- संगीता कुमारी
शोध सार : वैश्वीकरण ने पूरे विश्व में एक नए विकसित होते समाज की स्थापना करने की कोशिश की है जिसके कारण मनुष्य और प्रक़ति के बीच जो चराचर साहचर्य है, उसे अनदेखा करने का प्रयास किया जा रहा है। यह कहीं-न-कहीं पुरे मनुष्य के लिए नहीं अपितु पूरे विश्व के सभी जाति-प्रजाति के लिए ह्रास का कारण बन सकता है। झारखण्ड राज्य के भाषाविद, नृतत्वशास्त्री, रामदयाल मुण्डा जी का एक कथन है- ''जे नाची से बाची'' अर्थात् जो रचेगा वह बचेगा। प्रकृति में नैसर्गिक सृजन की निरन्तरता रहती है तथा मनुष्य उसके साथ लगातार उसकी रक्षा और आत्मीय सहचरता बनाए हुए हैं। बढ़ते उदारीकरण, बढ़ते कंक्रीट जंगल की जनसंख्या ने, भूमंडलीकरण, अति भौतिकवादिता के बावजूद प्राकृतिक प्रेमी, बाहुल्य सांस्कृतिक समाज, मुख्यधारा के पितृसत्तात्मक समाज से इतर मातृसत्तात्मक समाज इस प्रकृति के लिए जूझ रहे हैं। ये लोग समाज आदिभूमि के पुत्र, वंशज हैं जिन्हें आदिवासी के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इस प्रदेश ने अपने गर्भ में प्रकृति के अनमोल खजाने को छुपाए रखा है। झारखण्ड प्रदेश के आदिवासी जिन्होंने अनेक सदियों तक प्रकृति को बचाये, जिलाए रखा है। परन्तु आज वह प्रकृति को बचाने एवं खुद की पहचान को बचाए रखने के लिए तत्पर है।
बीज शब्द ; आदिवासी, प्रकृति, मातृसत्तात्मक, बाहुल्य संस्कृति, नृतत्वशास्त्री, अति भौतिकवादिता, आदिभूमि, भूमंडलीकरण, उदारीकरण।
मूल आलेख : 21 वीं सदी में जब भूमण्डलीकरण एवं औद्योगिकरण अपने चरम पर
है। मानव विकास का हवाला देकर कुछ भी दांव पर लगाने का सिलसिला चल पड़ा है।
प्रकृति के बगैर मानव का कोई अस्तित्व नहीं है। झारखण्ड राज्य का एक अभिन्न
अंग, बड़ा तबका जिसे प्राचीन समय से ही आदिवासी यानी मूलवासी के
नाम से ही सम्बोधित किया जाता रहा है।, पृथ्वी के इस अनमोल पूंजी
को बचाए रखने के लिए प्रयासरत है। इनकी बहुविकसित संस्कृति मातृसतात्मक समाज है
जो आज के मुख्य धारा से लड़ रहा है।
अस्तित्व, अस्मिता, आइडेंटिटी मनुष्य के अभिन्न अंग है। हमारे भारतवर्ष में मानव के अस्तित्व, पहचान के लिए जातिगत आधार बनाया गया है और इस आधार के कारण सामाजिक भेदभाव और आर्थिक रूप से निर्बल होना भारतीय समाज का अंग रहा है। आदिवासी समाज के लोगों को आज भी असभ्य तथा जंगली समझा जाता है। वे अगर मुख्यधारा के साथ सामंजस्य भी स्थापित करना चाहे तो उन्हें उनके पहनावें रंग-रूप, रहन-सहन, बोली के कारण हीन दृष्टि से देखा जाता है। यहां तक कि उन्हें उनके जातिगत नाम के कारण भी उन्हें उपहास का पात्र बनना पड़ता है। वीर भारत तलवार इस सन्दर्भ में कहते हैं कि ''यह दुर्भाग्य की बात है कि आदिवासियों से अंजान लोग उनके प्रति बहुत सी गलत धारणाऍ रखते हैं और उन्हें असभ्य तथा जंगली समझते हैं और जब उनके संपर्क में आते हैं तो उनके साथ ऐसा व्यवहार करते हैं।''
आदिवासी समाज भी एक ऐसा तबका है जो अपने हर रूप में समृद्ध होने के बावजुद अपनी पहचान बनाए रखने के लिए युद्धरत है। आदिवासी समाज का अपना एक इतिहास रहा है। एक समृद्धशाली विकसित इतिहास, रहन-सहन, धर्म, संस्कृति, मानवीय मूल्यों, विस्तृत मौखिक साहित्य, चित्रलिपि, लिपि, भाषा है। उनकी अपनी सामाजिक व्यवस्था है। मातृसत्तात्मक समाज है तथा प्रकृति से अनुठा सहबन्ध है। रामदयाल मुण्डा अपनी पुस्तक 'आदिवासी अस्तित्व और झारखण्डी अस्मिता के सवाल' जिसे उन्होंने परमश्रद्धेय गुरूवर, डॉ० नार्मन जाइड, शिकागो विश्वविद्यालय को सादर समर्पित किया है, (सन 2002) में वे कहते हैं। ''किसी समुदाय की संस्कृति उसके जीवन के पूरे दायरे (देशकाल) में अर्जित मूल्यबोध की पूंजी होती है और उसके पहचान (अस्मिता, आइडेंटिटी) के संकट का सवाल तब आता है जब वह देखता है कि उस पर आक्रमण हो रहे हैं, तब उसकी पहचान विघटित होने का भय से आतंकित करता है।''2
ये भय आज संपूर्ण आदिवासी समाज पर व्याप्त है। आदिवासियों के लिए उनकी पहचान ही प्रकृति पर पूर्ण रूप से निर्भर करता है। वे उसके पोष्य भी है पोषक भी। आदिभूमि के पुत्र जल, जंगल, जमीन से पारिवारिक रिश्ता रखते हैं। आदिवासियों की संस्कृति में उनके देवता, पूज्य, पुजनीय स्थल, ईश्वर, प्रकृति है। वे प्रकृति के बीच जन्म लेते हैं। पलते हैं, बढ़ते हैं, मृत्यु के बाद भी उन्हीं के बीच रहते हैं। वे जीते जी प्रकृति की रक्षा करते हैं और मृत्यु के बाद उनकी अस्थियॉं धरती को सृजन के लिए उर्वरता प्रदान करती है। इन चिर सहयात्री को एक-दूसरे से विलग करने का दु:साहस किया जा रहा है। भारत में या यूँ कहें पूरे विश्व में जहाँ-कहीं भी आदिवासी है। आर्थिक, समाजिक व राजनितिक रूप से हाशिए पर हैं। वे न केवल अपने जीने के लिए लड़ रहे हैं बल्कि अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए लड़ रहे हैं।
आदिवासी लेखन आज उनकी उमरती अस्मिता के संकट को व्यक्त कर रही हैं। प्रश्न यह है कि आखिर में आदिवासी अस्मिता को संकट के लिए जिम्मेवार कौन है? यह आज के विमर्शवादी के दौर में कुछ दशकों से विचार-विमर्शों, सम्मेलनों का प्रमुख विषय रहा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के इस काल में विकास के नाम पर आदिवासी को उनके ही जन्मभूमि को कौड़ियों के दाम बेचने के लिए मजबूर किया जा रहा है। पर्यावरण बचाने के नाम पर पर्यावरण के सबसे बड़े रक्षक को ही विस्थापित करने की साजिश रची जा रही है। उनके अस्तित्व के रक्षको को ही जल, जंगल, जमीन से बेदखल किया जा रहा है। आज विस्थापन आदिवासियों की मुख्य समस्या बन गई है।
''वन तथा पहाडि़याँ जनजातीय पहचान के मुख्य स्रोत हैं। जनजातीय समुदायों का
उनकी भूमि रहवास, जीविका, राजनैतिक व्यवस्था, सांस्कृतिक मूल्यों एवं
पहचान से वंचित करके प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय जीवन से ही बेदखल किया जा रहा
है।''3
झारखण्ड प्रदेश
के आदिवासियों के लिए तथा उनके समस्याओं के लिए लिखने तथा उनके भाव को स्वर देने
के लिए उन्हीं के समाज तथा समाज से इत्तर साहित्यकारों ने एक नई आवाज बनने के
कार्य किया है। इस प्रदेश को केन्द्र में रखकर, इस विषय को केंद्र में रखकर अनेक साहित्य
पुस्तकों की रचना की जा रही है। आदिवासियों की अपनी एक विस्तृत मौखिक साहित्य
रहा है। झारखण्ड में बोली जाने वाली क्षेत्रीय भाषाएँ जैसे मुंडारी, संताली, खडि़या, खोरठा, नागपुरी, पंचपरगणिया, कुरमाली आदि विपुल मौखिक साहित्य रहा है।
वर्तमान समय में लेखन के इस दौर में आदिवासी साहित्य हिन्दी भाषा में लिखना शुरू
कर दिया है। अन्य आस्मितावादी साहित्य की तरह आदिवासी साहित्य में भी स्वानुभूति
और सहानुभूति का स्वर दिखाई पड़ता है। आदिवासी समुदाय के जीवन दर्शन में समता, सहभागिता, सामूहिकता की भावना अधिक दिखलाई पड़ती है। इसलिए
साहित्य में भी यह दृष्टिगत होता है। झारखण्ड प्रदेश के आदिवासी एवं उनकी समस्या
को लेकर हिन्दी उपन्यासों की रचना की जा रही है। इस परम्परा में राकेश कुमार
सिंह, पीटर पॉल एक्का, महुआ माजी, विनोद कुमार, रणेन्द्र, अश्विनी कुमार पंकज, मनमोहन पाठक, ऋता शुक्ला आदि है। उत्तर आधुनिक समाज में विकास के नाम पर सदैव बलि के रूप में
आदिवासियों को रखा जाता रहा है। विकसित होती दुनिया में बढ़ते पूँजीवाद का भक्षण
बनने के लिए हमेशा से आदिवासियों को प्रथम कतार में रखा जाता रहा है। उन्हें
मनुष्य की पंक्ति में खड़े करने के बजाय बस उपयोग की वस्तु मानी जाती है। रणेन्द्र
के उपन्यास "गायब होता देश" में यह स्पष्ट लक्षित होता है कि कैसे योजना-परियोजना
के नाम पर आदिवासियों को सरकार तथा तथाकथित सभ्य समाज इनका सब-कुछ छिन लेना चाहता
है। उनके प्राणों को बस आँकड़ों से गिना जाता है संवेदनहीन होकर। रणेन्द्र इस
उपन्यास में कहते हैं- "आप सोचिए सर कि दुलमी नदी पर दो सौ करोड़ का बाँध! दो
सौ करोड़ सर, यह तो अग्रवाल साहब की ग्रीन एनर्जी कंपनी की
ही औकात थी सर। क्या नहीं है इस प्रोजेक्ट में ? बिजली भी, नहर भी, फैक्ट्री और खेतों के लिए पानी भी। विकास ही
विकास ये साले कोल्ह कहते है जान देंगे जमीन नहीं देंगे। दे दे जान अभी तीन ही
मराया है।"4
यह विडंबना है
कि उन्हें मुख्यधारा में लाने के नाम पर उन्हें उनके जड़ों से काट दिया जा रहा है।
उनके घरों से बेघर करके उनको उचित मुआवजा तक नहीं दिया जा रहा है। बदले में उन्हें
कोयला, खनिज निकाल कर बड़े-बड़े गढ्ढे दिये जा रहे हैं
जिनसे उत्पन्न अनेक बिमारियों ने उनसे उनका स्वास्थ्य छिन्न-भिन्न कर दिया है। वह
भी कई पीढियों तक। कहीं-कहीं उन्हें उनकी जगहों से हटाकर मुआवजों के रूप में कार्य
करने तो दिया जाता है परन्तु वहीं सही शिक्षा व सही निर्देश के अभाव में उन्हें
उपहास का पात्र बनना पड़ता है जिनसे उनमें हीन भावना आ जाती है। रणेन्द्र के
उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ''नए काम सिखाने के बदले बार-बार जलील किया जाता था। रुमझुम के संस्कृत ऑनर्स इतिहास
की जानकारी से उन्हें कोई मतलब नहीं था। वह फील्ड में लेबर के साथ मेठ के रूप में
कार्य करना चाहता था, तो उसे अकांउट्स की कैश-बुक थमा दी गई। अकांउट्स में मन
नहीं लगता। गलतियों होती तो, और तो और पोद्दार माइनिंग ऑफिस का दूबे चपरासी
भी मजाक उड़ाता और यह बात रूमझुम के दिल में लगती।"5
उपभोक्तावाद
तथा पूंजीवाद ने न सिर्फ प्रकृति के साथ तथा प्रकृति रक्षक आदिवासी का न सिर्फ
दोहन कर बल्कि उन्हें पूर्ण रूप से खत्म करने की कोशिश की जा रही है जिसका भय
आदिवासियों को आतंकित कर रहा है। ग्लोबल गाँव के देवता उपन्यास में पात्र कहता है
कि "महोदय, शायद आपको पता हो कि हम असुर अब आठ नौ हजार बचे हैं। हम
बहुत डरे हुए हैं। हम खत्म नहीं होना चाहते। भेड़िया अभयारण्य से कीमती भेड़िये
जरुर बच जाएँगे श्रीमान किन्तु हमारी जाति नष्ट हो जाएगी।6
रिपोर्ट ऑफ द हाईलेवल कमिटी ऑन सोश्यों इकॉनॉमिक, हेल्थ एंड एजुकेशनल स्टे्टस ऑफ ट्राइबल कम्युनिटीज ऑफ इंडिया में यह कहा है कि 25 प्रतिशत आदिवासी अपने जीवन में कम से कम एक बार जरूर विस्थापन का शिकार होते हैं। ''भूमि अधिग्रहण के नवीन अध्यादेश के बाद किसानों और आदिवासियों की वचीखुची जमीनों पर भी तथाकथित विकास के नाम पर सरकार तथा देशी-विदेशी पूंजी-कम्पनियों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। कब, कहाँ बिना नोटिस कब्जा कर लिया जाये और बाशिंदो को स्थापित कर दिया जाये कहा नहीं जा सकता।''7
आदिवासी समाज
मातृसतात्मक समाज है। समानता और स्वतंत्रता का भाव इस समाज में व्याप्त है। इस
समाज में स्त्री, पुरूष के साथ हर निर्णय में समान भागीदारी निभाती है।
आदिवासी स्त्रियों ने अपने हक और अधिकारों के लिए पुरुषों के साथ मिलकर समाज और
शासकों का सामना किया है। आदिवासी स्त्रियां मेहनत करने के मामले में पुरुषों से
ज्यादा क्षमता रखती है। चाहे किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, वह जंगल से
लकड़ी काटना हो, खेती करना, पशुओं की देखभाल करना या शिकार करना (जिसे
झारखण्ड प्रदेश में जनी शिकार नाम दिया गया है) में बराबरी का हिस्सा रखती हैं।
रणेन्द्र "ग्लोबल गांव के देवता" उपन्यास में कहते हैं, "महिलाएँ इस समाज
में सियानी कहलाती थीं, जनानी नहीं। जनानी शब्द कहीं-न-कहीं केवल जनन (जन्म) देने
की प्रक्रिया तक उन्हें संकुचित करता, जबकि सियानी शब्द उनकी विशेष समझदारी-सयानेपन को
इंगित करता मालूम होता।"8
आदिवासी स्त्री
की भूमिका उनके घर-समाज में बहुत सशक्त उपस्थित दर्जा कराती हैं। आदिवासी संस्कृति
में कन्या भ्रूण की हत्या की कल्पना भी नहीं की जा सकती। परन्तु आज आदिवासी के
साथ अन्याय अत्याचार, अस्तित्व-संकट, विस्थापन, अस्मिता बोध का दंश झेलना पड़ रहा है, वहीं उनकी स्त्री
के अस्मत के भी साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।
आदिवासी स्त्री
साहित्य, आदिवासी स्त्री द्वारा भोगे हुए खुरदरे यथार्थ को स्पष्ट
रूप से दृष्टिगत कराने की कोशिश करते हैं। वंदना टेटे अपनी पुस्तक 'आदिवासी साहित्य परम्परा और प्रयोजन' में लिखती है "विस्थापन, पलायन और
औद्योगिकीकरण की सबसे ज्यादा मार आदिवासी महिलाओं को ही भोगनी पड़ी है, इन जगहों पर चाहे वह आदिवासी समाज की महिला हो या गैर-आदिवासी समाज की, दिहाड़ी मजदूरी
रेजा' हो या फिर किसी सरकारी अथवा गैर-सरकारी विभाग में कार्यरत
मध्यवर्गीय महिला, दोनों ही समान रूप से उत्पीडि़त है।''9
बेदखली और
पलायन ने आदिवासी स्त्री की स्थिति को बहुत ही बदहाली में ले जाने का कार्य किया
है। सभ्य समाज उसकी देह की गंध से रोमांचित हो उठता है और फिर शुरू होता है देह को
खरीदने एवं बेचने का अंतहिन सिलसला। देश के कई महानगरों में विस्थापित झारखण्ड
की मासुम निर्बोध बालाएँ चन्द सिक्कों में दायी बनाकर या जिस्म-फरोशी के धंधे
में धकेल दी जाती है।
सामाजिक-
राजनीतिक, आर्थिक स्थित की तरह ही आदिवासियों की शिक्षा की स्थिति भी
बेहद ह्रास स्थिति में है। किसी भी समाज में उसके विकास के लिए शिक्षा एक अहम
भूमिका निभाती है परन्तु आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के नाम पर जो स्कूल
खोले जा रहे हैं, उन स्कूलों में बच्चे न के बराबर है।
इसकी चिंता
रणेन्द्र के उपन्यास "ग्लोबल गाँव के देवता" में स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
इस उपन्यास का पात्र रूमझुम कहता है, "असुरों के सौ से ज्यादा घरों को उजाड़कर बना था
यह स्कूल। अभी भी आसपास असुर आबादी है। ज्यादा दूर नहीं, बीस-बाईस किलोमीटर के दायरे में लगभग सारी की
सारी असुर, बिरिजिया, कोरबा आबादी बसती है। पिछले तीस वर्षों का
रजिस्टर उठाकर देख लीजिए जो एक भी आदिम जाति परिवार के बच्चे ने स्कूल में पढ़ाई
की हो कई गाँवों में आज तक स्कूल नहीं है। यदि होती है भी तो पर्याप्त शिक्षक नहीं
है। सबसे ज्यादा जद्दोजहद उन्हें भाषा को लेकर करनी पड़ती है। उन्हें ऐसी भाषा में
शिक्षा दी जाती है जा उनके लिए अबुझ और कठिन है।"10
शिक्षा किसी भी
समाज के विकास की नींव होती है। आदिवासी समाज के विकास में भी शिक्षा की भूमिका
निर्णायक है। आदिवासी समाज के लिए एक बेहतर शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है जो एक चुनौती के समान है।
आदिवासी की शिक्षा को लेकर अभी भी कई सवाल है जिसका निराकरण नहीं किया गया है।
इनमें से कुछ उनके भाषा, लिपि को लेकर है तो कुछ
उनके रहन-सहन को लेकर है। उनकी संस्कृति से है जो मुख्यधारा की शिक्षा नीति एवं
स्कूलों से मेल नहीं खाते। जिसमें प्रतिभा को बढ़ावा देने के बजाए उनमें हीन -
भावना से ग्रसित कर देता है। वीर भारत तलवार अपनी पुस्तक "झारखंड के
आदिवासियों के बीच" एक एक्टीविस्ट के नोट्स (2019) में कहते हैं - 'उन्हें ऐसी पराई, भाषा के माध्यम
से शिक्षित बनाने का प्रयास किया जाता है। जो भाषा उनके लिए अबूझ और फल अनजान है। फल
यह निकलता है कि आदिवासी बच्चों का मानसिक विकास ठीक ढंग से नहीं हो पाता।
स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यक्रम जो आदिवासियों के लिए है, उनके समाज, संस्कृति तथा वातावरण से जरा भी मेल नहीं खाते।'11
फिर भी आदिवासी
अपने ज्ञान को बढ़ा रहे हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं, परन्तु उन्हें
वहाँ भी आरक्षण के नाम पर प्रताड़ित किया जाता है जिसके कारण शिक्षित आदिवासी समाज
के अन्दर जातीयहीनता बोध पैदा हो जाती है।
शिक्षा एवं जागरूकता
के अभाव में अंधविश्वास अपनी जड़ें जमा चुका है। आज का आधुनिकता के बावजुद
अंधविश्वास हर समाज में व्याप्त है। आदिवासी समाज में अंधविश्वास संस्कृति का
हिस्सा है।
कुछ अंधविश्वास
उनकी संस्कृति का हिस्सा है जिस पर उनकी आस्था भी है। रणेन्द्र अपने उपन्यास में
कहते है कि "उनके गाँव के सटे पहाड़ में लगभग सत्तर-अस्सी फीट पर एक गुफा है।
एकदम खड़ी चढ़ाई है। नया आदमी तो चढ़ ही नहीं पाएगा। सिंहजी का कहना है कि वहीं
देवी-थान है। देवी को जब बलि की जरूरत महसुस होती है तो गुफा से नगाड़े की आवाज आने
लगती है। हम समझ जाते हैं फिर मजबूरी में दूर थाना - इलाका के बाहर जाकर 'पूजा' करना पड़ता है।
उस भक्त की बलि के बाद नगाड़े की आवाज खुद बन्द हो जाती है।"12
अन्धविश्वास
टोना टोटका आदि भी बहुतायत मात्रा में इस समाज में देखने को मिलती है। तबीयत खराब
होने पर वे चिकित्सक के पास न जाकर जादू-टोने, डायन प्रथा आदि को महत्त्व देते हैं जिस वजह से
उनकी मृत्यु हो जाती है एवं मृत्यु के सही कारणों का पता नहीं लग पाता। महुआ माजी
अपने उपन्यास "मरंग घोड़ा नीलकंठ हुआ" में इस बात को कहने की कोशिश करती
नजर आती है कि यूरेनियम के खनन से निकलने वाली विकिरणों के कारण चक्रधरपुर, चाईबासा या
सारंडा के आसपास कभी न पाई जाने वाली बीमारियों दिखाई देती है, हाथ-पैर टेढ़े
हो जाते हैं, घाव हो जाते हैं। शिक्षा या सही जानकारी न होने की वजह से
वे इसका कारण डायन को मानते हैं। "उसका कोई भरोसा नहीं। भात या डियंग के साथ
मिलाकर भी वह कुछ खिला सकती है। दूर से मंत्र फूंक कर भी नाजोम कर सकती है। आदमी
तो आदमी, जानवरों और पेड़-पौधों को भी नहीं बख्श कर रही है वह।13
मानव समाज में संस्कृति का विशेष वर्चस्व होता
है अगर हम जीवन दर्शन की बात करें तो आदिवासी संस्कृति, समाज, जीवन दर्शन में मानवीय मूल्यों की बहुलता मिलती
है। आदिवासी संस्कृति में उनके समाज में जाति समानता, लिगं, समानता, सहयोग भावना समूह की भावना विद्यमान है। ''सारे देश में झारखण्ड ही एक ऐसी जगह है, जहाँ देश की तीन प्रमुख सांस्कृतिक धाराओं (आर्य, द्रविड़ और आग्नेय) का मिलन हुआ है।''14
समूह भावना तो इस संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। 'समानता' जो विमर्श का मुख्य विषय है, बहुत वर्गों के लिए अपरिहार्य रहा है। क्रांति, आन्दोलनों का विषय रहा है। यह पूरे मानव जाति का अधिकार है। इसके लिए संविधान में एक मुख्य अंग रहा है। आदिवासी समाज में यह गुण जन्मजात रहता है। इस समाज में रंगभेद, वर्णभेद, लिंग भेद, धर्मभेद, सम्प्रदाय भेद दिखाई नहीं पड़ता है। रामदयाल मुण्डा कहते हैं ''संसार के सभी आदिवासी क्षेत्रों की तरह झारखण्डी अर्थव्यवस्था सामुदायिक/सामूहिकता पर आधारित है जिसके अनुसार हवा की ही तरह जमीन, जंगल और जल, व्यक्तिगत सम्पति न होकर सामुदायिक संसाधन है।''15 आदिवासी संस्कृति में समानता एक जीवनशैली के रूप में विकसित हुई है। इस समाज में लैंगिक भेद-भाव के खिलाफ संघर्ष और विमर्श की एक लम्बी धारा दिखती है।
निष्कर्ष : मानव सभ्यता के इतिहास में मनुष्य ने जाति, धर्म, लिंग, नस्ल इत्यादि के नाम पर वस्तुत: मनुष्य का ही उत्पीड़न किया है। आज आदिवासी समाज वैश्विक स्तर पर पूंजीवाद और नव साम्राज्यवादी शक्तियों के खिलाफ सीधी लड़ाई लड़ रहा है। झारखण्ड के सभी आदिवासी क्षेत्रों में यह संघर्ष चल रहा है। आदिवासी समाज न केवल अपनी जमीन लड़ाई लड़ रहा है बल्कि संपूर्ण सृष्टि और मनुष्यता के लिए जरूरी लड़ाई लड़ रहा है।
1. वीर भारत तलवार, झारखण्ड के आदिवासियों के बीच, भारतीय ज्ञानपीठ 2008, पृ० सं०- 33
2. रामदयाल मुण्डा, आदिवासी अस्तित्व और झारखण्डी अस्मिता, प्रकाश संस्थान, 2002, पृ०- 29
3. कनक तिवारी, आदिवासी उपेक्षा की अंतर्कथा ब्रिटिश हुकूमत से इक्कीसवीं सदी तक, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, प्रकाशन 2021, पृ० सं० - 19
4. रणेन्द्र, गायब होता देश, पेंगइन रेंडम हाउस, पृ० सं०- 41
5. ग्लोबल गॉंव का देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, 2016, पृ०- 68
6. ग्लोबल गॉंव का देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, 2016, पृ०- 84
7. कनक तिवारी, आदिवासी उपेक्षा की अंतर्कथा ब्रिटिश हुकूमत से इक्कीसवीं सदी तक, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, प्रकाशन 2021, पृ० सं० - 40
8. ग्लोबल गॉंव का देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, 2016, पृ०- 23
9. वंदना टेटे, आदिवासी साहित्य परम्परा और प्रयोजन, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, पृ०- 75
10. ग्लोबल गॉंव का देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, 2016, पृ०- 19
11. वीर भारत तलवार, झारखण्ड के आदिवासियों के बीच, भारतीय ज्ञानपीठ 2008, पृ० सं०- 245
12. ग्लोबल गॉंव का देवता, भारतीय ज्ञानपीठ, 2016, पृ०- 13
13. महुआ माझी, मरंग गोड़ा नीलकंठवा, राजकमल प्रकाशन, 2012, पृ० - 125
14. रामदयाल मुण्डा, आदिवासी अस्तित्व और झारखण्डी अस्मिता, प्रकाश संस्थान, 2002, पृ०- 30
15. रामदयाल मुण्डा, आदिवासी अस्तित्व और झारखण्डी अस्मिता, प्रकाश संस्थान, 2002, पृ०- 33
शोधार्थी, डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय,रांची, झारखण्ड
डॉ० अनिल कुमार ठाकुर
jsangitakumari77@gmail.com, 6207086241
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : .................
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