग था।”(41) सन् 1881-82 में अरुणाचल के लिए प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किए गए जो सीमा क्षेत्र रेग्युलेशंज़, 1880 के अनुसार कर्तव्य का निर्वहण किया करते थे। 1914 ई. तक अरुणाचल असम फ़्रंटियर ट्रैक्ट के नाम से जाना गया। फ्रण्टियर शब्द वही अर्थ देता है जो नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविन्स नाम में फ्रण्टियर शब्द का अर्थ निहित है।
ब्रिटिश सरकार के समय आए ईसाई मिशनरीज, उनके बाइबिल अनुवाद, उनके द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थान, चिकित्सालय, उनके द्वारा अंग्रेजी भाषा की प्रचलित लिपि में किए गए धार्मिक प्रचार, ब्रिटिश भारत सरकार की राजभाषा अंग्रेजी, ब्रिटिश सरकार की सेना में अंग्रेजी लिपि का व्यवहार, ब्रिटिश सरकार का प्रशासनिक ढाँचा-इन सबने भी अरुणाचल प्रदेश के स्थानीय निवासियों की चेतना को विस्तार दिया।
भारत: एक बनता हुआ राष्ट्र
स्वतंत्रता संग्राम के दौर में अनेक राष्ट्रवादी मानते थे कि भारत एक बनता हुआ राष्ट्र भी है। इसीलिए भारत का आधुनिक राष्ट्र बोध यह मानकर चलता है कि देशभक्ति और राष्ट्रीय चेतना के लिये सायास प्रयास की भी आवश्यकता है और यह होते रहना चाहिए-सीमांत प्रांत होने के नाते तो और भी!
देशज आस्था और विश्वास
अरुणाचल में अनेक जनजातियाँ जैसे तानी समुदाय में सूर्य देवता-चंद्र देवता (दोन्यी-पोलो), तागिन समुदाय में भू देवता-चंद्र देवता (सी-दोन्यी), मोपिन आने (समृद्धि की देवी), वृक्ष देवता, पर्वत देवता, नदी देवता के पावन रूप को स्वीकार करती हैं। मिथुन और धनेश से सनातनधर्मी चिर परिचित हैं। कोई–कोई जनजाति शिलाओं के दिव्य रूप को स्वीकार करती है। भूत-प्रेत, जादू, टोना-टोटका में जनजातियों की आस्था और विश्वास है। ये कुछ तत्व सनातन धर्म में भी हैं।
शाक्त मत
स्थानीय लोक विश्वास के अनुसार आकाशी गंगा शक्ति पीठ है जहाँ सती का एक अंग गिरा था। शाक्त मत की दृष्टि से ताम्रेश्वरी देवी मंदिर उल्लेखनीय है। ताम्र वर्ण की संहार रूपिणी ताम्रेश्वरी देवी की मूर्ति जाग्रत विग्रह थी। देवी नर-बलि स्वीकार करती थीं। ब्रिटिश सरकार के आदेश से पहले नर-बलि पर रोक लगी, फिर पूजा पर भी रोक लगा दी गयी। वार्षिक पूजा में सन् 1835 ई. तक नर-बलि होती थी। देवी की पूजा 1846 ई. तक बंद हो चुकी थी। 1848 ई. तक देवी मंदिर था। 1848 ई. में तांबे की चादरों से निर्मित छत नहीं रही। 1905 ई.में मंदिर का अवशेष भर बचा था। 1956 ई. में भग्नावशेषों की जांच भारत सरकार द्वारा की गई थी। सन् 1959 ई. की बाढ़ में पाया नदी में पांक भर जाने से ताम्रेश्वरी पीठ के सारे अवशेष मिट्टी तले दब गए। उस पर घना जंगल उग गया है।(42) इस स्थल को शक्ति पीठ का दर्जा प्राप्त था। जगन्माता कामाख्या की तरह यहाँ भी योनि पूजा का प्रचलन था। लेकिन यह पत्नीरूपिणी पार्वती से सम्बंधित बताया जाता है। इस स्थल पर भी सती के योनि प्रदेश का कुछ भाग कट कर गिरा था। मंदिर बनने से पहले देवी कच्चे मांस खाने वाली के रूप में प्रख्यात थीं। ताम्र सुरी के नाम से भी लोक में जानी जाती थीं। पुराहुतान नामक व्यक्ति की उनमें परम अनुरक्ति थी। इससे सम्बंधित एक लोक कथा भी प्रचलित है। भीष्मक पुत्री रुक्मिणी यहीं पूजा करती थी। शिशुपाल के साथ रुक्मिणी के विवाह का आयोजन भी यहीं प्रस्तावित था। रुक्मिणी हरण का स्थल यही है। पहले यहाँ के पुजारी मिशमी जनजाति से थे, बाद में देउरी पुजारी हुए।
शैव मत
शिव का एक पुराना गुहा मंदिर सुबनसिरी और मेङो के संगम पर एक पहाड़ पर स्थित है। गुहा में शिवलिंग पर जल की बूँदें छत से टपकती रहती हैं। 1965 ई. में ताम्रेश्वरी मंदिर से कुछ दूर शिवालय का आधार भी मिला है । यहाँ प्राप्त शिवलिंग को तेजू में स्थापित किया गया है।(43) सन 2004 ई. में 14 जुलाई को ज़ीरो में शिवलिंग चिह्नित हुआ। इसे सिद्धेश्वर नाथ नाम दिया गया है। उल्लेखनीय है कि अष्ट मूर्ति में सूर्य और चंद्र भी हैं। देशज आस्था और विश्वास को मानने वाले जनजातियाँ सूर्य-चंद्र देवता (दोञ्यी-पोलो) में आस्था रखती हैं।
अरुणाचल प्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय चेतना की परम्परा की विवेचना के क्रम में धर्म को विशेष महत्व दिए जाने के पीछे दो तर्क हैं। पहला तर्क यह है कि भारत आदिकाल से धर्म को प्राणों के समान प्रिय समझने वाला-धर्मप्राण देश रहा है। पावनता बोध धर्म का मर्म है। ईरानियों ने ईसाब्द से बहुत पहले सप्त सिंधु प्रदेश को 16 पवित्र स्थानों में एक माना है। आत्मसातीकरण के लिए प्रसिद्ध विश्व गुरु माना जाने वाला भारत अपने नाम में ही ज्योति तत्व को समोए हुए है-भा अर्थात् प्रकाशरत अर्थात् तल्लीन-प्रकाश-प्रकाश में तल्लीन!
दूसरा तर्क यह है कि भारत देवी-देवताओं का देश माना जाता रहा है। परम्परा से चीनी यह मानते आए हैं कि “भारत देवों का देश है।”(44) लेकिन देवी और देवता में स्पष्ट भेद है! कामरूप में जितने लोग हैं वे सब देवता स्वरूप हैं (योगिनी-तंत्र 1/11/24)। कामरूप स्वयं देवी क्षेत्र है। अन्यत्र देवी विरल हैं परंतु कामरूप के घर-घर में देवी हैं अर्थात् कामरूप की स्त्री ही देवी स्वरूपिनी है-“कामरूपं देवी क्षेत्रं कुत्रापि तत् समं न च। अन्यत्र विरला देवी कामरूपे गृहे-गृहे।। (2/6/150)” (45)। यहीं पर देवी -देवता विषयक मीमांसा अपेक्षित है। कश्यप की दो पत्नियाँ थीं। पहली पत्नी दिति से दैत्य और दूसरी पत्नी अदिति से 33 देवता उत्पन्न हुए। दोनों में विचारधारा के स्तर पर टकराहट थी। दोनों का आपस में संघर्ष चलता रहता है। दैत्य देवताओं के हरेक काम में अवरोध उत्पन्न करते आए हैं। देव दैवीय शक्तिसंपन्न होते हैं। दैवीय शक्तियाँ दो प्रकार की हैं-1.देव और 2.देवता। देव स्वयं शक्तिसंपन्न हैं। देव, डॉक्टर उषा पुरी विद्यावाचस्पति के शब्दों में, “जीवन को क्रीड़ा समझकर विजय की इच्छा से सबसे उचित व्यवहार करता हुआ स्वयं दैदीप्यमान रहकर बड़ों का आदर करने वाला, प्रसन्न रहने वाला, जगत को स्वप्नवत मानकर इच्छित वस्तु प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील देव कहलाता है: दिव् क्रीडाविजिगीषा व्यवहार द्युति स्तुति मोद मद स्वप्न कांति गतिषु (सिद्धांत कौमुदी, तिङंदिवादि प्रकरण)।”(46) श्री अरविंद के अनुसार, “प्रत्येक देव दिव्य रूप में है-सबको अपने अंदर धारण किए रहता है-किंतु साथ ही अपना विलग अस्तित्व बनाए रहता है।”(47) निरुक्तकार ने देवता शब्द की व्याख्या करते हुए कहा, “जो कुछ देता है वही देवता है अर्थात् देव स्वयं द्युतिमान हैं– शक्तिसम्पन्न हैं–किंतु अपने गुण वे स्वयं में समाहित किए रहते हैं जबकि देवता अपनी शक्ति, द्युति आदि सम्पर्क में आए व्यक्तियों को भी प्रदान करते हैं। देवता देवों से अधिक विराट हैं क्योंकि उनकी प्रवृत्ति अपनी शक्ति, द्युति, गुण आदि का वितरण करने की होती है। जब कोई देव दूसरे को अपना सहभागी बना लेता है, वह देवता कहलाने लगता है। पाणिनि दोनों शब्दों को पर्यायवाची मानते हैं: देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा। यो देव: सा देवता इति (निरुक्त 7-15)। जब देव वेद-मंत्र का विषय बन जाता है तब वह देवता कहलाने लगता है। जिससे किसी शक्ति अथवा पदार्थ को प्राप्त करने की प्रार्थना की जाए और वह जी खोलकर देना आरम्भ करे, तब वह देवता कहलाता है (ऋ.9.1.23)। वेद-मंत्र विशेष में, जिसके प्रति याचना है, उस मंत्र का वही देवता माना जाता है।”(48)
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारतीय राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना को विविधता और एकता के संदर्भ में उद्घाटित करना आवश्यक है। इस क्रम में परम्परा बोध होना अपेक्षित है। पुरा कथाएँ, पुरा कथाओं से जुड़े स्थल, ऐतिहासिक स्थल, ऐतिहासिक स्थलों से जुड़ी कहानियाँ, ब्रिटिश भारतकालीन बोध, स्वाधीन भारत में उद्भूत चेतना के विकास क्रम इत्यादि का उल्लेख होते रहना चाहिए, तभी ऐतिहासिक स्मृति की विरासत की रक्षा सम्भव है।
1. श्यामाचरण दुबे, भारतीय समाज, (अनुवाद: वंदना मिश्र), पहला संस्करण 1985, पृष्ठ 3
2. एल. एन. चक्रवर्ती, अरुणाचल का आदिकालीन इतिहास एक झलक, (अनुवाद: सच्चिदानंद चतुर्वेदी), राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, दिल्ली, छठी आवृत्ति 2020, पृष्ठ 140
3. वही 128
4. वही 127
5. वही 139
6. वही 139
7. वही 139
8. डॉ. एम. सी. बेहरा, अरुणाचल की जनजातीय लोक कथाओं में परशुराम कुंड, (अनुवाद डॉ. डी. के. चौबे), अरुणप्रभा, अंक 01, प्रवेशांक 2001, हिंदी विभाग, अरुणाचल विश्वविद्यालय (सम्प्रति राजीव गांधी विश्वविद्यालय) पृष्ठ 63
9. डॉ. एम.सी. बेहरा, अरूणप्रभा, पृष्ठ 65
10. डॉ. आलोक सिंह, पूर्वोत्तर भारत और सिखगुरु, बहुवचन (पत्रिका), अंक 68-69–70-71, जनवरी-दिसम्बर, 2021, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा, पृष्ठ 60
11. वही
12. कालिदास, रघुवंश, चतुर्थ सर्ग, श्लोक 76, 78, 81, 84 कालिदास ग्रंथावली, प्रधान संपादक डॉ. मिथिला प्रसाद त्रिपाठी, (सम्पादक-अनुवादक: महामहोपाध्याय प्रो. रेवा प्रसाद द्विवेदी), (संयुक्त सम्पादक डॉक्टर सदाशिव कुमार द्विवेदी), प्रकाशक कालिदास संस्कृत अकादमी, उज्जैन, 2008, पृष्ठ 58, 59
13 वही
14. प्रो. कृष्णनारायण प्रसाद ‘मागध’, उदयाद्रि से अरुणाचल, अरुणप्रभा पत्रिका, अंक 01, 2001, हिंदी विभाग, अरुणाचल विश्वविद्यालय (सम्प्रति राजीव गांधी विश्वविद्यालय) पृष्ठ 1
16. वही, पृष्ठ 328
18. डॉ. धर्मराज सिंह, अरुणाचल की जनजातियाँ और ऐतिहासिक स्थान, अनुसंधान निदेशालय, अरुणाचल प्रदेश सरकार, ईटानगर, 1994, पृष्ठ 89
19. वही, पृष्ठ 86, 87
20. अरुण प्रभा, अंक 1, पृष्ठ 9
21. प्रो. कृष्णनारायण प्रसाद ‘मागध’, पृष्ठ 10
22. धर्मराज सिंह, पृष्ठ 77
23. वही, पृष्ठ 103
24. डॉ. वाणीकांत काकती, प्राचीन कामरूप की धर्म-धारा, (अनुवाद: डॉक्टर भूपेन्द्र रायचौधरी), पूर्वांचल प्रकाश, गुवाहाटी, प्रथम प्रकाशन 2009, पृष्ठ 18
25. तेची तागुङ, सामाजिक-सांस्कृतिक एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन, प्रयोजनमूलक हिंदी में परास्नातक डिप्लोमा पाठ्यक्रम के परियोजना कार्य के अंतर्गत प्रस्तुत लघु शोध प्रबंध, सत्र 2021-22, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, पृष्ठ 47
26. डॉ. सी.इ. जीनी, पूर्वांचल प्रदेश में हिंदी भाषा और साहित्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 1990, पृष्ठ 26
25.तेची तागुङ: 27. देवकांत पांगिंग, खड़ी बोली और मिसिङ लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन, अरुणाचल विश्वविद्यालय (सम्प्रति राजीव गांधी विश्वविद्यालय), पीएच.डी. की उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध, सन् 2002 ई., पृष्ठ 183
28. कृष्णनारायण प्रसाद ‘मागध’, श्री विष्णु और उनके अवतार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2001, पृष्ठ 293
29. https://rashtriyashiksha.com, कुलदीप मेहंदीरत्ता
30. धर्मराज सिंह, पृष्ठ 75
31. अरुण प्रभा, अंक 1, पृष्ठ 6
32. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, सूर-साहित्य, राजकमल प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 1985, पृष्ठ 19
33. report on the unsung heroes of Arunachal Pradesh who fought against the British, a project commissioned by the government of Arunachal Pradesh, Itanagar, prepared by department of history, Rajiv Gandhi university, Arunachal Pradesh 2022, page 144
34. पूजा शर्मा, वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य के उपन्यास ‘मृत्युंजय’ और जुमसी सिराम के उपन्यास ‘मातमुर जामोह’ का तुलनात्मक अध्ययन (स्वाधीनता आंदोलन के विशेष संदर्भ में), एम. फ़िल की उपाधि के लिए प्रस्तुत लघु शोध प्रबंध, राजीव गांधी विश्वविद्यालय 2018, पृष्ठ 90
35. वही, पृष्ठ 92
36. वही, पृष्ठ 92
37. वही, पृष्ठ 96
38. वही, पृष्ठ 97
39. डॉ. विजय कुमार यादव, अरुणाचल प्रदेश की आदी जनजाति के लोकगीतों का खड़ी बोली लोक गीतों के साथ तुलनात्मक अध्ययन, पी.एच.डी.उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध प्रबंध, राजीव गांधी विश्वविद्यालय 2020, पृष्ठ 274 275
40. पूजा शर्मा, पृष्ठ 95
41. डॉ. सी.इ. जीनी, पृष्ठ 27
42. प्रो. कृष्णनारायण प्रसाद ‘मागध, पृष्ठ 3
43. वही, पृष्ठ 4
44. भोलानाथ तिवारी, भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा, सम्पादक वी.रा.जगन्नाथन, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नवंबर 2002, नई दिल्ली, पृष्ठ 125
45. डॉ. वाणीकांत काकती, पृष्ठ 74
46. डॉ. उषा पुरी, विद्यावाचस्पति: भारतीय मिथक कोश, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली, चौथा संस्करण 2004, पृष्ठ 39
47.वही
48.वही
प्रोफ़ेसर, राजीव गांधी विश्वविद्यालय, दोईमुख, पापुम पारे, अरुणाचल प्रदेश
sssingharunachal@gmail.com,
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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