शोध सार : आदि कवि महर्षि वाल्मीकि कृत विश्व का प्रथम छंद ‘मा निषाद ...’ गहन वन में ही लिखा गया, व्याघ द्वारा क्रोंच पक्षी के वध एवं क्रोंची की करुण पुकार की प्रतिक्रियास्वरूपा अन्तः निष्णात है कि वन एवं कविता का सम्बन्ध मानव की उत्पत्ति एवं उसके रहन-सहन में सम्पूर्ण गंभीरता से है। शताब्दियों से चली आयी यह करुणा फिर वैदिक-लौकिक-संस्कृत ग्रंथों से पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के पश्चात अद्यावधि आ पहुँची ग़ज़ल तक। इसके पूर्व की उर्दू ग़ज़ल में प्रेम के अलगाव पर हुये चीत्कार में आहत हिरनी के समान वही करुणा है जो कभी उस क्रोंची के वियुक्त करुण विलाप में रही। परन्तु वर्तमान की हिंदी ग़ज़ल में यह करुणा अब मानव के द्वारा पर्यावरण को पँहुचायी गयी निरंतर हानि तक आ पहुँची है, जो समुद्र के बढ़ते जल स्तर, जलवायु परिवर्तन, धसकती धरा एवं वायु-जल-अन्न के दूषित होने तक समान रूप से व्याप्त है तथा जिसका सांगोपांग वर्णन सम्प्रति हिंदी ग़ज़लकारों की समर्थ लेखनी से भी अनवरत हो रहा है। प्रस्तुत शोध आलेख इस परिदृश्य के आधार पर चुनिन्दा हिन्दी ग़ज़लकारों के ग़ज़ल साहित्य में पर्यावरणीय चेतना को दो महत्वपूर्ण भागों- पर्यावरण प्रदूषण एवं पर्यावरण संरक्षण के आधार पर देखने का प्रयास करता है।
बीज शब्द : ग़ज़ल, हिन्दी ग़ज़ल, साठोत्तरी हिन्दी ग़ज़ल, पर्यावरण, चेतना, पर्यावरणीय चेतना, पर्यावरण प्रदूषण, पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति, समकालीन हिन्दी ग़ज़ल।
मूल आलेख : ग्रन्थों में सबसे पुराने ग्रंथ हमारी वेदत्रयी के रूप में हैं अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद, जिनकी प्राचीनता निश्चित ही हजारों वर्षों की है। बाणभट्ट ने अपने सृजन में इस वेदत्रयी का उल्लेख किया है और उनका काल ईसा की सातवीं सदी का है। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक अथर्ववेद अस्तित्व में नहीं था या बाद में कभी रचा गया। वेदत्रयी में भी जग-कल्याण कामना है, शुभ प्राप्त करने की इच्छा है -
“विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।यद् भद्रं तन्न आ सुव।।”[1]
“आनो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवेदिवे॥”[2]
परंतु अथर्ववेद के ‘पृथ्वीसूक्त’ में तो इसके सर्जक ऋषियों ने मानो हस्तामलकवत मानव का भविष्य देख लिया था फलतः उन्होंने आज से सैकड़ों वर्ष पहले ही पर्यावरणीय चिंतन के माध्यम से मनुष्य को चेतावनी दी है और प्रकृति तथा भूमा से बहुतेरी प्रार्थनाएँ भी की हैं। अन्न, जल, पवन, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, धरती, वनस्पति एवं औषधि इत्यादि सब पर बात करते हुए सहृदय के मन में पर्यावरणीय भाव जगाने का प्रयास किया है-
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु।।”[3]
साहित्य की अनेक विधाओं के साथ हिन्दी ग़ज़ल भी पर्यावरणीय चेतना से संपन्न विधा है। ग़ज़ल का प्रत्येक शेर एक स्वतंत्र चिंतन को दर्शाता है जिसमें ग़ज़लकार किसी समस्या के कारणों की पहचान करके उसके समाधान को व्यंग्यपूर्ण लहज़े में अभिव्यक्त करता है। हिन्दी ग़ज़लकारों ने पर्यावरण की समस्याओं को उजागर करने में प्रकृति के विभिन्न जैविक एवं अजैविक घटकों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। आरंभ में हिन्दी ग़ज़लकारों की पर्यावरणीय चेतना प्रकृति-प्रेम के रूप में मुखरित हुयी तत्पश्चात् पर्यावरण प्रदूषण जैसी गंभीर समस्या पर विचार करते हुए हिन्दी ग़ज़ल का स्वर परिवर्तित हो गया।
पर्यावरणीय चेतना का अर्थ पर्यावरण एवं चेतना के सम्मिलित रूप में है।जिस प्रकार पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है परि+आवरण। परि उपसर्ग का अर्थ है चारों ओर या परिधि तथा आवरण का अर्थ है घेरा अर्थात् पर्यावरण किसी व्यक्ति के चारों ओर का आवरण है। इसी प्रकार “डॉ.हरदेव बाहरी द्वारा संपादित हिन्दी शब्दकोश में चेतना का अर्थ ज्ञानमूलक मनोवृत्ति, होश-हवास, स्मृति, याद, होश में आना तथा सावधान होना है।”[4] अँग्रेज़ी में चेतना शब्द के पर्याय के रूप में ‘कॉनशियसनेस’ तथा ‘अवेयरनेस’ शब्द प्रचलित हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि चेतना मानव का वह संवेदनशील अनुभवबोध है जो उसमें निर्णय लेने की शक्ति पैदा करता है। दूसरे शब्दों में चेतना का अर्थ जागृति, जागरण या जागरूकता है। निष्कर्षतः पर्यावरण में हो रहे परिवर्तनों के प्रति सर्वसाधारण जन को जगाना ही पर्यावरणीय चेतना कहा जाएगा। हिन्दी ग़ज़ल इस चेतना से सम्पन्न विधा है। इसी चेतना को समकालीन हिन्दी ग़ज़लकारों ने प्रकृति के सौंदर्यमयी एवं प्रलयकारी दोनों रूपों में अपने शेरों में प्रस्तुत किया है।
मनुष्य एवं पर्यावरण का आपस में घनिष्ठ संबंध है तथा वह अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रकृति पर आश्रित रहता है। रामचरितमानस में तुलसीदास ने यह बताया है कि मनुष्य का शरीर पाँच मूल तत्वों से मिलकर बना है जो अपने आस-पास के वातावरण से हर प्रकार से प्रभावित होता है -
पंच रचित अति अधम शरीरा॥”[5]
इनमें से किसी भी तत्व के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।चूँकि पर्यावरण अनेक तत्वों से मिलकर बना है अत: मानव, जीव-जन्तु एवं वनस्पति आदि के अनवरत विकास के लिए ये सभी तत्व प्राकृतिक संतुलन में रहते हैं। यदि इनमें से किसी एक में व्यवधान आता है तो उसका विपरीत प्रभाव अन्य तत्वों पर भी पड़ता है। फलतः वातावरण में विषम परिस्थितियाँ जन्म लेती हैं तथा समाज की प्रगति एवं विकास इससे सीधे-सीधे प्रभावित होता है।
पर्यावरण संरक्षण हेतु आज पूरा विश्व चिंतित है। पर्यावरण में हो रहे इन्हीं बदलावों के प्रति हिन्दी ग़ज़लकारों की भी पैनी नज़र है। इसी आधार पर हिन्दी गज़लों में पर्यावरणीय चेतना को दो प्रकार से चिन्हित किया गया है-पर्यावरण प्रदूषण एवं पर्यावरण संरक्षण।
वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या एक वैश्विक समस्या बन गयी है। मानव अपने क्षुद्र स्वार्थों की सिद्धि के लिए प्रकृति का दोहन करता जा रहा है। वायु प्रदूषण गाँव तथा शहर की प्रमुख समस्या बन गया है जिसकी वजह से श्वास संबंधी घातक रोग होते हैं, जिनसे मनुष्य की मृत्यु तक हो जाती है। हिंदी ग़ज़लकार के शब्दों में-
“धुंध का वातावरण है इन दिनों,
कैद कुहरे में किरण है इन दिनों।”[7] (चंद्रसेन विराट)
वाहनों एवं कारखानों से निकलने वाली ज़हरीली गैसें, घरेलू ईंधन जैसे लकड़ी एवं कोयले के दहन से निकलने वाला धुआँ एवं विभिन्न त्योहारों पर अत्यधिक मात्रा में प्रयुक्त विस्फोटक पदार्थों के कारण से शहरों में प्राणवायु विषैली होती जा रही है। जिस पर हिन्दी ग़ज़लकार चिंतित होकर कहते हैं-
अब शहर वाला प्रदुषण गाँव तक आने लगा।”[8] (चंद्रसेन विराट)
किसने दिया कलंक यह उपवन के भाल पर।”[9] (शरद मिश्र)
धीरे-धीरे लापता हुआ।”[10] (सूर्यभानु गुप्त)
“हवा हुई ज़हरीली कुछ,
नगर छोड़ सब शजर गये।”[11] (वेद मित्र शुक्ल)
वातवारण में वायु प्रदूषण इतनी तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है जिसके फलस्वरूप मनुष्य तो क्या पशु-पक्षियों का जीवन तक संकट में आ गया है। ग़ज़लकार इस व्यथा को अपने व्यंग्यपूर्ण लहज़े में कुछ इस तरह कहते हैं -
रोता हुआ चकोर कहाँ तक चीखेगा।”[12] (शरद मिश्र)
तपते हुए इस तन से स्वेद बिंदु झर रहे।”[13] (वेद मित्र शुक्ल)
गाँव से लेकर शहर तक जल प्रदूषण मनुष्य के लिए एक गंभीर समस्या है। घरों व फैक्ट्रियों से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थ, खेतों में प्रयुक्त खतरनाक कीटनाशकों और रासायनिक खादों का प्रयोग आदि जल प्रदूषण के प्रमुख स्रोत हैं। जल प्रदूषण का दुष्प्रभाव मानव पर ही नहीं अपितु विभिन्न प्रकार के जलीय जीवों एवं वनस्पतियों पर भी पड़ता है। ग़ज़लकारों की मार्मिक लेखनी कुछ यूँ इस वेदना को शब्दों में पिरोती है-
बदसूरती शायद बढ़ी इसी से व्हेल में।”[14] (शरद मिश्र)
शहर वाले कारखानों का ज़हर जाने लगा।”[15] (चंद्रसेन विराट)
नदियों के प्रदूषित होने का एक कारण धर्मांधता भी है। आज भी लोग अपने घर का कूड़ा-कचरा, पूजा-पाठ की सामग्री एवं वस्त्र इत्यादि अपशिष्ट नदियों में पवित्रता के नाम पर विसर्जित कर देते हैं। जिससे स्वच्छ जल के स्रोतों में उपजी अतिशय लवणीयता स्रोत के महीन छिद्रों को रुद्ध कर देती है, जिससे दूषित जल दूषित ही रह जाता है। अंततः इस दुष्चक्र का भोग भी मनुष्य जलसंकट के रूप में करता है। ग़ज़लकार के अन्तर्मन की ये घनीभूत चिंता समकालीन संदर्भों में कितनी जायज़ मालूम पड़ती है-
हर कोयले ने अपने यहाँ हाथ धो लिए।”[16] (हस्तीमल हस्ती)
अब हमें भी विष पिलाकर आजमाएगी नदी।”[17] (कमलेश भट्ट ‘कमल’)
सिरमौर हैं वे भक्त है आराध्य उनकी भक्ति।”[18] (शरद मिश्र)
लगातार गिरता भूमिगत जल स्तर किसी गंभीर समस्या से कम नहीं है। वनोन्मूलन, पानी का जमाव, तथा भूमि कटाव की वजह से मृदा की ऊपरी परत नष्ट होती जा रही है जिसका एक कारण भवन निर्माण के लिए ईटों का उत्पादन भी है। औद्योगीकरण, नगरीकरण एवं बढ़ती जनसंख्या के लिए आवास की व्यवस्था हेतु जंगलों की कटाई से मृदा प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। मानवीय हस्तक्षेप से प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट होता जा रहा है -
जाएगी निरर्थक सनम पहाड़ की तलाश।”[20] (शरद मिश्र)
इस शहर में एक भी ऐसा कोई तरुवर नहीं।”[21] (ज़हीर कुरैशी)
पूरे भारत में भूजल स्तर गिरता जा रहा है। चेन्नई में ‘जीरो शेडो डे’ की हालिया समस्या किसी से छिपी नहीं है। कृषि में प्रयुक्त फसलों की नयी किस्में भी इस समस्या को गंभीर बना रही हैं। नीति आयोग की भूमि सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार मृदा में बढ़ती बंजरता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। भारत जैसे विशालकाय जनसंख्या वाले देश की खाद्य सुरक्षा का संकट भी इस तथ्य से जुड़ा है। वर्तमान में यह स्थिति कुछ इस तरह हो गयी है कि-
किसी गौरैया के टूटे हुए पर जैसा है।”[22] (अदम गोंडवी)
बहती थी इक नदी यहाँ।”[23] (वेद मित्र शुक्ल)
ओज़ोन परत पृथ्वी के वायुमंडल की अत्यंत पतली एवं पारदर्शी परत है जो पृथ्वी को सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण से बचाने का कार्य करती है। औद्योगिक प्रदूषण के कारण ओज़ोन परत का क्षरण हो रहा है। हिन्दी ग़ज़लकार ओज़ोन छिद्र की गंभीर समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए कहते हैं-
भूल मत जाना मुझे मानव तेरा अभिशाप हूँ।”[24] (शरद मिश्र)
ग्लोबल वार्मिंग के कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि होने से ध्रुवों के हिमखंड पिघल रहे हैं जिसके कारण समुद्र तल की ऊँचाई बढ़ने से पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग जलवायु में अनियमितता का एक प्रमुख कारण है जिसका सामना सम्पूर्ण विश्व कर रहा है। इसके कारण एवं प्रभाव को ग़ज़लकार कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं -
कल की कहाँ बुझा सकेंगे तिश्नगी पहाड़।”[25] (प्रेम भारतद्वाज)
आरोप पत्र दे रहे हैं अंशुमान को।”[26] (शरद मिश्र)
वन की कटाई के कारण जहाँ एक तरफ़ पशु-पक्षियों के जीवन का अस्तित्व संकट में आ जाता है वहीं दूसरी तरफ़ सूखा, बाढ़, वर्षा का न होना एवं भूस्खलन इत्यादि गंभीर समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। जिससे पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ जाता है। यह प्राकृतिक संतुलन इतना बिगड़ गया है कि-
इस वन में अगली बार आएगी नहीं बहार।”[27] (शरद मिश्र)
हम भी नहीं बच पायेंगे हो आपको ज्ञातव्य।”[28] (शरद मिश्र)
कोई तो शाख़ चमन की हरी भरी मिलती।”[29] (देवमणि पाण्डेय)
औद्योगिकीकरण, नगरीकरण एवं जनसंख्या विस्फोट के कारण प्राकृतिक क्षेत्रों को नष्ट किया जा रहा है जिससे प्रदूषण एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं से मानव सभ्यता ख़तरे में आ गयी है। अतः पर्यावरण को बचाने के लिए वायु, जल, भूमि, वन, पशु-पक्षियो एवं अन्य संसाधनों का संरक्षण करना प्राथमिक शर्त है। पर्यावरण के प्रति मनुष्य की संवेदनहीनता ने उसे अनेक बीमारियों के गर्त में धकेल दिया है। हिन्दी ग़ज़लकार प्रकृति से प्रेम सिखाते हुए बड़ी ही मधुरता के साथ कहते हैं कि-
आकर के तनिक इस शज़र के पास देखिए।”[30] (वेद मित्र शुक्ल)
“जीवन को बढ़ाना है तो ऐसा हो तरु से प्रेम,
जैसा था घनानन्द को अपनी सुजान पर।”[31] (शरद मिश्र)
एक वृक्ष वातावरण को जीवनदायिनी शुद्ध ऑक्सीज़न देने के साथ-साथ पशु-पक्षियों, चीटियों, मधुमक्खियों एवं अन्य लघु जीवों का घरौंदा बनकर उन्हें आश्रय देता है। लालची मनुष्य एक पल में अपनी कुल्हाड़ी से उसकी गर्दन काटकर उनके जीवन और प्राकृतिक सौंदर्य को नष्ट कर देता है। हिन्दी ग़ज़लकार पेड़-पौधों के काटे जाने पर कभी करुणा से भर जाते हैं तो कभी उनकी वकालत करते हुए उनका पक्ष रखते हुए चेतावनी देते हैं-
याद रखना जंगलों के हर शजर में आग है।”[32] (महेश अग्रवाल)
पत्थर के जंगलों का शहर कैसा लगेगा।”[33] (वशिष्ठ अनूप)
इन परिंदों का सहारा जाएगा।”[34] (अनिरुद्ध सिन्हा)
मनुष्य ही वातावरण के हित के लिए चिंतन कर सकता है। वह यदि प्रकृति के दोहन में अपनी क्षमता का प्रयोग कर सकता है तो उसके संरक्षण के लिए भी उसे ज़्यादा प्रयास करना चाहिए। क्योंकि अब बिना प्रतिबद्धता एवं संकल्प के पर्यावरण को बचाना असंभव है-
इतना तो नहीं है कि तुम क्षमता विहीन हो।”[35] (शरद मिश्र)
एक पौधा हम जतन से सींच कर ले आए हैं।”[36] (किशन तिवारी)
वर्तमान में असभ्य कहे जाने वाले आदिवासी लोग पढ़े-लिखे लोगों की तुलना में प्रकृति के ज़्यादा क़रीब हैं। उनकी जीविका का प्रमुख स्रोत भी यही है। वे प्रकृति से जितना लेते हैं उससे ज़्यादा उसे संरक्षित करके रखते हैं। बढ़ती महँगाई के दौर में जंगलों की कटाई के साथ इनकी आजीविका का संकट भी बढ़ता जा रहा है। यथार्थ के धरातल की इस पीड़ा को हिन्दी ग़ज़लकार पर्यावरण की भी पीड़ा से जोड़कर देखते हैं-
पश्चात इसके करना तुम वातावरण की बात।”[37] (शरद मिश्र)
अफसर का घर बना गए सागौन के जंगल।”[38] (किशन तिवारी)
चढ़ी स्वार्थ की बेल मगर सब चलता है।”[39] (डी एम मिश्र)
प्रकृति का वास्तव में संरक्षण तब ही संभव है जब प्रत्येक मनुष्य उसको बचाने के लिए प्रयास करे। हमारी दिनचर्या का थोड़ा-सा बदलाव भी प्रकृति को लंबे समय तक धारणीय बना सकता है। हिन्दी ग़ज़लकार प्रकृति के प्रति इतना संवेदनशील है कि वह फूलों को उपहार में भी नहीं लेना चाहता है। वह आने वाली पीढ़ी को लकड़ी का पालना नहीं देना चाहता है बल्कि उसे बाहों में झुलाकर पर्यावरण संरक्षण के संस्कार देना चाहता है। वह किसी भी प्रसन्नता के अवसर पर माली के साथ मिलकर अपनी बगिया में दो-चार पौधे लगाना चाहता है। वह पशुओं की खाल से बने दैनिक जीवन के सामान एवं प्रसाधन सामग्री के त्याग की बात करता है। वह देवताओं से प्रकृति के सर्वस्व कल्याण का वरदान माँगना चाहता है -
वन हों घने-घने उनमें बने हों कई स्तूप।”[40] (शरद मिश्र)
सो बाग की टूटी हुयी डाली न दो हमें।”[41] (शरद मिश्र)
रोपेगा वृक्ष आज ही तमाल की कसम।”[42] (शरद मिश्र)
अब काटना न लकड़ी और बनाना न पलना।”[43] (शरद मिश्र)
एक तरफ़ जहाँ वातावरण प्रदूषित हो रहा है। महानगरों में साँस लेना मुश्किल होता जा रहा है। स्वच्छ पेय जल धरती से गायब हो रहा है। अनेक प्रकार के पशु-पक्षी, पौधों एवं जलीय जीवों की प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। विश्वबैंक का दान स्वार्थ की भेंट चढ़ रहा है। हरियाली पर पाण्डुता छा रही है। वहीं दूसरी तरफ़ हिन्दी ग़ज़ल पर्यावरण के इस अंधकार काल में मनुष्य को संवेदननील बनाते हुए आशावादी स्वर में कह रही है-
सच है मेरी बात उजाले आयेंगे।
होगी ओस भोर में घासों पर बिखरी,
हँसता लिये प्रभात उजाले आयेंगे।”[44] (शरद मिश्र)
निष्कर्ष : सार रूप में यह कहा जा सकता है कि हिन्दी ग़ज़ल में पर्यावरण एक चिंतनीय विषय बनकर उभरा है। मनुष्य के स्वार्थ के कारण जिस तरह प्राकृतिक संपदा नष्ट हो रही है उसका दूरगामी परिणाम जीवन का अंत है। जिस युग में पर्यावरण प्रदूषण एवं उसका संरक्षण एक वैश्विक विमर्श का मुद्दा बना हुआ है उस युग में हिन्दी ग़ज़ल इस गंभीर समस्या और उसके समाधान के प्रति आरंभ से ही चिंतित है। साठोत्तरी हिन्दी ग़ज़लकार इस समस्या के कारणों का पता लगाकर उसके प्रभावों को बेहद संवेदनशीलता के साथ अपनी ग़ज़लों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज आवश्यकता है तो सिर्फ़ इतनी कि इन हिन्दी ग़ज़लों का अध्ययन बेहद बारीकी के साथ किया जाये।
[1] संपादक जगदीश्वरानंद सरस्वती, यजुर्वेदभाष्यम्, मानव उत्थान संकल्प संस्थान, दिल्ली, 2010, पृ. 518
[2] संपादक जगदीश्वरानंद सरस्वती, ऋग्वेदभाष्यम्, मानव उत्थान संकल्प संस्थान, दिल्ली, 2010, पृ. 129
[3] संपादक जगदीश्वरानंद सरस्वती, अथर्ववेदभाष्यम्, मानव उत्थान संकल्प संस्थान, दिल्ली, 2010, पृ. 539
[4] संपादक हरदेव बाहरी, हिन्दी शब्दकोश, राजपाल एंड संस, दिल्ली, 2017, पृ. 155
[5] रामचरितमानस, किष्किन्धा काण्ड 10/2
[6] संपादक प्रणय, शरद सर्जना: ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 104
[7] हरेराम नेमा समीप, समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 78
[8] वही, पृ. 83
[9] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 116
[10] हरेराम नेमा समीप, समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 127
[11] वेद मित्र शुक्ल, जारी अपना सफ़र रहा, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली, 2019, पृ. 56
[12] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 135
[13] वेद मित्र शुक्ल, जारी अपना सफ़र रहा, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली, 2019, पृ. 25
[14] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 112
[15] हरेराम नेमा समीप, समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 83
[16] वही, पृ .243
[17] वही, पृ .442
[18] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 125
[19] सुशील कुमार, हिन्दी ग़ज़ल का आत्मसंघर्ष, प्रलेक प्रकाशन, मुंबई, 2021,पृ. 96
[20] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 138
[21] ज़हीर कुरैशी, समंदर ब्याहने आया नहीं है, श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020, पृ. 55
[22] सुशील कुमार, हिन्दी ग़ज़ल का आत्मसंघर्ष, प्रलेक प्रकाशन, मुंबई, 2021, पृ. 93
[23] वेद मित्र शुक्ल, जारी अपना सफ़र रहा, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली, 2019, पृ. 95
[24] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 131
[25] प्रेम भारद्वाज, अपनी ज़मीन से, ब्रज प्रकाशन, हिमाचल प्रदेश, 2005, पृ. 15
[26] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली,2020, पृ. 126
[28] वही, पृ. 122
[29] संपादक सरदार मुजावर, हिन्दीग़ज़ल का वर्तमान दशक, वाणी प्रकाशन, 2001, पृ.223
[30] वेद मित्र शुक्ल, जारी अपना सफ़र रहा, अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली, 2019, पृ. 22
[32] हरेराम नेमा समीप, समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ.235
[33] वही, पृ. 481
[34] हरेराम नेमा समीप, समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन (खंड तीन), भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ.318
[35] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 115
[36] हरेराम नेमा समीप, समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ.318
[37] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 113
[38] हरेराम नेमा समीप, समकालीन हिन्दी ग़ज़लकार एक अध्ययन, भावना प्रकाशन, दिल्ली, 2017वही, पृ.318
[39] वही, पृ. 163
[40] संपादक प्रणय, शरद सर्जना : ग़ज़ल खण्ड-तीन, पंकज बुक्स, दिल्ली, 2020, पृ. 121
[41] वही, पृ. 111
[42] वही, पृ. 111
[43] वही, पृ. 116
[44] वही, पृ. 133
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी
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