शोध आलेख : महामति प्राणनाथ की भक्ति का लोकवृत्त / सुषमा यादव

महामति प्राणनाथ की भक्ति का लोकवृत्त 
- सुषमा यादव


शोध सार भारतीय इतिहास को तीन भागों में बांटा गया है। प्राचीन इतिहास, मध्यकालीन इतिहास और आधुनिक इतिहास जिसमें प्राचीन इतिहास को तो ‘गौरवशाली इतिहास’ नाम  दिया गया और ‘आधुनिकता’ के युग की शुरुआत हुई अंग्रेजों के आने के बाद। रहा भारतीय मध्यकाल जिसको लेकर अवधारणा यह बनायी गयी कि, साहब हिंदुस्तान का मध्यकाल तो अंधकार से भरा हुआ था। निरा जड़ भरा समाज, जिसमें न आर्थिक उन्नति हुई और न आई सामाजिक गतिशीलता। उसमें तो बस मन्दिर तोड़े गये। मस्जिदों का निर्माण हुआ। हिंदुओं के धार्मिक विचारों का गला घोंटा गया। सारी तोड़-फोड़ का दौर इसी मध्यकाल से शुरू हुआ। लेकिन वही मध्यकालीन इतिहास जब यूरोप में हम देखते हैं तो वह ‘आधुनिक काल’ हो जाता है। प्रश्न उठता है क्या वास्तव में मध्यकालीन इतिहास अंधकार युग था? क्या भारतीय मध्यकाल में व्यापारजनित उन्नति, पेशेगत आर्थिक वैचारिकी इत्यादि नहीं थी? निम्न जाति से उभर कर सामने आये भक्ति संतो, नायकों ने आध्यात्मिकता को औदात्य तक ना पहुंचा दिया था। जिसमें जातीय भेदभाव का रंच मात्र भी स्थान नहीं था। यह देशज आधुनिकता, भक्ति का लोकवृत्त कबीर से शुरू होकर 16वीं शताब्दी में शुरू हुए गुजरात के प्रणामी संप्रदाय के कवि, संत प्राणनाथ की वाणियों में हमें बखूबी दिखता है। मूल आलेख में महामति प्राणनाथ के उसी भक्ति के लोकवृत्त में पनपती हुई देशज भाषा, आर्थिक उन्नति, आर्थिक संघर्ष, दैनंदिन आ रही सामाजिक चुनौतियां, जातिगत धर्मगत भेदभाव को मिटाकर एक सर्वधर्म समभाव का समेकित मार्ग, स्त्री वैचारिकी भक्ति औदात्य को दिखाने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द : गौरवशाली इतिहास, आधुनिक काल, अंधकार युग, पेशगत आर्थिक वैचारिकी,  आध्यात्मिक औदात्य, देशज आधुनिकता, भक्ति का लोकवृत्त प्रणामी संप्रदाय, संत प्राणनाथ, देशज भाषा, स्त्री वैचारकी

मूल आलेख भारतीय मध्यकालीन समाज जिसको पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ‘आरंभिक आधुनिक काल’ कहा है जिसमें भक्ति का लोकवृत्त और उस लोकवृत्त में पनपती देशज आधुनिकता है उस देशज आधुनिकता में व्यापारिक गतिशीलता है सामाजिक बदलाव की सुगबुगाहटें हैं राजनीतिक परिवर्तन है जातिपरक संवेदना है। एक तरफ वर्णाश्रमवादी फंटेशिया हैं तो साथ ही साथ भक्ति संतों की उन वर्णाश्रमवादियों को चुनौती भी है, संवाद भी हैं। भक्ति के इस संवादों में पुकार है पेशेवर, दस्तकारों, व्यापारियों की। संवाद है स्त्री विमर्श को लेकर लोकवेद कलजुग दज्जाल  रूपी कर्मकांडों को लेकर वैष्णवों, शैवों, पांडे, पुरोहितों, षडदर्शनियों की बनावटी भक्ति मायाजाल को लेकर। एक तरफ जातिपरक उलटफेर है परंतु भक्ति संत इन उलटफेर से बहुत अधिक आगे हैं। जड़ता भरे अपरिवर्तनशील समाज में यह सारी गतिशीलता नहीं होती हैं, लेकिन हिंदुस्तान के समाज में यह सारी चीजें हो रही थी। जाहिरन तौर पर जड़ता युक्त समाज का सिद्धांत “यूरोपियन सेंट्रिक” व “अंग्रेजी ज्ञानकांड” के मोहजाल से उपजा है। मध्यकालीन समाज के इन भक्ति संतों में व भक्ति के इस लोकवृत्त का पुरुषोत्तम जी ने आधुनिकता की अवधारणा से गहरा संबंध माना हैं। उनके शब्दों में -

“अंग्रेजी राज्य के पहले के भारत में जिन्हें खेती किसानी पर आधारित, सीमित ग्रामीण अर्थव्यवस्था और इतिहासविहीन जड़ समाज ही नजर आता है, और जो मानते हैं कि तर्काधारित, सार्वजनिक विमर्श यूरोप के बाहर हो ही नहीं सकता था, उन्हें आधुनिकता और व्यापारियों से जुड़े ‘लोकवृत्त’ की चर्चा अटपटी लगेगी। लेकिन जिस समाज में सामाजिक अनुभवों की जटिलता हो, विचार-विमर्श की परंपरा हो, सामंती जड़ता के विरुद्ध असंतोष को सामाजिक आधार दे सकने वाले व्यापारियों और दस्तकारों की अच्छी-खासी तादात हो, आर्थिक हैसियत और सामाजिक सम्मान के बीच खाई, और उसके प्रति असंतोष हो, उसमें आधुनिकता और लोकवृत्त का विकास तो होगा ही(1)

मेहराज ठाकुर (प्राणनाथ) हो या कबीर उनकी वाणियों में उनके भक्ति के इस लोकवृत्त में व्यापारिक जीवन में आने वाली चुनौतियों, व्यापारिक गतिविधियों के संदर्भ भरे पड़े हैं। परमात्मा रूपी प्रेमी को रिझाने के लिए प्रेम जाहिर करने के लिए, लौकिक जीवन को अलौकिक जीवन से जोड़ने के लिए वह अपने दैनंदिन पेशे से उपमाएं ग्रहण करते हैं। अपने साथ साथ पूरे सामाजिक समुदायों को जगाते हैं भक्ति के उस लोकवृत्त में उनके आत्म का मतलब सिर्फ अपनेआप से न होकर एक समस्त भरे पूरे समाज अपने सुंदरसाथ से है। प्राणनाथ जी व्यवहारिक जगत के पेशों से उपमायें ग्रहण करते हुए समस्त संसार को अपने समाज को सुंदर साथ को जागते हुए कहते हैं -

किंनीनी कीझों कतयों, किने न भगी रे भीडी,
कपाइतियू आवयूं, कतण कोड को।
केहे केहे सनो कतयो, घणो नेह धरे,
के बैठीयूं मए विच थेई, पण नाड़ी तंद न चढ़े ।
कतण के जे विसरयूं से उथियूं ओराता धरे
किंनी कतया सोहागजा सुतर भरया सेर।(2)

 व्यापारिक गतिशीलता, व्यापार जनितकनीकी (दिशासूचक यंत्र, ध्रुवतारा, नक्षत्रों के आधार पर समुद्री यात्राओं को, उनकी दिशाओं को ज्ञात करना) का वर्णन केवल अबुल फजल जैसे दरबारी इतिहासकारों की रचनाओं में ही नहीं मिलता है बल्कि देशज भाषा में रची गई संतो की वाणियों में बखूबी मिलता है। ये सारे क्रियाकलाप तो उनके जीवन का हिस्सा थे उनके दैनंदिन जीवन में शामिल थे। मेहराज जैसे व्यक्तित्व तो सदैव इन चुनौतियों से लड़ने के लिए तैयार रहते थे -

“बिसराई गिन्यो बंजे सूंजी संघारयों बंजे रिणायर रेल्या बंजे,मालम कर मोहाड छाला पुंजे बंदरपार।” (जगतरूपी सागर में जीवनरूपी नैया के कप्तान, हे मल्लाह जीव! माया भूली पड़ी नैया तुझे बहाये लिए जा रही है)

हुकोनी तोहिजे हथ में, तू नीचा उनूड़े निहार, चूके म चमक द्रुअजी, यंत्र से तूं पाण संभार ।(तुम्हारे हाथ में दिशासूचक यंत्र है। उसमें झुक कर देखो। ध्रुव तारा के समान तारतम के ज्ञान की चमक को चूक ना जाना। अपने आप को संभाल लो)

“हिन जोखे में लाभ अलेखे, तू अंखड़ी मंझ उघार।” (इस मानव जीवनरूपी जोखिम भरी यात्रा में अनेक लाभ हैं, तुम अंदर की आंखें खोलकर देखो।)

“मंथा अंबर हेठ जर, नखत्र न डिसे कोय रिणे रूप घटाइयूं‌।” (तुम्हारे सिर पर आकाश है, नीचे जल है, कोई नक्षत्र नहीं दिखाई देता है, रात्रि में समुद्र का रूप घटाटोप अंधकार से भरा पड़ा है) “बेड़ी बंध ढीरा थेया, त्रूटन संधो संध, अजां अंख न उपटिए, पणीनी पूरों मंझ(जहाज के बंधन ढीले पड़ रहे हैं, संध संध टूट रहे हैं, पानी की लहरों के बीच अभी भी तेरी आंखें नहीं खुल रही)(3)

भक्ति के इस लोकवृत्त में निहित व्यापारिक गतिशीलता ने व मेहराज की समुद्री यात्राओं ने 19वीं शताब्दी में अंग्रेजो के द्वारा समस्त भारतीय समाज पर थोपे गए कोरे झूठ कि ‘समुद्र पार करना पाप है’ क़ो भी उजागर कर रहा था। आरंभिक आधुनिक समाज में इस तरह की कोई धारणा नहीं थी यदि होती तो महामति प्राणनाथ को और उनके साथियों को, उनकी पत्नी को समाज जाति से बाहर कर दिया जाता उन्हें ‘निष्कलंकबुद्धाअवतारी’ जैसी उपाधियों से विभूषित नहीं किया जाता। वह दंश मेहराज को भी भोगना पड़ता जो दंश ब्रिटिश औपनिवेशिक काल या यूं कहें आधुनिक भारत में सात समंदर पार करके बैरिस्टर बनकर आए गांधी को झेलना पड़ा। ये सारी चालबाजी अंग्रेजों के आने के बाद ही क्योंकर शुरू हो गई जाहिर तौर पर हिंदुस्तानियों का भारतीय बाहरी देशों से संपर्क व व्यापारिक गतिशीलता पर प्रतिबंध जो लगाना था ताकि भारतीय बाहरी देशों में ना जा सके और नवीन विचार भारतीयों में ना पनप सके। ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे।’ उन्हें यह बिल्कुल  नगवारा था कि कोई गैर देशरूपी मर्द बमुश्किलन झूठ कपट से जीती गई उनकी औपनिवेशिक हिंदुस्तानी दुल्हन पर नजर भी डालें।

भक्ति के इस लोकवृत्त में न केवल ब्राह्मण पुरोहितों का ही दरबारी सत्ता शासकों के बीच प्रभाव था बल्कि इस लोकवृत्त में संतों का भी प्रभाव था। राज्य सत्ता के साथ यह संबंध उनका स्वायत्तता का संबंध था, निजता पर आधारित था। प्राणनाथ जी ने जिस निडरता बेबाकी से औरंगजेब के दरबार में अपने साथियों की एक लाबी तैयार की उसकी अपनी अलग ऐतिहासिकता है अलग कहानी है अलग प्रभावकारिता है। प्राणनाथ जीसंतन को कहा सीकरी सो काम, आवत जात पनहियां टूटी, बिसरि गयो हरिनाम’, जैसी विचारधारा से बिल्कुल विपरीत थे।

महामति के इस लोकवृत्त में औरंगजेब तक अपनी बात पहुंचाने में तैयार किया गया जन संगठन था जिसमें पुरुष तो थे ही महिलाओं की भी अहम भूमिका थी। यह महज महिला पुरुष संगठन न होकर जनजागृति का संगठन, राजनैतिक संगठन, आधुनिक सामाजिक वैचारिकी का संगठन था, जैसा बीसवीं शताब्दी में तिलक के स्वदेशी आंदोलन और गांधी द्वारा शुरू किए गए आंदोलनों का जनसंगठन था। यह मध्यकालीन  देशज आधुनिकता थी जो दर्शाती है उनकी बेबाकी उनकी मुखरता और एक आह्वान पर किस तरह से एक जन संगठन बना जो इस बात का प्रतीक था कि जब राजनीतिक वर्चस्व बहुत ज्यादा हावी होने लगे तो समाज के बौद्धिकजनों कवियों, लेखकों, संतों का उत्तरदायित्व है कि वह उन राजनीतिक शक्तियों को उनके वर्चस्व को चुनौतियां दें जो समाज को तोड़ती है। सत्ता शासको को अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक बनाए। एक शासक अपनी प्रजा का कैसे ध्यान रखें और कैसे उन ऊंचे धर्म के पदों पर बैठे पदाधिकारी से मुक्त होकर जन कल्याण क कार्य करें जिससे एक समन्वयकारी समाज स्थापित हो महामति प्राणनाथ का यह योगदान यह ऐतिहासिक कदम उनकी बेबाकी  निडरता को शायद ही कभी भुलाया जा सकता है महामती प्राणनाथ ने अपने तारतम सागर में समन्वय का मिल्लत का एक संपूर्ण सागर प्रवाहित किया था। भक्ति के लोकवृत्त में हेमेटिक और सेमेटिक के मिलन की परंपरा समाज में स्थापित की थी।

मैं छाड्यो दुनियां की राह’ विचार रखने वाले प्राणनाथ ‘कबीर’ व अन्य भक्ति संत पांडे जनों, शाक्तों, सगुणी जनों को भले ही अखरते हो लेकिन उन पेशेवर, दस्तकारी समाजजन, चारदीवारों में जी रही स्त्री समाजों को, सामाजिक-धार्मिक स्तर पर जीवन संघर्ष कर रहे लोगों को अपने जैसे लगते थे। वह उनमें अपनी आवाज को पाते थे। धर्म राजनीति से कटा हुआ नहीं था भक्ति के इस लोकवृत्त में प्राणनाथ ने एक समन्वयकारी समाज स्थापित किया था चाहे औरंगजेब की नीतियों को परिवर्तित करने की बात हो चाहे राजा छत्रसाल के गुरु बनने तक का सफर हो। प्राणनाथ जी जानते थे राजनीतिक प्रभाव स्थापित किए बिना ना तो धार्मिक विचारों का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है और ना ही एक समन्वयकारी राज्य स्थापित किया जा सकता है। साथ ही यह भी समझते थे कि विद्रोह के द्वारा इस तरह से शांति स्थापित नहीं की जा सकती। प्राणनाथ जी समन्वयकरी संस्कृति के पुजारी थे और एक संप्रदाय निरपेक्ष समाज की कल्पना करते थे। इसलिए वह गादीपति बनकर उपदेश नहीं बल्कि अपने सुंदर साथ समाज के साथ-साथ यात्राओं द्वारा संघर्षों चुनौतियों जीवन की तमाम बीहड़ घाटियों में उतरते हुए अनेकानेक कष्टों-विरोधों को सहकर आगे बढ़ रहे थे जनजागृति के लिए, और यह जनजागृति सुंदरसाथ का एक कारवां  बनता जाता।

आरंभिक आधुनिक समाज में (मध्यकालीन समाज में) ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की तरह ‘हिंदू महसभा’ व ‘मुस्लिम महासभा’ बनाने की नौबत नहीं आई थी। न ही सांप्रदायिकता का जहर इस हद तक फैला था लोगों के दिलों दिमाग में कि हिंदू मुस्लिम के नाम पर नोआखाली की तरह दंगे भड़कते हो, मुस्लिम शासन होने के बावजूद भी। या जैसे यूरोपीय समाज में चर्च, शासक, व धर्म सुधारों के बीच होता था। ‘कायम मुल्ला' ‘शेख बदल' जैसे मुस्लिम प्राणनाथी अनुयायियों पर फतवा नहीं जारी होता था और न ही लालदास, उद्धव, मुकुंद, केशव, श्याम, जैसे अनुयायी पैगंबर मुहम्मद, तफसीर हुसैनी, कतेब का नाम सुनकर हिंदुत्ववादी विचारधारा से भर कर जहर उगलने लगते थे।

“तफसीर को देष के, श्रीराज भये षुसाल,
बातें लगे कहने आगे गुलाम लाल।
सुनियो भीम, मुकुंद जी, उद्धव, केशव, स्याम
हम पाती पढ़ी मंहमद की, सब पाई हकीकत धाम(4)

भक्ति के इस लोकवृत्त में ‘ब्राह्मणी सर्वोच्चता’ वर्णाश्रवाद क नकारती हुई जातिपरक गतिशीलता थी, सनातनी पंथ संप्रदाय के मध्य निर्गुण-सगुण के बीच वैचारिक मतभेद बेशक थे परंतु एक दूसरे के खून क प्यासा कोई नहीं बन बैठ‌। मेहराज ठाकुर तो सीधे-सीधे वैष्णवों पद्धतियों का, ब्राह्मणसर्वोच्चता, बनावटी ज्ञानकांड को लेकर कटाक्ष करते थे नाम लेकर फिर भी खून-खराबे जैसी स्थिति कभी नहीं आती थी जैसे यूरोपीय समाज के कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट धर्म के बीच मचा हुआ था या फिर जैसे आज के दौर में दिखाई पड़ता है। एक-दूसरे के जान के दुश्मन बनकर नहीं बैठे थे आरंभिक आधुनिक समाज में लोग। महामति कैसे कहते हैं -


सुनो भाई संतों, कहूं रे महंतो,तुम अखंड मंडल जान पाया,
वैष्णव बानी पूछो गुरु ज्ञानी,ऐसा अंधेर धंधा क्यों लाया,
जाको तुम सतगुरु कर सेवो,ताको इतनी पूछो खबर,
ए संसार छोड़ चलेंगे आपन,तब कहां है अपनों घर,
कोई आप बड़ाई अपने मुख ते,करो सो लाख हजार,
परमेश्वर होएके आप पुजाओ,पर पावों नहीं भवपार।।”(5)                                                    
मैं पूछूं पांडे तुमको, तुम कहो करके विचार,
शास्त्रअरथ सब लेंवहि पर किने न कियो निराधार,
महमत सो गुरु कीजिए, जो बतावे मूल अंकुर,
आतम अरथ लगावहीं तब पिया वतन हुजूर।”(6)                                  

भक्ति के इस लोकवृत्त में मेहराज ठाकुर के लिए व अन्य निर्गुण संतो के लिए जन्मणा ज्ञान कर्म नहीं बल्कि कर्मणा ‘ज्ञान’ महत्व रखता था। प्राणनाथ जी के लिए एक पवित्र हृदय वाला चांडाल उतना ही सम्माननीय था, भक्ति का उतना ही हकदार था जितना पांडे पुरोहित ब्राह्मण लोग। महामति लिए भक्ति किसी की बपौती नहीं थी किसी की अधिशासी। (“हो भाई मेरे वैष्णव कहिए वाको निरमल जाकी आतम, नीच करम के निकट न जावे, जाए पहचान भाई परब्रह्म।) सामानरूपा अधिकार था प्रत्येक का भक्ति पर और भक्ति के लिए शास्त्रोंक्तधारित भाषा के शब्दजालो की आवश्यकता नहीं थी। ह्रदय की निर्मलता में ही परमात्मा रूपी प्रेमी खोजा था प्राणनाथ जी ने व अन्य भक्ति संतों ने‌। 19वीं शताब्दी के ‘धार्मिक-सामाजिक आंदोलनों’ और ‘पीर पराई’ जानने वाले गांधी के विचारों का आधार यही आधुनिक वैचारिकी के भक्ति संत थे। ‘ग्रोवर साहब' का मानना है कि…. ‌

‘शहरीकरण तथा आधुनिकीकरण  तथा रेलों के प्रचलन ने हीं भारत में छुआछूत और खाने-पीने जैसी विचारों को प्रभावित किया’(7)

            ‘संस्कृत के अध्ययन तथा मुद्रणालयों (प्रिंटिंग प्रेस) के विस्तार के कारण लोगों ने वह पुस्तकें भी पढ़नी आरंभ कर दी जो पहले उनके पूर्वजों ने कभी नहीं पढ़ी थी। इस ज्ञान के विस्तार के कारण भारत में पुनर्जागरण की भावना आयी। भारतीय बुद्धिजीवियों ने देश के भूतकाल को परखने का प्रयत्न किया और यह देखा कि हिंदू धर्म के बहुत से विश्वास तथा रीति-रिवाज ना केवल गलत है अपितु उन्हें मानना संभव ही नहीं है और उन्हें त्यागना ही ठीक है’(8)

          सवाल उठता है कि इस तरह की बौद्धिकता तो हमारे भक्ति संतों में पहले से ही थी तब तो हमें बिल्कुल ही मध्यकालीन समाज को आधुनिक मान लेना चाहिए जिसमें छुआछूत कर्मकांड और रीति-रिवाजों रूढ़वादियों की जमकर आलोचना की जा रही थी। जहां तक बात रही पुस्तकों की पढ़ने की, तो पढ़ने और ‘कहन सुनन' से कहीं अधिक ‘आंखन देखी बात' का ज्यादा महत्व रहा है हमारे समाज में अनुभवजन्य बात विचार की महत्ता ज्यादा रही है। इस लिहाज से भी भारतीय मध्यकालीन समाज उपनिवेश बनने के पहले से ही आधुनिक था।

          भक्ति के इसी लोकवृत्त में देशज भाषाओं का भी विकास हो रहा था। मेहराज जैसे अरबी, संस्कृति, फारसी, गुजराती, सिंधी के जानकार संस्कृत के स्थान पर ‘हिंदुस्तानी भाषा' के हिमायती थे। ‘एक कोस पर बदल जाने वाली बोली भाषा’ से परिचित मेहराज ठाकुर यह भी जानते थे कि हजारों मत मतांतरों, अज्ञानता के पीछे भाषा की जटिलता भी एक कारण है इसीलिए एक ऐसी भाषा हो जो सबके लिए सुगम हो। ‘सबको सुगम जान के कहूंगी हिंदुस्तान’ ‘सीखो सबे संस्कृत और पढ़ो सो वेद पुरान, अर्थ करो द्वादश के पर आप ना होए पहचान’ मेहराज की यहवैचारिक भावना ही एक सामाजिक पहचान कराती है जो जन-जन को साधारण से साधारण लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती थी। साथ ही साथ अन्य संप्रदायों-पंथों के अनुयायियों को सम्मोहित कर लेती थी। कबीर और कमाल को एक ही तुला में तोल देने वाले कबीरपंथी चिंतामणि ने जब मेहराज का कबीर के प्रति भक्तिभाव देखकर कबीर के विषय में ज्ञान के बखान को सुन तो वह भी मेहराज ठाकुर के मुरीद हो गये थे। चिंतामणि द्वारा कबीर और कमाल के बीच तुलनात्मक अध्ययन करने पर प्राणनाथ जी कहते है-

“कहियो कोड़ी ते हीरा भया, हीरा ते भया लाल,
आधा भक्त कबीर है, पूरा भक्त कमाल
तब श्रीजी ये कहया, तुम क्या जानो कबीर
तुम आधा भक्त इनको कहयो, जो चित नाही तुम धीर,।
कहां मजल कबीर की, केती अकल कमाल,
तोल देवो दोनों को, किन का ऐसा हाल।
बिन पहचाने बोलत हो, नाहीं तुम सराफ,
कहां कबीर कहां कमाल, विचार देषो आप(9)

यह उदारता थी और ज्ञान की सर्वोच्चता भी महामत की एक सच्चा ज्ञानी पुरुष ही दूसरे संत कवि की ज्ञान की महिमा को समझ सकता है और उसका आकलन कर सकता है। पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों में,

          “कोरी हो या ब्राम्हण’ इस लोकवृत्त में समान धर्मा लोग ‘भगत’ ही पहचाने जाते थे। भक्ति का लोकवृत्त ‘रक्तशुद्धि’ पर आधारित समुदाय की जगह समतापरक मूल्यों पर आधारित समुदाय के विचार को स्थापित करता है। वह जाति-मजहब पर आधारित सामाजिक पहचान को समाप्त भले न कर पाए लेकिन उसका महत्व जरूर घटाता है। जुलाहे कबीर और व्यापारी प्राणनाथ सद्गुरु मान लिए जाते हैं, पठान रज्जब ‘दादू’ के परम शिष्य और संस्कृत के ज्ञाता बनते हैं। पंद्रहवीं सदी में राजा पीपा ‘दर्जी’ बन जाते हैं, और 19वीं सदी में कोरी शिवचरण, ‘भक्तमाल' के प्रमाणिक, प्रतिष्ठित व्याख्याकार।”(10)

          नजर भला क्यों ना आये उन भक्तों, अनुयायियों सामाजिक मुख्यधारा से कटे उन निचले स्तर के लोगों को सामाजिक वाद-विवाद संवादों में अपनी आवाज, अपना सम्मान क्योंकि यह संवाद इतना प्रभावशाली इतना सार्थक होता ही था कि अन्य सनातनी पंथ भी इन जाति निरपेक्ष व पंथ निरपेक्ष संतों के अनुयायी बन जाते थे और तो और विरोध करने वाले, शास्त्रार्थ द्वारा पराजित करने की चाह लिये उन्हीं सनातनी पंथ, संप्रदायों द्वारा एकमत से प्राणनाथ जैसे सामाजिक योद्धाओं को ‘निष्कलंकबुद्धावतारी’ के रूप में स्वीकार भी किया जाता था।

          प्राणनाथ, कबीर सरीखे संत भारतीय समाज में अपनी वाणियों, अपने विचारों के जरिए आज भी जिंदा हैं। कहना न होगा कि उनका महत्व, उनकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है जितनी कि आरंभिक आधुनिक समाज में थी। बल्कि पाश्चात्य जगत और औपनिवेशिक ज्ञान कांड से उपजी आधुनिकता के मोहजाल में जकड़े हुए आज के समाज को सबसे अधिक आवश्यकता है जो आधुनिकता की दौड़ में अन्धाधुंध दौड़तो जा रह है लेकिन असल आधुनिकता का ज्ञान तक नहीं। साथ ही साथ उन इतिहासकारों को भी जानने की आवश्यकता है जिन्हें मध्यकालीन समाज में केवल जड़ता ही नजर आती है, आधुनिकता की वैचारिकी नहीं, वह बस 19वीं शताब्दी से ही उनको नजर आयी। जब कुछ अंग्रेजी विद्वानों ने शोधकर बताया कि हमारी संस्कृति हमारी सभ्यता गौरवशाली है।

निष्कर्ष यूरो-सेंट्रिक विद्वानों ने भले ही आधुनिकता का पैमाना अर्थव्यवस्था को तय किया हो कि जब तक बड़े-बड़े नगरों का विकास नहीं होगा व्यापारिक गतिविधियां अपने चरम पर नहीं होंगी बाहरी देशों के साथ व्यापारिक संबंध नहीं होंगे तब तक उस समाज को आधुनिक नहीं माना जाएगा। बात फिर उसी बिन्दु पर आकर ठहर जाती कि‌ यूरो सेंट्रिक विद्वानों द्वारा बतायी गयी ये सारी विशेषताएं मध्यकालीन भारतीय इतिहास में भी थी इसमें कोई दोराय नहीं। लेकिन इन विद्वानों का यही मानना है कि साहब आपके मध्यकाल में जो भी रही हो विशेषताएं लेकिन आधुनिक नहीं था वह। था वह जड़ समाज ही। फिर सवाल उठता है कि प्राणनाथ्, कबीर, तुकाराम सरीखे बौद्धिकता से युक्त लोगों के आधुनिक वैचारिकी को क्या माना जायेगा।  तो इन आधुनिक विद्वानों की ओर से आवाज आती है जब आप औपनिवेशिक शासन के अन्तर्गत आयेंगे तब इन सारे विचारों कों पुनर्जागरण और आधुनिकता से युक्त मान लिया जाएगा क्योंकि तब तक हम आपको सभ्य बना चुके होंगे और सोचने समझने की क्षमता आपके अंदर आ चुकी होगी। सच पूछिए तो कहीं न कहीं हम भारतीय इतिहासकारों  ने भी यही मान लिया है कि जब स्मिथ साहब कहेंगे कि ‘समुद्रगुप्त' ‘नेपोलियन’ है तो समुद्र गुप्त महान, नहीं तो उनकी कोई प्रभावकारिता नहीं। हंटर साहब' बतायेंगे कि भाई ‘कबीर' भारतीय ‘लूथर’ हैं तो कबीर महान, नहीं तो कबीर की क्या ही बिसात और विल्सन साहब जैसे लोगों का पूछना ही क्या, प्राणनाथ पर बस एक नजर डालते हैं और तुरंत ही आगे बढ़ जाते हैं ( डेविड एन लोरंजन, स्ट्रैटन जान हली जैसे भक्ति संतों पर काम करने वाले इतिहासकार, साहित्यकार भी सामाजिक समन्वय के उदगाता पुरोधा कवि, संत, प्राणनाथ जी को बिना छुए ही आगे बढ़ जाते हैं जबकि ये विद्वान अन्य सारे भक्ति संतों का नाम लेते हैं लेकिन महराज ठाकुर (प्राणनाथ) उनके पन्नों में दूर दूर तक नजर नहीं आतें हैं) ये विद्वान साहब लोग बोले हां, तो हां कर लीजिए और अगर बोले ना तो ना कर लीजिएमध्यकालीन आधुनिक वैचारिकी को लेकर। जड़ता भरे उस समाज को लेकर। चाहे फिर प्राणनाथ या अन्य संतों की वाणियों में तात्कालिक दरबारी लेखकों, इतिहासकारों से अधिक समकालीन परिस्थितियों की जानकारी मिलती हो कितन ही देशज आधुनिकता, भक्ति का लोकवृत्त, समन्वयकारी रूप उनमें हो भले ही आज के दौर में  उनकी प्रासंगिकता कितनी ही हो। रहेंगे वह परलौकिक भक्ति संत ही, माने वह हाशिए पर खड़े लोग ही जायेंगे लेखकों, इतिहासकारों की दृष्टि में। और भारतीय मध्यकाल अंधकार युग। भले ही उस अंधकार युग में प्राणनाथ सरीखे अन्य संतकवियों के पीछे एक पूरा का पूरा जनसमूह क्यों ही  इकट्ठा हुआ हो भले ही समाज के बीच उनक कितनी ही ैठ रही हो। कितनी ही बेबाकी मुरता निडरता उन संतकवियों की सत्ता शासको के सामने रही हो। कहलाये वह जड़ भरे मध्यकालीन समाज के संत ही जायेंगे। यही पाश्चात्य मायाजाल “सुनो रे संतो सुनो रे महंतो, यामें हर कोई (इतिहासकार) रह्या उरझायी”

 

सन्दर्भ :

पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की कबीर की कविता और उनका समय, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली, ईस्वी न 2009, पृ०141
मोहन प्रियाचार्य,णजीत शाह, ‘महामती प्राणनाथ पद संचयन’ श्री प्राणनाथ मिशन दिल्ली,स्वी सन 2017, पृ.188
3.   वही, पृ.187
श्री लालदास, (मानिकलाल दुबे टीकाकार), ‘बीतक’, श्री 108 प्राणनाथ जी मंदिर ट्रस्ट श्री 5 पद्मावतीपुरी धाम, पन्ना (मध्य प्रदेश), ईस्वी सन 2012, पृ.191-193
मोहन प्रियाचार्य, रणजीत शाहा, ‘महामती प्राणनाथ पद संचयन’, श्री प्राणनाथ मिशन दिल्ली ईस्वी सन 2017, पृ. 27
6.   वही, पृ. 42-43
बी.एल ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल, ‘आधुनिक भारत का इतिहास’ एस चंद एंड कंपनी प्राइवेट लिमिटेड दिल्ली, ईस्वी सन 2008, पृ. 271
वहीं, पृ.171
श्री लालदास, (मानिकलाल दुबे टीकाकार), ‘बीतक’, श्री 108 प्राणनाथ जी मंदिर ट्रस्ट श्री 5 पद्मावतीपुरी धाम पन्ना (मध्य प्रदेश) ईस्वी सन 2012, पृ. 153-154
पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की कबीर की कविता और उनका समय, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड दिल्ली, ईस्वी सन् 2009, पृ.50

सहायक ग्रंथ :

11.  रणजीत साहा, भारतीय साहित्य के निर्माता महामति प्राणनाथ, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, ईस्वी सन् 2003
12.  मोहन प्रियाचार्य,  बीतक विमर्श, श्री प्राणनाथ मिशन नई दिल्ली।
13.  डेविड एन लारेंजन, निर्गुण संतो के स्वप्न, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली, ईस्वी सन् 2010
14.  इरफान हबीब, ‘भारतीय इतिहास में मध्यकाल, इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, बी-7, सरस्वती कंपलेक्स सुभाष चौक, लक्ष्मी नगर, दिल्ली, इसवी सन 2002.
15.  जॉन स्ट्रैटन होली, ‘भक्ति के तीन स्वर मीरा, सूर, कबीर’ राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड नई दिल्ली, प्रथम संस्करण ईस्वी सन 201, दूसरा संस्करण 2020।
16.  हरिवंश मुखिया, ‘मध्यकालीन भारतीय इतिहास की गतिशील रूपरेखा’ Blogger htt:p// phleebar.com पहली बार समकालीन सृजन का समवेत स्वर, 24 मई 2019।

सुषमा यादव
शोधार्थी, इतिहास विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
kmyadavsushma@gmail.com7985600913

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................

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