शोध सार : मध्ययुगीन नवजागरण ने भारतवर्ष में एक अभूतपूर्व आन्दोलन को जन्म दिया जिसे मध्ययुगीन भक्ति आन्दोलन का नाम दिया जाता है। भक्ति के विकास का पूर्ण यश मध्ययुगीन नव - जागरण के चिन्तकों अर्थात दक्षिण के आलवार और आडवार भक्तों, मध्ययुगीन आचार्यों, संतों और गुरुओं को जाता है। इन्हीं मध्ययुगीन विचारकों में गुरु नानक का विशेष और महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे मौलिक चिन्तक, उदार धर्म-गुरु, प्रगतिशील समाज निर्माता, चैतन्य मानवतावादी होने के साथ-साथ महान कवि भी थे। गुरु-काव्य ने सही अर्थों में जीवन और संस्कृति को न केवल नव - चैतन्य और नव - स्फूर्ति प्रदान की बल्कि उसे एक नया मोड़ भी दिया। गुरु नानक के दार्शनिक चिन्तन की मौलिकता और विलक्षणता के युग का आविर्भाव पंद्रहवीं शताब्दी में होता है। गुरु नानक के दार्शनिक चिन्तन का मूलाधार उनका स्वानुभूत ज्ञान और परमात्मा की प्रेरणा है। वस्तुतः परमात्मा, जीव, सृष्टि आदि के सम्बन्ध में उनका चिन्तन इसका प्रमाण है। समग्रतःइसशोधआलेख के के माध्यम से' गुरु नानक की दार्शनिक विचारधारा : वैशिष्ट्य ' का अध्ययन - विश्लेषण और मूल्यांकन किया गया है।
बीज शब्द : दार्शनिक
विचारधारा, ब्रह्म -
निरुपण, अव्यक्त निर्गुण स्वरूप, अव्यक्त
सगुण रूप, ब्रह्म का व्यक्त रूप, सृष्टि
की अवधारणा, जीव की अवधारणा, माया की अवधारणा, ' हुक्म ', अहंकार तथा मन।
मूल आलेख : गुरु नानक क्रान्तदर्शी, सत्यान्वेषी, सुसंस्कृत, सौम्य और सर्वथा स्वतन्त्र प्रकृति के महापुरूष थे। ये केवल नए धर्म के जन्मदाता ही नहीं थे बल्कि उन्होंने भारत के जन -जीवन और संस्कृति को एक नया मोड़ भी दिया। इस सन्दर्भ में डा. मुहम्मद इकबाल द्वारा विरचित ' बांग - ए - दर्रा ' को निम्न पंक्तियाँ अवलोकनीय है :-
हिन्द को इक मर्द - कामिल ने जगाया ख्याब से। '1
गुरु नानक का चिन्तन किसी भी विशेष दर्शन एवं पुस्तकीय
ज्ञान पर आधारित नहीं था, बल्कि उन्होंने अपने चिन्तन का आधार स्वानुभूति को बनाया।
इनका चिन्तन परमात्मा में लीन एक अनुभव साधक की रहस्यानुभूति का प्रकाश कहा जा
सकता है। गुरु कवि तिलंग राग में उद्घोष करते है
' जैसी महि आवै खसम की वाणी ॥तैसड़ा करि गिआनु वे लालो ॥ '2
-रागु तिलंग
गुरु नानक के दार्शनिक चिन्तन की मौलिकता और विलक्षणता को
रेखांकित करते हुए डा. त्रिभुवन राय का कथन 'भारतीय परम्परा के भाववादी दार्शनिकों में गुरु नानक का
अपना महत्त्व एवं स्थान है। दार्शनिक चिन्तन के सन्दर्भ में वह निस्संदेह परम्परा
के रिक्थ को लेकर आगे बढ़ते है, परन्तु उसका विकास वह अपनी अनुभूतियों के सहारे अपने ढंग से करते है। अतएव
उनकी दार्शनिक दृष्टि को बादबद्ध दृष्टि से देखना अधिक उपयुक्त नहीं कहा जा सकता।
उनको दार्शनिक निष्पत्तियों में अद्वैत, हैत, विशिष्टाद्वैत आदि के तत्त्वों का एकांत अभाव नहीं, तथापि
उन्हें उन्ही के खांचों में सीमित करना संगत नहीं। कारण कि गुरुजी ने किसी भी वाद
अथवा दार्शनिक चिन्तन पद्धति का न आंख मूंदकर अनुकरण किया है और न ही समर्थन।
परमात्मा, सृष्टि आदि के सम्बन्ध में उनका चिन्तन ही इसका
प्रमाण है।’3 विभिन्न
विद्वानों द्वारा दिए गए विचारों के आधार पर हम निश्चयपूर्ण कह सकते है कि गुरु
नानक के चिन्तन में उनका स्वानुभूत ज्ञान ही प्रमुख रहा है। परमात्मा की प्रेरणा
भी उसमें सहायक हुई है। यही कारण है कि उनकी विचारधारा में अनेक चिन्तनधाराओं का
कुछ - न - कुछ रूप मिल जाता है। अग्रांकित पंक्तियों में हम उनके दार्शनिक चिन्तन
का अध्ययन और विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।
गुरु नानक की दार्शनिक विचारधारा : गुरु नानक वाणी भारतीय अध्यात्मवाद की
उत्तम काव्य - कृति है। इसमें धर्म, सदाचार और दर्शन के अनेक
पक्ष व्यजित हुए है। वाणी का सन्देश ईश्वरवादी - भावना आधारित संतुलित जीवन -
आदर्श है जिसे श्रद्धा और विवेक की दृष्टि से समझा - आंका जा सकता है। नितांत
श्रद्धा की भावना से ग्रहण करने पर यह वाणी उस माँझी के समान है जिस पर सवारियों
को अथाह विश्वास है कि वह स्वयं ही बेड़ा पार लगाएगा। विचार की दृष्टि से इस वाणी
में पिता - पितामहों के खजाने छिपे पड़े है, जिन्हें खोलकर
देखने पर हो उनका मूल्यांकन किया जा सकता है। वाणी का विवेकशील अध्ययन गुरु नानक
की दार्शनिक महानता को सुदृढ़ करता है और भारतीय चिन्तन में उनका स्थान सुनिश्चित
करता है।4 गुरु नानक के दार्शनिक चिन्तन के
अन्तर्गत मुख्यतः ब्रह्म, सृष्टि, जीव,
माया. हुक्म, अहंकार तथा मन का अध्ययन -
विश्लेषण होता है।
बह्म निरूपण परम्परा : ब्रह्म के नाम
और स्वरूप - सम्बन्धी धारणा तथा उसकी उपासना विधियों के क्षेत्र में सदैव परिवर्तन
होते रहे। प्रत्येक महान् पुरूष ने अपने अनुभव और विश्वास के शीशे से अथवा अपनी
भावना के रंग में रंगी हुई दृष्टि से परम सत्ता को देखने का प्रयत्न किया। अत :
वेदो से लेकर संत - साहित्य तक ब्रह्म का अनेकानेक नामों और रूपों के द्वारा
विवेचन होता रहा।5
सृष्टि में अनेक
धर्म हैं। अधिकांश धर्मों में परम तत्व परमात्मा को स्वीकार किया गया है। परमात्मा
के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए धर्म - संस्थापको और दार्शनिको ने तर्क वितर्क, प्रमाण, दृष्टान्त
आदि का सहारा लिया है। किन्तु गुरु नानक एवं अन्य गुरु परम श्रद्धालु थे। वे तर्क
- वितर्क के आधार पर परमात्मा के अस्तित्व को नहीं सिद्ध करना चाहते थे। उन्हें यह
खण्डन - मण्डन वाली प्रणाली अभीष्ट भी नहीं थी। गुरुओं को तो परमात्म - तत्व को
साक्षात् अनुभूति होती थी। उन्हें सर्वत्र परमात्मा के दर्शन होते थे –
'
जह जह देखा तह तह सोई। '
उनका परमात्मा तो प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की
क्या आवश्यकता है ? क्या सूर्य कहीं दीपक से देखा जा सकता है ?
नानक का पातिसाहु दिस जाहरा ॥ '6
गुरु नानक द्वारा बह्म निरूपण : गुरु नानक ने ब्रह्म का निरूपण अपनी वाणी में अनेक प्रकार से किया है।
उन्होंने अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर परमतत्व के नाम, स्वरूप, सामर्थ्य,
संख्या आदि का विवेचन किया है। गुरु नानक ने जपुजी के आरम्भ में
ब्रह्म के स्वरूप को अंकित किया है, इसे मूल - मन्त्र कहा
जाता है। वह मूल - मन्त्र इस प्रकार है ' १ ओंकार (१) सतिनाम करता पुरखु निरभउ - निरवैरू अकाल मूरति गुरप्रसादि। '
अर्थात् परमात्मा एक है, उसका नाम पूर्ण सत्य है, वह सर्वस्व का
स्रष्टा है, वह निर्भय है ;
उसकी किसी से शत्रुता नहीं है ;
उसका बिम्ब कालातीत है : प्रजात नहीं ;
अपना जनक स्वयं ही है ; मनुष्य उसे केवल गुरु कृपा से जान सकता है। गुरु नानक
द्वारा दिए गए मूल - मन्त्र को व्याख्या, ब्रह्म के स्वरूप को समझने के लिए अपेक्षित है।7
डा. जयराम मिश्र गुरु नानक द्वारा दिए गए मूल मन्त्र की
व्याख्या करते हुए लिखते हैं:- गुरु नानक देव ने अपने मूलमन्त्र तथा बीजमंत्र में परमात्मा के स्वरूप की
इस भांति व्याख्या की है।
'
१ ओकार (१ਓ)
सतिनामु करता पुरखु निरभउ-
निरवैरू अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि। '
गुरु नानक ने अपने मूल मन्त्र में परमात्मा के जिन विशेषणों
की चर्चा की है, उनमें
निर्भय-निरवैरू, अकाल-मूरति और अंजूनी सैभं आदि विशेषणों का
विशेष महत्त्व है। उनके अनुसार मात्र परमतत्व ही निर्भय है। ब्रह्म के राम,
कृष्ण आदि अवतार उस भय रहित परमात्मा के सामने धूल के समान है। उन
अवतरित महापुरूषों का ब्रह्म के सम्मुख कोई महत्त्व नहीं है। इस सन्दर्भ में गुरु
वाणी का कथन स्पष्ट है-
" नानक निरभउ निरंकरू होर केते राम रवाल।
"
-आसा-वार।
गुरु नानक ने परमात्मा को निरवैरू भी कहा है अर्थात कृपालु, दयालु और मान - सम्मान देने वाला परमात्मा
किसी का भी शत्रु नहीं है। यथा-
" आपे मिहर दइआ पतिदाता ॥ना किसे को बैराई हे ॥ "
-रागु मारू- सोलेह।
गुरु नानक ने परमात्मा को ' अकाल मूरति ' कहकर भी सम्बोधित किया है।
परमात्मा तीनों कालों में व्याप्त रहता है, उसपर काल का
प्रभाव नहीं होता है। कवि ने अकाल के साथ मूरति कहकर परमात्मा के अस्तित्व को दृढ़
कराया है। वस्तुतः परमात्मा की मूरति कालातीत है। जिससे वह बाल, युवक, तथा बूढ़ा नहीं होता, बल्कि
हमेशा एक जैसा रहता है। गुरु नानक के ब्रह्म के जिन विशेषणों का प्रयोग किया है,
उनमें अजूनी ' सैभं', शब्द
का प्रयोग सोद्देश्य किया है। अजूनी से अभिप्राय योनि रहित है। इस संदर्भ में माया
- रहित और अपरंपार है। उसकी गुरु - वाणी की निम्न पंक्तियां देखिए –
"जाति अजाति अजोनी संभउ न तिसु भाउ न भरमा।...
न तिसु मात पिता सुत बंधप न तिसु कामु न नारी ॥
अकल निरंजन अपरपंरू सगली जोति तुमारी।"8
-गुरु ग्रंथ साहिब, रागु सोरठि-पदे।
इस प्रकार हम कह सकते है कि ब्रह्म के किसी भी अवस्था में
जन्म ग्रहण न करने के विचार को स्थापित करना, गुरु नानक की भारतीय चिन्तन को एक मौलिक देन कही जा सकती है।
गुरु नानक ने ब्रह्म को ' स्वयंभू ' कहा है इसका भाव होता है अपने आप होने वाला। गुर वाणी में
इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया है -
"थापिआ न जाइ कीता न होइ।
आपे आपि निरंजनु सोइ। "
- जपुजी - पउड़ी 5
इस प्रकार गुरु नानक का यह दृढ़ मत है कि ब्रह्मा ने स्वयं
ही अपनी रचना की है यह नाम - रूपात्मक, जगत् उसी की क्रीडा है उसके सृजन के रहस्य को वह स्वयं ही
जानता है। गुरु नानक ने ब्रह्म के अव्यक्त स्वरूप को दो प्रकार से चित्रित किया है
-अव्यक्त निर्गुण औरअव्यक्त सगुण।
ब्रह्म का अव्यक्त निर्गुण स्वरूप : जो गुणों को सीमा में बाधा न जा सके उसे निर्गुण कहा जाता
है। गुरु नानक ने अपनी वाणी मे अव्यक्त ब्रह्म को पर्याप्त चर्चा की है
1)
सोचै सोचि न होवई जे सोची लखवार। तथा
2)
ता कीआ गला कथोआ ना जाहि जेको कहै पिछ पछुताइ।
जो व्यक्ति सहजावस्था द्वारा जानता वह पाप - पुण्य के
प्रभाव से मुक्त हो जाता है। यथा –
"अंतरि सेतुं बाहरि सेन त्रिभवण सुर्नसुन।
चौथे सुनै जो वर जाण ता कर पापु न पुन ॥"
- राग रामकली - सिद्य गोसटि।
गुरु नानक ने ' मारू ' राग में कहा है कि शून्य - रूप ब्रह्म सृष्टि के पूर्व
निर्विकल्प अवस्था में था उसी शून्य - रूप ब्रह्म से पवन, सृष्टि आदि की उत्पत्ति हुई। उसी से पृथ्वी
और आकाश की रचना हुई तथा रात और दिन का निर्माण उसी से ज्ञानेन्द्रियाँ मन और
बुद्धि जैसे सात सरोवरों की स्थापना अपनी ' सुन समाधि ' की अवस्था में वह स्वयं ही होता है। शून्य - रूप ब्रह्म के
वैशिष्ट्य के बारे में डा. रत्न सिंह जगी का कथन है " गुरु नानक ने शून्य को
निर्गुण ब्रह्म और उसकी निर्विकल्प (अफर) अवस्था (शून्य समाधि) के लिए प्रयुक्त कर
शून्य की समाई भावात्मक जगत में कर दी है। इस से जहाँ एक ओर शून्य शब्द के प्रयोग
की परम्परा का विकास हुआ है, वहीं दूसरी ओर इसका आस्तिक परिधान पहना कर अव्यक्त निर्गुण का वाचक भी बना
दिया गया है।9
गुरु नानक ने ब्रह्म को ' निरंजन ' रूप में भी निरूपायित किया है। गुरु कवि ने निरंजन शब्द का
प्रयोग निराकार, निर्गुण,
अलक्ष्य परमात्मा के लिए किया है। उन्होंने निरंजन शब्द का प्रयोग
निर्लिप्त भावना के लिए भी किया है। निम्न पंक्तियों में इस प्रयोग को देखा जा
सकता है –
"जोगु न खिंथा जोगु न डंडे। जोगु न भसम चड़ाईए ॥
जोगु न मुंदी मुंडि मुडाइए। जोगु सिंडी वाईए ॥
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ। जोग जुगति इव पाईए ॥"
अर्थात् योग की प्राप्ति न तो कंथा पहनने से होती है, न डंडा धारण करने से और न ही शरीर पर भस्म
लगाने से। योग न कानों में मुद्रा डालने में है, न सिर-मुंह
मुंडाने में और न ही सिंगी बजाने में। माया में विचरते हुए माया से मुक्त रहने की
युक्ति द्वारा ही योग की प्राप्ति हो सकती है।
अव्यक्त सगुण रूपः गुरु नानक ने अव्यक्त निर्गुण ब्रह्म के लिए सगुण ब्रह्म
के रूप को भी दो - एक स्थलों में स्वीकार किया है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित है
कि अव्यक्त सगुण ब्रह्म के गुण, सगुणवाद वाले ब्रह्म के गुण नहीं है। इन गुणों में प्रमुख रूप ज्योति
स्वरूप वाला है। गुरु साहिब ने हमेशा सुख देने वाले ब्रह्म को ज्योति-स्वरूप
स्वीकारा है –
"जोति सरूप
सदा सुखदाता सचै सोभा पाइदा।"
-राग मारू-
सोलहे।
गुरु नानक का मत है कि उस निर्गुण ब्रह्म की ज्योति से हो
अखिल विश्व के जड़ चेतन पदार्थ प्रकाशित है। उसको ज्योति तीनों भुवनों में सर्वत्र
फैली हुई है –
"जोति
सवाइडीए त्रिभवण सारे राम।
घटि - घटि रवि
रहिआ अलख अपारे राम ॥"
-रागु
बिलावलु-छत।10
ब्रह्म का व्यक्त रूप: गुरु नानक के काव्य में व्यक्त रूप ब्रह्म के जो रूप मिलते
है उनमें प्रमुख है (1) विराट स्वरूप, (2)
दिव्य रूप, (3)
खसम रूप और (4) पातशाह रूप। गुरु नानक ने ब्रहा के विराट स्वरूप का अंकन
अपनी प्रसिद्ध रचना आरती में किया है। जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्नांकित है –
"गगन मैं
थालु रवि चंद दीपक बने। तारिका मंडल जनक मोती ॥
धूप मलआनलों
पवणु चवरों करे। सगल बनराइ फूलत जोती।
कैसी आरती होई
भव खंडना तेरी आरती। अनहता सबद वाजत मेरी ॥"
-रागु
धनासरी-आरती।
'
गुरु नानक ने इस संसार के रचयता परमात्मा को 'पातिशाह' अर्थात् बादशाह के रूप में भी निरूपायित किया है। इसी तरह
उसे बादशाहों का बादशाह भी कहा गया है। उस बादशाह का निवास स्थान बहुत महान है। वह
परमात्मा तख्त पर सुशोभित है और उसके तख्त को दिन - रात अभिवादन होता है –
"तखति बहै तखत की लाइक।"
तथा
"तखति सलामु होवै दिनुराती।"
गुरु नानक ने अवतारवादी भावना से सम्बन्धित मूर्तिपूजा का
भी विरोध किया। इन्होंने स्पष्ट और तर्क - पूर्ण ढंग से कहा कि जो मूर्तियां पानी
में डालने से स्वयं डूब जाती है वे लोगों को कैसे तार सकती हैं –
" देवी देवा पूजीए भाई किआ मागत किआ
देहि।
पाहणु नीरि पखालीऐ भाई जल महि डुबहि तेहि। "
-रागु सोरठि, अष्टपदी।
इस प्रकार गुरु नानक की अवतारवाद बहुदेववाद और मूर्ति -
पूजा आदि पर कोई आस्था नहीं थी इसलिए उन्होंने इन सब की आलोचना की है।
गुरु नानक के ब्रह्मा निरूपण का वैशिष्ट्य :गुरु नानक की आध्यात्मिकता तर्क के स्थान पर स्वानुभूति पर आधारित थी।
उन्होंने प्राचीन धर्मों और धार्मिक सम्प्रदायों के ग्रंथों का गहण अध्ययन किया
परन्तु उन्हें अपनी विचारधारा का आधार नहीं बनाया। उन्होंने मात्र एक परमात्मा पर
पूर्ण विश्वास अभिव्यक्त किया। वह परमतत्व निराकार, निर्गुण, अजन्मा और स्वयंभू रूप है। वह
स्वयं ही सृष्टि का रचयता है और स्वयं ही संहार करने वाला है। यही निर्गुण ब्रह्म
विश्व के समस्त जीवों का सर्जक और पालन कर्ता है। गुरु नानक का दार्शनिक चिंतन
किसी एक विशेष दार्शनिक चिंतन के अन्तर्गत नहीं आता है। उनके चिंतन में विभिन्न
दर्शनों के अनेक तत्व, उनकी आत्मानुभूति के द्वारा अपना
स्वरूप निर्मित करते हैं। यही उनके ब्रह्म निरूपण की विशेषता है।
सृष्टि की अवधारणा :गुरु नानक ने
सृष्टि तत्व के सम्बन्ध में व्यापक चर्चा की है। उन्होंने निर्गुण, निराकार ब्रह्म को सृष्टि का मूलाधार माना
है। इन्होंने दृढतापूर्वक प्रतिष्ठापित किया है कि केवल ब्रह्म ही सृष्टि के
मूलारम्भ में स्थित था। इस सम्बन्ध में गुरु - वाणी का कथन है –
"कत जुग बरते गुबारै। ताड़ी लाई अपर अपरै ॥
धूंधूकारि निरालमु बैठा। न तदि धुधं पसारे हे।"
-गुरु ग्रंथ साहिब, रागु
मारू - सोलहे।
सृष्टि की उत्पत्ति के सम्बन्ध में गुरु नानक देव ने वेदों
व उपनिषदों में प्रतिपादित क्रम का ही समर्थन किया है। ऋग्वेद के ' नासदीयसूक्त ' के
अनुरूप ही गुरु नानक भी सृष्टि के विकास क्रम की कल्पना करते हुए यह मानते है कि
जिस समय सृष्टि का क्रम आरम्भ हुआ उससे पूर्व सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं था। इस
सन्दर्भ में निम्न पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं –
"अरबद नरबद धुंधूकारा। धरणि न गगना हुकमु अपारा।
ना दिनु रैनि न चंदु न सुरजु सुन समाधि लगाइदा ॥
ब्रह्मा बिसनु महेसु न कोई। अवरू दीसै एको सोई।
नारि पुरखु नही जाति न जनमा ना को दुखु सुखु पाइदा ॥
नानक साचि रते बिसमादी बिसम भए गुण गाइदा। "
गुरु नानक ने सृष्टि की रचना का कारण वाहिगुरु के हुक्म को
माना है। इस सम्बन्ध में डा. मनमोहन सहगल लिखते है " हुक्म का ही एक तीसरा
रूप गुरु ग्रंथ में ' कुदरत ' के नाम से प्राप्त है। ' यहाँ ' कुदरत ' शब्द प्रकृति के लिए अरबी संज्ञा नहीं, प्रत्युत अकालपुरूष की इच्छा का ही अन्य
नाम है ग्रंथ में ऐसे पर्याप्त संख्या में उपलब्ध है जिनमें '
कुदरत ' को सृष्टि की माना गया है। " यथा :
" कुदरति पाताली आकासी कुदरति सरब आकारू।
कुदरति वेद पुराण कतेबा कुदरति सरब वीचारू ॥ "
म. 1, आसा को वार पृ. 464
"
सम तेरी कुदरति तूं कादिरू करता पाकी नाई पाकु।
नानक हुकमै अंदरि वेखं वरतै ताको ताकु। " 11
(2) म. 1, आसा को वार पृ. 464
गुरु नानक हउमै (अहंकार) को अन्तर एवं ब्राह्म सृष्टि रचना
क्रम में प्रमुख स्थान देते। 'सिंध गोसटि' में वे स्पष्ट कहते है कि 'हउमैं' अर्थात् अहंकार से सृष्टि की उत्पति होती है और नाम विस्मरण
से नाना भांति की दुख प्राप्ति होती है। वेदान्त, सांख्य तथा गीता में अहंकार की उत्पत्ति प्रकृति द्वारा मानी
गई है पर सिक्खगुरुओ ने 'हवमै' द्वारा प्रकृति की उत्पत्ति मानी है और यह उनकी मौलिक
उद्भावना है।12दार्शनिक स्तर पर गुरु नानक साहिब ने 'शून्य' से भी सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई है। शून्य से अभिप्राय उस
स्थिति से है जब संसार की उत्पत्ति के पूर्व सारी शक्तियाँ एक मात्र परमात्मा में
केन्द्रीभूत थी। गुरु ग्रन्थ में सृष्टि के प्रारम्भ के मूल तत्व को 'ओंकार' संज्ञा से भी अभिहित किया गया है। 'ओंकार' से सारी सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई है। दिन और रात का इसी
से निर्माण हुआ। वन तृण त्रिभुवन जल सारे लोकों की उत्पत्ति इसी 'ओंकार' से हुई-
" ओंकार कोआ उत्पत, ओंकार जिन चित,
ओंकार सैल जुग भए, ओंकार बेद निरम
ओनम अखर सुणहु बीचार, ओनम अखर त्रिभुवन सार।
इस प्रकार सिक्ख दर्शन में सृष्टि की एक अनारम्भ अवस्था थी
और 'ओकार' पूर्व अवस्थित था तथा इसी से सारा रचना क्रम आगे बढ़ा।
" ओकार सम सूमटि उपाई।
सभु खेल तमासा तेरी वडिआई ॥ "13
बौद्धिक स्तर पर भी गुरु नानक ने सृष्टि की उत्पत्ति के
सम्बन्ध मे अपने विचार प्रस्तुत किए है- "सत्य स्वरूप परमात्मा से, गुरु नानक मानते है, पहले
पवन की उत्पत्ति हुई जिसे आज की वैज्ञानिक भाषा में विभिन्न गैसों के संमिश्रण का
नाम दिया जा सकता है। गुरु ग्रन्थ साहिब में गुरु नानक स्पष्ट कहते हैं कि इसी पवन
अर्थात् गैसों से जल को (हाइड्रोजन गैस • आक्सीजन = HO
= पानी) उत्पत्ति हुई। इसी जल
से (अमीबा आदि) सारी सृष्टि की रचना हुई -
" साचे ते पवना भइआ पवन ते जल होई।
जलते त्रिभवणु साजिआ घटि - घटि जोति समोई। "
यह ब्रह्माण्ड कभी गैसों से भरा हुआ था और इन्हीं से आगे
दृश्यमान विश्व की रचना हुई। इस वैज्ञानिक सत्य को गुरु ग्रन्थ साहिब में एक अन्य
स्थल पर धार्मिक शब्दावली में कहते हुए गुरु नानक कहते हैं कि पवन मूल स्रोत है, पानी इस सृष्टि को पैदा करने वाला पिता है
तथा धरती माता है। दिन और रात धाय है और दिन और रात को गति वाले झूले में सारा जगत्
खेल रहा है।
" पवणु गुरु पाणी पिता माता धरतु महत्।
दिवसु राति हुई दाई दाइआ खेले सगल जगतु ॥ "
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ब्रह्म के द्वारा ही
सृष्टि को रचना हुई है। यह सृष्टि कब अस्तित्व में आई इसके बारे में निश्चयात्मक
रूप में कुछ नहीं कहा। यह सृष्टि परमात्मा के हुक्म से निर्मित होती है। गुरु नानक
के अनुसार यह सृष्टि कम अनादि काल से चला आ रहा है। कई बार सृष्टि रचना हुई और कई
बार यह सृष्टि पुनः उस ओंकार में समाहित हुई है
" कई बार पसरिओं पासार। सदा सदा इकु एकंकार ॥ "
जीव की अवधारणा :‘जीव’शब्द आत्मा, सांत
सत्ता या सांत मूर्त के लिए प्रयुक्त किया गया है। ब्रह्म अनन्त है, जीव सांत है। प्रकृति के सन्दर्भ में ब्रह्म और जीव दोनो ही पुरूष है,
परन्तु जहाँ ब्रह्म या परम पुरूष प्रकृति का कर्ता है और इसके
प्रभाव में नहीं आता। जीव या पुरुष कर्म - क्षेत्र में या प्रकृति में उतरता है और
बार - बार जन्म और मृत्यु का शिकार होता है। जीव, ब्रह्म के
समान अमर है मरणहारू बहु जीरा नाही (गऊडी म. 5)
सृष्टि के पूर्व, यह ब्रह्म में विद्यमान रहता है और सृष्टि के समय, यह संसार मे आता और ब्रह्म की इच्छानुरूप शरीरी रूप धारण करता है। पचंभूतशरीर
नष्ट हो जाता है, परन्तु जीव या पुरूष नित्य रहता है। आदि
गुरु ग्रन्थ में जीव के स्वरूप के विषय में बहुत सुन्दर विचार मिलते है। आत्मा
परमात्मा के समान ही किसी बाह्य शक्ति से अप्रभावित रहती है। इसे शरीर का कोई
विशेष रूप प्रिय नहीं। शरीर का महत्त्व मात्र इस '
वैरागी ' की उपस्थिति में है। यथा :
" उनके संगि तेरी सम विधि थाटी। ओस बिना तूं होई है
माटो।
ओह बैरागी मरे न जाए। हुकमे बाधा कर कमाए।
जोडि बिछोडे नानक थापि। अपनी कुदरति जाणे आप। '14
आसा महला -1
जीव अपने पुण्यों -पापों के आधार पर एक शरीर से दूसरे को
धारण करता है। वह अपने कार्यों के फल से नहीं बच सकता है। स्वयं में, यह अजात और अनंत है परन्तु ज्ञानेन्द्रियों
और मन से सम्बद्ध होने पर, यह जन्म और मरण के चक्र में पड़
जाता है। जीव के निकल जाने से पचंभूत शरीर निर्जीव हो जाता और जीव का सम्बन्ध नीचे
लिखे श्लोक में चित्रित किया गया है। यथा "
‘कंचन काइआ जोति अनूप, त्रिभवण
देवा सगल सरूप।
ऊतम संगति ऊतमु होवै, बिनु गुर सेवे सहजु न होवे।
निरंकार महि आकारू समावै, अकल कला सचु साचि टिकावै।
दखि अचरजु रहे बिसमादि, घरि - घटि सुर नर सहज समाधि।’15
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि जीव ब्रह्म के समान अमर
है। वह परमात्मा के हुकमानुसार ही शरीर धारण करता है। मनुष्य के शरीर का कोई महत्त्व
नहीं है।
माया की अवधारणा :गुरु - वाणी में
माया के दो पक्ष माने जा सकते हैं। ब्रह्म के विषय में इसका एक पक्ष है। यहां माया
ब्रह्म की शक्ति है। माया का संसार तीन गुणों का संसार है। यह तीन गुण अहंकार के
परिणाम हैं। इन तीन गुणों का नाम - तमस्, रजम् और सत्य लय। तमस् बाधा है, रजस,
गति और सत्य लय है। जब ये गुण सन्तुलित रहते है तो निष्क्रियता रहती
है, परमात्मा की माया सुप्त रहती है, परन्तु
जब परमात्मा को इच्छा होती है तब गुणों में असन्तुलन की अवस्था शुरू होती है।
परमात्मा की संगिनी जागृत रहती है। परमात्मा की तीन शक्तियाँ अर्थात् रचना
(ब्रह्मा), सरंक्षण (विष्णु) और हरण (शिव) प्रकट होती है। गुरु
नानक का कथन है कि परमात्मा की शक्ति माया से ही त्रिदेव उत्पन्न हुए और वे इसी
माया के अधीन है। यथा
" एका माई जुगति विआई तिनि चेले परवाणु ॥
इकु संसारी इकु भंडारी इकु लाए दीवाणु ॥
जिव तिसु भाव तिवै चलावै जिव होवै फुरमाणु ॥
ओहु वेखं आना नदरि न आवै बहुता एहु विडाणु ॥
आदेस तिसे आदेसु ॥ "
जपुजी, पउड़ी, 30।
माया का दूसरा पक्ष जीव के सम्बन्ध में है। माया अनेक रूपों
द्वारा संसार के जीवों को प्रभावित करती है। माया घर, स्त्री, धन, यौवन आदि के रूपों को धारण कर संसार के जीवों को ठगती रहती है। गुरु नानक
ने माया को सपिणी भी कहा है। माया - रूपी सर्पिनी के विष के वशीभूत जगत् के समस्त
जीव रहते हैं। वह एक ऐसी सास है जो जीव रूपी वधू को परमात्मा रूपी प्रियतम से
मिलने नहीं देती है
" सासु बुरी घरि वासु न देवे।
पिर सिउ मिलन न देई बुरी। "16
निष्कर्षतः गुरु नानक ने माया से बचने के उपाय भी बतलाए है। वस्तुत : माया क्षणिक है, नश्वर है। मन को जीतने और अहंकार को छोड़ने
से माया का प्रभाव नहीं पड़ता है। सच्चे गुरु के द्वारा साधक माया के प्रभाव से
मुक्त हो सकता है और उसका मिलन ब्रह्म से हो सकता है।
हुकम : गुरु नानक ने
जपुजी में 'हुकम'
की अवधारणा प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि 'हुकम' से ही जीव पैदा होता है, उसे प्रशंसा प्राप्त होती है, वह उत्तम
बनता है, नीच बनता है तथा दुख और सुख प्राप्त करता है। यहाँ
ऐसे लगता है कि जीव के कुछ भी नही है अर्थात् वह 'हुकम्' के अन्तर्गत ही बुरा बनता है और 'हुकम' के अंतर्गत ही अच्छा बनता है। परमात्मा के 'हुकम' के अधीन अच्छा बुरा होना कुछ इस प्रकार का आभास देता है कि
जीव का अपना दोष कुछ नहीं है, अच्छाई और बुराई 'हुकमु' के अन्तर्गत है अर्थात् पूर्व निर्धारित है। जीव को आत्म
स्वातन्त्रय का कोई अधिकार नहीं है। गुरु नानक ने गुरु ग्रन्थ साहब में एक स्थान
पर इस ओर संकेत भी किया है-
" हुकमी सभे उपजहि हुकमी कार कमाहि।
हुकमी काले वसि है हुकमी साचि समाहि।
नानक जो तिस भावै सो थीऔ इना जतां वसि किछु नाहि ॥ " 17
गुरु कवि ने जपुजी के दूसरे पद में विशद् रूप से '
हुकम ' के प्रभाव का वर्णन किया है
“ हुकमी होवनि आकार हुकमु न कहिआ जाई।
हुकमी होवनि जीअ हुकमि मिलै वडिआई।
हुकमी उतमु नीचे हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि।
इकना हुकमी बखसीस इकि हुकमी सदा भवाइअहि।
हुकमै अंदर सभु को बाहरि हुकम न कोई।
नानक हुकमै जो बुझे त हउमै कह न कोई ॥ "
अर्थात् 'हुकम' के अन्तर्गत ही सभी प्रकार के क्रिया कलाप हो रहे हैं और इस
'हुकम' से बाहर कुछ भी नहीं है। गुरु नानक, यहाँ पर दृष्टव्य है कि 'हुकम' को विशदता को वर्णित कर सकने के बारे में स्पष्ट कहते हैं कि
इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जिस 'हुकम' के अंतर्गत ही दशावतार हुए, देव दानवों को अगणित सृष्टियां हुई। उस 'हुकम' का वर्णन वास्तव में असंभव कार्य ही माना जा सकता है।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि गुरु नानक की
वाणी में परमात्मा की इच्छा हो हुकम है। परमात्मा का 'हुकम' एक नियमबद्ध
विधान है। कभी - कभी कुछ घटनाएँ अचानक घटित हो जाती है। उसे परमात्मा का भाणा कहा
जाता है। गुरु कवि हुकम के अन्तर्गत ही 'कुदरत' को मानते है और वह कुदरत ही सृष्टि का निर्माण भी करती है।
अहंकार : डा. जयराम
मिश्र ने गुरु नानक वाणी में अंहकार का विषद् अध्ययन विश्लेषण किया है। उनके
मतानुसार गुरु नानक ने अहंकार के बारे में कहा है कि अहंकार से हो सृष्टि की
उत्पत्ति होती है और नाम - विस्मरण से नाना भांति के दुख प्राप्ति होती है यथा-
“हअमै विधि जगु उपजै पुरखा नामि विसरिऐ दुख पाई।”18
जिस प्रकार मनुष्य की वासनाएँ अनन्त हैं, उसी प्रकार ' हउमै '
के भेद भी अनन्त हो सकते हैं। फिर भी स्थूल दृष्टि से गुरु नानक की
वाणी में 'हउमै' के जो प्रमुख भेद हो
सकते है। वे इस प्रकार है- (1) धार्मिक
अथवा आध्यात्मिक अहंकार, (2) विद्यागत अहंकार, (3) कर्मकाण्ड और वेश सम्बन्धी अहंकार, (4) जाति सम्बन्धी
अहंकार, (5) धन सम्पत्ति सम्बन्धी अहंकार, (6) परिवार सम्बन्धी अहंकार और (7) रूप - यौवन सम्बन्धी
अहंकार। अहंकार के कारण अनेक दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। सच्चा गुरु ही अहंकार के
बन्धनों को तोड़ सकता है। 'अहंकार बन्धन सतिगुरि तोडे, चितु चंचल चलणि न दीना है।1
मन : गुरु नानक ने मन
के बारे में कहा है कि यह मन इतना शक्तिशाली है कि इस पर विजय प्राप्त करना जगत्
को जीतने के समान है। उनका यह भी कथन है कि सांसारिक बन्धनों में बंधा हुआ मन गुरु
शब्द के द्वारा परमात्मा की सेवा और उपासना करने से मुक्त हो सकता है।
" बंधनि बाधिया इन विधि छूटे, गुरमुखि सबै नरहरै ॥
" गुरु ग्रंथ साहिब, रागु तुखारी - छत।
संक्षेप में, गुरु नानक के दार्शनिक विचारों की विशेषता यह है कि वे किसी
एक जाति, धर्म या वर्ग के लिए न होकर समस्त मानवता का उद्धार
करने वाले हैं। इस प्रकार गुरु कवि को चिन्तन का मुख्य वैशिष्ट्य यही है कि वह
अखिल विश्व के लोगों को समानता, भ्रातृभाव और परस्पर प्रेम
की भावना सृष्टि करने वाला है।
सन्दर्भ :
1
डा. पदम गुरचरन सिंहः युग - प्रवर्तक गुरु नानक और उनकी वाणी (1990)
से उदघृत, पृष्ठ -11
2
गुरु ग्रंथ साहिब, भ. 1. रागु तिलंग, पृष्ठ -712
3
डा. त्रिभुवन राय : गुरु नानका विचार और दर्शन, सन्त परम्परा और गुरु नानक (सं. डा. श्रीधर मित्र),1992, पृष्ठ -120
4
वजीर सिंह : गुरु नानक वाणी में दार्शनिक तत्व', गुरु परमेसर नानक (सम्पादक द्वय- डा. धर्मपाल सिंहल और डा. रोशन लाल अहूजा),1909, पृष्ठ -114
5
डा. रत्न सिंह जग्गी: गुरु नानक - व्यक्तित्व,
कृतित्व व चिंतन (1975), पृष्ठ-268
6
डा. जय राम मिश्र : श्री गुरु ग्रन्थ दर्शन (1960),
पृष्ठ-60
7
डा. पदम गुरचरन सिंहः युग प्रवर्तक गुरु नानक और उनकी वाणी (1990),
पृष्ठ-66-67
8
वही, पृष्ठ-72
9
डा. रत्न सिंह जग्गी: गुरु नानक - व्यक्तित्व,
कृतित्व व चिंतन (1975), पृष्ठ-297
10
डा. पदम गुरचरन सिंहः युग प्रवर्तक गुरु नानक और उसकी वाणी (1990),
पृष्ठ-77
11
डा. मनमोहन सहगल : गुरु ग्रन्थ साहिब एक सांस्कृतिक सर्वेक्षण (1971),
पृष्ठ -330
12
डा. जोध सिंहः सिक्ख धर्म - दर्शन की रूपरेखा (1981),
पृष्ठ -74
13
वही,
पृष्ठ -78
14
डा. सुरेन्द्र सिंह कोहली : गुरु नानक का जोब और माया का अनुबोध, गुर परमेसर नानक, डा. धर्मपाल सिगल
और डा. रोशन लाल आहूजा (सं.),1969, पृष्ठ -38
15
डा. धर्मपाल सिगल और डा. रोशन लाल आहूजा (सं.): गुरु परमेसर नानक,1969,
पृष्ठ -40
16
डा. पदम गुरचरन सिंहः युग : प्रवर्तक गुरु नानक और उनकी वाणी (1990),
पृष्ठ -85
17
डा. जोध सिंह : सिक्ख धर्म - दर्शन की रूपरेखा (1981),
पृष्ठ -91
18
डा. जयराम मिश्रः श्री गुरु ग्रन्थ दर्शन (1960), पृष्ठ -120
सहायक प्रोफेसर, खालसा कॉलेज ऑफ एजुकेशन रंजीत एवेन्यू, अमृतसर (पंजाब)
harjindersoni19@gmai।.com, 7986204871
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................
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