समाज चिंतन के कवि : चंद्रकांत देवताले
- डॉ. अजित चुनिलाल चव्हाण
बीज शब्द : समाज, चिंतन, संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, वैश्वीकरण, बेरोज़गारी, भूख, माँ, आम आदमी, परिवार, पूँजीवाद, शहर आदि।
विद्वानों, सामाजिक-चिंतकों के मतानुसार राजनीति को आम जनता के प्रति अधिक ज़िम्मेदार रहना चाहिए। उत्तरदायी लोगों की बेफ़िक्री सामान्यजन को और अधिक पीड़ित कर देती है। प्रजातंत्र में भ्रष्टता जब जनता की विकास योजनाओं को अपने पक्ष में मोड़ लेती है तब शोषण बढ़ता है। चंद्रकांत देवताले ऐसी व्यवस्था को लेकर लिखते हैं-
"प्रजातंत्र की रथयात्रा निकल रही है
औरतों और बच्चों को रौंदा जा रहा है
गुण्डों और नोटों की ताकत से हतप्रभ लोग
खामोश खड़े हैं
मैं भी खामोश खड़ा हूँ और काँप रहा हूँ
और ताप रहा हूँ और बचा रहा हूँ ठिठूरन से
अपनी आत्मा को
शायद यही है इस वक़्त का
सबसे ज़रूरी काम ।”2
चंद्रकांत देवताले व्यवस्था की उस कुरूपता को सामने रखते हैं जिसमें धनबल का आतंक जनता को चुप रहने को विवश कर देता है। कवि स्थिति की पड़ताल करते हैं। समाज जागरूकता की ओर संकेत करते हुए शत्रु की पहचान कर अपने अस्तित्व को बनाये रखने को कहते हैं-
“अब ऐसे शत्रु को पहचानने का दिन
कब आएगा और कैसे?
कब कटेगी धुंध
कैसे दिखेगा मनुष्य का चिर-प्रतीक्षित चेहरा?
....आख़िरी सप्ताह रोटी और पेट के बीच
चुपके से नमक का टुकड़ा रख जाता है
अब ऐसे में दुश्मन की साजिश पर चाकू रखने का सप्ताह
कब आएगा और कैसे ?”3
यहाँ देवताले शत्रु को पहचानकर उसके षड्यंत्र को ध्वस्त करने की योजना को भी बल देते नज़र आते हैं। देवताले ने पहचानी हुई आम आदमी की शक्ति के संदर्भ में डॉ. श्यामबाबू शर्मा कहते हैं- “चंद्रकांत देवताले का रचना संसार भयावह, जटिल और कुरूप यथार्थ के दृश्यों के बीच से गुज़रकर भी जीवन की ऊष्मा और ऊर्जा का रचनात्मक विन्यास पेश करने में समर्थ है- यह एक सार्थक कवि की बहुत बड़ी शक्ति होती है और देवताले उससे लैस हैं।”4
वैश्वीकरण से उपजे पूँजीवाद के मशीनीकरण को बढ़ावा देने से काम आसान हुआ। लेकिन इससे बेरोज़गारी बढ़ी। नव-उपभोक्तावाद के समर्थकों ने देश के श्रमजीवियों की अनदेखी की। इससे हताशा-निराशा के साथ भूख का दायरा भी विस्तार पाता गया। खाली हाथ, खाली जेब वाली स्थिति ने ग़रीबी का ग्राफ और ऊँचा उठा दिया। वैश्वीकरण से उपजी आर्थिक उदारीकरण की नीति ने छोटे-छोटे घरेलू उद्योगों का चक्का जाम-सा कर दिया। और सामान्यजन मात्र भूख और रोटी के बारे में ही सोचता रह गया। व्यवस्था ने इस स्थिति का फ़ायदा उठा अपना उल्लू सीधा किया। देवताले ऐसे सर्वहारा वर्ग के प्रति चिंता व्यक्त करते हैं। 'स्मार्ट सीटी' के नाम पर शहरी जीवन के सुख-सुविधाओं की फ़िक्र सभी को है। लेकिन ग्रामीण जीवन के प्रति की जवाबदेही का क्या? कवि गाँव के सामान्य आदमी के उपेक्षित जीवन के अभाव का करुण चित्र प्रस्तुत करते हैं। व्यवस्था के विरुद्ध लड़ने में असमर्थ इस आदमी की आवाज़ बन कवि आत्मीय रिश्ते का परिचय देते हैं। श्रमशीलता जीवंतता का प्रतीक मानी जाती है। शिखरों पर विराजमान लोगों द्वारा सताए, दबाए जानेवाले लोगों के प्रति व्यवस्था की अनदेखी चंद्रकांत देवताले को विचलित कर देती है। धनवादी दानवी प्रवृत्ति को लेकर वे लिखते हैं-
"जो धक्के खा रहे हैं
और भूखे हैं
बरसात उन पर भी रहम नहीं खाती
जिनके लिए वक़्त एक रिसता हुआ फोड़ा है
जो खाली हाथ, खाली जेब
भटक रहे हैं
पता नहीं उनके पास दुनिया के लिए
कौन-सा विशेषण है।”5
देवताले व्यवस्था की एक-एक परत खोलते हुए उसका अमानवीय चेहरा सामने लाते हैं। सामान्यजन के दुख को अपने भीतर महसूसते हैं। वे प्रचंड आशावादी कवि हैं। आदमी को स्थितियों से जूझने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करते हैं।
वैश्वीकरण से रोज़गार के कुछ नये अवसर ज़रूर बने लेकिन पूँजीवाद की क्षणिक चमक-दमक ने मनुष्य के मन में मोहभंग के साथ अनास्था भी भर दी। इससे एक नकारात्मक बोध तेजी से उभरता गया। भ्रष्टता को मानो सामाजिक प्रतिष्ठा-सी मिल गयी। गाँव की ओर अनदेखी ने पलायनवाद को बढ़ावा दिया। इससे गाँव उजाड हुए, शहर पनपे। परिवार दरकने लगे। शहरीपन की सीमित सोच, संकुचित मानसिकता ने स्वार्थ को बढ़ावा दिया। एकल परिवारों की संख्या बढ़ने से बुजुर्ग हाशिए पर सरकते गये। इस बरगदवाली छाँव के उठ जाने से दाम्पत्य जीवन के बीच का कलह ज़ोर पकड़ता गया। अहम् टकराने लगे। नैतिक अध:पतन जैसी समस्याएँ सिर उठाने लगीं। मानो महानगरीय व्यवस्था ने परिवार पर स्वार्थ, भोगवाद, व्यक्तिवाद का बोझ लाद दिया हो। इससे परंपरागत पारिवारिक दृढ संकल्पनाएँ ढहने लगीं। इस संबंध में डॉ. श्यामबाबू शर्मा कहते हैं- “संचार तथा सूचना का संजाल विकसित हुआ है परंतु सूचना, ज्ञान और संवेदना से कटकर अपने-अपने द्वीप बनाने और व्यक्तिगत आनंदवादी मानसिकता के तहत सार्थकता और सफलता का पर्याय बनाती जा रही है।... वैश्विक मीडिया ने भारतीय संयुक्त परिवार प्रणाली की भावना भित्ति पर सेंध लगाने का काम किया है। मीडिया जगत भोगवादी संस्कृति और व्यक्तिनिष्ठता या इंडीविजुअल मूल्यों को पोषित कर रहा है। मीडिया ग्लैमर्ड जीवन के प्रति क्रेज भरता है और सनसनी पैदा करता है। रिजर्व रहने का आदी बनकर व्यक्ति उन लोगों का साथ पसंद नहीं करता जिनके संग वह पला-बढा होता है।”6 देवताले कहते हैं- मनुष्य संभवतः नव-पूँजीवादी, भोगवादी संस्कृति का दास बनता जा रहा है। इस नव धनवादी संकृति ने भारतीय समाज रचना के मूल ढाँचे को अस्थिर-सा कर दिया है।
गाँव की ग्रामीण-संस्कृति-सभ्यता से अटूट रिश्ता रखनेवाले चंद्रकांत देवताले घर-परिवार को सहेजकर रखना चाहते हैं। लेकिन वैश्वीकरण की क्रूरता ने एक ओर युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया तो दूसरी ओर वृद्ध जीवन को रूला दिया। भूमंडलीकरण की स्वार्थपरकता में आँगन की खुशी बुढापे का सहारा खो चुके पिता बिखरे परिवार को देख फफककर रो पड़ते हैं। देवताले इस पीड़ित पिता की त्रासदी का चित्रण करते हुए लिखते हैं- “आओ और एक बात पूछता हूँ बताओ।
“यदि तुम्हारा बच्चा
कभी कहीं खो जाए
क्या करोगे तुम?
देखो तुम्हारा दोस्त बाबू अब
खत नहीं भेजता न आता
अपनी औरत का गुलाम
बूढ़े दिनों से मुँह चुराता माठूचंद ...
कहाँ गया बाबू
खो गया मेरा बच्चा
मशीनों के बियाबान में
जोरू का पेटीकोट
कहते हुए वे फफक-फफककर रोने लगे
एक दिन मुझे भी करना है विलाप
इसी तरह कलपते हुए
अपने बच्चों के खो जाने के बादा?”7
यहाँ बेटे ने पिता की ओर ध्यान न देने, पत्नी के बहकावे में आ उसका गुलाम बन जाने से पिता दुखी है। वैश्वीकरण ने पारिवारिक उष्मा से भरे स्नेह-कानन को उजाड़ बना दिया है। पारिवारिक विघटन से बुजुर्ग अकेलेपन से घिर रहे हैं। इससे उपजा सन्नाटा बुजुर्गो के लिए भय का सूचक बनता जा रहा है। दिखावा और बनावटीपन से बुने आधुनिक जीवन में माता-पिता का परित्यक्त होते जाना कवि को व्यथित कर देता है।
अपने युग को अभिव्यक्त करती कविता में समय के साथ व्यापक बदलाव आया। समाज का दुःख कवि का निजी दुःख बन जाता है। परिवार में माँ हमेशा ही सबसे ऊपर रही है। बच्चे तो बड़े होते जाते हैं, लेकिन माँ नहीं। वह तो अपने पहलेवाले स्थान पर ही होती है। अपने बच्चों और परिवार के लिए खटने-खपनेवाली माँ सबके भोजन कर चुकने के बाद ही कुछ बचे तो खाती है। ऐसी अन्नपूर्णा माँ के प्रति चंद्रकांत देवताले लिखते हैं-
“वे दिन बहुत दूर हो गये हैं
जब माँ के बिना परसे
पेट भरता ही नहीं था
वह मेरी भूख और प्यास को
रत्ती रत्ती पहचानती थी
और मेरे अक्सर अधपेट खाए उठने पर
बाद में जूठे बर्तन अबेरते
चौक में अकेले बड़बड़ाती रहती थी
अपने बीवी बच्चों के साथ खाते हुए
अब खाने की वैसी राहत और बेचैनी
दोनों ही ग़ायब हो गयी है
अब सब अपनी अपनी ज़िम्मेदारी में खाते हैं
और दूसरे के खाने के बारे में एकदम निश्चिंत रहते हैं।”8
माँ, बच्चों ने अधपेट भोजन करने से भी चिंतित होती है। आनंददायिनी ईश्वर रूप माँ के बिना एकल परिवार में भोजन करने में आनंद नहीं रहा। माँ ने अपने लिए कुछ बचाकर रखने की कभी फ़िक्र नहीं की। परिवार को भरपेट भोजन कराने की धुन में माँ अपनी भूख भूल जाती है। चंद्रकांत देवताले त्यागमयी माँ द्वारा खाना परोसे जाने की छोटी-सी घटना में भी व्यापक अर्थ खोजते हैं-
“पर कम ख़ुदा न थी परोसने वाली
बहुत है अभी इसमें मैंने तो देर से खाया
कहते परोसते जाती
माँ थी
सबके बाद खाने वाली
जिसके लिए दाल नहीं
देचकी में बची थी हलचल
चूल्लू-भर पानी की और कटोरदान में भाप के चंद्रमा जैसी
रोटी की छाया थी।”9
यहाँ कवि ने भोजन परोसने की छोटी-सी घटना को एक आत्मीय विशाल कैनवास दिया है।
वर्तमान में खुली पूँजीवादी व्यवस्था ने गाँव के लोकजीवन को भी बदल दिया है। गाँव का गँवईपन 'ग्लोबल विलेज' में तब्दिल हो गया। ग्लोबलाइजेशन की मार से लोक-संस्कृति को बचाए रखना मुश्किल हो रहा है। नएपन में लोकगीत, लोकसंगीत और लोकसाहित्य प्रभावित हुआ है। सजग रचनाकार इसे एक चुनौती के रूप में देखता है। चंद्रकांत देवताले नानी द्वारा गदेली पर थूकने को शुभ मानते हैं। इस बात को वैश्वीकरण में ढलती शहरी सभ्यता ने पचा पाना संभव नहीं लगता। ग्राम जीवन में पनपने वाले आत्मीय रिश्तों को लेकर कवि की भावनाएँ इस रूप में व्यक्त हुई हैं-
“दो दिन तो पाँव पड़ने जाने में ही बीत जाते
आजी, मामा-मामी, काका-काकी, मौसी-बुआ
और उम्र में बड़े तमाम भाई-बहन
आज याद करता हूँ तो अचरज से भर जाता हूँ
किसी विराट बरगद से कम नहीं थीं
वंश वृक्ष की टहनियाँ
... सबसे करुण होती विदा
माँ एक-एक से गले मिलकर सचमुच रोती
...आते वक़्त फिर सबके पैर छूने होते
आजी, मौसी और बुआ मेरी नन्ही हथेली पकड़कर खोलती
और उस पर प्यार से थूक देती
जिसके बारे में बताया जाता
इससे भूलते नहीं और ज़िंदगी भर याद बनी रहती
पुश्तैनी घर के ओझल होते ही
कण्ठ रूँध जाता आँखें भर आती
विदा लेते सभी चेहरे
मेरी आँखों में मँडरा रहे हैं
गाँव तो थूक नहीं सकता था मेरी हथेली पर।”10
चंद्रकांत देवताले पर जन्मजात संस्कार गाँव के हैं। उन्हें गाँव और परिवार के प्रति गहरा लगाव है। गाँव उनके मन-मस्तिष्क में रचा-बसा है। जीवन की कथा बना गाँव और उसकी सौंधी गंध को कवि सहेजकर रखते हैं।
हाशिए पर सरका दिये गये वर्ग का शोषण करनेवाला नव-धनवाद वैश्वीकरण की देन माना जाता है। इससे समाज के प्रति की प्रतिबद्धता कमज़ोर होती गयी। कविता में मुखर हुआ स्वर सामाजिक उत्पीडन से उपजे विद्रोह और आक्रोश का प्रतीक है। व्यवस्था द्वारा सुधार के नाम पर अधिकतर छल मिला। चंद्रकांत देवताले इस विकृत चेहरे से पर्दा हटाते हैं। किसी भी तरह के भेदभाव पर वे तल्ख हो उठते हैं। सामान्य की अकारण मृत्य पर परिवार को मात्र एक माह तक का मुफ्त राशन मुआवजे के रूप में आँका जाना क्लेशदायक विडम्बना है। और नेपथ्य में लकड़बग्घा व्यवस्था की विकृत, डरा देनेवाली हँसी हँसता है। बच्चे भी शोषण के इस दुष्ट चक्र से मुक्त नहीं हैं। अमीर बच्चों के लिए सुविधासंपन्न स्कूल तो आम आदमी के बच्चों के साथ असुविधाओंवाला भेद देवताले की चिंता बढ़ा देता है। यथा-
“थोड़े से बच्चों के लिए
एक बगीचा है
उनके पाँव दूब पर दौड़ रहे हैं
असंख्य बच्चों के लिए
कीचड़-धूल और गंदगी से पटी
गलियाँ हैं जिनमें वे
अपना भविष्य बीन रहे हैं.....
सिर्फ़ कुछ बच्चों के लिए एक आकर्षक स्कूल
और प्रसन्न पोशाकें बाकी बच्चों का हुजूम
टपरों के नसीब में उलझ गया है
.... ढेर सारे बच्चे
सार्वजनिक दीवारों पर लिख रहे हैं
ढेर सारे बच्चे होटलों में
कप बसियाँ रगड़ रहे हैं,
उनके चेहरे मेमनों की तरह दयनीय हैं।”11
पीड़ित जीवन की बदनसीबी केवल अपनी पीढ़ी तक सीमित न रहकर आनेवाली पीढ़ी में रीसते जाना कवि की चिंता है। इस संबंध में अनुप कुमार कहते हैं- “समझ के थपेड़ों से मानवीय मूल्य के अधोपतन ही देवताले की कविताओं के महत्त्वपूर्ण आस्था विषय हैं। वैश्विक बाज़ारीकरण की वजह से धीरे-धीरे कमतर होती जा रही मानवता उन्हें बेचैन करती है। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक घिसरन के इस युग में वे सबसे निचले पायदान पर स्थित आम आदमी के साथ दृढता से खड़े रहने का स्वप्न देखते हैं।”12 इस जीवन के कवि का काव्य संसार निरंतर शोषण का विरोध करता रहा ।
इस प्रकार निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि गाँव की संस्कृति- संस्कार के पक्षधर चंद्रकांत देवताले की कविताओं में न्याय-समता का स्वर मुखरित है। कथ्य के स्तर पर उनकी कविताओं में सामान्यजन के सुख-दुख-असंतोष में सहभागिता की जिद एक स्थाई भाव की तरह आती है। इनकी कविताओं की जड़ें गाँव-कस्बों और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में है। वे मानवतावाद से लैस यथार्थवादी कवि हैं। वे अपने समाज की हर करवट, उसकी तमाम क्रूरताओं और विडंबनाओं को पहचाननेवाले कवि हैं। यह उनके मानवीय मूल्यों की पक्षधरता का, समाज संवेदना का प्रमाण है। नारेबाजी से दूर यह कवि अत्यंत सहजता से अपने समय की हर स्थिति की एक-एक परत खोलता समाज को यथार्थ के दर्शन कराता है। उसमें कहीं भी बड़बोलापन-बनावटीपन नहीं है। वे व्यवस्था की विसंगतियों को प्रश्नांकित करते हैं तो उसका समाधान भी बताते चलते हैं। उनका अंतर्बाह्य पारदर्शी व्यक्तित्व विश्वास बढ़ानेवाला है। उन्होंने रिश्तों में आयी दरार को पाटने का, संवादहीनता की चुप्पी को तोड़ने का प्रयास किया है। वे मनुष्य को परिवार से जोड़ते हैं। सामाजिक मूल्यों के ह्रास, स्वार्थी प्रवृत्ति, पारिवारिक विघटन, नैतिक पतन, आर्थिक विषमता, सामाजिक विसंगतियों जैसी चुनौतियों का सामना करते हुए देवताले का कविता संसार मनुष्यता को उसके समूचेपन के साथ सहेज लेना चाहता है। ज़रूरी ज़रूरतों से भी वंचित रहनेवाले मनुष्य को चंद्रकांत देवताले आह्वान करते हुए समाज में फैली विषमता पर प्रश्न करने को कहते हैं?
“आदमी को प्रश्न करना ही होगा अब
करोड़ों आदमियों से
करोड़ों आदमियों को अपने से सबसे
क्यों आदमी आदमी नहीं रह पाता है
वे कौनसी चीज़ें हैं और किनके पास और क्यों सिर्फ़ उन्हीं के पास
जो आदमी को उसकी जड़ों से काटकर
कुछ और बना देती है।”13
उन्होंने शोषण मुक्त और एक बेहतर समाज का सपना देखा था। मानव जीवन और अच्छे समाज के लिए हमेशा बेचैन रहनेवाला यह कवि अत्यंत आशावान है। उनकी कविताएँ हमें सदैव उजाला देती रहेंगी। समाज को भी उनका उजली रातों में आते रहने का इंतज़ार रहेगा।
संदर्भ :
1. संकर्षण शुक्ला, दृष्टि आईएएस ब्लॉग, 07 नवंबर-2022, drishtias.com
2. चंद्रकांत देवताले, उसके सपने, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003. पृ.सं. 58.
3. चंद्रकांत देवताले, उसके सपने, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003. पृ.सं. 35.
4. डॉ. श्यामबाबू शर्मा, भूमंडलीकरण और समकालीन हिंदी 'कविता, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2014, पृ.सं. 158.
5. चंद्रकांत देवताले, उजाड में संग्रहालय, राजकमल प्रकाशन, 2003, पृ.सं. 35.
6. डॉ. श्यामबाबू शर्मा, भूमंडलीकरण और समकालीन हिंदी कविता, विकास प्रकाशन, कानपुर, 2014, पृ.सं.197-198.
7. चंद्रकांत देवताले, लकड़बग्घा हँस रहा है, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृ.सं. 46.
8. चंद्रकांत देवताले, लकड़बग्घा हँस रहा है, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृ.सं. 54.
9. चंद्रकांत देवताले, लकड़बग्घा हँस रहा है, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृ.सं. 77.
10. चंद्रकांत देवताले, उसके सपने, 1997, पृ.सं. 216.
11. चंद्रकांत देवताले, लकड़बग्घा हँस रहा है, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृ. सं. 78-80.
12. अनुप कुमार, चंद्रकांत देवताले का काव्य संसार: परिधि का ठाठ और हाशिए का उल्लास, 11 जनवरी 2022, jantakapaksh.blogspot.com
13. चंद्रकांत देवताले, उसके सपने, 1997, पृ.सं. 82.
डॉ. अजित चुनिलाल चव्हाण
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
वसंतराव नाईक कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय, शहादा(महाराष्ट्र)
chavan.ajit2@gmail.com, 9422262445
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
एक टिप्पणी भेजें