केम्पस के किस्से : याद न जाए बीते दिनों की / अदिति

केम्पस के किस्से : याद न जाए बीते दिनों की
- अदिति 

“आज यदि मैं स्वयं को आज से पाँच साल पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मैं पाँच साल पहले वाली अदिति और आज की अदिति में अंतर की एक गहरी खाई को पाती हूँ।” 

दोपहर के खाने के बाद मैं अपने कमरे में गयी ही थी, कि पापा की आवाज़ आयी - अदिति....!! उनके पास जाने के बाद पता चला कि मेरा दाखिला हमारे कस्बे से सत्तर किलोमीटर दूर मरुधर महिला शिक्षण संघ, विद्यावाड़ी में हो गया है। यह पश्चिमी राजस्थान का बालिकाओं हेतु सबसे बड़ा महाविद्यालय है। यहाँ आस-पास के सभी गाँवों, कस्बों, से लड़कियाँ पढ़ने आती हैं, लेकिन मैं बिल्कुल खुश नहीं थी, इसके दो कारण थे- पहला नर्सरी से बारहवीं कक्षा तक मैं अपनी माँ के विद्यालय में पढ़ी हूँ, विद्यालय मेरी माँ का होने के कारण जाने अनजाने में मुझे हमेशा से एक अलग ही तवज्जो मिली है, जिसे मैं खोना नहीं चाहती थी और दूसरा कारण ये था कि यदि कहीं और पढ़ने जाना ही है तो मैं बड़े शहर में जाना चाहती थी, जयपुर, दिल्ली जैसे शहर, लेकिन अब, अब क्या? पीटीईटी में अच्छे अंक आने के कारण मेरे पापा जानते थे कि मुझे पहले नंबर वाला कॉलेज ही मिलेगा, इसलिए उन्होंने मुझे बिन बताये विद्यावाड़ी कॉलेज को पहले नंबर पर भरा, और परिणाम सामने था.. मुझे वो कॉलेज मिल गया।परिस्थितियों से समझौता कर उन्हें अपने पक्ष में करना मैंने अपने पापा से सीखा है, इसीलिए मैंने समझौता कर लिया था।

कॉलेज का पहला दिन था, दादीसा ने केसर का तिलक लगाते हुए कहा था, “तू जहाँ भी जाये, वहाँ बहुत प्यार मिले”.. और पापा ने कहा था कि अदिति ध्यान रहे कॉलेज से शिकायत नहीं आनी चाहिए और खूब मन लगाकर पढना। ज़ब कॉलेज में कदम रखा तो इतना बड़े कॉलेज को देख एक पल के लिए मन में सवाल था, कि इतनी सारी लड़कियों में क्या मैं खुद को साबित कर पाऊँगी? इसे चाहे मैं अपनी कमजोरी कहूँ या आत्मविश्वास। मैं हमेशा यही कोशिश करती हूँ कि मैं जहाँ भी जाऊँ, वहाँ सभी के मन में अपनी एक अलग छाप छोड़ सकूँ।

   इतना बड़ा कॉलेज और ना किसी से जान पहचान। इतने सारे टीचर्स होते हैं कॉलेज में, हमारी स्कूल में तो गिनती के अध्यापक होते थे। खैर पहले ही दिन मैंने अपने अच्छे खासे दोस्त बना लिए थे, वो कहते हैं ना कि दुनिया बहुत छोटी हैं और गोल भी, तो आपको आप जैसे लोग मिल ही जाते हैं। हमारी स्कूल में लाइब्रेरी नहीं थी, इसीलिए कॉलेज में लाइब्रेरी को देखते ही मैंने उसे अपना बना लिया, मैं घण्टों लाइब्रेरी में बिताती थी, लाइब्रेरी में किताबों की छंटनी कर पीछे वाली रैक की खाली जगह में मैंने खुद की लाइब्रेरी बनाई। कुछ ही दिनों में लाइब्रेरी वाली रागिनी मैडम मुझे अच्छे से जानने लग गयी थी, जिस दिन मैं लाइब्रेरी नहीं जाती, वो मेरे दोस्तों से मेरे बारे में जरूर पूछते थे। विद्यावाड़ी में मुझे वो सब कुछ मिला जो मैं वास्तविक रूप में चाहती थी।

    मैं बीए बीएड की छात्रा थी और बीए के मेरे विषय थे - राजीनीति विज्ञान, इतिहास, अंग्रेजी साहित्य। विषय अंग्रेजी साहित्य होने के बावजूद मेरा रुझान हमेशा हिंदी साहित्य की तरफ रहा है, इसमें उपन्यास मुझे सबसे अधिक भाता है। निर्मल वर्मा का अंतिम अरण्य, जयशंकर प्रसाद का कंकाल, प्रेमचंद का गोदान और गबन, मन्नू भंडारी का आपका बंटी और महाभोज, धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता, राजिन्दर सिंह बेदी की एक चादर मैली सी जैसी कृतियों को मैंने खूब पढ़ा है। इसके साथ साथ राजेंद्र यादव की कहानियाँ मुझे खूब रुचती हैं। मेरे सबसे पसंदीदा लेखक प्रेमचंद और निर्मल वर्मा हैं। प्रेमचंद को “कलम का जादूगर” क्यूं कहा जाता है, ये प्रेमचंद की कृतियों को पढ़ने के उपरान्त ही समझ आता हैं, निर्मल वर्मा के साहित्य की तारीफ को शब्दों में पिरोना जैसे हाथ में फीता लेकर हिमालय को मापने की कोशिश करना, उनका छोटी-छोटी चीजों को शब्दों के जरिये व्यक्त करने का तरीका वाकई काबिले- तारीफ है। नाटक में मैंने मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन पढ़ा है। नये लेखकों में मुझे मानव कौल, दिव्य प्रकाश दुबे, नीलोत्पल मृणाल, किशोर चौधरी, अनुराधा बेनीवाल की रचनाएँ काफी पसंद आती हैं। और इन सभी को पढ़ते वक़्त मुझे हमेशा ऐसा लगा हैं, जैसे मैं खुद को पढ़ रही हूँ, कुछ पुराने सवालों के जवाब भी मुझे इन किताबों को पढ़ते समय मिले हैं।

    मैंने कॉलेज में सभी को बीएड को केवल उतना महत्व देते ही देखा है, जितना हम स्कूल में कलाशिक्षा, स्वास्थ्य शिक्षा, कार्यानुभव जैसे विषयों को दिया करते थे, लेकिन कुछ शिक्षकों के कारण मेरा ये भ्रम हमेशा के लिए दूर हो गया, जिनमें सबसे पहले थे- डॉ. प्रशांत कुमार गुर्जर सर। प्रशांत महासागर की गहराई की भांति सर में भी ज्ञान का गहरा सागर था, ... समस्या चाहे विषय की हो, घर-परिवार की हो, करियर संबंधी हो या स्कॉलरशिप की,, इन सबका समाधान प्रशांत सर थे,,, इनके अलावा भरत कुमार बोराणा सर, वो भी बीएड के विषय पढ़ाते थे, हालांकि उनकी कक्षा थोड़ी बोरिंग होती थी, इसलिए लड़कियाँ काफी कम उनकी कक्षा में जाया करती थी। एक समय के बाद मैं भी उनकी कक्षा के बजाय लाइब्रेरी जाना ज्यादा पसंद करने लगी थी। हालांकि भरत सर का कॉलेज के चार सालों में मुझे सबसे ज्यादा सपोर्ट रहा है और शायद इसलिए मैं उनकी जीवन भर आभारी रहूँगी। कॉलेज में शिक्षकों के रूप में काफी दोस्त भी मिले हैं, जिनसे वो सब कुछ कहा जा सकता था, जिसे कहीं न कहीं परिवार को कहने में हिचक महसूस होती है..।

    5 सितम्बर 2019, मुझे बहुत अच्छे से याद है वो दिन। उस दिन हमारी कॉलेज के सीनियर्स ने शिक्षक दिवस के उपलक्ष में एक छोटा सा कार्यक्रम रखा था और उनमें से कुछ लड़कियों से मेरी जान पहचान होने के कारण यह तय हुआ था, कि मैं शिक्षक दिवस पर भाषण दूँगी, वो कॉलेज में पहली बार था, ज़ब मुझे मंच पर आने का मौका मिला था और तब मैंने जाना था, कि मौके मिलते नहीं हैं, मौके खोजने पड़ते हैं, मौके छीनने पड़ते हैं। उस भाषण के बाद कॉलेज का हर एक बच्चा, हर एक शिक्षक मुझे जानने लग गए थे, हमारी प्राचार्या डॉ. हर्षिता श्रीमाली मैडम ने मुझे अपने ऑफिस में बुला शाबाशी दी थी। उस दिन मुझे लगा कि मैं अपने आपको और बेहतर बना सकती हूँ,। बस उस दिन से लेकर अगले चार साल तक कॉलेज में मैंने हर वो चीज की जो मैं कर सकती थी, और जो मैं नहीं कर सकती थी, मैंने वो सब भी किया।

     शुरुआत के दो साल में मैं कॉलेज में हमेशा अपने सीनियर्स के साथ ही रहती थी, जिनमें से मेरी सबसे खास थी- भाग्यश्री दीदी और योगेंद्रा दीदी। इनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है और सीख भी रही हूँ। पता नहीं क्यूं मैं अपने से बड़ी उम्र वालों के साथ रहना ज्यादा पसंद करती हूँ, उनकी कहानियाँ, उनके अनुभव, उनकी दी जाने वाली सलाह, और उनके किस्से, शायद उम्र से पहले परिपक्व बनाने का काम करते हैं। पर धीरे-धीरे एहसास होने लगा कि हम-उम्र के दोस्तों का होना कितना जरूरी होता है। तब मैंने अपनी कक्षा की लड़कियों के साथ खूब समय बिताया, खूब मजे किये हमने.. पेड़ से कैरियाँ तोड़ी और सभी की नज़रों में हमारा ग्रुप सबसे समझदार साबित होता था। हितलेश, अमीषा, अर्चना, गायत्री, रिंकिता के साथ कब कॉलेज पूरा हो गया बिल्कुल पता नहीं चला।

     कॉलेज के तीसरे साल के अंत में पूरे चार वर्ष बाद हमारी कॉलेज में छात्रसंघ चुनाव आयोजित हुए,, जहाँ राजनीति में आने के नाम से लड़कियाँ एक पल के लिए हिचकिचाती हैं और बची-खुची कसर उनके माता पिता की मनाही कर देती है। उस माहौल में विद्यावाड़ी संस्था के कॉलेज में छात्रसंघ चुनाव आयोजित करवाना अपने आप में किसी गौरव से कम नहीं। उस समय मेरी बीएड की इंटर्नशिप का दौर चल रहा था और इंटर्नशिप खत्म होने में केवल पंद्रह दिन शेष थे,। कॉलेज से अनुपमा शर्मा मैडम का फ़ोन आया और उन्होंने मुझे अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने हेतु प्रेरित किया, मैंने अपने पापा से इस बारे में बात की, मुझे लगा कि वो मना करेंगे, लेकिन पापा अक्सर मुझे गलत साबित कर देते हैं। निष्कर्ष ये रहा कि मैं छात्रसंघ चुनाव लड़ रही हूँ, अध्यक्ष पद हेतु।

बस फिर क्या था, अगले दिन से कॉलेज जाना शुरु हुआ। मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं कहीं न कहीं राजनीति का हिस्सा बनूँगी। कॉलेज का माहौल एकदम गरमागरमी से भर गया था, मेरे प्रतिद्वन्दी भी खूब जमकर तैयारी में लगे थे, उन दिनों मैंने खूब मेहनत की थी, इतनी, जितनी शायद मैंने अपनी दसवीं, बारहवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षाओं में भी नहीं की होंगी। रात में सपने भी उसी के और पूरा दिन भी उसी में लगे रहना कि कॉलेज जाते ही किन लड़कियों से मिलना हैं, कैंपेनिंग के लिए क्या कुछ नया किया जा सकता है, स्लोगन्स तैयार करने हैं, कविताएँ लिखनी हैं और ऐसी तमाम चीजों में कब रात के दो, तीन बज जाते, बिल्कुल पता नहीं चलता। इस चुनावी यात्रा में मेरे जूनियर्स ने बहुत साथ दिया मेरा।

     इन सब के बीच मैंने ये जान लिया था, कि कम से कम राजनीति तो मेरे लिए बिल्कुल नहीं बनी, हालांकि इसके बावजूद राजनीति में जाने के ख्याल कभी-कभी मेरे दिल और दिमाग़ पर हल्की दस्तक दे देते हैं। आख़िरकार छात्रसंघ चुनाव का परिणाम आया और मैं हमारी कॉलेज की अध्यक्ष बनी। मैं खुश थी, लेकिन मुझसे ज्यादा मेरा परिवार और मेरे दोस्त खुश थे। अचानक से मुझे इतनी तवज्जो मिलने लगी, जो लोग मुझे नहीं जानते थे, वो भी मुझे जानने के दावे करने लगे थे.. खैर बहुत प्यारा दिन था वो। लेकिन इसी के साथ एक जिम्मेदारी भी मुझ तक आ गयी थी और कहते हैं ना कि ज़ब आप पर कोई भरोसा करता हैं, तो उनका भरोसा आपकी जिम्मेदारी बन जाती हैं। और मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि मैंने अपनी उस जिम्मेदारी को पूरी ईमानदारी के साथ निभाया। कॉलेज का सपोर्ट जितना मिलना चाहिए था, उसका आधा भी मेरे भाग्य में नहीं आया, खैर संघर्ष के बिना जीने में मजा भी कहाँ??

   कॉलेज प्रशासन का सहयोग चाहे रहा हो या ना रहा हो, लेकिन कॉलेज के शिक्षकों का जो साथ, सहयोग और मार्गदर्शन रहा है, सच में उसे मैं शब्दों की गाँठ में नहीं बांध सकती। मेरे विभाग के न होने के बावजूद भी खुशबू मैडम, लक्ष्मण सर, गीतांजलि मैडम, दीपक सर सभी ने हमेशा मेरा साथ दिया। केवल शिक्षक ही नहीं कॉलेज के कर्मचारियों ने भी हमें बहुत प्यार दिया, पवन बाईजी, गीता बाईजी, चम्पा बाईजी का ग्लूकोन-डी, भंवर भैया और हमारे किकसा को तो मैं चाहकर भी नहीं भुला सकती। इनके आलावा हमारी विद्यावाड़ी संस्था के सीईओ डॉ. सलीला भंसाली मैडम, जिनसे पहली बार मुलाक़ात, छात्रसंघ चुनाव परिणाम के कार्यक्रम में हुई थी, उस दिन उन्होंने मुझसे हाथ मिलाकर कहा था कि- “अदिति तुम्हें बहुत आगे जाना है।” और तब से लेकर कॉलेज के अंतिम दिन तक उनके द्वारा कही गयी हर एक बात मेरी आँखों के सामने है।

   एनसीसी, एनएसएस, वाद- विवाद, भाषण, कविता-लेखन प्रतियोगिता के साथ-साथ कॉलेज में होने वाली हर गतिविधि और हर कार्यक्रम के मंच संचालन में मैंने खुद को खड़ा पाया है।. मुझे याद है, एक बार नेशनल कॉन्फ्रेंस में पूर्व आईएएस डॉ, शिव राठौर सर मुख्य अतिथि के रूप में आये थे और उस कार्यक्रम का मंच संचालन मैं कर रही थी, कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उन्होंने मुझे बुलाकर हमारी प्राचार्या मेम से मेरी खूब तारीफ कर हमारे कैंपस की काफी सराहना की थी...

जहाँ से जो सीखने को मिला वहाँ से वो सीखने की पूरी कोशिश की । डिबेट का बहुत शौक रहा हैं मुझे, और इस शौक को पंख हमारे कैंपस ने दिए। कॉलेज के पहले साल में डिबेट में उदयपुर जाने से लेकर, चौथे साल में मेवाड़ यूनिवर्सिटी चित्तौडगढ़ तक के सफर से जितना सीखने को मिला, उसका कोई पार नहीं.। सबसे अच्छा अनुभव दिल्ली में होने वाले युवा संसद कार्यक्रम का रहा था। वहाँ मैं अलग अलग राज्यों के लोगों से मिली। उनकी संस्कृति, विचार, खानपान, तौर-तरीकों को काफी करीब से जानने का मौका मिला और ये सब मेरे कॉलेज के बिना संभव नहीं था।

आस-पास चारों ओर टीवी सीरियल्स, रील्स, सोशल मीडिया और तमाम अनावश्यक बातों का चक्रव्यूह होने के बावजूद इस चक्रव्यूह से बाहर निकलना अपने आप में एक चुनौती थी और इस चुनौती से लड़ने में केवल हमारे कॉलेज का ही नहीं बल्कि कॉलेज के अतिरिक्त भी अनेक शिक्षकों व उनके द्वारा बनाये गए मंच का बखूबी योगदान रहा है। कॉलेज के रिजल्ट भी अच्छे रहे और मेरे पापा बस इस बात से संतुष्ट थे, इसीलिए उन्होंने मुझे कभी भी अपने मन का करने से मना नहीं किया।

और कुछ इस तरह, ना चाहते हुए भी विदाई का दिन आ गया, उन दोस्तों से बिछुड़ने का दिन आ गया, जो हर कदम पर मेरे साथ थे, अब हमारे रास्ते अलग होने वाले थे। हँसते, रोते, गिरते, उठते, सीखते, सिखाते विद्यावाड़ी की चार साल की कहानी अब अपने अंत की ओर थी। अब जो सपने विद्यावाड़ी ने मेरी आँखों में भरे हैं, जो सपने मैंने देखे हैं मुझ जैसी तमाम उन लड़कियों के लिए जिनमें योग्यता होने के उपरान्त भी वे अनेक अवसरों व सुविधाओं से वंचित है। तथा जिनके सपने हकीकत में तब्दील होने से पहले उनकी आँखों में ही दम तोड़ने को मजबूर हैं, उन सभी के सपनों को पूरा करने की हिम्मत बटोर कर मैंने हमारे कैंपस से आखिरी (last but not the least) विदाई ली।

   आज यदि मैं स्वयं को आज से पाँच साल पीछे मुड़कर देखती हूँ तो मैं पाँच साल पहले वाली अदिति और आज की अदिति में अंतर की एक गहरी खाई को पाती हूँ। एक समझ, देखने का नज़रिया, भावों को व्यक्त करने का तरीका जैसी तमाम चीजों को मैं खुद में महसूस करती हूँ, अब पहले की भांति अख़बार में मिर्च मसाला, बॉलीवुड पेज़ पढ़ने की बजाय सम्पादकीय पृष्ठ पढ़ना पसंद करती हूँ, अपने जन्मदिन पर उपहार में किताबें लेना मेरी पहली प्राथमिकता रहती है। देश-विदेश के मुद्दों पर समझ बनाना सीखा है और ये सब विद्यावाड़ी के वातावरण, शिक्षकों का मार्गदर्शन, अच्छी संगति और वहाँ मिलने वाले अवसरों के बगैर संभव नहीं था। जितना विद्यावाड़ी ने मुझे दिया, उसका आधा भी यदि मैं उसे वापस कर पाऊँ तो मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानूँगी। 

जितना शब्दों में उतार सकती थी, उतना उतारने की पूरी ईमानदार कोशिश की है, बाकी किस्से यादों की अलमारी में छिपे फिलहाल सुस्ता रहे हैं..…!!!

 
अदिति
शोधार्थी, हिंदी विभाग,जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
सम्पर्क : aditisingh3104@gmail.com

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

8 टिप्पणियाँ

  1. शाबाश।
    लेखनी में सुरम्य प्रवाह है। बहते रहो,लिखते रहो।

    जवाब देंहटाएं
  2. शिक्षक हमेशा से ही आदरणीय रहते है, अच्छा लेख....
    कुछ शिक्षकों का अनादर हुआ है लेकिन भाव आपके....

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मंशा किसी को भी ठेस पहुंचाने की नहीं हैं, विचार व्यक्तिगत हैं! और शिक्षक सदैव आदरणीय रहे हैं और सदा रहेंगे! शुक्रिया 🌸

      हटाएं
  3. वाह वाह वाह वाह वाह वाह

    जवाब देंहटाएं
  4. ये एक बेहतरीन आलेख है। अदिति ने धारा प्रवाहित बनाए रखी। प्रारंभ से अंत तक एकसूत्र में बंधा हुआ लेख। अच्छे इंस्टीट्यूट और वहां का वातावरण विद्यार्थी के व्यक्तित्व निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अदिति का शुक्रिया इस स्नेह के लिए और हम शिक्षकों को याद करने के लिए। अदिति की लेखनी को ढेर सारी शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने