शोध आलेख : समकालीन हिंदी कथा साहित्य में वृद्ध विमर्श / डॉ. गोपीराम शर्मा

समकालीन हिंदी कथा साहित्य में वृद्ध विमर्श
- डॉ. गोपीराम शर्मा

 

शोध सार : वर्तमान समय के साहित्य में कई विमर्श उभर कर सामने आ रहे हैं। विमर्शों द्वारा साहित्य में एक चेतना जाग्रत करने का कार्य किया जा रहा है। विमर्शों की इसी महत्ता का परिणाम है कि हिन्दी साहित्य में स्त्री और दलित जैसे मुद्दों पर पर्याप्त चर्चा हो चुकी है। अब वृद्ध, विकलांग और किन्नर जैसे विषयों को विमर्श के दायरे में लाया जा रहा है। वृद्ध या बुजुर्ग हमारे समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई हैं। जब वे अपनी सामाजिक भूमिका निभा चुके होते हैं, पीढ़ी का अंतर बताकर जब घर-परिवार के सदस्य उनकी बात को नकारने लगते हैं और जीवनानुभावों का, विचारधाराओं का जब अनादर होने लगता हैं तो बुजुर्ग अपने को समाज की एक व्यर्थ इकाई समझने लगता हैं। हिंदी कथा साहित्य में वृद्धों की समस्याओं को वृद्ध विमर्श' के रूप में उठाया जा रहा है।

हिंदी कहानियों में प्रेमचंद की बूढी काकी', ऊषा प्रियंवदा की वापसी', सुषम बेदी की झाड़', भीष्म साहनी की चीफ की दावत', ‘यादें', कृष्णा अग्निहोत्री की यह क्या जगह है दोस्तो', निर्मल वर्मा की जाल', मोहन राकेश का मलबे का मालिक' तरुण भटनागर का फोटो का सच', निर्मल वर्मा की बीच बहस', राधेश्याम की पेंशन' आदि कहानियों में वृद्धों की अवमूल्यित स्थिति का चित्रण अनेक संदर्भों में मिलता है। इनके अलावा सुषम बेदी की सड़क की लय', मनीषा कुलश्रेष्ठ की प्रेत कामना', शर्मिला बोहरा जालन की ईमेल', गिरीश पंकज की व्ही. आर. एस.', मृणाल पांडे की धूप छांह', ‘कैंसर', उदय प्रकाश की छप्पन तोले करधन', गीतांजलि श्री की इति', डॉ. नीरज माधव की बिजूका' आदि कहानियों में वृद्ध जीवन की दशाओं का सांगोपांग चित्रण मिलता है।सही है कि विमर्शों की कोख से उपजावृद्ध विमर्श समकालीन हिंदी कथाकार अपनी कहानियों द्वारा वृद्धों की स्थिति का बेबाकी से चित्रण कर रहा है तथा उनके पक्ष में वातावरण बनाने में सफल हो रहा है।

बीज शब्द : विमर्श, वर्तमान साहित्य, विकेन्द्रीयतासंस्कृति, उत्तर-आधुनिकतावाद, अभिजात्यवादी, वृद्धावस्था, चार दरवेश, भौतिकता, संयुक्त परिवार प्रणाली, इंटरनेट, चीफ की दावत, छप्पन तोले करधन, उत्तर-आधुनिकता।

 मूल आलेख :

'विमर्श' शब्द पिछले कुछ वर्षों में बहुत महत्त्वपूर्ण हुआ है। विमर्श शब्द के लिए अंग्रेजी में consultation या discourse शब्द का प्रयोग किया जाता है। विमर्श के अर्थ बहस, सलाह, परामर्श, संवाद एवं सोच विचार कर वास्तविकता का पता लगाना आदि होते हैं। साहित्य में भी विमर्श महत्त्वपूर्ण होने लगा है। हिन्दी साहित्य का यह समय उत्तर-आधुनिकता का है। इसने विमर्श को प्रश्रय दिया है। वर्तमान में साहित्य में विमर्श उत्पन्न कर चेतना जाग्रत की जाती है।

भारतीय संस्कृति में परिवार संकल्पना को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता रहा है। हमारे यहां वरिष्ठ जन ही संस्कृति और संस्कारों का समाज में प्रचार-प्रसार करते रहे हैं। लेकिन जिस प्रकार चंद्रमा और सूर्य को भी ग्रहण लग जाता है, उसी प्रकार देश के संस्कारों को भी ग्रहण लग गया। इसी भारत भूमि में माता-पिता संतान प्राप्ति हेतु साधु, ऋषियों, मुनियों का आशीर्वाद लेने के लिए यज्ञादि करते थे, आशीर्वाद प्राप्ति के लिए सन्नद्ध रहते थे और जहां पुत्र भी उनकी आज्ञा मानकर राजगद्दी छोड़ दिया करते थे, अपने कंधों पर तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़ते थे। हमारे शास्त्र भी बुजुर्गों के आदर और सम्मान की गाथाएं कहते हैं। वृद्धजन सम्मान में संत-ऋषि अपनी वाणी मुखरित करते रहे हैं। यजुर्वेद कहता है-

यदापि पोश मातरं पुत्रः प्रभुदितो धयान् ।

इतदगे अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ ममां।।1

21वीं सदी में आते-आते आधुनिक जीवन शैली और भौतिकता के प्रभाव से संयुक्त परिवार प्रणाली नष्ट-भ्रष्ट हो गई और संस्कारों में भी पलीता लग गया। नैतिक मूल्य जर्जर होकर गिर रहे हैं, परंपरागत संस्कार पश्चिमीकरण की भेंट चढ़ गए हैं। पूंजी, पैसे और भौतिकता ने नए मूल्य और रिश्ते स्थापित कर लिए। ‘‘विश्व बाजारवाद के पीछे अपने खतरनाक मनसूबे के लिए अंतरराष्ट्रीय अपराधी सरगना की तरह खड़ा उत्तर-पूंजीवाद तमाम प्राचीन सभ्यताओं को हांक कर ले जाता, आधुनिकता और उसकी गुलामी में लगा पश्चिम का विज्ञानवाद संचार प्रौद्योगिकी के विषय हैं, जो हिंदी उपन्यास वैचारकी और चिंताओं को रेखांकित करता है।"2

भूमंडलीकरण के प्रभाव से हम ऐसे सांस्कृतिक युग में पहुंच गए हैं कि हम न तो पुरातन को पूरी तरह छोड़ पा रहे हैं और न ही नये को पूर्णतः स्वीकार कर पाए हैं। इसलिए मूल्य बहुत बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। संक्रमण की इस दशा ने हर संस्था को दुष्प्रभावित किया है। परिवार' नामक संस्था सबसे अधिक प्रभावित हुई है और नष्ट हुई है। पाश्चात्य मूल्यों को अपनाने तथा भौतिकता के प्रभावस्वरूप हुए एकाकी परिवारों में वृद्ध बोझ बनकर रह गए हैं। वृद्धों की चिंता को हिंदी साहित्य में 'वृद्ध विमर्श' के रूप में उद्घाटित किया जा रहा है।

बुजुर्गों को केंद्र में रखकर हिंदी कथा साहित्य में लेखन हो रहा है। वृद्ध विमर्श समकालीन दौर का महत्त्वपूर्ण विमर्श है। आज भारत में ही नहीं, अभी तो वैश्विक स्तर पर वृद्धों की स्थिति पर चिंतन हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने पहल करते हुए 14 दिसंबर 1990 को निर्णय लिया कि 1 अक्टूबर अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस के रूप में मनाया जाएगा। आज हम देख रहे हैं कि आए दिन वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ रही है। परिवार में बुजुर्ग व्यर्थ होते जा रहे हैं। आज का युवा वर्ग टी.वी और इंटरनेट में ही अपनी दुनिया तलाश रहा है। उनकी दोस्ती-रिश्तेदारी सब इंटरनेट में सिमट कर रह गयी है। इसका परिणाम यह है कि - ‘‘अब टी.वी की चकाचौंध में वृद्धों की बातें धुंधली पड़ गयी हैं।"3

हिंदी कहानीकारों ने वृद्ध जीवन को लक्षित करते हुए अनेक कहानियां रची हैं। इन कहानियों में वृद्धों के अकेलेपन, उपेक्षापूर्ण व्यवहार, स्वजनों के अत्याचार, पीढ़ी अंतराल और शारीरिक-मानसिक दुर्बलता से उत्पन्न समस्याओं को उद्घाटित किया गया है। प्रेमचंद की बूढी काकी', उषा प्रियंवदा की वापसी', सुषम बेदी की झाड़', भीष्म साहनी की चीफ की दावत', ‘यादें', कृष्णा अग्निहोत्री की यह क्या जगह है दोस्तो', निर्मल वर्मा की जाल', मोहन राकेश का मलबे का मालिक' तरुण भटनागर का फोटो का सच', निर्मल वर्मा की बीच बहस', राधेश्याम की पेंशन' आदि कहानियां वृद्ध जीवन की पीड़ा का दस्तावेज प्रस्तुत करती हुई सामने आती हैं।वृद्धावस्था की कठिनाइयों का चित्रण करने में सुशम बेदी की सड़क की लय', मनीषा कुलश्रेष्ठ की प्रेत कामना', शर्मिला बोहरा जालन की ईमेल', गिरीश पंकज की व्ही. आर. एस.', मृणाल पांडे की धूप छांह', ‘कैंसर', उदय प्रकाश की छप्पन तोले करधन', गीतांजलि श्री की इति', डॉ. नीरज माधव की बिजूका' आदि कहानियों का भी इस विमर्श में अपना योगदान है

           हिंदी कहानी परंपरा में माधवराव सप्रे की एक टोकरी भर मिट्टी' को पहली वृद्ध कहानी के रूप में लिया जा सकता है। इस कहानी में एक वृद्ध विधवा की पीड़ा को दर्शाया गया है। यह कहानी छत्तीसगढ़ मित्र' पत्रिका में 1901 ई० में प्रकाशित हुई। वर्ग भेद आधारित इस कहानी में जमींदार अपने महल को बढ़ाने के लिए अनाथ विधवा की झोपड़ी पर कब्जा कर लेता है। बेघर वृद्ध विधवा अपनी दो दिन से भूखी बैठी बेटी के लिए जमींदार से प्रार्थना करती है-‘‘अब मैंने सोचा है कि इस झोपड़ी में से एक टोकरी भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्हा बनाकर रोटी पकाऊंगी। यह कहने से भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज, कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले जाऊं।"जमींदार मिट्टी ले जाने की अनुमति देता है तो वृद्ध विधवा कहती है - ‘‘महाराज, कृपा करके इस टोकरी को हाथ लगाइए जिससे कि मैं अपने सिर पर धर लूँ।"5

जमींदार इच्छा के विरुद्ध टोकरी उठाने लगता है। पर टोकरी हाथ भर भी ऊपर नहीं उठती है। यह देखकर अनाथ विधवा कह उठती है कि- ‘‘महाराज नाराज न हो, आपसे तो एक टोकरी मिट्टी नहीं उठाई जाती हैं और इस झोपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़ी हैं। उसका भार आप जन्म भर कैसे उठा सकेंगे? आप ही इस पर विचार कीजिएगा।"6अपने इस कथन द्वारा अनाथ वृद्ध विधवा इस कहानी में तत्कालीन जमींदारीवृत्ति के खिलाफ विद्रोह बुलंद करती नजर आती है। हिंदी कहानीकारों ने फिर चाहे वो मुंशी प्रेमचन्द हों या भीष्म साहनी, या ऊषा प्रियंवदा हों या मनीषा कुलश्रेष्ठ, सभी ने अपनी कहानियों में वृद्ध जीवन की भावनाओं, उनकी कठिनाइयों को कहीं न कहीं छुआ जरूर है। वृद्धों की जायदाद से जुड़ी समस्या को आलोकित करती मुंशी प्रेमचन्द की बूढ़ी काकी' एक मिसाल कायम करती है। इस कहानी में अमीर विधवा बुढ़िया अपनी जायदाद बेटों की मृत्यु के बाद भतीजे बुद्धिराम के नाम करती है। काकी की संपत्ति हथिया उसी के घर में पोते का तिलक समारोह आयोजित होता है, शहनाइयाँ बजती हैं, हलवाई तरह-तरह के पकवान बनाते हैं। बूढी काकी को तिलक के इस कार्यक्रम में लोगों की जूठन से पेट भरना पड़ जाता है। तिस पर भी वह अपमानित होती है, जब रूपा भरी सभा में उसे कोसती है, घसीट कर दूर करते हुए कहती है - ‘‘ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गई। जल जाए ऐसी जीभ।"7

भीष्म साहनी ने अपनी कहानी चीफ की दावत' में भौतिकतावाद के प्रभाव से तार-तार होते रिश्तों को चित्रित किया है। इस कहानी में कहानीकार ने एक मध्यमवर्गीय शिक्षित व्यक्ति, जो युक्तियुक्त तरीकों से वृद्धों का अपमान करता है, की कलई खोली है। इस कहानी का पात्र शामनाथ व उसकी पत्नी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जब उसका बॉस घर आएगा तो मां के खर्राटों से वह परेशान हो जाएगा। यह दिक्कत न आए, इसलिए शामनाथ ताकीद करता है - ‘‘मां, आज जल्दी सो नहीं जाना, तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है।"8

इस पर मां विवशता से कहती है- ‘‘क्या करूं बेटा, मेरे बस की बात नहीं है। जब से बीमारी से उठी हूं नाक से सांस नहीं ले सकती।"9

भीष्म साहनी की दूसरी कहानी यादें' वृद्धों की उपेक्षा और वृद्धावस्था में उनकी दोस्ती की कथा का वर्णन है। इसमें वृद्धों की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति को उजागर हुई है।

ऊषा प्रियंवदा की कहानी वापसी' वृद्ध पुरुष के दर्द, टीस को अभिव्यक्त करती है। पैंतीस साल तक स्वयं छोटे-छोटे स्टेशनों पर रहकर, परिवार को शहर में रखकर उसके सुख-सुविधा का हर सामान जुटाने वाले गजाधर बाबू रिटायर्मेंट के बाद अपने पुत्रों, बेटी, बहू यहाँ तक कि पत्नी की नजर में भी घर में पड़े एक फालतू सामान की तरह हो जाते हैं जिसके लिए न तो घर में जगह है और न ही दिल में। 

‘‘गजाधर बाबू की पत्नी सीधे चौके में चली गई। बची हुई मिठाइयों को कटोरदान में लेकर अपने कमरे में लाई और कनस्तर उनके पास रख दिया। फिर बाहर आकर कहा, अरे नरेंद्र! बाबूजी की चारपाई कमरे से बाहर निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नहीं है।"1छप्पन तोले का करधन' कहानी में उदय प्रकाश ने पूंजी की वजह से मानवीय संबंधों के टूटते रिश्तों को बहुत मार्मिक ढंग से दर्शाया है। जब घर की हालत बहुत खराब होती है तो घर वाले दादी से करधन लेना चाहते हैं। करधन के विषय में दादी के मौन हो जाने पर घर वाले उसे कोठरी में उपेक्षित छोड़ देते हैं। दादी कहती है‘‘मैंने अपने छौनों को किस तरह से पाला पोसा, तुम दोनों भाइयों को पढाया। चार तोला बचा था जिसे मैंने दोनों बहूओं को बराबर बांटा और तिस पर भी तुम सबने मिलकर मेरे साथ जो किया है उसे भगवान नहीं, सारा गांव देख रहा होगा।"11

दादी करधन की ओर संकेत करते हुए कहती है - ‘‘अभी तो बेटा बहू दाल-भात ड्योढ़ी पर रख जाते हैं। करधन मैंने दे दिया फिर कौन-सी आशा रह जाएगी? करधन हो कि नहीं हो वह मेरे लिए और तुम सब की आश के लिए जरूरी है बेटा।"12

चंद्रकिशोर जायसवाल की कहानी मानबोध बाबू' में दो बुजुर्गों की पारिवारिक और सामाजिक स्थिति का चित्रण किया गया है। एक यात्रा के दौरान दो वृद्धों की बातचीत कहीं न कहीं उनके जीवन में घुले दर्द को दिखाती है और बताती है कि लोगों को वृद्ध नहीं बल्कि उनकी जायदाद प्रिय होती है। नौकरी के लिए बेटे शहर में या विदेश में जाकर काम करने लग जाते हैं तो पहले उनके बुजुर्ग इस बात के लिए गर्व करते हैं, यही गर्व बाद में बुढ़ापे की विफलता बनती है- ‘‘जायदाद वाले वृद्ध अगर गांव में रहे तो वहां के जीवन की मूलभूत ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पाती। सब बेचकर बेटों के पास महानगरों में चले आए तो सारी राशि उनकी हथेली पर रखनी होगी। यदि ऐसा नहीं करते तो उन्हें घातीबाप, पापीबाप, कठबाप कहा जाएगा। बीच बाजार में कोई गिरकर बेहोश हो जाए तो कोई अस्पताल पहुंचने वाला तक नहीं मिलेगा।"13

         उपासना की कहानी 'कार्तिक का पहला फूल' में एक वृद्ध ने एकाकीपन को दूर करने के लिए स्वयं को बागवानी में व्यस्त कर लिया और अपने लगाये गुड़हल के पहले फूल की प्रतीक्षा करता रहा। जिस दिन पहला फूल खिलता है, वृद्ध पुलकित हो उठा। लेकिन उसकी बहू वह फूल कुछ देर बाद ही तोड़ लेती है। फूल का टूटना वृद्ध की मानसिक व्यथा का कारण बन जाता है। उपासना लिखती है कि - ‘‘प्राण को देह से बहुत मोह होता है। प्राण जल्दी देह नहीं छोड़ना चाहता। पर देह तो अयोग्य हो जाती है। इसी मोह के कारण मृत्यु के समय आदमी को कष्ट होता है।"14

सुशम बेदी की कहानी सड़क की लय' में पुरानी और नई पीढ़ी की विघटित मानसिकता चित्रित हुई है। सात वर्षीय समीर अमेरिका में रहता है। उसको भारतीयता से अवगत कराने के लिए उसकी नानी भारत से उसके पास पहुंचती है। समीर को नानी में कोई खास रुचि नहीं लगती। उसको नानी से कन्वीनिएंट बेबी सीटर लगता है- ‘‘उसके पास दिल जमाने के लिए टीवी है, वीडियो गेम्स है, बेसबॉल, फुटबॉल, बास्केटबॉल की गेम्स हैं। खाने के लिए फास्ट फूड है, कंपनी के लिए बेबी सिटर है। उसके लिए नानी दूसरी दुनिया की चीज है। उसे न उसके बने खाने में रुचि है, न उसकी ड्रेस सेंस जंचती है, ना रोक-टोक, न स्नेह का आवेग, क्योंकि वह कहीं से भी नानी की तरह इमोशनल या कमजोर नहीं है। सात समुंदर पार से नानी का आना नानी को भावुक कर सकता है किंतु समीर तो मात्र नानी को झेल रहा है।"15

सुषम बेदी की अन्य कहानी है गुनाहगार'। यह कहानी एक साठ वर्ष की विधवा की कहानी है जो पुनर्विवाह नहीं करना चाहती। लेकिन उसके बेटी-दामाद उसे विकसित संस्कृति का हवाला देकर दूसरी शादी का विज्ञापन दे देते हैं। लेकिन वह अपने पति की छवि विज्ञापन वाले व्यक्ति में नहीं देख पाती। अपने परम्परागत भारतीय संस्कारों से लड़ती हुई उसकी आत्मा इस अंतर्द्वंद्व में पराजित हो जाती है और वह विज्ञापन वाले अखबार को अपने हाथों से फाड़ देती है।कविता की कहानी 'उलटबांसी' कहानी की मां' ‘गुनाहगार' कहानी से अलग है। वह अकेलेपन से परेशान होकर बुढ़ापे में विवाह का निर्णय लेती है। मां के इस निर्णय से बेटे और बहुएं परेशान हो जाते हैं- ‘‘जिस उम्र में लोग तीर्थ करते हैं, भक्ति में मन रमाते हैं, उस उम्र की नाती-पोतों वाली औरतों का ब्याह रचानाआज तक नहीं सुनी यह अनहोनी।"16 मां के खून पसीने से पाले बच्चे उससे किनारा कर लेते हैं। इस कहानी में मूल्य बोध का अंतर स्पष्ट होने लगता है। मां स्थिर और शांत चित होकर कहती है- ‘‘मैंने एक निर्णय लिया है, पहली बार अपने लिए कोई निर्णय। और देखना है मेरे बच्चों में से कौन मेरे साथ आकर खड़ा होता है।"17

भारतीय संस्कृति के अनुसार मातृ देवो भवः, पितृ देवो भव:' इस पवित्र भावना का अंश इन कहानियों में बहुत कम दृष्टिगोचर होता है। वर्तमान परिवेश में बदलते रिश्तों में आज के पुत्रों में माता-पिता की वंदनीय भावना कम होती जा रही है। मैत्रेयी पुष्पा की कहानी अपना अपना आकाश' में इसी प्रकार का चित्रण हुआ है - ‘‘पुराने ज़माने में जो सांसारिक समृद्धि और सुरक्षा हेतु रहता था, जिसके सरंक्षण की आशा वार्द्धक्य में पिता और माता का सबसे बड़ा संबल होता था, वही पुत्र आज के युग में अपने माँ-बाप को वर्तमान परिवेश में मिसफ़िट ही पाता है। माता और पुत्र के बीच के सम्बंध का नया रूप मैत्रेयी पुष्पा की कहानी अपना-अपना आकाश' नामक कहानी में दु:खद सामाजिक यथार्थ बनकर सामने आया है।"18 

मुशर्रफ आलम जौकी की कहानी बाप और बेटा' पिता की कुंठित मनोदशा का मनोविश्लेषण करती है। इस कहानी में बताया गया है कि व्यक्ति पति, पिता की जिम्मेदारी को निभाने के साथ अपने रिश्तों को भूल जाता है। वृद्धावस्था तो एक ऐसी अवस्था है जब दोस्तों की भी आवश्यकता अधिक होती है लेकिन घर के लोग दोस्तों को बर्दाश्त नहीं करते। अब तो लोग बुजुर्ग पति-पत्नी को भी बाँट कर रखना चाहते हैं। ऐसे में व्यक्ति एकाकी-निर्वासित  होकर रह जाता है। 21वीं सदी की कहानियों में वृद्धावस्था का चित्रण अपने चरम अवस्था में होने लगा है। इस काल में मूल्य के पतन की कहानी लिखी जा रही हैं।

हरि भटनागर की कहानी मेज कुर्सी तख्ता टाट' में अनुपयोगी हो रहे कचरे की तरह वृद्ध को देखा जाता है। कहानी में बेटा जलील अपनी कोठरी में अपने प्रेमिका को ले आता है और शारीरिक संबंध बनाता है। लड़की की नजर जब कोठरी से निकलते समय पास ही पड़े पिता बूढ़े खलील पर पड़ती है तो वह चीख उठती है। इस पर जलील उसकी हया को टालने के मिस कहता है- ‘‘कहां क्या है रे? कुछ तो नहीं, मेज, कुर्सी, तख्ता टाट ही तो है यहां, वह भी कबाड़ का।"19

इस कहानी में एक जिंदा वृद्ध टाट बनकर रह जाता है। उसकी उपस्थिति नकार दी जाती है। यही इस कहानी का काला सच है। समकालीन समाज की निम्नलिखित अवस्थाओं ने ही वृद्ध विमर्श को जन्म दिया हैं, उनमें प्रमुख हैं- संयुक्त परिवारों का विघटन, भौतिकता में वृद्धि, नैतिक मूल्यों का आर्थिक मूल्यों में तब्दील होना, रिश्तों में दिखावा व बनावटीपन, उत्तर-आधुनिकता व बाजारवाद का प्रभाव।

न्हीं कारणों से समाज में बदलाव दिखाई दे रहा है। युवा पीढ़ी को माता-पिता भार लग रहे हैं। गली-गली में आज वृद्धाश्रम खुल रहे हैं। क्या इसे हमारे समाज की प्रगति कह सकते है? हम अपने करियर, तरक्की और बच्चों के अलावा किसी दूसरी ओर नहीं देख रहे हैं? जिन माता-पिता ने हमें हाथ थाम चलना सिखाया, जब उनके पैर डगमगाने लगे, उन्हें सहारा देने के बजाय उनसे किनारा करने लगे हैं।

सिमोन दी बाउवार का कथन है- ‘‘समाज में जब व्यक्ति का योगदान रहा, तब तक वह समाज का अभिन्न अंग बना रहा और जैसे ही बूढा हो गया, वह समाज से कट गया और केवल एक वस्तु' बनकर रह गया। ऐसी वस्तु जिसका न कोई मोल है और न किसी काम का है और न ही कुछ पैदा कर सकने योग्य।"20समकालीन हिंदी कहानियों में वृद्धों की समस्याएं अपने निर्मम रूप के उद्घाटित हुई हैं और लेखक अपनी बात सम्प्रेषित कर पाने में सफल हुआ है।

निष्कर्ष : हिन्दी कथा साहित्य बुजुर्गों की समस्याओं को अपना विषय बनाकर लेखन कर रहा है। समस्याएं बढ़ती जा रही हैं, घटने का नाम नहीं ले रहीं हैं। वृद्धाश्रमों की स्थापना इसी का परिणाम हैं। आदमी का अनुपयोगी हो जाना ही वृद्धावस्था की सबसे बड़ी कठिनाई है। अनुपयोगिता का एहसास होते ही व्यक्ति के गतिशील जीवन में रुकावट-सी आ जाती हैं। मान-सम्मान, प्रेम-आदर में कटौती महसूस होने लगती है। उसकी मनःस्थिति में अनायास ही बदलाव आ जाता हैं। समय काटने हेतु विविध आयामों को ढूँढना पड़ता हैं। शारीरिक कमजोरी की वजह से वह अपने को मानसिक रूप से भी कमजोर समझने लग जाता हैं। पीढ़ी का अंतर बताकर जब घर-परिवार के सदस्य उसकी बात को नकारने लगते हैं, तब अनुपयोगिता का एहसास ओर गहरा हो जाता हैं। जीवनानुभावों का, विचारधाराओं का जब अनादर होने लगता हैं तो वह बुजुर्ग अपने को समाज की एक व्यर्थ इकाई समझने लगता हैं और तब उसकी समस्या हल होने के बजाय अधिक विकट रूप धारण करती हैं। कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य में वृद्धों की समस्याओं को 'वृद्ध विमर्श' के रूप में उठाया जा रहा है। विषय पर अनेक कहानियां लिखी जा रही हैं। इस प्रकार वृद्ध विमर्श में समकालीन हिंदी कथाकार अपनी कहानियों से वृद्धों की स्थिति का बेबाकी से चित्रण कर रहा है तथा उनके पक्ष में वातावरण बनाने में सफल हो रहा है।

संदर्भ :

  1. सं. डॉ. एस. वाय. होनगेकर - 21वीं शती का हिंदी साहित्य : नव विमर्श, एबीएस पब्लिकेशन, वाराणसी, 2018, पृष्ठ 250
  2. सिंह विजय बहादुर - उपन्यास समय और संवेदना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 19
  3. मार्टिन मेकवेल - मेरी कथा : दलितयात्रा, संघर्ष और भविष्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2008, पृष्ठ 100
  4. सं. देवीप्रसाद वर्मा - माधवराव सप्रे की कहानियाँ, ज्ञानगंगा प्रकाशन, दिल्ली, 1998,

पृष्ठ 05

  1. वही
  2. वही
  3. सं. डॉ. संजय सिंह - हिंदी कहानियाँ, जय भारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2008, पृष्ठ 150
  4. वही   
  5. वहीं, पृष्ठ 152
  6. ऊषा प्रियंवदा - वापसी, प्रतिनिधि कहानियाँ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2008, पृष्ठ 20
  7. उदय प्रकाश- छप्पन तोले करधन, . डॉ. एस. वाय. होनगेकर, 21वीं शती का हिंदी साहित्य : नव विमर्श, एबीएस पब्लिकेशन, वाराणसी, 2018, पृष्ठ 321
  8.  वही, पृष्ठ 322
  9.  चंद्रकिशोर जायसवाल - मानबोध बाबू, हंस मासिक पत्रिका, अंक दिसंबर 2006
  10.  उपासना - कार्तिक का पहला फूल, एक जिन्दगी एक स्क्रिप्ट भर (कहानी-संग्रह) - भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृष्ठ 48
  11.  सुशम बेदी - सड़क की लय, नेशनल प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ 09
  12.  सं. प्रियदर्शन - बड़े बुजुर्ग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014,पृष्ठ 136
  13.  वही, पृष्ठ 138
  14.  मैत्रेयी पुष्पा  - अपना अपना आकाश, प्रतिनिधि कहानियाँ, जयभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2007, पृष्ठ 132
  15.  सं. प्रियदर्शन - बड़े बुजुर्ग, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ 104
  16.  सं. डॉ. एस. वाय. होनगेकर - 21वीं शती का हिंदी साहित्य : नव विमर्श, एबीएस पब्लिकेशन, वाराणसी, 2018, पृष्ठ 306


डॉगोपीराम शर्मा
सह आचार्य, हिंदी विभागडॉ. भीमराव अम्बेडकर राजकीय महाविद्यालय, श्री गंगानगर, राजस्थान 335001,
drgrsharma76@gmail.com9461550103

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-49, अक्टूबर-दिसम्बर, 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : डॉ. माणिक व डॉ. जितेन्द्र यादव चित्रांकन : शहनाज़ मंसूरी

Post a Comment

और नया पुराने