अध्यापकी के अनुभव : कबाड़ में पड़ी आत्मा संस्मरण / डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर

अध्यापकी के अनुभव : कबाड़ में पड़ी आत्मा संस्मरण
- डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर




            समझ नहीं आता कहाँ से शुरू करूं। इस बार लिखते हुए काफी थकावट महसूस हो रही है। यह थकावट कोई शारीरिक नहीं है, बल्कि मानसिक होने के साथ-साथ भावात्मक भी है। जब बात आत्मा के संबंध में लिखनी हो तो स्थिति और भी जटिल हो जाती है। पिछली बार के संस्मरण में एक तरह से सूचनात्मक जानकारी आप लोगों के पास पहुँची। कुछ दोस्त फटकारने भी लगे, कहा, “जो शैली तुम्हारे लिखने की है, उसके साथ अब तुम समझौता करने लगे हो।इसके पीछे मुख्य कारण पिछले वाले संस्मरण काबागों में हमेशा बहार हैजैसा होना है। पर कर भी क्या सकते हैं जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसमें व्यक्ति केवल प्रशंसा सुनने का आदी है। आलोचना हमें नहीं सुहाती। जब समाज में फैली मुर्दा शांति को देखता हूँ तो कभी अवतार सिंह संधूपाशकीसबसे खतरनाक होनाकविता याद आती हैं तो कभी श्रीकांत वर्मा कीहस्तक्षेपकविता। यानी जो चल रहा है, वह ठीक-ठाक है, उसमें किसी भी तरह का बदलाव करना मूर्खता है। हम सरकारी दामादों को सिर्फ एक तारीख के मैसेज का इंतजार करना है, बस! बाकी सब कुछ प्रभु की कृपा से हो रहा है। ऐसा इसलिए अभी कहना पड़ रहा है क्योंकि जो व्यक्ति कुछ कर गुजरने का सोच कर निकलता है, उसे सिस्टम के कुछ लोग कैसे अपाहिज बना देते हैं, यह किसी से छुपा नहीं है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को ध्यान में रखते हुए राजस्थान में राज्य पाठ्यचर्या की रूपरेखा निर्माण की प्रक्रिया सितंबर, 2021 से शुरू हुई। शुरू-शुरू में ऑनलाइन वर्कशॉप होने के बाद आरएससीइआरटी उदयपुर में दिसंबर, 2021 में ऑफलाइन यानी फेस टू फेस वर्कशॉप आयोजित हुई। इस कार्यशाला में टाटा ट्रस्ट से जुड़ी सेंटर फॉर माइक्रोफाइनेंस (CMF) संस्था के उदयपुर जोनल कोऑर्डिनेटर दिलीप ओदिच्य से मुलाकात हुई। CMF आरएससीइआरटी के साथ मिलकर पुस्तकालय संवर्धन हेतु कार्य कर रही है। इसी संबंध में प्रत्येक जिले पर एक मॉडल लाइब्रेरी और उन जिलों में सौ अन्य स्कूल लाइब्रेरी के प्रोत्साहन का कार्य जारी है। इसी योजना के चलते प्रतापगढ़ की मनोहरगढ़ प्रयोगशाला में दिलीप जी के सहयोग से जिला स्तरीय मॉडल लाइब्रेरी लग चुकी है। तब इससे जुड़ी हुई प्रक्रिया को लेकर दिलीप जी से कई बार मिलना हुआ था। आरएससीइआरटी उदयपुर में दिलीप जी ने गर्मजोशी से बात करते हुए मेरे सामने एक प्रस्ताव रखा कि आप भी पुस्तकालय से संबंधित राज्य संदर्भ व्यक्ति यानी एसआरजी बन जाइए। यह योजना क्या है और एसआरजी क्या होता है ? इसकी मुझे बिल्कुल जानकारी नहीं थी।

कुछ दिनों बाद दिल्ली से एक कॉल आया। सामने वाले ने मुझसे पूछा कि क्या आप लाइब्रेरियन है? मेरा जवाब था, नहीं। अगला सवाल था कि आपका नाम लाइब्रेरी मास्टर ट्रेनर के लिए आया है, आप लाइब्रेरियन नहीं है तो फिर कैसे यह भूमिका निभा पायेंगे? मेरा जवाब था, “लाइब्रेरियन तो नहीं हूँ, बल्कि 11वीं - 12वीं के विद्यार्थियों के साथ पढ़ने-पढ़ाने का कार्य करता हूँ। हाँ, किताबें पलटने और खरीदने का शौक जरूर रखता हूँ। इसके साथ दिल में यह चाह भी है कि स्कूलों में लाइब्रेरी को लेकर के विशेष कार्य होने चाहिए।इस संक्षिप्त वार्ता में मेरी स्वीकृति लेने के बाद कुछ दिनों के अंतराल में उदयपुर आरएससीइआरटी द्वारा प्रशिक्षण के लिए बुलाया गया। बहुत उत्साह के साथ वहाँ पर पहुँचा। हॉस्टल के जिस कमरे में मुझे ठहराया गया उसी कमरे में CMF जोधपुर जोनल  कोऑर्डिनेटर राकेश भी थे। देर रात तक लंबी चर्चा होती रही। बहस जिस स्तर की थी, उससे लग रहा था कि लाइब्रेरी से जुड़े हुए लोग मझे हुए पाठक होते हैं और ज्ञान के खजाने होते हैं। इस उधेड़बुन और राकेश साहब के खर्राटों ने पूरी रात सोने नहीं दिया। मैं सोच रहा था कि काश मैं भी लाइब्रेरियन होता तो हमेशा किताबों के बीच रहता और रोज कुछ कुछ नया पढ़ने को मिलता। विद्यार्थियों के साथ भी कुछ कुछ काम करने को मिल जाता। लाइब्रेरियन मुझे चलते फिरते ज्ञान के भंडार जैसे लग रहे थे।

सुबह जब प्रशिक्षण शुरू हुआ तो धीरे-धीरे खुमारी उतरती गई। पराग और एकलव्य प्रकाशन के प्रशिक्षक भी यहाँ पर मौजूद थे। पराग के अनिल सिंह ने परिचय सत्र प्रारंभ किया। इसी परिचय सत्र में जब एक-एक प्रतिभागी से उनके द्वारा गत वर्ष में पढ़ी गई किताब के बारे में पूछा तो लाइब्रेरियन की कलाइयां खुलने लगी। मुझे जानकर बहुत अफसोस हुआ कि हमारे ज्यादातर लाइब्रेरियन पढ़ते नहीं है। और जो कोई थोड़ा बहुत पढता भी है तो वह केवल समसामयिक पत्र-पत्रिकाएं पढ़कर इति श्री कर लेता है। गंभीर साहित्य से ज्यादातर लाइब्रेरियन का दूर-दूर तक नाता नहीं था। कई पुस्तकालय अध्यक्ष अपनी लाइब्रेरी में एक चौकीदार की भूमिका निभा रहे हैं। मेरी भाषा कठोर हो सकती है, पर यह एक सच्चाई है। हमारे ज्यादातर पुस्तकालय प्रभारी किताबों की झाड़-पोंछ करने के अलावा कभी उन्हें पलटने का साहस नहीं कर पाते हैं। हो सकता है कि उनके ऊपर काम का दबाव बहुत ज्यादा होगा। लाइब्रेरी को लेकर लोगों की सोच भी अब बदल चुकी है। कई लोगों का मानना है कि लाइब्रेरी एक ऐसी जगह है जहाँ पर कंपटीशन की तैयारी की जाती है। कंपटीशन की तैयारी के लिए शहरों में बनने वालेरीडिंग खोमचेंही लाइब्रेरी होती है।

खैर जो भी हो, आखिरकार प्रशिक्षण शुरू हुआ। यह प्रशिक्षण बाल पुस्तकालय को लेकर दिया गया। यानी कक्षा 1 से 5 तक के विद्यार्थियों को पुस्तकालय से कैसे जोड़ा जाए? यही कुछ सीखने को मिला। प्रशिक्षण बहुत शानदार रहा। इस चार दिवसीय प्रशिक्षण में बुक टॉक, रीड अलाउड, खजाने की खोज, पुस्तकालय के आयाम, कहानी पर चर्चा, पुस्तकों के संग्रह, कविता बनाना, प्रश्नों पर चर्चा जैसी कई गतिविधियाँ हुई। इन गतिविधियों में जिस तरह से प्रतिभागी भाग ले रहे थे, वह इतना संजीदा था कि कोई भी प्रतिभागी इससे दूर नहीं रह पा रहा था। पुस्तकालय के भीतर भी इतने कार्य हो सकते हैं, यह पहली बार जाना। यह प्रशिक्षण 3 महीने तक चलने वाला था जिसमें दो बार हमें टाटा ट्रस्ट द्वारा फेस टू फेस प्रशिक्षित करना था, वही 3 महीने तक मैंटर के निर्देशन में हमें हमारे स्कूलों में अलग-अलग गतिविधियाँ करनी थी। यह सभी दिशा-निर्देश हमें इसी पहली मुलाकात में दे दिए गए। यहाँ से अलग-अलग गतिविधियाँ सीख कर स्कूल पहुँचा तो सोचा कि जो कुछ भी सीखा है, वह बच्चों पर लागू करने की कोशिश जरूर करूंगा।

पर जो हम सोचते हैं, वह होता कहाँ है। पांच कमरों में 12 कक्षाएं चलाने वाले स्कूल में लाइब्रेरी को जगह कहाँ मिल पाती। प्रशिक्षण के दौरान बताया गया था कि लाइब्रेरी स्कूल की आत्मा होती है। जब पुस्तकालय प्रभारी से लाइब्रेरी के बारे में पूछा तो एक कबाड़ से कमरे में बंद पड़ी अलमारी की तरफ इशारा कर दिया। यहाँ आत्मा अलमारी में बंद मिली। जगह का अभाव, काम का दबाव, संसाधनों की भारी कमी जैसे बुनियादी मुद्दे एक-एक करके सामने आने लगे। किताबों के फटने, चोरी होने जैसी चुनौतियाँ स्थिति को और भी जटिल बना रही थीं। काम कहाँ से शुरू करूं? सोच में पड़ गया। शुरुआत अपने संसाधनों से की, यानी जो 30-35 किताबें सेंटर फॉर माइक्रो फाइनेंस की तरफ से मिली, उन्ही किताबों को प्रयोग में लाने की बारी थी। कमरा नहीं तो क्या हुआ? गार्डन जिंदाबाद। स्कूल के आठ पीरियड में से 6 पीरियड अक्सर में कक्षा 11 और 12 के बीच बिताता। बाकी दो पीरियड और लंच ब्रेक पुस्तकालय से जुड़ी गतिविधियों के लिए समर्पित।

यह कार्य नियमित रूप से तो नहीं, पर हाँ, सप्ताह में दो या तीन बार अवश्य करने लगा। कक्षा 1 से 5 तक के विद्यार्थियों के साथ काम करने के लिए मुझे कहा गया, पर मैं बिना किसी हिचक के साथ यह कहना चाहता हूँ कि मैं यह कार्य कक्षा 6 से 9वी तक के विद्यार्थी के बीच ही कर पाया। इसके पीछे का मुख्य कारण यह है कि मेरी पहुँच जैसा कि आपको ज्ञात है छोटे बच्चों तक नहीं हो पाती है। ऐसे में उन्हें अनुशासित रखने और उनके साथ किताबों पर अलग-अलग गतिविधियाँ करना संभव नहीं हो पाया। खैर जो भी हो बड़े विद्यार्थी  ही सही पर उनके साथ जीवंत गतिविधियाँ जारी रही। स्कूल में यह नया बखेड़ा विद्यार्थियों को खूब रास आया। लैंडिंग कार्ड बनाना हो या नाटक पर चर्चा करनी हो, ऐसी कई गतिविधियाँ हमने की। विद्यार्थियों को किताबों का लेनदेन, फटी किताबों को रिपेयर करने के लिए किताबों के अस्पताल की ट्रेनिंग, जोड़ा पठन, साझा पठन, समूह पठन जैसी कई गतिविधियाँ होने लगी। आलम यह था कि विद्यार्थी अगले दिन मेरा इंतजार करते थे। स्कूल में घुसने से पहले ही मुझे घेर लेते थे और कहते थे कि प्रार्थना बाद में बोलेंगे, पहले हमें किताबें दीजिए। लंच टाइम के समय भी कई विद्यार्थी लंच छोड़कर किताबें पढ़ने के लिए भाग आते। एक बार तो पोषाहार प्रभारी ने भी कहा कि इधर आप किताबें पढ़ना शुरू करते हैं उधर बच्चे खाने की थाली छोड़कर भाग आते हैं। असल में उनको किताबों की भूख या यूं कहे कि किताबों का चस्का लग चुका था।

चूँकि यह पूरा प्रशिक्षण छोटी कक्षाओं के लिए था और मेरी पहुँच बड़ी कक्षाओं तक है, ऐसे में मुझे अपनी पहुँच वाले विद्यार्थियों को भी इससे जोड़ना जरूरी था। इसके लिए एक नया रास्ता निकाला। प्राइमरी के बच्चों की किताबें उनके लिए विशेष उपयोगी नहीं है, यह जानकर 200 किताबें जो घर पर थी, वह उठा लाया। स्कूल में लाकर कक्षा 11 के भीतर रख दिया और डेढ़ सौ किताबें स्कूल की लाइब्रेरी से अपने नाम पर इशू करवा ली। इस तरह से कक्षा 11 मेंकक्षा पुस्तकालयकी शुरुआत हुई। जगह तो है नहीं हमारे पास, पर फिर भी दीवारों पर कीले टांगकर डोरियों, कमरे की ताकों या फिर बेंच पर जमा कर हमने हमारा पुस्तकालय शुरू किया। कक्षा 11 के विद्यार्थियों को लेनदेन की जिम्मेदारी सौंप दी और इस तरह से हमारी यह लाइब्रेरीचिल्ड्रन लाइब्रेरी मैनेजमेंट कमेटीद्वारा चल पड़ी। कक्षा 11 और 12 के विद्यार्थी अब पढ़ने लगे हैं। ठीक इसी तरह से नीचे की कक्षाओं के विद्यार्थी भी अपनी रुचि के अनुकूल किताबें पढ़ने लगे।

गार्डन का पुस्तकालय बदलते मौसम के साथ कई चुनौतियाँ पैदा कर रहा था। बिना छत का पुस्तकालय आखिर में कब तक चलता था। ऐसे में विकल्प की खोज शुरू हुई। पुरानी बिल्डिंग जो जर्जर हो चुकी है, उसमे कबाड़ से भरा एक कमरा मिला। कमरे की साइज मात्र 8 फीट लंबा और 6 फीट चौड़ा। उसमें हमारा पुस्तकालय शुरू हुआ। उस खंडहरनुमा कमरे को कक्षा 11 के विद्यार्थियों ने बढ़िया से झाड़-पोंछकर तैयार किया और पुस्तकालय नाम रखा उसका सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय। इस पूरे घटनाक्रम में हमें 3 महीना का जो समय दिया गया, वह समाप्त हो रहा था। हमारे मेंटर टीचर नवनीत सप्ताह में 2 दिन 2- 2 घंटे जरूरी दिशा-निर्देश देने के साथ-साथ हमारे कार्य की प्रगति देखा करते थे। ऑनलाइन तरीके से होने वाली इस मीटिंग में हम पांच प्रतिभागी अपनी-अपनी प्रस्तुति देते। बाल साहित्य को पढ़ते हुए मैंने यह जाना कि जिस तरह का पूर्वाग्रह बाल पुस्तकालय या बाल साहित्य को लेकर के हम पाले हुए हैं, वह बहुत ही गलत है। असल में कई पुस्तकें ऐसी है जो बाल साहित्य की होने के साथ-साथ बड़ों के साहित्य को भी टक्कर देने का काम करती है। इन किताबों में प्यारी मैडम, जामलो चलती रही, स्त्री का पत्र, मितवा, गधे पर पुस्तकालय, काली और धामिन सांप जैसी प्रमुख है जो देश की समसामयिक समस्याओं पर चर्चा करने के साथ-साथ गंभीर प्रश्न भी खड़े करती है।

तीन माह बाद अब हमें वापस उदयपुर मिलना था। इसी बीच एक घटनाक्रम सामने आया। पराग की एक वेब साइट हैमूडल।इस पर प्रशिक्षण लेने वाले प्रतिभागियों को कुछ किताबें पढ़नी होती हैं। इसी प्रक्रिया में हमारे किसी साथी ने किसी किताब में आई कहानी जो सामाजिक गैर बराबरी को दर्शाती हैं, उस कहानी में मौजूद संवेदनात्मक पहलुओं को ग्रुप में साझा किया। हमारे प्रशिक्षक अनिल सिंह ने चाहा कि सामाजिक समस्या से जुड़े इस क्रूर यथार्थ पर हमारे सभी साथी अपनी राय रखें। मत-भिन्नता हमारे समाज की विशेषता है, इसी विशेषता का आदर करते हुए व्यक्ति को अपने विचार रखने की स्वतंत्रता हमारा संविधान देता है। इन आधार पर हमारे साथियों ने जब ग्रुप में विचार साझा किये तो अलग-अलग मत आना स्वाभाविक था।

पर धीरे-धीरे चर्चा बहुत बोझिल होने लगी। जब मैंने अपनी टिप्पणी रखी तो मामला दूसरी ओर निकल जाता है, यानी जो बहस गैर बराबरी को लेकर के शुरू हुई, वह भटक कर अब ट्रोलिंग के रूप में सामने गई। बहस काफी हल्के स्तर पर पहुँच गई यानी छिछली और तर्कहीन होने के साथ-साथदागों और भागोजैसी। कुछ लोगों की टिप्पणियां तो इतनी बेतुकी थीं कि हमारे एक साथी और हमारे मेंटर नवनीत ने ग्रुप ही छोड़ दिया। यह सब देखकर मुझे इस बात का एहसास हुआ कि हमारे साथी सोशल मीडिया पर फैलाए जा रहे जहर से काफी प्रभावित हैं। जिस तरह की फेक न्यूज़ और आधी-अधूरी जानकारी इन प्लेटफार्म पर ट्रोल आर्मी द्वारा फैलाई जाती हैं, वह अब पढ़े-लिखे एक बहुत बड़े वर्ग को अपने में लपेटने में सफल रही है। सोशल मीडिया पर फैला हुआ कंटेंट इतना रोचक और तार्किक लगता है कि स्कूल और विश्वविद्यालय के समय जो कुछ भी पड़ा था, वह लोगों को गलत लगने लगता है।

दुर्भाग्य की बात यह भी है कि स्कूली शिक्षा के समय विद्यार्थी की पठन-पाठन की प्रक्रिया केवल अंक प्राप्त करने तक सीमित होती जा रही है जिसके चलते मानवीय संकाय से जुड़े विषयों पर वह पूरा फोकस नहीं हो पाता है। अंग्रेजी, विज्ञान, गणित इतने हावी हो चुके हैं कि दूसरे विषयों पर ध्यान देना शिक्षकों और अभिभावकों को मूर्खता लगता है। नंबर और रोजगार की अंधी दौड़ के कारण स्कूली शिक्षा से ही पाठक को मारने की शुरुआत हो जाती है। विश्वविद्यालय में आने के बाद भी विद्यार्थी की स्थिति में विशेष बदलाव देखने को नहीं मिलता है। कॉलेज की बिल्डिंग परीक्षा केंद्र में बदलती जा रही है, उनमें विद्यार्थियों की कमी के प्रश्न यदा-कदा सभी जगह उठते रहते हैं। कॉलेज की कक्षाएं खाली है, पर उपस्थिति रजिस्टर में कैसे भर जाती है, यह तो वह रजिस्टर ही बता सकता है। कुंजी, पासबुक यहाँ तक कि वन वीक सीरीज को पढ़कर मास्टर आफ आर्ट्स बनने वाले विद्यार्थी क्या गंभीर पाठक बन पाते हैं? इसकी कल्पना करना भी एक मजाक के सामान लगता है। शिक्षक भी इसी तरह की पढ़ाई के द्वारा ऐन-केन तरीकों से पद पर पहुँचकर स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। फिर शिक्षक भी विद्यार्थियों को अपने मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जिसका एकमात्र उद्देश्य है, किसी भी तरह से नौकरी हासिल करना। पुस्तकालय की किताबें पढ़ने से समय की बर्बादी होती है, ऐसा कहने वालेगुरुओंकी कमी भी नहीं है। खैर अपने विलाप को मैं यही रोकता हूँ और ले चलता हूँ पुस्तकालय की ओर।

तो तीन महीने के प्रशिक्षण और ग्रुप में हुई गला काट बहस के बाद आरएससीइआरटी में हमारा पुनर्मिलन हुआ। यहाँ पर फिर तीन दिनों तक जम के विचार साझा होने के साथ-साथ सीखने का मौका मिला। इस बार हमारी भूमिका प्रशिक्षक के रूप में ज्यादा रही। हम सभी को अपनी अपनी प्रस्तुतियां देनी थी, पर ग्रुप में हुई खींचतान की छाया यहाँ पर भी मंडरा रही थी। प्रशिक्षण के बाद जब स्कूल में आकर कुछ नया करने का विचार किया तो पहले की चुनौतियां वापस सामने गई। सोचा कि इस बार विद्यालय के शिक्षक साथियों को साथ ले लूं तो शायद विद्यार्थियों से ज्यादा संवाद तो होगा ही, दूसरे साथी भी अपने कौशल द्वारा विद्यार्थियों को विद्यार्थी केंद्रित शिक्षा के लिए कुछ कुछ कर पाएंगे। पुस्तकालय का संचालन भी अब नियमित रूप से हो पाएगा, ऐसी भी में उम्मीद लगाए बैठा था। पर निराशा के साथ कहना पड़ रहा है कि मेरी अधिकत्तर इच्छाएं धूमिल हो गई।

हम जानते हैं कि ऐसे नवाचारों को लेकर रूढ़िवादी शिक्षकों की सोच, समस्याएं और पूर्वाग्रह सामने आ जाते हैं जैसे बच्चों का स्तर इसके लायक नहीं है, देहाती बच्चे भला लाइब्रेरी को क्या जाने, यार छोड़ो ये नए-नए चोचले, आओ शीशम की छाया का आनंद लो, जो ठाला बैठा होता है वही ऐसे नए-नए सफुगे स्कूल में लाता है, यार हमारा अनुभव तो कहता है कि लाइब्रेरी की किताबें बच्चों को भटकती है,  आपकी यह बुखार आपको मुबारक हमारे लिए तो कोर्स की किताबें और लठतंत्र जिंदाबाद। नए एवं वैज्ञानिक प्रयोग को लेकर ऐसे कई 'अमृत वाक्य' स्कूलों की फिजाओं में गूंजते रहते हैं। हां, अगर पुस्तकालय से जुड़ी कोई डाक बनानी हो या उससे जुड़ी कोई फोटो चाहिए तो जरूर ऐसी महान आत्माएं पुस्तकालय में दर्शन देने पहुंच जाती है। मुझे ऐसे अनुभव कईं बार हुए।

इन सब शिकायतों के बीच हमें एक बात समझने की जरूरत है वह यह है कि हम शिक्षक भी किताबों से लगातार दूर होते जा रहे हैं। इस वाक्य को कुछ इस तरह से कहना मुझे ठीक लगता है कि आज का शिक्षक पढ़ना नहीं चाहता।  आनंद के लिए, जानकारी के विस्तार के लिए, समझ विकसित करने के लिए, अपने विद्यार्थियों को नए-नए संदर्भ और उदाहरण देने के लिए, शिक्षक को नियमित पुस्तक पढ़ने की जरूरत होती है। पर वह अखबार के अलावा कुछ और पढ़ना अपने पद की गरिमा के प्रतिकूल समझता है। जब शिक्षक विद्यार्थी को लेकर कच्चा घड़ा, खाली घड़ा, मिट्टी का लोंदा, आटे का लोया, खाली स्लेट जैसे प्रतिमान अपने मानस में अंतिम रूप से स्थापित कर चुका है तो वह उसका 'भाग्य विधाता' भी बन चुका है। और 'भाग्य विधाता' सर्वज्ञ होता है उसे किसी भी तरह की किताब पढ़ने की जरूरत नहीं होती है। तब भला बताइए कि ये 'भाग्य विधाता' अपने द्वारा निर्धारित की गई सामग्री के अलावा दूसरी सामग्री के प्रति क्यों उदारता दिखाएंगे?

तमाम चुनौतियों के बावजूद अकेला अपने काम में जुटा रहा। माफ कीजिए यहाँ अकेला शब्द मुझे प्रयोग में नहीं लेना चाहिए था। असल में मेरे विद्यार्थी मेरी असली ताकत है। उनका सहयोग इस लाइब्रेरी में मैंने खूब लिया। फर्नीचर का निकलना, किताबों को जमाना, साफ-सफाई करना और कई अलग-अलग गतिविधियाँ करना यह सब शुरू होने लगा जिसमें मेरे कक्षा 11 के विद्यार्थी लगातार मदद करते रहे। कक्षा 1 से 8 तक के विद्यार्थियों के बीच जब भी मौका मिलता, ट्रेनिंग में जो चीज सिखाई गई वह गतिविधियाँ उनके बीच करता रहा।

अब इसके परिणाम पर अगर आऊं तो यह बहुत सुख देने वाला एहसास है। जो फसल लाइब्रेरी के माध्यम से स्कूल में लगाई, उसके पाठक अब सामने आने लगे हैं। कई विद्यार्थी तो नियमित पाठक बन चुके हैं जो नित्य नई पुस्तक पढ़ने के लिए मांगते रहते हैं। कक्षा 11 के विद्यार्थी खाली समय में कक्षा पुस्तकालय का लाभ उठा रहे हैं। ये पाठक अब अपने निबंधों और अन्य विषयों में पुस्तकालय की किताबों के संदर्भ दे रहे हैं। विद्यार्थी बताते हैं कि हम लोग पुस्तकालय की किताबें छुप-छुपकर भी पढ़ते हैं, क्योंकि कुछगुरुकोर्स की किताबों को पढ़ने पर ज्यादा जोर देते हैं। अन्य कक्षाओं के विद्यार्थी भी समय-समय पर हमारी कक्षा लाइब्रेरी से किताबें इशू करवाते हैं। एक बहुत बड़ा बदलाव यह हुआ कि हमारे प्रिंसिपल महोदय ने इस सारी प्रक्रिया के चलते लाइब्रेरी के महत्व को समझा और उन्होंने लाइब्रेरी के इंचार्ज को पुस्तकालय जिंदा करने के लिए कहा। अब विद्यालय का पुस्तकालय भी सक्रिय हो चुका है जो नियमित रूप से किताबें विद्यार्थियों को इशू कर रहा है। इसके समानांतर हमारा कक्षा पुस्तकालय भी लगातार ऊंचाइयां छू रहा है। कुछ ग्रामीण और कुछ एक बाहरी संस्था के लोग किताबें भी दान कर गए हैं। इन किताबों के माध्यम से विद्यार्थी चित्रकला और नवलेखन कला की ओर आकर्षित हो रहे हैं। यह सब कुछ सुकून देने वाला है।

अंत में मैं उस मुद्दे की ओर फिर से आना चाहता हूँ जो शुरू में छेडा था। विद्यार्थी तो किताबों में पूरा भाग ले रहे हैं, पर लाइब्रेरी की पुस्तकों को लेकर अभी भी हमारे विद्यालय के शिक्षक उदासीन है। वे पुस्तक पढ़ने की आदत नहीं डाल रहे हैं। जितना हो सके उतना किताबें उन तक पहुँचने का जुगाड़ भी विद्यार्थी कर रहे हैं, पर फिर भी रिजल्ट जीरो ही मिल पा रहा है। कार्य की अधिकता है या कुछ और कारण, यह तो मैं नहीं कह सकता पर यह स्थिति बनी हुई है। मेरे कुछ प्रश्न है, यह स्थिति क्या केवल एक विद्यालय की है? क्या विद्यालय की आत्मा केवल हमारे विद्यालय में ही कबाड़ में पड़ी है या फिर आपकी विद्यालय की भी ऐसी स्थिति है? और अगर इसका जवाब हाँ है तो आप बदलाव के लिए क्या कर रहे हैं? क्या  विद्यालय की आत्मा के साथ-साथ आपकी आत्मा भी मर चुकी है?

 

डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
व्याख्याता, राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय आलमास, ब्लॉक मांडल जिला भीलवाड़ा
dayrekgn@gmail.com, 9887843273

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

5 टिप्पणियाँ

  1. सर आपकी पंसीपल वाली बात में मजा आया।
    ओर तो पुरा मस्त है

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  2. डॉ. हेमंत कुमारमार्च 06, 2024 9:02 pm

    डायर साहब आपके 'अध्यापकी के अनुभव ' एक खास किस्म की बेचैनी से लबरेज हैं। आप उन गिनेचुने अध्यापकों में से हैं जो जिस्म और रूह हर लिहाज़ से अध्यापक हैं। जो कुछ कर गुजरना चाहते हैं।जो दस से चार और सात से बारह बजे वाले पार्ट टाइम मास्टर न होकर मास्टरी को जिंदगी बनाए हैं। पुस्तकालयों को लेकर सब जगह कमोबेश यही हाल है जो आपके संस्मरण में कलमबद्ध है। मैं अपनी जानकारी की चौहद्दी में यह जान पाया हूँ कि 'अपनीमाटी' संभवतया पहली पत्रिका है जो अध्यापकी और किताब कल्चर को इतनी अहमियत देती है, अध्यापकी के अनुभव और कैंपस के किस्से जैसे स्थायी स्तंभ ही नहीं जिसके संपादकीय भी अध्यापकी और विद्यार्थी पर चर्चा और चिंतन करते हैं। पुस्तकालय संस्कृति के पुनर्जीवन के लिए आपका यह संस्मरण ऐतिहासिक महत्त्व का है। आपकी कोशिशें काबिले सलाम हैं। इसके अलावा अच्छे लेखन के लिए भी आप मुबारकबाद कबूलिए।

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  3. आपके अनुभव पूरी शिक्षा प्रणाली और पुस्तकालय संस्कृति के लिए विचारणीय है और उससे भी कहीं अधिक शिक्षकों के किए। ये सच है की सरकारी विभाग में आने के बाद शिक्षक स्वयं को ब्रह्मा जी समझने लगते है अतः उन्हें अखबार पढ़ने के अलावा और कुछ पढ़ने की आवश्यकता महसूस नही होती। निजी क्षेत्र में भी हालात यही है, अंकों की अंधी दौड़ ने पठन संस्कृति का बहुत ह्रास किया है। पर ये भी उतना ही सच है की जो शिक्षक स्वयं पढ़ रहे है उनके विद्यार्थी भी पढ़ने में रुचि रखते है। हालांकि आपने स्कूल के अनुभव बताए जहां ज्यादातर सूचना और किताबों में लिखे को बच्चो के मस्तिष्क में ठूंस देना ही शिक्षा का अर्थ रह गया है। एक कहावत है नो नॉलेज विदाउट कॉलेज। पर हालात कॉलेजों में भी ऐसे ही है। वन वीक सीरीज पढ़ कर पास होने वाली पीढ़ी के निर्माण में शिक्षकों का ही दोष अधिक मानूंगा। जब मैं अक्सर अपने विद्यार्थियों से नई नई पुस्तकों की चर्चा करता हूं तो वे रुचि लेते है और कई बार मुझसे लेकर भी जाते है पढ़ने के लिए।

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  4. शानदार अभिव्यक्ति व अनुभूति

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  5. शानदार प्रस्तुती साहब! हर एक नवाचारों मे आनेवाले रुकावठें! आप सही प्रस्तुती किये। "हम जानते हैं कि ऐसे नवाचारों को लेकर रूढ़िवादी शिक्षकों की सोच, समस्याएं और पूर्वाग्रह सामने आ जाते हैं जैसे बच्चों का स्तर इसके लायक नहीं है, देहाती बच्चे भला लाइब्रेरी को क्या जाने, यार छोड़ो ये नए-नए चोचले, आओ शीशम की छाया का आनंद लो, जो ठाला बैठा होता है वही ऐसे नए-नए सफुगे स्कूल में लाता है, यार हमारा अनुभव तो कहता है कि लाइब्रेरी की किताबें बच्चों को भटकती है, आपकी यह बुखार आपको मुबारक हमारे लिए तो कोर्स की किताबें और लठतंत्र जिंदाबाद। नए एवं वैज्ञानिक प्रयोग को लेकर ऐसे कई 'अमृत वाक्य' स्कूलों की फिजाओं में गूंजते रहते हैं। हां, अगर पुस्तकालय से जुड़ी कोई डाक बनानी हो या उससे जुड़ी कोई फोटो चाहिए तो जरूर ऐसी महान आत्माएं पुस्तकालय में दर्शन देने पहुंच जाती है। मुझे ऐसे अनुभव कईं बार हुए।"

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