शोध सार : स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य को अपने वैचारिक और रचनात्मक अवदान से समृद्ध करने वाले रचनाकारों में निर्मल वर्मा का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने गद्य की विविध विधाओं को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। उनकी रचनाओं में उठाए गए प्रश्नों और पीड़ाओं का संदर्भ आधुनिक सभ्यता के संकटों और उसमें जी रहे मनुष्य की आंतरिक-बाह्य समस्याओं से जुड़ता है। प्रस्तुत आलेख में उनके यात्रा संस्मरणों में अभिव्यक्त सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और साहित्य तथा कला विषयक संदर्भों को उद्घाटित और विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। निर्मल के यात्रा संस्मरणों को पढ़ते हुए अक्सर ऐसा लगता है कि इनमें गद्य की विविध विधाएँ एक दूसरे के घर-आँगन में आवाजाही कर रही हैं। अतः विचार का विषय यह भी है कि क्या इन्हें सिर्फ यात्रा संस्मरण कहना संगत है?
बीज शब्द : विश्व युद्ध, शीत युद्ध, आयरन कर्टेन, आधुनिकता, भारतीयता, भूमंडलीकरण, लोकप्रिय संस्कृति, प्रगतिशील, गैर प्रगतिशील लेखक, नाटो।
मूल आलेख : निर्मल वर्मा हिंदी साहित्य के जाने-माने रचनाकार हैं। उन्होंने अपने सृजन कर्म के माध्यम से कहानी, उपन्यास, निबन्ध, डायरी, यात्रा संस्मरण आदि गद्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया है। उनकी रचनाएँ लेखन की अभ्यस्त अभिरुचियों और पूर्व प्रचलित प्रविधियों का अतिक्रमण कर एक नए ढब-ढर्रे के साथ सामने आती हैं। अन्य शब्दों में कहें तो ये चिंतन और सृजन की एक नई दुनिया का साक्षात्कार कराती हैं। उनका पहला कहानी संग्रह ‘परिंदे’ इस बात का प्रमाण है, जिसके महत्त्व को रेखांकित करते हुए प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने लिखा- “फ़कत सात कहानियों का संग्रह परिंदे निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है, बल्कि जिसे हम नई कहानी कहना चाहते हैं, उसकी भी पहली कृति है।”[1] वे इन कहानियों में नए भावबोध, दुर्लभ अनुभूति चित्र, संगीत का सा प्रभाव उत्पन्न करने की योग्यता एवं सूक्ष्म इंद्रिय बोध जागृत करने वाली छवियाँ उपस्थित करने की क्षमता को रेखांकित करते हैं। निर्मल के निबन्ध अपने समय-समाज की राजनीति, संस्कृति, मानव-स्थिति, भाषा और साहित्य तथा कलाओं से जुड़े महत्त्वपूर्ण संदर्भों को तो उद्घाटित करते ही हैं, औपनिवेशिक मानसिकता और पश्चिमी आधुनिकता का प्रखर प्रतिरोध भी करते हैं। अशोक वाजपेयी उन्हें अपने समय का अग्रणी कथाकार मानने के साथ-साथ उनके मौलिक और विचारोत्तेजक चिंतन के कारण हिन्दी ही नहीं, देश के श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों में शुमार करते हैं। उन्होंने यह भी लिखा है कि “जैसे निर्मल वर्मा ने हिन्दी को एक नयी कथा भाषा दी है उसी तरह से हिन्दी की नयी चिंतन भाषा के विकास में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।”[2]
प्रस्तुत आलेख निर्मल वर्मा की उन रचनाओं पर केंद्रित है, जिनका संबंध उनके यात्रा प्रसंगों से है। इनमें ‘चीड़ों पर चाँदनी’ (1963) और ‘हर बारिश में’ (1970) प्रमुख हैं। हम जानते हैं कि सन् 1959 में निर्मल चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य विद्या संस्थान के आमंत्रण पर प्राग गए थे। लंबे समय तक वहाँ रहकर उन्होंने प्रसिद्ध चेक लेखकों की रचनाओं का अनुवाद किया। इसी दौरान उन्होंने यूरोप के अनेक देशों की यात्राएँ की और यूरोपीय सभ्यता के चेहरे और चरित्र को निकट से देखा। इस यात्रा में उन्होंने न सिर्फ यूरोप की आंतरिक लय या रिद्म को समझा अपितु इस बात को भी महसूस किया कि इसकी प्रकृति भारतीय सभ्यता की आंतरिक लय या रिद्म से भिन्न है। कृष्णदत्त पालीवाल ने लिखा है कि “अपने यात्रा-वृत्तांतों में निर्मल काफी सतर्क भाव से यूरोप तथा भारतीय सभ्यता-संस्कृति-साहित्य की तुलना करते हैं…”।[3] निर्मल के निबन्धों में भारतीय और यूरोपीय सभ्यता के समान-असमान संदर्भों पर जो लंबी बहस देखने को मिलती है, उसकी जमीन इसी यात्रा में तैयार हुई होगी।
सामान्य तौर पर पाठकों और आलोचकों के द्वारा उपर्युक्त पुस्तकों को यात्रा संस्मरण कह दिया जाता है। लेकिन इनकी पाठ-प्रक्रिया से गुजरते हुए हमें इनमें यात्रा की गंध और स्मृतियों के सम्मोहन के साथ-साथ कथा का कौतुहल, निबन्धों की गहन वैचारिकता और एक चिंतक-आलोचक की विश्व-दृष्टि के भी दर्शन होते हैं। इन्हें पढ़ते हुए हमें ऐसा लगता है कि इनमें गद्य की विविध विधाएँ आपस में बोल-बतिया रही हैं। वास्तव में साहित्य की विविध विधाओं का संश्लेष उनके समग्र गद्य लेखन का स्वभाव है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या इन पुस्तकों को साहित्य की पूर्व परिभाषित विधाओं के खांचो और खानों में परिभाषित किया जा सकता है? शायद नहीं।
निर्मल वर्मा ने ‘हर बारिश में’ पुस्तक में संकलित रचनाओं के बारे में स्वयं लिखा है कि “उन दिनों मैंने जो कुछ लिखा, उसे न रूढ़ अर्थों में निबन्ध कहा जा सकता है, न यात्रा संस्मरण- वह कुछ ऐसा था जो मुक्त भाव से दोनों की सीमाओं को छूता था, इनमें निबन्धों का सोच-चिन्तन अवश्य था किन्तु कोई उपलब्धि का भाव न था जो किसी शांत बिन्दु पर पहुँचकर समाधान इंगित करता है, दूसरी तरफ ठीक यूरोप के बीच लिखने के कारण इन लेखों में एक यात्रा की गंध अवश्य आती थी किंतु उनका संबंध ऐसी ऊपरी प्रतिक्रियाओं से नहीं था जो नगर-नगर घूमते हुए हम झोली में इकट्ठा करते हैं।”[4] कहने की जरूरत नहीं कि ये रचनाएँ एक नयी, ताजी और टटकी विधा के रूप में हमारे सामने आती हैं और आलोचकों के समक्ष मूल्यांकन की नई चुनौती प्रस्तुत करती हैं।
निर्मल वर्मा के निबन्धों और उनके वैचारिक लेखन से संबंधित अन्य विधाओं की तरह ही उनके यात्रा लेखन में भी हमें भारत और यूरोप की सभ्यताओं के समान-असमान संदर्भों की चर्चा देखने को मिलती है। ‘हर बारिश में’ की रचनाओं में यूरोपीय सभ्यता और पश्चिमी आधुनिकता के प्रति लेखक के मन में गहरा आकर्षण-भाव दिखाई देता है। इस सभ्यता की प्रगतिशीलता की चर्चा वे बार-बार करते हैं। इसके विपरीत भारतीय समाज और यहाँ की सभ्यता को वे अगतिशील और जड़ मानते हैं, जिसकी जीवंत शक्ति सदियों पहले नष्ट हो चुकी है। वे लिखते हैं-“हिंदी के कुछ प्रगतिशील लेखक पश्चिम की ह्रासोन्मुख प्रवृत्तियों की चर्चा करते नहीं थकते, जबकि वस्तु-स्थिति यह है कि यदि दुनिया में अमानुषिकता और ह्रासोन्मुखता का सजीव साक्षात्कार करना हो तो वह अपनी संपूर्ण वीभत्सता के संग उस समाज में मौजूद है जिसे हम भारतीय कहते आए हैं।”[5] इन रचनाओं में निर्मल को भारतीयता और आधुनिकता के बीच एक गहरी और चौड़ी खाई नजर आती है, जिसे उनके अनुसार यूरोप के प्रति समर्पित होकर ही पाटा जा सकता है।
हालाँकि निर्मल की परवर्ती रचनाओं (विशेषकर निबन्धों) को पढ़ते हुए हमें ऐसा लगता है कि भारत और यूरोप को लेकर उनकी धारणाओं में आमूल परिवर्तन आया है। कभी पश्चिमी सभ्यता की भरपूर प्रशंसा करने वाले इस रचनाकार को अपने लेखन के परवर्ती दौर में वहाँ की आधुनिक तकनीकी सभ्यता के अंतर्विरोधों का एहसास होता है और वे भारत तथा भारतीयता के प्रबल समर्थक नजर आने लगते हैं। अपने एक निबन्ध में उन्होंने लिखा है कि “भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर में जब पश्चिमी सभ्यता ने लगभग समूची मानवीय चेतना को स्वार्थग्रस्त सुविधाभोगी मूल्यों द्वारा आविष्ट कर लिया है, भारतीय संस्कृति ही मेरे विचार से एकमात्र ऐसी वैकल्पिक दृष्टि प्रस्तुत कर सकती है जिसके आलोक में मनुष्य अपनी उन अंतर्निहित संभावनाओं को उजागर कर सके जो तेजी से विलुप्त होती जा रही है।”[6] निर्मल की सोच में आए इस परिवर्तन के कारणों की पड़ताल एक जरूरी कार्य है, जिसकी ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए।
निर्मल वर्मा की इन रचनाओं में युद्ध के संदर्भ बार-बार आते हैं। हम जानते हैं कि 20वीं शताब्दी के यूरोप ने दो-दो विश्व युद्धों की त्रासदियों को झेला है। इन युद्धों को उनके विध्वंसकारी प्रभावों के साथ-साथ इस बात के लिए भी याद किया जा सकता है कि इसने वहाँ के लोगों की आंतरिक और बाह्य दुनिया को गहरे तौर पर प्रभावित किया। निर्मल की यूरोप यात्रा का समय दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के लगभग डेढ़ दशक बाद का है। इतने सालों के बाद कोई भी यूरोपीय व्यक्ति युद्ध के प्रसंगों और दु:स्वप्नों को याद भी नहीं करना चाहता। लेकिन निर्मल की यात्राओं में उनके सामने युद्ध के विध्वंसों के चिह्न बार-बार उपस्थित होते हैं और उनकी लेखकीय संवेदना को झकझोरते हैं। ‘चीड़ों पर चाँदनी’ में एक स्थान पर वे लिखते हैं- ‘बाहर आबादी के चिह्न नजर आने लगे हैं। मिलों की चिमनियों के पार टिमटिमाती रोशनियाँ और घरों की छतें- कहीं सिर्फ मलवे और ईंटों के ढूह, आधे टूटे हुए मकान और सूनी कंकाल की आँखों-सी खिड़कियाँ। बमों और गोलियों के निशान अब भी वैसे ही हैं….”।[7] जर्मनी से होकर गुजरते हुए उन्हें दूर-दूर तक फैले हुए खेतों पर जून माह की उजली उनींदी धूप एवं भूरी मिट्टी की बोझिल गंध का एहसास होता है। एक ऐसी गंध का एहसास जिसमें एक पूरी मृत पीढ़ी का अतीत है। उन्हें वहाँ उतरने का मन नहीं होता क्योंकि “कोई अदृश्य-सा भय, एक अजीब-सी झिझक सामने खड़ी हो जाती है।”[8]
निर्मल वर्मा इस बात की चर्चा भी बार-बार करते हैं कि विश्व युद्ध के बाद लंबे समय तक चलने वाले शीत युद्ध ने कैसे यूरोपीय देशों और समाजों की दिनचर्या को और वहाँ रहने वाले लोगों के दैनंदिन व्यवहारों को गहरे तौर पर प्रभावित किया। वे कोपनहेगन की एक घटना का जिक्र करते हैं जब उन्हें एक होटल में इसलिए कमरा नहीं दिया गया क्योंकि वे विगत दो वर्षों से प्राग में रहते आए थे - ‘आयरन कर्टेन’ के पीछे। यह सत्य उनके गले से नहीं उतर पाता कि “मैं भारतीय हूँ यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं, जितना यह कि मैं एक कम्युनिस्ट देश से आ रहा था। शीत युद्ध की यह नई बीमारी…. ।”[9] ऐसा ही एक प्रसंग लंदन का भी है जब थॉमस कुक कंपनी के एक कर्मचारी से प्राग का टिकट माँगने पर वह कहता है- “बट डॉन्ट यू नो इट इज बिहाइंड आयरन कर्टेन?”[10]
दरअसल ‘आयरन कर्टेन’ दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप को दो हिस्सों में बाँट देने वाली एक ‘पॉलिटिकल बाउंड्री’ है, जिसके एक तरफ सोवियत संघ और उसके प्रभाव वाले देश हैं तो दूसरी तरफ पश्चिमी यूरोप, विशेषकर नाटो के सदस्य और गैर सोवियत प्रभाव वाले देश। बर्लिन की दीवार इसी का एक हिस्सा है। लंबे समय तक चलने वाले इस शीत युद्ध के प्रभाव को निर्मल ने बर्लिन में बिताए गए अपने चार दिनों की स्मृतियों को शब्द देते हुए रेखांकित किया है। वे लिखते हैं- “शीत युद्ध की इतनी नंगी, बेलौस तस्वीर शायद यूरोप के किसी शहर में दिखाई नहीं देती। हजारों ऐसे लोग हैं जिनके घर पूर्वी बर्लिन में हैं और जो हर रोज काम करने पश्चिमी बर्लिन जाते हैं। अनेक ऐसे परिवार हैं जो इस विभाजित शहर का आईना हैं- आधा परिवार पूर्वी भाग में, आधा पश्चिमी भाग में।”[11]
इन पुस्तकों में जिन यात्राओं की स्मृतियाँ हैं वे पिकनिकनुमा माहौल में, ट्रेवल एजेंसियों के निर्देशन में की गई सामान्य यात्री की यात्राएँ नहीं हैं। यह एक ऐसे रचनाकार के द्वारा की गई यात्राएँ हैं, जिसकी साहित्य, संस्कृति, दर्शन और कला के विविध रूपों में गहरी रुचि है। इसीलिए किसी भी देश और समाज से होकर गुजरते हुए उसका ध्यान वहाँ के कलात्मक और सृजनात्मक संदर्भों पर जरूर जाता है। चेकोस्लोवाकिया से होकर गुजरते हुए निर्मल को काफ्का और चापेक जैसे रचनाकारों की याद आती है तो जर्मनी से गुजरते हुए टॉमस मान की। वे टॉलस्टॉय के ‘वार एंड पीस’ की चर्चा भी करते हैं। आइसलैंड की यात्रा के दौरान वे न सिर्फ वहाँ के आत्मीय और प्रिय लेखक नोबेल पुरस्कार विजेता विलियम लेक्सनेस से मिलते हैं, अपितु उनसे हुई लंबी बातचीत को भी दर्ज करते हैं। इस बातचीत की कई बातें रेखांकित करने योग्य हैं। मसलन एक वामपंथी और समाजवादी लेखक होने के बावजूद लेक्सनेस मानते हैं कि गैर प्रगतिशील (इंटरव्यू में प्रतिगामी शब्द का प्रयोग हुआ है) लेखक भी महान कृतियों की रचना कर सकते हैं। इलियट और कामू इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। वे यह भी कहते हैं कि आइसलैंड पर डेनमार्क के राजनैतिक प्रभुत्व के बावजूद वहाँ के साहित्य और कलाकृतियों पर डेनिस प्रभाव कम पड़ा है। लेक्सनेस निर्मल से भारत के बारे में भी बात करते हैं और इस संदर्भ में यहाँ के सजग और सुसंस्कृत नेताओं की प्रशंसा करते हुए भी यहाँ के आम लोगों की गरीबी अंधविश्वास और पिछड़ेपन को रेखांकित करते हैं।
लेक्सनेस इस बात के प्रति भी चिंता व्यक्त करते हैं कि आधुनिक पूंजीवादी समाजों में बाजार की शक्तियों एवं मीडिया के नए रूपों के विकास के साथ-साथ विकसित लोकप्रिय संस्कृति और कला रूपों ने कैसे लेखक और कलाकारों की आवाजों को अप्रासंगिक बना दिया है। देखा जाए तो यह चिंता निर्मल वर्मा के लेखन की प्रमुख चिंताओं में एक है। अपने निबन्धों में वे अक्सर उपभोक्तावादी समाजों में मनुष्य के छीजते अनुभवों, नष्ट होती स्मृतियों और भ्रष्ट होती भाषा के पुनराविष्कार के प्रति चिंतित दिखाई देते हैं। वे अक्सर इस बात की चर्चा करते हैं कि एक ऐसे समय में जब साहित्य और कलाओं को भी बाजार की जरूरतों और लोगों की औसत अभिरुचियों के अनुरूप बनाकर परोसा जा रहा है, समाज में सृजन कल्पना की भूमिका को पुनर्परिभाषित करने की लेखकों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है।
निर्मल बर्लिन एनसेंबल में ब्रेख्त के नाटकों को देखने की अपनी बहुत पुरानी साध के पूरे होने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उस महान रचनाकार के जीवन,उनकी राजनीतिक विचारधारा उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता और रचनात्मक सरोकारों पर गंभीर चर्चा करते हैं। वे ब्रेख्त के बहाने कम्युनिज्म को नए ढंग से परिभाषित करते हैं- “ब्रेख्त कम्युनिस्ट थे क्योंकि उनके लिए कम्युनिस्ट होने के मानी बहुत सहज थे- समकालीन होना, दूसरे शब्दों में अपने निजी घेरे के बाहर उन सब आवाजों का साक्षी होना जो 20वीं सदी के अंधेरे में टकराती हुई हमारे पास आती हैं।”[12]
‘काफ्का और चापेक : समकालीन चेक साहित्य’ से होकर गुजरते हुए वैश्विक साहित्य और संस्कृति की उनकी अद्भुत समझ का एहसास होता है। वे बहुत बारीकी से इस बात का रेखांकन करते हैं कि संस्कार के स्तर पर चेक लेखक और दार्शनिक जहाँ रूस से गहरे तौर पर प्रभावित हैं वहीं सच्चाई यह भी है कि आधुनिक चेक संस्कृति के बुनियाद इटली के पुनरुत्थान, फ्रांस की क्रांति एवं वहाँ के धार्मिक सुधारवादी आंदोलन से गहरे तौर पर संबंधित हैं। वे लिखते हैं- “आधुनिक चेक लेखकों की रचनाएँ आंशिक रूप से एक ‘छोटे’ देश के विकट स्थिति से जुड़ी हैं जो पूर्व और पश्चिम के बीच दबा रहकर भी सदियों से अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की खोज में संघर्षरत रहा है; एक ऐसा देश जो ‘स्लाव’ होने के नाते स्वभावतः पूर्व की ओर झुका रहा किंतु जिसने संस्कृति के प्रेरणा स्रोत पश्चिम से ग्रहण किये, एक सेतु जो दोनों दिशाओं को मिलाने की कोशिश में स्वयं नगण्य और उपेक्षित सा पड़ा रहा।”[13]
निर्मल वर्मा के इन यात्रा निबन्धों को पढ़ते हुए जो महत्त्वपूर्ण विशेषता हमें प्रभावित करती है, वह है चीजों को देखने, समझने और ऑब्जर्व करने की उनकी क्षमता। उन्होंने जिन देशों और स्थानों की यात्रा की है वहाँ के समाज को, धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को, वहाँ की प्रकृति को, वहाँ की छोटी से छोटी चीजों को रुककर, ठहरकर काफी बारीकी, सूक्ष्मता और धीरज से देखा है। हम देख सकते हैं कि प्राग और कोपनहेगन के गिरजों और पेरिस के गोथिक चर्चों के अंतर को वे कितनी सूक्ष्मता के साथ रेखांकित करते हैं- “प्राग के गिरजों में एक अजीब-सा स्वप्निल अशरीरीपन है, पेरिस के गोथिक चर्चों को देखकर लगता है कि उनके ईंटों के बीच सीमेंट के स्थान पर केवल मोमबत्तियों का आलोक है, सेन के हरे पानी पर कांपता पता हुआ। किंतु कोपेनहेगन के गिरजे दोनों से अलग हैं- लगता है, वे भयावह, बेडौल मकबरे हों, जिनके भीतर मध्य युग का बासी, भूरा, धर्म के कीचड़ में लिथड़ा अंधेरा जमा होता गया हो।”[14]
नैनीताल और शिमला के पहाड़ी प्रदेश में होने वाली शाम का यह चित्र उनकी प्रकृति पर्यवेक्षणी दृष्टि की सूक्ष्मता का प्रमाण देता है- “पहाड़ों पर अंधेरा एकदम नहीं आता, एकदम आकर चौंकता नहीं- न वह उजाले को धकेल कर उसकी जगह लेता है, बल्कि दिन का उजाला खुद-ब-खुद धीरे-धीरे अंधेरे में सिमट जाता है। इसलिए पहाड़ी धूप कभी मरती नहीं, सिर्फ अपना रंग बदल लेती है।”[15]
निर्मल वर्मा यूरोप के विभिन्न देशों के इतिहास और वहाँ के सामाजिक जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण पहलुओं पर अपनी बारीक नजर ले जाते हैं। अपनी आइसलैंड यात्रा के दौरान वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि आइसलैंड का इतिहास अपनी स्वतंत्रता के लिए वहाँ के लोगों द्वारा लड़ी गई दुनिया की सबसे लंबी अहिंसक लड़ाई और सत्याग्रह का इतिहास रहा है लेकिन इस बात को लेकर कोई भी आइसलैंडी उन्हें डींग मारता नहीं दिखाई देता। आइसलैंडी समाज में स्त्रियों और पुरुषों के बीच का अकुंठ और ग्रंथि हीन संबंध उन्हें आकर्षित करता है। वे इस बात को दर्ज करते हैं कि वहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा अवैध बच्चे हैं लेकिन वहाँ के लोगों में इस बात को लेकर कोई कुंठा या अपराध बोध नहीं है। ऐसे बच्चों की माताओं में भी नहीं। वे लिखते हैं- “जब एक आइसलैंडी स्त्री माँ बनती है तो उसके मित्र और पड़ोसी उसे बधाई देने आते हैं- वह विवाहित है या नहीं यह प्रश्न उन्हें कभी परेशान नहीं करता।”[16]
इस प्रसंग को पढ़ते हुए डॉ. राम मनोहर लोहिया की याद आना स्वाभाविक है, जिन्होंने स्त्री-पुरुष संबंधों के संदर्भ में पुण्य-पाप की पारंपरिक कसौटियों और यौन शुचिता की संकुचित मानसिकता से बाहर निकलकर उनकी आपसी समझ, परस्पर विश्वास और स्नेह को ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना; जिन्होंने सावित्री के सतीत्व से द्रोपदी के स्वतंत्र व्यक्तित्व, हिम्मत, समझ व हाज़िर जवाबी को बड़ा बताया; जिन्होंने भारतीय संदर्भ में स्त्री को ‘देवी’ और ‘दासी’ के दो ध्रुवों में बाँटकर देखने की प्रवृत्ति का विरोध करते हुए उसे विशुद्ध मानवी के रूप में देखे जाने (और उसे भी पुरुषों के समान अधिकार और स्वतंत्रता दिए जाने) की वकालत की। साथ ही यह भी कहा कि मैं एक अवैध बच्चे को आधे दर्जन वैध बच्चों को जन्म देने से कई गुना अच्छा मानता हूँ। उनके अनुसार “यौन आचरण में केवल दो ही अक्षम्य अपराध हैं- बलात्कार और झूठ बोलना या वादों को तोड़ना।”[17]
निर्मल वर्मा की इन यात्रा स्मृतियों को विश्व युद्धोत्तर यूरोपीय देशों और समाजों के जीवंत इतिहास की तरह पढ़ा जा सकता है। वहाँ के साहित्य, संस्कृति, कला, राजनीति और मानव स्थिति पर किए गए गंभीर चिंतन की तरह भी। चंद्रकांत बांदिवडेकर ने लिखा है- “निर्मल यात्रा करते हैं तो महज देखने की पैनी आँख से नहीं, समूचे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक बोध के साथ वैश्विक स्थिति गति का संदर्भ मन की पृष्ठभूमि में रखकर।”[18]
समग्रतः हम कह सकते हैं कि निर्मल के यात्रा संस्मरण भारत और यूरोपीय सभ्यता के बीच समानता और असमानता के महत्त्वपूर्ण संदर्भों से हमें परिचित कराते हैं। इन रचनाओं में 20वीं शताब्दी के यूरोपीय समाज की यातना अपनी पूरी प्रामाणिकता के साथ उपस्थित है। इन्हें पढ़ते हुए हमें एक लेखक की राजनीतिक-सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक सरोकार, कला विवेक और उसकी पर्यवेक्षणी शक्ति का भी एहसास होता है। निर्मल की इन रचनाओं को यात्रा संस्मरण मात्र कह देना इसकी संवेदना को सीमित कर देना है। इन्हें यात्रा की स्मृति के साथ-साथ एक गंभीर ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विमर्श की तरह पढ़ना अधिक मुनासिब है।
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