- नलिन नाथ
शोध
सार : महिला
सशक्तिकरण
वर्तमान
समय
के
ज्वलंत
मुद्दों
में
से
एक
है।
महिलाओं
के
लिए
समान
दर्जा
हासिल
करना, संसाधनों में
अधिकार
हासिल
करना, अपने निर्णय
के
अधिकार
का
समुचित
प्रयोग
हासिल
करना
बहुत
महत्वपूर्ण
है।
एक
महिला
को
अपने
जीवन
में
कई
बाधाओं
का
सामना
करना
पड़ता
है
उन
बाधाओं
का
सामना
करने
के
लिए
उनका
आर्थिक
और सामाजिक रूप
से
मजबूत
होना
जरुरी
है।
राजनीतिक
भागीदारी
भी
महिला
सशक्तीकरण
के
लिए
एक
मजबूत
कदम
है,
क्योंकि
इससे
महिलाओं
से
संबंधित
मुद्दों
पर
अधिक
ध्यान
केंद्रित
होता
है।
यह
शोध
राजनीतिक
भागीदारी
को
केंद्र
में
रखते
हुए
समकालीन
भारत
में
महिलाओं
की
स्थिति
को
विशेष
रूप
से
परखने
का
प्रयास
करता
है।
राजनीति
में
प्रवेश
के
लिए
एक
महिला
के
संघर्ष
और
उनके
सामने
आने
वाली
कठिनाइयों
और
चुनौतियों
को
उजागर
करने
का
भी
प्रयास
किया
गया
है।
इस
शोध
का
क्षेत्र
है
छात्र-राजनीति, प्रमुख रूप
से
जवाहरलाल
नेहरू
विश्वविद्यालय
और
दिल्ली
विश्वविद्यालय
की
महिला
छात्र-नेता।
इसमें
तीन
महिला
छात्र
कार्यकर्ताओं
से
व्यक्तिगत
साक्षात्कार
लिया
गया
हैं।
बीज
शब्द : सशक्तिकरण, पितृसत्ता, राजनीतिक
भागीदारी,
सामाजिक
अधिकार,
शिक्षा,
छात्र-नेता,
छात्र-राजनीति,
छात्र-दल,
मुद्दे,
चुनौतियाँ।
मूल आलेख :
1.1 भारत
में महिलाएँ
दुनिया में ऐसे कम ही देश हैं जहां महिलाओं को भारत जितना पूजा जाता है। इससे कई लोग यह मान सकते हैं कि महिलाओं की स्थिति अन्य स्थानों की तुलना में भारत में बेहतर होगी। पर ऐसा बिलकुल नहीं है। यदि हम वैदिक काल पर नज़र डालें, तो हमें मजबूत व्यक्तित्व और अधिक शक्ति और स्वतंत्रता वाली कुछ महिलायें याद आएंगी। गार्गी, मैत्रेयी और लोपामुद्रा उस समय की प्रसिद्ध महिला विद्वानों में शुमार थीं। इससे पता चलता है कि उस समय की शिक्षा कोई दुर्लभ चीज़ नहीं थी। महिलाओं को पुरुषों के समान दर्जा तो नहीं ही प्राप्त था, लेकिन आज की तरह के इतने विविध स्तर संस्तर नहीं थे। वे पवित्र ग्रंथों और वेदों की अच्छी जानकार भी हुआ करती थीं। बदलाव की शुरुआत तब हुई जब महिलाओं की शिक्षा धीरे-धीरे घरेलू और स्वैच्छिक अध्ययन तक सीमित हो गई। बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या, विवाह के लिए चुनने पर प्रतिबंध और कई अन्य सामाजिक बुराइयाँ अस्तित्व में आईं जो प्रारंभिक-वैदिक काल में प्रचलित नहीं थीं। महिलाओं को प्रतिबंध और भेदभाव का सामना करना पड़ा जिससे धीरे-धीरे हमारी संस्कृति में पितृसत्ता मजबूत होती गई। वैदिक काल के अंत आते-आते महिलाओं को मनोरंजन, प्रजनन की वस्तु भर माना जाने लगा ताकि उसे अपने अनुसार नियंत्रित किया जा सके। मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक महिलाओं की स्थिति बद से बदतर ही होती गई।
भारत में महिलायें खुद को परंपरागत रूप से घर की चारदीवारी में बंद पाती हैं, जहां उनकी एक निष्क्रिय भूमिकाएँ होती हैं। उनका जीवन पुरुषों के इर्द-गिर्द केन्द्रित रहता हैं। जैसा कि मनुस्मृति में उद्धृत किया गया है, "महिला को दिन-रात अपने (परिवार के) पुरुषों के अधीन रखा जाना चाहिए, और, यदि वे खुद को कामुक आनंद से जोड़ती हैं, तो उन्हें किसी के नियंत्रण में रखा जाना चाहिए। बचपन में उसके पिता उसकी रक्षा करते हैं, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र ही उसके रक्षक होते हैं। एक महिला को कभी भी स्वतंत्रता रहने के लिए उपयुक्त नहीं समझा जाता है।" (अध्याय IX, श्लोक 2.67-2.69 और 5.148-5.155)
महिलाओं को पुरुषों से कमज़ोर और हीन समझा जाता है। उसको समाज के बने-बनाये नियम और कानून के अनुसार रहना चाहिये। उसको हमेशा एक अच्छी महिला की भूमिका निभानी चाहिए जो सभ्य, सुशील, सहनशील और दूसरों से दबकर रहती हो। सोचनेवाली और बोलने वाली नहीं। रूसो का कहना था कि महिलाओं को पुरुषों की तरह तर्कसंगत बिलकुल नहीं होना चाहिए। ‘एमिले’ में उनके शब्द कुछ इस प्रकार हैं, “एक बार जब यह जाहिर हो जाता है कि पुरुष और महिला का चरित्र या स्वभाव एक जैसा नहीं है और उन्हें एक जैसा होना भी नहीं चाहिये, तो उन्हें एक समान शिक्षा भी नहीं मिलनी चाहिये।” (रूसो, एमिल, या ऑन एजुकेशन, 1762 ) उन्होंने साफ-साफ कहा, “महिलाओं की शिक्षा पुरुष के सापेक्ष होना चाहिये, उन्हें खुश करने के लिये, उनके लिये उपयोगी होने के लिये।” (रूसो, एमिल, या ऑन एजुकेशन, 1762 ) मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट ने ‘वेंडिकैशन ऑफ द राइट्स ऑफ़ वुमन’ में इन्हीं बिंदुओं को लेकर इसे ‘शिक्षा का भेदभाव’ कहा है जो लड़कियों के लिये न्याय-संगत नहीं है। उनके अनुसार, चूंकि राष्ट्र-निर्माण के लिए महिलाओं की भूमिका बहुत आवश्यक है इसलिये तर्कपूर्ण शिक्षा महिलाओं के लिये भी उतनी ही जरूरी है जितनी पुरुषों के लिये।
महिलाओं का इस पारंपरिक ढाचे में बने रहने का मतलब है; लैंगिक असमानता, उत्पीड़न, हाशिए का जीवन, अभाव, अवमूल्यन, आत्मविश्वास की कमी, अस्तित्व की कमी, प्रतिबंध, अशक्तता आदि जैसी जटिल स्थितियों को आँख-कान बंदकर लगातार अंगीकार करते रहना। नारीवादी आंदोलनों ने जरूर महिला-अधिकारों को लगातार उठाया है और उसके चलते सशक्तिकरण की पहल भी कुछ हद तक हुई है। लेकिन लगातार संघर्षों के बावजूद कोई यह नहीं कह सकता कि अपेक्षित संख्या में महिलाएं सशक्त हो गयी हैं। यह लड़ाई अब भी उतनी ही संघर्षपूर्ण स्थिति में जारी है।
सदियों से महिलाओं के साथ सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से होते रहे भेदभाव के पीछे बड़ा कारण विभिन्न पूर्वाग्रहों, रूढ़ियों और प्रतिगामी मूल्यों में निहित है जिसे यहाँ नियम-कानूनों की तरह ढोया जाता है। इन जड़बद्ध मान्यताओं से मुक्ति आवश्यक है ताकि हर महिला को शिक्षा, रोजगार, निजी स्वास्थ्य की चिंता और अपने लिए विवेकपूर्ण निर्णय लेने आदि जैसे न्यूनतम अधिकार मिल सके। भारत के संविधान में महिला सशक्तिकरण के प्रावधान हैं। कानून के समक्ष प्रत्येक नागरिक समान है, और लिंग के आधार पर भेदभाव निषिद्ध है। भारत सरकार ने भी महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए कई योजनाएं और नीतियां शुरू की हैं। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर भारत में आज भी महिलाओं के साथ हर स्तर पर भेदभाव ही किया जाता है और उन्हें दोयम नागरिक समझते हुए हाशिए पर रखा जाता है।
1.2 सशक्तिकरण
सशक्तिकरण का अर्थ है निर्णय लेने में सक्रिय भागीदारी, समान अवसर, आर्थिक स्वतंत्रता और राय देने का अधिकार, उत्पादक संसाधनों तक पहुंच जो कमाई बढ़ाने में सक्षम बना सकती है। इससे किसी भी प्रकार की असमानता से लड़ने की ताकत और स्वाभिमान व आत्मविश्वास प्राप्ति में सहायक माना जा सकता है। (संयुक्त राष्ट्र, 2012) अपने शोध प्रबंध में, पायल शाह ने 1980 के दशक में विकास के लिए सशक्तिकरण और सशक्तिकरण दृष्टिकोण को इस प्रकार परिभाषित किया है, "...सशक्तीकरण की धारणा उन दीर्घकालिक लक्ष्य को संतुलित करने का प्रयास करती है जो महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के साथ अल्पकालिक उद्देश्य जैसे पितृसत्तात्मकता, राजनीतिक-आर्थिक असमानता को चुनौती देती है जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर सामाजिक परिवर्तन होता है। (पायल शाह, 2011) नायला कबीर के अनुसार, "सशक्तिकरण उन प्रक्रियाओं को संदर्भित करता है जिनके द्वारा विकल्प चुनने की क्षमता से वंचित लोग ऐसी क्षमता प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में, सशक्तिकरण में परिवर्तन की प्रक्रिया शामिल है। जो लोग अपने जीवन में बहुत अधिक विकल्प चुनते हैं, वे बहुत शक्तिशाली हो सकते हैं, लेकिन वे सशक्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वह पहले कभी शक्तिहीन नहीं किये गये थे।'' (नैला कबीर, 2005)
"महिला सशक्तिकरण को समय के साथ होने वाली एक प्रक्रिया के रूप में माना जाता है, जो महिला एजेंटों को विकल्प बनाती है, संसाधनों को नियंत्रित करती है और रणनीतिक जीवन को विकल्प बनाती है।" (सुसान ली-रिफ़, 2010) एक महिला वह मुकाम हासिल करने के लिए संघर्ष करती है जहां उसका अपनी पसंद पर नियंत्रण हो। चुनाव करने के लिए एजेंसी का होना कई अन्य स्वतंत्र और आश्रित पहलुओं पर भी निर्भर करता है।
नैला कबीर की सशक्तिकरण की अवधारणा के अनुसार, इसके तीन आयाम हैं, यानी एजेंसी, संसाधन और उपलब्धियाँ। एजेंसी विकल्प चुनने की प्रक्रिया है, संसाधन माध्यम हैं और उपलब्धियाँ परिणाम हैं। एजेंसी, संसाधन और उपलब्धियाँ सभी एकीकृत हैं। “सशक्तिकरण की अवधारणा को बनाने वाले तीन आयामों को उन मार्गों का प्रतिनिधित्व करने के रूप में देखा जा सकता है जिनके माध्यम से सशक्तिकरण की ये प्रक्रियाएँ हो सकती हैं। किसी एक आयाम में परिवर्तन से दूसरे आयाम में भी परिवर्तन आ सकता है।” (नैला कबीर, 2005)
1.3 राजनीतिक
भागीदारी
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 के अनुसार, भारत 0.625 (1 में से) स्कोर के साथ 156 देशों में से 140वें स्थान पर है। ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स चार आयामों में पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर की जांच करता है--आर्थिक भागीदारी और अवसर, शैक्षिक प्राप्ति, स्वास्थ्य और अस्तित्व, और राजनीतिक सशक्तिकरण। (संयुक्त राष्ट्र महिला, 2021)
राजनीतिक सशक्तिकरण का संबंध राष्ट्रीय संसद में महिलाओं की सीटों की संख्या से है। “राजनीतिक सशक्तिकरण को तीन बिंदुओं के उपयोग करके मापा जाता है -- संसद में महिलाओं और पुरुषों का अनुपात, मंत्री स्तर पर महिलाओं और पुरुषों का अनुपात, और राज्य की महिला प्रमुख के साथ वर्षों की संख्या का राज्य का पुरुष प्रमुख के साथ वर्षों का अनुपात।" (निशा, 2018)
राजनीतिक सहभागिता सशक्तिकरण का एक महत्वपूर्ण पहलू इसलिये भी है क्योंकि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी और प्रतिनिधित्व कई महिला-संबंधी मुद्दों के लिये दरवाजा खोलता है। भारत सबसे अधिक आबादी वाला देश है, जहां महिलाएं आबादी का लगभग आधा हिस्सा है। लेकिन राजनीति में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का प्रतिनिधित्व काफी कम है।
1992 में संसद द्वारा पारित 73वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के तहत स्थानीय निकायों में चाहे ग्रामीण क्षेत्र हों या शहरी क्षेत्र, सभी निर्वाचित कार्यालयों में महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक तिहाई सीटें सुनिश्चित की गईं। इसी प्रकार, 74वें संवैधानिक संशोधन के तहत, नगर पालिकाओं (नगर परिषदों) को भी वार्ड स्तर पर महिलाओं के लिए सभी सीटों में से एक तिहाई आरक्षित करना आवश्यक है। महिला आरक्षण बिल 1996 से ही चर्चा का विषय रहा है। 2010, 2016, 2019 में महिला आरक्षण विधेयक में संसद में महिलाओं के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव रखा गया था। बिल राज्यसभा में पारित हो गया लेकिन लोकसभा में इसे मंजूरी नहीं मिली थी। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि महिलाओं के लिए राजनीतिक सत्ता में आना कितना मुश्किल है। यह बिल 2023 सितंबर पास तो हुआ लेकिन लागू होने में अब भी काफी वक्त है। राजनीति में महिलाओं की स्थिति पूरी दुनिया में किसी भी अन्य क्षेत्रों की तुलना में कम है, लेकिन भारत में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। अंतर-संसदीय संघ की रिपोर्ट के अनुसार, संसद में महिलाओं के प्रतिशत की रैंकिंग में भारत 193 देशों में 148वें स्थान पर है। लोकसभा (निचले सदन) में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 12.6% है जबकि राज्यसभा (उच्च सदन) में 11.5% है।
भारत को मुख्यधारा के क्षेत्रों में समान भागीदारी की सख्त जरूरत है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व न केवल उन लोगों को सशक्त बनाता है जो सम्मानित पदों पर निहित हैं बल्कि बाकी आबादी के संघर्षों को भी संबोधित करता है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी, बेहतर प्रतिनिधित्व और निर्णय लेने की प्रक्रिया, महिला-उन्मुख विकास, लैंगिक समानता और देश की समग्र प्रगति के लिए होगी। हमें राजनीति में अधिक महिलाओं की जरूरत है लेकिन सिर्फ संख्या में नहीं। महिलाओं को ज्यादातर मामलों में एक प्रॉक्सी या प्रतीक के रूप में देखा जाता है जहां उसके पति या परिवार के अन्य सदस्य का उस पर अधिकार होता है। लेकिन यह सभी महिलाओं की कहानी नहीं है। हमारे पास सशक्त व्यक्तित्व वाली महिला राजनेता हैं। महिलाओं को राजनीति में आने के लिए बस अधिक अनुभव और आत्मविश्वास की जरूरत है।
इसलिए इस शोध पत्र का उद्देश्य विश्वविद्यालय स्तर पर राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का अध्ययन करना और राजनीति में प्रवेश के दौरान महिलाओं के सामने आने वाले मुद्दों और चुनौतियों का विश्लेषण करना है।
2. अध्ययन का
उद्देश्य
• सशक्तिकरण और
राजनीतिक
भागीदारी
के
बीच
संबंधों
का
पता
लगाना
• महिला छात्र कार्यकर्ता के मुद्दों और चुनौतियों का विश्लेषण करना।
3. शोध प्रक्रिया
प्रस्तुत अध्ययन गुणात्मक शोध है। सामग्री एकत्र करने के लिए व्यक्तिगत साक्षात्कार किए गए थे। तीन महिला छात्र कार्यकर्ताओं का साक्षात्कार लिया गया। एक छात्र जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से थी और दो दिल्ली विश्वविद्यालय से। द्वितीयक स्रोतों में किताबें, ऑनलाइन पत्रिकाएँ, विभिन्न सरकारी/गैर-सरकारी वेबसाइटें, महिला सशक्तिकरण और राजनीतिक भागीदारी पर उपलब्ध लेख शामिल हैं। इस पेपर में महिला छात्र कार्यकर्ताओं के सामने आने वाली कठिनाइयों और संघर्षों पर चर्चा करने का प्रयास किया गया है।
4. निष्कर्ष
इस शोध के लिए, शोधकर्ता ने विश्वविद्यालय परिसरों में छात्र राजनीति से जुड़े व्यक्तियों की पहचान करने के लिए स्नोबॉल नमूनाकरण का उपयोग किया है। साक्षात्कार विश्वविद्यालय परिसर में ही किए गये थे। प्रतिभागियों का बाकी छात्रों से दूर, निजी तौर पर साक्षात्कार लिया गया। इसमें भाग लेने वाली तीन छात्राओं ने कहा कि वे अपनी पहचान उजागर नहीं करना चाहतीं इसीलिये शोध के आचार नीति को कायम रखते हुए किसी का नाम नहीं लिया गया है। दो छात्रा दिल्ली विश्वविद्यालय, कला संकाय से थीं और एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, स्कूल ऑफ सोशल साइंस से। साक्षात्कार प्रतिभागियों के कथनों को समझने के लिए विस्तृत जवाब वाले प्रश्न बनाये गये थे।
4.1 महिला
सशक्तिकरण की
समझ
जब उनसे पूछा गया कि महिला सशक्तिकरण का उनके लिए क्या मतलब है, तो छात्राओं ने सशक्तिकरण के बारे में अपनी समझ के अनुसार प्रतिक्रिया व्यक्त की। उनके विचार में तर्कसंगत निर्णय लेना, शिक्षा प्राप्त करना, नौकरी के अवसर, अपने वैवाहिक निर्णयों पर स्टैंड लेना, प्रजनन अधिकार, बेहतर आर्थिक-सामाजिक स्थिति आदि शामिल थे। दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा, जो छात्र समूह ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (एआईएसए) का भी हिस्सा रही है, ने कहा, “आर्थिक रूप से सक्षम होना सबसे महत्वपूर्ण है। यह हमें अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करती है। यदि हम आर्थिक रूप से मजबूत नहीं हुए, तो हमें अपनी जरूरतों के लिए दूसरों पर निर्भर रहना होगा जो अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें हमारे जीवन को नियंत्रित करने की शक्ति देगा।” तीनों इस बात पर सहमत थीं कि सशक्तिकरण सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने की जरूरत है।
दूसरा प्रश्न था कि क्या आपको लगता है कि राजनीतिक भागीदारी सशक्तिकरण सुनिश्चित करती है? जेएनयू की छात्र का जवाब था कि, “जाहिर तौर पर, राजनीतिक भागीदारी बहुत महत्वपूर्ण है। जब महिला राजनीति में प्रवेश करती है, तो उनकी एक मजबूत भूमिका होती है, वह निर्णय लेती है, और अन्य महिलाओं और उनके मुद्दों का प्रतिनिधित्व करती है…” तीनों इस बात पर सहमत थीं कि राजनीतिक भागीदारी सशक्तिकरण सुनिश्चित करती है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी लैंगिक असमानताओं और भेदभाव को दूर करने की दिशा में एक छोटा कदम है। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक अन्य छात्रा ने जवाब दिया, “राजनीति एक ऐसी चीज़ है जो ज़मीनी स्तर पर काम करती है। महिलाओं को राजनीति में आने का मौका मिलता है, लेकिन ये महिलाएं कौन हैं, उसकी भी जांच होनी चाहिए। वे काफी संभ्रांत परिवारों से हैं। उन्हें अपने परिवारों का समर्थन प्राप्त है। राजनीतिक भागीदारी अपने आप में सशक्तिकरण का प्रतीक है। लेकिन जिन लोगों को ऐसे पद की सख्त जरूरत है उन्हें यह नहीं मिल पा रहा है। शक्ति को उन लोगों तक भी समान रूप से प्रसारित करने की आवश्यकता है जो निम्न वर्ग-जाति की महिलाएं हैं।" आइसा की छात्र नेता ने कहा, "मैं आपको अपने उदाहरण से बता सकती हूँ कि ऐसा होता है। मैंने देखा है कि मेरे आसपास की छात्राओं को चयन की उतनी स्वतंत्रता नहीं मिलती है जितनी कि मुझे हासिल है। खैर, मेरे लिए सब कुछ आसान नहीं था; मैं आज जहाँ हूँ वहाँ तक पहुँचने के लिए मैंने बहुत संघर्ष किया है। मेरी राय में पुरुषों के बराबर आने के नज़रिये से महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी एक आवश्यक कदम है।"
4.2 हमारा
अपना निर्णय
लेने का
हक़
जब उनसे पूछा गया कि आपके घर में निर्णय कौन लेता है? सभी ने कहा कि उनके पिता परिवार के मुखिया होने के नाते सभी निर्णय लेते हैं। इसमें उनकी या उनकी मां की कभी कोई भूमिका नहीं रही। लेकिन धीरे-धीरे उनके लिए चीजें बदल रही हैं। एक छात्रा ने साझा किया, "मैं एक बहुत छोटे गांव से आती हूँ। मेरा परिवार रूढ़िवादी है। मैं अपने परिवार में शिक्षा प्राप्त करने वाली पहली लड़की हूँ। इस अवसर ने मेरे जीवन को बेहतर के लिए बदला है। यहाँ तक कि जहाँ से मैंने अपनी स्नातक की पढ़ाई की, वो कॉलेज भी अच्छा नहीं था। मुझे ताना दिया जाता था कि एक लड़की होने के नाते मैं शिक्षा से क्या हासिल करूंगी, क्योंकि आखिरकार मुझे एक गृहिणी ही बनना पड़ेगा। लेकिन उस दौरान किताबें पढ़ने से, मुझे खुद से चेतना मिली। मैंने संघर्ष किया कि मुझे आगे की पढ़ाई करनी है जिसके लिए मेरे पिता ने मना भी किया। लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ी रही और आज इस मुकाम पर हूँ कि दिल्ली में पढ़ रही हूँ।''
एक अन्य छात्रा ने साझा किया कि उसके पिता पित्तसत्तात्मक विचारधारा के रहे जिन्होंने अपनी पत्नी और बच्चों पर पुरजोर हिंसा की है। "मुझे पता था कि मुझे इस स्थिति से बाहर निकलना होगा और मेरा रास्ता शिक्षा का था।" उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए वह अन्य विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ाती थीं। "मैं उच्च शिक्षा के लिये दिल्ली आयी और आइसा से जुड़ गयी। जब मेरे परिवार को पता चला कि मैं छात्र-राजनीति में सक्रिय हूँ तो उन्होंने चेतावनी दे दी थी कि या तो राजनीति छोड़ दो या मेरे घर से बाहर निकल जाओ। इसलिए, चीजें मेरे लिए वास्तव में बहुत कठिन रहीं लेकिन इन परिस्थितियों ने मुझे अपने निर्णय खुद लेने के लिए प्रेरित किया है।"
एक छात्रा जो दिल्ली विश्वविद्यालय से है, एक साल के लिए बिरसा अंबेडकर फुले छात्र संघ (बापसा) का हिस्सा रही थी, लेकिन कुछ परिस्थितियों के कारण उसे छोड़ना पड़ा। उन्होंने समूह छोड़ दिया लेकिन वह अब भी व्यक्तिगत तौर पर राजनीति में भाग लेती है। उसने बताया कि "मैं अब भी उन विरोध-प्रदर्शनों और मार्चों में जाती हूं, जिनसे मैं जुड़ाव महसूस करती हूं। लेकिन मैं अपने परिवार से इस बारे में बात नहीं करती क्योंकि मुझे पता है कि वे इसको लेकर चिंतित होंगे। मेरे राजनीति में शामिल होने को लेकर परिवार वाले को कुछ हद तक ऐतराज था, लेकिन ये उनकी अपनी राय थी...भले ही मेरे पिता ही घर के सारे बड़े फैसले लेते थे, लेकिन अब कभी-कभी वह मेरे साथ चीजों पर विमर्श करते हैं। मुझे लगता है कि ऐसा इसलिए है क्योंकि अब मैंने शिक्षा प्राप्त कर ली है और घर से दूर रहती हूं, वह मुझे एक तर्कसंगत व्यक्ति मानने लगे हैं और अब वे मुझे निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी शामिल करते हैं। "
4.3 मुद्दे
और चुनौतियाँ
आपने किस प्रमुख मुद्दे या चुनौती का सामना किया है? और आप इन चुनोतीयों से कैसे बाहर निकाल पाये? उन्हें जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, वह वैसी ही थीं जिनसे किसी भी अन्य महिला को सामना करना पड़ता है। ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने के कारण, सभी प्रतियोगी छात्राओं को शिक्षा प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। उनमें से दो उत्तरदाताओं को अपने परिवार का समर्थन प्राप्त था, तीसरे को स्वयं ही संघर्ष करना पड़ रहा था। जेएनयू की छात्रा ने बताया, "मुझ पर शादी करने का दबाव बना हुआ है। मेरे गांव में मेरी उम्र की कोई भी लड़की अविवाहित नहीं है। मेरी मां मुझे रोज फोन करके शादी करने का दबाव बनाती है। मुझे अपनी पीएचडी थीसिस पर काम करना है। इसलिए ऐसा नहीं है कि मेरे पास बहुत समय है और कोई दबाव नहीं है। हर किसी के अपने मुद्दे हैं, मेरे अपने हैं लेकिन फिर भी मैं अपने समूह द्वारा आयोजित किसी भी विरोध प्रदर्शन, कार्यशाला और बैठक में भाग लेती हूं। ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं उन मुद्दों से जुड़ी महसूस करती हूं। हाल के पहलवान के विरोध-प्रदर्शन हों, या फिर दलित छात्रों की मौत या मणिपुर त्रासदी जैसे मुद्दे हों; मैं वहां जाती रही हूं क्योंकि मुझे लगता है कि यह प्रतिरोध जरूरी है।"
दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने जवाब दिया, "आमतौर पर महिलाओं की कल्पना विनम्र होने की की जाती है, न कि ऐसी लड़की की जो विरोध प्रदर्शन में बैनर-तख्ती लिये चलती और नारे लगाती हो। विभिन्न मोर्चों में भाग लेती और नेतृत्व करती हो। आखिरकार लड़कियों से संबंधित रूढ़िवादी धारणाएं हमारे लिए प्रमुख बाधाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। मैं हमेशा इन धारणाओं से जूझती रही हूं और अब भी जूझ रही हूं। क्योंकि मैं राजनीतिक रूप से सक्रिय हूं, मेरे अपने सहपाठी मुझ पर ताने कसते हैं, देखो लड़कों की तरह लड़ती हैं... ये लड़की तो लगती ही नहीं है। मेरे छोटे बालों और शक्ल-सूरत के कारण मुझे ताने सुनाए जाते हैं। चूंकि मैं जिस राजनीति संगठन का हिस्सा रही हूं, इसने मुझे बहस करने, जवाब देने का आत्मविश्वास दिया। मुझे पढ़ाई के कारण अपना छात्र समूह छोड़ना पड़ा, लेकिन मैंने उस समूह में जो समय बिताया, उसने मुझे अपने लिए खड़े होने के लिए मजबूत और आत्मविश्वासी बना दिया है।"
आईसा की एक छात्रा ने साझा किया, "मौजूदा समय में सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि हमें कैंपस की राजनीति में शामिल होने के लिए निलंबित या गिरफ्तार किया जा सकता है। लेकिन हम डर के कारण पीछे नहीं हट सकते। हम जानते हैं कि हम जो कर रहे हैं, वह बेहतरी के लिए है। हम लैंगिक मुद्दों, भेदभाव और छात्रों के लिए मायने रखने वाली चीजों के लिए स्टैंड लेते हैं। एक महिला छात्र-कार्यकर्ता के रूप में, मैं अपने लिंग के छात्रों और उनके मुद्दों के लिए स्टैंड लेती हूं।" आगे वह कहती हैं, "हमारे पास राष्ट्रीय स्तर पर बहुत कम महिला राजनेता हैं जो मुखर हैं। इसलिए, हमें राजनीति में अधिक महिलाओं की जरूरत है ताकि बड़ी संख्या में पुरुष राजनेताओं से दब न जाएं। लेकिन हमें अलग-अलग जाति-वर्ग की महिलाओं की भी जरूरत है ताकि सभी महिलाओं के मुद्दे सामने आ सकें। उनकी पृष्ठभूमि को सुना जा सके। इसलिए राजनीतिक सशक्तिकरण बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न केवल सत्ता में महिलाओं को सशक्त बनाता है, बल्कि अन्य सभी महिलाएं भी सशक्त हो जाती हैं क्योंकि उनकी आवाज सुनी जाती है। महिलाओं को विभिन्न महिला-उन्मुख नीतियों और योजनाओं के माध्यम से संसाधन मिलते हैं। जब महिलाएं सत्ता में होंगी तभी तो महिलाओं के मुद्दे हल होंगे। पुरुष अपने पुरुषवादी व्यक्तित्व से महिलाओं के ज्वलंत मुद्दों को नहीं समझ सकते।"
5. उपसंहार
महिला सशक्तिकरण के लिए राजनीतिक भागीदारी बहुत प्रासंगिक है। महिलाओं के जीवन में सामाजिक संदर्भ महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जो महिलाएं डरपोक या कम पढ़ी-लिखी हैं, उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है और वे अशक्तता का अनुभव कर सकती हैं। सशक्तिकरण की प्रक्रिया सभी के बीच संसाधनों के समान वितरण के माध्यम से संभव है। जब महिलाएं पुरुषों के समान लाभ का अनुभव करती हैं तो वे समान रूप से प्रगति करती हैं।
सभी उत्तरदाता राजनीति में भाग लेने में सक्षम थीं क्योंकि उन्हें शैक्षिक अवसर हासिल थे। इस अवसर से उनमें आत्म-चेतना आई, जिससे उन्हें अपने लिए स्टैंड लेने में मदद मिली। ये सभी उत्तरदाता विभिन्न स्थानों और पृष्ठभूमियों से रही हैं। इन उत्तरदाताओं के विचार इनके अनुभवों के हासिल हैं। वे मजबूत और मुखर हैं। राजनीति के लिए परिवार का समर्थन नहीं रही फिर भी वे विभिन्न विरोध-प्रदर्शनों में जाती रही हैं और मार्च की व्यवस्था भी करती हैं। महिला छात्र-कार्यकर्ता विभिन्न दमनकारी शक्तियों के खिलाफ मोर्चा संभाल रही हैं। जब ये महिलाएं राष्ट्रीय राजनीति में आएंगी तो निश्चित रूप से देश में सकारात्मक बदलाव लाएंगी। वे अपने पुरुष समकक्षों के प्रतिनिधि बन दूसरे की जुबान में बात नहीं रखेंगी। वे संसद में मुखर होंगी जिससे महिलाओं के लिए बेहतर नीतियां बनाने में मदद मिलेगी।
इसे साबित होता है कि राजनीतिक भागीदारी और सशक्तिकरण साथ-साथ चलते हैं। एक बेहतर देश के लिए समान संख्या में महिलाओं की भागीदारी अनिवार्य है। समानता, सतत विकास, शांति और लोकतंत्र प्राप्त करने और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनके दृष्टिकोण और अनुभवों को शामिल करने के लिए, देश को नेतृत्व की स्थिति में मजबूत महिलाओं की आवश्यकता है।
महिलाओं के सामने सबसे बड़ी चुनौती शिक्षा और परिवार का समर्थन है। हमारे पास शिक्षा का अधिकार, बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ, महिला सशक्तिकरण का राष्ट्रीय मिशन और कई अन्य कानून और नीतियां हैं लेकिन निहितार्थ के स्तर पर उनमें कमी है। राज्य को महिलाओं की सुरक्षा के लिए प्रावधान करने और उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की जरूरत है। इसके अलावा परिवार का सहयोग भी बहुत जरूरी है। बहुत सी महिलाएँ परिवार के सहयोग के बिना आगे नहीं बढ़ पाती हैं। जैसा कि नैला कबीर ने सुझाव दिया है, सशक्तिकरण के तीन आयाम, पारिवारिक समर्थन और समान अवसर महिलाओं को अपनी एजेंसी बनाने में मदद करते हैं। विभिन्न नीतियां ऐसे संसाधन प्रदान करती हैं जो महिलाओं को अपनी पसंद का चयन करने और उनकी स्थितियों में सुधार करने में मददगार साबित होती हैं। जब परिवर्तन होता है, तो अन्य व्यक्तियों का जीवन भी प्रभावित होता है और बेहतरी की ओर बढ़ता है। यह बदले में, उन महिलाओं को एजेंसी प्रदान करता है जिनके पास यह पहले नहीं थी। यह एक सतत प्रक्रिया बन जाती है। महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी भी इसी तरह काम करती है।
महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी को सशक्त बनाना लिंग-अंतर को कम करने और देश को लिंग-अनुकूल बनाने के लिए एक अच्छा कदम है। इससे महिलाओं के व्यक्तित्व और उनके आत्मविश्वास में वृद्धि होगी ताकि वे बेहतर आर्थिक और सामाजिक स्थिति प्राप्त कर सकें। जमीनी स्तर पर महिलाओं को समर्थन उन्हें सशक्त बनाएगा और महिलाओं की स्थिति को समाज में ऊपर उठाएगा।
इस शोध का तर्क है कि महिलाओं के पास मजबूत व्यक्तित्व और ढेर सारा जमीनी अनुभव होना चाहिए, जो उन्हें बेहतर राजनेता बनाएगा। न सिर्फ अधिक महिलाओं को राजनीति में भाग लेने की जरूरत है बल्कि बेहतर प्रतिनिधित्व भी जरूरी है। महिलाओं के बेहतर प्रतिनिधित्व से संसाधनों के बेहतर आवंटन की संभावना बढ़ेगी। समाज में अपना स्थान सुरक्षित करने, उन्हें स्वयं निर्णय लेने में सक्षम बनाने और देश के समग्र विकास के लिए राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सबसे आवश्यक है।
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शोधार्थी, स्कूल ऑफ़ जेंडर एंड डेवलपमेंट स्टडीज
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अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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