शोध आलेख : डॉ. अम्बेडकर - सामाजिक न्याय की अवधारणा का व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वयन : समाजशास्त्रीय पाठ / डॉ. विमल कुमार लहरी

डॉ. अम्बेडकर - सामाजिक न्याय की अवधारणा का व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वयन : समाजशास्त्रीय पाठ
- डॉ. विमल कुमार लहरी


शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख के अंतर्गत अम्बेडकर द्वारा सामाजिक न्याय की अवधारणा के व्यवहारिक क्रियान्वयन जैसे पक्षों की गंभीर एवं तथ्यपरक चर्चा की गयी है जिसमें अस्पृश्यता एवं छुआछूत का विरोध, वर्ण व्यवस्था का विरोध, जाति व्यवस्था का विरोध, हिन्दू कोड बिल, श्रमिकों, मजदूरों एवं किसानों के अधिकारों की रक्षा, समतावादी न्याय की स्थापना, जमींदारी उन्मूलन, सामूहिक खेती, बीमे का राष्ट्रीयकरण, परम्परागत मान्यताओं एवं व्यवस्था में हाशिए के लोकजन का प्रतिनिधित्व जैसे पक्षों को सम्मिलित किया गया है। इन पक्षों के तथ्यगत विश्लेषण के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि डॉ. अम्बेडकर ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को सिद्धान्त की बजाय व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वित किया एवं हाशिए के जन को मुख्यधारा में लाने के लिए आजीवन संघर्षरत रहें। अम्बेडकर के अवदानों के कारण ही उन्हें आधुनिक भारत का शिल्पकार कहा जाता है। हाशिए के लोकजन इन्हें अपना मसीहा मानते हैं। आज इनका भौतिक शरीर नहीं है, लेकिन आपके विचार हाशिए के लोकजन के लिए आत्मसंबल बने हुए हैं।



बीज शब्द : हिन्दू कोड बिल, सामाजिक न्याय, बीमा, राष्ट्रीयकरण, मसीहा, अस्पृश्यता, भूमिका, बटाईदार किसानतार्किक क्रिया, अतार्किक क्रिया, शिल्पकार, आधुनिकता।


मूल आलेख : मानव सभ्यता की विकास यात्रा अपनी आदिम अवस्था को पार करते हुए आज उत्तर आधुनिकता के पायदान तक पहुँच चुकी है। इस यात्रा में ढेर सारे उतार-चढ़ाव रहे हैं। इन उतार-चढ़ाव के बीच विविध स्तरों पर भेद की वैचारिकी को भी देखा जा सकता है। भेद की वैचारिकी भारत ही नहीं, वरन् पूरी दुनिया की भी एक प्रमुख समस्या रही है। भेद की वैचारिकी ने मानव और मानव के बीच एक लम्बी लकीर खींच दी। यहाँ तक कि मानव, मानव की परछांइयों से भी दूर भागने लगा। मानव, मानव का गुलाम (दास) रहा जिसके कारण जनसंख्या का एक बड़ा भाग समाज की मुख्यधारा से एक लम्बे समय तक अलग-थलग रहा। दास व्यवस्था के संदर्भ में हैरी एम जानसन कहते हैं, ‘‘दास (गुलाम) लोग अक्सर ‘वस्तुओं’ और ‘सांपत्तिक’ अधिकारों के रूप में देखे गये। उन्हें खरीदा एवं बेचा जाता रहा है, गाय भैंसों की तरह पाला जाता रहा है, और इस तरह से उनको रखा जाता रहा है जैसे कि कोई मूल्यवान सामग्री को रखता रहा है।’’1


          इस स्थिति को लेकर हम भारत की बात करें तो भारत के लोकजन भी थोड़े बहुत अन्तर के साथ इसी वैचारिकी के साथ गतिमान थे। भारत में मानव और मानव के बीच भेद की वैचारिकी के प्रमुख आधार के रूप में जाति-व्यवस्था को देखा जा सकता है। जाति-व्यवस्था के बीच अस्पृश्यता की ऐसी खाईयां निर्मित की गयीं, जिन्हें हजारों वर्षों की यात्रा के बाद भी हम पाट नहीं पाये हैं। वैसे इन असमानता की खाईयों को पाटने के लिए 14वीं शताब्दी में भक्ति आन्दोलन के माध्यम से कुछ आवाजें जरूर उठीं, लेकिन उन आवाजों का व्यावहारिक धरातल पर पूरा क्रियान्वयन नहीं हो पाया। इस तरह असामानता की दीवारें और मजबूत होती गयी। असमानता के संदर्भ में ज्यां द्रेज़ एवं अमर्त्य सेन कहते हैं, ‘‘दुनिया के सभी देशों में अलग-अलग तरह की असमानताएँ व्याप्त हैं, लेकिन भारत में घातक विभाजन एवं विषमताओं का एक ऐसा घालमेल है जो अपनी तरह का अकेला है। कम ही देश ऐसे होंगे जिन्हें भारी आर्थिक असमानता के साथ-साथ जाति, वर्ग, लिंग समेत इतनी तरह की घोर विषमताओं का सामना करना पड़ता रहा होगा। भारत जाति की विचित्र भूमिका है जो इसे बाकी पूरी दुनिया से अलग करती है। बेशक, कई देशों में अतीत में भी (और कुछ हद तक आज भी) जाति जैसी संस्था रही है जिसने लोगों ने खाँचों में बाँट रखा है। लेकिन भारत जातिगत श्रेणियों और आधुनिक समाज पर भी इनकी पकड़ (हालाँकि जाति, जातिगत भेदभाव को अवैद्य बनाने के लिए कई कानून बनाये गये हैं) दोनों संदर्भों में इनकी प्रमुखता के कारण अनूठा है। जातीय श्रेणीबद्धता अक्सर वर्गगत असमानता को मजबूत करती है और उसे ऐसी ताकत प्रदान करती है जिससे पार पाना मुश्किल होता है। भारत में स्त्री-पुरुष असमानता भी बेहिसाब है, खासकर उत्तर और पश्चिम भारत के बड़े क्षेत्र में जहाँ महिलाओं का दमन काफी व्यापक है। अलग-अलग तरह की घोर असमानताओं के मेल ने बेहद दमनकारी व्यवस्था को जन्म दिया, जहाँ अभावों की परतों के सबसे नीचे स्थित लोग घोर अधिकारविहीनता की स्थितियों में जीते रहते हैं।’’2


          असमानता की दीवारों के पीछे विदेशी हुकूमतों के साथ-साथ अपने ही देशवासियों द्वारा भी शोषण, अत्याचार एवं अन्याय की वैचारिकी जारी रही। इसके साथ-साथ पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह एवं विविध स्तरों पर भागीदारी को लेकर महिलाओं को पितृसत्ता के पैरों के तले लम्बे दौर तक दबाया गया, कुचला गया। यहाँ तक कि जनसंख्या के एक बड़े भाग की प्रस्थिति एवं भूमिका के साथ उनकी अस्मिता एवं पहचान का संकट भी उत्पन्न हुआ। डॉ. अम्बेडकर ने तत्कालीन विभाजनकारी व्यवस्था के खिलाफ अपनी प्रतिरोध की आवाज को मुखर किया और सामाजिक न्याय की अवधारणा को व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वयन करने के लिए अपना कदम मजबूती के साथ आगे बढ़ाया। डॉ. अम्बेडकर द्वारा सामाजिक न्याय की अवधारणा का व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वयन संबंधी पक्षों को कुछ पन्नों में समेटा नहीं जा सकता और कहीं से यह उनके अवदानों के प्रति न्याय-संगत भी नहीं है, परन्तु शोध-आलेख की शब्द-सीमा को देखते हुए डॉ. अम्बेडकर द्वारा सामाजिक न्याय की अवधारणा के व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वयन करने की यात्रा को अधोलिखित पक्षों पर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है -


डॉ. अम्बेडकर : जीवन यात्रा -


          डॉ. अम्बेडकर का जीवन काफी संघर्ष भरा रहा है। इनका जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश में महू नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम सूबेदार रामजी सतपाल एवं माता का नाम भीमाबाई था। अम्बेडकर की जाति महार थी। ब्राह्मण शिक्षक ने उन्हें अपना अम्बेडकर उपनाम दिया जिसके कारण इनका नाम भीमराव अम्बेडकर पड़ा। सन 1908 में इनका विवाह रमाबाई के साथ हुआ। रामाबाई ने पत्नी, सहपाठी एवं एक दोस्त के रूप में अम्बेडकर के साथ कदम से कदम मिलाकर जीवन को गति दी। काफी संघर्ष भरे जीवन के कारण सन 1935 में रमाबाई की मृत्यु हो गयी। सन 1948 में अम्बेडकर ने अपना दूसरा विवाह डॉ. शारदा कबीर से किया। डॉ. अम्बेडकर बचपन से काफी कुशाग्र बुद्धि के थे। सन 1913 में सयाजी राव गायकवाड़ द्वारा प्रदान किए गए वजीफे पर अम्बेडकर पढ़ने के लिए विदेश गये। सन 1916 में ’लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक एँड पोलिटिकल साइंस’ में एडमिशन लिया, परंतु पैसों के अभाव में ’भारत’ लौटना पड़ा। कुछ दिनों अम्बेडकर ने महाराज सयाजीराव गायकवाड़ के यहाँ सैन्य सचिव के रूप में पददायित्व का निर्वाह किया। सन 1918 में बम्बई के ‘सिडनेम कॉलेज ऑफ कार्मस’ में अर्थशास्त्र विषय में अध्यापन कार्य किया। इसी बीच सन 1920 में इन्हें ’महाराजा कोल्हापुर‘ द्वारा वजीफा प्रदान किया गया। इस छात्रवृत्ति पर अम्बेडकर अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिए पुनः लंदन चले गये। 1923 में डॉ. अम्बेडकर को डी.एससी. की उपाधि मिली। ’कोलम्बिया विश्वविद्यालय’ से सन 1924 में अंबेडकर ने अर्थशास्त्र में अपनी पी-एच. डी पूरी की। इस तरह अम्बडेकर ने ‘डॉक्टर ऑफ साइंस‘, ‘पीएचडी’ और ‘बार एट लॉ‘ जैसी महत्त्वपूर्ण डिग्री प्राप्त करके भारत लौटे। डॉ. अम्बेडकर ने आल इण्डिया डिप्रेस्ट क्लासेज एसोशिएसन में उपाध्यक्ष पद से त्याग-पत्र देने के बाद अपने दलित आन्दोलन को तेज करने के लिए ‘मूक नायक‘ एवं ‘बहिष्कृत भारत‘ पत्रिकाओं का प्रकाशन किया, जिसका मुख्य उद्देश्य हाशिए के लोकजन से सम्बन्धित आन्दोलन को धारदार बनाना था। इसी परिप्रेक्ष्य में अंबेडकर ने सन 1924 में ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा‘ की स्थापना किया। सन 1927 में अम्बेडकर ने सार्वजनिक स्थानों पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने एवं पेयजल के सर्वाधिक संसाधनों को समाज के सभी जातियों को सुलभ कराने हेतु अपने आंदोलन को तेज किया। इसके साथ-साथ धार्मिक स्थलों पर प्रवेश के लिए भी आन्दोलन चलाया। इसी क्रम में 25 दिसम्बर, 1927 को महार के ‘चावदार तालाब‘ का पानी पीने के लिए सत्याग्रह किया। 25 दिसम्बर, 1927 को ही इन्होंने मनुस्मृति का दहन किया और सन 1928 में दलितों के लिए ’साइमन कमीशन’ के समक्ष अलग निर्वाचक मंडल की मांग की। सन 1929 में इन्होंने ’समता समाज संघ’ की स्थापना की। सन 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में अछूतों के प्रवेश को लेकर सत्याग्रह प्रारम्भ किया। अम्बेडकर ने ‘गोलमेज सम्मेलन’ में भी पृथक निर्वाचन मंडल की मांग की। परन्तु गाँधी जी के आमरण अनशन के कारण यह माँग वापस लेनी पड़ी जिसे ’पूना पैक्ट‘ के नाम से भी जाना जाता है। अनुसूचित जातियों के लिए संयुक्त प्रतिनिधि मंडल में 151 सीटों को सुरक्षित कराया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने सन 1936 में ‘इंडिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी‘ के रूप में एक स्वतंत्र राजनीतिक दल का गठन किया। सन 1942 में इन्होंने एक सम्मेलन के दौरान 'अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ' का गठन किया। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस सरकार ने डॉ. अम्बेडकर को देश का पहला कानून मंत्री बनाया गया। इन्हें भारतीय संबिधान निर्माण की महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंपी गयी जिसमें इन्हें संविधान सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया जिसके कारण इन्होंने संविधान में दलितों, पिछड़ों, महिलाओं एवं हाशिए के लोकजन को मुख्यधारा में लाने के लिए विशेष प्रावधान किये गये। सन 1951 में इन्होंने हिन्दू कोड बिल पर समर्थन न मिल पाने के कारण कांग्रेस मंत्रिमंडल से त्याग-पत्र दे दिया। 14 अक्टूबर, 1956 को डॉ. अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।  इस संदर्भ में गेल ओमवेट कहती हैं, " महत्त्वपूर्ण एक ओर नव स्वतंत्र राष्ट्र भारत अपने जातिगत तथा पुरुष सत्तात्मक समाज की मूल समस्याओं का हल ढूंढे बिना ही समाजवादी समाज की स्थापना का दावा करते हुए अपने भविष्य की ओर अग्रसर था, वही अंबेडकर बुद्ध धर्म के समीप होते जा रहे थे। बुद्ध धर्म उन्हें मुक्ति का मार्ग लग रहा था।"3


          इस तरह देखा जाय तो अम्बेडकर ने जीवन के अंतिम क्षण तक अपने संघर्षों को जारी रखा। हाशिए के लोकजन की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए लड़ते रहे और इसी संघर्षों की यात्रा में 6 दिसम्बर, 1956 को महापरिनिर्वाण को प्राप्त हुए।


सामाजिक न्याय : अवधारणात्मक परिप्रेक्ष्य -


          सामाजिक न्याय की अवधारणा बहुत व्यापक है, लेकिन इसके शाब्दिक अर्थ को हम देखें तो ये सामान्य हित से संबंधित है। सामाजिक न्याय की अवधारणा से आशय ऐसे मानव समाज से है जिसमें समाज के अंतिम पायदान के लोगों, महिलाओं, बच्चों को मुख्यधारा में जोड़ा जा सके। वास्तव में सामाजिक न्याय के अंतर्गत मानव एवं मानव के बीच बराबरी का दर्जा हो, उस पर शोषण एवं अत्याचार न हो, सभी की मौलिक आवश्यकताओं को पूरा किया जाए, समाज में सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक स्तरों पर सबकी भागीदारी समान हो। इस तरह सामाजिक न्याय हाशिए के लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने की परिकल्पना है। प्लेटो और अरस्तू के प्राचीन दर्शन में न्याय की अवधारणा देखी जा सकती है। इनके दर्शन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों के संदर्भ में न्याय की बात की गई है। यदि हम बात करें सामाजिक न्याय की आधुनिक अवधारणा का, तो वह लोकजन के अधिकारों की बात करती है। जो मानवतावादी एवं समानता के सिद्धान्त पर आधारित है। लेकिन सामाजिक न्याय शब्द का पहली बार प्रयोग सन 1840 में इटली के पादरी लुइगी तपारेली द एजेलिंगियों द्वारा किया गया जबकि इस शब्द को पहचान एँटोनियो रोस्मिनी सरबाली ने सन 1848 में बड़े स्तर पर कराया। आधुनिक काल में अम्बेडकर, ज्यां द्रेज एवं अमर्त्य सेन, सुखदेव थोराट जैसे समाज वैज्ञानिकों ने एक प्रमुख अवधारणा के रूप में स्थापित किया। सामाजिक न्याय की अवधारणा के संदर्भ में जॉन रावल्स को अग्रणी के रूप में माना जाता है। जॉन रावल्स 'ए थ्योरी ऑफ जस्टिस' में सामाजिक न्याय शब्द का आम प्रयोग अधिक और व्यापक तौर पर किया गया है। सामाजिक सिद्धांत में डेविड मिलर का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है। डेविड मिलर, डिस्ट्रीब्यूट न्याय जो राल्स का है, से सहमत नहीं हैं। इसके अलावा हम देखे तो मार्टिन पावेल, निक जोन्स एवं एलिसन ग्रीस जैसे समाज वैज्ञानिकों ने भी न्याय के संदर्भ में विविध पक्षों को प्रस्तुत किया है। अंबेडकर के न्याय की अवधारणा भारत के संदर्भ में प्रमुखता से देखी जा सकती है। यहाँ हम रावल्स और मिलर की अंबेडकर से तुलना करें तो अंबेडकर ने रावल्स और मिलर की भाँति सामाजिक न्याय की अवधारणा को परिभाषित करने का सार्थक प्रयास ही नहीं किया, वरन् इसे व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वित भी करने का प्रयास किया जो उनके जीवन के संघर्षों एवं भारतीय संविधान की प्रस्तावना में देखने को मिलती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उन्होंने इसके व्यावहारिक क्रियान्वयन का मार्ग प्रशस्त किया। स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा को एक प्रमुख आधार बनाया। उनका मानना था कि स्वतंत्रता और समानता को अलग करके परिभाषित नहीं किया जा सकता। स्वतंत्रता के बिना समानता व्यक्ति को पहले ही मार देगी, जबकि भाईचारे के बिना स्वतंत्रता की समानता स्वाभाविक नहीं बन सकती। यहाँ अम्बेडकर सबसे अलग दिखते हैं, क्योंकि इन्होंने जिस सामाजिक अलगाव को झेला एवं उसके समाधान के लिए लिखा ही नहीं, बल्कि पूरी प्रतिबद्धता के साथ सामाजिक न्याय की अवधारणा को व्यावहारिक धरातल पर क्रियान्वित किया। डॉ. अम्बेडकर सदैव सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए एक ’क्रिया समाजशास्त्री’ के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। उनके विचार सामाजिक न्याय के रूप में एक विशालकाय स्वरूप में दिखते हैं। उनके विशालता के माप का पैरामीटर अद्यतन नहीं दिखता है।


          अस्तु, उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय का सिद्धांत विषमतामूलक समाज के 'सर्वसमावेशी समाज' के रूप में परिवर्तन हेतु एक प्रमुख मार्गदर्शक एवं अभिकरण के रूप में उत्तरदायी है। डॉ. भीमराव अंबेडकर के ’सामाजिक न्याय‘ की अवधारणा सिद्धांत की बजाय व्यावहारिक है जो समस्याओं के समाधान की बात करती है।


सैंद्धांतिक परिप्रेक्ष्य -


          सामाजिक न्याय एक आदर्श समाज के स्थापत्य का साधन है, क्योंकि व्यक्ति अपने आप में एक अंत है। समाज व्यक्ति से ऊपर नहीं है। इसलिए स्वतंत्रता का सृजन करने वाली शर्तें जैसे- सामाजिक समानता, आर्थिक समानता एवं सुलभ ज्ञान होनी चाहिए। इन चीजों की अनुपस्थिति जनसंख्या को एक लंबे समय तक गुलाम बनाये रखने में सहायक रहीं। अम्बेडकर का मानना है कि समाज में भाईचारा एक प्रमुख घटक है। भाईचारे की अनुपस्थिति से सामाजिक न्याय की अवधारणा को कमजोर किया है। सामाजिक न्याय की स्थापत्य का मुख्य उद्देश्य समाज के बीच लिंग, वर्ण, जाति, शक्ति और आर्थिक आधार पर व्याप्त असमानताओं को दूर करना है। लोकजन के बीच सभी स्तरों पर समान वितरण की व्यवस्था सुनिश्चित हो। यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि अम्बेकर ने ‘सामाजिक न्याय‘ की कोई विशेष परिभाषा नहीं दी, लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि अम्बेडकर का सम्पूर्ण जीवन सामाजिक न्याय की अवधारणा को स्थापित करता है। उनके लेखों, पुस्तकों एवं भाषणों में सामाजिक न्याय की अवधारणा को देखा जा सकता है जो पूरी तरह से भेद की वैचारिकी को नकारती है। भेदभाव के संदर्भ में हरिकृष्ण रावत कहते हैं, "सामान्य अर्थ में भेदभाव का तात्पर्य ‘अन्यायपूर्ण बर्ताव’ से है। समाजशास्त्र में इसका प्रयोग अधिकांश नृजातीय एवं प्रजातीय सम्बन्धों के संदर्भ में हुआ है। इसक प्रयोग भारतीय संदर्भ में विभिन्न जातियों के बीच स्थापित दुराव को लेकर हुआ है।"4


          अम्बेडकर की जीवनयात्रा में हम देखें तो उनका हाशिए के समाज सुधार के लिए ही प्रतिबद्ध रहा, जिसके कारण उन्हें दलितों, पिछड़ों, महिलाओं एवं हाशिए के लोकजन का मसीहा माना जाता है। हजारों-हजार वर्षों से पद्दलित वर्गों को सम्मानपूर्वक जीवन सुनिश्ति कराने एवं उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए अम्बेडकर ने एक स्पष्ट मार्ग सुझाया एवं तर्क को जीवन का आधार बनाया। उनका तर्क था कि दलितों के लिए ‘सामाजिक न्याय‘ बहुत ही आवश्यक है, क्योंकि सामाजिक अत्याचार राज्य द्वारा दिए जाने वाले दण्ड से भी कहीं अधिक दुःखद है एवं कष्टदायी है। अंबेडकर द्वारा चलाए गए दलित आंदोलन के संदर्भ में डॉ. बी. के. नागला कहते हैं, "दलित आंदोलन, जिसका संबंध सामाजिक तथा राजनीतिक जागरूकता से था, अंबेडकर का उत्पाद था। अनुसूचित जातियों की मुक्त के लिए अंबेडकर ने अलग सी नीति का निर्माण किया था। उनका दर्शन अलग था। वे क्रांतिकारी समानतावादी समाज की रचना करना चाहते थे जो उनके अनुसार हिंदू व्यवस्था में होना संभव नहीं था। हिंदू व्यवस्था ने ही दलितों को निम्न स्तर पर धकेला था। उनका कहना था कि दलितों को स्वयं उठना चाहिए और अपने अधिकारों पर जोर देना चाहिए।"5


          डॉ. अम्बेडकर ने तत्कालीन समय में व्याप्त विविध समस्याओं का सामना ही नहीं किया, बल्कि पद्दलित लोकजन के आत्मगौरव, आत्मविश्वास एवं उनके स्वालम्बन को अपनी वैचारिकी के माध्यम से एक प्रमुख आधार दिया। दलित उद्धार के लिए उन्हें आधुनिक भारत का शिल्पकार भी कहा जाता है। उन्हें ‘विद्रोह के प्रतीक‘ के रूप में जाना जाता है। दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं को मुख्यधारा में लाने के लिए डॉ. अम्बेडकर का संविधान निर्माण एवं हिन्दू कोड बिल वास्तव में 'सामाजिक मुक्ति का घोषणा पत्र' है। अतएव कहा जा सकता है कि अम्बेडकर की 'संवैधानिक अवधारणा' सामाजिक न्याय के आसपास घूमती है और संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से एक 'समतावादी समाज' की स्थापना पर बल देती है।


अस्पृश्यता एवं छुआछूत का विरोध -


          भारतीय समाज में एक लम्बे दौर से अस्पृश्यता एवं छुआछूत की वैचारिकी विद्यमान रही है। अस्पृश्यता एवं छुआछूत के नाम पर जनसंख्या का एक बड़ा भाग मुख्यधारा से पूरी तरह अलग-थलग रहा। यहाँ तक कि लोग एक-दूसरे की परछाईयों से भी अपने को अस्पृश्य समझते थे। ऐसी स्थिति में जीवन को गतिमान करना कितना मुश्किल एवं कष्टदायी रहा होगा। अस्पृश्यता के नाम पर जनसंख्या के एक बड़े भाग को मुख्यधारा से अलग-थलग करना पूरी तरह से अमानवीय था, अन्यायपूर्ण था। भारत में अस्पृश्यता जैसी अमानवीय कृत्यों के संदर्भ में ए. आर. देसाई ने बड़ी तथ्यपरक विवेचना की है, "अंग्रेजों के आगमन के पहले के दौर से हिन्दुओं को जो सामाजिक संगठन विरासत में मिला, उसकी बहुत सी दमनकारी और अलोकतांत्रिक विशेषताएँ थीं। हिन्दू समाज के एक भाग को अस्पृश्य घोषित करते हुए समाज से उनका बहिष्करण कर दिया जाता था। इनसे सार्वजनिक मंदिरों में प्रवेश करने या सार्वजनिक कुंओं या तालाब से पानी लेने जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया जाता था। यह भी माना जाता था कि उनका शारीरिक स्पर्श उच्चतर जाति के लोगों को अपवित्र बना देता है। दरअसल, ये सभी पहलू सामाजिक दमन के सबसे अमानवीय रूप थे।"6


          भारत में अस्पृश्यता की वैचारिकी की यात्रा यहीं नहीं रूकती, बल्कि स्वार्थपरक शक्तियों द्वारा विविध धार्मिक अंधविश्वास एवं दार्शनिक आधारों पर जनसंख्या के एक बड़े भाग पर विविध निषेध लागू किये गये। डॉ. अम्बेडकर ने इन निषेधों से जुड़े अस्पृश्यता, छुआछूत एवं अंधविश्वासों की समाप्ति के लिए केवल सिद्धान्त हीं नहीं प्रस्तुत किया, बल्कि उसे व्यवहार में लागू किया। अस्पृश्यता तथा छुआछूत से जुड़ी वैचारिकी को लेकर अम्बेडकर ने दलितों एवं पिछड़ों को विविध जीवनशैली को छो़ड़ने के लिए आवाहन भी किया। अस्पृश्यता एवं छुआछूत को लेकर 'मूकनायक' और 'बहिष्कृत भारत' जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। अम्बेडकर ने 'चावदार तालाब' में अस्पृश्यों के पानी पीने के लिए 'सत्याग्रह' किया। अस्पृश्यता एवं छुआछूत के कारण ही अम्बेडकर ने इनके लिए निर्वाचन मंडल की मांग कर डाली और इस तरह की वैचारिकी के तृणमूल समाप्ति के लिए ढेर सारे संबैधानिक प्रयास किए।


वर्ण व्यवस्था का विरोध -


          भारत में कुछ कालखण्डों तक वर्ण आधारित व्यवस्था के रूप में गतिमान रही है। कालान्तर में यह व्यवस्था पूरी तरह से कर्म आधारित रही। अर्थात् कर्मों के ही आधार पर वर्ण व्यवस्था अन्तर्गत लोकजन की प्रस्थिति एवं भूमिका का निर्धारण होता था। परन्तु कालक्रम में कुछ स्वार्थपरक शक्तियों ने वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत मानव को कर्म की बजाय जातीय आधार पर विविध भागों में विभाजित किया जो वास्तव में पूरी तरह अवैज्ञानिक था। जाति आधारित वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत उनके कार्यों को जाति से जोड़ा गया और उनके ऊपर विभिन्न निषेध लागू किये गये। इन निषेधों के कारण जनसंख्या के एक बड़े भाग की 'प्रस्थिति एवं भूमिका' का निर्धारण स्वयं उसके पास नहीं था, बल्कि व्यक्ति विशेष के हाथों में था। वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में मोतीलाल गुप्ता कहते हैं, "वर्ण व्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन के मौलिक तत्त्व के रूप में पाये जाते हैं। ऋग्वेद में कई स्थानों पर बतलाया गया है कि उस समय समाज का महत्त्वपूर्ण कार्य व्यवस्थित ढंग से चलता था। समाज में प्रत्येक व्यक्ति का स्थान तथा उससे सम्बन्धित कार्य उनकी प्रवृत्तियों अर्थात् गुणों पर आधारित थे। वर्ण और आश्रम दो ऐसी व्यवस्थाएँ हैं जिनके आधार पर हिन्दुओं का व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन संगठित हुआ है। ‘‘वर्णाश्रम- व्यवस्था’’ व्यक्ति की प्रकृति एवं उसके पालन-पोषण की समस्याओं से सम्बन्धित है। यह व्यवस्था सामाजिक संगठन के हिन्दू सिद्धान्त की आधारशिला के रूप में कार्य करती है।"7


          भारत में हम देखें तो वर्ण व्यवस्था वास्तव में मानव निर्मित थी जिसके संदर्भ मोतीलाल गुप्ता कहते हैं, "जी.एस. घूरिये ने कर्म को वर्ण का आधार माना। आपने बतलाया है कि प्रारम्भ में भारत में दो वर्ण थे- आर्य और दास अथवा दस्यु। आर्य भारत में विजेता के रूप में आये थे। उन्होंने अपने को श्रेष्ठ और यहाँ के मूल निवासियों - द्रविड़ों को निम्न समझा। स्वयं को द्विज तथा द्रविड़ों को दास या दस्यु कहा। समय के साथ-साथ जैसे-जैसे आर्यों की संख्या में वृद्धि हुई, उनके कर्मों में भी विभिन्नता आती गयी और द्विज वर्ण गुणों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय  तथा वैश्य वर्णों में विभक्त हो गया। इन तीनों वर्णों के लोग एक ही मूल वर्ण-द्विज (आर्य प्रजाति) से सम्बन्धित थे। यही कारण है कि प्रारम्भ में इनमें आपस में वैवाहिक सम्बन्ध होते थे तथा खान-पान एवं सामाजिक सम्पर्क पर कोई कठोर प्रतिबन्ध नहीं थे।"8


          इस तरह देखा जाय तो ‘वर्ण व्यवस्था’ एक विभाजनकारी व्यवस्था थी जिसको डॉ. अम्बेडकर ने पूरी तरह से अवैज्ञानिक एवं अत्याचारपूर्ण‘ बताया। साथ ही यह भी कहा कि इस व्यवस्था के द्वारा मानवता का हनन किया जाता है। उनका मानना था कि जाति श्रम के आधार पर विभाजन न हो, बल्कि व्यक्ति की कुशलता एवं बुद्धि एवं योग्यता के आधार पर श्रम का विभाजन हो। अम्बेडकर ने ‘वर्ण व्यवस्था‘ का पूरी तरह से विरोध किया और इसको एक सुनियोजित व्यवस्था करार दिया। उनका मानना था कि वर्ण व्यवस्था जब तक समाप्त नहीं होती, तब तक समतामूलक समाज की परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान नहीं किया जा सकता है।


जाति व्यवस्था का विरोध -


          भारत में वर्ण व्यवस्था के साथ-साथ जाति व्यवस्था का एक लम्बा इतिहास रहा है। जाति व्यवस्था को पवित्रता और अपवित्रता की अवधारणा से जोड़कर जनसंख्या के एक बड़े भाग को हाशिए पर ढकेल दिया गया। जाति व्यवस्था को जन्म से जोड़ दिया गया जिसके अन्तर्गत जन्म के उपरान्त ही कार्यों का निर्धारण कर दिया जाता था। इस कारण उनकी प्रस्थिति एवं भूमिका एक सीमा तक ही बँध कर रह जाती थी। लम्बे कालखण्डों तक हाशिए के लोकजन द्वारा जाति व्यवस्था को नियति के रूप में स्वीकार किया गया। जाति व्यवस्था से जुड़े निषेधों को लेकर कुछ दबी आवाजें तो उठती रहीं, लेकिन डॉ. अम्बेडकर के द्वारा भारत में जाति व्यवस्था एवं उससे जुड़े निषेधों का पुरजोर विरोध किया। अम्बेडकर द्वारा पहली बार तृणमूल रूप में जाति व्यवस्था से जुड़े निषेधों को समाप्त करने के लिए सार्थक पहल की गयी। जाति व्यवस्था के संदर्भ में टी.वी. बोटोमोर कहते हैं, "जातीय व्यवस्था पर लिखने वाले अधिकांश लोगों ने इसे बनाने और टिकाए रखने में धर्म की भूमिका पर जोर दिया है। लेकिन हिंदू मतवाद और विश्वासों के सामाजिक निहितार्थों पर अध्ययन बहुत कम है।"9


          इस तरह देखा जाय तो तत्कालीन समय में जाती व्यवस्था काफी कठोर थी। जाति व्यवस्था की कठोरता के संदर्भ में प्रो. के. एल. शर्मा कहते हैं, "जातिय श्रेणी का आधार जन्म के होने के कारण जातीय व्यवस्था कठोर बन गयी। विवाह एवं सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिबन्ध थोंपे गये। जाति प्रथा के संदर्भ में गौतम, बौद्धायन और अपस्तम्बा संहिताओं में आनुवंशिकता, वैवाहिकता और सहभोजत्व के बारे में उल्लेख मिलते हैं।"10


          जाति व्यवस्था की अमानवीयता एवं इसके विभाजनकारी पक्षों के संदर्भ में ए.आर. देसाई कहते हैं, "जाति व्यवस्था 'हिन्दू धर्म का इस्पात कवच' थी। यह वेदों से भी पुरानी व्यवस्था थी क्योंकि वेदों में इसके अस्तित्व को स्ववीकार किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि हिंदू समाज मूल रूप से तन या चार जातियों में बँटा रहा है। बाद में, नस्लीय, मिश्रण, भौगोलिक विस्तार, कलाओं के विकास से नये तरह के काम सामने आने जैसे विविध कारकों के चलते मूल जातियाँ (वर्ण) बहुत सी छोटी जातियों और उप-जातियों में विभाजित हो गए।.... जाति व्यवस्था उग्र रूप में अलोकतांत्रिक और सत्तावादी थी। जातियाँ पदसोपानीय रूप से श्रेणीबद्ध श्रृंखलाओं का निर्माण करती थीं। प्रत्येक जाति अपने से उच्च स्तर वाली जाति से निम्न और निम्न स्तर वाली जाति से उच्चतर समझी जाती थी। एक विशिष्ट जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति की स्थिति, पदसोपानीय व्यवस्था में उसकी जाति की स्थिति से तय होती थी। किसी एक जाति में जन्म लेने के बाद उसकी हैसियत या स्थिति हमेशा के लिए सुनिश्चित हो जाती थी और उसमें कोई भी बदलाव नहीं किया जा सकता था। इस तरह, वह अपनी किसी भी प्रतिभा के प्रदर्शन या संपत्ति के संचय द्वारा अपने जाति के कारण मिली हैसियत या स्थिति में बदलाव नहीं कर सकता था।"11


          डॉ. अम्बेडकर का मानना था कि जाति व्यवस्था भारत की एक प्रमुख समस्या ही नहीं है, वरन् बहुत बड़ी विकृति है। यह विकृति मानवता का हनन करती है और मानव को मानव के ही बीच विभिन्न खेमों में बाँटती है। स्वार्थपरक शक्तियों द्वारा जाति व्यवस्था के अन्तर्गत व्यवसाय को वंश के आधार पर जोड़ दिया एवं कुछ निर्धारित कार्यों तक ही उनकी भूमिका को सीमित कर दिया गया। जिसके कारण जनसंख्या के एक बड़े भाग की कार्यकुशलता प्रभावित हुई। अम्बेडकर ने पूरी तरह से वंशानुगत आधारित व्यवस्था का विरोध किया और कार्यकुशल एवं क्षमता के आधार पर कार्य विभाजन की स्वीकारोक्ति हेतु सार्थक एवं व्यावहारिक पहल की। संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से भी जाति व्यवस्था से जुड़े निषेधों एवं परम्परागत मान्यताओं को समाप्त करने का अमलीजामा पहनाया। इस तरह देखा जाय तो डॉ. अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था से जुड़े निषेधों की समाप्ति के लिए जो व्यावहारिक पहल की, वह सामाजिक न्याय की अवधारणा का मूर्त पक्ष है। यहाँ हम देखें तो अम्बेडकर के समकालीन एवं पूर्वकालीन समाज सुधारक विविध समस्याओं की बात करते तो दिखते हैं, परन्तु उन समस्याओं के निदान की बात करते कम ही दिखते हैं। वास्तव में यही अंतर है सामाजिक न्याय के योद्धा डॉ. अम्बेडकर और अन्य समाज सुधारकों में। यहाँ अम्बेडकर हाशिए के लोकजन के लिए 'सामाजिक न्याय के योद्धा' के रूप में दिखते हैं।


सामाजिक न्याय की अवधारणा को मूर्त रूप प्रदान करने हेतु संवैधानिक प्रावधान -


          स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माण प्रारूप समिति के अध्यक्ष की जिम्मेदारी अम्बेडकर के कंधों पर आती है। अम्बेडकर ने स्वयं अपने ऊपर पर होने वाले अत्याचारों को झेला था जिसके कारण संविधान में उन अत्याचारों की समाप्ति के लिए विविध नियम बनाये। संविधान को 'सामाजिक मुक्ति का घोषणा-पत्र' भी कहा जाता है। सामाजिक न्याय की अवधारणा को मूर्त रूप प्रदान करने हेतु संविधान में कुछ प्रावधान- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार एवं कुछ वर्गों के संबंध में विशेष उपबंध।

हिन्दू कोड बिल : महिलाओं की मुक्ति का घोषणा-पत्र -


          भारतीय समाज महिलाओं को लेकर बहुत अधिक सहिष्णु नहीं रहा है। स्वतंत्रा से पहले की तस्वीर हम देखें तो महिलाओं को तलाक का अधिकार नहीं था जबकि पुरुष एक से अधिक विवाह करने के लिए पूरी तरह आजाद था। विधवाएँ वैधव्य धारण करने के बाद विवाह नहीं कर सकती थीं। यहाँ तक उन्हें सम्पत्ति से भी वंचित रखा गया। कुल कालखण्डों में तो इन्हें पति के शव के साथ जबरन जला दिया जाता था। इन सारी स्थितियों को अम्बेडकर ने देखा और झेला भी। डॉ. अम्बेडकर ने 11 अप्रैल, 1947 को ’हिन्दू कोड बिल‘ पेश किया। स्त्रियों को उनके पति की मृत्यु के उपरान्त उनकी सम्पत्ति में भागीदार माना जाय। इस विधेयक के माध्यम से डॉ. अम्बेडकर द्वारा विधवा, पुत्री और पुत्र को उसकी सम्पत्ति में बराबर का अधिकार देना सुनिश्चित किया गया। इस विधेयक के माध्यम से वैवाहिक प्रावधानों में बड़े स्तर पर बदलाव किया गया जिसमें सांसारिक एवं सिविल विवाहों को मान्यता दी गयी। विवाह विच्छेद के लिए सात महत्त्वपूर्ण आधार निर्धारित किये गये। इस बिल के माध्यम से डॉ. अम्बेडकर ने महिलाओं को लेकर विभिन्न कुरीतियों को पूरी तरह से समाप्त करना चाहते थे, और अंततः बड़े विरोध के बाद इस बिल को 9 अप्रैल 1948 को सेलेक्शन कमिटी के पास भेज दिया गया। इस बिल को सन 1951 में अम्बेडकर ने संसद में भी रखा। वहाँ भी इसका बड़ा विरोध हुआ। इस बिल को लेकर लम्बे समय तक विरोध चलता रहा और बाद में पंडित नेहरू ने हिन्दू कोड बिल को कई हिस्सों में बाँटा और सन 1955 में हिन्दू मैरिज एक्ट बनाया गया। महिलाओं की मुक्ति के लिए आंदोलन के संदर्भ में ए.आर देसाई कहते हैं, "व्यवस्था की स्थापना के परिणामस्वरूप भारत में होने वाले नये राष्ट्रीय और लोकतांत्रिक जागरूकता और लोगों के बीच आधुनिक पश्चिमी शिक्षा और विचारधाराओं के प्रसार ने महिला मुक्ति के आंदोलन को भी जन्म दिया। इसमें महिलाओं को मध्ययुगीन सामाजिक अधीनता और उनके द्वारा सदियों से झेले जा रहे दमन से उन्हें मुक्त कराने का प्रयास किया गया।"12


          इस तरह देखा जाय तो अम्बेडकर ने हिन्दू कोड बिल के द्वारा महिलाओं की प्रस्थिति एवं भूमिका को कट्टरपंथियों के जकड़न से बाहर निकालने का सार्थक प्रयास किया। अम्बेडकर का यह अवदान महिलाओं के लिए एक प्रमाणिक दस्तावेज है जो उन्हें हाशिए से केन्द्र में लाने के लिए सार्थक प्रयास करता है।


श्रमिकों, मजदूरों एवं किसानों के अधिकारों की रक्षा -


          डॉ. अम्बेडकर ने श्रमिकों, मजदूरों एवं किसानों की भागीदारी के लिए भी सार्थक प्रयास किया। श्रमिकों को मुख्यधारा में लाने के लिए अम्बेडकर ने सन 1936 में 'इंडिपेन्डेंट पार्टी' का गठन किया। किसी भी कल-कारखानें में एक निर्धारित अवधि तक ही श्रमिकों से श्रम कराया जाए, न कि बंधुआ मजदूर के रूप में। उनकी मजदूरी भी निर्धारित की जाए। कार्य अवधि में अवकाश का भी निर्धारण किया जाए। अम्बेडकर ने माना कि जाति व्यवस्था न केवल श्रम विभाजन करती है, बल्कि श्रमिकों का भी विभाजन करती है। श्रम विभाजन के कारण निम्न कार्यों के आधार पर उन्हें निचले पायदान पर रखती है। इसीलिए अम्बेडकर ने 'पूंजीवाद' को भी श्रमिकों के शोषण में एक अभिकरण के रूप में देखा। वास्तव में अम्बेडकर के न्याय का सिद्धान्त जातिविहीन समाज पर आधारित था जो सभी स्तरों पर समानता की बात करता है।

समतावादी न्याय -

          डॉ. अम्बेडकर वास्तव में एक ऐसे समाज की कल्पना करते हैं जो समानता पर आधारित हो। यहाँ हम संत रविदास की बात करें तो उन्होंने 'बेगमपुरा शहर’ की अवधारणा को अपने चिंतन में रखा। वे एक ऐसे मानव समाज की कल्पना करते हैं, जहाँ कोई भूखा न हो, सबकी उदरपूर्ति हो, ऊँच-नीच का कोई भेदभाव न हो, सारे लोग समान हों। अम्बेडकर ने संत रविदास के इस अवधारणा को आत्मसात किया और समतावादी न्याय की अवधारणा को स्थापित किया। अम्बेडकर की समतावादी न्याय व्यवस्था सभी स्तरों पर शोषण एवं अत्याचार की वैचारिकी को पूरी तरह से खारिज करती है। स्वतंत्रता, समानता एवं प्रेम-बन्धुत्व को आत्मसात करती है। डॉ. अम्बेडकर जीवनपर्यन्त समतावादी व्यवस्था के स्थापत्य हेतु निरन्तर संघर्ष करते रहे।

जमींदारी उन्मूलन -

          डॉ. अंबेडकर ने जमींदारी उन्मूलन के लिए भी सार्थक प्रयास किया। भारत में इस व्यवस्था को देखें तो यह व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं रही। इसके माध्यम से हाशिए के लोकजन का बहुत बड़े स्तर पर शोषण हुआ। इस व्यवस्था अंतर्गत सभी संसाधनों पर व्यक्ति विशेष का ही आधिपत्य रहा। जमींदारी व्यवस्था के संदर्भ में रामविलास शर्मा कहते हैं, "बंगाल में जमींदारों के बारे में उन्होंने लिखा था- जीव का शत्रु जीव है, मनुष्य का शत्रु मनुष्य है। बंगाली कृषकों को शत्रु बंगाली भूस्वामी है। बाघ आदि बड़े जन्तु हैं, बकरियाँ आदि क्षुद्र जन्तुओं का वे भक्षण करते हैं। जमींदार नाम का बड़ा आदमी कृषक नामक छोटे आदमी का भक्षण करता है। यह सही है कि वस्तुतः कृषकों का शिकार करके उन्हें उदरस्थ नहीं करते लेकिन जो कुछ वह उनके साथ करते हैं, उसकी अपेक्षा छाती का खून पीना तो दया का ही काम माना जाएगा।"13


          इस तरह कहा जा सकता है कि जमींदारी व्यवस्था एक शोषणकारी व्यवस्था थी। यह व्यवस्था अमीरी और गरीबी की खाइयों को बड़े स्तर पर बढ़ाती है। अंबेडकर जमींदारी उन्मूलन के लिए भी सार्थक प्रयास किया और जमींदारी व्यवस्था के चंगुल से हाशिये के लोकजन बाहर निकालने के लिए अनवरत संघर्ष किया।


सामूहिक खेती का राष्ट्रीयकरण -


          डॉ. अंबेडकर ने सामूहिक खेती का भी राष्ट्रीयकरण पर करने का विशेष बल दिया। उनका मानना था कि खेती के राष्ट्रीयकरण से ही दलितों का भला हो सकता है। कृषि संरचना में विषमता के संदर्भ में सुरेश चन्द्र राजोरा कहते हैं, "भारत में सामाजिक विषमता परम्परागत रूप से जाति पर आधारित है। सामाजिक-विषमता के स्वरूपों के अन्तर्गत हमने जाति व्यवस्था की विवेचना की है। जाति के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि सम्बन्धी संरचना में छः स्तरों का उल्लेख मिलता है। इन छः स्तरों के बीच सामाजिक विषमता देखने को मिलती है। कृषि सम्बन्धी संरचना भूमि सुधार कानूनों के लागू होने तक बनी रही, इसके बाद इन सम्बन्धों में कुछ परिवर्तन आये। ये छः स्तर इस प्रकार हैं- गैर खेतिहर भू-स्वामी, 2. गैर खेतिहर पट्टेदार, 3. खेतिहार भू-स्वामी, 4. खेतिहर रैयत, 5. बटाईदार, 6 भूमिहीन खेतिहर मजदूर।"14


          खेती को लेकर ढेर सारे अनैतिक प्रावधानों को अंबेडकर ने दूर करने का सार्थक प्रयास किया। संबैधानिक विधेयकों के माध्यम से डॉ. अंबेडकर ने बटाईदार किसानों को जहाँ उनका हक दिलाना चाहते थे, वहीं उन्हें गुलामी की जंजीरों से बाहर भी निकलना चाहते थे।


बीमा का राष्ट्रीयकरण -


          डॉ. अम्बेडकर जहाँ एक तरफ कृषि, उद्योग आदि जैसे पक्षों के पुनर्गठन पर विशेष बल दिया, उसी तरह बीमा के राष्ट्रीयकरण का सुझाव भी लोकजन के बीच रखा। उनका मानना था कि बीमा के राष्ट्रीयकरण से जहाँ हाशिए के लोकजन के आर्थिक हितों की रक्षा होगी, वहीं राज्य की अर्थव्यवस्था को बड़े स्तर पर मजबूती मिलेगी। वास्तव में बीमा के राष्ट्रीयकरण के आधार पर अम्बेडकर ने आधुनिक भारत में हाशिए के लोकजन की आर्थिक भागीदारी की नींव रखी।


भेदपरक मूल्यों, मान्यताओं एवं पूर्वाग्रहों का विरोध -


          पेरेटो नामक समाजशास्त्री मानव की दो क्रियाओं में तार्किक एवं अतार्किक क्रियाओं की बात करता है जिसमें वह मानता है कि भारतीय समाज ही नहीं, वरन् दुनिया के अधिकांश मानव समाजों के बीच बड़ी संख्या में लोकजन अतार्किक क्रियाओं के साथ गतिमान रहा है।  तार्किक और अतार्किक क्रिया के संदर्भ में पेरेटो कहते हैं , "किसी भी विशुद्ध विज्ञान के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति किसी प्रघटना के बारे में अपने मस्तिष्क में जो कुछ सोचता है वह सामान्य सोच के अनुरूप बैठ जाता है तो यह तार्किक क्रिया है। ........ यदि संपूर्ण प्रकार की क्रिया में से तार्किक क्रिया को निकाल दिया जाए तो शेष जो भी बचेगा, वह अतार्किक क्रिया होगी।"15


          यदि हम भारत की बात करें तो यहाँ भी अतार्किक क्रियाओं के कारण हाशिए के लोकजन के ऊपर भेदपरक मूल्यों, मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को बड़े स्तर पर स्थापित किया जिसके कारण जनसंख्या का एक बड़ा भाग मुख्यधारा से अलग-थलग रहा। कहीं जाति के नाम पर, तो कहीं महिला एवं पुरुष के बीच भेद के नाम पर परम्परागत मान्यताओं एवं पूर्वाग्रहों की मजबूत तथा अनंत ऊँचाईयों वाली दीवार खड़ी की गयी। हाँ, इस दीवार को विभिन्न समाज सुधारकों एवं संत परम्परा से जुड़े लोगों द्वारा तोड़ने की कोशिशें जरूर की गयी, परन्तु पूरी तरह से टूट नहीं पायीं। इसी यात्रा में अम्बेडकर ने भी भारत में भेदपरक मूल्यों, मान्यताओं एवं पूर्वाग्रहों की अभेद्य दीवार को तोड़ने का सार्थक प्रयास किया और इसके आधार पर निर्मित व्यवस्था का पूरी तरह से विरोध किया। इनकी समाप्ति के लिए व्यावहारिक धरातल पर बड़े स्तर पर प्रयास किया। इनके प्रयासों का प्रतिफल ही रहा कि दलितों, पिछड़ों एवं महिलाओं की विविध स्तरों पर कुछ हद तक भागीदारी स्थापित हुई एवं उनकी प्रस्थिति एवं भूमिका बंधन से मुक्त हुई।


हाशिए के समाज की शिक्षा पर विशेष बल -


          भारत में विविध निषेधों के कारण जनसंख्या के एक बड़े भाग को हजारों वर्षों तक शिक्षा जैसे मौलिक अधिकार से पूरी तरह वंचित रखा। शिक्षा, समाजीकरण का एक सशक्त माध्यम है तो वहीं दूसरी तरफ इससे व्यक्ति अपना सर्वांगीण विकास भी करता है। अम्बेडकर के कालखण्ड को हम देखें तो अम्बेडकर अकेले ऐसे व्यक्ति रहे जो तत्कालीन समय में दुनिया के स्थापित संस्थानों से शिक्षा ग्रहण किया। ये पहले ऐसे दलित रहे जिन्होंने विदेशों में अपनी पढ़ाई पूरी की। शिक्षा की उपादेयता के संदर्भ में के संदर्भ में परिमल बी. कर कहते हैं, "संकीर्ण अर्थ में ‘शिक्षा’ का मतलब सचेतन रूप से निर्देशित क्रियाकलाप हैं जिससे अपनी शक्तियों को विकसित करते हैं। जो शिक्षा हम स्कूल और कॉलेज में पाते हैं, वह इसके अन्तर्गत आती है। शिक्षक अपने शिष्यों के समक्ष विचारों और बिम्बों को रखता है, ताकि एक खास दिशा में उनका मानसिक और मनोवैज्ञानिक विकास हो।"16


          शिक्षा की उपादेयता को लेकर दुर्खीम ने गहन एवं तथ्यपरक विवेचना की है जिसे यहाँ संदर्भित किया जा रहा है, "ईमाइल दुर्खीम के अनुसार शिक्षा का सबसे प्रमुख प्रकार समाज के नियमों व मूल्यों को परिवर्तित करना है। ‘‘समाज केवल तभी जिन्दा रह सकता है अगर इसके सदस्यों के बीच पर्याप्त मात्रा में एकता हो। शिक्षा इस एकता को पैदा करती है और फिर इसे स्थापित करती है। यह बच्चों में शुरु से आवश्यक समानताएँ तय करती है जो सामूहिक जीवन की मांग है। शिक्षा हर समाज की प्रमुख जिम्मेदारी है। ये सभी व्यक्तियों को सामूहिक रूप से एकताबद्ध करे। व्यक्तियों में समाज के प्रति अपनत्व की भावना होनी चाहिए। दुर्खीम कहते हैं- शिक्षा व्यक्ति और समाज को मूल्यों और आदर्शों, समुदाय की परम्परा एवं चिंतन के बारे में बताकर उन्हें सिद्धान्त से लैस करती है और व्यक्ति तथा समाज के बीच आवश्यक एकता प्रदान करती है।"17


          यहाँ हम अंबेडकर को देखें तो भारत में शिक्षा ग्रहण के दौरान डॉ. अम्बेडकर को काफी कठिनाईयों का सामना किया। यहाँ तक कि अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए कुछ-कुछ दिनों इन्हें सिर्फ पानी पीकर भूखे रहना पड़ा। इसके बावजूद भी इनको शिक्षा प्राप्त करने से वंचित करने के लिए कुछ स्वार्थपरक शक्तियों द्वारा ढेर सारे हथकण्डे अपनाये गये। इन सारी चुनौतियों का सामना करते हुए अम्बेडकर ने अपनी शिक्षा को पूरी किया और दलितों, पिछड़ों की शिक्षा के लिए जहाँ एक ओर व्यावहारिक धरातल पर प्रयास किये तो वहीं दूसरी तरफ ‘संविधान‘ में विविध प्रावधानों के माध्यम से भी शिक्षा को सुनिश्चित किया। 


विविध सेवाओं में भागीदारी एवं समान प्रतिनिधित्व -


          स्वतंत्रता से पूर्व एवं बाद की स्थिति को हम देखें तो सरकारी एवं गैर-सरकारी संगठनों, विविध सेवाओं में सभी की सहभागिता सुनिश्चित नहीं थी। डॉ. अम्बेडकर ने विविध क्षेत्रों में समान भागीदारी को लेकर बड़े स्तर पर संघर्ष किया। दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं की विविध सेवाओं में भागीदारी के लिए विभिन्न अधिनियमों को पारित कराया। इसके साथ-साथ व्यावहारिक धरातल पर भागीदारी को लेकर जन-जागरण के साथ आंदोलन भी चलाया। विविध क्षेत्रों में आरक्षण के प्रावधान को भी सुनिश्चित कराया जिससे हाशिए के लोकजन की ‘भागीदारी‘ सुनिश्चित हो सके।


व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका में प्रतिनिधित्व -


          संविधान लेखन में डॉ. अम्बेडकर का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है। डॉ. अम्बेडकर ने व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका में भी हाशिए के लोकजन की भागीदारी को सुनिश्चित कराया। इसके लिए उन्होंने सुझाव दिया कि केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान मंडलों में दलितों की भागीदारी एवं प्रतिनिधित्व हेतु कानून बनना चाहिए जिसमें इन्होंने ‘पृथक निर्वाचन‘ की भी मांग की, लेकिन गाँधी के आमरण अनशन को लेकर इन्हें इस मांग को लेकर पीछे हटना पड़ा। डॉ. अम्बेडकर चाहते थे कि दलितों को नीति-निर्माण जैसे कार्यों के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराया जाए एवं मंत्रिमंडल में उचित भागीदारी सुनिश्चित हो। उनका मानना था कि कार्यपालिका में दलितों का पर्याप्त ‘प्रतिनिधित्व‘ हाशिए के लोकजन के हितों एवं अधिकारों को सुनिश्चित करेगा।


समापन-अवलोकन -


          प्रस्तुत शोध-आलेख का समापन अवलोकन अंबेडकर को एक क्रिया समाज वैज्ञानिक के रूप में स्थापित करता है जो समाज में व्याप्त समस्याओं के कारणों की खोज के साथ-साथ उसका समाधान भी करने का प्रयास करते हैं। अंबेडकर ने अपने अध्ययनों को केंद्र बिन्दु तक पहुंचाने के लिए बहुतायत वैयक्तिक अध्ययन का प्रयोग किया। अंबेडकर ने अपने जीवन भर की तपस्या में भारत के लिए एक ऐसी दृष्टि देखी जो समानता आधारित थी, इसलिए डॉ. अम्बेडकर को सामाजिक न्याय का मसीहा कहा जाता है। डॉ. अम्बेडकर एक व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि मूक, शोषित, दमित वर्ग जो सदियों से गुलाम था, उसकी आवाज़ बने। यहाँ अम्बेडकर महान संत रविदास के साथ खड़े दिखते हैं। वे मानते हैं कि ‘ब्राह्मणवाद‘ और हिंदू धर्म एक दूसरे को शक्ति देते हैं और समाज में विविध स्तरों पर भेद पैदा करते हैं, इसलिए वे बौद्ध धर्म की तरफ बढ़ते दिखते हैं। उनका मानना है कि दलितों की मुक्ति ही वास्तविक राष्ट्रवाद है। अम्बेडकर स्वयं तो संघर्ष करते दिखते हैं, लेकिन हाशिये के लोकजन को लूला-लंगड़ा नहीं बनाते है, बल्कि उन्हें संघर्ष करने के लिए प्रेरित भी करते हैं। हाशिए के लोकजन के लिए उनका मंत्र था- "शिक्षित हो, संगठन बनाओ और संघर्ष करो।" उनका मानना था कि शिक्षा, संगठन एवं संघर्ष के अभाव में हम अपनी आज़ादी नहीं प्राप्त कर सकते।


          यहाँ एक बार फिर हमें अम्बेडकर सामाजिक न्याय की स्थापना में सबसे अलग दिखते हैं क्योंकि वे न्याय की स्थापना व्यावहारिक धरातल पर करते हैं, न कि सिद्धांत में। भारतीय दर्शन में महिलाओं को 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र देवता रमन्ते' जैसी वैचारिक के साथ देखा जाता है, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर यह तस्वीर थोड़ी अलग है। यहाँ भी हमें अंबेडकर और लोगों से अलग दिखते हैं, क्योंकि वे महिलाओं को व्यावहारिक धरातल पर बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए पहल करते दिखते हैं, उनकी प्रस्थिति, भूमिका एवं पहचान को पितृसत्ता के पैरों तले से बाहर निकालते दिखते हैं और उन्हें स्वतन्त्रता का एक मजबूत धरातल प्रदान करते हैं। यहाँ अम्बेडकर का स्वरूप एक ‘विराट योद्धा‘ के रूप में दिखता है। अंबेडकर ने पराकाष्ठा से ऊपर होने वाले दुख, कष्ट एवं ‘सामाजिक भेद‘ के दंश को झेला, उसके बावजूद भी वे टूटे नहीं, डरे नहीं, झुके नहीं, बल्कि पूरी प्रतिबद्ध सैनिक की तरह इन समस्याओं के खिलाफ़ खड़े दिखते हैं। यही कृत्य उनको एक महान मानवतावादी मानव के रूप में स्थापित करता है। वास्तव में यही उनका अवदान आज तक उन्हें मरने नहीं देता, बल्कि हाशिये के लोकजन के विचारों में वे आज भी जीवित दिखते हैं। इसलिए उन्हें सामाजिक न्याय के योद्धा के साथ-साथ, ईश्वर के रूप में पूजा भी जाता है। अंबेडकर ने मानव जीवन का कोई भी ऐसा पक्ष नहीं रहा, जैसे जाति व्यवस्था का की बात हो, अस्पृश्यता की बात हो, महिलाओं के अधिकारों की बात हो, विविध सेवाओं में समान भागीदारी के साथ-साथ किसानों, मज़दूरों की बात हो, सबके लिए वे लड़ते दिखते हैं। वैश्विक पटल पर इस पक्ष का हम मूल्यांकन करें तो समाज में व्याप्त सभी विषमताओं के समाधान का प्रयास करते हुए अंबेडकर अकेले मिलते हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि अम्बेडकर कुछ व्यक्ति विशेष के ही बनकर रह गए। इस शोध-आलेख के समापन-अवलोकन के संदर्भ में एक बात और कहना चाहूँगा कि अम्बेडकर नहीं होते तो भारत राष्ट्र का क्या होता? आज जिस तरह से वैश्विक पटल पर भारत की पहचान स्थापित हैं, क्या वह  स्थापित हो पाती? गले में मटका, कमर में झाड़ू बंधा इंसान वाला भारत कैसा होता? यह प्रश्न मैं आप सभी के लिए छोड़ता हूँ। 


          इस शोध-आलेख के समापन अवलोकन पर एक और दृष्टांत रखता हूँ। इस धरा पर ढेर सारे राजाओं का इतिहास रहा है जो एक दूसरे पर अधिपत्य के लिए विशाल सेना बनाए रखते थे। राजा नेतृत्व करता था और उसके विशाल सैनिक उसे विजयी बनाते थे। बहुतायत राजा विजयोपरांत अपने को सर्वश्रेष्ठ मानते थे, जबकि वास्तविकता यह है कि बिना सैनिकों के वे विजय नहीं प्राप्त कर सकते। यहाँ अम्बेडकर का स्वरूप उन राजाओं से बड़ा दिखता हैं, क्योंकि यहाँ अम्बेडकर बिना सैनिकों के हज़ारों-हजारों वर्षों की विशालकाय समस्याओं को समाप्त कर वास्तविक राजा के रूप में दिखते हैं। बेशक, अंबेडकर ने अपनी लड़ाई हथियारों अर्थात् तलवार, भाले, बरछी, हाथी-घोड़े, विशाल सेना के साथ नहीं लड़ी, लेकिन अपनी लड़ाई संघर्ष के तलवारों से, पुरुषार्थ के हाथी-घोड़ों से, बुद्धि और तर्क के वार से लड़ी। यही कारण है कि अम्बेडकर आज उत्तर आधुनिकता के पायदान पर भी हाशिये के लोकजन के योद्धा ही नहीं हैं, बल्कि उनके आत्मसंबल बने हुए हैं। आज अंबेडकर का भौतिक शरीर नहीं है, लेकिन आज भी उनके विचार हाशिये के लोकजन को राह दिखा रहे हैं। अस्तु, एक बार फिर सबको मिलकर अंबेडकर को अपना बनाना होगा, एक बार फिर 'युद्ध से बुद्ध' की ओर चलना होगा। तभी मानव अस्तित्व इस धरा पर संभव होगा।


संदर्भ :

1.         हैरी एम.जानसन : समाजशास्त्र : एक विधिवत विवेचन (अनु. योगेश अटल), कल्याणी पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 2004, पृ. 219
2.         ज्यां द्रेज़ एवं अमर्त्य सेन : भारत और उसके विरोधाभास (अनु. अशोक कुमार), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019, पृ. 217
3.         गेल ओमवेट : अंबेडकर प्रबुद्ध भारत की ओरपेंगुइन बुक्स इंडिया, नई दिल्ली, 2005, पृ. 135
4.         हरिकृष्ण रावत : समाजशास्त्र विश्वकोश, रावत पब्लिकेशन, जयपुर, 2001, पृ. 91
5.         वी.के.नागला : भारतीय समाजशास्त्रीय चिंतन, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, 2015, पृ. 281
6.         ए.आर. देसाई : भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि (अनु.कमल नयन चौबे), सेज पब्लिकेशन इंडिया प्रा.लि., नई दिल्ली, 2018, पृ. 167
7.         मोतीलाल गुप्ता : भारत में समाज, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2018,  पृ. 50
8.         वही, पृ. 55
9.         टी.वी.बोटोमोर : समाजशास्त्र (समस्याओं और साहित्य का अध्ययन) (अनु.गोपाल प्रधान), ग्रंथ शिल्पी, (इंडिया) प्रा.लि., नई दिल्ली,  2004, पृ. 120
10.      के. एल. शर्मा : भारतीय सामाजिक संरचना एवं परिवर्तन, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर, 2010, पृ. 139
11.      ए.आर. देसाई : भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि (अनु.कमल नयन चौबे), सेज पब्लिकेशन इंडिया प्रा.लि., नई दिल्ली,  2018, पृ. 154
12.      वही, पृ. 174
13.      रामविलास शर्मा : भारतीय संस्कृति और हिन्दी-प्रदेश, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 326
14.      सुरेश चन्द्र राजोरा : समकालीन भारत की सामाजिक समस्याएँ, राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, 2016, पृ. 182
15.      एस.एल. दोषी एवं एम.एस. त्रिवेदी उच्चतर समाजशास्त्रीय सिद्धांत, रावत पब्लिकेशन्स, जयपुर,  2001, पृ. 100-101
16.      परिमल बी. कर : समाजशास्त्र - सामाजिक अंतःक्रियाओं का अध्ययन, जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूर्स, नई दिल्ली, 1999, पृ. 469
17.      वही, पृ. 472

 

डॉ. विमल कुमार लहरी
सहायक प्रोफेसर, समाजशास्त्र विभागकाशी हिन्दू विश्वविद्यालय
vimalk.lahari1@bhu.ac.in
 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................

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