संत कबीर और भगताही पंथ
- धनंजय कुमार
इसी क्रम में वह बुंदेलखंड के कलिंजर के पिथौराबाद शहर के एक हरीव्यासी -संप्रदाय के मंदिर में पहुॅंचते हैं। इसकी अनेक शाखाएॅं थीं और निंबाकाचार्य की परंपरा में विकसित यह सम्प्रदाय जनता में बहुत लोकप्रिय था। यहाॅं पर सोचने- समझने की परंपराएॅं सुरक्षित थीं और धर्म, जड़ता तथा रूढ़ियों से ग्रस्त नहीं थाI वहीं पर कबीर साहब से भगवान गोसाईं प्रभावित हुए और कबीर साहब के साथ चल पड़े। भगवान गोसाईं के बारे में कहा जाता है कि वह ब्राह्मण थे कुछ लोग उन्हें 'अहीर’ भी बताते हैं।
मूल आलेख :
कबीर पंथ का निर्माण और भगवान गोसाईं -
कबीर साहब धर्म का विरोध करते रहे लेकिन पंथ का निर्माण उन्हीं के शिष्य कहलाने वाले भगवान गोसाईं द्वारा अपहरण कर लिया गया ऐसा कहा जाता है। इसलिए उन्हें कहीं-कहीं भग्गोदास भी कहा गया है। लेकिन ये विद्वान और शास्त्रों के ज्ञाता थे, इसलिए कबीर साहब के साथ रहते हुए मूल वचनों को रात में छिपकर लिखते रहे, जिसमें रमैनी, सबदी, साखी और सबदी के विभिन्न रूपों चांचरी, बेली, बिरहुली, चौंतीसा इत्यादि को संकलित कर उन्होंने ने इस ग्रंथ-गुटखा का नाम ‘बीजक’ रखा। अपना पंथ बनाते समय उन पर ‘निंबार्क संतों’ का प्रभाव था, जिसके कारण उन्होंने वहाॅं से कुछ सूत्रों को लेकर संतों के मार्ग में भक्ति को स्थापित किया। और उनका मार्ग "भगताही पंथ" कहलाया।
भगवान गोसाईं, कबीर साहब के बानियों को संग्रहीत कर बीजक का रूप दे चुके थे। विलियम क्रुक (1896) -’दि ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ नॉर्थ वेस्टर्न इंडिया’ में कबीर पंथियों के बारे में लिखते हैं कि -
“तुलसीदास की रामायण को छोड़कर शायद ही किसी अन्य रचना को उतर भारत के हिंदुओं के बीच वैसी लोकप्रियता हासिल नही हैं जैसी कबीर के बीजक को”2
“कोरी हो या ब्राह्मण इस लोकवृत्त में समानधर्मा लोग 'भगत' के रूप में पहचाने जाते थे, अभी भी पहचाने जाते हैं”3
इसके बारे में वर्तमान महंत जी कहते हैं कि, यह मठ किसी दूसरे जगह से आए महंत जी ने बनवाया था। उनका संबंध वह कोइरी (कुशवाहा) जाति से बताते हैं। वर्तमान का यह विशाल खंडहर जो दिखाई पड़ता है, उन्हीं का बनवाया है।
नियम के अनुसार सबसे योग्य भीषम गोस्वामी को महंत बनना था लेकिन वो ब्राह्मण जाति से नही आते थे, वह कोइरी (कुशवाहा) जाति से थे, इसलिए बेतिया राज के हस्तक्षेप से वरीयता में उनसे निचले क्रम में आने वाले बनवारी गोस्वामी जी के शिष्य नयन गोस्वामी को महंत बनाया गया जो जाति से ब्राह्मण थे।
तब भीषम गोस्वामी वहाॅं से अपने गाॅंव धनौती आकर झोपड़ा बनाकर रहने लगे। धीरे-धीरे उनका प्रभाव इस क्षेत्र में बढ़ने लगा, ख्याति फैली और आसपास के जमींदारों ने ज़मीनें दान देना शुरू किया। देखते-देखते कुछ ही दिनों में पूरे क्षेत्र में उनका प्रभाव हो गया। ये एक विद्वान व्यक्ति थे।
अन्य सभी मठों में सबसे विशाल और प्रभावशाली मठ होने के कारण बीसवीं सदी के चौथे दशक में आनेवाले लोगों ने धनौती मठ को ही मुख्य मान लिया।
भीषम गोस्वामी और धनौती मठ -
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी अपनी पुस्तक 'कबीर' में लिखते हैं कि “भगवानदास की शिष्य-परंपरा अभी जीवित है और छपरा (बिहार) जिले का धनौती मठ उसका मुख्य स्थान है । इन लोगों ने ' बीजक' भी प्रकाशित कराया है”4
बीजक और भगताही शाखा से संबंधित जनजीवन और उसके लोकगीत -
(1) कूटवाणी (2) टकसार (3) मूल ज्ञान (4) बीजक -वाणी।
कबीरपंथी मठों पर कबीर के पदों को 'निर्गुण, बिरहा' के रूप में भी गाया जाता है, जो ख़ासकर बनारस, ग़ाज़ीपुर, छपरा, गोपालगंज, सीवान, देवरिया आदि भोजपुरी भाषी (बिहार-यूपी के सीमावर्ती) क्षेत्रों जहाॅं भगताही मठों का प्रभाव है उनसे भी जुड़ता है, कुछ उदाहरण के रूप में लोक गीत-
निर्गुण संत कवियों को किसी का भी भरोसा नहीं है। इसीलिए वह विकट समय में कहते हैं-
बूड़त ही भव के सागर में बहियाॅं पकरि समझाय रे फकिरवाँ
कहत कबीर सुनो भाई साधो”7
इन कबीर के पदों को अन्य भगताही पंथ के संतों द्वारा एक व्यापक रूप में गाया जाता है, जिसमें भोजपुरी भाषा का प्रभाव मिलता है -
1. ‘महंथ घनश्याम गोस्वामी’ द्वारा ध्यान मुद्रा में पंचम सुर का यह निर्गुण गीत,
2. एक दूसरे संत ‘गुणाकर गोस्वामी’ भी लोक भाषा में निर्गुण गायन करते हैं-
ज्यों ज्यों भींजे कमरी , त्यों त्यों भारी होय"11
बानगी देखिए-
आदमी छुई आकाश के, जबले निन्दा होई।"12
पंथ प्रवर्तक भगवान गोस्वामी के बारे में चर्चा की जा चुकी है। इनके द्वारा संपादित 'बीजक' कबीर परम्परा का पहला लिखित ग्रंथ हैं। भगवान गोसाई एक प्रभावशाली संत-महात्मा थे। उनके बारे में चमत्कार की जनुश्रुति रही है। उदाहरण के तौर पर चटिया तीर्थ स्थान का उनका चबूतरा का अनेक बार बाढ़ आने के बावजूद ज्यों का त्यों सुरक्षित रहना इत्यादि। भगताही पंथ को एक नया रूप देकर समाज में विस्तार देने वाले भीषम गोस्वामी की भी हम चर्चा कर चुके हैं। भगताही शाखा के दूसरे महंत आचार्य के रूप में ‘घनश्याम गोस्वामी’ जी का नाम आता है। इनका जन्मस्थान चंपारण में ही नेपाल के तराई क्षेत्र में पड़ता है। इनको कोई 'कोरी' वंश से, तो कोई थारू तथा शेखनपुरा के आसपास के किसान उन्हें कोइरी (कुशवाहा) जाति से बताते हैं। भगवान गोस्वामी के एकमात्र शिष्य यही हुए और चटिया गद्दी के आचार्य हुए। इसलिए भगवान गोस्वामी पंथ के प्रवर्तक हैं तो घनश्याम गोस्वामी उसके प्रथम संचालक। फिर वो घूमते-घूमते खेमसर और वैराटपुर में ही रहे जहाॅं उन्हें संत उद्दोरण गोस्वामी से भेंट हुई। ‘उद्दोरण गोस्वामी’ से इनकी भेंट चटिया में हुई। ये विद्यापति के पदों को बहुत सुंदर गाते थे -
“मोरा रे अगनवां चनन के री गाछीया, ताहि बइठि कुरुरई काग रे”13
विद्याज्ञान के क्षेत्र में इनका नाम सार्थक हुआ इसलिए इनका नाम उद्दोरण हो गया, लेकिन इनका नाम ‘श्रीकेतु’ था । बीजक इन्हें कंठस्थ था। इन्होंने नियम बनाया कि 'बीजक' श्रमजीवी और कर्मजीवी संत की वाणी है। आप श्रम करते हुए, कुआँ से पानी निकालते हुए, हल चलाते हुए, तथा पशु चराते हुए बीजक के पाठ का वाचन कर सकते हैं। इन्होंने कबीर साहब द्वारा चलाए गए श्रम और काव्य के आपसी संबंध का विकास किया। इनको लोग 'उधो बाबा' के नाम से भी पुकारते थे। निर्गुण संत होते हुए कृष्ण भक्ति में इनकी आस्था थी।जब बीजक पाठ करते थे तो ये शुरू में चांचरी के पद गाते थे। देखिए एक पद -
उद्दोरण गोस्वामी के तीन शिष्य थे ‘गणेश गोस्वामी’, ‘दवन गोस्वामी’ और ‘अनु गोस्वामी’
दवन गोस्वामी इन तीनों में सबसे योग्य थे, इसलिये चटिया की गद्दी उन्हें सौंपी गयी। ये नेपाल के पास ‘नेवार’ जाति से ताल्लुक़ रखते थे। इनके आचार्य होने से नेवार समुदाय में जात-पाॅंत, छुआ-छूत, छोटे - बड़े का भेदभाव कम हुआ। पाखंड के प्रति लोगों में आस्था घटी। इनके शिष्य परम्परा में ‘गुणाकार गोस्वामी’ हुए। गुणाकार गोस्वामी, दवन गोस्वामी के शिष्य थे। ये शास्त्र -विद्याप्रेम के कारण साधुओं में सम्मानित थे। अच्छे निर्गुनिया गायक होने के साथ-साथ इन्हें कथा-उपदेश की बेहतर जानकारी थी। ये जाति से मांझी थे और इनका मूल नाम बटोरन मांझी था। इनके एक उपदेश से पता चलता है कि विद्या-गायन में निपुण थे-
गुणाकार गोस्वामी के प्रभाव से उत्तर बिहार में अनेक मठ, आश्रम, टीले, झोंपड़े और चौरे बने। ये कथा के माध्यम से अपनी बात कहते थे। गोस्वामी जी की एक सुंदर वाणी दृष्टव्य है-
‘भोपाल गोस्वामी’ सन् 1763 ई. में ‘चटिया तीर्थ’ के आचार्य घोषित किए गए। इनके पास ‘बड़हरवा’ और ‘धनौती’ दोनों मठ अधीन थे। लेकिन धनौती पर विशेष ध्यान था, जिनमें इनके शिष्य जो
“ये बहुत ही सच्चे साधु और राजयोगी थे उन्हें भगताही परम्परा का राजा जनक भी कहा जाता है। इनके समय में ही इस पंथ में शाही प्रणाली की पांच बन्दगी , गुरु महंथ की पूजा, गोसाईं, भगत जैसी तथा नाम साहब जैसी उपाधियाँ को विशेष महत्त्व मिला”16
‘तुला गोसाई’ - गाजीपुर के रहने वाले थे। मठों के विकास में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनके ज़माने में लगभग 100 मठ ऐसे थे जिनकी स्वतंत्र शाखा-प्रशाखा की अपनी अलग अलग गिनती करती थी। “कबीर व्यापक लोक- मान्यता के प्रत्यक्ष सम्पर्क में पहले- पहल अंग्रेज अफसर विद्वान नही बल्कि उत्तरी बिहार में आकर बसे रोमन कैथोलिक, इटालियन पादरी आए थे। उन्होंने कबीरपंथ का व्यापक प्रभाव देखा। यह बात है ईसा की अठाहरवीं सदी की ”16 1873 के हस्तलिखित आॅंकड़े के अनुसार भगताही पंथ की 214 इकाइयों के 1151 मठों का संचालन होता था जिसकी संख्या अभी भी बढ़ती जा रही थी। गोपाल गोस्वामी, लहेजी के जैमन भगत के शिष्य थे। इनकी साधुता की चर्चा सुनकर ‘तुला गोसाईं’ ने उन्हें बुलाया और चादर -पंजा दिया, महंथ बनाया और छपरा, रघुनाथपुर भेज दिया। मंहत ‘गोपाल गोसाईं’ ऐसे महंत हुए जिन्होंने न कोई मठ बनाया न कोई मठ बनाने की प्रेरणा दी। वह अक्सर एक पक्ति बोलते थे -
'हंसा सिंघल द्वीप का चलि आया परदेश। रतन पांवरी ना चुगें, सुमिरे आपन देश'17
‘रामलगन गोसाईं’ के बारे में लोगों का मत है कि कोहरगढ़ के कोइरी (कुशवाहा) थे। कुछ लोग परसा वैरागी मठ के पाल बताते हैं, तो कुछ छपरा का कनौजिया, बनिया। हालाॅंकि ये लहेजी के जैमन भगत के शिष्य कहे जाते हैं और धनौती के छोटे मठ पर रहते थे। ये भ्रमण करने में बहुत प्रवीण थे। इन्होंने पंथ में 'पदचर्या 'मठ- अटन', ‘आहार-संयम' और लोक ज्ञान पर जोर दिया।
इनके बाद ‘महंथ रामखेलावन गोसाईं’ जिनका जन्म नेपाल के परसा में हुआ । वहाॅं पर एक कुटिया थी बकरा खेटा, फुलवरिया मठ बहुत प्रसिद्ध थे। इन्होंने भगताही पंथ का कुर्सीनामा लिखा और तत्कालीन महंथ ‘रामधारी गोसाईं’ से इसकी पुष्टि कराई। इसके पहले इनकी एक पुस्तक 'शंका - समाधान मयंक’ छप चुकी थी । रामखेलावन गोसाईं को रामलगन गोसाईं ने अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और वे 11 अगस्त 1948 को चटिया के आचार्य बने और भगताही मठों के महंथ 28 जून 1971 तक संचालित किया। उन्हे काशी में संस्कृत विद्या पढ़ रहे ‘यदुवंश गोसाई’ मिले जिनका जन्म 1920 ई. में गोपालगंज से 10 किलोमीटर पश्चिम – दक्षिण,आरना गांव में हुआ जो मेरे गांव त्रिलोकपुर से 4 किमी पूर्व में स्थित है। 10 जुलाई 1951 को अपने अधीन सभी मठों का मठाधीश बना दिया। अपने गुरु रामखेलावन गोसाईं के निर्देश पर अपना सारा कार्य संचालित करते रहे। अचानक 10 मार्च 1967 को ईसवी संध्या 5 बजे इनका स्वर्गवास हो गया। कम ही समय में ये अच्छे वक्ता और अच्छे संत के रूप में प्रसिद्ध हो गए थे।
इनके गुरु केदारनाथ लाभ से ज्ञात हुआ कि शुकदेव सिंह बिहार विश्विद्यालय मुज़्ज़फ़रपुर में कबीर साहब पर शोध कर रहे हैं तब बीजक' के जो हस्तलेखों का संकलन मिला, शुकदेव सिंह जी के पास इन्होंने भिजवाया। रामरूप गोसाईं सन् 1967 में चटिया के आचार्य और महंथ बने। महंथ के रूप में हिंदी और इतिहास विषयों में एम.ए. की परीक्षा दी। इन्होंने अनेक विद्यालय खोले, बेतिया चौराहे पर ‘जे सी इण्टर कॉलेज’ के सहयोग से संत कबीर की पहली मूर्ति लगवाई जिसके मुख्य अतिथि शुकदेव सिंह थे।
रामरूप गोसाईं जी कवि, चिंतक, आकाशवाणी के नियमित वार्ताकार थे। उन्होंने कबीर बीजक के मूल सिद्धांतों पर 'बीजक शिक्षा सार' नामक एक काव्य पुस्तिका लिखी जो खड़ी बोली साधु हिन्दी में है। एक पुस्तिका जिनमे 'समतावादी संत कबीर ' रेडियों वार्ताओं का संकलन है और शुकदेव सिंह जी और वासुदेव सिंह जी के निबंधों का संकलन भी है।
भगताही पंथ का वर्तमान स्वरूप -
निष्कर्ष : कबीर पंथ और भगताही शाखा के संतों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और वर्तमान स्वरूप पर अध्ययन के दौरान मुझे कबीरदास जी के 'बीजक' जो भगवान गोस्वामी द्वारा लिखा गया था, पढ़ने को मिला।भगताही शाखा के मठों द्वारा समाज में एकता, समरसता और बंधुत्व को बल मिला। भगवान गोसाईं के द्वारा ही कबीर दास जी की वाणी को संकलित किया गया, जिसका व्यापक प्रचार भगताही शाखा के मठों और आचार्यों द्वारा किया गया। विशेष रूप से सिद्धों, नाथों और योगियों ने समाज में समानता का प्रसार किया। उसी रूप में भगताही पंथों के आचार्य-गुरुओं ने भी किया, जिसमें भीषम गोस्वामी और रामरूप गोस्वामी, भोपाल गोस्वामी का नाम सर्वोपरि है। इन्होंने अपनी समन्वयकारी नीतियों के माध्यम से पंथ को समाज के साथ जोड़ा। जो पहले मठों में तक सीमित था वह प्रत्येक व्यक्ति के पास पहुॅंचा।
2. दी ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ नॉर्थ वेस्टर्न इंडिया, विलियम ब्रुक, संस्करण - 1896
3. दी ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ नॉर्थ वेस्टर्न इंडिया, विलियम ब्रुक, संस्करण - 1896
4.कबीर , हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, अठाईसावां संस्करण 2022
5. धनौती महंत के गाए लोकगीत-गीत दिनांक -2 जुलाई 2023
6. धनौती महंत के गाए लोकगीत-गीत दिनांक -2 जुलाई 2023
7. धनौती महंत के गाए लोकगीत-गीत दिनांक -2 जुलाई 2023
8 भोजपुरी भाषा के आदि कवि कबीर (www.@jogira.com)और धनौती महंथ के गाए गीतों दिनांक -2 जुलाई 2023
9. संत कबीर और भगताही पंथ, शुकदेव सिंह, प्रकाशक: विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ -65, 1998
10. संत कबीर और भगताही पंथ, शुकदेव सिंह, प्रकाशक: विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ -48, 1998
11.संत कबीर और भगताही पंथ, शुकदेव सिंह, प्रकाशक: विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ -64, 1998
12.चौरासी, भोजपुरी काव्य संग्रह, कवि महंथ रामरूप गोस्वामी, प्रकाशन: धनुषधारी कुशवाहा पृष्ठ -24 वर्ष विक्रम संवत 2056
13,14,15,16,17 संत कबीर और भगताही पंथ, शुकदेव सिंह, प्रकाशक: विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पृष्ठ -50, पृष्ठ- 54, पृष्ठ-64, पृष्ठ-65
अच्छा शोधालेख है!
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