शोध आलेख : काशी में स्तूप, विहार एवं मंदिरों की आध्यात्मिक उपादेयता / पवन कुमार

काशी में स्तूप, विहार एवं मंदिरों की आध्यात्मिक उपादेयता
- पवन कुमार


शोध सार : प्राचीन काल में काशी धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात रही है। यहाँ पर धर्म व शास्त्रीय ज्ञान की निर्बाध परम्परा का सतत् विकास हुआ। यहाँ बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण व अन्य धर्मों एवं संस्कृति की विविधता को आवरण मिला है। काशी भारत के विभिन्न राज्यों, भाषाओं एवं संस्कृतियों के लोगों का निवास स्थली रही है। यह नगरी अपने आध्यात्मिक ज्ञान, तीर्थयात्रा, पर्यटन, व्यवसाय आदि से ओत-प्रोत रही है। काशी न केवल धार्मिक आस्था एवं बहुमुखी सांस्कृतिक परम्पराओं को दीर्घकाल तक संजोने में सक्षम रही है, बल्कि भौतिक उपलब्धियों के अर्जन का एक महत्वपूर्ण आधार रही है। यहाँ के अनेक पुरास्थलों से प्रतिवेदित पुरावशेषों से मानवीय जीवन के विविध पक्षों पर वृहद प्रभाव पड़ता है। आध्यात्मिक संस्कृति के सम्बन्ध में साहित्य तथा पुरातत्व दोनों ही साक्ष्यों की अति महत्ता हैं। इनके अतिरिक्त काशी में आये विदेशी यात्रियों के यात्रा-वृतान्त भी सहायक सिद्ध हुए हैं। ब्राह्मण, बौद्ध व जैन ग्रंथों में उल्लेखित यहाँ के कुण्ड, घाट, नदी-तड़ाग, पर्णशालाएँ इत्यादि के साथ ही उत्खनित पुरास्थलों यथा- राजघाट, अकथा, सारनाथ, कोटवाँ, ओरियाघाट, अगियाबीर, शूलटंकेश्वर, सराय-मोहाना आदि से प्रतिवेदित मुहरें, मृदभाण्ड, प्रस्तर व मृण्मूर्तियों, स्तूप, विहार और मंदिर इत्यादि पुरावशेषों से यहां की आध्यात्मिक संस्कृति को समझा जा सकता है।

बीज शब्द : काशी, स्तूप, विहार, मंदिर, आध्यात्मिक, संस्कृति, पुरातत्व, साहित्य, ब्राह्मण, बौद्ध।

मूल आलेख : काशी प्राचीन काल से स्तूप एवं विहारों की नगरी रही है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने भारत यात्रा-वृतान्त में वर्णन करता है कि “सारनाथ में अनेक स्तूप एवं विहारों का निर्माण किया गया था।”(1) बौद्ध धर्म में तथागत बुद्ध के पवित्र अस्थि-अवशेषों का आस्था की दृष्टि से बहुत ही महत्व है। इन अस्थियों पर निर्मित स्तूपों का पूजन-अर्चन एवं दर्शन करके व्यक्ति निर्वाण सुख भागी समझता है। बौद्ध धर्म में चार प्रकार के व्यक्तियों की अस्थियाँ पवित्र मानी जाती है जिनमें बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध, अर्हत एवं चक्रवर्ती राजा। इन्हीं व्यक्तियों के अस्थियों को समाधिस्थ कर स्तूप बनाये जाते थे।(2) स्तूप निर्माण का प्रचलन तथागत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात हुआ। जिस समय तथागत बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ, तब उनके अस्थिवशेषों को लेने के लिए अजातशत्रु, शाक्य, बुली, कोलिय, मल्ल तथा लिच्छवि आदि शासकों में पारस्परिक युद्ध की अशंका उपस्थित हो गई।(3) इन सभी शासकों ने बुद्ध के अस्थिवशेष को लेकर स्तूप बनवाये। इन स्तूपों से भगवान बुद्ध के अस्थि से अवशेषों से निकालकर सम्राट अशोक ने 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया, जिनमें सारनाथ का धर्मराजिका स्तूप प्रमुख है।

स्तूप के प्रकार -

              तथागत बुद्ध ने अपने जीवन में मध्यमप्रतिपदा संदेश दिया तथा विपश्यता को महत्वपूर्ण माना। तथागत के अनुवायियों ने बुद्ध की उपासना किसी न किसी भौतिक स्वरूप अर्थात आराध्य व पूज्य हेतु मूर्ति बनाना चाहा, तो तथागत ने स्वयं उस कार्य को करने से निषिद्ध माना। लेकिन बुद्ध के महापरिनिर्वाण के उपरान्त प्रतीक पूजा के स्वरूप स्तूप पूजा की परम्परा प्रचलित हुई। बुद्ध के प्रति आस्थावान तथा श्रद्धा-भक्ति प्रकट करने के लिए तथागत के शारीरिक पारिभौगिक, उद्देशिका एवं मनौती अथवा पूजापरक स्तूपों पर व्यक्ति दर्शन, पूजा कर अपनी मनस्थ को समर्पित करता है।

शारीरिक स्तूप -

             तथागत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात उनके शव-दाह को लेकर बौद्धनुयायियों में मतभेद हो उठा। साँची स्तूप के तोरण द्वार पर इनके संघर्ष अथवा धातु-युद्ध के शिल्पांकन का दृष्टान्त है, जिन पर सात राजाओं एवं गणतन्त्र के लोग उस पर अपना स्वामित्व रखते है।(4) बुद्ध के अस्थिवशेष यथा-दन्त, नख, केश, भस्म इत्यादि पर भी स्तूपों का निर्माण किया गया। यह प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में भक्ति-भावना, साधना एवं उपासना का माध्यम बना। सारनाथ का धर्मराजिका स्तूप तथागत बुद्ध के शरीर-धातु पर निर्मित किया गया है, जिसका सम्प्रति भाग (अधिष्ठान) शेष है। चीनी यात्री ह्वेनसांग के भारत यात्रा-वृत्तात्त में “बुद्ध के अस्थिवशेष पर निर्मित स्तूप का उल्लेख किया गया है।”(5) इस प्रकार बौद्धधर्मानुयायी स्तूप के माध्यम से अपने वैयक्तित्त्व बन्धन तथा जरा-मरण से मुक्ति होकर शास्ता के प्रति श्रद्धा व साधना पूर्ण करते हैं।

पारभौगिक स्तूप -

              इस प्रकार के स्तूप का निर्माण उन वस्तुओं पर किया गया जाता था, जिसका उपभोग शास्ता अपने जीवन में किया करते थे। जैसे छत्र, चीवर, भिक्खापात्र, बोधिदण्ड आदि।(6)

उद्देशिका अथवा घटना परक स्तूप -

              सांकेतिक रूप से प्रतीकात्मक स्तूप जिनके भीतर बुद्ध वाक्य या त्रिपिटक पाण्डुलिपि रखकर निर्माण किया जाता था।(7) सारनाथ में स्थित धम्मेख व चैखण्डी स्तूप इसके प्रमुख उदाहरण है। “18340 में जब अलेक्जेण्डर कनिंघम ने धम्मेख स्तूप के शीर्ष से उत्खनन करवाया तब तीन फीट नीचे एक लेखांकित पट्टिका प्राप्त हुई जिस पर ‘‘ये धम्मा हेतुप्रभाव तेष्यान तथागत ह्नावदत। तेषञच यो निगेधः एवं वादी महोश्रमणः” उत्कीर्ण है, जिसकी तिथि छठीं सदी ई0 माना जाता है।”(8) यह स्तूप उस स्थान पर निर्मित है जहाँ तथागत बुद्ध ने प्रथम धम्मदेशना अपने पंचवर्गीय भिक्खुओं को दिया था। अतः लोग इस स्तूप को साक्षात् बुद्ध के धर्मकाय (यह बुद्ध का आध्यात्मिक अथवा सूक्ष्म रूप है) की भाँति पूजते थे। अलक्जेण्डर कनिघंम ने चौखण्डी स्तूप के विषय में मत दिया है कि “तथागत बुद्ध के स्मृति के रूप में इस स्तूप का निर्माण किया गया था।” ह्वेनसांग अपने यात्रा-वृतान्त में वर्णन करता है कि “हरिण उद्यान विहार से दो अथवा तीन ली दक्षिण की ओर यह स्तूप स्थित था, जहाँ पर पंचवर्गीय भिक्खुओं ने शास्ता के अभिवादन नही करने का निर्णय लिया था। लेकिन शास्ता के समीप आते ही उनका आदरपूर्वक सम्मान किया।”(9) अतः यह कहा जा सकता है कि सारनाथ में निर्मित स्तूपों में धर्मराजिका स्तूप बुद्ध के अस्थिवशेष पर निर्मित किया गया था, जबकि चैखण्डी स्तूप बुद्ध के घटनापरक जीवन से संबंधित था। धम्मेख स्तूप पूज्याभ्यर्चन के निमित्त था जिसकी तथागत बुद्ध के अनुपस्थिति में श्रद्धालुजन पूजन-वन्दन कर संतुष्टिफल प्राप्त करते थे।

श्रद्धा प्रतीक के रूप में स्तूप पूजा -

              इस प्रकार के स्तूप का निर्माण मन्नत के रूप में किया जाता था जिनमें किसी प्रकार के धातु अवशेष या वस्तु रखने का प्रयोजन नहीं था। बौद्ध उपासक एवं उपासिकाओं के मन्नत अथवा इच्छाओं की पूर्णता होने पर बडे़ स्तूप के चारों तरफ लघु स्तूप बनाये जाते थे।(10) सारनाथ के उत्खनन से अनेक लघु स्तूप भी श्रद्धा प्रतीक के रूप में पंक्तिबद्ध से प्रतिवेदित हुए हैं। ह्वेनसांग ने भी अपने यात्रा-वृतान्त में उल्लेख करता है कि “यहाँ पर अनेक लघु स्तूप थे जिन्हें बौद्ध उपासकों द्वारा शास्ता के श्रद्धा निमित्त, पूण्यार्थ अर्पित करके बनाये गये थे।”(11) अतः यह एक संकल्पित अथवा मनौती या फिर श्रद्धा प्रतीक स्तूप है। वर्तमान में भी इस तरह के स्तूपों के अवशेष सारनाथ में दृश्यमान हैं।

कला रूपाकंन में स्तूप-पूजा -

              प्राचीन भारतीय कला-स्थापत्य में उत्कीर्ण स्तूप का माहात्म्य अति उत्कृष्ट माना गया है। कलाकृतियों में सर्वत्र पर स्तूप की वन्दना करते हुए प्रदर्शित किया गया है, जिससे यह ज्ञात होता है कि हीनयानी सम्प्रदाय के उपासकों के श्रद्धा व साधना तथा उपासना का माध्यम रहा है। प्रारम्भ में स्तूप को प्रतीक चिन्ह के रूप में भरहूत, साँची, सारनाथ एवं अमरावती आदि पुरास्थलों पर निर्मित स्तूपों के वेदिका-स्तम्भ एवं बल्लरियों पर लघुत्तमाकार स्वरूप में बनाया गया है। भरहूत स्तूप में बुद्ध मूर्ति का उत्कीर्ण नही हुआ है, अपितु वेदिका एंव तोरणों पर त्रिरत्न, पादुका, धम्मचक्र तथा बोधिवृक्ष के अतिरिक्त स्तूप-पूजा का शिल्पांकन किया गया है।(12) साँची स्तूप के दक्षिण, पूर्वी व पश्चिमी तोरणों के बड़ेरियों पर स्तूप पूजा का अंकन हुआ है। अमरावती स्तूप के स्तम्भों के ऊपरी पट्टी पर दम्पत्ति मूर्ति के द्वारा स्तूप पूजा करने का दृश्य उत्कीर्ण किया गया है।(13) सारनाथ के उत्खनन से भी प्रस्तर पट्ट अनावृत हुए है जिस पर स्तूप पूजा का अंकन किया गया है जो लगभग प्रथम शताब्दी ई0 का है। अतः यह स्पष्ट कहा जाता है कि भारतीय कला में स्तूप का अंकन पूज्यार्थ-दर्शन के रूप में किया गया है, जिसमें तथागत बुद्ध के प्रति उपासक-उपासिकाओं द्वारा की गयी श्रद्धा भक्ति व दर्शन का स्वरूप भारतीय शिल्प-कलाओं में अवलोकित होती है।

स्तूप माहात्म्य व पूज्याभ्यर्चन विधान -

              तथागत बुद्ध को सर्वशक्ति, सर्वज्ञता एवं करूणामय अलौकिक गुणों से युक्त होने पर उनके भक्ति का आविर्भाव होता है। महावस्तु अवदान से ज्ञात होता है कि “स्तूप को तथागतबुद्ध के प्रतीक स्वरूप में उपासना, आराधना, पुष्प तथा अन्यत्र पवित्र वस्तुओं से अभ्यर्चनाकृत से पुण्यफलादि प्राप्त होते है।” उपरोक्त ग्रन्थ में वर्णित है कि तथागत बुद्ध का नमन, पुष्प मालाओं, पताकों तथा धूप के द्वारा श्रद्धा-भाव रखने वाले व्यक्ति को सुख-शान्ति व ज्ञान की प्राप्त होती है।(14) चीनी यात्री इत्सिंग के भारत यात्रा-वृतान्त में उल्लेख मिलता है कि “स्तूप पूज्याभ्यर्चना भिन्न-भिन्न प्रकार से किया जाता था, जिसमें पवित्र स्तूप की परिक्रमा, चाहे भिक्खु हो अथवा साधारण जन को नग्न पद प्रदक्षिणा कर सुगन्धित द्रव्य व पुष्प-मालाएँ अर्पित करके घुटने के तरफ झुककर तथागत की वन्दना की जाती थी।”(15)

              महावस्तु में स्तूप का विधिवत् पूज्याभ्यर्चन का उल्लेख है।(16) ये निम्नवत् है-

1. तथागत के प्रति आस्थावान व्यक्ति स्तूप के चारों ओर नग्नपाद प्रदक्षिणा कर अभिवादन करता है। भिक्खु धर्मरक्षित का विचार है कि स्तूप के पास जाने पर सदैव अपने दाई और से परिक्रमा करना चाहिए। यदि इस नियम में व्यतिक्रम होने से स्तूप की प्रदक्षिणा नही हो पाती है और बुद्ध के हृदय में ठेस पहुँचती है।(17)

2. उपासक-उपासिका व भिक्खु-भिक्खुणियों द्वारा स्तूप पर माल्यार्पण, रेशमी वस्त्र चढ़ाना, छत्र पताका इत्यादि।

3. स्तूप को अलंकृत, स्वच्छ व सुन्दर किया जाता है, जिससे उपासकों का मन भी स्वस्थ्य रहे।

4. बौद्ध धर्मानुयायी द्वारा अंजलिबद्ध तरीके से स्तूप को नमन किया जाता है।

5. सारनाथ के धम्मेख स्तूप के मध्य भाग पर चारों ओर आठ ताखें बने है। जिनमें बुद्ध की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गयी है। इन ताखों पर दीपक प्रज्वलित किया जाता है। इनके अवलोकन से ज्ञात होता है कि स्तूप के दक्षिण-पूर्व की ओर प्रदीप जलाकर पूजा करने के लिए दीप प्रज्वलन किया जाता था।

6. सम्राट अशोक ने सारनाथ के धर्मराजिका स्तूप को बुद्ध धम्म के प्रति श्रद्धा एवं पुण्यार्थ के लिए निर्मित करवाया था। यहाँ पर अनेक संकल्पित स्तूप भी मिले हैं जिस पर त्रिरत्न व बुद्ध मूर्तियों का अंकन हुआ है। इनका लोग निर्मलता भावना से पूजन करते थे।

बौद्ध विहारों की आध्यात्मिक उपादेयता -

           वर्षा ऋतु में बौद्ध भिक्खु विहारों में निवास करते थे। ये अपने आध्यात्मिक जीवन में नैतिक विचार, आचरण, मूल्य को अक्षुण्य रखने के लिए विहारों में नित्यदिन आध्यात्म-चिन्तन, दर्शन-पूजा आदि क्रियाओं को करते थे। सारनाथ पुरास्थल के उत्खनन से सात विहार प्रतिवेदित किये गये है, जिनमें असंख्य बौद्ध भिक्खु निवास करते थे।(18) विहार में भिक्खु का जीवन अरण्यवासी ऋषि जनों के समान था, जिसमें वह शान्तिपूर्वक आसनस्थ होकर अध्ययन, चिन्तन तथा मनन करते थे। विहार में भिक्खु के आवास-स्थल होने से उनके अन्दर आत्मसातनैतिक-नियम, नीतिपरक विचार, मौलिक कर्तव्य इत्यादि का संबोध निहित होता है।

              प्रवज्या व उपसम्पदा की शिक्षा नव-उपासकों को विहार के प्रमुख अथवा श्रेष्ठ भिक्खु द्वारा दिया जाता था। यह उसी नव-आगुन्तक उपासक को दिया जाता था, जिसकी पन्द्रह वर्ष की आयु पूरी चुकी हो। जब व्यक्ति प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता है तब वह अपने सिर तथा मुँछ मुड़वाकर, कषाय वस्त्र धारण करके ज्येष्ठ भिक्खुओं का अभिनन्दन और याचना करता था।(19) सारनाथ में तथागत बुद्ध ने पंचवर्गीय भिक्खुओं को प्रव्रज्या देने के उपरान्त वाराणसी के श्रेष्ठीपुत्र यश के साथ-साथ उनके माता-पिता व मित्रों को प्रव्रज्या की देशना दिये थे। अतः इस प्रकार के क्रिया-कलाप बौद्ध विहारों में किया जाता था।

              विहार में भिक्खु द्वारा उपोसथ भी किया जाता था, जिसमें सभी भिक्खु चतुर्दशी, पूर्णमासी एवं दोनों पक्ष की अष्टमी के दिन एकत्रित होकर तथागत बुद्ध के द्वारा उदिदष्ट धर्मोपदेश करते थे।  विनयपिटक में वर्णित है कि ‘‘बहुत से भिक्खुओं के आवास एक सीमा से अधिक होते थे, यदि प्रत्येक आवास के भिक्खु अपने-अपने निवास स्थल में उपोसथ करने का विवाद करे तो उन सभी भिक्खुओं को एक स्थल पर एकत्रित होकर उपोसथ करना चाहिए।’’(20) अन्ततः भिक्खुओं का उपोसथ कर्म विहारों में दिग्दर्शन होता है। भिक्खु जन विहार में आसनस्थ होकर उपोसथ करते समय पूर्वकृत्यों एवं दोषों को एक-दूसरे से साझाकर, एकत्रित हुए भिक्षु संघ की अनुमति से प्रातिमोझ की आवृत्ति के लिए प्रार्थना करते थे। इस उपोसथ क्रिया में में चार पाराजिक धम्म यथा-मैथुन, चोरी, मनुष्य हत्या, दिव्यशक्ति का दावा का आचरण करते थे।(21)

            भिक्खु को ‘संघा दिसेस’ के विधिनुसार विहार में रहना पड़ता था और इसमें तेरह दोष है जिनमें वीर्यमोचन, स्त्री शरीर स्पर्श, स्त्री के साथ अनुचित वाक्य, भिक्षु को स्वामीरहित कुटी-आवास प्रमाण युक्त बनवाना चाहिए, एक भिक्खु को दूसरे भिक्षु से द्वेष तथा झगड़ा नही करना चाहिए, संघ में फूट नहीं डालना चाहिए इत्यादि दोषरहित आचरण का पालन विहार में रह कर करना चाहिए।(22)

              भिक्खु लोग वर्षा ऋतु-काल में विचरण न करके विहारों में अस्थायी निवास करते थे। प्रारम्भ में परिव्राजकों का निवास स्थल लयण गुहाओं, पर्णकुटी, झोपड़ी आदि रहा। कालान्तर में भिक्खुओं के चारिका को वर्षाकाल में स्थिर रखने का विधान हुआ, जिसके तदान्तर बौद्ध विहारों में वर्षावास करने की सुव्यवस्था हुई। वर्षावास के सम्बन्ध में विनयपिटक में वर्णित है कि “जब शाक्य पुत्रीय भिक्खुओं द्वारा वर्षाकाल में चारिका किया जाता था, तब उन्हें अनेक जीव-जन्तुओं से पीड़ित होकर गुजरना पड़ता था और इस विषम परिस्थिति को देखकर शास्ता ने अपने धर्मनुयायी को आषाण-पूर्णिमा के दूसरे दिन वर्षावास करने तथा तीन माह चारिका निषेध कर उन्हें बौद्ध विहारों में रहने का आदेश दिया।”(23) इन विहारों में भिक्खु स्थायित्त्व होकर बुद्ध धम्म शिक्षा से उपासकों को प्रव्रजित करते थे। विहार में वर्षावास के दौरान संघ में सम्मिलित सभी भिक्खु ‘पवारण’ करते थे, जिसमें वे पूर्वकृत्यों प्रतिदोष, मतभेद, संघभेद, परस्पर वैमनस्य, कलह आदि से निवृत्ति मार्ग खोजते थें।

काशी के मन्दिर -

              काशी प्राचीन काल से विभिन्न धर्मों की साधना स्थली रही है, जिसके फलस्वरूप, शैव, वैष्णव, गणेश तथा सूर्य आदि धर्मों से सम्बन्धित अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। काशीखण्ड में धर्म विषयक वक्तव्यों यथावत्- पूजा-पाठ, दर्शन, तपस्या, देवी-देवताओं की उपासना व साधना एवं तीर्थ इत्यादि आध्यात्मिक माहात्म्य को समन्वित किया गया है।

शैव-मंदिर का आध्यात्मिक माहात्म्य -

              काशी में सबसे प्राचीन मंदिर कर्दमेश्वर मंदिर है, जो शहर से पाँच कि0मी0 दूर दक्षिण-पश्चिम में कन्दवा नामक ग्राम एवं पंचक्रोशी मार्ग पर कर्दमेश्वर मंदिर स्थित है। यह मंदिर गहड़वाल युग (12वीं शताब्दी ई0) का है, जो शिव को समर्पित है। जिसके गर्भगृह में शिवलिंग प्रतिष्ठित है। इसके अतिरिक्त उमा-माहेश्वर, अर्द्धनारीश्वर, नाग संबंधित आदि मूर्तियों का शिल्पसंयोजन दृष्टान्त होता है।(24) मंदिर अन्तराल एवं अर्द्धमण्डप से युक्त है। पूर्वाभिमुख मंदिर के उत्तर की ओर एक विशाल सरोवर है जिसका निर्माण बंगाल की रानी भवानी ने करवाया था। यह मंदिर खजुराहों के मंदिर के समान विशाल जगति पर स्थित है, इसमें अधिष्ठान जंघा, वरण्डिका तथा अनेक अंगशिखरों की संरचना से युक्त है। मंदिर के प्रवेशद्वार पर गंगा-यमुना की संवाहन स्थानक मूर्तिया बनीं है। मंदिर का प्रवेश द्वार 3 फीट 5 इंच चौड़ा एवं 6 फीट ऊँचा है। त्रिशाखा प्रकार का प्रवेश द्वार सामान्य शैली में पत्रलता, पद्म और पुष्प से अलंकृत है। प्रवेशद्वार का उदुम्बर भाग सादा है किन्तु उत्तरंग पर द्वार स्तम्भों के समान शाखाओं का अलंकरण मिलता है। मंदिर का अन्तराल भाग चार वर्गाकार स्तम्भों पर आधारित है। अन्तराल के उत्तरी एवं दक्षिणी प्रकोष्ठों में अष्टभुजी महिषमर्दिनी एवं खण्डितवस्था में नृत्य गणपति की मूर्तियां बनी है। मंदिर का अर्धमण्डप आठ स्तम्भों पर आधारित है, जो चार-चार की संख्या में दो पंक्तियों में बने है। मंदिर का वाह्य भाग विशेष अलंकृत नही है। अधिष्ठान पर खुर, कुम्भ, कलश, कपोत एवं पट्टिका के रूप में अलंकरण किया गया है। मंदिर के कला शैली में शिव के स्वतंत्र रुपो, नटराज, अन्धकासुर, गजान्तक के साथ उमा-माहेश्वरी एवं अर्द्धनारीश्वर रूपों की मूर्तियां भी उकेरी गयी हैं। शिव के अतिरिक्त विष्णु एकल तथा षिथव (वामन) और बलराम-रेवती का रूपांकन हुआ है।  मंदिर के दक्षिण भित्ति पर उमा-महेश्वर की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। शिव और उमा के पारम्परिक वाहनों (वृषभ व सिंह) एवं परिकर में गणेश, कार्तिकेय और शृंगी ऋषि तथा ब्रह्मा व विष्णु की आकृतियों के अंकन की दृष्टि से मूर्तियों की विविधता ध्यातव्य है। पश्चिमी भित्ति की भद्ररथिका (तलजंघा) में नटराज तथा उपरिजंघा की भद्ररथिका और वाम पार्श्व की रथिका में एकल विष्णु की दो चतुर्भुज स्थानक मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं। इस प्रकार यह काशी का प्राचीनतम मंदिर है, जो स्थापत्य-शैली दृष्टिकोण से अत्यन्त आकर्षक, सौन्दर्यात्मक एवं कलात्मक मनोभावक है। मंदिर के अलंकरण से प्रतीत होता है कि खजुराहों की कलाकृतियों से प्रभावित रहा है।

              बभनियाँव पुरास्थल से शिवलिंग के साथ दो चरणों में निर्मित ईष्टिका देवायतन के अधिष्ठान के अवशेष प्रतिवेदित हुए हैं। जिसके वृत्ताकार गर्भगृह में शिवलिंग को प्रतिष्ठित किया गया था। गर्भगृह के आन्तरिक भाग में पक्के फर्श का निर्माण भी हुआ है। शिवलिंग को अर्पित किये जाने वाले जलाभिषेक के निष्कासन के लिए उत्तर दिशा की ओर चौड़े प्रस्तर प्रणाल का निर्माण किया गया है। वृत्ताकार गर्भगृह में उपासकों के प्रवेश हेतु पूर्वाभिमुखी प्रवेश द्वार का भग्नावशेष अनावृत्त हुआ है। इसमें चौखट के रूप में चौड़ी प्रस्तर सिल्लियाँ लगाई गई हैं। इस प्रकार ईष्टिकाओं के आकार, शिवलिंग के शैलीगत विशेषताओं तथा उपलब्ध मृद्भाण्डों के आधार पर  पुराविदों ने इसे उत्तर कुषाण कालीन शिवायतन बताया हैं।(25) किन्तु यह दावा सही नही प्रतीत होता है। कलाविद प्रोफेसर महेश प्रसाद अहिरवार इसे गहड़वाल युगीन शिवमंदिर का भग्नावशेष मानते हैं। उनका मानना है कि “मंदिर के गर्भगृह की दीवारों में कुषाण कालीन एवं टूटी हुई ईंटों का पुनःप्रयोग स्पष्टया देखा जा सकता है। बहुत संभव है कि परवर्ती काल में जब इस क्षेत्र में शैव धर्म का व्यापक प्रभाव फैल गया तब शैव अनुयायियों ने कुषाण कालीन खण्डहरों के ऊपर पूर्ववर्ती ईंटों के टुकड़ों का प्रयोग करके इस मंदिर का निर्माण किया है।’’ (26) 

              काशी के शिवालयों में असंख्य शिवलिंग उदभूत है जिसमें 42 शिवलिगों का सर्वोत्तम महत्व हैं। ओंकारेश्वर मंदिर में स्थापित शिवलिंग की महिमागान है कि ब्रह्मा के कठोर तपस्या के उपरान्त समस्त दिशाओं को प्रकाशित करने हेतु एक दिव्य ज्योति के रूप में शिवलिंग प्रकट हुआ। जिसमें सत्वगुणयुक्त आकार, रजोगुण उकार एवं तमोंगुण रूप मकर का दर्शन होता है।  इस प्रकार इन गुणों के दर्शन के लिए ओंकारेश्वर में आज भी श्रद्धालु विशेष दिन अथवा सोमवार के दिन दर्शन करते हैं।

              त्रिलोचन महादेव मंदिर श्रद्धालुओं के लिए प्रसिद्ध है, यहाँ पर सावन के चारों सोमवार के दिन रूद्रपीठ एवं विशेष पूज्याभ्यर्चना करते है।(27) केदारेश्वर मंदिर के प्रादुर्भाव के सम्बन्ध में ‘वशिष्ठ’ नामक ब्राह्मण की कथा मिलती है कि “केदारेश्वर ने स्वयं हिमालय से आकार यहाँ निवास किया।”(28) वीरेश्वर मंदिर राजा अमित्रजित के पुत्र के द्वारा की गयी कठोर तपस्या के परिणाम स्वरूप इस शिवलिंग का उद्भव हुआ। इस मन्दिर के प्रागंण बड़ा होने से इसकी प्रसिद्धि आत्म वीरेश्वर नाम से है। यहाँ पर दर्शनार्थी व श्रद्धालु गण द्वारा सन्तानोच्छा पूर्ण करने वाले देव के रूप में आराधना की जाती हैं।(29) अमृतेश्वर शिवलिंग के प्रभाव से मृत व्यक्ति भी जीवित हो जाते है। काशीखण्ड में कथानक है कि “यहाँ के दर्शन के उपरान्त व्यक्ति मृत्यु को भी जीत लेता है। इसी प्रकार काशी के अनेक शैव मंदिर जिनमें ब्रह्ममेश्वर, वृषभमेश्वर, वृद्धाकालेश्वर, तारकेश्वर, शैलेश्वर, संगमेश्वर मध्यमेश्वर इत्यादि में शिव के दर्शन-आराधना कर व्यक्ति पुण्यफलादि प्राप्त करता है।”(30)

              काशी में शैव धर्म के आराध्य-साधना के अतिरिक्त वैष्णव धर्म की महिमामण्डन उल्लेखनीय रही है। गुप्तकाल में विष्णु धर्म पूजा अपने चरमोत्कर्ष वर्चस्व का संघर्ष होता था। गुप्तशासक स्कन्दगुप्त के भीतरी स्तम्भ लेख में विष्णु प्रतिमा स्थापित करने तथा पूजन-अर्चन हेतु ग्राम दान देने से यह स्पष्ट होता है कि काशी में विष्णु मंदिर व उसकी उपासना की जा रही थी।(31) राजघाट से प्रतिवेदित अनेक मृण्यमुद्राओं पर कृष्णषेण, हरिषेण भागवत माधव, केशव, विष्णुमित्र तथा हरिभट्ट नाम तथा चक्र, शंख, विष्णुचरण छाप का अंकन भागवत धर्म के आराध्यात्मक प्रतीक है। काशीखण्ड में भी “विष्णु-पूजन से संबंधित अनेक स्थलों को व्याख्यायित किये गये है जिनमें विन्दुमाधव, आदिकेशव, ज्ञानकेशव, नारदरकेशव, नर नारायण, यज्ञवाराह, गोपी-गोविन्द, शेषमाधव इत्यादि है।” इससे यह कहा जा सकता है कि वैष्णव धर्म की आध्यात्मिक भक्ति-भावना काफी प्रसिद्ध रही हैं।(32)

            काशी में विष्णु-पूजा का आध्यात्मिक माहात्म्य महत्वपूर्ण रहा है। विष्णु के दर्शन-पूजन करने से व्यक्ति अमृतपद ज्ञान से भ्रष्ट नहीं होना, दर्शन में मनुष्य में भक्ति-भाव की वृद्धि होती है, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति पापरूपी अन्धकार से मुक्ति मिलती है, सभी मनोरथ पूर्ण होना, विष्णु के नर नारायण रूप का ज्ञान-दर्शन यज्ञ-फल की प्राप्ति, पूजन के पश्चात मानव की अशेष व विशेष कामनाओं की पूर्ति होती है।(33) काशीखंड में वर्णित है कि “विष्णु की मूर्ति ज्ञानवापी के निकट है। यहाँ पर पिण्डदान करने से व्यक्ति पितृ़ऋण से मुक्ति प्राप्त करता है।”(34) अतः इस प्रकार काशी में विष्णु उपासना व दर्शन करने से व्यक्ति अपने मनोकामनाओं, साधना, व्यक्ति-भाव को प्रगट करता है।

              काशी में विघ्नविनायक तथा सूर्य की आराधना एवं भक्ति-भाव से पूजन करके व्यक्ति के मनोभाव तथा इच्छाओं की पूर्ति होती है। काशी में अर्कविनायक, दुर्ग-विनायक, देहली विनायक, कूटदत्त विनायक इत्यादि स्वरूप में गणेश की पूजा-अर्चना की जाती है।(35) काशी नगरी में राजा दिवोदास को उच्चाटित करने के लिए शिव ने सर्वप्रथम योगिनियों को काशी भेजा लेकिन उनको इस कार्य में असफलता मिली, तब सूर्य को इस कार्य को करने के लिए दिया गया, जिससे तमोध्वसंक सूर्य अपनी 12 मूर्तियों को स्थापित कर काशी में बस गये। तभी से वाराणसी में सूर्योपासना की प्रसिद्धि हुई जिससे आज भी लोलार्क कुण्ड की पूजा सूर्य-पूजा के रूप में की जाती है।

निष्कर्ष : अतः यह कहा जा सकता है कि स्तूप-पूजा बुद्ध के धम्मदेशना, महापरिनिर्वाण, श्रद्धा व आस्था का प्रतीक रहा है। सारनाथ के बौद्ध स्तूपों के विषय में भारत के अतिरिक्त बर्मा, थाइलैण्ड, चीन, नेपाल, तिब्बत, कम्बोडिया आदि राष्ट्रों में गाथाएँ विख्यात हैं, जिसके कारण इन देशों से आये हुए दर्शनार्थी व श्रद्धालु बुद्ध धम्म के शिक्षाओं से प्रभावित होकर उनके स्मृति स्वरूप में स्तूप के प्रति श्रद्धा अर्पित व अभिवादन करते हैं। बौद्ध भिक्षु भिक्षाटन तथा चारिका के उपरान्त सन्ध्या काल तक विहारों में वापस आकर विश्राम करते थे। इन विहारों में आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्धित उपदेश ज्ञान, चिन्तन, दर्शन-पूजन, इत्यादि नित्यकर्म की क्रिया कलापों को किया जाता था। काशी में मन्दिरों की अत्यधिक संख्या है। यहाँ प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक के मन्दिर हैं। इन मन्दिरों में नित्यदिन पूजाभ्यर्चना, शंखवादन, आरती, गंगा स्नान, दीपोत्सव, दीपप्रज्वलन इत्यादि कार्यों को सम्पन्न किया जाता है। ऐसे हम कह सकते है कि काशी में जो पुरातात्विक अवशेष अर्थात् भौतिक अवशेष प्राप्त होते हैं उनका सम्बन्ध कहीं न कहीं आध्यात्म से रहा है।

सन्दर्भ :
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पवन कुमार
शोधार्थी, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्‍कृति एवं पुरातत्‍व विभाग, काशी हिन्‍दू विश्‍वविद्यालय वाराणसी 221005
pkbhu09@gmail.com, 7897413235, 9453880023

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
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