शोध आलेख : मध्यकाल और संत रैदास / प्रो0 सुमन जैन

मध्यकाल और संत रैदास
- प्रो0 सुमन जैन

मध्यकाल के महान भक्त संतों में रैदास का नाम शिखर सन्त शिरोमणि के रूप में विद्यमान है। उनका विनम्र, मधुर व्यक्तित्व, दास्य भक्ति, अनुभूति की प्रवणता उन्हें अन्य से विशिष्ट बना देती है। विशेषतः सन्त रैदास विनम्र दास्य भक्ति के धनी थे। उनकी वाणियों का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है। इस महत्व को समझने के लिए तत्कालीन ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संदर्भों की छान-बीन आवश्यक है।

            विक्रम की चैदहवीं शताब्दी के बाद सन्त मत का व्यापक प्रचार हुआ। नामदेव, कबीर, रैदास, धन्ना, दादू दयाल, रज्जक, भगत, पीपा ने भक्ति की धारा सामान्य जनता में प्रचारित प्रसारित किया। उसी प्रकार सगुनिया भक्त तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई ने भी भक्ति का प्रचार-प्रसार किया। निर्गुनियां सन्त अवतार में विश्वास नहीं करते थे, आप्तवाक्य कहे जाने वाले ग्रन्थों में उनकी कोई श्रद्धा नहीं थी। वर्ण व्यवस्था, व्रत, तीर्थ, पूजा को वे अनावश्यक समझते थे।

‘‘मोको कहाँ ढूंढे बन्दे, मै तो तेरे पास में।

ना मैं देवल ना मैं मसजिद ना काबे ना कैलास में।

ना तो कौने क्रिया-कर्म में, नाहीं योग बैराग में।

खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तलास में।’’

सामान्यतः अनेक सन्त अशिक्षित भी थे। इन सन्तों ने अपनी वाणी को लोकभाषा में प्रकाशमान्य किया। शास्त्रीय भाषा के प्रति उनका अनुराग नहीं था। इनका चरित्र श्रेष्ठतम था, उदार व्यक्तित्व, कोमलता, अनुभूति प्रवण ज्ञान, बुद्धि सारग्राहिणी थी। उन्होंने अपनी सहजता सहज भाषा में कही। ईश्वर के प्रति उनकी आस्था अविचल, एकनिष्ठ थी, रत्ती-मासा न इधर न उधर, बिल्कुल अटल। उन्होंने साधारण जनता को अध्यात्म के शिखर पर पहुँचाया। रैदास जूतों से भरे कठवत को अध्यात्म के शिखर पर पहुँचाया। वे सन्त अद्भुत पारदर्शी व्यक्तित्व के धनी थे।

मध्ययुगीन इतिहास में एक अनोखी घटना घट चुकी थी वह था इस्लाम का भारत में सुसंगठित आगमन। इस घटना ने भारतीय जनमत, धर्म, आस्था, विश्वास, संस्कृति को बुरी तरह झकझोर दिया। भारतीय व्यवस्थाएँ चरमरा गयीं। भारत की अपरिवर्तनीय जाति व्यवस्था को जबरदस्त चोट पहुँची, कहा जाय कि भारत के मर्म (धर्म) पर चोट पहुंची। ‘‘मुसलमानी धर्म एक मजहब है। भारतीय समाज संगठन से बिल्कुल उल्टे तौर पर उसका संगठन हुआ। भारतीय समाज जातिगत व्यवस्था रखकर व्यक्तिगत धर्म साधना का पक्षपाती था। इस्लाम जातिगत व्यवस्था को लोप करके समूहगत धर्मसाधना का प्रचारक था।’’1 भारतीय समाज इस तरह सृजित था कि विश्वास चाहे जो भी हो, यदि चरित्र शुद्धि है तो व्यक्ति श्रेष्ठता में कहीं कोई शंका नहीं है। उसके लिए धर्म, पंथ, बिरादरी मायने नहीं रखती। इस्लाम इसके विरोध में था। उसका मानना था कि इस्लाम ने जिस धर्म मत का प्रचार किया उसका पालन करने वाला व्यक्ति ही स्वर्ग पथ का अधिकारी होता है। जो इस धर्म मत को नहीं मानेगा वह सीधा नर्क में जायेगा। भारत इस नये कुफ्र को ठीक ठीक समझ नहीं सका इसलिए बहुत दिनों तक उसकी समन्वयात्मिका बुद्धि कुंठित हो गयी। वह क्षुब्ध हो उठा। परन्तु विधाता को यह क्षुब्धता भायी नहीं।

ऐसा आभास हुआ इतिहास में पहली बार भारतीय मनीषियों को एक संघबद्ध धर्माचार के पालन की जरूरत महसूस हुई। इस्लाम के आने के पूर्व इस विशाल जनसमूह का कोई नाम नहीं था। अब इसका नाम ‘हिन्दू’ पड़ा। ‘हिन्दू’ अर्थात् ‘भारतीय’ गैर इस्लामिक मत। यह गैर इस्लामिक मत जिसका ‘हिन्दू’ नाम अभिहित हुआ, इसमें अनेक मत थे यथा कुछ कर्मकाण्डी, कुछ शैव, कुछ वैष्णव, कुछ शाक्त, कुछ स्मृति और भी बहुत कुछ। ‘‘हजारों योजनों तक विस्तृत और हजारों वर्षों में परिव्याप्त इस जनसमूह के विचारों और परम्परा प्राप्त मतों का एक विशाल जंगल खड़ा था। स्मृति, पुराण, लोकाचार और कुलाचार की विशाल वनस्थली में रास्ता निकाल लेना बड़ा ही दुष्कर कार्य था। स्मृति पंडितों ने इसी दुष्कर व्यापार को शिरोधार्य किया। सारे देश में शास्त्रीय वचनों की छानबीन होने लगी। उद्देश्य था इस प्रकार का सर्वसम्मत मत निकाला जाय जो श्राद्ध नीति प्रचलित हो सके, उत्सव समारोह का एक ही विधान तैयार हो सके।’’2 ‘‘ऐतिहासिक बिन्दु पर भारतीय मनीषा का यह सबसे बड़ा सम्मान था। हेमाद्रि से लेकर कमलाकर और रघुनन्दन तक बहुतेरे पंडितों ने बहुत परिश्रम के बाद जो कुछ निर्णय किया वह यद्यपि सर्वादि सम्मत नहीं हुआ, परन्तु निसंदेह स्तूपीभूत शास्त्र वाक्यों की छानबीन से एक बहुत कुछ मिलता-जुलता आचरण प्रवण धर्म-मत स्थिर किया जा सका। निबन्ध ग्रन्थों की यह बहुत बड़ी देन थी। जिस बात को आजकल ‘हिन्दू सोलिडैरिटी’ कहते हें, उसका प्रथम भित्ति स्थापन इन निबन्ध ग्रन्थों के द्वारा ही हुआ था। पर समस्या का समाधान इससे नहीं हुआ।’’3

विदेशी आक्रमण और मुस्लिम आगमन के साथ ही हिन्दू धर्म आचार-प्रचार प्रधान होने लगा। व्रत, तीर्थ, पूजा, कर्मकाण्ड, होमाचार इसका केन्द्रीय तत्व हो गया। इस समय भारतीय जनमानस पर नाथपन्थियों का बहुत प्रभाव था। भारत के पूर्वी-उत्तर क्षेत्र में इनका विशेष बाहुल्य था। नाथपन्थी शास्त्रीय स्मार्त मत प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, गीता) को नहीं मानते थे। परन्तु जनता के बीच इनका आकर्षण था। इनके नाना सिद्धियों, योग, हठयोग से चमत्कृत जनता इनका बड़ा सम्मान करती थी। ये गुणातीत निर्गुण ब्रह्म शिव की उपासना समाधि के माध्यम से करते थे। ये नाथपन्थी सिद्ध साधक गृहस्थ घर बारी नहीं थे। इनके अनेक शिष्य आश्रमभ्रष्ट गृहस्थ थे वे योगी जाति का रूप ले चुके थे। हिन्दू धर्म इन आश्रमभ्रष्टियों का सम्मान तो नहीं करता बल्कि तिरस्कार की दृष्टि से भी देखता था। ये आश्रमभ्रष्ट न तो गृहस्थ, न हिन्दू, न मुसलमान न ही किसी आचार-विचार को मानने वाले थे। यही वह समय है जिस समय सन्त समाज ने समाज को आचार-विचार का संस्कार दिया। इतिहास में हम कबीर का नाम बहुत मुस्तैदी से लेते हैं-

‘‘कबीरा खड़ा बाजार में, लिया लुकाठी टेक।

जो घर जाणै आपणै, चलै हमारे साथ।।’’

संत कवियों की यही घर फूंक मस्ती थी। यहां दो धार्मिक सांस्कृतिक आन्दोलनों का सम्मिश्रण होता। एक तो पश्चिम से आयी सूफी धारा और दूसरी सगुन धारा। मजहबी मुसलमान भारत के मर्म पर अपना अधिकार नहीं कर पाये। परन्तु सूफियों ने भारत के मर्म को छू लिया। ये भारतीय साधना के विरोधी नहीं थे। भारत की लोक कहानियों, लोकगाथाओं को अपने साहित्य का आधार बनाया। इन्होंने भारतीय जनमानस का चित्त जीत लिया। इन कहानियों के माध्यम से इनका प्रवेश हिन्दू भारतीय घरों में तो हुआ ही अन्य धर्मों, उपासना से जुड़े लोगों के मनों में भी इनका प्रवेश हुआ। इन सबके बावजूद भारत का वैराग्य टूटा नहीं, जो बौद्ध धर्म के अनुकरण पर प्रतिष्ठित था। देश को वर्णाश्रम व्यवस्था की विकट परिस्थिति का सामना करना पड़ा। आचार भ्रष्ट व्यक्ति समाज से अलग कर दिये जाते थे जो एक नयी जाति गढ़ लेते थे। समाज से बहिष्कृत व्यक्ति अब असहाय नहीं रहा। ‘‘ऐसे समय में दक्षिण से वेदान्त भाषित भक्ति का आगमन हुआ जो, इस विशाल भारतीय महाद्वीप के इस छोर से उस छोर तक फैल गया। इसने दो रूपों में आत्म प्रकाश किया। पौराणिक अवतारों को केन्द्र करके सगुण उपासना के रूप में और निर्गुण परमब्रह्म जो योगियों का ध्येय था, उसे केन्द्र करके निर्गुण प्रेमभक्ति की साधना के रूप में।’’4 इन धाराओं का रास्ता प्रेम था। ढाई आखर प्रेम का। दोनों ने यह माना कि भगवान लीला में ही जगत प्रपंच को सम्हाले हुए हैं। सगुन भाव से भजन करने वाले सन्त, भक्त भगवान को अवतरित कर प्रेम रस, भाव रस को चखते हैं और निर्गुन भाव वाले भक्त स्वयं में रमे हुए भगवान को परम काम्य मान लेते हैं।

मध्यकाल के इतिहास से यह सार मिलता है कि भक्त कवियों ने धर्म साधना के मर्म को पहचाना। इनमें निर्गुनियां सन्तों ने भारतीय साधना के मूल को लोकचेतना को ग्रहण कराया। सन्त रैदास इसी धारा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। इनकी रचनाओं में विनम्र भक्ति, लोक स्वर और लोक समस्या का समाधान मिलता है।

सन्त रैदास से हर व्यक्ति परिचित है जाहिर सी बात है लोककवि जो है- तुम सरनागति राजा रामचन्द कहि रैदास चमारा। ‘‘अद्भूत, सहजता, विनम्रता, आत्मसम्मानी, श्रमशील रचनाकार संत रैदास। भारतीय जनमानस इन्हें पढ़कर गुनकर थाह लगा सकता है कि कैसे जूते से भरी कठवत को अध्यात्म के शिखर पर पहुंचाया जा सकता है। सन्त रैदास लोकमन में पैठे हुए हैं।’’ मध्यकालीन महात्मा रविदास सर्वजन श्रद्धेय भक्त के रूप में स्वीकृत हो चुके थे। उनकी सीधी सादी मर्मस्पर्शी वाणियाँ लोगों के हृदय में अपूर्व श्रद्धा और भक्ति की प्रेरणा देती रही है। रैदास भक्त थे जिन्होंने परिश्रम करके अपनी रोजी रोटी कमाई है और भगवद्भक्ति के रास्ते पर भी चलते रहे। उनका स्वभाव मधुर था, मधुर स्वभाव के भक्त थे। कभी किसी पर आक्षेप या व्यंग्य नहीं किया वह उनकी जीवन शैली ही नहीं थी वे सच्चे वैष्णव थे। अहिंसक, निराभिमानी, मानदाता, श्रमशील सन्त-

‘‘परचै रामु रवै जउ कोई, पारस परसै दुबिधा न होई।

सो मुनि मनकी दुबिधा पाई, बिनु दुआरे त्रैलोक्य समाई।।

×                                  ×                                  ×

घ्रित कारन दधि मथै सइआन, जीवत मुकत सदा निरबान।

कहि रविदास परम बैराग, रिदै रामु कीन जपिसि अभाग।।’’5

            ईश्वर से साक्षात्कार होने पर मन की सारी दुविधाएं समाप्त हो जाती है। वह पारसमणि है। जो सयाना है, चतुर है, विवेकी है, हृदयवान है। (सइआन) चतुर लोग घृत के कारण ही दधि को मथते हैं और प्रेमरस को प्राप्त कर ईश्वर के शरणागत (मुक्त) हो जाते हैं।

‘‘सब मैं हरि है हरि में सब है, हरि को अपने जिन जाना।

साखी नहीं और कोई दूसर, जाननहार सयाना।।

बाजीगर सो राचि रहा, बाजी का मरम न जाना।

बाजी झूठ सांच बाजीगर, जाना मन पतियाना।।

मन थिर होइ त कोई न सूझै जानै जाननहारा।

कह रैदास विमल विवेक सुख, सहज रूप संभारा।।’’6

            सम्पूर्ण सृष्टि का संचालक वही बाजीगर (परमात्मा) है। यह सृष्टि उसकी लीला है उसे वह स्वयं भी नहीं जानता और जानता भी है। मन इस सत्य को जितना जल्दी समझ ले आत्मसात (पतिया) कर ले ठीक है। यह सत्य मन की स्थिरता पर ही निर्भर है। जब तक मन में स्थिरता नहीं है तब तक मन में तमाम भेद-भाव सुझाई देते हैं लेकिन मन के स्थिर होते ही ब्रह्म के सिवाय अन्य नहीं। अतः मन के सरल, सरूप, विवेकमय रूप को समझ लेना ही परमात्मा है।

‘‘सगल भवन के नाइका, एक छिनु दरस दिखाई जी।

मलीन भई मति माधवा, तेरी गति लखी न जाई।।

जोगीसर पावहि नहीं तुअ गुण कथन अपार।

प्रेम भगति के कारणै, कहु रविदास चमार।।’’7

सन्त रैदास विनम्रता के रचनाकार है। उनकी वाणी की विनम्रता मनों को जोड़ती है। भाषा में रंचमात्र भी अहंकार नहीं है। भगवान से विनम्रता दर्शाते हुए कहते हैं प्रभु एक छिन तो दर्शन दे, मेरी मति अत्यन्त मलिन है, तेरे गति को लखना दुष्कर है। तेरी महिमा अपरम्पार है। योगीश्वर तेरी प्राप्ति की इच्छा है। ऐसी इच्छा सिर्फ तेरे प्रेम और भक्ति के कारण है। ऐसा रविदास चमार कह रहा है।

रैदास की वाणियाँ बहुत थोड़ी ही उपलब्ध हैं। अधिकांश वाणियाँ इनके भक्तों की मौखिक परम्परा में जीवित है। काशी रैदास की जन्मस्थली कर्मस्थली रही है। राजघाट से लेकर मण्डुआडीह तक पड़ने वाले पीर मजार, डीह, चैरा-चैरी ढुहा पर उनकी कथाएँ/किवदन्तियाँ जन के बीच अपनी गहरी पैठ बनाये हुए हैं। आज रैदास की वाणी इतनी प्रासंगिक है कि वह सात समन्दर पार पूरे विश्व में व्याप्त है। सन्त रैदास जयन्ती पर काशी में भारत के समस्त प्रान्तों के साथ विश्व के समस्त देशों से रैदासी काशी आते हैं। यह प्रासंगिकता रैदास के ऐतिहासिक व्यक्तित्व और महत्व को उकेरता है और सिद्ध करता है कि भारत को इतिहास लिखने का कार्य इन्हीं सन्तों ने किया है।

सन्दर्भ  :

1. हजारी प्रसाद द्विवेदी, ग्रन्थावली, भाग 6, पृ0 347
2. वही, पृ0 348
3. वही, पृ0 348
4. वही, पृ0 346
5. सन्त काव्य, परशुराम चतुर्वेदी, पृ0 112
6. वही, पृ0 113
7. वही, पृ0 113


प्रो0 सुमन जैन
हिन्दी विभाग, महिला महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
tarushikha.9@gmail.com, 9415224887 

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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