- संजय कुमार एवं डॉ. पंकज सिंह
बीज शब्द : कार्योंजित
महिला, दोहरी भूमिका, कार्य-जीवन संतुलन, समस्या, चुनौतियाँ
मूल आलेख : भारतीय महिलाओं की स्थिति में पिछले कुछ समय में काफी बदलाव आया है । वो पहले से ज्यादा स्वतंत्र और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं, जैसे काम करने का अधिकार, समान व्यवहार, संपत्ति और गुजारा भत्ता । लेकिन दुर्भाग्य से, बहुत सी महिलाएं अभी भी इन अधिकारों से अनजान हैं ।इसके अलावा, कई अन्य कारक भी महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, जैसे कि शादी की उम्र, शिक्षा का स्तर, परिवार में उनकी भूमिका आदि । कुछ परिवारों में महिलाओं की राय को कोई महत्व नहीं दिया जाता, जबकि कुछ में वो हावी रहती हैं । नतीजा ये होता है कि भारत में महिलाओं का सशक्तीकरण असंतुलित है और इसमें बड़ा अंतर है ।जो महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र और पढ़ी-लिखी हैं, वो एक बेहतर जीवन जीती हैं, जिसकी दूसरी महिलाएं सिर्फ कल्पना करती हैं । ये असमानता चिंता का विषय है क्योंकि इससे संतुलित विकास नहीं हो पाता हैं ।
जब हम कार्योंजित
महिलाओं के बारे में बात करते हैं, तो हमारा मतलब
सिर्फ उन महिलाओ से होता हैं जो तनख्वाह
पाती हैं । इस सोच ने भारतीय महिलाओं को बदलाव की तरफ बढ़ाया है । ये बदलाव अचानक
नहीं हुआ है और इसमें हमारी प्राचीन परंपरा की कुछ निरंतरता भी दिखायी देती है ।
पिछले सौ सालों में ऐसे कई मौके आये हैं
जब हम दोराहे पर खड़े थे । राजा राम मोहन राय से लेकर महात्मा गांधी तक, हमारे सामाजिक क्रांति और आधुनिक पुनर्जागरण के नेताओं ने हमें सही रास्ते
का चुनाव करने में मदद की । सामाजिक सुधार, राजनीतिक प्रगति,
सांस्कृतिक पुनर्जागरण और आर्थिक विकास के साथ हमारा नजरिया काफी
बदल गया है ।
मानव इतिहास के अधिकांश समय में, काम और जीवन एक-दूसरे से जुड़े हुए थे । औद्योगिक क्रांति के साथ, कार्यस्थल शाब्दिक और रूपक दोनों ही दृष्टि से परिवार, घर और समुदाय से बाहर चला गया । कार्यस्थल पुरुषों का क्षेत्र बन गया,
इसलिए इस संगठन को उनकी जरूरतों और हितों के अनुरूप बनाया गया ।
महिलाओं को घरेलू काम, बच्चों की परवरिश और सामुदायिक
कार्यों के माध्यम से पुरुषों के कार्यस्थल में स्वास्थ्य और उत्पादकता बनाए रखने
की जिम्मेदारी दी गयी । धीरे-धीरे, घरेलू और सामुदायिक
सब्सिडी, कार्यस्थल और अर्थव्यवस्था के जीवन पर हावी होने का
ढांचा बन गया ।
आज की कार्योंजित
महिला आधुनिक समाज का एक जरूरी हिस्सा है । कार्योंजित
महिलाओं के बारे में किसी भी चर्चा को अलग-थलग करके नहीं किया जा सकता । यह समाज
में महिलाओं की स्थिति के मूल प्रश्न को छूता है । कामकाजी महिलाओं का मुद्दा इस
मूलभूत प्रश्न का सिर्फ एक पहलू है । सबसे पहले, हमें यह
समझना होगा कि औद्योगिक समुदायों में जहां पुरुष व्यक्तिगत रूप से काम करते हैं और
उन्हें पेशे के आधार पर आय मिलती है, वहां उनके आश्रितों की
संख्या को ध्यान में नहीं रखा जाता है।
महिलाएं समाज का एक महत्वपूर्ण
स्तंभ हैं, और भारतीय महिलाएं अपनी बहुमुखी भूमिकाओं के लिए
जानी जाती हैं । वे न सिर्फ परिवार की देखभाल करती हैं, बल्कि
समाज में भी सक्रिय रूप से भाग लेती हैं । इस कथन के माध्यम से भारतीय महिलाओं,
खासकर जीवनसाथी के रूप में, उनकी विविध
जिम्मेदारियों को दर्शाती है।
यह कहा जाता है कि किसी राष्ट्र
की संस्कृति और नैतिकता का स्तर उसकी महिलाओं की स्थिति से मापा जा सकता है । एक
देश की महिलाओं का सामाजिक दर्जा वहां के सामाजिक परिवेश को भी दर्शाता है ।
हालांकि, महिलाओं की स्थिति को समझना जटिल हो सकता है । हम
इतिहास के माध्यम से यह देख सकते हैं कि भारत में महिलाओं का दर्जा समय के साथ
कैसे बदला है । (सिंह 2019)1
प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय
तक, भारतीय इतिहास में महिलाओं की स्थिति में कई
उतार-चढ़ाव आये हैं । इतिहासकार आल्तेकर2 का कहना है कि “हिंदू समाज में महिलाओं की
स्थिति को समझने के लिए सामान्य परिस्थितियों (शांति के समय) और असामान्य
परिस्थितियों (युद्ध के समय) दोनों में उनके स्थान का अध्ययन करना चाहिए । युद्ध
के दौरान, समाज का रवैया महिलाओं के प्रति बहुत ही
असहानुभूतिपूर्ण होता था, खासकर अगर वे दुश्मनों के हाथों
में पड़ जाती थीं तो उनके लिए अपने परिवार
और समाज में वापस स्वीकार किए जाना लगभग असंभव होता था।”
आल्तेकर का कहना है कि “500 ईसा पूर्व से 500 ईस्वी तक का समय भारतीय इतिहास में
महिलाओं की स्थिति के लगातार बिगड़ने का काल था । यह अन्याय, असहिष्णुता और असमानता का एक काला अध्याय है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।”
हालांकि, स्वतंत्र भारत के संविधान ने अपने उद्देश्यों में समानता के सिद्धांतों को
शामिल किया है और भारतीय महिलाओं को एक नए युग में प्रवेश कराया है । इसने सभी
क्षेत्रों में पुरुषों और महिलाओं की समानता की घोषणा की है । अनुच्छेद 15 से 16 धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि किसी भी आधार पर भेदभाव के
बिना रोजगार के मामले में समानता की बात करते हैं । अनुच्छेद 325 और 326 महिलाओं को पुरुषों के साथ मतदान और चुनाव
लड़ने का अधिकार देते हैं । अनुच्छेद 39 लिंग के आधार पर
भेदभाव के बिना समान कार्य के लिए समान वेतन की बात करता हैं ।
भारत में कार्योंजित महिलायें -
हमेशा से महिलाओं ने काम किया है, भले ही पुराने समय में उनका दायरा रसोई घर तक सीमित था । लेकिन अब ज़माना
बदल चुका है । पहले महिलाओं का काम सिर्फ खाना बनाना, बच्चों
को जन्म देना, उनकी परवरिश करना और घर के लोगों की देखभाल
करना होता था । उन्हें परिवार के बाहर की गतिविधियों के बारे में ज्यादा जानकारी
नहीं होती थी । इतिहास गवाह है कि कैसे महिलाओं को हमेशा कमतर आंका जाता था । उनकी
शारीरिक बनावट और बच्चों को जन्म देने की क्षमता को आधार बनाकर उन्हें कमजोर समझा
जाता था । सामाजिक मान्यताओं और परंपराओं ने भी इसे और हवा दी ।
लेकिन 20 वीं सदी में आयी तकनीकी क्रांति ने इस सोच को बदलकर रख दिया है । अब
ज़्यादातर कामों में शारीरिक ताकत की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि
कौशल और ज्ञान की ज़रूरत होती है । महिलाओं ने ये साबित कर दिया है कि अगर उन्हें
मौका मिले तो वो किसी भी क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी कर सकती हैं, बल्कि उनसे आगे भी निकल सकती हैं । औद्योगीकरण, परिवार
नियोजन और मशीनों के इस्तेमाल ने और ज़्यादा महिलाओं को घर से बाहर निकलकर काम
करने के लिए प्रेरित किया । आज महिलाएं अलग-अलग क्षेत्रों में अपना हुनर दिखा रही
हैं और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं । जैसा कि पुरोहित ने
कहा है, "जो महिला पालना हिलाती है, वो ही दुनिया भी चलाती है।"(Manas 2020)3
साहित्य पूर्वावलोकन -
Dube L.
(2001)4 का कहना है कि "भारतीय समाज की परंपरागत सोच महिलाओं को
सिर्फ घर की देखभाल करने वाली और शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए देखती है । इससे
वे अक्सर दुर्व्यवहार और शोषण का शिकार होती हैं । यह एकतरफा और रुढ़ीवादी सोच
महिलाओं के उनके सपनों को पूरा करने और अपनी क्षमताओं को पूरी तरह से विकसित करने
से रोकती है ।"
Wentling, Rose
Mary (2003)5 इस अध्ययन से पता चलता है कि महिलाओं की दोहरी
भूमिकाएं - घर की देखभाल और कार्यस्थल - भारतीय समाज के पुरुष-प्रधान ढांचे के
कारण तनाव और टकराव पैदा करती हैं । दिल्ली की कामकाजी महिलाओं पर किए गए इस
अध्ययन में दिखाया गया है कि "हिंदू सामाजिक संरचना का पारंपरिक सत्तावादी
ढांचा मूल रूप से वही बना हुआ है, इसलिए महिलाओं को भूमिका
संघर्ष की समस्या का सामना करना पड़ता है । परिस्थिति के अनुसार पुरुषों और
महिलाओं के दृष्टिकोण में बदलाव इस समस्या को दूर करने में मदद कर सकता है ।"
Mathur-Helm,
Babita (2006)6 ने दक्षिण अफ्रीका के चार प्रमुख रीटेल बैंकों में ये पता लगाने
की कोशिश की कि असल में "ग्लास-सीलिंग" की समस्या महिलाओं के साथ कितनी
सच है । अध्ययन में यह देखा गया कि शीर्ष प्रबंधन के पदों पर महिलाओं की संख्या
क्यों कम है । इस काम के लिए 40 महिला
प्रबंधकों का गहराई से साक्षात्कार लिया गया और उनके अनुभवों का विस्तार से
विश्लेषण किया गया ।
नतीजों से पता
चला कि जो लोग "ग्लास-सीलिंग" को झूठ समझते हैं वो गलत हैं, ये सच है और कंपनियों के खुद के वातावरण,
नीतियों और रणनीतियों से मजबूत होता है । साथ ही, कई बार खुद महिलाओं की कुछ कमियों से भी ये दिक्कत बढ़ती है ।
अध्ययन का
निष्कर्ष है कि सिर्फ वही कंपनियां इस "ग्लास-सीलिंग" को तोड़ सकती हैं
जो बहुत हद तक विकेंद्रीकृत हैं और जिनका वातावरण महिलाओं को शीर्ष पदों पर आने
में सहायता करता है । इसके साथ ही, महिलाओं को भी खुद को आगे बढ़ाने के लिए पढ़ाई और करियर में विकास के जरिए
सशक्त और सक्षम बनाना होगा ।
Ahmad,
Aminah (2007)7 ने अपने अध्ययन के माध्यम से बताया
कि कामकाजी महिलाओं, खासकर जो दोनों पति-पत्नी काम करते हैं, उन्हें
अक्सर परिवार और काम के बीच संतुलन बिठाना मुश्किल होता है । उन्हें काम की वजह से
परिवार को समय न दे पाने का तनाव होता है, और ये तनाव जीवन
के शुरुआती चरण में ज्यादा होता है । कई महिलाएं बच्चे होने पर नौकरी छोड़ने का
विचार करती हैं, क्योंकि बच्चे की देखभाल महंगी है । महिलाओं
को अपने नियोक्ताओं से कम से कम सहयोग मिलता है, और वे खुद
ही तनाव से निपटने के तरीके ढूंढती हैं ।
Ali,
Sophiya (2011)8 ने अपने
शोध पत्र में बताया कि कई महिलाओं को अपने करियर को आगे बढ़ाने में दिक्कतें होती
हैं । कंपनियों को ऐसे कार्यक्रम बनाने चाहिए जो खास तौर पर महिलाओं की ज़रूरतों
को ध्यान में रखते हुए उनका करियर विकास करने में मदद करे । कंपनी के सभी बड़े
अधिकारियों को भी महिलाओं को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए । शोध कहता है कि
ज़्यादातर महिलाएं अपने करियर को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण लेने के लिए
तैयार हैं, लेकिन पुरानी सोच, कम अनुभव और प्रबंधन कौशल की कमी उनकी तरक्की में बाधक हैं ।
Dashora
Kamini B. (2013)9 ने अपने शोध पत्र बताया है कि कार्यस्थल पर महिलाओं को मिलने वाले वेतन में
लैंगिक पूर्वाग्रह एक बड़ी बाधा है । एक पुरानी धारणा है कि महिलाएं पुरुषों की
तुलना में कम सक्षम और कम कुशल होती हैं, इसलिए उन्हें समान काम के लिए असमान वेतन मिलना चाहिए ।
अध्ययन की आवश्यकता -
अध्ययन की आवश्यकता को हम निम्नलिखित रूप में देख सकते हैं
1. कार्य की प्रगति में बाधाएं -
ये अध्ययन हमें बताएगा कि किन बाधाओं के चलते कामकाजी महिलाओं को तरक्की करने में
मुश्किल होती है. क्या ये समाज की सोच, ऑफिस का माहौल,
या फिर कुछ और?
2. संतुष्टी और उद्देश्य -
हमें ये जानने की ज़रूरत है कि क्या कामकाजी महिलाएं अपने काम से खुश हैं? क्या उन्हें अपने काम में कोई मायने दिखते हैं? क्या वो अपने लक्ष्यों को पूरा कर पा रही हैं?
3. दफ्तर की चुनौतियां-
इस अध्ययन से हमें पता चलेगा कि काम पर उनका सामना
किन परेशानियों से होता है. क्या असमान व्यवहार, ज़्यादा
काम का बोझ, या लिंग भेदभाव जैसी कोई दिक्कतें हैं?
4. हालात सुधारने के रास्ते-
आखिर में, ये अध्ययन हमें
ऐसी तरकीबें सुझाएगा जिनसे कामकाजी महिलाओं की मदद की जा सके । इससे न सिर्फ उनकी परेशानियां
कम होंगी, बल्कि वो अपने काम में बेहतर प्रदर्शन भी कर
पाएंगी । (Sangeetha and S. Praveen Kumar 2020)10
अध्ययन के उद्देश्य -
कार्योंजित महिलाओं की पारिवारिक व
कार्यस्थल की समस्याओं एवं चुनौतियों का अध्ययन करना ।
पद्धति -
यह शोध पत्र मूल
रूप से वर्णनात्मक और विश्लेषणात्मक है । इसमें कार्योंजित महिलाओ की समस्या एवं
चुनौतिओ का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है । इस अध्ययन में उपयोग किया गया
डेटा विशुद्ध रूप से द्वितीयक स्रोतों से लिया गया है जो इस अध्ययन की आवश्यकता के
अनुसार है ।
कार्योंजित महिलाओं की समस्याएं -
आधुनिक दुनिया
में महिलाएं किसी से पीछे नहीं हैं । हर क्षेत्र में वो बराबरी से कंधे से कंधा
मिलाकर चल रही हैं । लेकिन कार्योंजित महिला होने का मतलब है परिवार की ज़िम्मेदारियां निभाना, घर के काम करना और साथ ही नौकरी भी संभालना.
वकील, डॉक्टर, टीचर,
नर्स, मजदूर
कोई भी पेशा नहीं जहां आज महिलाएं नहीं हैं । पर ये सच है कि महिलाओं को
अपने लिंग के चलते कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है । उन्हें सदियों से शोषण और
पीड़ा सहनी पड़ी है । घर और दफ्तर दोनों जगह उनकी समस्या कम नहीं हैं । जिसे हम निम्नलिखित
रूप में देख सकते हैं
1. कार्य-परिवार के बीच संतुलन -
आज महिलाएं आर्थिक आवशकताओं
कि पूर्ति के लिए भी काम करती हैं । वो घर चलाने में बराबर का साथ देती हैं, फिर भी उनकी घरेलू ज़िम्मेदारियों की छवि बनी रहती है । भले ही वो काम करें,
उनके ऊपर खाना बनाना, बच्चों की देखभाल,
और सारे घर के काम करने का बोझ होता है । इस भागदौड़ में उन्हें
सुकून, आराम और सोचने-समझने का भी वक्त नहीं मिलता । कई बार
बच्चों की परवरिश में कमी के लिए सिर्फ महिला को ही दोषी ठहराया जाता है । उन्हें
बड़े काम की गाड़ी का छोटा पहिया समझा जाता है, जिसकी मेहनत
को नज़रअंदाज कर दिया जाता हैं ।
2. अपनी कमाई पर नियंत्रण का अभाव -
ये बात सच है कि कई घरों में, खासकर मध्यम वर्ग, उच्च
मध्यम वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग में, कमाई के बावजूद महिलाओं
की अपनी कमाई पर नियंत्रण नहीं होता हैं । अक्सर उनकी कमाई उनके पिता या पति के
हाथों में चली जाती है । इससे महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता का एहसास नहीं होता और
उनके निर्णय लेने की क्षमता भी कम हो सकती है ।
3. कार्य स्थल पर
भेदभाव -
आज भी कई
जगहों पर महिलाओं को काम के क्षेत्र में भेदभाव का सामना करना पड़ता है । उन्हें
तरक्की के मौके कम मिल पाते हैं और अक्सर वे पुरुषों के बराबर तनख्वाह पाने से भी
वंचित रह जाती हैं । 1976 के समान वेतन अधिनियम के
बावजूद, कई कारखानों और मजदूरी वाले कामों में महिलाओं को कम
पैसे दिए जाते हैं । कई बार उनकी मानसिक स्तर को कम आंक कर उन्हें महत्वपूर्ण काम
नहीं सौंपे जाते । ये सब दुर्भाग्यपूर्ण है और बदलाव की ज़रूरत है ।
4. कार्योंजित महिलाओं
की सुरक्षा और सम्मान -
भारतीय समाज में पनपती
रूढ़िवादी सोच कई बार कामकाजी महिलाओं के लिए दिक्कत खड़ी करती है । घर और दफ्तर
दोनों जगह उन्हें संतुलन बनाना मुश्किल होता है । कुछ परिवारों में शाम 6 बजे के बाद काम करना शायद स्वीकार्य ही न हो । ऐसे में अगर कोई महिला देर
तक काम करती है, तो समाज उसकी इज्जत और नैतिकता पर सवाल
उठाना शुरू कर देता है । असुरक्षित माहौल के कारण भी कई महिलाएं रात में काम करने
से कतराती हैं ।
इसके अलावा, कई कार्यालयों में पद पर बैठे पुरुष अक्सर महिला कर्मचारियों को सम्मानजनक
शब्दों से नहीं बुलाते । यह रवैया महिलाओं की गरिमा कम करता है और उन्हें असहज
महसूस कराता है ।
5. यौन उत्पीड़न -
भारत में महिलाओं के लिए
यौन उत्पीड़न एक दुर्भाग्यपूर्ण और कठिन सच्चाई है । हर दिन उन्हें घर, रास्ते, स्कूल-कॉलेज, दफ्तर हर
जगह अपनी इज्जत बचाने की लड़ाई लड़नी पड़ती है । शिकायतें बढ़ने के बावजूद,
कई महिलाओं को ये अनुभव होता है कि उनके नियोक्ता उनकी समस्याओं को गंभीरता
से नहीं लेते या तो वो कानून की जानकारी नहीं रखते, या फिर
आधे-अधूरे लागू करते हैं । कुछ संस्थान आंतरिक समितियां तो बनाती हैं, लेकिन उनके सदस्य अक्सर सही प्रशिक्षण नहीं लेते ।
2013 के महिलाओं के
यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम के अनुसार,
10 या अधिक कर्मचारियों वाले हर व्यावसायिक या सार्वजनिक संगठन में
एक आंतरिक शिकायत समिति (ICC) होनी चाहिए ।
6. जेंडर आधारित भेदभाव -
संस्थाओ में
काम के घंटों, छुट्टियों, कमाई, पदोन्नति जैसे फायदों के मामले में लैंगिक
भेदभाव होता है । संस्थाए अभी भी समान अवसर के विचार को पूरी तरह से अपना नहीं पायी
हैं । कई बार महिलाओं को नौकरी देने से भी
बचा जाता है, खासकर गर्भवती महिलाओं या छोटे बच्चों वाली
महिलाओं को उन्हें बराबर के मौके नहीं दिए जाते ।
7. स्वास्थ्य पर असर -
कई ज़िम्मेदारियों को एक
साथ निभाने से महिलाओं का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है । घर के
काम, ऑफिस के काम, बच्चों की
देखभाल, बुजुर्गों की देखभाल इन सब के बीच उनके आराम करने का
समय बहुत कम रह जाता है । इससे थकान बढ़ती है और बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है ।
8. परिवार का सहयोग -
कामकाजी महिलाओं के लिए सबसे बड़ा सहारा परिवार का होता है । लेकिन कई बार परिवार के अन्य सदस्य घर का काम छोड़कर नौकरी करने का विरोध करते हैं । देर तक काम करने से भी रोकते हैं। इससे उनका प्रदर्शन प्रभावित होता है और पदोन्नति के मौके कम हो जाते हैं ।
9. मातृत्व छुट्टी की कमी -
कामकाजी
माताओं के लिए कम मातृत्व छुट्टी भी एक बड़ी समस्या है । इससे ना सिर्फ उनका काम
प्रभावित होता है, बल्कि बच्चे की देखभाल भी ठीक से नहीं हो पाती हैं
। ( Prabha
2019)11
कार्योंजित महिलाओं की
चुनौतियां -
1. परंपरा का बोझ -
कई घरों में आज भी ये सोच बनी
हुई है कि महिला का असली काम घर संभालना है । इसलिए उनके कामकाजी जीवन को समझने और
सहयोग करने में अक्सर कमी रहती हैं ।
2. काम का बोझ -
ज़्यादा काम के घंटे, वीकेंड मीटिंग, और लगातार टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल
थकान बढ़ाता है और निजी ज़िंदगी के लिए वक्त कम कर देता है । कार्य -जीवन का
संतुलन बनाना मुश्किल हो जाता हैं ।
3. नियंत्रण का अभाव -
बच्चों की परीक्षा या बीमारी
जैसी अप्रत्याशित घटनाएं तनाव बढ़ा सकती हैं और काम को बाधित कर सकती हैं । साथ ही, अगर उनके काम को पहचान नहीं मिलती या काम करने के तरीके पर उनका नियंत्रण
नहीं होता, तो अकेलेपन और हताशा की भावना बढ़ सकती हैं ।
4. असहयोगी रिश्ते -
दफ्तर में भेदभाव या घर में कम
सहयोग से खुशहाली और काम करने की क्षमता दोनों पर असर पड़ता हैं।
5. संसाधनों की कमी -
बच्चों की देखभाल या घर के
कामों में मदद न मिलने से कार्यभार और बढ़ जाता है, और दूसरी
ज़िम्मेदारियों को निभाना मुश्किल हो जाता हैं ।
6. तनाव और कमजोरियां -
कई ज़िम्मेदारियों को साथ उठाते
हुए थकान महसूस होना लाज़मी है, जिससे चुनौतियों का सामना करना
मुश्किल हो जाता है । अगर बातचीत, आत्मविश्वास या काम के कुछ
पहलुओं में कमजोरियां महसूस होती हैं, तो नियंत्रण न होने की
भावना और बढ़ सकती है । (Gupta 2023)12
समाधान -
1. नज़रिया बदलना -
समाज और
परिवार दोनों को कामकाजी महिलाओं का साथ देना चाहिए पुरानी सोच को छोड़कर लैंगिक
समानता को बढ़ावा देना ज़रूरी है ।
2. काम के लचीले तरीके -
संस्थान द्वारा कम कार्य के घंटे,
बच्चों की देखभाल की सुविधा और बेहतर छुट्टी के विकल्प देकर कामकाजी
महिलाओं के लिए बेहतर माहौल बना सकती हैं ।
3. तनाव कम करना और ताकत बढ़ाना -
तनाव कम
करने की तकनीक सीखना, अच्छा खान-पान और व्यायाम सेहत बनाए रखेंगे और चुनौतियों का
सामना करने में मदद करेंगे ।
4. पारिवारिक और आत्मनिर्भरता -
अपनी
कमजोरियों को पहचानकर उन पर काम करना और ज़रूरी स्किल्स सीखना महिलाओं को सशक्त
बनाएगा और मुश्किल परिस्थितियों में भी हार न मानने का हौसला देगा ।
5. टेक्नोलॉजी का सहारा -
टाइम
मैनेजमेंट या घर के कुछ कामों को करने के
लिये तकनीक का इस्तेमाल ज़िम्मेदारियों को कम करने में मदद कर सकता हैं।
इन
चुनौतियों का सामना करने के लिए जागरूकता बढ़ाना, खुलकर बात करना
और समाधान खोजने के लिए मिलकर काम करना ज़रूरी है । तभी एक ऐसा माहौल बनाया जा
सकता है जहां सभी कामकाजी महिलाएं बिना किसी बाधा के प्रगति कर सकेंगी ।
निष्कर्ष : कार्योंजित महिलाओं की समस्या एवं चुनौतियां जटिल हैं जो समाज के नज़रिए, संस्थाओं के ढांचे और सांस्कृतिक उम्मीदों से जुड़ी हैं । लैंगिक समानता की तरक्की के बावजूद, यौन उत्पीड़न ,महिलाओं को आज भी कम वेतन, कम पदोन्नति के मौके और कार्य -परिवार के संतुलन के बोझ से जूझना पड़ता है । हम यह कह सकते हैं कि इन मुद्दों से निपटने के लिए नीतियों में आमूलचूल बदलाव, कार्यस्थल के माहौल में बदलाव और खास कार्यक्रमों की ज़रूरत हैं।
इस ग़ैर-बराबरी को खत्म करने के लिए सरकारों, संस्थाओं और सभी लोगों का साथ ज़रूरी है । हमें लैंगिक रूढ़िवादिता तोड़ने, समावेशी माहौल बनाने और बराबर मौके देने पर ज़ोर देना चाहिए । अलग-अलग महिलाओं के अनुभवों को समझते हुए ऐसे समाधान तय करने चाहिए जो कामकाजी दुनिया को ज़्यादा समान और ज़्यादा सहयोगी बनाएँ । महिलाओं का सम्मान करने और उन्हें सशक्त बनाने पर जोर दिया जाना चाहिए । ऐसा समाज बनाने की कोशिश करनी चाहिए जहाँ महिलाओं के योगदान को पूरी तरह से पहचाना और सराहा जाए ।
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शोध छात्र, समाजशास्त्र विभाग, सामाजिक विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी
sanjaysocio5@bhu.ac.in
डॉ. पंकज सिंह
सहायक आचार्य, समाजशास्त्र विभाग, सामाजिक विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी
Id-pankajsocio@bhu.ac.in
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