शोध आलेख : हरियाणवी लोकनाट्य को समृद्ध करने में मास्टर नेकीराम का योगदान / डॉ.कमलेश कुमारी

हरियाणवी लोकनाट्य को समृद्ध करने में मास्टर नेकीराम का योगदान
- डॉ.कमलेश कुमारी

शोध सार : लोकसाहित्य किसी भी देश की संस्कृति को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। साहित्य का संबंध समाज से है लेकिन लोक साहित्य तो रचा बसा ही समाज में है। लोक साहित्य लोक द्वारा लोक के लिए रचा गया साहित्य है। किसी स्थान विशेष की संस्कृति की जितनी अच्छी समझ हमें लोकसाहित्य से प्राप्त होती है शायद ही अन्य साहित्यिक विधा उस तरह से हमें समाज और संस्कृति से जोड़ पाए। लोकनाट्य, लोकसाहित्य का ही एक रूप है। हरियाणा में लोकनाट्य के रूप में सांग का विशेष महत्व है। हरियाणा में ऐसे अनेक सांगी हुए हैं जिन्होंने अपने सांगों के माध्यम से हरियाणवी संस्कृति को समृद्ध करने में विशिष्ट योगदान दिया है, जैसे - अलीबख्श, बंशीलाल, दीपचंद,  पंडित लखमीचंद, पंडित मांगेराम, बाजे भगत, मास्टर मूलचंद, रामकिशन व्यास, धनपत सिंह चंद्रवादी, रामकुंवार खालेटिया आदि और इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए नाम आता है मास्टर नेकीराम जी का। मास्टर नेकीराम जी के सांगों में हरियाणवी संस्कृति रची-बसी हुई है। हरियाणवी लोकनाट्य को माध्यम बनाकर नेकीराम जी ने हरियाणवी लोक का सम्पूर्ण चित्र हम सभी के समक्ष बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है।

बीज शब्द : लोकसाहित्य, लोकनाट्य, सांग, हरियाणा, हरियाणवी संस्कृति, मास्टर नेकीराम

मूल आलेख : हरियाणा प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति और सभ्यता का पालना रहा है। हरियाणा को देवभूमि के नाम से जाना जाता है, यही कारण था कि इसे एक समय ‘ब्रह्मवर्त’, ‘ब्रह्म की उत्तरवेदी’ आदि  नामों से जाना जाता था। इसी पावन धरती पर विश्व का प्रथम महायुद्ध महाभारत लड़ा गया और इसी धरा पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का दिव्य उपदेश दिया। भारतीय गणतंत्र में यूं तो 1 नवम्बर, 1966 को हरियाणा एक स्वतंत्र राज्य के रूप में स्थापित हुआ लेकिन हरियाणा की सांस्कृतिक परंपरा विशाल है। ‘हरियाणा’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ में ‘रजत हरियाणे’ के रूप में हुआ। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष भी हमें हरियाणा से प्राप्त हुए हैं। भारतीय संस्कृति की मुख्य धारा में हरियाणा का योगदान उल्लेखनीय रहा है। साहित्यिक परंपरा की दृष्टि से भी हरियाणा काफी समृद्ध है। हरियाणा वैदिक काल से वैदिक एवं ब्राह्मण साहित्य की सृजन-स्थली रहा है। सरस्वती के तटों पर तपस्या करते हुए ऋषि-मुनियों ने वेद-पुराणों की रचना की थी। इसी धरती पर महाभारत, मनुस्मृति, अष्टाध्यायी, कादंबरी, हर्षचरित लोकगीतों से लेकर लोकनाट्य तक सभी में हरियाणवी समाज और संस्कृति रची बसी है। सांग हरियाणा की लोकप्रिय लोकनाट्य का एक रूप है। लोकनाट्य अपने भाव और विचारों को लोक तक सीधा प्रेषित करने का प्रभावी माध्यम है। प्राचीन काल से ही नाट्य विद्या के अनेक प्रमाण हमारे सामने पौराणिक कथाओं, लोक गाथाओं, लोक कहानियों के माध्यम से प्राप्त होते रहे हैं,जैसे:- महाभारत के विराट पर्व के अन्तर्गत रंगशाला का उल्लेख। संस्कृत साहित्य भी नाट्य विधा की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध रहा है, इसके अन्तर्गत अनेक नाटकों की रचना व उनका सफल मंचन भी किया गया  जैसे- कालीदास का अभिज्ञानशाकुन्तलम्, शुद्रक का मृच्छकटिकम् ये अभिनेय की दृष्टि से उच्च कोटि के माने गये है। संस्कृत साहित्य के उपरान्त नाट्य विधा में कुछ शिथिलता आयी किन्तु वर्तमान में हिंदी साहित्य के क्षेत्र में लोक नाट्य कला के अनेक रूप प्रचलित रहे हैं। इनमें माँच, ख्याल, नौटंकी, स्वांग, भगत आदि उल्लेखनीय हैं। सांग हरियाणा की लोकप्रिय लोकनाट्य विधा है।

          “सांग शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सांग की व्युत्पत्ति ‘स्वांग’ शब्द  से मानी है, जिसका अर्थ है, किसी का रूप या वेश अपने शरीर पर धारण करना या अभिनय के लिए अपने अंगों को सुसज्जित करना आदि। साधारणत: स्वांग का शाब्दिक अर्थ छद्म रूप माना गया है। नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित 'लघु हिंदी शब्द सागर’ में स्वांग का अर्थ बताते हुए लिखा गया है कि “बनावटी वेश जो दूसरे का रूप बनने के लिए धारण किया जाये, भेष मजाक का खेल, तमाशा, नकल धोखा देने के उद्देश्य से बनाया हुआ कोई रूप या क्रिया’।” 1

         सांग हरियाणा का एक सांस्कृतिक दस्तावेज है, जो यहाँ के निवासियों के सामाजिक व नैतिक मूल्यों तथा उनके जीवन से जुड़ी वीरता व प्रेम के भावों को अभिव्यक्त करता है। यह हरियाणवी लोक नाट्य विद्या का एक आद्य प्रारूप है. जिसके गीतों के एक-एक बोल के साथ जनसाधारण का हृदय उलझ – उलझ आता है। इसमें लोकजीवन की भाषा, संगीत, नृत्य एक ऐसी सम्मिलित भाव बेला उपस्थित करता है, जिससे मनुष्य का हृदय उसके दृश्य के साथ सहज गतिमान हो जाता है। जैसे-जैसे सांग चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ता है दर्शक वर्ग भूख-प्यास सब भूलकर अपना दिल थामे वहीं बैठे रहते हैं और जिज्ञासा के वशीभूत होकर सांग देखने हेतु लालायित रहते है। सांग जनसाधारण के लिए पंचम वेद के समान ही माना जाता है, क्योंकि अनपढ़ देहाती लोगों को धर्म, नीति, मर्यादा और ज्ञान की बातें बताने का इससे सरल और सहज और कोई माध्यम नहीं हो सकता। सांग लोक मानस के चरित्र व उसके वातावरण को अभिव्यक्त करता है, इसका संगीत जनमानस मन और आत्मा को आनंदित कर एक ऐसा समा बाँध देता है जिसका समाज का हर वर्ग चाहे वह धनी हो या कंगाल, उच्च हो या पिछड़ा, नौजवान हो या बुजुर्ग, पुरुष हो या स्त्री आदि के साथ फकीर, बच्चे आदि सभी सांग के मंचन का समान रूप से रसपान करते हैं। 18 वीं शताब्दी से पूर्व सामूहिक मनोरंजन के दो साधन थे- मुजरा और नकल। सम्पन्न परिवारों में विवाह आदि के अवसर पर ये कार्यक्रम होता था। मुजरे के लिए नृत्यांगनाऐं आती थीं और नकल के लिए नकलिए व नक्कालों को बुलाया जाता था, जो अपने-अपने तरीकों से सामूहिक मनोरंजन किया करते थे। परन्तु एक सभ्य समाज में नृत्यांगनाओं व नक्कालों को हेय की दृष्टि से देखा जाता था। ऐसी परिस्थिति में सांग का उद्भव हुआ। अतः सांग परम्परा हरियाणा के परिवेश की एक अमूल्य धरोहर है, जो मनोरंजन के साथ-साथ जनसामान्य को परोपकार, जीवन मूल्य, नीति, भक्ति, उपदेश आदि की शिक्षा भी प्रदान करती है एवं  हरियाणा की संस्कृति के विभिन्न पक्षों को उजागर करती है।

         सांग कला के विकास में गांव जैतड़ावास निवासी प्रसिद्ध सांग सम्राट व लोककवि मास्टर नेकीराम और उनके परिवार का अहम योगदान रहा है। इनसे पहले इनके पिता मास्टर मूलचंद और उनके शिष्य नानकचंद भगतजी बूढ़पुर तथा इनके बाद इनके पुत्र मास्टर राजेंद्र सिंह ने सांग कला का संरक्षण करते हुए इसे निरंतर 100 वर्षों तक बनाए रखा। महान सांगी मास्टर नेकीराम का जन्म 6 अक्टूबर, 1915 को रेवाड़ी के समीप जैतड़ावास गांव के एक निम्न परिवार में हुआ । इनकी माता का नाम लाडो देवी तथा पिता का नाम मास्टर मूलचंद था ।ये अपने माता- पिता के इकलौते पुत्र थे। नेकीराम ने अपने गुरु के आशीर्वाद से मात्र 14 वर्ष की कम आयु में ही अपने पिता की देख-रेख में पहला सांग ‘भक्त पूरणमल’ का मंचन किया और इनका यह भक्त पूरणमल सांग इतना प्रसिद्ध हुआ कि ये लोक साहित्य जगत में मास्टर नेकीराम के नाम से जाने जाने लगे। जब यह गाना शुरू करते थे तो गांव में लोगों की भीड़ लग जाती थी। तथा एक अच्छी बात यह भी थी कि इनकी रागनियों में किसी भी प्रकार की अश्लीलता नहीं दिखाई देती थी। इनकी रागनियां को घर परिवार तथा पूरे समाज के साथ बैठकर देखा और सुना जा सकता था । इनकी रागनियां को सुनने के लिए लोग दूर-दूर से बैलगाड़ी, घोड़ा गाड़ी, ऊंट गाड़ी और साइकिल इत्यादि साधन के माध्यम से आते थे। इनकी आवाज इतनी कोमल और मधुर थी जैसे कि साक्षात सरस्वती मां विराजमान हो गई हो। इन्होंने अपनी आवाज के माध्यम से न केवल अपने पिता बल्कि गांव का नाम भी रोशन किया। मास्टर नेकीराम के प्रमुख सांग-  राजा भोज-भानवती, राजा रिसालू, बीना-बब्बन, राजा कंवरसेन-कुलवंती, राजा उदयभान-उर्मिला, श्रवण कुमार, राजा सुल्तान निहालदे, राजा मोरध्वज, हीर-रांझा, लीलो-चमन, चापसिंह-सोमवती, फूलसिंह-नौटंकी, रूप-बसन्त, सेठ ताराचन्द, राजा हरिश्चन्द्र-तारावती, शाही लक्कड़हारा, कीचक-वध, मीराबाई, भगत पूर्णमल, पिंगला-भरथरी, अमर सिंह राठौर, चंद्रकिरण, गोपीचंद भरतरी, सती अंसुईया, बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर, श्री गरीब नाथ महाराज की गौरव गाथा आदि उनके लोकप्रिय एवं प्रभावी सांग थे। निस्संदेह मनुष्य अपने वातावरण की निर्मित होता है। घर–परिवार के संस्कार, आस-पास का वातावरण, एवं उसके जीवन में आए उतार–चढ़ाव सब मिलकर उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। मास्टर नेकीराम के व्यक्तित्व पर भी उनके पर्यावरण और पृष्टभूमि ने गहरी छाप छोड़ी। उनके जीवन अनुभवों की अभिव्यक्ति उनके सांगों में देखी जा सकती है। नेकीराम के सांगो में अपने समय के लोक का प्रभावी रूप से चित्रण हुआ है। हरियाणवी समाज और संस्कृति की अनूठी झलक उनके सांगो में हमें देखने को मिलती है।

साहित्य और समाज का गहरा रिश्ता होता है, साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्य में समाज की अभिव्यक्ति होती है और लोक साहित्य तो लोक की ही अभिव्यक्ति है। सांग हरियाणा का प्रसिद्ध लोकनाट्य है, सांगों के माध्यम से हम हरियाणवी समाज को और करीब से जान पाते हैं । मास्टर नेकीराम ने अपने सांगों में समाज में व्याप्त कई विकृतियों का भी चित्रण किया है साथ ही अपने सांगों के माध्यम से सामाजिक मूल्यों को भी स्थापित करने का प्रयास किया है। मास्टर नेकीराम सामाजिक संबंधों के बड़े भावपूर्ण चित्र खींचते हैं। माता या पुत्र का संबंध हो या पति-पत्नी का, देवर-भाभी का संबंध हो या जीजा-साली का,उनके सांगों में पारिवारिक रिश्तों का बड़ा सजीव चित्रण हुआ है।

           हरियाणवी संस्कृति में प्रेम और परिवार व्यवस्था का विशेष महत्व है। हरियाणवी समाज एकजुटता, भाईचारे और आपसी सौहार्द की भवभूमि पर प्रतिष्ठित है। प्रेम एक ऐसी शक्ति है जिससे सम्पूर्ण जगत चलायमान है। दुनिया में जीवित बचे रहने के लिए प्रेम का बचे रहना आवश्यक है। लोक – काव्य की तो मूल प्रेरणा यही वृत्ति है। प्रेम का फलक बहुत  व्यापक है यह केवल स्त्री और पुरुष के प्रेम तक ही सीमित नहीं है । प्रेम को केवल स्त्री और पुरुष की परिधि में बांध दिया जाए तो प्रेम बहुत संकीर्ण हो जाएगा। प्रेम केवल यौन आकर्षण मात्र नहीं है, प्रेम का आधार होता है विश्वास । यह दो हृदयों का संगम होता है। प्रेम निश्चल होता है और समाज के सभी बंधनों से परे होता है। मास्टर नेकीराम के सांगों में प्रेम के इसी व्यापक फलक की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है। उन्होंने एक तरफ जहां अपने सांगों में प्रेम के व्यापक रूप की अभिव्यक्ति करते हुए उसे आध्यात्मिक स्तर पर पहुंचाया है तो दूसरी तरफ उनके सांगों में नायक और नायिका के नए – नए प्रेम की अभिव्यक्ति भी हुई है, इस प्रकार उनके सांगों में प्रेम भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होता हुआ दिखाई देता है।‘लीलो-चमन’ सांग में कवि मास्टर नेकीराम ने नायक चमन और  नायिका लीलो के प्रथम मिलन को जिन आध्यात्मिक उपमाओं व उत्प्रेक्षाओं में बांधा है, उनका सौंदर्य शास्त्र भी कायल रहेगा -

छुट्टी हुई कॉलेज की मिल्ये लीलो-चमन दोनों।
हुई प्रेम की याद मिल्ये बरबाद अमन दोनों ।।
जण छट्य कै एक जगह पै आग्ये, हृदय एक जगह पै आग्ये,
कट्य कै एक जगह पै आग्ये, नाग-चन्दन दोनों ।।
जणु आदि आन अंत में मिलग्या, पूरा तन्त संत में मिलग्या ।
आकै एक पंथ में मिलग्या, काज-गमन दोनों ।।’2

‘चापसिंह-सोमोती’ नामक सांग में पति-पत्नी के प्रेम संबंध का बड़ा मार्मिक चित्रण है। चापसिंह के विरह में किस प्रकार सोमोती तड़प कर कहती है -

‘मनै छोड्य के चाल्य पड्या अड्ये क्यूंकर रहूँ अकेली मैं।
तेरे बिना पिया जी लागै ना इतनी बड़ी हवेली म्हं।।
बिना पति कै नई बहु का बिल्कुल भी ना रंग छटै,
जोबन जोर हिलोर उठै ना मद-जोबन की झाल डटै,
दिन तो कटज्या सोच-सोच म्हं ना बिल्कुल बैरण रात कटै,
बिना पति के दरस-परस कै पतिव्रता का धरम घटै।।’3

अर्थात चापसिंह के बिना सोमोती को पूरी हवेली सूनी-सूनी लगती है । पिया की याद में उसे रातें काटनी भारी हो रही हैं ।  वह कहती है कि तुम्हारे विरह में दिन तो जैसे- तैसे कट जाते हैं किन्तु रात्रि के समय प्रिय की याद बहुत पीड़ादायक होती है । नायिका कहती है कि पति के दर्शन के बिना पतिव्रत धर्म की हानि होती है। नायिका कहती है कि इस यौवन की मादकता व्यर्थ है यदि मेरा प्रिय ही मेरे साथ नहीं है। नायिका कहती है कि संसार के सभी सुख पिया के बिना अर्थहीन हैं। ‘पूरणमल सांग’ में पूरणमल और उसकी माँ के वत्सल्यमयी प्रेम रूप का विशद चित्रण करते हुए मास्टर नेकीराम लिखते हैं -

जननी मां तनै रूक्के मारै बोलिए बेटे।
बारह साल के बाद बहुत दिन हो लिए बेटे।।
खाणा- पीणा छूट लिया था जिस दिन सै कतल करया था।
समुन्दर सूख्या कीच रही ना जो निर्मल नीर भरया था।।
डाल-पात सब फूल सूक्यगे जो गुलशन चमन हरया था।
इस्से कुकर्म नै देख्य-देख्य खुदय भगवान भरया था ।।’ 4

 हरियाणवी समाज में जवाईं का स्थान सबसे बढ़कर होता है। पूरे परिवार द्वारा जंवाई को सर-आँखों पर रखा जाता है। ‘सांग चापसिंह-सोमती’ में जंवाई के आतिथ्य का बड़ा सुंदर चित्रण नेकीराम ने किया है –

सासू भागी आवै जा मालूम पाट्य जंवाई की।
सासू ने प्यारा करै खुशामद साठ्य जंवाई की।।5

हरियाणवी समाज में जीजा-साली का रिश्ता भी बडा प्यार होता है। उनके बीच की खट्टी-मीठी नौक-झोंक दो परिवारों के आपसी सौहार्द को बनाए रखती है। मास्टर नेकीराम के इस सांग में जीजा-साली की चुहलबाज़ी का चित्रण देखा जा सकता है :

जीजा जी करुं मखौल बकूं ना गाळी सूं ।
जरा हँस के करल्ये प्यार मैं छोटी साळी सूं ।।6

भारतीय समाज में परिवार एक आधारभूत और आदर्श संस्था रही है। परिवार की प्रतिष्ठा इस बात पर निर्भर करती है कि उसके  सदस्यों के बीच आपस में कितना प्रेम, आत्मीयता और आदर सम्मान है। मास्टर नेकीराम भारतीय समाज की पारिवारिक व्यवस्था से भली- भांति परिचित थे इसलिए उनके सांगों में परिवार के सदस्यों के बीच के आत्मीय रिश्तों का, उनके बीच की टकरार का बड़ा सहज और सजीव चित्रण हुआ है। भारतीय समाज में देवर और भाभी का रिश्ता जहां एक तरफ हंसी मजाक वाला रिश्ता होता है तो कई बार देवर भाभी के रिश्ते में माता और पुत्र के जैसा वात्सल्य भाव भी देखा जा सकता है। कभी-कभी इन रिश्तों में खटास भी आ जाती है। ‘सांग नौटंकी’ में फूलसिंह और उसके भाभी के बीच के संवाद से यह समझा जा सकता है कि किस छोटी सी गलतफहमी के कारण जो भाभी अपने देवर से मां के जैसा प्रेम करती थी वो अब उसे पानी तक पिलाने से इंकार कर देती है इस फूलसिंह अपनी भाभी से प्रश्न करता है और पूछता है कि जिस भाभी ने उसे माँ के जैसे पाला -पोषा आज उसकी ममता कहां गई -

‘मेरी भाभी दया करो, तनै छोटा सा मैं पाल्या।
छोटा देवर पूत बराबर घर से बाहर निकाल्या ।।7

            मास्टर नेकीराम ने अपने सांगों के माध्यम से समाज में व्याप्त समस्याओं का ही चित्रण नहीं किया है अपितु सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास भी किया है । अपने सांगों के माध्यम से वो सीख देते हुए चलते हैं। जैसे- बेटी के विवाह के समय माँ अपनी बेटी को समझाते हुए कहती है –

‘सीस उल्हाणा मत ना धरिये,
लोक-लाज से बेटी डरिये ।
सास-ससुर की सेवा करिये, झुका चरण में गात है ।।8

            हरियाणवी लोक में स्त्री को देवी का स्वरूप माना जाता है। उसे पूजनीय और घर की लक्ष्मी जैसे उपमानों से विभूषित किया जाता है। मास्टर नेकीराम ने अपने सांगों में स्त्री के दैवीय रूप का चित्रण किया है। सांग सम्राट व लोककवि मास्टर नेकीराम ने प्रमाणिक तथ्य देते हुए नारी की अपरंपार महिमा को प्रमाणित करते हुए कहा है-

‘न्यू कहया करै सै और कहता आया पाया कोन्या पार मेरा।
बणी बेटी, बहाण, बहू, महतारी दुनिया म्हं नाम हजार मेरा। टेक।
ब्रह्मा नै सतरूपा रचदी, बणी ब्रह्मा संग ब्रह्माणी मैं
श्री विष्णु जी के घर बणी लक्ष्मी इंद्र कै इंद्राणी मैं
पार्वती शिव शंकर गेल्या बणगी जग कल्याणी मैं
एक चौथाई धरती पै माया और तीन तिहाई पाणी मैं
अंडज, जेरज, सद्विज उद्विज सारे कै विस्तार मेरा.......1’9

 

‘भक्ति’ संस्कृति की मूल चेतना है। श्रद्धा,समर्पण, त्याग और आत्मानुभूति का नाम भक्ति है। हरियाणवी लोकमानस में मेलों,भजन,कीर्तन,नौटंकी,सांग,रामलीला,रासलीला आदि के प्रति विशेष रुचि दिखाई देती है। “हरियाणा के लोकगीतों में हरियाणा को ‘राम भाजनियों का देश’ कहा गया है। यहाँ के जनमानस में गौ,ब्राह्मण, तीर्थ,संत,पीर,पैगंबर आदि के प्रति गहरी आस्था है। हरियाणा के लोकजीवन में सीता-राम, राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती,हनुमान, लक्ष्मी, गणेश, माँ दुर्गा, माँ सरस्वती आदि देवी-देवताओं के प्रति अगाध श्रद्धा और अटूट आस्था है।”10 ‘मास्टर नेकीराम’ का जन्म ही एक ऐसे परिवार में हुआ  था, जो नाथपंथ महाराज गरीबनाथ के अनन्य भक्त थे। आध्यात्मिकता और दैविक आस्था उनके खून में समा हुई थी। फिर एक परंपरा भी थी कि नाटक का प्रारंभ नांदी – पाठ या दैविक आराधना से हो। यह परंपरा और उनकी आध्यात्मिक आस्था गीतों में ढली।’11 मास्टर नेकीराम के परिवार का संबंध नाथपंथ से था यही कारण था कि बचपन से उनकी आस्था आदिनाथ (भगवान शंकर) व गुरु गोरखनाथ के प्रति रही। दूसरा नेकीराम जी कलाकार थे और अन्य कला साधकों के जैसे ही नाट्य मंच पर अपनी सफलता के लिए वे कला की देवी सरस्वती जी की आराधना किया करते थे। भगवान भोलेनाथ के प्रति अपनी भावनाएं अर्पित करते हुए वे लिखते हैं -

‘हर हर हर भोले नाथ पिता
तुम स्वामी में जोड़ हाथ पिता
शिव महिमा का नित उठ गुण गाया’12

            भारत में गुरु और शिष्य की परंपरा प्राचीन काल से व्याप्त है। गुरु का स्थान ईश्वर से भी बढ़कर बताया गया है। ‘भारतीय दर्शन का प्रथम प्रस्फुटन उपनिषद से हुआ। उपनिषद शब्द इस बात का साक्ष्य है कि शिष्य ने अपने गुरु व आचार्य के समीप बैठकर यह आध्यात्मिक ज्ञान व दर्शन प्राप्त किया।‘प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में उचित दिशा और मार्ग पर चलने के लिए गुरु की आवश्यकता है होती। प्राचीन काल से ही एक पंक्ति प्रचलित है- ‘गुरु बिन ज्ञान ना होय’ बिना गुरु के मार्गदर्शन यह जीवन अर्थहीन है, दिशाहीन है। मास्टर नेकीराम को गायन, वादन और नृत्य की कला विरासत में अपने पिता से ही प्राप्त हुई। लोक-कवियों में यह परंपरा रही है कि रागनी के अंतिम बंद में अपना और अपने गुरु का नाम लेते हुए अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। ऐसा करने के पीछे उनका मकसद अपने गुरुओं के प्रति सम्मान व्यक्त करना तो होता ही है, अपने सांग के सफलता के लिए वो अपने सांग को गुरु के प्रति समर्पित कर उनका आशीर्वाद ग्रहण करते हैं। नेकीराम जी के सांगों में भी इस परंपरा का निर्वहन हुआ है -

‘मास्टर नेकीराम की मान्यता है  कि गुरु-सेवा और गुरु कृपा से मन का अंधेरा दूर होता है। सगुरा चेला गुरु के प्रति सदा अज्ञाकारी रहता है, निगुरा बिना किसी नियम-बंधन के यों ही बकता फिरता है। इसे वे ‘राजा भोज’ सांग की एक रागनी में कुछ यों प्रस्तुत करते हैं -

लाग्ये पाछै छूटै कोन्या जो जीभ-जाड़ का स्वाद करै ।
सुगरा चेला हो आज्ञाकारी नुगरे ही बकवाद करें।13

            मास्टर नेकीराम अपनी रचनाओं में हरियाणवी लोक संस्कृति के प्रति अगाध आस्था व राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना का परिचय देना कभी नहीं भूले। जब भारत का पाकिस्तान व चीन के साथ हुए, युद्धों के दौरान मास्टर नेकीराम ने अनेक देशभक्ति की रचनाएं रची और उनकी प्रस्तुति दी। युद्ध के दिनों में जहां भी मास्टर नेकीराम के सांगों का आयोजन होता वे अपने सांग से पहले भारतीय सैनिकों के उत्साहवर्धन हेतू इस रागनी को जरूर गाते थे। इसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार है -

‘छुट्टी बाकी चिठ्ठी आग्यी एक जवान की।
माता बोल्यी जा बेटा जय हो बलवान की।।
झटपट तैयारी करले बेटा देर लगाइए मतना,
सीना खोलकै लड़िये गोल़ी पीठ पै खाइए मतना,
जा उल्टा भाग मौर्चे पै मेरा दूध लजाइए मतना,
बाप की तरियां लड़िये बेटा लोग हंसाइए मतना,
सबनै एक दिन मरना हो, परवा कोन्या जान की...।’14

            मास्टर नेकीराम का सांग मंचन लगभग सात-आठ घन्टे तक चलता था। उनके अधिकतर सांग रात को होते थे। उन्होंने अपने कुशल सांग मंचन से भारत वर्ष के सभी हिन्दी राज्यों में अपने प्रदेश का नाम रोशन किया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान इन्होंने भारतीय युवाओं को दुश्मन के खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित करते हुए उनमें देशभक्ति की भावना का संचार किया। विभिन्न राज्यों में स्थापित भारतीय सैनिक छावनियों में भी विशेष उत्सवों के अवसर पर सैनिकों के उत्साहवर्धन हेतू मास्टर नेकीराम को सांग कला के मंचन के लिए आमंत्रित किया जाता था। उन्होंने अपनी एक रचना में कहा है कि

‘बाबुल गैल्या देख्या काबुल, लाहौर, रांची, मुल्तान गया,
कई बार करे सांग फौज म्हं, नेफा, नेपाल, भूटान गया,
एमपी, यूपी, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान गया,
पूर्व-पश्चिम,उत्तर-दक्षिण लगभग सारा हिन्दुस्तान गया,
नेकीराम सतगुरू कृपा से दुनिया म्हं गुणगान हुया।’15

            मास्टर नेकीराम ने अपनी सांग कला के माध्यम से ही हरियाणवी समाज और संस्कृति को समृद्ध  किया। मास्टर नेकीराम ने अपने सांगों के माध्यम से अनेक मन्दिर, कुआ, बावड़ी, धर्मशाला, गौशाला, स्कूल,तालाब आदि के निर्माण सहित अनेक जनहित कार्य करवाए। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने सांगों द्वारा गरीब कन्याओं के विवाह व अनेक बेसहारा लोगों की मदद करके मानवता की मिशाल कायम की। अपना सारा जीवन दबंग अस्मिता के साथ व्यतीत करने वाले मास्टर नेकीराम ने 60 वर्षों तक लगातार सांग मंचन करने का रिकार्ड अपने नाम करने के उपरान्त अपनी सांग मण्डली की बागडोर अपने पुत्र मास्टर राजेन्द्र सिंह को सौंप दी। 10 जून, 1996 को मास्टर नेकीराम का 81 वर्ष की आयु में देहान्त हो गया। इस प्रकार अगर कहें कि नेकीराम जी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व हरियाणवी लोकसाहित्य और संस्कृति की अमूल्य धरोहर है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।  

संदर्भ :
1.  शर्मा ,डॉ० पूर्णचन्द ; लोकनाट्य सांग कल आज और कल, हिन्दी साहित्य निकेतन,16 साहित्य विहार,बिजनौर,पृ. संख्या – 35
2.  सिंह,डॉ० शिवताज; हरियाणवी लोककाव्य एवम् नाट्य के गौरव: मास्टर नेकीराम सिंह, विवेक पब्लिशिंग हाउस,जयपुर पृ. संख्या – 35
3.  वही ; पृष्ठ- 72
4.  वही ; पृष्ठ- 110
5.  वही ; पृष्ठ- 116
6.  वही ; पृष्ठ- 118
7.  वही ; पृष्ठ- 93
8.  वही ; पृष्ठ- 84
9.  शर्मा ,डॉ० पूर्णचन्द ; लोकनाट्य सांग कल आज और कल, हिन्दी साहित्य निकेतन,16 साहित्य विहार,बिजनौर,पृ. संख्या – 140
10. यादव,डॉ. रामपत ; हरियाणा का भक्ति साहित्य,साहित्य संस्थान,लोनी बॉर्डर,गाजियाबाद,पृष्ठ संख्या-15
11. शर्मा ,डॉ० पूर्णचन्द ; लोकनाट्य सांग कल आज और कल, हिन्दी साहित्य निकेतन,16 साहित्य विहार,बिजनौर,पृ. संख्या – 43
12. वही ; पृष्ठ- 126
13.  वही ; पृष्ठ- 135
14.   शर्मा ,डॉ० पूर्णचन्द ; लोकनाट्य सांग कल आज और कल, हिन्दी साहित्य निकेतन,16 साहित्य विहार,बिजनौर,पृ. संख्या – 146
15.   वही ; पृष्ठ- 153


डॉ.कमलेश कुमारी
एसोसिएट प्रोफेसर,हिंदी विभाग, हरियाणा केंद्रीय विश्वविद्यालय, महेंद्रगढ़
kumaridrkamlesh@gmail.com

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

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