शोध आलेख : साझी विरासत का दस्तावेज : 'ईश्वर अल्लाह' नाटक / जब्बर सिंह जसावत

साझी विरासत का दस्तावेज : 'ईश्वर अल्लाह' नाटक
- जब्बर सिंह जसावत


शोध सार: पिछले कुछ समय से एक बहस लगातार सुनने को मिल रही है कि दो भिन्न समुदाय एक साथ नहीं रह सकतें। अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं वाले समुदाय पूजा, उपासना, रहन-सहन, पहनावा, खान-पान और धार्मिक स्थलों की भूमि-भिन्नता के कारण इनमें टकरा होना निश्चित है, इसीलिए अलग-अलग जगह रहना ही उनके लिए जरूरी है। मौजूदा दौर में हिंदू और मुसलमान धर्म के संबंध में भी कुछ संकीर्ण लोग अपनी ऐसी ही राय रखते हैं। यह दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि जिस सांप्रदायिक सोच ने आजादी के बाद भारत को बांटने में अपनी भूमिका निभाई, जिन विचारों एवं प्रतीकों ने सांप्रदायिकता का जहर फैलाने के लिए आजादी से पूर्व हथकंडे अपनाए, ठीक उसी तरह के हथकंडे हाल के कुछ दशकों में दिख रहे हैं। इन सभी सतही मुद्दों एवं तर्कों को साहित्यकार अक्सर चुनौती देने का कार्य करता रहा है। असगर वजाहत का ‘ईश्वर-अल्लाह’ नाटक भी इसमें अपनी बड़ी भूमिका निभाता है। यह नाटक इस प्रश्न को स्वीकार ही नहीं करता है कि भिन्न धार्मिक मान्यताएँ व्यक्ति को अलग-अलग रहने के लिए मजबूर करती हैं। प्रस्तुत शोध पत्र में भी इसी विचार को मजबूत करते हुए साझी विरासत को उभरने का प्रयास किया गया है। हमारी विविधता ही हमारी ताकत के रूप में जानी जाती है। यह शोध आलेख इस मुद्दे की जोरदार वकालत करता है कि कोई भी बहुलतावादी समाज मानवता को मजबूत करने के साथ-साथ उसे समझने का भी अवसर देता है। भारतीय समाज की अगर बात करें तो सिंधु घाटी सभ्यता के बाद से जो कुछ भी ऐतिहासिक प्रमाण है, वॆ कुछ इसी तरफ इशारा करते हैं। आर्यों के आगमन के साथ इस देश में कई जातियाँ और धर्म आए। आकर के इसमें ऐसे घुले मिले कि इस मुल्क से अलग उनका कोई वजूद ही नहीं दिखाई देता। हमारी हजारों सालों की विरासत इसका प्रमाण मानी जा सकती है। वर्षों तक साथ रहने के बाद कई तरह के दार्शनिक मत और विचार सामने आए जिन्होंने इस परंपरा को और भी ज्यादा मजबूत करने में अपनी भूमिका निभाई। भक्ति काल के दरमियान जिस तरह के साधु-संत सामने आए, उन्होंने हमारी साझी विरासत को मजबूत करने में निर्णायक भूमिका निभाई। सूफी विचारधारा भी कुछ इसी प्रकार की है जो विविधता को स्वीकार करने के साथ-साथ समाज को फलने-फूलने के लिए विविधता को जरूरी मानती है। आलोच्य नाटक में 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में दिल्ली के आसपास रहने वाले एक सूफी संत हजरत गौस के जीवन वृतांत के माध्यम से इंसानियत का पाठ पढ़ने का कार्य किया गया है। इस तरह यह शोध पत्र ऐतिहासिक संदर्भों के माध्यम से हमारी हजार साल की साझी विरासत की मजबूती को रेखांकित करने का प्रयास करता है।


बीज शब्द : साझी विरासत, सूफी, विविधता, मानवता, संकीर्णता, कट्टरता प्रेम, हिंदू-मुस्लिम, धार्मिक कर्मकांड, पूजा, इबादत।


मूल आलेख : मानव सभ्यता की शुरुआत तब से मानी जाती है जब मानव ने आपसी सहयोग में विश्वास करना शुरू किया। इससे पूर्व वह एक बर्बर और असामाजिक प्राणी के रूप में जाना जाता था। पर जब से वह साझे प्रयास और जीवन को महत्त्व देना शुरू करता है, उसी के साथ उसकी सामाजिकता आकार लेने लगती है। समाज की बुनावट तब और सुंदर रूप ग्रहण करती दिखती है जब साझे प्रयास के साथ-साथ समाज में विविधता को स्थान मिलने लगा। कृषि की शुरुआत के साथ ही मानव बस्तियाँ एक दूसरे के साथ रहना शुरू करती हैं जो कालांतर में कुणबी-कबीले, गाँव, शहर और महानगर की ओर बढ़ते हुए दिखते हैं। इन सभी समूह के भीतर एक दूसरे को स्वीकार करने और न करने की भावना का परस्पर विरोधाभास भी देखने को मिला। जैसे-जैसे मानव बस्तियों का विस्तार होता गया, उनके साथ-साथ एक दूसरे के क्षेत्र भी निर्धारित हुए। कुछ इसी तरह से क्षेत्र में रहते हुए लोग अपने खान-पान, रहन-सहन और जीवन शैली के आधार पर अपनी-अपनी मान्यताएँ विकसित करने लगे। कालांतर में जब ये जातियाँ एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती, तब इनमें संघर्ष के साथ-साथ आश्चर्य का भाव भी देखने को मिलता। संघर्ष के कारण तो हम यह मान सकते हैं कि अपने-अपने अस्तित्व और संसाधनों की रक्षा के लिए रहा होगा, पर जहाँ तक आश्चर्य की बात है, अलग जीवन शैली दूसरे कुनबे के लिए आश्चर्य का कारण थी। प्राचीन काल की लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कथा सम्राट प्रेमचंद लिखते हैं, ”पुरानी सभ्यता सर्व जन सुलभ प्रजातांत्रिक थी। उसकी जो कसौटी धन और ऐश्वर्या की आँखों में थी, वही कसौटी साधारण और नीच लोगों की आँखों में भी थी। गरीबी और अमीरी के बीच उसे समय कोई दीवार न थी। वह सभ्यता गरीबों को अपमानित न करती थी, न उसको मुँह में चिढ़ाती थी। उसका मजाक न उड़ाती थी। ज्ञान और उपासना का, गंभीरता और सहिष्णुता का सम्मान राजा भी करता था और किसान भी करता था। उनके दार्शनिक विचार अलग-अलग हो, लेकिन सभ्यता की कसौटी एक थी।”1


सिंधु घाटी सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी। भारतीय समाज का यह प्राचीन आदर्श रूप आर्यों के आगमन के बाद ग्रामीण संस्कृति में बदलते हुए दिखता है। इन दो संस्कृतियों के टकराव के कारण कई तरह के बदलाव हुए। बाहरी जातियों के आने का सिलसिला जो आर्यों के आगमन के साथ शुरू हुआ, वह कालांतर में भी जारी रहा। यहाँ यमन, हूण, मंगोल, अरब, तुर्क, मुगल, फ्रांसीसी, डच, अंग्रेज और पुर्तगाल जैसी कई जातियाँ आई और यहाँ पर बस गई। इन सब के बसने का नतीजा यह हुआ कि भारतीय समाज एक मिली-जुली संस्कृति का प्रतीक बनकर उभरा। ऐसा नहीं है कि केवल भारत ही ऐसी बहू-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, दुनिया के कई और भी देश ऐसी संस्कृतियों का समावेशी रूप धारण करते हैं। पर भारत की बात निराली है, क्योंकि यहाँ जिस मात्रा में और जिस पैमाने पर विविधता मौजूद है, दुनिया के अन्य देशों में शायद ही देखने को मिले। इसके अलावा यह भू-भाग इतना विशाल और विविधता लिए हुए हैं कि अपने आप में एक अजूबे के सामान लगता है।


कई जातियों और संस्कृतियों का यह देश गंगा-जमुनी तहजीब के देश के रूप में भी जाना जाता है। इसको यह पहचान पिछले हजार सालों से मिली हुई है जिसका मुख्य कारण यहाँ पर निवास करने वाली दो प्रमुख जातियों के कारण है। हिंदू और मुसलमान रूपी दो धर्मों को मानने वाली बहुसंख्यक आबादी सैकड़ों वर्षों से साथ में रह रही है। भारतीय संस्कृति को सजाने संवारने में यहाँ के नागरिकों के साथ-साथ साधु संतों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। भक्तिकालीन आंदोलन ने इस मजबूती को और भी सवारने का कार्य किया है। इस संबंध में मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के विचार यहाँ रखना ठीक रहेगा, वे अपनी पुस्तक ‘भारतीय अर्थतंत्र : इतिहास और संस्कृति’ में लिखते हैं, बहुत आगे चलकर मध्य युगीन रहस्यवादी काव्य धारा 15वीं शताब्दी की परंपरा पर गौर करें! इसमें हिंदू संत और मुस्लिम सूफी, दोनों ही सम्मिलित थे। इस भक्ति धारा ने भी बहुत कुछ स्पष्ट रूप से वर्ण और वर्ग के आधार पर समाज का विभाजन करने वाले सभी तर्कों का जमकर खंडन किया।”2 अमर्त्य सेन की ये पंक्तियाँ जहाँ भारत के साधु संतों की प्रासंगिकता की ओर इशारा करती है, वही भक्ति काल के दौरान साधु संतों के द्वारा इस साझे बंधन को संवारने से जुड़े हुए पहलुओं के योगदान को भी सामने रखती है।


हिंदी कथा साहित्य की पहचान समाज की विविधताओं को उजागर करने वाले साहित्य के रूप में होती है। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर प्रेमचंद के यथार्थ को समझने वाला हिंदी कथा साहित्य आजादी की लडाई के दौरान भारतीय बहुलतावादी समाज के बिंदुओं को उजागर करता रहा है। अपने इस प्रयास में वह देश के प्रगतिशील मूल्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाता रहा है। आजादी के बाद राही मासूम रजा़, कमलेश्वर, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, अमृता प्रीतम, काशीनाथ सिंह जैसे अनेक साहित्यकारों ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से सामाजिक सद्भाव के बिंदुओं को रेखांकित किया है।


प्रसिद्ध नाटककार असगर वजाहत अपने नाटकों में ऐतिहासिक बोध के साथ-साथ समसामयिक मुद्दों पर अपनी बात रखने का कार्य करते हैं। अजगर वजाहत ऐतिहासिक घटनाओं को आज के संदर्भ में प्रस्तुत करते हुए यह बताने का प्रयास करते हैं कि सामाजिक ताना-बाना समाज में हर समय महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। वैसे भी देखा जाए तो आपके संपूर्ण साहित्य का मूल उद्देश्य भारतीय साझा विरासत का विस्तार करने के साथ बंधुता को मजबूत करना है। यही कार्य आपने नाटक 'ईश्वर अल्लाह' में भी करने का प्रयास किया है।


प्रस्तुत नाटक उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में दिल्ली के आसपास के ग्रामीण परिवेश की सच्ची घटना पर आधारित है। दिल्ली के पास के एक गाँव में सूफी संत हजरत गौस की जीवनी को सहारा बनाकर लिखा गया यह नाटक आपसे सद्भाव के कई बिंदु को पाठकों के सामने रखता है।व्यक्ति के रिश्तेदार से महत्त्वपूर्ण उसका पड़ोसी होता है, क्योंकि जब कभी भी उसे कोई जरुरत महसूस होती है तो वह पहले अपने आस-पड़ोस को ही तलाशता है। ऐसे में वह जाति, प्रांत, भाषा की सीमाओं को नहीं स्वीकारता है। ऐसा ही प्रसंग इस नाटक में उस देखने को मिलता है जब मौलवी अलीमुल्लाह साहब के यहाँ बेटा पैदा होता है और बच्चे के जन्म के तुरंत बाद माँ का इंतकाल हो जाता है। जब बच्चे के लिए दूध की समस्या आन खड़ी होती है तो वह अपने पड़ोसी पंडित गणेशी राम के यहाँ फरियाद लेकर जाते हैं। उनके भी घर में बेटी पैदा हुई थी पंडिताइन उनकी इस मांग को सहर्ष स्वीकारती है, बदले में मौलवी साहब वादा करते हैं“मौलवी अलीमुल्लाह - वही अधिकार होगा जो मेरा होगा जिस तरह में उसका पिता हूँ। उसी तरह पंडित जी उसके पिता होंगे और आप माता होंगी।”3 पड़ोसियों को लेकर जो विश्वास भारतीय समाज में है, वह अनायास नहीं है। उसका मूल कारण एक दूसरे के साथ उठना-बैठना है हजार साल से एक साथ रहने वाला ये समुदाय इतने घुलमिल कर पास-पास बस गए हैं कि इन दोनों का एक दूसरे की बिना काम नहीं चल सकता।


नाटक के पात्र और मौलवी अलीमुल्लाह के बेटे सूफी बरकतुल्लाह जब इन दोनों परिवारों के बीच अपना जीवन शुरू करते हैं तो उनकी तालीम दोनों तरह की होती है, बरकतउल्ला बताते हैं,


बरकतउल्लाह - अब्बाजान और पिताजी को पढ़ाने का शौक था और हमें पढ़ने का जुनून था। अरबी पढ़ने के बाद अब्बा ने कुरान शरीफ पढ़ाया। पिताजी ने संस्कार पढ़ाए और गीता का पाठ दिया। हमने 16वें साल में ही दोनों को कंठस्थ कर लिया। हमें अब्बा ने सहीह बुखारी, सहीह मुस्लिम और सुन्ना अबू दाऊद पढ़ाया। अबूसीना और अल बुखारी को पढ़ाया। पिताजी ने वेद और उपनिषद की शिक्षा दी। भागवत् महापुराण और महाभारत बढ़ाया। सिद्धांत कौमुदी और महाभाष्य बडी मेहनत से पढ़ाया। अब्बा ने फारसी की तालीम शुरू की। गुलिस्ता बोस्तां के बाद हमने शाहनामा पढ़ा। अत्तार, रुमी और शीराजी के दीवान पढ़े पिताजी ने रामचरितमानस पढ़ने को दी। फिर हमने पद्मावत पढ़ी। 4 नाटक का यह उद्धरण स्पष्ट करता है कि शिक्षा किसी धर्म की जागीर नहीं होती है। इसके अलावा अलग-अलग भाषाओं का अध्यन व्यक्ति को बहु-संस्कृतियाँ सिखाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस उदारता का परिणाम यह होता है कि व्यक्ति कट्टरपन से दूर होकर एक समन्वय वाली संस्कृति की ओर बढ़ता हुआ देखा जा सकता है।


हमारे अतीत में ऐसे कई नायक हुए हैं जिन्होंने ऐसी उदार संस्कृति को महत्त्व देने का कार्य किया है। यह संस्कृति फलते फूलते हुए एक प्रेमपूर्वक समाज का निर्माण कर सके, यह भी उनका प्रयास रहा है। उदारतापूर्ण भारतीय संस्कृति के नायक के बारे में रामधारी सिंह दिनकर की टिप्पणी का उल्लेख करना यहाँ तर्कसंगत लगता है, वे लिखते हैं, हिंदू-मुस्लिम एकता के हमारे देश में तीन बड़े नेता कबीर अकबर और महात्मा गांधी हुए है। गांधीजी की विशेषता यह थी कि वे किसी भी धर्म को छोटा नहीं करते थे। सभी धर्मों पर उनकी समान भक्ति थी और सभी धर्म को समान समझने का ही वे उपदेश भी देते थे। अकबर की दृष्टि में कोई भी एक धर्म सर्व विद्यापूर्ण नहीं था। उनकी कोशिश थी कि सभी धर्मों की अच्छी बातें लेकर एक नया धर्म चलाया जाए जो सबको संतोष दे सके।”5 कबीर रहस्यवाद की बात करते हैं और उनका झुकाव काफी कुछ सूफी दर्शन की ओर है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उन्होंने सूफीवाद की आलोचना नहीं की है। उन्होंने सूफीवाद की भी आलोचना की है, पर उनके अच्छे पहलुओं को स्वीकारने में कोई हिचक महसूस नहीं हुई। नाटककार ने भारतीय समाज की उदार संस्कृतियों की तारीफ करते हुए सूफी परंपरा को कैसे भारतीय समाज में विस्तार देने की जरुरत है, इसको भी रेखांकित किया है। सूफी संप्रदाय भारत में आने के बाद यह अरबी फारसी परम्परा का नहीं रहा, बल्कि ठेठ भारतीय समाज में रच बस गया। यहाँ की चीजों को अपने अनुसार ढालने का प्रयास किया या फिर स्वयं को यहाँ की संस्कृति के अनुसार बनाने का प्रयास किया। एक जगह बरकतउल्ला का अपने शिष्यों के साथ आया संवाद कुछ किसी ओर इशारा करता है, बरकतउल्ला कहते हैंबरकतउल्लाह - गीता में बार बार कहा गया है। ईश्वर सब प्राणियों के दिलों में रहता है और हदीस शरीफ है कि आदमी का दिल ईश्वर के रहने की जगह हैं तो उससे भागकर कौन कहाँ जाएगा?”6 बरकतउल्ला आगे कहते हैं, बरकतउल्लाह- गायत्री मंत्र और सूर ए बकरा में जो कुछ है, वही बताता हूँ। हे भगवान/ ईश्वर/ अल्लाह /परमात्मा सब कुछ तूने ही बनाया है। तू मेहरबान है। न्याय करने वाला है। हम तेरी इबादत करते हैं। हमें सीधे रास्ते पर चला।”7 ये संवाद इस तथ्य को सही साबित करते हैं कि जब व्यक्ति सामूहिक समाज एवं सदभाव के माहौल में रहता है तो उसके विचार बगीचे के अलग-अलग फूलों के समान अपना आकार लेने लगते हैं।


यह भी एक सच्चाई है कि जब कभी भी कोई व्यक्ति समाज में रुढ़िवादी और कट्टर सोच को चुनौती देना है तो उसके विरोध मे कई तरह की आवाजें उठने लगती है। सूफी बरकतुल्लाह को भी अपनी आजाद सोच के चलते गाँव के महंत और शहर काजी से विरोध झेलना पड़ता है। सूफी बरकतउल्लाह के बारे में शहर काजी और महंत की वार्तालाप कुछ इस तरह की है,


शहर काजी- महंत जी! मैं तो बिल्कुल नहीं मानता कि हिंदू और मुस्लिम धर्म में समानताएँ है। आपका धर्म आपका धर्म है और मेरा धर्म मेरा धर्म है। आप हिंदू है बड़ी खुशी से हिंदू रहिए। मैं मुसलमान हूँ मुझे मुसलमान रहने दीजिए। अगर आपने हिंदू को हिंदू न रहने दिया और मुसलमान को मुसलमान न रहने दिया तो मस्जिदें और मंदिर वीरान हो जाएँगे और बरकत यही काम कर रहा है।


महंत - यह तो बहुत अनुचित है। उसे धर्म का ज्ञान है, हम मानते हैं लेकिन धर्म के ज्ञान का यह अर्थ तो नहीं है कि धर्म की पहचान ही खत्म कर दी जाए?” 8 इस दबाव के चलते सूफी साहब को मजबूर होकर अपना गाँव छोड़ना पड़ता है। पर यह सूफी बरकतउल्ला के लिए काफी कुछ बेहतर ही साबित होता है। नाटक इस बिंदु की ओर संकेत करता है कि हमारी समझ लोगों से मिलने-जुलने से बढ़ती है। मिलना-जुलना किसी भी तरह का हो सकता है, पर सबसे पारंपरिक और कारगर रास्ता है, देशाटन। अलग-अलग प्रदेश की यात्राएँ व्यक्ति को बहू सांस्कृतिक बनाने के साथ-साथ संवेदनशील और दूसरों को स्वीकार करने वाला बनाती है। बरकतउल्ला में आया परिष्कार कोई एक तरफा नहीं था, उसकी उदारता कई क्षेत्रों में देखने को मिलती है ।


लेखक इस नाटक में बार-बार सूफी दर्शन की विशेषताओं को रेखांकित करता है। सूफी बरकतउल्ला के माध्यम से विस्तार से अपनी बात रखी है। परिवार में रहते हुए साधक को समाज से प्रेम (इश्क ए मजाजी) करते हुए ईश्वर के प्रेम (इश्क ए हकीकी) में अपने को समर्पित करना सूफी परंपरा का मूल संदेश है। इस विचार के मद्देनजर उसे समाज की विविधता को स्वीकारना बेहद जरुरी होता है। लेखक बताता है कि सूफी बरकतउल्ला अपने एक शिष्य अब्दुल रफीक के यहाँ पर जब खाना खाने जाते हैं तो उसे शराब लाने के लिए कहते हैं। अपने गुरु के द्वारा ऐसी फरमाइश करने पर शिष्य हक्का-बक्का रह जाता है। पर गुरु का आदेश मानते हुए वह शराब लेकर आता है। गुरु (सूफी बरकतउल्लाह) के सामने शराब प्रस्तुत की जाती है तो उसे पीने के लिए मना कर देते हैं। परेशान होकर अब्दुल रफीक सवाल करता हैं कि हुजूर जब शराब पीनी नहीं थी तो मंगवाई क्यों? इसके जवाब में सूफी बरकतुल्लाह कहते हैं,


बरकतुल्लाह - इसलिए कि अगर तुम शराब न लाते तो इससे साबित होता कि तुम्हारे दिल में उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं है जो तुमसे बिल्कुल मुख्तलिफ है.........बरकतउल्ला - हां मैं यही चाहता हूं कि हमारे दिल में उन लोगों के लिए भी जगह हो जो हम जैसे नहीं है। यहाँ तक कि हम से बिल्कुल उलट है बिल्कुल मुख्तलिफ है।”9


यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि सूफी संप्रदाय किस तरह से समाज की विविधता को साथ में लेकर ईश्वर के राह पर चलने की बात करता है। समाज का कोई भी व्यक्ति चाहे किसी भी तरह की जिंदगी क्यों न जीता हो, उससे प्रेम करना सूफीवाद की पहली शर्त है। यह दार्शनिक विचारधारा समाज को बहूलतावाद की ओर ले जाती है। लंबे समय तक भारतीय समाज साथ-साथ रहते हुए अपने धर्म से जुडी मान्यताओं को किस तरह से आपस में जोड़ते हैं, इसे हम राही मासूम रजा के विचारों से कुछ इस तरह से समझ सकते हैं। राही मासूम लिखते हैं, “ कहते हैं कि जब यजीद की फौज ने कर्बला में हुसैन को घेर लिया तो हुसैन ने तीन बातें कहीं। उन्होंने कहा “मुझे मदीना लोट जाने दो।” घेरने वाले इस पर तैयार नहीं हुए। तब उन्होंने कहा, “मुझे यजीद के पास ले चलो।” लोग इस पर भी तैयार नहीं हुए। तब उन्होंने कहा, “मुझे हिंदुस्तान चला जाने दो।” लोग इस पर भी तैयार नहीं हुए। पता नहीं हुसैन ने हिंदुस्तान आने की बात की थी या नहीं, लेकिन हम यही मानते हैं कि शायद यही वजह है कि हिंदू भी हुसैन को हाथों-हाथ लेते हैं। मुझे नहीं मालूम कि कश्मीरी पंडितों में हुसैनी पंडितों का कोई सिलसिला है या नहीं, मगर गाजीपुर के एक डॉक्टर त्रिलोकीनाथ हुआ करते थे। वह अपने को हुसैनी पंडित कहा करते थे। हुसैन के साथ कोई कश्मीरी पंडित रहा हो या न रहा हो, लेकिन उसे इनकी हिंदुस्तानी कहानी की रगों में एक हिंदू का खून भी बह रहा है। हम लोग यह देखने का कष्ट ही नहीं उठाते भावात्मक एकता नारे लगाने से नहीं होती है। मोहर्रम को देखिए! भावात्मक एकता हो चुकी है।”10 राही मासूम रजा की यह फटकार उन लोगों के लिए इशारा मानी जा सकती है जो भारतीय समाज को केवल नारों तक ही एक देखते हैं।


नाटक का अंत बहुत ही रोचक तरीके से देखने को मिलता है। अलग-अलग देशों में घूमते हुए बरकतउल्ला को कई बरस बीत चुके है। प्रवास के दौरान गाँव के एक आदमी द्वारा उन्हे सूचना मिलती है कि उनकी पिताजी यानी पंडित जी का स्वर्गवास हो गया है। बरकतुल्लाह अपने गाँव लौटते हैं। जिस समय वे गाँव पहुँचते हैं, उनका वेश यह नाटककार ने कुछ इस तरह से बताया हैबरकतउल्ला का सिर मुंडा हुआ है। गले में जनेऊ पड़ी है। धोती बांधे हैं। पीठ पर एक गठरी है। बरकतुल्लाह पंडिताइन को देख हाथ जोड़ता है फिर पैर छूता है। पंडिताइन उसे गले से लगाकर जोर-जोर से रोने लगती है।”11 बरकतउल्ला का यह वेश यह दिखाता है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्य निभाने में किसी हद के दायरे में रहने की जरुरत नहीं है। असली धर्म मानवता है उसके लिए चाहे उसे किसी भी तरह का रूप या किसी भी तरह का कार्य क्यों ना करना पड़े, उससे उसको पीछे नहीं हटना चाहिए। अपने पिताजी यानी हिंदू पिता की आत्मा की मुक्ति के लिए वह अपनी पंडिताइन माँ से कहते हैं कि जो भी अनुष्ठान, कर्मकांड है, उनको परंपरा के साथ निभाएँगे और पिंड दान करने के लिए हरिद्वार जाएँगे। आगे नाटककार दिखाता हैं कि सूफी बरकतउल्ला हरिद्वार जाकर अपने हिंदू पिता गणेशी का पिंड दान करते हैं। क्रियाकर्म के दौरान वहाँ के पंडे उनका विरोध भी करते हैं। पर एक बड़ा पंडा वहाँ पहुँचकर स्थिति को अपने हाथ में ले लेता है और बरकतुल्लाह के साथ संवाद शुरू करता है। संवाद के बाद बड़ा पंडा इस बात को स्वीकार करता है कि मानव धर्म से बडा कोई धर्म नहीं है। इंसानियत के आगे सभी धर्म छोटी पड़ जाते हैं। नाटक का समापन इसी संवाद के साथ होता है।


निष्कर्ष :

असगर वजाहत का मानना है कि सामाजिक सद्भाव हर हाल में बना रहे। यह नाटक भारतीय साझा विरासत को रेखांकित करने के साथ-साथ आपसी सहयोग पर भी अपनी बात रखने में सफल हुआ है। इसके संवाद न केवल सहज जान पढ़ते हैं, बल्कि किसी भी समाज की मजबूती के लिए आवश्यक माने जा सकते हैं। नाटक की कथा वस्तु भले ही आज से दौ सौ साल पहले की हो, पर जिस तरह से इस नाटक को आज की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में रचा गया है, वह आज की जरुरत को रेखांकित करता है। लेखक अक्सर त्रिकाल दर्शी हुआ करता है। असगर वजह अपने इस नाटक के माध्यम से इस कथन को सही साबित करते हुए दिखते हैं। कहना गलत न होगा कि भारतीय समाज की जितनी खूबसूरती हम देखते हैं, उसे और संवारने में यह नाटक अपनी भूमिका निभाने में सफल रहा है।


संदर्भ :
1.   प्रेमचंद : प्रेमचंद : प्रतिनिधि संकलन (संपा. गजेंद्र ठाकुर), नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, तीसरी आवर्ती, 2013 पृ़. 161,162
2.    अमर्त्य सेन : भारतीय अर्थतंत्र : इतिहास और संस्कृति, राजपाल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ़. 26
3.    असगर वजाहत : असगर वजाहत के नाटक खंड 2 (संपा. हैदर अली), अनन्या प्रकाशन, नई दिल्ली, 2022, पृ़. 238
4.    वही, पृ़. 241
5.    रामधारी दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, दूसरा पेपर बेग संस्करण, 2017, पृ़. 312
6.    असगर वजाहत : असगर वजाहत के नाटक खंड 2 (संपा. हैदर अली), अनन्या प्रकाशन, नई दिल्ली, 2022, पृ़. 242
7.    वही, पृ़. 243
8.    वही, पृ़. 246
9.    वही, पृ़. 257
10. राही मासूम रजा : खुदा हाफिज कहने का मोड़ (संपा. कुंवर पाल सिंह), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ़. 149
11. असगर वजाहत : असगर वजाहत के नाटक खंड 2 (संपा. हैदर अली), अनन्या प्रकाशन, नई दिल्ली, 2022, पृ़. 259


जब्बर सिंह जसावत
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, भूपाल नोबल्स विश्वविद्यालय, उदयपुर
jabbersingh167@gmail.com9549368479


  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

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