आशा बनाम निराशा
आशा और निराशा इसी दो विचार दृष्टि में दुनियां बटी हुई है। प्रत्येक समाज में इस दो विचार दृष्टि वाले लोग मिल जाएंगे। निराशावादी व्यक्ति हताश मन की उपज होता है। उसके मन के भीतर निराशा घर बनाकर कर बैठी हुई होती है। वह जीवन को लेकर बहुत नकारात्मक होता है हर वस्तु और समाज को नकारात्मक दृष्टिकोण से देखता है। उसकी दृष्टि में प्रत्येक भाव और विचार के लिए निराशावादी दृष्टि होती है। यदि कोई विद्यार्थी पढ़ रहा होता है तो निराशावादी व्यक्ति कहेगा पढ़ कर क्या होगा, नौकरी तो मिलनी नहीं है, क्यों समय बर्बाद कर रहे हो।
जीवन में संगत का बहुत असर पड़ता है। जिस तरह का संगत है विचार भी उसी तरह का बनता है। यदि आशावादी व्यक्ति का संगत है तो विचार सकारात्मक होंगे। जीवन में कुछ कर गुजरने का जुनून पैदा होगा। यदि निराशावादी व्यक्ति का संगत है तो विचार भी नकारात्मक होंगे। जीवन कुंठित होगा। उत्थान की ओर नहीं बल्कि पतन की ओर अग्रसर होंगे। इसलिए व्यक्ति को संगत बहुत सोच विचार कर करना चाहिए।
विद्यार्थी जीवन में व्यक्ति को खासतौर से इस पर ध्यान देना चाहिए। प्राय: हमने देखा है कि सामान्य स्तर का विद्यार्थी भी यदि उसकी संगत अच्छी है, सकारात्मक सोच वाले साथी है तो वह भी धीरे-धीरे सफलता हासिल कर लेता है। वही दूसरी तरफ तेज- तर्रार विद्यार्थी भी नकारात्मक संगत होने के कारण धीरे-धीरे मार्ग से विचलित हो जाता है। इसलिए जीवन में आशावादी व्यक्ति का साथ होना बहुत जरूरी है। अब्राहम लिंकन के बारे में कहा जाता है कि उसने अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के लिए बहुत बार प्रयास किया लेकिन असफल हो जा रहा था किंतु आशावादी होने के कारण ही एक दिन अमेरिका का राष्ट्रपति बन गया। आशा- निराशा प्रत्येक जगह दिखाई देती है। मैंने शिक्षक समुदाय में ही अनुभव किया कि कुछ शिक्षक विद्यार्थी को लेकर बहुत आशावादी होते हैं उन्हें भरोसा होता है कि छात्र में एक दिन बदलाव होगा। यदि छात्र आ रहे हैं तो पढ़ने के लिए ही आ रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ ऐसे भी शिक्षक हैं जो यह मानते हैं कि विद्यार्थी पढ़ना नहीं चाहते हैं। वह सिर्फ कॉलेज घूमने के लिए आते हैं या फिर छात्रवृत्ति के लिए आते हैं।
बिहार के दशरथ मांझी ने पहाड़ तोड़कर रास्ता बना दिया था। उनके इस जुनून के आगे पहाड़ भी बौना साबित हो गया। उन्होंने अथक प्रयास करके दुनिया को दिखा दिया। जरा कल्पना करिए कि उस समय दशरथ मांझी के शुरुआती प्रयास को निराशावादियों ने मजाक बनाया होगा। उन पर हँसे होंगे। किंतु वही निराशावादी लोग दशरथ मांझी जैसे आशावादी व्यक्ति के आगे सिर झुका दिए होंगे। उनके इस हौसला के आगे नतमस्तक हुए होंगे।
बचपन में हम लोगों को अक्सर कवि वृंद का एक दोहा सुनने को मिलता था। जिससे हम विद्यार्थियों को प्रेरणा दी जाती थी- ‘करत-करत अभ्यास के जडमति होत सुजान। रसरी आवत-जात ते सिल पर परत निशान’। कुंए की जगत के पत्थर पर बार- बार रस्सी के आने-जाने की रगड से निशान बन जाते हैं, उसी प्रकार लगातार अभ्यास से अल्पबुद्धि/जडमति भी बुद्धिमान/ सुजान बन सकता है।
मनुष्य अपने चारों तरफ आशा और निराशा से घिरा हुआ है। जीवन में कई चक्रव्यूह हैं जिसे भेदने पड़ते हैं। कई बार उसे पता नहीं चलता है कि क्या सही है, क्या गलत है। जीवन की कठिनाइयां और संघर्ष से ही मार्ग निकलता है। उसी में कई व्यक्ति आगे बढ़ जाते हैं और न जाने कितने घबरा कर वहीं रुक जाते हैं। आशावादी व्यक्ति एक दिन सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट पर फतह कर देता है। जबकि निराशावादी व्यक्ति हताश और लाचार होकर कुआं में कूद जाता है।
व्यक्ति को निराशा पर विजय पाने की जद्दोजहद हमेशा करते रहना चाहिए। जीवन के कठिन से कठिन समय में अपने को निराशा से बचा लेना उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है। आशा बहुत बलवती होती है। गरीब से गरीब व्यक्ति भी इस उम्मीद में जीता है कि कभी न कभी उसके जीवन में आशा की किरण दिखाई देगी। जीवन में नया सवेरा आयेगा। पतझड़ के बाद बसंत भी आएगा। बशीर बद्र के एक शेर से अपनी बात समाप्त करूंगा –
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सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
जितेंद्र जी को सलाम पहुंचे
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