- प्रो. दर्शन पाण्डेय
बीज शब्द : नाथपंथ, बज्रयानी सिद्ध, हठ योग, नैतिकता, आत्म-संयम, साधना, अंधविश्वास और पापाचर से मुक्ति, सांप्रदायिक सद्भाव, बाह्य विधान, अनुशासन, काम-वासना, ब्रह्मज्ञान, समन्वयशीलता।
मूल आलेख : नाथपंथ मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ के द्वारा प्रवर्तित योग मार्ग है, जिसे हठ योग भी कहा जाता है। कवि गोरखनाथ आदिकालीन हिंदी साहित्य के महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व हैं। इनका व्यक्तित्व बेहद दिव्य और बहुआयामी रहा है। ये संत, कवि और सिद्ध योगी तो थे ही, साथ ही जीवन चिंतक, नीतिकार, समाज सुधारक, क्रांतिद्रष्टा और मानवता के उपासक के विभिन्न रूपों में भी इनकी पहचान है। इन्हें आदिनाथ शिव का अवतार भी माना जाता है। गोरखनाथ के नैतिक उपदेश जन सामान्य के लिए प्रेरक और सहज जीवन का मार्गदर्शन करते हैं। गोरखनाथ ने अपने मत का प्रवर्तन बज्रयानी सिद्धों के विकारों की प्रतिक्रिया में किया था, अतः उनमें नैतिकता का आग्रह बहुत प्रबल है। सामान्य व्यक्ति और समाज के लिए जीवन में संयम और साधना के महत्त्व का प्रतिपादन तो करते ही हैं, साथ ही अनेक पदों में योगियों के लिए भी नैतिक उपदेश एवं साधनापरक बातें हैं। इन्होंने अपने समय एवं समाज में व्याप्त कुरीतियों, पापाचारों, अंधविश्वासों, विकृतियों एवं मानसिक संतापों से मुक्ति को अपने काव्य का विषय बनाया। कबीर से बहुत पहले हिंदुओं एवं मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावना पर प्रहार करके उनमें मेलजोल स्थापित करने का प्रयास किया है। वास्तव में ये पहले कवि थे जिन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संवाद कायम करने का प्रयास किया।
गोरखनाथ जिन्हें गोरक्षनाथ के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने सिद्धों से अलग हठयोग का प्रवर्तन किया। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार-‘सिद्ध सिद्धान्त पद्धति’ में ‘ह’ का अर्थ सूर्य और ‘ठ’ का अर्थ चंद्र कहा गया है। इस प्रकार हठयोग में सूर्य-चंद्र का योग माना जाता है। सूर्य और चंद्र की नाना व्याख्याएँ हैं। सूर्य से तात्पर्य प्राण वायु का और चंद्र से आपान वायु का। सूर्य इड़ा नाड़ी को कहते हैं और चंद्र पिंगला को। इस प्रकार इड़ा और पिंगला नाड़ियों को रोककर सुषुम्ना नाड़ी से प्राण वायु को सक्रिय बनाने को हठयोग कहते हैं।”1 गोरखनाथ जीव हिंसा तथा अहंकार का सक्रिय विरोध करते हैं। मनुष्य की तमाम कुरीतियों पर काव्यात्मक आक्रमण करते हैं। इनकी साधनापद्धति में क्रांति और समन्वयशीलता का सुन्दर विन्यास हुआ।
गोरखनाथ के जन्म और समय के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। राहुल सांकृत्यायन और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनका जन्म काल विक्रम की दसवीं शताब्दी माना है। जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका समय पृथ्वीराज चौहान के आस-पास सुनिश्चित किया है। इनके जन्म-स्थान को लेकर भी विवाद है। नेपाल के काठमांडू से लेकर काठियावाड़ तक इनका जन्म स्थान माना जाता रहा है। चौरासी सिद्धों की तरह नौ नाथों की संख्या भी प्रसिद्ध है। 'गोरक्षसिद्धांत संग्रह' नामक ग्रंथ में इनके नाम गिनाए गए हैं- नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चंद्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरक्षनाथ, चर्पट, जलंधर और मलयार्जुन। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने "नागार्जुन, चर्पट और जलंधर को सिद्धों की परंपरा में ही माना है। नागार्जुन (संवत् 702) प्रसिद्ध रसायनी भी थे। नाथपंथ में रसायन की सिद्धि है। नाथपंथ सिद्धों की परंपरा से ही छंटकर निकला है, इसमें कोई संदेह नहीं।"2 लोकश्रुतियों में नाथों का संबंध सिद्धियों और अलौकिक चमत्कारों से जोड़ा गया है। योग-साधना के द्वारा अपनी काया को अमर करने और विभिन्न चमत्कारों का प्रदर्शन करने के लिए ये नाथयोगी प्रख्यात थे। जन-मन पर इनका गहरा प्रभाव था। नाथपंथ में प्रचलित दंतकथाओं और भिन्न-भिन्न ग्रंथों में प्राप्त उल्लेखों से ज्ञात होता है कि आदिनाथ के शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ थे। मत्स्येंद्र के शिष्य गोरखनाथ और जालंधरनाथ कान्हपा या कृष्णपाद थे। लोक में ऐसा प्रचलित है कि मत्स्येंद्रनाथ कदलीदेश या कजरी देश में , जिसे स्त्री देश भी कहा गया है, विलास-लीला में फंस गए थे और गोरखनाथ ने 'जाग मछंदर गोरख आया' के उदबोधन द्वारा उनका उद्धार किया था। गोरखनाथ का मत संपूर्ण भारतवर्ष, नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में फैला हुआ है। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही इनके अनुयायियों में थे।”3
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने नाथपंथ के संबंध
में लिखा है कि “नाथपंथ के जोगी कान की लौ में बड़े-बड़े छेद करके स्फटिक के भारी-भारी कुंडल पहनते
हैं, इससे कनफटे कहलाते हैं। जैसा पहले कहा जा चुका है, इस पंथ का प्रचार राजपूताने
तथा पंजाब की ओर अधिक रहा। अतः जब मत के प्रचार के
लिए इस पंथ में भाषा के भी ग्रंथ लिखे गए तब उधर की ही प्रचलित भाषा का व्यवहार
किया गया। उन्हें मुसलमानों को भी अपनी बानी सुनानी
रहती थी जिनकी बोली दिल्ली के आस-पास की खड़ी बोली थी। इससे उसका मेल भी उनकी
बानियों में अधिकतर रहता था। इस प्रकार नाथपंथ के इन
जोगियों ने परंपरागत साहित्य की भाषा या काव्यभाषा से, जिसका ढाँचा नागर अपभ्रंश या ब्रज का था, अलग एक 'सधुक्कड़ी 'भाषा का सहारा लिया जिसका
ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था। देशभाषा की इन पुस्तकों
में पूजा, तीर्थाटन आदि के साथ हज, नमाज़ आदि का भी उल्लेख पाया जाता है। इस प्रकार की एक पुस्तक का नाम है, 'काफिरबोध'। नाथपंथ के उपदेशों का
प्रभाव हिंदुओं के अतिरिक्त मुसलमानों पर भी प्रारंभ काल में ही पड़ा। बहुत से मुसलमान निम्न श्रेणी के ही सही, नाथपंथ में आए। अब भी इस प्रदेश में बहुत -से मुसलमान जोगी
गेरुआ वस्त्र पहने, गुदड़ी की लंबी झोली लटकाए, सारंगी बजा-बजाकर 'कलि में अमर राजा भरथरी ' के गीत गाते फिरते हैं और
पूछने पर गोरखनाथ को अपना आदिगुरु बताते हैं। ये राजा गोपीचंद के भी
गीत गाते हैं जो बंगाल के चटगाँव के राजा थे और जिनकी
माता मैनावती कहीं गोरख की शिष्या और कहीं जलंधर की शिष्या कही गई है। "4
नाथपंथ और गोरखनाथ के साहित्य को डॉ. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने मूल्यांकित किया है। उन्होंने गोरखनाथ के उपदेशों का सार-संकलन 'गोरखबानी' के अंतर्गत किया है। ‘गोरखबानी के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें मनुष्य के दैनिक जीवन की आचार संहिता प्रस्तुत की गई है। चूंकि गोरखनाथ अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ और वज्रयानियों के वामाचार तथा पंचमकार के सेवन का हश्र देख चुके थे, अतः वे इस दिशा में कठोर मत का प्रतिपादन करते हैं। उनकी बानी मुख्य रूप से उपदेश परक है।”5 गोरखनाथ के पदों में योगियों के लिए भी नैतिक उपदेश एवं साधनापरक बातें हैं। कुछ पद तो लोकोक्ति का रूप धारण कर गए हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने गोरखबानी के वस्तुतत्त्व के विश्लेषण के बहाने गोरखनाथ के महत्त्व का भी प्रतिपादन किया है। उन्होंने लिखा है कि "गोरखनाथ की हठयोग साधना ईश्वरवाद को लेकर चली थी अतः उसमें मुसलमानों के लिए आकर्षण था। ईश्वर से मिलाने वाला योग हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए एक सामान्य साधना के रूप में आगे रखा जा सकता है, यह बात गोरखनाथ को दिखाई पड़ी थी। अतः उन्होंने दोनों के विद्वेष भाव को दूर करके साधना का एक सामान्य मार्ग निकालने की आवश्यकता समझी थी और वे उसका वे उसका संस्कार अपनी शिष्य परंपरा में छोड़ गए थे। नाथ संप्रदाय के सिद्धांत ग्रंथों में ईश्वरोपासना के बाह्यविधानों के प्रति उपेक्षा प्रकट की गई है, घट के भीतर ही ईश्वर को प्राप्त करने पर जोर दिया गया है, वेदशास्त्र का अध्ययन व्यर्थ ठहराकर विद्वानों के प्रति अश्रद्धा प्रकट की गई है, तीर्थाटन आदि निष्फल कहे गए हैं।"6 नाथ पंथ में मानुष- काया का सर्वाधिक महत्त्व है, यही सिद्धि का साधन है, यहाँ काया को शक्ति की उपासना का मुख्य साधन माना गया है। यही कारण है कि नाथपंथ में संयम, सदाचार और शरीर की शुद्धता को सबसे ज्यादा महत्त्व दिया गया। गोरखबानी में जिन पदों का संग्रह मिलता है उनकी प्राचीनता और प्रामाणिकता दोनों ही संदिग्ध हैं। बावजूद इसके उनके नैतिक उपदेश प्रक्षिप्त रूप में ही सही जन सामान्य के लिए दिशा दर्शक हैं।
गोरखबानी में से कुछ पद लोकभाषा में हैं जिससे उनकी प्रभावशक्ति बढ़ गई है। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार, “गोरखनाथ की बड़ी विशेषता है कि वे तत्त्वज्ञानी नहीं थे। वे लोक जीवन, लोकभाषा और लोक व्यवहार के जानकार थे। वे भावविह्वल धर्मगुरु नहीं, बल्कि मनुष्य की कमजोरियों को पहचान कर साधक को उनसे सावधान रखने वाले गुरु थे।”7 नाथपंथ में गुरु को साधना के लिए अनिवार्य माना गया है। गोरखनाथ ने गुरु का होना परम आवश्यक माना है, उसके बिना ज्ञान प्राप्ति संभव नहीं है।
गोरखनाथ ने अपने मत का प्रवर्तन बज्रयानी सिद्धों के विकारों की प्रतिक्रिया में किया था अतः उनमें नैतिकता का आग्रह बहुत प्रबल है। वे विशुद्ध ब्रह्मचारी को ही इस मार्ग का अधिकारी मानते थे। उनके अनुसार नाद और बिंदु का संयम आवश्यक है। यथा -
काछ का जती मुष का सती । सो सत पुरुष उंतमो कथी॥” 8
गोरखनाथ जी का कहना है कि जो व्यक्ति अपने
इंद्रियों, विशेषकर जननेन्द्रिय के संबंध में स्वयं को अनुशासित या
नियंत्रित नहीं रखते। जो अपने मुख से खराब, बुरी अथवा अश्लील बातें
करते हैं, वह नीच प्रवृत्ति के व्यक्ति होते हैं। जो अपनी काम वासना की
नियंत्रित कर लेते हैं अर्थात लंगोट के पक्के होते हैं तथा मुख से सच्ची बातें
करते हैं वही व्यक्ति महान कहलाते हैं। सच्चे साधक के लक्षणों को
बताया गया है, जिसे अपनी इंद्रियों पर अंकुश है वही सत्पुरुष कहलाता है। गोरखनाथ ने अखंड
ब्रह्मचर्य और सात्विक प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करके योगी एवं गृहस्थ दोनों
की ही कुरीतियों पर प्रहार किया। उन्होंने अपने समय एवं
समाज का मार्गदर्शन किया।
गोरखनाथ ने अपने मत को व्यावहारिक और मनुष्य के दैनिक जीवन के लिए उपयोगी बनाने का कार्य भी किया। उनके अनुसार मनुष्य को सुखी और संतुष्ट जीवन जीने के लिए कुछ बातें अपनानी चाहिए। मनुष्य को हमेशा चेहरे पर मुस्कुराहट रखना चाहिए। सदैव प्रसन्न मुख रहने, हंसी ठिठौली और खेलने-कूदने से परेशानी और तनाव से बच सकते हैं। हरदम मस्त और मस्ती में रहने वाला व्यक्ति क्रोध और काम आदि विकारों से भी दूर रहता है। क्योंकि क्रोध और काम वासनाएँ हमें अशांत और असंतुष्ट करती हैं। गीत और संगीत से मानसिक तनाव से मुक्ति मिलती है। यह ऐसा साधन है, जिससे हमारा मन प्रसन्न, चित्त शांत और व्यक्तित्व दृढ़ इच्छाशक्ति तथा संकल्पशक्ति से परिपूर्ण हो जाता है। वे मनुष्य के चित्त की दृढ़ता की बात करते हैं। चित्त शिथिल न हो, वह दृढ़ और एकाग्र रहे। यथा -
हसिबा षेलिबा धरिबा ध्यांन। अहनिसि कथिबा ब्रह्म गियांन।
हसै षेलै न करै मन भंग। ते निहचल सदा नाथ कै संग।।” 9
गोरखनाथ ने मनुष्य को सुखी और संपन्न जीवन जीने का मंत्र दिया गया है। मानसिक और शारीरिक रूप से सक्षम और स्वस्थ रहने के लिए खेल एवं गीत-संगीत का सहारा लेना चाहिए। मनुष्य को सुखी रहने के लिए हंसना, खेलना और एकाग्रचित्त होकर ध्यान आदि (योग, प्राणायाम) कार्य अवश्य करने चाहिए। इसके अलावा ब्रह्मज्ञान के बारे में चर्चा-परिचर्चा करना चाहिए। ध्यानपूर्वक ब्रह्म ज्ञान पर परिचर्चा से जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है। इस प्रकार संयमपूर्वक जो अपने मन को ब्रह्मज्ञान में लीन रखता है, निश्चल रहता है, मन को संयमित रखते हैं, वे ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाते हैं। तात्पर्य है कि मनुष्य को सुखी रहने के लिए जीवन में हँसना, खेलना और ध्यान-योग आदि कार्य करना चाहिए। ब्रह्म से एकाकार होने के लिए निश्चल होकर चित्त को काबू में रखने की बात कही गई है।
गोरखनाथ का मानना है कि जो व्यक्ति अपने बचपन एवं युवावस्था में स्वयं को संयमित कर लेता है। अपनी पाँचों इंद्रियों को वश में करता है, उसे किसी मोह माया में कोई बांध नहीं पाता। जिस कारण वह पथभ्रष्ट भी नहीं होता। अपनी इंद्रियों का नियंत्रण करने पर कैसी भी परिस्थिति आ जाए वह व्यक्ति हमेशा स्थिर रहता है। वह समय या असमय , सुख या दुख में हमेशा सत्य मार्ग पर टिका रहता है। ऐसे व्यक्तियों के बारे में गोरखनाथ कहते हैं कि जो व्यक्ति फुर्ती के साथ भोजन करते हैं अर्थात् अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा कम खाते हैं। वास्तव में ऐसा संयम इंद्रियों को वश में करके ही हो सकता है। किसी भी व्यक्ति में गुण जन्म से ही नहीं आ जाते, उसे स्वयं को साधना पड़ता है। जो व्यक्ति ऐसा कर लेते हैं तब उसमें और मुझमें कोई अंतर नहीं रह जाता अर्थात वह मेरे समीप आ जाता है, समरूप हो जाता है।
फुरतै भोजन अलप अहारी, नाथ कहै सो काया हमारी।।” 10
उक्त पद में आत्मा की शुद्धि और आत्मसंयम की बात कही गई है। कहने का तात्पर्य है कि जो व्यक्ति अपनी बाल्यावस्था और यौवनावस्था में अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर अपना नियंत्रण रखते हैं, वह हर परिस्थिति में एक समान रहते हैं। इन पंक्तियों में स्वयं पर संयम रखने, इंद्रियों को वश में करने का वर्णन किया है। अति संतोष व्यक्ति में आलस्य और निराशा भर देता है, कहने का तात्पर्य है कि अधिक भोजन करने वाला व्यक्ति भगवद् भक्ति नहीं कर सकता।
इसी प्रकार एक पद में वे कहते हैं कि हमें किसी भी समय अनियंत्रित नहीं होना चाहिए। हर काम को सोच समझ कर करना चाहिए। क्या सही है क्या गलत है बिना सोचे समझे किसी को तुरंत कुछ नहीं बोलना चाहिए। जोर-जोर से अपने पैर पटकते हुए नहीं चलना चाहिए, धीरे-धीरे पैर रखना चाहिए। हमें अपने ऊपर अभिमान नहीं करना चाहिए। सदैव अपने स्वभाव के अनुसार सामान्य रूप से रहना चाहिए। योगी जल्दबाजी करके सिद्धि नहीं पा सकता। यह पंथ इतना आसान भी नहीं है। साधक का व्यवहार सहज होना चाहिए। गोरखनाथ उसके लिए अनुशासन तय करते हुए कहते हैं कि जहाँ-तहाँ उसे हकबकाकर नहीं बोलना चाहिए। उसे कहीं भी धड़-धड़ाकर नहीं जाना चाहिए अर्थात उसके लिए यह उपयुक्त नहीं है कि वह कहीं से भी उछलते-कूदते हुए निकल जाए। धैर्य उसकी सबसे बड़ी साधना है। उसे अहंकार मुक्त होकर सहज ही रहना चाहिए। इस तरह गोरखनाथ योगी के दैनिक क्रिया-कलापों और जीवन-चर्या के माध्यम से ही अपने मत का प्रतिपादन करते हैं। यही गोरखनाथ का उपदेश है। यथा -
गरब न करिबा सहजै रहिबा, भणत गोरष रावं।।” 11
गोरखनाथ परम साधक योगी के गुणों को उद्घाटित करते हैं। वे कहते हैं कि इस लौकिक जगत तथा नश्वर
सांसारिक प्रपंचों से मुक्त होने के पश्चात ही परम ब्रह्म की प्राप्ति संभव है। यथा-
ते पद जांनां बिरला जोगी और दुनी सब धंधै लाई।।”12
गोरखनाथ का मानना है कि वेद, पुराण, कुरान विभिन्न शास्त्र आदि धर्म ग्रंथों में परम ब्रह्म के बारे में जिस तरह के पद मिलते हैं, उन्हें सामान्य साधक नहीं समझ सकता। उस परम तत्व के विषय में जिस तरह के पद हैं, उन्हें केवल सिद्ध साधक अथवा बिरला योगी ही समझ सकता है। इसका मुख्य कारण है कि सामान्य व्यक्ति इस मायावी दुनिया के चक्कर में ही लग रहता है। इस लौकिक संसार की मोह माया में फंसा व्यक्ति अपने जीवन के अनावश्यक काम धंधे से मुक्त नहीं हो पाता। ऐसे में उस परम ब्रह्म को जानने की क्षमता कहाँ से प्राप्त होगी? उसे जानने के लिए सांसारिक मोह-माया का त्याग आवश्यक है।
हठ न करिबा पड्या न रहिबा यूँ बोल्या गोरष देवं।।” 13
गोरख कहते हैं कि भोजन को देखकर उस पर टूट
नहीं पड़ना चाहिए और ना ही भूखे मरना चाहिए। तात्पर्य है कि हमेशा
संतुलित भोजन करना चाहिए। रात दिन ब्रह्माग्नि
अर्थात सूर्य की रोशनी और हवा को ग्रहण करना चाहिए। शरीर के साथ हठ नहीं करना
चाहिए, आलस्य में पड़े नहीं रहना चाहिए। सदैव सक्रियता बनी रहनी
चाहिए। गोरखनाथ ने साधक के लिए संयम और संतुलन पर
जोर दिया है।
छठै छ मासै काया पलटिबा ज्यूं को को बिरला बिजोगी।।” 14
गोरख कहते हैं, हे अवधूत! भोजन अधिक मत
करो, कम खाओ। आलस्य न करो, नींद को अपने पास मत आने
दो। यदि ऐसा होगा तो तुम कभी बीमार नहीं पड़ोगे। ऐसा करके हर छः महीने में तुम अपना कायाकल्प
कर लोगे, दूसरा शरीर अर्थात स्वस्थ तन के स्वामी बन जाओगे। तात्पर्य है कि तुम्हारे
शरीर से सारे रोग नष्ट हो जाएंगे। किन्तु ऐसा करना बहुत
सामर्थ्य का काम है, ऐसा बिरले जोगी ही कर पाते हैं। इसके लिए संयम, नियम और व्रत आदि करना
पड़ता है। इस पद में भी योगी साधक के लिए संयम और नियम
के महत्त्व को समझाया गया है।
राजा संग्रामे झूझ न करबा हेलै न षोइबा नादं । ।”15
गोरखनाथ इस पद में अवधूत
को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि -हे अवधूत! मूर्खों की सभा में नहीं बैठना
चाहिए अर्थात मूर्खों के साथ नहीं रहना चाहिए, ऐसे पण्डितों से
शास्त्रार्थ नहीं करना चाहिए क्योंकि उसका ज्ञान एवं गर्व दूसरे प्रकार की
मूर्खता हैं, वास्तविक ज्ञान तो उसे होता ही नहीं हैं। अतएव ऐसे में शास्त्रार्थ
में पड़ना व्यर्थ समय को नष्ट करना है अर्थात कहने का मतलब यह है कि जिसे स्वयं ही
शास्त्रार्थ का ज्ञान नहीं और अन्य को क्या शास्त्रार्थ का ज्ञान देगा वह खुद मूर्ख है औरों को भी मूर्ख बनाएगा। राजा से लड़ाई नहीं लड़नी चाहिए क्योंकि राजा
उस क्षेत्र में शूर नहीं है, जिस क्षेत्र में साधक को शूर होना चाहिए राजा
के पास बाहुबल है। किन्तु साधक के पास आत्मबल होना चाहिए। इसलिए दोनों में स्पर्धा का भाव हो ही नहीं
सकता अर्थात् यहाँ यह दर्शाया गया है कि किसी भी क्षेत्र के राजा को बाहुबल और साधक को आत्मबल से
कमज़ोर नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो स्पर्धा
का भाव समाप्त होने लगेगा। इस पद के माध्यम से समय
को महत्त्व देने पर भी बल दिया गया है।
हिन्दुओं में साधक जोगी
के लिए गुरु की महत्ता या गुरु का स्थान ठीक उसी प्रकार है जैसा मुसलमानों में पीरों
का है। गोरखनाथ ने अपने नाम में पीर शब्द का प्रयोग
किया है, किंतु इसका अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि उन पर मुसलमानों का अधिक प्रभाव है। बल्कि उनके लिए गुरुओं का मान और पीर आदि का
मान एक समान है। हिंदू और मुस्लिम एकता स्थापित करने का संकेत
मिलता है। यथा -
ते राह चीन्हों हो काजी मुलां ब्रह्मा बिस्नु महादेव मांनी। ।” 16
गोरखनाथ जी कहते हैं कि जन्म से मैं हिंदू हैं, वृद्धावस्था या जीवन के अनुभव के कारण योगी हूँ, अपनी बुद्धि से मुसलमानी पीर हूँ। अतः हे काजियों और मुल्लाओं उस परम तत्व को प्राप्त करने के मार्ग को पहचानो। जिसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, पालनकर्ता विष्णु तथा संहारक शिव ने भी माना है। तात्पर्य यह है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों एक ही हैं, ईश्वर भी एक ही है। दोनों के बीच असमानता या भेद को दूर करते हुए एकता स्थापित करो। दोनों का स्थान और सम्मान बराबर है, दोनों श्रेष्ठ हैं, इस बात को समझो।
गोरखनाथ जी कहते हैं जो मनुष्य आशा रखते हैं, जो आशा के सहारे रहते हैं, उन्हें जीवन में आपत्ति
का सामना करना पड़ता है, आपत्ति को झेलना पड़ता है। जो व्यक्ति संदेह करते हैं, संदेह के सहारे रहते हैं, उन्हें अपने जीवन में शोक
और दुख का सामना करना पड़ता है। वे कहते हैं कि यह दोनों
(आशा और संशय) ऐसे बड़े रोग है जो व्यक्ति को कमजोर और दुखी कर देते हैं। इन रोगों से तभी निवारण प्राप्त किया जा सकता
है, जब गुरु की शिक्षा प्राप्त की जाए, अर्थात् गुरु के मुख से शिक्षा प्राप्त किए
बिना इन रोगों का निवारण संभव नहीं है। यथा-
गर मुषि बिना न भाजसी (गोरष)। ये दून्यों बड़ रोग॥” 17
तात्पर्य है कि
आशा और संदेह को रोग की संज्ञा दी गई है, गुरु शिक्षा का महत्त्व बताया गया है। यह सत्य है कि जो किसी से आशा करते हैं, अर्थात् किसी से उम्मीद
रखते हैं, उन्हें कष्ट झेलना पड़ता है। जो किसी पर शक या संदेह
करते हैं, उन्हें भी दु:ख झेलना पड़ता है। आशा तथा संदेह दोनों ऐसे रोग हैं, जो बिना गुरु ज्ञान के
दूर करना संभव नहीं है। गोरखनाथ ने ब्रह्मचर्य के
लिए नशे आदि से दूर रहने का संदेश दिया है। यथा-
धोतरा ना पीवो है अवधू भांगि ना षावौ रे भाई ।
गोरष कहै सुणो रे अवधु या काया होयगी पराई ।
।”18
गोरख कहते हैं कि हे मानव धतूरा ना पियो ना
ही भांग पियो। इनके सेवन से शरीर नष्ट हो जाता है। नशे का सेवन किसी भी प्रकार से हितकारी नहीं
होता। नशा व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से
बीमार ही नहीं करता अपितु शरीर को नष्ट भी कर देता है। अतः इस नशे से हमेशा दूर
रहो। इसी प्रकार गोरखनाथ जी ने साधुता के महत्त्व को भी प्रतिपादित किया है। ब्रह्म-तत्व की प्राप्ति के लिए
सार्थक तरीके सुझाए हैं, साथ ही गृहस्थ जीवन के त्याग पर भी बल
दिया है। वे कहते हैं -
बैरागी अर माया स्यू हाथ । या पांचा को एको साथ । ।
गिरही होय करी कथै ग्यान । अमली होय करि धरै ध्यान । ।
बैरागी होय करै आसा । नाथ कहै तीन्यो षाशा पाशा । ।
रांड मुवा जति, धाये भोजन सती धन त्यागी । नाथ कहै ये तीन्यो अभागी । ।” 19
गोरखनाथ जी कहते हैं कि गृहस्थ के ज्ञान, व्यसनी के ध्यान, बूचा के कान, वैश्या के मान, वैरागी में माया और माया
में लिप्त वैरागी का कोई महत्त्व नहीं है। गृहस्थ को ज्ञान नहीं होता, व्यसनी ध्यान नहीं कर सकता, बूचे का कान नहीं होता, वैश्या का मान नहीं होता
और वैरागी माया से संबंध नहीं जोड़ सकता या माया से संबंध रखने वाला वैरागी नहीं
बन सकता। इसलिए इन पाँचों का अस्तित्व नहीं होता है। तात्पर्य है गृहस्थ का ज्ञान पूर्ण नहीं हो
पाता, व्यसनी उस परम तत्व का ध्यान नहीं कर पाता, वह सांसारिक व्यसनों में
ही लगा रहता है। वैश्या किसी भी प्रकार से सम्मान अर्जित नहीं
कर पाती। माया से लगाव रखने वाला कभी विरक्त नहीं हो
पाता। जो व्यक्ति स्त्री की मृत्यु के बाद योगी
बनता है, जो साधु भोजन के लिए ही साधु बनता है और जो धन नष्ट हो जाने पर त्यागी बनता है, उसका कोई महत्त्व नहीं। वह अभागे हैं। ये सभी परमब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त नहीं
कर पाते। जो व्यक्ति अपनी विकलांगता अर्थात् किसी कमी
के कारण वैराग्य प्राप्त कर लेता है, उसका साथ छोड़ देना। चाहिए क्योंकि वह सच्चा
ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता।
गोरख ने योगी के लिए जिस सदाचार का आदर्श रखा, वह गृहस्थ अथवा जनसामान्य
के लिए भी उतना ही उपयोगी है। क्योंकि वह मनुष्य की
जीवनचर्या का ही अविच्छिन्न अंग है। इस दृष्टि से निम्न पद
अवलोकनीय है-
सिध समाधि पंच घर भेला, गोरष वहां समाया। ।”20
इस पद में गोरख के विषय में बताया गया है कि उन्होंने ज्ञान को किस प्रकार प्राप्त किया है। वह कहते हैं कि मैंने स्त्री (माया) रहित जीवन बिताकर अपने आप को ज्ञानी बनाया है, अर्थात् उनका कहना है कि ब्रह्म ज्ञान को पाने के लिए सांसारिक मोह माया, भोग विलासी जीवन को त्यागकर हमेशा स्त्री जाति से दूर रहकर, साधना के बल पर, चिंतन मनन कर, ध्यान एकाग्र कर परमात्मा को अपने भीतर पाया है। अपने आप को सांसारिक बंधनों से मुक्त रखकर अपनी पाँचों ज्ञान-इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर उन्हें ब्रह्म ज्ञान की ओर अग्रसर किया है। इस कारण इस माया रुपी संसार में अज्ञानी और भोग विलासी मनुष्य मेरे अस्तित्व को नहीं समझ पा रहे हैं कि गोरख कहाँ समा गया है। वास्तव में गोरखनाथ का उपदेश हर व्यक्ति के लिए है। किन्तु जिस तरह कच्चे बर्तन में पानी नहीं ठहर सकता उसी तरह ब्रह्मज्ञान से रहित कच्चे शरीर में उपदेश भी नहीं ठहर सकता। ऐसे में हठ योग की साधना पद्धति को अपनाने वाला योगी इस तत्त्व को समझ पाता है। गोरखनाथ के युगजीवन पर विचार करते हुए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि, " गोरखनाथ का जिस समय आविर्भाव हुआ था, वह काल भारतीय धर्म-साधना में बड़े उथल-पुथल का है। एक ओर मुसलमान भारत में प्रवेश कर रहे थे और दूसरी ओर बौद्ध साधना क्रमशः तंत्र-मंत्र और टोने-टुटके की ओर अग्रसर हो रही थी। दसवीं शताब्दी में यद्यपि ब्राह्मण धर्म सम्पूर्ण रूप से अपना प्राधान्य स्थापित कर चुका था तथापि बौद्धों, शाक्तों और शैवों का एक बड़ा भारी समुदाय ऐसा था जो ब्राह्मण और वेद को नहीं मानता था ।"21 इस तरह गोरखनाथ के व्यक्तित्व एवं चिंतन के निर्माण में तत्कालीन परिस्थितियों का भी विशेष योगदान रहा है। यही कारण है कि इनकी बानी में विषयगत वैविध्य भरपूर है।
निष्कर्ष :
निःसन्देह गोरखनाथ ने व्यक्ति और समाज के विभिन्न विभेदों को दूर करने का स्तुत्य कार्य किया। उन्होंने समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, विषमतापूर्ण जीवन को सहज बनाने के लिए जनजागरण का भी कार्य किया। तदयुगीन समाज की जाति-व्यवस्था से असमानता को दूर कर समता और समानता स्थापित करने का प्रयास कियाहै। गोरखनाथ ने अपने समय एवं समाज में व्याप्त कुरीतियों, पापाचारों, अंधविश्वासों, विकृतियों एवं मानसिक संतापों से मुक्ति को अपने काव्य का विषय बनाया। कबीर से बहुत पहले हिंदुओं एवं मुसलमानों की साम्प्रदायिक भावना पर प्रहार करके उनमें मेल-जोल तथा उनके बीच संवाद कायम करने स्थापित करने का प्रयास किया। इस रूप में सामाजिक और सांप्रदायिक समन्वयशीलता का महत्त्वपूर्ण उदाहरण कहा जा सकता है। यही कारण है कि गोरखनाथ का व्यक्तित्व युगांतरकारी रहा है। अतः आज आवश्यकता है कि गोरखनाथ के साहित्य को भलीभाँति विश्लेषित करके उनके ऐतिहासिक प्रदेय को रेखांकित किया जाए।
1. विश्वनाथ त्रिपाठी : नाथ संप्रदाय-हिन्दी साहित्य ज्ञानकोश, खंड 4, प्र. संपा० शम्भूनाथ, पृष्ठ 1905
2. रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2056 वि०, पृ० 09
3. डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय, डॉ. दर्शन पांडेय (संपादक) : गोरखबानी- गोरखनाथ, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पहला संस्करण, 2020, पृष्ठ, 6
4. रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2056 वि०, पृष्ठ- 11
5. डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय, डॉ. दर्शन पांडेय (संपादक) : गोरखबानी- गोरखनाथ, राधाकृष्ण पेपरबैक्स, नई दिल्ली, पहला संस्करण, 2020, पृष्ठ, 8
6. रामचन्द्र शुक्ल : हिन्दी साहित्य का इतिहास, नागरीप्रचारिणी सभा, काशी, संवत् 2056 वि०, पृष्ठ- 10
7. विश्वनाथ त्रिपाठी : नाथ संप्रदाय-हिन्दी साहित्य ज्ञानकोश, खंड 4, प्र. संपा० शम्भूनाथ, पृष्ठ 1905-06
8. डॉ० पीतांबरदत्त बड़थ्वाल (संपादक), गोरखबानी, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, षष्ठ संस्करण 2004, पद संख्या 153, पृष्ठ 72
9. वही, पद संख्या-7-8, पृष्ठ-23-24
10. वही, पद संख्या-20 , पृष्ठ- 28
11. वही, पद संख्या-27, पृष्ठ- 31
12. वही, पद संख्या-6, पृष्ठ- 21
13. वही, पद संख्या-31, पृष्ठ- 32
14. वही, पद संख्या-33, पृष्ठ- 33
15. वही, पद संख्या-122, पृष्ठ- 63
16. वही, पद संख्या-14, पृष्ठ- 26
17. वही, पद संख्या-235, पृष्ठ- 94
18. वही, पद संख्या-241, पृष्ठ- 96
19. वही, पद संख्या-245-247, पृष्ठ- 97
20. वही, ज्ञान तिलक, पद संख्या 15-, पृष्ठ- 230
21. हजारी प्रसाद द्विवेदी : नाथ-सिद्धों की बानियां- पृष्ठ 11
प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, शिवाजी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, नई दिल्ली-110027
darshan.du@gmail.com,
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................
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