शोध आलेख : मीडिया ट्रायल : स्थिति और प्रभाव संबंधित खबरों का अध्ययन / प्रो. नीलम राठी

मीडिया ट्रायल: स्थिति और प्रभाव संबंधित खबरों का अध्ययन
- प्रो. नीलम राठी



शोध सार : मीडिया अपने सूत्रों से जुटाए गए आधे- अधूरे तथ्यों और अनुमान के आधार पर ही अपना निर्णय दर्शकों के लिए प्रसारित करती है।  इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि मामला अदालत में विचाराधीन हो और मीडिया अपना खुद का विश्लेषण, गवाही और नतीजा बताकर,काल्पनिक रूप से घटनाओं की शृंखला बनाकर, दृश्य निर्माण कर एक समानांतर केस चलाने लगे तो इसे मीडिया ट्रायल कहा जाता है। हालांकि निष्पक्षता के लिए अक़्सर मीडिया स्वनियमन का रास्ता अपनाती है. हमारा मानना है कि समाज में अपराध और राजनीति का गठजोड़ भी चरम पर है जहां पैसा और पावर का गठजोड़ सिर्फ मीडिया से ही डरता है। हमारा ये भी मानना है कि मीडिया ट्रायल  का होना भी बहुत ज़रुरी है क्योंकि  समाज में मौजूद पावर सेंटर्स को इस शब्द से बहुत परेशानी होती है

बीज शब्द : मीडिया ट्रायल, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निष्पक्ष परीक्षण, स्वनियमन

मूल आलेख : हमारे देश में प्रेस तथा मीडिया को कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बाद संविधान का चौथा स्तंभ माना जाता है। यह समाज की सामाजिक, कानूनी, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं पर प्रकाश डालता है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार 19(1) a में दिया गया है। नागरिकों को विचार और अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता असीमित रूप से प्राप्त नहीं है, अपितु इसका भी अधिकार क्षेत्र सीमित है, कोई व्यक्ति अपने क्रियाकलापों में केवल तब तक ही स्वतन्त्र है, जब तक उसके क्रियाकलाप से किसी अन्य व्यक्ति के मौलिक अधिकारों या उसकी स्वतंत्रता का हनन नहीं हो रहा है। यह अधिकार नागरिकों को उनके विचार समाज के समक्ष अभिव्यक्त करने की अनुमति देता है। लेकिन इसे मनमाने ढंग से उपयोग नहीं किया जा सकता है इसीलिए इसे अनुच्छेद 19(2) में वर्णित उचित प्रतिबंधों के साथ ही रखा गया है। -भाषण और अभिव्यक्ति की शक्ति निम्नलिखित दशाओं में प्रदान नहीं की जा सकती है जैसे विधि के संचालन को प्रभावित करना या राज्य को कोई कानून बनाने से रोकना। भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता के हित में, अदालत की अवमानना, मानहानि या अपराध के लिए उकसाने के संबंध में खंड(1)(a) लागू नहीं होगा1 उपरोक्त परिस्थितियों में कोई व्यक्ति अनु.19(a) में दिए अधिकार को न्यायालय द्वारा प्रवर्तित  नहीं करवा पाएगा। इसका मूल उद्देश विधि के शासन में स्वैच्छिकता और अराजकता को रोकना हैं। हालांकि निष्पक्षता के लिए अक़्सर मीडिया स्वनियमन का रास्ता अपनाती है. हमारा मानना है, समाज में अपराध और राजनीति का गठजोड़ भी चरम पर है जहां पैसा और पावर का गठजोड़ सिर्फ मीडिया से ही डरता है। हमारा ये भी मानना है कि मीडिया ट्रायल  का होना भी बहुत ज़रुरी है. समाज में मौजूद पावर सेंटर्स को इस शब्द से बहुत परेशानी होती है

मीडिया ट्रायल की संकल्पना -

मीडिया ट्रायल एक संवेदनशील अवधारणा है। जब भी कोई संवेदनशील घटना घट जाती है और मामला न्यायालय में विचाराधीन होता है तो लोगों के बीच उत्सुकता बढ़ जाती है और वे घटना की तह तक पहुंचना चाहते हैं।  हमेशा ब्रेकिंग न्यूज की प्रतीक्षा में रहने वाले समाचार पत्रों और टेलीविजन चैनलों द्वारा टीआरपी की दौड़ में प्रथम स्थान पर रहने की अभिलाषा में मीडिया संस्थान तथ्यों की अपनी व्याख्या प्रकाशित एवं प्रसारित करना शुरू कर देते हैं । यूं तो इसे हम खोजी पत्रकारिता की श्रेणी में रखते हैं और यह भारत में प्रतिबंधित भी नहीं है। लेकिन मीडिया की व्यापक पहुँच के कारण जब अदालत में विचाराधीन और कभी कभी तो पहुँचने से भी पूर्व अखबारों और टेलीविजन के माध्यम से मीडिया कवरेज द्वारा व्यक्ति की निर्दोषता या अपराध का अभियुक्त होने की घोषणा जनता के समक्ष कर दी जाती है,उसे मीडिया ट्रायल कहते हैं। मीडिया ट्रायल में अभियुक्त निर्धारण का आधार मेरिट पर नहीं हो कर विशेष मीडियाकर्मियों द्वारा जुटाए गए तथ्यों के आधार पर किया जाता है। जिसमें जनता के लिए मनोरंजक और रोमांच का समन्वय भी भरपूर मात्रा में होता है। मीडिया अपने सूत्रों से जुटाए गए आधे अधूरे तथ्यों और अनुमान के आधार पर ही अपना निर्णय दर्शकों के लिए प्रसारित  कर देती है।  इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि मामला अदालत में विचाराधीन हो और मीडिया अपना खुद का विश्लेषण, गवाही और नतीजा बताकर,काल्पनिक रूप से घटनाओं की शृंखला बनाकर, दृश्य निर्माण कर एक समानांतर केस चलाने लगे तो इसे मीडिया ट्रायल कहा जाता है।

        “मीडिया ने अब खुद को जनता अदालत या 'सार्वजनिक अदालत' में बदल लिया है और अदालत की कार्यवाही में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है। अपराधी और अभियुक्त के बीच के महत्वपूर्ण अंतर को मीडिया द्वारा 'दोषी साबित होने तक निर्दोषता की धारणा' और 'उचित संदेह से परे अपराध' के मूलभूत सिद्धांतों को दांव पर लगाकर पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है। अब जो देखा जा रहा है वह मीडिया द्वारा की गई एक अलग जांच है जिसे मीडिया ट्रायल कहा जाता है। जांच के साथ-साथ इसमें अदालत द्वारा मामले का संज्ञान लेने से पहले ही संदिग्ध या आरोपी के खिलाफ जनमत तैयार करना शामिल है। इसके परिणाम स्वरूप, जनता पूर्वाग्रह से ग्रसित है जिसके कारण अभियुक्त को जिसे निर्दोष माना जाना चाहिए था, अपने सभी अधिकारों और स्वतंत्रता को अप्रतिबंधित छोड़कर एक अपराधी माना जाता है”2 मीडिया ट्रायल किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर समाचार पत्रों और टेलीविजन के कवरेज के प्रभाव का लाभ उठाते हुए अदालत में विचाराधीन केस के संबंध में अदालत के फैसले से पहले अपराधी या बेगुनाही की व्यापक धारणा बनाने को कहते है। समकालीन समय में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जिनमें मीडिया ने आरोपी के खिलाफ मीडिया ट्रायल कर न्यायालय द्वारा फैसला सुनाए जाने से पहले ही अपना फैसला सुना दिया।

मीडिया ट्रायल की वर्तमान स्थिति -

            आपराधिक मामलों में मीडिया ट्रायल को लेकर सुप्रीम कोर्ट का बड़ा दखल, केंद्र से गाइडलाइन बनाने को कहा।  सीजेआई  डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि मीडिया ट्रायल से न्याय प्रशासन प्रभावित हो रहा है। पुलिस में संवेदनशीलता लाना जरूरी है। जांच का ब्यौरे का खुलासा किस चरण में हो ये तय करने की जरूरत है।ये बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है, क्योंकि इसमें पीड़ितों और आरोपी का हित शामिल हैं, साथ ही बड़े पैमाने पर जनता का हित शामिल है।अपराध से जुड़े मामलों पर मीडिया रिपोर्टिंग में सार्वजनिक हित के कई पहलू शामिल होते हैं। बुनियादी स्तर पर बोलने और अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार सीधे तौर पर मीडिया के विचारों और समाचारों को चित्रित करने और प्रसारित करने के अधिकार दोनों के संदर्भ में शामिल है। हमें मीडिया ट्रायल की अनुमति नहीं देनी चाहिए.3

           -आरुषि मामले में मीडिया ऐसे ही कर रहा था. हम मीडिया को रिपोर्टिंग करने से नहीं रोक सकते। लेकिन पुलिस को संवेदनशील होने की जरूरत है4

             पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग से जनता में यह संदेह भी पैदा होता है कि उस व्यक्ति ने कोई अपराध किया है। मीडिया रिपोर्टें पीड़ित की निजता का भी उल्लंघन कर सकती हैं. किसी मामले में पीड़ित नाबालिग हो सकता है। पीड़ित की निजता प्रभावित नहीं होनी चाहिए।  मीडिया ब्रीफिंग के लिए पुलिस को कैसे प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।हमारे 2014 के निर्देशों पर भारत सरकार ने क्या कदम उठाए हैं? केंद्र की ओर से ASG ऐश्वर्या भाटी ने कोर्ट को आश्वस्त किया कि सरकार मीडिया ब्रीफिंग को लेकर दिशानिर्देश तय करेगी. सरकार कोर्ट को उससे अवगत कराएगी5

            सुप्रीम कोर्ट जहां अदालत की स्थिति को लेकर चिंतित है । वहीं उसे प्रभुत्वशाली शक्तियों के समक्ष दम तोड़ते गवाहों और अदालत की लंबी प्रक्रिया से जूझते आम आदमी और मिटते और मिटाते सबूतों की चिंता भी होनी चाहिए। वास्तव में मीडिया की शक्ति के समक्ष चरित्र हनन से बचने की जद्दोजहद भी अधिकारियों को परिश्रम से प्रमाण जुटाने और तथ्यों की बारीक पड़ताल के लिए भी प्रेरित करती है। निर्भया केस में अपराधी का ये कहना कि अब मामला मीडिया में बहुत उछल गया है। अब बचकर निकलना बहुत मुश्किल है। मीडिया की ताकत का हलफ़नामा दर्ज  करता  है .

            भारत के अटार्नी जनरल के वेणु गोपाल ने मीडिया ट्रायल को लेकर चिंता जताते हुए कहा कि कई विचाराधीन मामलों पर मीडिया की टिप्पणी अदालत की अवमानाना के समान है । आज प्रिन्ट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लंबित मामलों पर बिना रोक टोक टिप्पणियाँ करते हैं। जजों और आम जनता की सोच को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं। ---जब कोई जमानत याचिका आती है तो चैनल अभियुक्त और किसी के बीच की बातचीत को दिखाने लगते हैं। --उनकी इस टिप्पणी को सुशांत राजपूत और रिया चक्रवर्ती केस से जोड़कर देखा गया । जिसमें कई चैनलों ने वर्टशेप चैट के हिस्से दिखाए थे। -- जिस दिन रफाल मामले पर सुनवाई होने वाली थी उसी दिन एक आर्टिकल छपा जिसमें कुछ दस्तावेजों के साथ टिप्पणी की गई , इस मसले को हल करना जरूरी है6  शीर्ष अदालत ने भी 2012 में कहा था कि अगर लगता है कि मीडिया कवरेज से किसी ट्रायल पर उल्टा असर पड़ सकता है, तो मीडिया को उस मामले की रिपोर्टिंग से अस्थायी तौर पर रोका जा सकता है। प्रेस की स्वतंत्रता के पश्चात भी न्यायालय की अवमानना और अभियुक्त की मानहानि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध का आधार हो सकती है। प्रसिद्द खिलाडी सुशील कुमार द्वारा सागर हत्याकांड में सुशील कुमार की माताजी द्वारा मीडिया ट्रायल को रोकने की अर्जी कोर्ट में लगाया जाना  और कोर्ट द्वारा उसे ख़ारिज किया जाना इसका जीवंत उदाहारण है

            आज हमारे  देश में कई मामले तो ऐसे है जिन्हें मीडिया चैनल्स अनावश्यक ही कवरेज देते हैं। अलग अलग शोज चलाना या कुछ अन्य जानकर विशेषज्ञों को आमंत्रित करके डिबेट करवाना या फैक्ट चेकर्स वाले कार्यक्रम चलाना और अपना निर्णय जनता को बता देना, यही सब प्रचलन में हैं। साथ ही अब सोशल मीडिया पर भी विडियोज और लेख पोस्ट किए जाते है जिससे दर्शकों को ज्यादा से ज्यादा आकर्षित किया जाय। सोशल मीडिया यूजर्स वही पर निश्चित करके अपना निर्णय दे देते है कि वे किस पक्ष के साथ है। ये पक्षधरता की स्थिति वास्तव में पत्रकारिता  के उद्देश्य को ही समाप्त कर देती है । क्योंकि पत्रकारिता का उद्देश्य निष्पक्ष और पक्षधरता रहित समाचार देना है और आज का सोशल मीडिया उसी पक्षधरता के साथ कदमताल करता है। उसी को पैमाना बना के आज की मीडिया अपना एजेंडा चलाना शुरू करती है। ऐसी सूचना प्रसारित करती है जो लोग देखना चाहते है न की वो जो सत्य है। कभी कभी लोगों के नाम पर भी अपना छुपा हुआ एजेंडा प्रसारित करती है।  यदि इस प्रकार से मीडिया वाले स्वयं ही न्यायाधीश का कार्य करने लगेंगे तो देश की अदालत क्या करेगी? क्या सत्य की महिमा इस बात से कम हो जाती है कि उसे कहने वाला कोई एक ही है? जैसे वाक्यांशों का दुरुपयोग कर के मीडिया द्वारा जनता की बात को उच्चाधिकारियों तक पहुंचा तो देती है पर साथ में अपना एकपक्षीय निर्णय भी स्वयं ही देती हैं। लेकिन जब मीडिया अपने ही निहित हितों के लिये ऐसे हथकंड़े अपनाने लग जाए तब परिस्थिति अवश्य ही गंभीर हो सकती हैं। भारत में जनसंख्या अधिक होने के कारण यहां के यूजर्स और दर्शकों की संख्या अधिक है। इसी का फायदा उठाते हुए चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने में लगे रहते है। भारत में हमने अनेक मुद्दों और घटनाओं में मीडिया ट्रायल देखा है, जहां भारतीय न्यायपालिका के फैसले से पहले, मीडिया चैनल एक आरोपी का इस तरह से पिक्चराइजेशन  करते हैं कि आम जनता उसे अपराध का दोषी मानने लगती है। हमारे सामने पूर्व में मीडिया ट्रायल के द्वारा जेसिका लाल मर्डर केस आता है  जब सबूतों के अभाव में आरोपियों को बरी कर दिया गया तो मीडिया ने दबाव बनाकर बंद केस को पुन: खोलने पर विवश किया । यही मीडिया ट्रायल की शक्ति भी है। लगभग यही स्थिति निर्भया बलात्कार कांड में बनी जिसमें मीडिया रिपोर्टिंग ने निर्भया के लिए न्याय और यौन हिंसा के खिलाफ सख्त कानून की मांग को लेकर देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू किया था । यहां, मीडिया ने न्यायिक  सुधार को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एवं नीतीश कटारा मर्डर का मामला काफी हद तक सार्थक साबित हुआ था। लेकिन आरुषि तलवार हत्याकांड इसके विपरीत उदाहरण है इसमें मीडिया ट्रायल द्वारा सनसनीखेज रिपोर्टिंग और निराधार अनुमानों ने लोगों के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाला। अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के पश्चात की मीडिया कवरेज भी मीडिया ट्रायल की ही कैटेगरी में आती हैं। गोपनीयता महत्वपूर्ण है  लेकिन अधिकांश प्रेस संगठनों ने अभिनेता की मौत की समानांतर जांच शुरू की बैंक खाता डेटा, निजी संदेशों, तस्वीरों और वीडियो की जानकारी का खुलासा किया। परिणामस्वरूप दोषी साबित होने तक निर्दोष की अवधारणा भी प्रभावित हुई है। निजता का अधिकार, गोपनीयता का कानून, न्यायालय की अवमानना और मानहानि सभी कानूनों का उल्लंघन देखने को मिला। ऐसे में बहस इस पर भी होनी चाहिए कि न्यायिक प्रक्रिया को कैसे सरल बनाया जाए। आज न्यायिक व्यवस्था पर व्यापक दबाव है। लिहाजा न्यायिक सुधार का मामला भी एक बड़ी चुनौती है। न्यायिक सुधार की दिशा में तेजी से क्रियान्वयन किया जाना चाहिए। न्यायपालिका को चाहिए कि गंभीर और संवेदनशील विषय पर वह अविलंब रोडमैप बनाते हुए कार्य करे और सुधार को एक दिशा प्रदान करे।

मीडिया ट्रायल के प्रभाव : अभी तक की मीडिया ट्रायल संबंधी खबरों की पड़ताल करने पर हम पाते हैं कि इससे न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है। इससे दर्शक ,पाठक अथवा श्रोता घटना का विश्लेषण पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर करने लगता है क्योंकि उसकी चेतना पर हर समय चलते रहने वाले मीडिया का प्रभाव हावी रहता है। इससे अभियुक्त यदि वह निर्दोष है तो उसका चरित्र हनन होता है । समाज में उसके मान सम्मान को हानि पहुँचती है। प्रशासन पर भी मीडिया का दबाव बढ़ता है। सोशल मीडिया में रेगुलेशन अथॉरिटी उतनी प्रभावी नहीं है अत: वहाँ उपयुक्त निर्णय न होने पर न्यायधीशों के विरोध में अभियान भी चलाए जाते देखे गए हैं। कभी कभी इन अभियानों के सार्थक परिणाम भी सामने आते हैं। जैसे सेम सेक्स मैरिज कानून पर सुनवाई से पूर्व सोशल मीडिया अभियान। न्यायालयों में लंबित मुद्दों पर मीडिया में गैर-सूचित, पक्षपातपूर्ण और एजेंडा संचालित बहस न्याय वितरण को प्रभावित कर रहा है। निजता पर आक्रमण करते हैं जो एकांतता के अधिकार के उल्लंघन का कारण बनता है। नकली और असली में भेद न कर पाना सम्मिलित हैं। साथ ही  मीडिया ट्रायल के समय मीडिया उन घटनाओं का वर्णन भी कर देता है जिन्हें गुप्त रखा जाना चाहिये। मीडिया तकनीक में व्यापक विस्तार की क्षमता है लेकिन वे सही और गलत, अच्छे तथा बुरे एवं असली व नकली के बीच अंतर करने में असमर्थ हैं। इसने उन अभियुक्तों  के कैरियर को समाप्त करने का भी काम किया है, केवल इस तथ्य से कि वे आरोपी थे, भले ही उन्हें न्यायालय द्वारा दोषी नहीं ठहराया गया हो या वे किसी साजिश के शिकार ही क्यों न हुए हों । कई मामलों में समाज में विभिन्न समुदायों के बीच नफरत, हिंसा एवं वैमनस्य पैदा करने का कारण ही बने हैं। इससे समाज में वस्तुनिष्ठ पत्रकारिता की कमी हुई लेकिन  सामाजिक जबाबदेही से पत्रकारिता दो चार होती भी नजर आई है। इसलिए मीडिया कर्मियों को अपने विवेक का प्रयोग मीडिया ट्रायल मामलों को तय करने में एक मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।

भारत में मीडिया नियमन के कानूनी प्रावधान -

        भारत में मीडिया विनियमन  केबल टीवी नेटवर्क रेगुलेटर 1995 तथा प्रसार भारती अधिनियम 1990,प्रसारण सेवा विनियमन विधेयक 2023 केंद्र सरकार को 'सार्वजनिक हित' में, केबल टीवी नेटवर्क बंद करने या किसी प्रोग्राम को प्रसारित होने से रोकने का अधिकार देता है। इन्हें सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा प्रसार भारती द्वारा नियंत्रित किया जाता है। अगर किसी प्रसारण से देश की अखंडता, सुरक्षा, मित्र  देश के साथ दोस्ताना संबंध, सामाजिक सुव्यवस्था, शिष्टाचार या नैतिकता पर बुरा असर पड़ता हो तो सरकार कार्यवाही कर सकती है। इसके उल्लंघन की दशा में चैनलों पर एक्शन लिया जा सकता है। प्रोग्राम कोड में धर्म या किसी समुदाय के ख़िलाफ़ भावनाएं भड़काना, झूठी जानकारी या अफ़वाहें फैलाना, अदालत की अवमानना, औरतों या बच्चों का अशिष्ट  चित्रण आदि शामिल हैं। क़ानून के उल्लंघन पर अधिकतम पांच साल की सज़ा और दो हज़ार रुपए जुर्माने का प्रावधान है। इसके अलावा, भारतीय दंड संहिता की धारा 505 के तहत अगर कोई ऐसे बयान, रिपोर्ट या अफ़वाह को प्रकाशित या प्रसारित है जो किसी विशेष समुदाय के ख़िलाफ़ अपराध करने के लिए लोगों को उक़साने का काम करे तो उसे तीन साल तक की सज़ा और जुर्माना हो सकता है।

            इसके अतिरिक्त भी भारत में मीडिया नियमन के प्रमुख रूप से चार निकाय है।

1 भारतीय प्रेस परिषद :इसका उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखना और भारत में समाचार पत्रों व समाचार एजेंसियों के मानकों को बनाए रखना और उनमें सुधार करना है।

2 समाचार प्रसारण मानक प्राधिकरण : यह एक न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन द्वारा स्थापित एक स्वायत्त निकाय है।

3 प्रसारण सामग्री शिकायत परिषद : यह सभी गैर – समाचार सामान्य मनोरंजन चैनलों से संबंधित शिकायतों को देखने के लिए एक स्व – नियामक निकाय है।

4 न्यूज ब्रॉडकास्टर्स  एसोसिएशन : यह निजी टेलीविजन समाचार और समसामयिक घटनाओं के ब्रॉडकास्टर्स का प्रतिनिधित्व करता है।


निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि वर्तमान में भारत में अनेक  न्यूज़ चैनल काम कर रहे हैं। ऐसी सूरत में, दिन- रात उनके कंटेंट पर नज़र रखना संभव नहीं है। मीडिया पीड़ित, आरोपी, गवाहों के समानांतर अनुचित प्रचार न करे और ऐसी किसी भी जानकारी का खुलासा न करे जो गोपनीय हो जिससे जांच की प्रक्रिया में बाधा या पूर्वाग्रह हो। यह भी आवश्यक है कि मीडिया किसी गवाह की पहचान न करे क्योंकि तब उनके पीछे हटने या मुकरने  की संभावना बढ़ जाती है। मीडिया को मामले का कोई समानांतर अभियोग नहीं चलाना चाहिए जो न्यायाधीश या मामले पर निर्णय लेने वाली जूरी पर अनुचित दबाव डालता है। देश का नागरिक होने के नाते, हमें देश के अन्य हिस्सों में होने वाले विभिन्न मुद्दों और घटनाओं के बारे में सूचित करने का अधिकार है। लेकिन जब यह अपने दर्शकों या पाठकों के मन में पूर्वाग्रह पैदा करने की हद तक पहुँच जाता है, वहाँ यह अनुचित हो जाता है। लेकिन समाज को जागरूक करने की अपनी भूमिका को भी  विस्मृत नही करना चाहिए. लेकिन जहां बचाव पक्ष या यूं कहें कि पीड़ित पक्ष कमजोर है उसके हित में खड़े होना और उसे न्याय दिलाने हेतु मीडिया द्वारा चलाया जाने वाला अभियान स्तुत्य है। आज भी मीडिया अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन पूरे दायित्वबोध के साथ कर रहा है। मीडिया की भूमिका के लिए आज तो यहाँ तक भी कहा जाता है कि जिसका कोई नहीं उसका मीडिया है। लेकिन आज विचारधारा इतनी प्रभावी हो गई है कि एक ही घटना पर मीडिया के भी दो धुर विरोधी पक्ष और विचार सुनने को मिल जाते हैं। एक उसे पूर्णत: निर्दोष और दूसरा पक्ष उसे पूर्णत: दोषी करार देता है। संजय दत्त केस में मीडिया की लगभग यही स्थिति थी।


संदर्भ :
1 https://hindi.livelaw.in/category/columns/media-trial-and-its-consequences-206054:
2  भारत में मीडिया ट्रायल के प्रसिद्ध मामले , वान्या वर्मा https://blog.ipleaders.in/famous-cases-media-trials-india/
एनडीटीवी इंडिया न्यूज पोर्टल ,आशीष भार्गव,13सितंबर 2023 https://ndtv.in/india/supreme-court-on-media-trial-in-criminal-cases-4385702
4 वरिष्ठ वकील वेणुगोपाल,  वही
5 दैनिक भास्कर न्यूज पोर्टल https://www.bhaskar.com/national/news/supreme-court-on-media-trial-guidelines-131833388.html
6 बी बी सी न्यूज हिन्दी ,गुरप्रीत सैनी संवाददाता, नई दिल्ली , 16 अकटूबर,2020  https://www.bbc.com/hindi/india-54555336

 

प्रो. नीलम राठी
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, अदिति महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली 
9873910379

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

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