शोध सार : आम तौर पर भाषा को परिभाषित करते हुए जिस चीज़ पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है-वह तत्व है, संप्रेषण। इसकी वजह से भाषा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘संस्कृति-निर्माण’ पीछे छूट जाता है। और यह बात तब समझ आती है जब लगातार संवाद में बने रहने के बावजूद सांस्कृतिक दिवालियेपन की वजह से भाषा अपना मूलभूत माना जाने वाला गुण संप्रेषण भी खो देती है। यह स्पष्ट है कि भाषा केवल ‘सम्प्रेषणीयता‘ का माध्यम भर नहीं है, बल्कि वह मनुष्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आविष्कार भी है। विविध भाषा-भाषी वाले इस देश में लोग अंग्रेजी को क्या सिर्फ संप्रेषण के लिए अर्जित करते हैं या वर्चस्वशाली तबके में दूसरों से अलग दिखने के लिए उस भाषा का व्यवहार करते हैं? भाषा संबंधी विमर्श में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व की प्रक्रियाएं ही मुख्य होती हैं। वर्चस्व की यह प्रक्रिया अलगाव का वर्ग तैयार करती हैं। भूमंडलीकरण की प्रकिया ने अपनी भाषा को लेकर जो चिंताजनक स्थिति तैयार की है, उससे समाज का विभिन्न हिस्सा बेहद उद्वेलित हैं। राजनीतिक स्तर पर जहां एक तरफ राष्ट्रवाद पर जोर दिया जाता है, और वहीं शिक्षा के लिए राजनीतिक पार्टियां अंग्रेजी माध्यम के शिक्षण संस्थानों का विकास अपनी उपलब्धि के बतौर दर्ज करती है। एक अंतर्विरोधी हालात में राष्ट्रीय भाषाओं के सामने सांस्कृतिक संकट खड़ा कर दिया है। भाषा के आधार पर बने गणतांत्रिक देश में कई सूबे अपनी भाषाओं के लिए समाज में चल रहे आंदोलन और सत्ता द्वारा भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने की चुनौतियों के बीच फंसे दिखते हैं।
बीज शब्द : भाषा, राष्ट्रीयता, हिन्दी, अंग्रेजी,
संप्रेषण, वर्चस्व, संस्कृति, भूमंडलीकरण, उपनिवेशवाद।
मूल आलेख : जिस तरह से भूगोल, धर्म, जाति हम अर्जित नहीं करते, हमें जन्म से ही अनायास यह सब कुछ हासिल हो जाता है उसी तरह जन्म से ही एक या दो भाषा का समाज हम पा लेते हैं। एक भाषाई परिवेश हमारे आस-पास होता है और हमारा रचाव-बसाव उसी भाषाई-परिवेश में आकार पाता है। इसी के साथ भाषा के दो मूलभूत तत्व संप्रेषण और संस्कृति के द्वंद्वात्मक संबंधो से व्यक्ति के भाषा-संसार का निर्माण होता है। व्यक्ति के बारे में यह कहा जा सकता है कि वह एक भाषा-प्राणी के रूप में विकसित होता है।
आम तौर पर भाषा को परिभाषित करते हुए जिस चीज़ पर
सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है-वह तत्व है संप्रेषण ; खासतौर पर भाषा पढ़ने-पढ़ाने के
वर्चस्वशाली अकादमिक संस्थानों में। इसकी वजह से भाषा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा ‘संस्कृति-निर्माण’ पीछे छूट जाता है। और यह बात तब समझ आती
है जब लगातार संवाद में बने रहने के बावजूद सांस्कृतिक दिवालियेपन की वजह से भाषा
अपना मूलभूत माना जाने वाला गुण संप्रेषण भी खो देती है। भूमंडलीकरण के दौर में
भाषा विमर्श पर अपनी टिप्पणी में प्रभु जोशी भी कहते हैं
कि भाषा केवल ‘सम्प्रेषणीयता‘ का माध्यम भर नहीं
है, बल्कि वह मनुष्य का
सामाजिक-सांस्कृतिक आविष्कार भी है। वे सवाल उठाते हैं कि क्या किसी भी राष्ट्र की
भाषा की संरचना में मनमाने ढंग से छेड़छाड़ की जा सकती है?
राष्ट्र की भाषा बनाम भूमंडलीकरण -
भूमंडलीकरण महज एक आर्थिक प्रक्रिया नहीं है, वह एक राजनीतिक-सांस्कृतिक परियोजना है। इसे लागू करने की प्रक्रियाओं का गहरा असर जन-जीवन के समस्त पहलुओं पर दिखाई दे रहा है। भाषा के साथ जो बातें आम तौर पर सुनने को मिलती है। उन्हें समझा जाना जरूरी है। हिन्दी का बाजार के साथ तेजी के साथ विस्तार हो रहा है। लेकिन दूसरी तरफ अंग्रेजी माध्यमों के शिक्षण संस्थानों की एक बाढ़-सी उन देशों में देखी जा रही है, जो विकासशील देश कहे जाते हैं। भूमंडलीकरण के जमाने में अंग्रेजी की अनिवार्यता पर जोर दिया जा रहा है। इस तरह भाषा संबंधी पूरे विमर्श में एक अंतर्विरोधी स्थितियां दिखाई देती हैं। (नीचे नोट देखें)
भूमंडलीकरण की नीति का नाम बाजारवाद है। बाजार के विस्तार के साथ हिन्दी के विस्तार का दावा भी किया जा रहा है और
दूसरी तरफ अंग्रेजी की अनिवार्यता भी जाहिर की जा रही है। दरअसल यह एक प्रक्रिया है, जिसमें अपनी
भाषाएं अपनी जमीन खो रही हैं और उस जमीन पर एक ऐसी भाषा का विस्तार हो रहा है जो
बाजारवाद की वास्तविक भाषा मानी जाती है। इस अंतर्विरोध को विश्लेषित
करने की कोशिश करेंगे तो हमें उसका जवाब उस सांस्कृतिक परिदृश्य में मिलेगा जिसमें
हमारा निर्माण हो चुका है या हम निर्मित हो रहे हैं। इस सांस्कृतिक फिसलन का असर
ना सिर्फ हमारी पढ़ने-लिखने की संस्कृति पर पड़ता है बल्कि यह असर भाषा की
संप्रेषण की ताकत को आघात पहुँचाता है और एक वक्त फिर ऐसा आता है कि भाषा अपनी
अर्थवत्ता ही खो देती है और सिर्फ ध्वनि मात्रा रह जाती है। धीरे-धीरे कई शब्द, फिर वाक्य और फिर अर्थ हमारे जीवन से
निकलते चले जाते हैं।
दूसरा सवाल भाषा को अर्जित करने से जो जुड़ा है उसके कुछ ठोस सांस्कृतिक निहितार्थ होते हैं। भाषा या भाषाओं का बहुत गहरा संबंध वर्चस्व से हैं। जब हम संस्कृत को देवभाषा कहते हैं तो तुरंत हम यह भी स्वीकार कर रहे होते हैं कि यह देवकृपा सब पर नहीं होती-इसके लिए चुने जाने की जरूरत हैं और यह चुनाव कैसे होगा यह बताने की जरूरत नहीं है। भाषा संबंधी विमर्श में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक वर्चस्व की प्रक्रियाएं ही मुख्य होती है। एक उदाहरण के रूप में समझने की कोशिश इस तरह भी कर सकते हैं। जगह-जगह से विस्थापित व्यक्ति जब दिल्ली जैसे महाशहर में आता है और अपनी स्थानीय भाषा की वजह से लगातार अपमानित होता है तो उससे बचने के लिए वह महाशहरीय हिन्दी सीखता है और जब छुट्टियों में बाल-बच्चों के साथ गाँव लौटता है तो उसी अर्जित भाषा से खुद को उन सब से अलग और निस्संदेह ऊँचा भी महसूस करता भी है और दूसरों को इसका अहसास भी करवाता है। ठीक इसी तरह यह भी सवाल उठता है कि विभिन्न भाषा-भाषी इस देश के लोग अंग्रेजी को क्या सिर्फ संप्रेषण के लिए अर्जित करते हैं या वर्चस्वशाली तबके में दूसरों से अलग दिखने के लिए उस भाषा का व्यवहार करते हैं। और धीरे-धीरे वर्चस्व और अलगाव का वर्ग तैयार करते हैं। एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जायेगी। एक महाविद्यालय में इतिहास पढ़ाने वाले दो टीचर में एक हिन्दीभाषी प्रदेश से हैं और दूसरे की मातृभाषा कन्नड़ है। उनकी पढ़ाई का माध्यम भी अंग्रेजी-भाषा रही है। लेकिन जब उन्हें पढ़ाना पड़ा और उनके ज्यादातर विद्यार्थी हिन्दी-भाषी थे तो उन्होंने श्रम करके हिन्दी में पढ़ाना सीखा। जबकि दूसरे टीचर ने बिना मेहनत के यह व्यवस्था दी कि दोनों भाषाओं की पढ़ाई अलग कर देनी चाहिए क्योंकि उन्हें हिन्दी माध्यम से पढ़ाने में बहुत तकलीफ होती है। एक ने भाषा अर्जित की क्योंकि दूसरे भाषा के सांस्कृतिक महत्व और जरूरत को उसने समझा, और दूसरे ने सिर्फ वर्चस्व के सांस्कृतिक खाते में अपना नाम लिखवाने के लिए अपनी भाषा छोड़ दी। अपनी इस बात की पुष्टि केन्या के लोकप्रिय उपन्यासकार और भाषाविद न्गुगी वा थ्योंगों के इस वक्तब्य से की जा सकती है। उनके अनुसार -
अफ्रीका का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि द्वितीय
विश्वयुद्ध के बाद जो नई राजनीतिक व्यवस्था कायम होने वाली थी उसमें शासन करने के
लिए कुछ अभिजात लोगों की जरूरत थी। 1950 के
दशक में कुछ कॉलेजों की स्थापना हुई। इससे पहले 1925 से ही अनेक समितियों और सिफारिशों के बाद जो समिति
बनी थी, उसी के फलस्वरूप
ऐस्कीथ कमेटी और ‘इंटर-यूनीवर्सिटी
कौंसिल फॉर हायर एजुकेशन’ की स्थापना हुई।
लेकिन अफ्रीका में आधुनिक विश्वविद्यालय का नक्शा इन आधिकारिक समितियों की मदद से 20वीं शताब्दी में नहीं शुरू हुआ। इसकी शुरुआत तो 19वीं शताब्दी में ही हो गई थी और इसके प्रणेता 1868 में जेम्स अफ्रीकन्स बीले हॉर्टन और 1872 में एडवर्ड ब्लाइडेन थे।
हॉर्टन और ब्लाइडेन दोनों अफ्रीकी थे और सिएरा
लियोन के थे। जाहिर है कि वे अफ्रीका के लिए अच्छा से अच्छा ही चाहते रहे होंगे।
तो भी इन दोनों के नजरिए में फर्क था। एस्बी के अनुसार हॉर्टन अफ्रीका में एक ऐसी
शुरुआत करना चाहते थे जो ‘विशुद्ध पश्चिमी
शिक्षा’ पर आधारित हो और
उनकी इस व्यवस्था में ‘अफ्रीकी भाषाओं, इतिहास अथवा संस्कृति को उच्च शिक्षा में समाहित
करने की कोई गुंजाइश नहीं थी।’ उनके हिसाब से
अफ्रीकी आधुनिकता का रास्ता ग्रीस क्लासिक्स और यूरोपीय भाषाओं और संस्कृति से
होकर गुजरता था। दूसरी तरफ ब्लाइडेन चाहते थे कि अफ्रीका में उच्च शिक्षा उस ‘निरंकुश यूरोपीकरण’ से मुक्त हो जिसने ‘नीग्रो मस्तिष्क को बौना कर दिया है और कुचल कर रख
दिया है।’ 1883 में ब्लाइडेन ने
लिखाः
‘हमारी सभी परंपराएं और अनुभव एक विदेशी नस्ल से जुड़े गए हैं। हमारे
पास अपनी कोई नहीं बल्कि अपने मालिकों की कविताएं हैं। हमारे कानों में जो गीत
सुनाई देते हैं और हमारे होंठों पर प्रायः जो तैरते रहते हैं वे वही गीत हैं
जिन्हें हम उन लोगों के मुंह से सुनते हैं जो हमारी पीड़ा और कराह पर हमारे ऊपर
चीखते रहते हैं। वे अपने उस इतिहास के गीत गाते हैं जो हमारी दुर्दशा का इतिहास
है। वे अपनी विजय के गीत गाते हैं जिनमें हमारे अपमानों की दास्तान लिखी हुई है।
यह हमारी बदकिस्मती है कि उनके पूर्वाग्रहों और उनके जज्बों को हम सीख लेते हैं और
यह समझते हैं कि हमारे अंदर भी उन जैसी ही ताकत और ख्वाहिशें आ गई हैं।’
इस उदाहरण से भाषा के मूल तत्व संप्रेषण पर फिर
चोट पहुँचती है, क्योंकि बहुसंख्य
की भाषा को हम यहाँ छोड़ रहे हैं जो ज्यादा संप्रेषणीय है उसकी जगह हम दूसरी भाषा
को चुनते हैं - और उसका कारण वह
जेहनी सांस्कृतिक गुलामी है जो भाषा के माध्यम से समाज में उच्च वर्ग के निर्माण
में विश्वास रखती है। यह कहा जा सकता है कि भाषा के संप्रेषण से अर्थ और अर्थ के
संप्रेषण से संस्कृति का निर्माण होता है। लेकिन इस पूरे सिलसिले को उलट कर देखे
जाने की जरूरत है कि संप्रेषण की सांस्कृतिक समझ को विकसित किए बिना ना ही ‘सही संप्रेषण’ संभव है ना ही उसके अर्थ की अदायगी।
भूमंडलीकरण के दौर में भाषा विमर्श के नये आयामों
को समझने के लिए अब तक की बहसों और उनके विभिन्न पहलूओं को समझने की जरूरत है। यह
स्पष्ट करेगा कि भूमंडलीकरण के दौर में अपनी भाषा का सवाल न केवल हिन्दी के संदर्भ
में बल्कि दुनिया के किसी भी भाषाई समाज की मूल भाषा से जुड़ा है। भाषा विशेषज्ञ
डा. जोगा सिंह लिखते हैं कि 1990 के बाद से तो अंग्रेज़ी भाषा ने भारतीय
मातृ-भाषाओं को शिक्षा से बाहर ही निकालना शुरू कर दिया। पिछली सदी के खत्म होने
तक ऐसी स्थितियाँ पैदा हो गईं कि पंजाबी जैसी पुरातन और विकसित भाषा का अस्तित्व
खतरे में पड़ने के बारे में भी चिंता भरे बयान सामने आने लगे। 21वीं
सदी के पहले दशक के मध्य ही में समाचारपत्रों में ऐसे बयान आने लगे कि संयुक्त
राष्ट्र संघ की शैक्षिक, सांस्कृतिक और सामजिक मामलों से सम्बन्धित एजेन्सी यूनेस्को (UNESCO) ने अपनी रिपोर्ट
में कहा है कि पंजाबी 50 वर्षों में लोप हो जाने वाली है।
उपनिवेशों के समक्ष भाषा का संकट -
भूमंडलीकऱण के दौर से पहले भाषा संबंधी
उपनिवेशकालीन विमर्श भारत की तरह दुनिया के कई देशों में मुखर हुआ। केन्या के न्गुगी वा थ्योंगो के अनुसार जब विभिन्न राष्ट्र स्वतंत्रता और
समानता की शर्तों पर एक दूसरे से मिलते हैं तो वे एक दूसरे की भाषा में सम्प्रेषण
पर जोर देते हैं। लेकिन जब यही राष्ट्र उत्पीड़क और उत्पीड़ित के रूप में मिलते
हैं तो उत्पीड़क राष्ट्र अपनी भाषा का इस्तेमाल उत्पीड़ित राष्ट्र में अपनी
घेराबंदी और मजबूत बनाने के लिए करता हैं। उपनिवेशकाल में भाषा विमर्श के जो आयाम
थे वे नए उपनिवेशवादी काल में परिवर्तित हो गए। भारत के
संदर्भ में बात करें तो औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद भी
विशिष्ट लोगों की शिक्षा, पेशा और सरकारी कामकाज की भाषा अंग्रेजी बनी हुई है। इस
तरह से हमने औपनिवेशिक शासकों द्वारा बनाई गई सामान्य जन और अंग्रेजी शिक्षित
उच्चवर्ग के बीच की खाईं को बनाए रखने का काम सुनिश्चित किया है। जो काम औपनिवेशिक
शासकों ने जानबूझकर किया था, हम उससे दो कदम आगे निकल गए हैं, जिसका नतीजा ये
निकला है कि अंग्रेजी भाषा में शिक्षित विशिष्ट वर्ग और सामान्य जन में खाईं और
ज्यादा बढ़ गई है। इसका नतीजा ये निकला है कि हमारा मानसिक, भावनात्मक और बौद्धिक
औपनिवेशीकरण, अंग्रेजों की गुलामी के मुकाबले और तेजी से बढ़ा है।
अध्येता मधु किश्वर ने
उपरोक्त पंक्तियों में नव उपनिवेशवाद और भाषा से जुड़े विमर्श को ठोस तरीके से
प्रस्तुत किया है।
भारत में ही शासकीय ढांचे के
रूप में उपनिवेशवाद के अस्तित्व के खात्मे के बाद आंतरिक तौर पर भाषाओं को लेकर जो
राजनीतिक, सामाजिक आंदोलन हुए वे उपनिवेशवाद की एक नई शक्ल पेश करते रहे हैं। भाषा
के आधार पर देश में आंदोलन और गणतांत्रिक व्यवस्था के अंग के रूप में विभिन्न
प्रदेशों का नये सिरे से गठन अपनी भाषा की मुक्ति की अपेक्षा की चरम स्थिति का
बयान हैं। डा. राम मनोहर लोहिया ने समाजवादी सिद्धांतों के लिए अपने आर्थिक,सामाजिक
और राजनीतिक कार्यक्रमों में अपनी भाषाओं को सर्वोच्च दर्जा दिया। दरअसल
उपनिवेशवाद के शासकीय ढांचे के रूप में खात्मे के बाद की समाज व्यवस्था में भाषा-वर्चस्व की नई रणनीति अख्तियार की गई।
गांधी मार्ग में प्रकाशित एक लेख के अनुसार
ब्रिटिश काउंसिल के तत्वावधान में हुआ एक अध्ययन और उसकी सिफारिशों को मैकॉले के
तर्कों का ही विस्तार कहा जाना चाहिए। उपनिवेशों और पेट्रोल-संपन्न पश्चिम एशिया
में अंग्रेजी प्रभाव बढ़ाने के लिए सन् 1935 में ब्रिटिश तेल कंपनियों के अनुदान
से ब्रिटिश काउंसिल नामक संस्था की स्थापना हुई थी। तभी से अंग्रेजी और अंग्रेजियत
का विस्तार ब्रिटेन की विदेश नीति का अविछिन्न हिस्सा बना हुआ है। अमेरिका के अनेक
स्वनामधन्य फाउंडेशन भी इसमें भरपूर मदद करते रहे हैं। नए स्वतंत्र हुए देशों में
अमेरिका और ब्रिटेन दोनों के आर्थिक निवेशों की संरक्षा आवश्यक मानी गई थी।
सन् 1941 में काउंसिल ने सिफारिश की थी कि दूसरा
महायुद्ध खत्म होने के बाद दुनिया भर में अंग्रेजी पढ़ाने-लिखाने के लिए (ब्रिटिश)
सिविल सेवा, फौज, न्यायाधीशों अथवा चर्च जैसी पेशेवर जमात खड़ी की जानी चाहिए।
उन्हें ‘भाषाई मिशनरी’ कहा गया था। उनका काम था दुनिया भर में
स्नातकोत्तर दर्जे तक की पढ़ाई-लिखाई पर ऐसा जादू डालना कि सब जगह अंग्रेजी की
अनिवार्यता स्थापित हो जाए। यानी, अंग्रेजी के अलावा पढ़ाई-लिखाई सर्वथा असंभव बन
जाए। एक सिफारिश यह भी थी कि इस काम का संयोजन ब्रिटेन से ही हो ताकि अंग्रेजी
भाषा और संस्कृति, यानी अंग्रेजियत के प्रचार-प्रसार का ‘महत’ कार्य ठीक से संचालित हो सके। इस रिपोर्ट
के लेखक थे आर.वी.रौथ। बाद में यह एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित भी हुई। इस
पुस्तक का नाम है : द डिफ्यूजन ऑफ इंग्लिश कल्चर आउट साइड इंग्लैंड,
ए प्राब्लम ऑफ पोस्ट-वार रिक्सट्क्शन।
एक नई रिपोर्ट डेविड ग्रेडॉल ने लिखी है। इसका नाम
है : ‘इंग्लिश नेक्स्ट, इंडिया’। 2010 की इस महान रिपोर्ट को ब्रिटिश
काउंसिल के इंटरनेट पेज पर भी देखा जा सकता है। ग्रेडॉल ने भारतीय समाज, भारतीय
अर्थतंत्र, भाषाई और शैक्षिक समस्याओं पर काफी खोजबीन के बाद इस रिपोर्ट को तैयार
किया है। उन्होंने न केवल हमारी सरकार के अनेक अध्ययनों का उल्लेख किया है, देश के
कुछ प्रमुख उद्योगपतियों, व्यापारियों से भी बातचीत की है। इन सबसे हुई बातचीत के
बाद ग्रेडॉल की रिपोर्ट में यह बात उभरकर सामने आती है कि
हमारे देश के ज्यादातर लोग अंग्रेजी भाषा में प्रवीणता को अपनी तमाम समस्याओं से
मुक्ति की एक मात्र कुंजी मानते हैं।
इसी लेख में सुधांशु भूषण मिश्र ने अंग्रेजी के
विस्तार की ऐतहासिक पृष्ठभूमि का भी उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि भारतीय
भू-भाग में अंग्रेजी और अंग्रेजियत के वर्तमान फैलाव के लिए डेविड ग्रेडॉल या उनके
पहले मैकॉले को दोषी नहीं माना जा सकता। यूरोप महाद्वीप के जिस उत्तर-पश्चिमी टापू
को हम ब्रिटेन नाम से जानते हैं, वह ऐतिहासिक तौर पर विभिन्न कबीलों का एक
मिला-जुला घर रहा है। इनमें इंग्लिश, स्काट, वेल्स और पिछले सौ-दो सौ सालों के
दौरान कभी पूर्ण तो कभी आंशिक कब्जे में रहे आयरिश लोग प्रमुख हैं। ईसा के कोई सौ
साल बाद इस टापू पर रोमन साम्राज्य का कब्जा हो गया था। इतिहास प्रमाण है कि रोमन
गवर्नर ने टापू के निवासियों को जंगली कहा था और बड़ी शान से यह घोषणा की थी कि
उसने कैसे इन जंगली लोगों को ‘सभ्य’ बनाया था। गवर्नर
ने कहा था कि इसके लिए कबीलों के मुखियाओं के बेटों पर डोरे डाले गए और उनकी जीभ
में लैटिन भाषा व उनके शरीर पर भी वही पहरावा उढ़ा दिया गया था। यानी, भाषाई और
सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का यह भद्दा इतिहास अंग्रेज मैकॉले से कहीं पुराना है।
पहले रोमनों ने अंग्रेजों पर और फिर अंग्रेजों ने स्कॉटिश, आयरिश और वेल्स लोगों
पर भी इन्हीं उपायों से अपना भाषाई व सांस्कृतिक वर्चस्व थोपा था।
भाषा के जरिये वर्चस्व के अनुभव और
भूमंडीकरण की प्रक्रिया -
भाषा के जरिये राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और
सांस्कृतिक वर्चस्व का एक लंबा इतिहास हमारे सामने है। सवाल अंग्रेजी बनाम अन्य
भाषा का कतई नहीं है। यहां दुनिया की कोई भी भाषा हो सकती है। यहां उन आयामों की
खोज करना मकसद है कि कैसे एक परायी भाषा को किसी समाज की अपनी भाषा पर थोपने की
कोशिश की जाती है। उसकी प्रकियाएं और मकसद क्या होते हैं।
1990 के बाद साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और नव
उपनिवेशवाद के साथ पूरी दुनिया में अपनी भाषाओं के साथ समानता और लोकतंत्र को
गढ़ने की जो बहस निरंतर चलती रही है उसके सामने भी एक नई तरह की परिस्थतियां खड़ी
हो गई हैं। दुनिया एक गांव है को मानने वाली
राजनीतिक अवधारणा के साथ भूमंडलीकरण की परियोजना को लागू होते देखा गया। दुनिया के
स्तर पर भाषाई और सांस्कृतिक पहलुओं पर सक्रीय अंतर्राष्ट्रीय संस्था यूनेस्कों की
जो अपनी मान्यताएं रही हैं, वह विभिन्न समाज में अपनी भाषाओं के लुप्त होने की
खबरों से टकराने लगी। यूनेस्कों ने विभिन्न तरह के अध्ययनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि अपनी मातृभाषा से ही स्थानीय समाज को समृद्धी हासिल हो
सकती है। यहां यूनेस्को के दस्तावेजों के कुछ उद्दरणों को प्रस्तुत किया जा रहा
है।
“यह स्वतःसिद्व है कि बच्चे के लिए शिक्षा का
सबसे बढि़या माध्यम उसकी मातृभाषा है। मनोवैज्ञानिक आधार पर यह सार्थक चिन्हों की
ऐसी प्रणाली है जो प्रकट और समझ के लिए उसके दिमाग में स्वयंचालक रूप में काम करती
है, सामाजिक आधार पर
जिस जनसमूह के सदस्यों से उसका सम्बन्ध होता है उसके साथ एकात्मक होने का साधन है, शैक्षिक आधार पर वह मातृभाषा के माध्यम से
एक अनजाने माध्यम की अपेक्षा तेज़ी से सीखता है।“
(यूनेस्को, 1953:11)
यूनेस्को ने 1968 में अपनी पुस्तक में दोहराया -
शिक्षा के लिए “मातृभाषा का प्रयोग जितनी दूर तक संभव हो
किया जाना चाहिए” (पन्ना 691)।
और संयुक्त राष्ट्र
की 2004 की विकास रिपोर्ट
में ये दर्ज है :“फिलीपीन में दो भाषाई शिक्षा नीति की दो भाषाओं (टागालोग और अंगे्रजी)
में पारंगत विद्यार्थी उन विद्यार्थियों को पीछे छोड़ देते थे जो घर में टागालोग
में बात नहीं करते थे।“
और निम्न पंक्ति तो
मुख्यतः अंग्रेजी भाषी देश अमेरिका के बारे में है :“अमेरिका में जिन नवायो भाषाई बच्चों को
प्राथमिक स्तर पर उनकी प्रथम भाषा (नवायो) और उनकी द्वितीय भाषा (अंग्रेजी) दोनों
भाषाओं में पढ़ाया गया, उन बच्चों ने नवायो भाषाई उन बच्चों को पीछे छोड़ दिया जिनको केवल
अंग्रेजी में पढ़ाया गया।”
लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में पूरी दुनिया में एक
बड़ी संख्या में भाषाओं के लुप्त होने की आशंका बढ़ती जा रही है। सवाल केवल भाषाओं
के लुप्त होने से भी नहीं जुड़ा हुआ है बल्कि जिन भाषाओं के विस्तार के दावा किया
जा रहा है उन भाषाओं का अपनी मौलिकता खत्म हो रही है। हिन्दी का बाजार में खरीद-बिक्री के लिए विस्तार का दावा किया जा रहा है लेकिन वह किसी भाषा के
विकास के मौलिक और स्वभाविक गति से अलग पड़ती जा रही हैं। बौद्धिक विमर्श और मौलिक
शोध को इस भाषा में असंभव माना जाने लगा है। हिन्दी भाषा अंग्रेजी से अनुवाद के वाक्य विन्यासों के बोझ से दबी रहती
है। हिन्दी के एक विद्वान प्रभु जोशी ने अपने एक लेख में बताया है कि भूमण्डलीकरण
की विश्व-विजय में सबसे पहले निशाने पर हिन्दी ही है । इसका एक कारण तो यह भी है
कि यह हिन्दुस्तान में संवाद, संचार और व्यापार की सबसे बड़ी भाषा बन चुकी है। चूँकि भाषा सम्प्रेषण का
माध्यम भर नहीं,
बल्कि चिन्तन
प्रक्रिया एवं ज्ञान के विकास और विस्तार का भी हिस्सा होती है । उसके नष्ट होने
का अर्थ एक समाज, एक संस्कृति और एक राष्ट्र का नष्ट हो जाना है । वह प्रकारान्तर से
राष्ट्रीय एवं जातीय-अस्मिता का प्रतिरूप भी है । इस अर्थ में, भाषा उस देश और समाज की एक विराट ऐतिहासिक
धरोहर भी है।
उन्होने विस्तार से उल्लेख किया है कि हिन्दी को
कैसे हिंग्लिश में परिवर्तित किया जा रहा है। दरअसल हिन्दी के समाचार पत्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों व कोरपोरेट घरानों के
विज्ञापनों को ज्यादा से ज्यादा हासिल करने और उसके बदले में कंपनियों के अनुकूल
सांस्कृतिक वातावरण बनाने और समाज की सांस्कृतिक प्रतिरोध की क्षमता को नष्ट करने
के लिए एक व्यवसायी समझौता कर लेते हैं। हिन्दी के मीडिया संस्थान ही नहीं किसी भी
भारतीय भाषा पर आधारित होने का दावा करने वाले मीडिया संस्थान ने भाषाई अस्मिता और
सांस्कृतिक महत्व को लगभग भुला दिया है। प्रभु जोशी के
अनुसार “इस सौदे के, उसमें किसी भी कि़स्म की नैतिक-दुविधा शेष
नहीं रह जाती है और ‘भाषा,
संस्कृति और
अस्मिता’ आदि चीज़ों को तो
वह खरीददार को यों ही मुफ्त में बतौर भेंट के दे देता है । वे स्पष्ट कहते हैं कि आपका अखबार हिन्दी का अखबार होकर, हिन्दी को निगलने का काम करने जा रहा है।...और
अब तो हिन्दी में अँग्रेज़ी की अपराजेयता का बिगुल बजाते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों
के दलालों ने,
विदेशी पूँजी को
पचा कर मोटे होते जा रहे, हिन्दी के लगभग सभी अखबारों को यह स्वीकारने के लिए राजी कर लिया है कि
इसकी नागरी-लिपि को बदल कर, रोमन करने का अभियान छेड़ दीजिए और वे अब इस तरफ कूच कर रहे हैं।
उन्होंने इस अभियान को अपना प्राथमिक एजेण्डा बना लिया है । क्योंकि बहुराष्ट्रीय
निगमों की महाविजय, इस सायबर युग में रोमन लिपि की पीठ पर सवार होकर ही बहुत जल्दी संभव हो
सकती है । अँग्रेज़ों की बौद्धिक चालाकियों का बखान करते हुए एक लेखक ने लिखा था -
‘अँग्रेज़ों की
विशेषता ही यही होती है कि वे आपको बहुत अच्छी तरह से यह बात गले उतार सकते हैं कि
आपके हित में आप स्वयं का मरना बहुत ज़रूरी है । और, वे धीरे-धीरे आपको मौत की तरफ ढकेल देते
हैं । ठीक इसी युक्ति से हिन्दी के अखबारों के चिकने और चमकीले पन्नों पर नई नस्ल
के ये चिंतक यही बता रहे हैं कि हिन्दी का मरना, हिन्दुस्तान के सामाजिक-आर्थिक हित में
बहुत ज़रूरी हो गया है।
निष्कर्ष : भूमंडलीकरण की प्रकिया ने अपनी भाषा को लेकर जो चिंताजनक स्थिति तैयार की है उससे समाज का विभिन्न हिस्सा बेहद उद्वेलित हैं। भाषा संबंधी एक नये तरह के विमर्श का ही यह दौर नहीं है बल्कि पूरी दुनिया में एक नये तरह के आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार दिख रही हैं।
संदर्भ :
- भूमंडलीय
जनमाध्यम , निगम पूंजीवाद के नए प्रचारक, लेखक एडवर्ड एस हरमन एवं रॉवर्ट
डब्ल्यू मैकचेस्नी, प्रकाशक –ग्रंथ शिल्पी,2006 ISBN 81-7917-086-1
- प्रभु जोशी का भाषा पर
प्रकाशित आलेख :
https://www.hindisamay.com/content/5025/1/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A5%81-%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%AE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6-%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%8F-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%A4%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%9B-%E0%A4%85%E0%A4%96%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0.cspx
- केन्या के
लोकप्रिय उपन्यासकार और भाषाविद न्गुगी वा थ्योंगों (http://hashiya.blogspot.in/2013/12/blog-post.html)
- भाषा विशेषज्ञ
डा. जोगा सिंह , पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला https://www.academia.edu/12203022/Hindi_Bhaarat_ke_vikaas_ke_liye_bhaartiya_bhaashaaen_jaruuri
- यूनेस्को (UNESCO) की रिपोर्ट
- गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित गांधी
मार्ग, अंक 5, सितंबर –अक्टूबर 2013 में सुधांशु भूषण मिश्र का अंग्रेजी के
विस्तार की ऐतहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित लेख: https://archive.org/details/GandhiMarg-Hindi-Sep-Oct2013/page/n11/mode/2up?view=theater
- आर.वी.रौथ
लिखित पुस्तक द डिफ्यूजन ऑफ इंग्लिश
कल्चर आउट साइड इंग्लैंड, ए प्राब्लम ऑफ पोस्ट-वार रिक्सट्क्शन।
- डेविड ग्रेडॉल
की रिपोर्ट ‘इंग्लिश
नेक्स्ट,
इंडिया’। 2010 में यह लिखित रिपोर्ट को ब्रिटिश काउंसिल के
इंटरनेट पेज
(https://www.britishcouncil.in/sites/default/files/english_next_india_-_david_graddol.pdf
नोट : भारत में राजकाज के लिए केन्द्र और राज्य
सरकार के बीच विभाजित विषयों में शिक्षा राजनौतिक सत्ता के दोनों केन्द्रों के
कामकाज की सूची में है। राजनीतिक स्तर पर सरकारें अंग्रेजी माध्यम के अधिकाधिक
शिक्षण संस्थानों को खोलना विकास के कार्यक्रम में शुमार करती है और अंग्रेजी
माध्यमों के स्कूल खोलना चुनाव प्रचार के दौरान एक राजनैतिक आकर्षण के रुप में
प्रचारित किया जाता है।
राजधानी कॉलेज, हिन्दी विभाग,दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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