शोध सार : वर्चस्ववादी
सत्ता ने अपने नियंत्रण को कायम रखने के लिए शिक्षा,
शिक्षण
सामग्री, भाषा,
साहित्य,
धर्म,
मीडिया
आदि के माध्यम से एक निश्चित विचारधारा, दृष्टिकोण,
मूल्य
आदि का प्रसार कर चेतना को कुंद करने का सुनिश्चय किया है। राजा,
ईश्वर,
धर्म,
पितृसत्ता,
डर
आदि वर्चस्ववादी सत्ता के ही हथियार है जिसके सहारे श्रेष्ठ बने रहने की लम्बी प्रक्रिया
जारी है। औपनिवेशिक काल में राजनीतिक, आर्थिक
नियंत्रण औपनिवेशिक सत्ता के प्रतिनिधि अथवा उनके द्वारा नियुक्त देशी प्रतिनिधि करते
थे। इन प्रतिनिधियों की स्पष्ट पहचान थी जिससे जनता परिचित थी,
किन्तु
नवऔपनिवेशिक समय में नियंत्रक को ठीक-ठीक
पहचान पाना कठिन है। आदिवासी समाज में शासक की अवधारणा नहीं थी,
इसलिए
शासक को कायम रखने वाले अवयव भी विद्यमान नहीं थे। किंतु जैसे-जैसे
आदिवासी समाज बाहरी दुनिया के संपर्क में आ रहा है,
वैसे-वैसे
आदिवासी समाज में भी इसके कण बीज जमाते जा रहे हैं। जिसे पहचानना और समझना कठिन काम
है। आदिवासी साहित्य वर्चस्ववादी सत्ता को पहचानने की कोशिश है। गलत अवधारणाओं को परिष्कृत
करने का प्रयास है और अपने अस्तित्व रक्षा के साथ-साथ
अपने दर्शन सहित पूरे विश्व से जुड़ने का साहित्य है। अर्थात् अपनी संस्कृति की रक्षा
करते हुए उसका संपर्क विश्व के उन देशों के साथ करना जो राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय
स्तर पर गुलामी से मुक्ति, नस्लवाद
विरोधी समाज, लैंगिक
समानता, मजदूरों
के संघर्ष की रक्षा, शांति
और पर्यावरण को बचाए रखने का प्रयास करता हो।
बीज शब्द : घोटुल
गिति: ओड़ा:,
धुमकुड़िया,
ईश्वर,
पितृसत्ता,
औपनिवेशवाद,
राष्ट्र,
संस्कृति,
नस्लवाद।
मूल आलेख : विश्व में मानव जाति के विभिन्न समुदाय हैं। प्रकृति,
प्रकृति
की विभिन्न सृष्टि और अन्य मानव समुदाय के साथ संपर्क के दौरान समुदाय विशेष जो अनुभव
प्राप्त करता है, उसका
संचय कर अपने ज्ञान भण्डार को समृद्ध करता है और अपनी अगली पीढ़ी को इसे हस्तांतरित
करता है। इसके आधार पर ही उसका भावी क्रियाकलाप और उनकी जीवन पद्धति तय होती है। इस
तरह प्रत्येक समुदाय के अपने अनुभव, नीति,
सिद्धान्त,
विशिष्टताएँ
और सौन्दर्यबोध होते हैं जो उनकी पहचान भी कहलाती है। प्रकृति का अंग होने के कारण
मानव समुदाय तथा प्रकृति के अन्य अवयव एक दूसरे से प्रभावित होते हैं और एक दूसरे को
प्रभावित भी करते हैं। किन्तु जब संपर्क का उद्देश्य दूसरे समुदाय पर शासन स्थापित
कर उनकी संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा कर लेना,
उन्हें
अज्ञानी कहकर उनके ज्ञान की अवहेलना करना सम्पूर्ण मानव समुदाय तथा प्रकृति की पूरी
सृष्टि और प्रकृति के साथ अन्याय करना है। मानव समुदाय के इतिहास से ज्ञात होता है
कि इस तरह की लूट सदियों से जारी है। आदिवासी आलोचक और चिंतक वंदना टेटे कहती हैं,
"नये साम्राज्य के खोजियों ने पृथ्वी के इस छोर से उस
छोर तक की यात्राएँ की। उनके अन्वेषक व्यापारियों,
सैनिकों
ने धरती के तीन हिस्से में पसरे समंदर को नाप डाला। हर यात्रा के बाद वे लंदन-पेरिस
के दरबार में, हुंडी-मुद्रा
बाजार में कीमती पत्थर-धातुओं,
तरह-तरह
की बहुमूल्य वस्तुएँ व कारीगरिय ज्ञान के सग्रहों,
भाषाओं,
इतिहास
और जिन्दा-मुर्दा इंसानी जिस्मों की नुमाइश करते। उन पर अपने साम्राज्य के ब्रांड लगाकर
उनकी बोलियाँ लगाते उनकी खरीद-बिक्री
करते। हवा, मिट्टी,
जल,
पेड़-पौधे,
वनस्पतियों
और सम्पूर्ण जीव-जगत
सहित पूरे पृथ्वी-ग्रह
के साथ बदसलूकी, गरिमा-हनन,
दोहन,
लूट,
हत्या,
जनसंहार का यह सिलसिला अबाध रूप से जारी रखा।"¹
यही
कारण है कि शोध, आविष्कार,
तकनीकि
उन्नति होने के बावजूद भी गरीबी, भूखमरी,
आत्महत्या,
बेरोजगारी,
साम्प्रदायिकता
बढ़ती जा रही है। विशिष्ट वर्ग की शक्ति, संपत्ति
और अधिकार बढ़ते जा रहे हैं। आदिवासी समाज की बुनियाद सहअस्तित्व है और आदिवासी साहित्य
में उसके समाज की विशेषताएँ स्वाभाविक रूप से समाहित हुई है। जैसे जसिता अपनी कविताओं
को निजी अनुभवों का संग्रह नहीं कहती, बल्कि
वे कहती हैं, "कविताओं
ने मुझे जमीन और प्रकृति से गहरे जोड़ा है। ये हमेशा बोलती हैं कि कभी मत कहना कि ये
सिर्फ तुम्हारी हैं। ये सिर्फ तुम्हारी कभी नहीं हो सकती, क्योंकि ये सबकी हैं। जिन
लोगों की चुप, आँखों
ने कुछ कहा है, जिनकी
चुप्पी ने कुछ सुनाया है, जिन
जंगल, पहाड़ों,
नदियों
ने तुमसे बतियाया है, उन सबका कविता पर अधिकार है।"²
अनुज
लुगुनू अपनी लम्बी कविता की पुस्तक 'बाघ
और सुगना मुण्डा की बेटी' उनको
समर्पित करते हैं, जिन्होंने
कहा कि, "यह
धरती केवल मनुष्यों की नहीं है।"³ इसलिए
जिन-जिन कारकों से सहअस्तित्व
को खतरा है, आदिवासी साहित्य उन कारकों का विरोध करता है। सामुदायिकता,
सहभागिता,
सहयोग
और सह-अस्तित्व
किसी भी समुदाय को जीवंत और शक्ति संपन्न बनता है। ये तत्त्व समुदाय की चेतना के निर्माण
का भी काम करते हैं। इसलिए जब कोई सत्ता लोलुप और वर्चस्ववादी लोग संसाधन, अनुभव और
ज्ञान पर अपना नियंत्रण कायम करना चाहते हैं तो सबसे पहले समुदाय विशेष को जीवंत बनाने
वाले तत्त्वों को सुनियोजित ढंग से समाप्त करने का प्रयास करते हैं। धर्म,
ईश्वर,
स्वर्ग,
नरक,
पाप-पुण्य
आदि समाज को विभाजित करते हैं। इतिहास गवाह है कि विभाजित समाज पर शासन करना आसान है।
इसलिए जाति, वर्ग,
धर्म,
लिंग,
रंग
भेद से परे आदिवासी समुदाय में समाज को विभाजित करने वाले तत्त्वों का प्रवेश वर्चस्ववादी
सत्ता के द्वारा धीरे-धीरे
कराया गया। आदिवासी कविता इसकी पहचान करती है।
"लेकिन जब से हमारी दुनिया में/घुसने
लगी हैं सागर की बेखौफ लहरें/उसके
सत्तात्मक विषाणु हमारे बीच फैलने लगे हैं/
कहीं
पितृसत्ता, तो
कहीं सामंती सत्ता/ कहीं
धर्म की सत्ता तो कहीं पूँजी की सत्ता है/
संपत्ति
का वैभव और उसकी लालसा/ मेहनत
और उपज के/ सामूहिक
खून - पसीना के बीच भी/
महामारी
की तरह पसर रही है।"⁴ औपनिवेशिक
काल में प्राकृतिक संसाधनों की वैश्विक लूट जोरों से हुई। वैचारिक वर्चस्व कायम करके
प्राकृतिक संसाधनों की लूट आसानी से संभव था। इसलिए औपनिवेशिक सत्ता ने सबसे पहले आदिवासी
समाज के बीच धर्म और ईश्वर की सत्ता का प्रचार करना शुरू किया। धर्म के प्रवेश के कारण
आदिवासी समाज कई भागों में विभाजित हो गया क्योंकि
'धर्म' विभाजित
होकर ही इनके समाज में भी प्रवेश किया था। धर्म ने आदिवासियों की भाषा,
लिपि,
नृत्य,
नाम,
संस्कृति
में भेद पैदा कर दिया और आदिवासियों की प्राकृतिक संपदा को भरपूर लूटा। उत्तर-औपनिवेशिक
काल में भी यह लूट जारी है। आदिवासी समाज विभाजित हो चुका है। इसलिए जब आदिवासी समाज
का एक समुदाय सत्ता के खिलाफ विद्रोह करता है तो उसी समाज का एक समुदाय निष्क्रिय रहता
है और इस तरह
आंदोलन की शक्ति कम हो जाती है और समाज में निराशा अंदरूनी रूप से बैठ जाती है। समाज कमजोर हो जाता
है जिसका मनमाना इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए आदिवासी कविता ईश्वर की सत्ता का
विरोध करती है।
कहा यह तुम्हें मुक्त करेंगे पापों से
हमने पूछा
कौन सा पाप किया है हमने?
बिना पाप और उससे मुक्ति के दावों के
कैसे वे स्थापित कर सकेंगे अपना ईश्वर?"⁵
वर्चस्ववादी विचारधारा
के लोग जहाँ-जहाँ
गए अपने साथ धर्म भी लेते गए। क्योंकि शासन स्थापित करने के लिए धर्म का भी सहारा लिया
गया। धर्म, ईश्वर,
संसाधनों
की लूट, हत्या
और शासन की स्थापना साथ-साथ
चलती रही।
ईश्वर की जरूरत थी
और बुरे कामों के बाद
बचने के लिए भी ईश्वर का रास्ता
हत्या और दया
लूट और दान
साथ - साथ चलता"⁶
वर्चस्ववादी समाज
प्राकृतिक संसाधन, उत्पादन,
वितरण
और विनियम पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए सभ्यता,
मानवता,
मानव
कल्याण जैसे भारी भरकम शब्द को गढ़ता है जिससे यह भ्रम बना रहे कि उनके द्वारा किया
जा रहा कार्य मानव समुदाय के लिए कल्याणकारी एवं आवश्यक है। इस प्रवृत्ति ने मानव समुदाय
द्वारा संचित मूल्यों को ही पलट कर रख दिया।
"नये शास्त्र ने यह तय कर दिया कि समग्र मानवता की तरक्की
के लिए मानवता के ही एक हिस्से की बलि चढ़ानी पड़े तो यह अफसोसनाक बेशक हो सकता है
मगर ऐतिहासिक रूप से यह जरूरी है।"⁷
आदिवासी समाज
इसका जीता जागता उदाहरण है। जंगली, असभ्य,
असुर,
बर्बर
आदि संबोधन, जो
उन्हें सदियों से दिए गए हैं, ने
वर्चस्वादी वर्ग का रास्ता बना दिया और उनका काम आसान कर दिया। आदिवासी समाज को सभ्य,
सुसंस्कृत
और विकसित बनाने के नाम पर उनकी संस्कृति और इतिहास को नष्ट किया जाने लगा। आदिवासी
कविता वर्चस्ववादी सत्ता के षड्यंत्र को समझती है और साहित्य में दर्ज भी करती है यथा
-
तुम्हारे समुदाय के भीतर
बर्बर तरीके से
तलवार चलते हुए
वे घुसते हैं तुम्हारे भीतर
तुम्हारे ही
भले की बात करते हुए
भले की बात करते-करते
कर देते हैं
तुम्हारे साथियों की हत्या
भले की बात करते हुए
तुम्हारी जमीन से तुम्हें करते हैं बेदखल"⁸
समाज में शासक का अस्तित्व
होने का अर्थ ही है शोषण का विद्यमान रहना। अपने देश में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था
होने के बावजूद कुछ क्षेत्रों के लोगों के साथ राज्य के नागरिकों की तरह सलूक ही नहीं
किया जाता। उनके इलाके में ना तो कानून की हुकूमत की कोई मायने होते हैं और ना ही यहाँ
हक की भाषा लागू होती है। मसलन "रजिया को सिपहियों को देखकर
उन बदजात सिपाहियों की कमीनगी याद आ रही थी कि किस तरह मौका-ए-वारदात
पर नज़रें चुराकर वे खिसक गए थे। यदि उन्होंने इस वक्त जरा सी अपनी ड्यूटी निभाई होती
तो उनके बेटे के साथ फसादी इतनी दरिंदगी न कर पाते।"⁹
आदिवासी
समाज में इस तरह के कई उदाहरण हैं। जैसे प्रशासन के द्वारा
सोनी सूरी के साथ किया गया जघन्य अत्याचार। आदिवासी इलाकों में घुसकर उन्हें मार कर
माओवादी घोषित कर दिया जाना आदि। नवऔपनिवेशिक चिंतक शासन के इस चरित्र को वैश्विक वर्चस्ववादी
सत्ता के लिए आवश्यक समझते हैं। केन्या के प्रसिद्ध उपन्यासकार न्गुगी वा व्य्योंगो
का कथन है – "नवउपनिवेशवादी
व्यवस्था के प्रबंधन में अमेरिका की प्रमुख भूमिका के अंतर्गत विश्व के अत्यंत प्रतिक्रियावादी
और अत्यंत दमनकारी असैनिक अथवा सैनिक तानाशाहों को स्थापित करने और इसको समर्थन देने
के जरिए यह शासन तब तक लागू रखा जाता है जब तक वह अमेरिकी हितों की पूर्ति करते हैं।"10
इसलिए
आदिवासी साहित्य में प्रशासनिक व्यवस्था और उसका विरोध मिलता है।
कमर कस रही होती हैं
घरों से बाहर निकल आने को
कि ठीक उसी समय
बज उठता है राष्ट्रगान
घरों के भीतर ।"¹¹
आदिवासियों
के निरपराध मारे जाने का दर्द भी कविता में अपनी बेबाकी के साथ लिखी जा रही है यथा-
जवाब में बस आई थी
कमरे से एक 'धाएँ' की आवाज।"¹²
क्यों थे वे इन सबके सख्त खिलाफ ?
जो स्त्री पुरुष को लाती थीं साथ
देह की गरिमा समझने
साथ चलने नाचने - गाने का पढ़ाती थीं पाठ?"¹⁴
आदिवासी
समाज में स्त्रियों की वही स्थिति हो रही है जैसी स्थिति गैर आदिवासी समाज की स्त्रियों
की है। जैसे -
"एक
पढ़े-लिखे
सभ्य होते आदिवासी लड़के को आज
विवाह
के लिए चाहिए एक गोरी लड़की
और
एक पढ़ी लिखी सास को चाहिए
अपनी
बहू से बेटी की जगह बेटा"¹5
इसलिए
अनुज लुगुन भी कहते हैं जिसका एक ही सहजीवी दर्शन रहा है,
"नहीं रहे अब सब एक से/एक
सा नहीं रहा उनका सहजीवी दर्शन/धर्म
में, नस्ल में/रंग
में बांट दिए गए हैं ये।"¹⁶
असल में आदिवासी, समाज और साहित्य के समक्ष चुनौतियाँ बहुत जटिल है। क्योंकि शक्तिशाली वर्चस्ववादी सत्ता द्वारा आदिवासी समाज पर लगातार प्रहार जारी है; उसका प्रतिरोध करना और पृथ्वी को बचाने के लिए अपनी संस्कृति से अन्य समुदाय को परिचित कराना अत्यंत आवश्यक हो गया है। सुखद बात यह है कि वर्चस्ववादी सत्ता के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर सिर्फ आदिवासी समाज में नहीं आ रहा, बल्कि हर शोषित वर्ग में अब चेतना का विस्तार हो रहा है और समाज में अपने लिए सुरक्षित जगह चाहता है। अब सारे प्रतिरोधी स्वर का संगठित होना आवश्यक है। समय की यही मांग है और साहित्य का संदेश भी।
1. वंदना टेटे, वाचिकता, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2020, पृ. 139
3. अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन, 2019, समर्पण से
4. वही, पृ. 52
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, विश्व भारती शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल-731235
maryhindivb@gmail.com
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................
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