शोध आलेख : ध्रुवस्वामिनी : स्त्री अस्मिता का प्रश्न / डॉ. कुलवंत सिंह

ध्रुवस्वामिनी : स्त्री अस्मिता का प्रश्न
- डॉ. कुलवंत सिंह 

 

शोध सार:भारत के स्वर्णिम अतीत को पुनःसृजन करने वाले साहित्यकारों में जयशंकर प्रसाद जैसी दिगन्त व्यापिनी प्रतिभा से युक्त, गम्भीर जीवन-दर्शन एवं भारतीय गरिमा का चित्रण करने वाला अन्य साहित्यकार नहीं हुआ। वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का आधार लेकर कल्पना और भावुकता से मंडित आदर्शवाद अर्थात् अतीत की पृष्ठभूमि में वर्तमान के लिए स्वर्णिम सन्देश लेकर उपस्थित हुए हैं। ध्रुवस्वामिनी नाटक में नारी, पुरुष से निरादूत अपमानित, पद दलित और दयनीय जीवन लेकर उपस्थित होती है। वह अपनी रक्षा और अधिकारों के लिए विद्रोह कर उठती है। प्रसाद की नारी निरादूत और अपमानित होकर भी पुरुष के चरणों से लिपटी रहना नहीं चाहती, वह चाहती है अपना गौरव पूर्ण समानता का अधिकार। उसमें शाश्वत नारी की तरह केवल क्षमता, कोमलता और भावुकता ही नहीं है, उसमें बुद्धि भी है। उसमें अत्याचारों का विरोध करने की शक्ति आ गई है। वह कोमल और सुकुमार होती हुई भी अपनी रक्षा के लिए झंझावात बन जाती है। प्रसाद जहाँ नारी को अधिकार देने के पक्ष में हैं, वहाँ वे नारी में विश्व कल्याण के लिए त्याग, सेवा, प्रेम और करुणा की प्रतिष्ठा चाहते हैं। भारत की शाश्वत नारी अपना त्याग और बलिदान का आदर्श लेकर उपस्थित होती है।


बीज शब्द : जयशंकर प्रसाद, ऐतिहासिक, ध्रुवस्वामिनी, नारी, पुरुष, नाटक


मूल आलेख : साहित्यकार अपने युग के प्रभाव से पृथक नहीं रह सकता। वह समाज में रहते हुए ही साहित्य की सृजना करता है। उसकी कृति अपनी युग भावनाओं और विचारधाराओं से प्रतिबिम्बित होती है। किसी समय का साहित्य अपने युग का दर्पण होता है। ऐतिहासिक विषयों को आधार बना साहित्य लिखने वाले साहित्यकारो के लिए यह और भी अधिक महत्त्व रखता है। जयशंकर प्रसाद जैसे ऐतिहासिक नाटककार के लिए नाटक की कथावस्तु से सम्बन्धित युग का पूर्ण चित्रण करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। अन्यथा देश-काल योजना के अभाव में नाटक अपना इतिहास खो देता है। भारत के स्वर्णिम अतीत को पुनःसृजन करने वाले साहित्यकारों में जयशंकर प्रसाद जैसी दिगन्त व्यापिनी प्रतिभा से युक्त, गम्भीर जीवन-दर्शन एवं भारतीय गरिमा का चित्रण करने वाला अन्य साहित्यकार नहीं हुआ, क्योंकि उन्होंने काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी और निबन्ध आदि साहित्यिक विधाओं में अपनी बहुमुखी उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचय दिया। प्रसाद के नाटक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का आधार लेकर कल्पना और भावुकता से मंडित आदर्शवाद अर्थात् अतीत की पृष्ठभूमि में वर्तमान के लिए स्वर्णिम सन्देश लेकर उपस्थित हुए हैं। प्रसाद के ऐतिहासिक नाटक चन्द्रगुप्तमें प्रान्तीयता का विरोध करके एकछत्र साम्राज्य स्थापना का स्वप्न है और स्कन्दगुप्तमें सम्प्रदायिकता को ललकारा गया है। अज्ञातशत्रु में जहां पारिवारिक कलह को शान्त करना प्रसाद का उद्देश्य है वहीं अपनी इसी परम्परा को अग्रसर करते हुए प्रसाद अपने अंतिम ऐतिहासिक नाटक ध्रुवस्वामिनीमें राजनीतिक प्रपंच और स्त्री अस्मिता और अस्तित्व के लिए नारी अधिकारों की औचित्यपूर्ण माँग करते हैं।


ध्रुवस्वामिनी नाटक भारतीय इतिहास के ʼस्वर्णयुग` अर्थात् गुप्त युग से सम्बन्धित है। ध्रुवस्वामिनी नाटक में नारी, पुरुष से निरादूत अपमानित, पद दलित और दयनीय जीवन लेकर उपस्थित होती है। वह अपनी रक्षा और अधिकारों के लिए विद्रोह कर उठती है। प्रसाद की नारी निरादूत और अपमानित होकर भी पुरुष के चरणों से लिपटी रहना नहीं चाहती, वह चाहती है अपना गौरव पूर्ण समानता का अधिकार। ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त से निरादृत और अपमानित है। रामगुप्त उसे शकराज की अंक शायिनी बनाने का निश्चय कर चुका है। वह इसे चुपचाप सहन नहीं कर सकती। नाटक की मुख्य समस्या नारी अधिकार की है। इस लिए प्रसाद को इसमें अपनी नारी भावना को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त अवसर मिल गया। नारी कल्याण के लिए ही प्रसाद ने धर्मशास्त्र की पृष्ठभूमि में तलाक और पुनर्विवाह का समर्थन किया है। "प्रसादजी के ऐतिहासिक नाटकों का मुख्य दार्शनिक प्रयोजन यह है कि हमारी संकुचित चेतना का विस्तार हो और हम रूढ़िबद्ध विचार-श्रृंखला को छोड़कर व्यापक मानवीय स्वरूपों को देखें और इतिहास के प्रकाश में मनुष्यों के उठने-गिरने के हेतुओं को समझकर किसी व्यक्ति में यों ही उच्चता और नीचता का आरोप न कर लें। किसी की परिस्थितियों को समझना ही मुख्य प्रयोजनीय वस्तु है, उसके प्रति ईर्ष्या-द्वेष कोई वस्तु नहीं।"1


ऐतिहासिक पात्र ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से नाटककार ने यह स्पष्ट करना चाहा है कि युगों से नारी पुरुषों के शोषण का शिकार रही है और वासना का खिलौना समझी गई है तथा पुरुष उसे पालित पशुओं की भांति, अपनी उचित अनुचित सेवा के लिए दासी मात्र समझता है। ध्रुवस्वामिनी इन सब पुरातन आदर्शों से संघर्ष कर अपने को पुरुष जाति द्वारा किए जाने वाले शोषण से मुक्त कराने में सफल हो जाती है, अतः ऐतिहासिक पात्र होते हुए भी उसका चरित्र आधुनिकता से पूर्ण प्रतीत होता है। "इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यन्त लाभदायक होता है, क्योंकि हमारी गिरी दशा उठाने के लिए हमारे जलवायु के अनुकूल जो हमारी अतीत की सम्पदा है, उससे बढ़कर उपयुक्त और कोई भी आदर्श अनुकूल होगा कि नहीं इसमें हमें पूर्ण सन्देह है। ----- मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंग में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने कि हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया है।"2 प्रसाद ने आत्मगौरव की भावना से प्रदीप्त ध्रवस्वामिनी के व्यक्तित्व का जो भव्य स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह समस्त नारी जाति के लिए गर्व की वस्तु है।


परिस्थितियों से आक्रांत नारी स्वाभाविक ही कोमल व सहिष्ण होती है और उस विवश अबला के लिए मात्र अवलम्ब आंसू ही प्रतीत होते है। नाटक के प्रारम्भ में ही ध्रुवस्वामिनी की नितान्त संकटापत्र अवस्था का चित्रण करते हुए उसकी पहली स्वागतोक्ति में ही उसकी विषादपूर्ण बाह्य व आभ्यांतर परिस्थितियों तथा तज्जन्य चिन्तनाओं का प्रत्यक्षीकरण है और नारी की पुरुष से पद दलित, निरादृत और अपमानित दशा की ओर संकेत है। ध्रुवस्वामिनी कहती है -"सीधा तना हुआ, अपने प्रभुत्व की साकार कठोरता, अभ्रभेदी-उन्मुक्त शिखर और, इन क्षुद्र कोमल निरीह लताओं और पौधों को इसके चरण में लोटना ही चाहिए न! ¨ ¨ ¨ यह तो मैं जानती हूँ कि इस राजकुल के अन्त:पुर में मेरे लिए न जाने कब से नीरव अपमान संचित रहा – जो मुझे आते ही मिला – किन्तु क्या तुम-जैसी दासियों से भी-वही मिलेगा? ¨ ¨ ¨ उस दिन राजमहापुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था, क्या वह अभिशाप था?"3 वर और कन्या की प्रवृत्ति, योग्यता और रुचि का विचार न करके विवाह के माध्यम से उसकी मनोभावनाओं को ठेस पहुँचाई गई है।


रामगुप्त ने ध्रुस्वामिनी के साथ उसकी इच्छा-अनिच्छा की परवाह न करते हुए, उसके साथ बलात् विवाह कर लिया। रामगुप्त ने ध्रुवस्वामिनी को अपनी वैधानिक पत्नी तो बना लिया था, परन्तु उसके अपेक्षा भाव को देखकर स्वयं उसकी उपेक्षा और अनादर करने लगा था। उसे यह सन्देह था कि वह अब भी चन्द्रगुप्त से प्रेम करती है। इस सन्देह के कारण उसने ध्रुवस्वामिनी की स्वतन्त्रता पर बन्धन लगा उसे बन्दिनी सा बना लिया था। वह नाममात्र की महादेवीबनकर रह गई थी। अमात्य की पूर्व आज्ञा प्राप्त किए बिना वह किसी से भी मिल-जुल नहीं सकती थी। रामगुप्त के इस उपेक्षा भाव का एक कारण और भी था। ध्रुवस्वामिनी उपहार स्वरूप गुप्त कुल में आई थी, इसलिए रामगुप्त उसे एक पशु, दासी या खरीदी हुई वस्तु से अधिक महत्त्व नहीं देता था। सदा उसका अपमान और अवहेलना करता रहता था। रामगुप्त ने उसे शकराज को सौंप देने में तनिक भी संकोच नहीं किया था। ध्रुवस्वामिनी द्वारा विरोध किए जाने पर उसने स्पष्ट कहता है - तुम उपहार की वस्तु हो। आज मैं किसी दूसरे को देना चाहता हूँ। इसमें तुम्हें क्यों आपत्ति?”4


भारतीय समाज में नारी को चाहे जैसा पति प्राप्त हो जाय, वह कभी उसे छोड़ नहीं सकती थी।  समाज के दुष्ट, पतित एवं नीच मनोवृत्ति वाले व्यक्ति भारतीय नारी के साथ मनमाना अत्याचार एवं अनाचार करते थे। प्रसाद ने भी नारी की इस दुर्दशा का अनुभव किया था। प्रसाद जानते थे कि कितने ही दुष्ट पति अपनी पत्नियों के साथ मनमाना अत्याचार करते हैं। कितने ही नीच पति लोभ में आकर अपनी पत्नियों को परपुरुष के साथ सहवास करने के लिए उद्यत करते हैं किन्तु भारतीय नारी न तो अपने पति के विरुद्ध आवाज उठा सकती थी और न उसका परित्याग ही किसी अवस्था में कर सकती। ध्रुवस्वामिनी के रूप में नारी पुरुष के अत्याचारों और शोषण का शिकार बनी हुई सामने आती है। रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी को विविध यातनाओं के बन्धन में फंसाकर, उसके बहुमूल्य जीवन की कदर्थना भी करता है। वह बेचारी अपनी अपूर्व सहिष्णुता से जीवन की इन विषमताओं का धीरतापूर्वक सामना करती है। वह अपनी सुरक्षा की रामगुप्त से भीख मांगती है - मेरा स्त्रीत्व क्या इतने का भी अधिकारी नहीं कि अपने को स्वामी समझनेवाला पुरुष उसके लिए प्राणों का पण लगा सके? ······· मेरी रक्षा करो। मेरे और अपने गौरव की रक्षा करो। राजा, आज मैं शरण की प्रार्थिनी हूँ।5 पहले वह अपने पति कहलाने वाले पुरुष से रक्षा पाने का अनुनय करती है किन्तु असफल होकर आधुनिक नारी की तरह स्वयं अपनी रक्षा के लिए कृत-संकल्प करती है।


ध्रुवस्वामिनी आधुनिक नारी का वह रूप है, जो उस समाज की रूढ़ियों को तोड़ने के लिए कटिबद्ध है, जिनके कारण आज नारी जीवन अत्याचारों के कारागृह में बन्दी है। ध्रुवस्वामिनी का दाम्पत्य जीवन पति की क्लीवता और विलासिता से उसका दम घोंट रहा है। "युग के साथ नारी ने कुछ चेतना पायी है और अब वह पुरुष की शिकार बनी नहीं रहना चाहती। साथ ही वह इस बात की भी इच्छुक नहीं है कि वह पुरुष की शिकारी हो जाय। वह तो केवल पुरुष के समान अपने जीने का अधिकार चाहती है। प्रसाद ने आज के युग की नारी की इस भावना को अपने इस नाटक के सहारे अंकित किया है। इस भावना को अंकित करने के लिए उन्होंने इतिहास से एक नारी चरित्र को ध्रुवस्वामिनी के रूप में खोज निकाला है।"6 उसकी ललकार में आधुनिक नारी का स्वर गूँज उठता है, जो पुरुष के अत्याचार के खिलाफ अपना सिर उठाने का प्रयास कर रही है। अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए वह रामगुप्त से प्रार्थना करती है, पर जब निष्ठर रामगुप्त पर उसकी इस आर्तवाणी का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता तथा वह उसे शकराज के पास भेज देने का अपना निश्चय दृढ़तापूर्वक दुहराता है, तब आत्मसम्मान का ज्वंलत प्रतीक बनकर वह अधिकारों के लिए जागरूक होकर ललकार उठती है। पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु-सम्पति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है, वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते, तो मुझे बेच भी नहीं सकते।7 उसमें शाश्वत नारी की तरह केवल क्षमता,कोमलता और भावुकता ही नहीं है, उसमें बुद्धि भी है। उसमें अत्याचारों का विरोध करने की शक्ति आ गई है। वह कोमल और सुकुमार होती हुई भी अपनी रक्षा के लिए झंझावात बन जाती है।


प्रसाद ने ʼध्रुवस्वामिनी` नाटक में स्त्री अस्मिता और अस्तित्व के लिए नारी की अधिकारों के प्रति जागरूकता का वर्णन किया है। यदि पुरुष नारी की रक्षा करने में असमर्थ हो तो आज वह स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ है। वह ध्रुवस्वामिनी की तरह क्लीव गौरव से नष्ट और आचरण से भी पतित, पति के चरणों में लिपटी रहना नहीं चाहती। वह उससे मोक्ष पाकर पुनर्लग्न की बात सोचती है। ध्रुवस्वामिनी की इसी व्यथा को देख मंदाकिनी पुरोहित से कह उठती है - आप धर्म के नियामक हैं। जिन स्त्रियों को धर्म-बन्धन में बाँधकर, उनकी सम्मति के बिना आप उनका सब अधिकार छीन लेते हैं तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार-कोई संरक्षण नहीं रख छोड़ते, जिससे वे स्त्रियाँ अपनी आपत्ति में अवलम्ब माँग सकें। क्या भविष्य के सहयोग की कोरी कल्पना से उन्हें आप संतुष्ट रहने की आज्ञा देकर विश्राम ले लेते हैं।8 वर्तमान नारी अपने अधिकारों के लिए इतनी अधिक जागरूक हो गई है कि वह अयोग्य और अविकारी पुरुष के साथ जीवन व्यतीत करके अपनी अभिलाषाओं का गला घोंटना नहीं चाहती है। वह उससे सम्बन्ध विच्छेद करने की स्थिति पर पहुँच गई है। ध्रुवस्वामिनीनाटक में प्रसाद ने धर्मशास्त्र की पृष्ठभूमि में कुछ परिस्थितियों के बीच में नारी मोक्ष और उसके पुनर्लग्न को उचित ठहराया है।


 प्रसाद जहाँ ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से बन्धनों में जकड़ी नारी में चेतना के विकास का वर्णन करते हैं वहीं मंदाकिनी अपनी न्याय-बुद्धि, निर्भीकता व कार्यकुशलता से ध्रुवस्वामिनी नाटक में महत्त्वपूर्ण स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्राप्त करती है। वह न्याय का दुर्बल पक्ष ग्रहण कर उसे सबल बनाने के लिए सतत् प्रयत्नशील जान पड़ती है। उसका यह स्वरूप पहली बार उस समय स्पष्ट होता है जब सम्राट रामगुप्त शकराज के संधि प्रस्ताव को स्वीकार कर ध्रुवस्वामिनी को शकराज के पास भेजने का निश्चय करता है। यह रामगुप्त और उसके अमात्य शिखरस्वामी की मधुर व चटीली चुटीकी-सी लेते हुए कहती है - राजा अपने राष्ट्र की रक्षा करने में असमर्थ है, तब भी राजा की रक्षा होनी ही चाहिए! ······· एक बार अंतिम बल से परीक्षा कर देखो। बचोगे तो राष्ट्र और सम्मान भी बचेगा नहीं तो सर्वनाश!9


मंदाकिनी ने अपने उद्गारों से समस्त मानव जाति द्वारा प्रताड़ित नारी का चीत्कार करुण क्रन्दन व्यक्त किया है। समष्टि रूप से नारी का मूक हृदय सस्वर होकर उसके व्यक्तित्व में मुखरित हो उठा है। नाटक में यत्र-तत्र पुरुष को उसके नग्न रूप में रखने की और नारी जाति की वकालत करने में ही उसका व्यक्तित्व निहित है। नारी होने के नाते उसके पास नारी हृदय है, अतः वह दूसरी नारी के हृदय को टटोल सकती है। उसके हृदय की तड़पन का अनुभव कर सकती है और उस तड़पन को लेकर वह नारी स्वातंत्र्य की दूतिका होकर हमारे सामने आती है। मैं तुम लोगों को नीचता की गाथा सुना रही हूँ।······ तुम्हारी प्रवंचनाओं ने जिस नरक की सृष्टि की है उसका अंत समीप है। ······ जिसने (रामगुप्त ने) छल और बल से विवाह करके भी इस नारी को अन्य पुरुष की अनुरागिनी बताकर दण्ड देने की आज्ञा दी है! वही रामगुप्त, जिसने कापुरुष की तरह इस स्त्री को शत्रु के दुर्ग में बिना विरोध किये भेज दिया था, तुम्हारे गुप्त-साम्राज्य का सम्राट् है। और यह ध्रुवस्वामिनी! जिसे कुछ दिनों तक तुम लोगों ने महादेवी कहकर सम्बोधित किया है, वह क्या है? कौन है? और उसका कैसा अस्तित्व है? कहीं धर्मशास्त्र हो तो उसका मुँह खुलना चाहिए।10 वह रामगुप्त के मिथ्या पुरुषार्थ का प्रहसन अर्थात् अबला ध्रुवस्वामिनी पर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए अत्याचार को देखकर चुप नहीं रहती बल्कि अपने मन की भावना राज्य परिषद् के सामने निर्भीकतापूर्वक प्रकट करती है - राज का भय, मन्दा का गला नहीं घोंट सकता। तुम लोगों में यदि कुछ भी बुद्धि होती, तो इस अपनी कुल-मर्यादा-नारी को, शत्रु के दुर्ग में यों न भेजते। भगवान ने स्त्रियों को उत्पन्न करते ही अधिकारों से वंचित नहीं किया। किन्तु तुम लोगों की दस्यु-वृत्ति ने उन्हें लूटा है।11 मन्दाकिनी के रूप में नारी निःस्पृह बलिदान और यौवन की तरुणता लेकर उपस्थित हुई है। उसमें दुःख सहन करने की शक्ति है तथा कष्ट निवारण करने की चेष्टा है।


प्रसाद जहाँ नारी को अधिकार  देने के पक्ष में हैं, वहां वे नारी में विश्व कल्याण के लिए त्याग, सेवा, प्रेम और करुणा की प्रतिष्ठा चाहते हैं। भारत की शाश्वत नारी अपना त्याग और बलिदान का आदर्श लेकर उपस्थित होती है। वह एक बार जिससे प्रेम कर बैठती है, उससे पृथक होने की कल्पना भी नहीं कर करती। पति चाहै, कैसा भी हो, उसके के लिए अपना बलिदान तक देना कर्तव्य समझती है। कोमा शकराज से भावनात्मक प्रेम करती है लेकिन कोमा को प्रेम के प्रतिदान में अपमान, निराशा और प्रताड़ना मिलती है। वह शकराज से कहती है - प्रेम का नाम न लो। वह एक पीड़ा थी जो छूट गयी। उसकी कसक भी धीरे-धीरे दूर हो जायेगी। राजा, मैं तुम्हें प्यार नहीं करती। मैं तो दर्प से दीप्त तुम्हारी महत्त्वमयी पुरुषमूर्ति की पुजारिन थी, जिससे पृथ्वी पर अपने पैरों से खड़े रहने की दृढ़ता थी।12 यदि एक ओर उसमें पुरुष जाति की स्वार्थ प्रेरित क्ररताओं व कठोरताओं के सहन करने की अपूर्व क्षमता है तो दूसरी ओर आत्म गौरव अक्षुण्ण रखने के लिए वह प्रखर बुद्धि-वैभव, निर्भीकता व साहस आदि गुणों से भी यथेष्ट मात्रा में पूर्ण है। जब कोमा को पता चलता है कि शकराज अपने गर्व की तृप्ति के लिए संधि के माध्यम से ध्रवस्वामिनी को उसके पति से अलग करना चाहता है तो वह कह उठती है - किन्तु राजनीति का प्रतिशोध क्या एक नारी को कुचले बिना नहीं हो सकता?13 संघर्षपूर्ण जीवन में अनवरत संलग्न के कारण उसके हृदय की ओजस्विनी व पुरुषार्थ प्रेरक प्रवृत्तियाँ ही विशेष रूप में झलक उठती है।


कोमा के इन उद्गारों में उसकी आदर्श प्रेम भावना ही अंकित हुई है। कोमा का सारा विवेक, सारी दार्शनिकता पराजित होती जान पड़ी है, केवल जिंदा रहता है नारी का यह रूप जिसे हिन्दू नारी न जाने कितनी शताब्दियों और सहत्राब्दियों से धारण किये चली आ रही है। इसी संदर्भ में मंदाकिनी कहती है – स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नहीं। कितनी असहाय दशा है। अपने निर्बल और अवलम्ब खोजनेवाले हाथों से ये पुरुष के चरणों को पकड़ती हैं और वे सदैव इनको तिरस्कार,घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करते हैं-तब भी ये बावली मानती हैं? 14 पुरुष द्वारा प्रताड़ित होते हुए भी नारी पुरुष के चरणों को पकड़े रहती हैं। यह आदर्श नारी शकराज का शव ले जाते समय रामगुप्त के सैनिकों द्वारा मौत के घाट उतार दी जाती है और इस प्रकार उसके जीवन का दुःखद अन्त हो जाता है। उसकी कोमलता, निरीहता, अनुभूतिमयता सामाजिकों को प्रभावित कर देती है।


ध्रुवस्वामिनी का चरित्र आदि से लेकर अन्त तक शोषित और पददलित नारी जीवन के विद्रोह, संघर्ष और मुक्ति का प्रतीक बनकर उपस्थित हुआ है। यदि किसी नारी को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी अयोग्य व्यक्ति के साथ विवाह-बंधन में बांध दिया जाता है, तो क्या उस नारी को अपने अनिच्छित पति से मोक्ष पाने का अधिकार है अथवा नहीं? इसी समस्या के समाधान के लिए  प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी नाटक के आरम्भ में भूमिका के रूप में लिखित सूचनाके अन्तर्गत दो बातों की ओर मुख्यता पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है। पहली बात तो यह है कि ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त के पुनर्लग्न की घटना ऐतिहासिक है। दूसरी बात तो यह है कि भारतीय स्मृति ग्रन्थों और कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर यह स्पष्ट है कि यदि कोई स्त्री आठ वर्ष तक बंध्या रहती है या दस वर्ष तक नश्यत्प्रसूति रहती है या बारह वर्ष तक कन्या प्रसविनी ही रहती है, तो पुत्रार्थी दूसरी स्त्री से विवाह कर सकता है। ऐसे ही स्त्रियों के लिए भी उस समय यह अधिकार था कि यदि उसका पति नीच आचरण करने वाला है, सदैव के लिए परदेश चला गया है, रामकिल्विषी है, प्राणाभिहन्ता है, पतित है या क्लीब है, तो स्त्री भी उसका परित्याग करके किसी अन्य पुरुष से विवाह कर सकती है।15 सिद्धान्त रूप में नारी को पुरुष के बराबर स्थान दिया गया है परन्तु सिद्धांत और व्यवहार में कहाँ और क्यों अन्तर आ जाता है और इस अन्तर के कारण समाज में अव्यवस्था उत्पन्न होकर लोक मंगल विधान में व्याघात क्यों पड़ता है? कारण है हमारी विवाह-पद्धति, पति-पत्नी सम्बन्ध, अधिकार और कर्त्तव्य तथा दोनों का व्यक्तिगत एवं पारस्परिक धर्म।


निष्कर्ष : अंत में कह सकते हैं कि आज से सोलह शताब्दी पूर्व ध्रुवस्वामिनी और मन्दाकिनी जैसी नारियों द्वारा उठाई गई ये समस्याएँ हमारे इस आधुनिक युग में भी अपने इसी भयंकर रूप में उपस्थित हैं। लेकिन समय-समय पर विचारकों और शासकों ने धर्म शास्त्र और अर्थनीति की प्राचीन रूढ़ परम्पराओं में सुधार कर नारियों को अनेक प्रकार की सुविधाएं प्रदान कर, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न किया है। आधुनिक समय में नारी को तलाक कानून द्वारा उन्हें अयोग्य, दुर्बल, अत्याचारी, नपुंसक पतियों से मुक्ति पाने का अधिकार दे दिया गया है। न्यायपालिका द्वारा पिता और पति की चल अचल सम्पति में उनका भी बराबर का भाग स्वीकार किया गया है। नारी की अनादि काल से चली आती हुई इस पराधीनता का मूल कारण यह रहा है कि नारी सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से सदैव पुरुष पर निर्भर रही है। आज की नारी सामाजिक परम्पराओं को तोड़ और आर्थिक दृष्टि से स्वतन्त्र होने का प्रयत्न कर इस पराधीनता के पाश को छिन्न-भिन्न कर थोड़ी बहुत स्वतन्त्रता की साँस ले रही है।


संदर्भ :
1.     नन्ददुलारे वाजपेयी : जयशंकर प्रसाद, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2013,पृ.- 27
2.     जयशंकर प्रसाद : विशाख, भूमिका, भारती भण्डार, इलाहाबाद 1921
3.     जयशंकर प्रसाद : ध्रुवस्वामिनी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2014, पृ. – 11,12
4.      वही – पृ. – 24
5.       वही - पृ. – 24
6.     परमेश्वरी लाल गुप्त : प्रसाद के नाटक, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, बम्बई, 1956, पृ.-138
7.     जयशंकर प्रसाद : ध्रुवस्वामिनी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पेपरबैक संस्करण-2014, पृ. – 23
8.      वही – पृ. – 46
9.      वही – पृ. – 9
10.   वही – पृ. – 54
11.   वही – पृ. – 54
12.   वही – पृ. – 40
13.  वही – पृ. – 37
14.   वही – पृ. – 47-48
15.  जयशंकर प्रसाद : धु्रवस्वामिनी- (सूचना), राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. नई दिल्ली, 2014, पृ. – 8

 

डॉ. कुलवंत सिंह
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गुरु नानक कॉलेज, बुढलाडा, मानसा, पंजाब
dr.kulwantsingh2428@gmail.com9815736540
 
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................

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