जाम्भणी दर्शन जीव, पर्यावरण एवं प्रकृति
- डॉ.ओम प्रकाश सैनी
शोध सार : महान कवि पाब्लो नेरुदा की मान्यता थी की सत्य के दर्शन बस एक ही जगह पर हो सकते हैं और वह है कुदरत का आंचल। भारतीय संस्कृति की अखंड अविरल परंपरा में बिश्नोई पंथ के संस्थापक जांभोजी महाराज तत्त्वदर्शी संत होने के साथ-साथ क्रांतिकारी समाज सुधारक भी थे। बिश्नोई पंथ के अनुयायियों ने समय-समय पर गुरु जी द्वारा दी गई उन्नतीस शिक्षाओं का अक्षरशः पालन करते हुए जहां पर्यावरण सरंक्षण के प्रति आत्म बलिदान किया वहीं जीव - मात्र के प्रति दया, करुणा, प्रेम तथा सौहार्द भाव दिखाते हुए 'अहिंसा परमो धर्म' का मार्ग अपनाया। तकनीकी एवं संचार क्रांति से संपन्न वैज्ञानिक युग में मनुष्य अपनी विकास यात्रा के अनेक पड़ाव पार करते हुए उत्तर आधुनिक युग में प्रवेश कर रहा है । इक्कीसवीं सदी के नवविकसित समाज में जीवनोपयोगी मुद्दे जल, जंगल, प्रकृति और पर्यावरण बहुत पीछे छूट गए हैं, आखिर ऐसा क्यों ? संभवत: इसका प्रमुख कारण हमारी स्वार्थ लोलुपता, प्रकृति और पर्यावरण के प्रति उदासीनता है। प्रकृति से वरदान स्वरूप मिले उपहारों वन्य संपदा लोहा, कोयला, लकड़ी, इस्पात, अभ्रक, तथा लुप्तप्राय: जीवों के प्रति हमने कभी सहानुभूतिपूर्वक सोचा ही नहीं। पर्यावरणीय चेतना से पूर्णत: अनभिज्ञ पर्यावरण प्रदूषण से उत्पन्न खतरों तथा उनके मनुष्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को सोचे-समझे बगैर हम विकास और समृद्धि की चाह में इतने उतावले हो उठे कि रातों-रात प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करने लगे। प्राकृतिक संसाधनो के लगातार दोहन के कारण हमारा पर्यावरण संतुलन निरंतर बिगड़ने लगा। औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक भू-माफिया, जमींदार, ठेकेदार, पूंजीपति तथा राजनेताओं की मिलीभगत से अंधाधुंध जंगलों के कटान तथा रखरखाव के अभाव में न केवल वन्य प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा बल्कि वायु प्रदूषण भी होने लगा जिस कारण मनुष्यता सांसे गिनने लगी। आज प्राकृतिक जलाशयों, बावड़ियों के सूखने, वन्य वनस्पतियों, औषधियों के लुप्त होने तथा विलुप्त होती जंगली प्रजातियों के कारण प्रकृति और पर्यावरण पर गंभीर संकट मंडराने लगा है। जीवनोपयोगी शुद्ध हवा-पानी, वातावरण आदि प्राकृतिक उपहारों से वंचित मनुष्यता त्राहि-त्राहि कर उठी है। एक समय जब प्रकृति को देवता मान पूजा जाता था, किंतु अब विज्ञानजन्य नवीन अविष्कारों ने इसे अंधविश्वास मान लिया। बड़े आश्चर्य की बात है कि आज से लगभग छह सौ वर्ष पूर्व विश्नोई संप्रदाय के संस्थापक संत जंभों जी महाराज ने पर्यावरण संरक्षण का संदेश देकर मानव-प्रकृति के बीच संतुलन एवं सौहार्द स्थापित करने का स्तुत्य प्रयास किया तथा नश्वर संसार के प्रति हमारे विश्वास को बचाए रखा। आज विश्व गुरु जी द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चल निकला है। गुरु जी ने अपने धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण के लिए पर्यावरण चेतना को जगाने का विचार दिया वह आज भी प्रासंगिक हैं। भारतीय संस्कृति की अखंड-अविरल परंपरा में पर्यावरण के प्रति ऐसी अपार श्रद्धा, चेतना एवं जागरूकता के कारण बिश्नोई समाज के प्रवर्तक संत शिरोमणि जांभोजी के प्रति आदर अनायास ही उमड़ पड़ता है। जांभो जी एक ऐसे विरले संत हैं जिन्होंने जीव-जगत, प्रकृति तथा पर्यावरण की रक्षा के लिए न केवल बलिदानियों का जत्था तैयार किया बल्कि लाखों लोगों ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनकी आत्मीयता और सद्भाव को लेकर आत्मोत्सर्ग किया। जंभों "सबदवाणी" मानवता और जीव मात्र के प्रति संदेश देने वाली असाधारण कृति है। वृक्षों और जीवों के प्रति जैसा अनन्य प्रेम यहां मिलता है सचमुच अन्यत्र दुर्लभ है। यही कारण है कि "जाम्भों वाणी" को जीवों के प्रति प्रेम और संरक्षण का घोषणापत्र भी कहा जाता है। वर्तमान समय में बढ़ते औद्योगिकरण, शहरीकरण, तकनीकी एवं संचार क्रांति के कारण पर्यावरण में जो बिगाड़ आया है ऐसे में गुरु जी द्वारा बताई गई शिक्षाओं पर चलकर ही, पर्यावरण और प्रकृति को बचाया जा सकता है।
विषय प्रवेश : भारतीय चिंतन परंपरा में सामाजिक, प्राकृतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक सभी वर्तमान व्याधियों का सटीक उपचार विद्यमान है। इन व्याधियों में पर्यावरण, सामाजिक न्याय, मानवीय समानता, संवेदनहीनता आदि के उपाय को अपनी वाणी में कबीर, रैदास, नानक, मीरा, दादू आदि ने मुखर स्वर दिया है। "वसुदैव कुटुंबकम" की भावना उसकी समष्टिमूलक भावना का परिचायक है। भारतीय मनीषा समस्त संसार का कल्याण चाहने वाली रही है। इस चिंतन धारा का मूल आधार प्राच्य ग्रंथ वेद, पुराण, उपनिषद आदि रहे है। भारतभूमि अनादि काल से ही देवों-संतो, पीरों-फकीरों, ऋषि-मुनियों की साधना स्थली रही है। भारतीय साधना का इतिहास समूची मानवता के कल्याण की भावना से ओत-प्रोत है। भारतीय साधना के इतिहास में कबीर, नानक, रैदास दादू, रज्जब, जांभो जी जैसे संतों का चिंतन कभी कूप-मंडूक नहीं रहा। कहा भी गया है "संत जब आत जगत में मांगत सबकी खैर।" भारतीय संतों , पीरों और फकीरों की विशद परंपरा में गुरु जंभेश्वर का स्थान सर्वोपरि है। युगपुरुष जांभोजी का अवतरण संवत 1508 में राजस्थान के नागौर में पीपासर नामक कस्बे में हुआ। गुरु जांभोजी संत होने के साथ-साथ दूरदृष्टा वैज्ञानिक व पर्यावरणविद् थे। आधुनिक युग में संपूर्ण विश्व के समक्ष जो समस्याएं सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी हैं उनका निदान गुरु जांभोजी ने बहुत पहले ही वैज्ञानिकता से मंडित अपने 29 नियमों की संरचना के तहत दे दिया था। पर्यावरण और प्रकृति का गहरा संबंध है। विज्ञान इस बात को मानता है कि मानव जीवन के लिए पर्यावरण को बचाए रखना कितना जरूरी है। प्रकृति में परिवर्तन को लक्ष्य करते हुए गुरु जी ने कहा है –
"रात पड़ा पड़न्ता पाला भी जाग्या दिवस तपता सुर
उन्हां ठंडा पवना भी जागा, घन बरसता नीर।" 1
गुरु जम्भेश्वर की शिक्षाओं का अनुकरण करते हुए मूर्धन्य कविराज वील्होजी ने "कथा अवतार पात" में लिखा है–
"धन्य जंगल्य धन्य संभरा, धन्य ए बाल गुवाल।
जहीं संग्य रामत्य रम्यसौ, लालण लील भुवाल । हरि कंके हरया वन,जित प्रभु कियो प्रवेश।
रुख्यां वल्य रल्य आवणी, जित रमतो बाल वेश।
परचो पशु पंखेरवा,जा जीवा उत्तम जाति।
पवित्र किया जोत की परची गुपत जमाति।"2
वास्तव में जीव प्रकृति और पर्यावरण का अपना अलग महत्व है। प्राय: सभी संतों ने जीव हत्या को पाप बताया है। वहीं तथाकथित सभ्य समाज में कुछेक हिंसक प्रवृति के लोग निरीह पशुओं के साथ हिंसा करने से नही चूकते। उन्होंने प्राकृतिक संरचना के लिए जीव-जंतुओं पर दयाभाव दिखाने को अधिमान दिया। जीव-जंतु मानव समाज का अभिन्न अंग है। हमें जीव–जंतुओं के प्रति दया, सहृदयता एवं सहानुभूति रखनी चाहिए । कबीर साहब, रज्जब, नानक एवं रैदास जैसे संतों ने तो निर्दोष जीवों पर अत्याचार व उनकी हत्या का प्रखर विरोध किया। उन्होने कहा कि देव शक्तियों की प्रसन्नता के लिए किए जाने वाले यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठानों में देवी देवताओं की प्रसन्नता के लिए निरीह पशुओं की बलि देना ईश्वर प्राप्ति का साधन नहीं बल्कि पाप कर्म है। गुरु जांभोजी ने सभी धर्मों के अनुयायियों को चेताया और बताया कि किस महापुरुष पैगंबर ने जीव हत्या का उपदेश दिया है। कौन से धर्म का सर्वेसर्वा विधायक, पंडित, मौलवी जीवों के गले पर छुरी चलाने को ईश्वररीय इच्छा का परिणाम घोषित करता है। वस्तुत: यह सांसारिक मनुष्य ही मन मुखी होकर अपनी तुच्छ वासनाओं की पूर्ति के लिए मांस भक्षण हेतु जीवों की हत्या करता है और अपने कुत्सित कुकर्मों को छिपाने के लिए धर्म का आश्रय लेता है। ऐसे धर्मानुचारियों को लताड़ते हुए गुरु जभेश्वर जी कहते हैं–
"सुण रे काजी सुण रे मुल्ला, सुण रे बकर कसाई।
किणरी थरपी छाली रोसो, किनरी गाडर गाई।
सूल चुभीजै करक दुहैली, तो है है जीव न घाई।
थे तुरकी छुरकी भिस्ती दावों, खायबा खाज अखाजू।।"3
प्राय: सभी संतों ने जीव हिंसा का विरोध किया है। वे पेड़ - पौधों व जीव जगत के संरक्षण को धार्मिकता से जोड़कर मनुष्य को प्रकृति की गोद में सहजता व सादगी से जीवन जीने की ओर प्रेरित करते हैं। कबीर ने कहा है "वृक्ष कबहुं न फल भखै, नदी न संचे नीर" गुरु नानक जी सरबत का भला चाहते हैं। भौतिक जगत में असहाय-निरुपाय प्राणियों की हत्या करके कोई भी प्राणी स्वर्ग का अधिकारी नहीं बन सकता। यदि ऐसा करना संभव होता तो भगवान श्री कृष्ण कभी भी गायों को न पालते। प्रकृति के समस्त जीव जंतु मनुष्य के सहयोगी है। गुरु जांभोजी ने तो जीवों को सहोदर भाई से भी बढ़कर माना है। किसान भीषण गर्मी में, तपती दुपहरी और कंप कंपाती सर्दी में खेतों में हल चलाता है। फसल के लिए जितना खून पसीना हलधर किसान सर्वहारा मजदूर बहाता है उतना ही हमारा संगी साथी मूक बैल भी, इसलिए उसके प्रति दया का भाव रखना चाहिए–
"भाई नाऊं बलद पियारो, ताकै करद क्यूं सारों।"4
भारत की आत्मा गांवों मे बसती है। भारत खेती - किसानी करने वालों का देश है। गांव में आजीविका का मुख्य आधार पशुपालन रहा है। गुरु जांभोजी की जन्म और कर्मभूमि राजस्थान में मुख्यत: गाय, भैंस, भेड़, बकरी, ऊंट, पालन होता रहा है। भेड़-बकरियों में सामूहिक-सहजात प्रवृति होती है परंतु नर भेड़ बकरा समूह में नहीं रहता जिसकारण लोग उन्हें कसाईयों के हाथ सौंप देते हैं। इसी तरह बछड़े को खेतों में जोड़ने से पहले नपुंसक किया जाता है। नपुंसक करने की क्रिया अत्यंत पीड़ादायक होती है। यह एक तरह से पशुओं के साथ घोर अन्याय है। गुरु जांभोजी ने इन दोनों स्थितियों से दूर रहने का उपदेश देते हुए कहा है-
"अमर रखावै थाट बैल बधिया न करावै।"5
तकनीकी एवं संचार क्रांति के विस्फोटक युग में मनुष्य ने उन्नति के चरमोत्कर्ष को स्पर्श किया है, किंतु इस अंधी दौड़ में जीवनोपयोगी विषय बहुत पीछे छूट गए हैं। मनुष्य अपने सुख-आराम मे इतना तल्लीन हो गया है कि उसने अपने ऐशो-आराम के लिए पेड़ों को काटना शुरू कर दिया है जबकि एक पेड़ बड़ा होने पर पूरे जनमानस, जीव-जंतु, पशु-पक्षियों को आसरा,भोजन, छाया, आवास प्रदान करने में महती भूमिका अदा करता है ।
भारत भूमि शस्य-श्यामला है। वृक्ष मानव जीवन का आधार और धरती का श्रृंगार है। गुरु जी वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते थे। उनका मानना था कि वृक्ष हमें स्वच्छ प्राणवायु, उपभोग के लिए फल-फूल, खनिज संपदा आदि प्रदान करते हैं। वृक्षों के अभाव में वर्षा न होने पर कभी मरुभूमि में भयंकर सूखा पड़ता है तो कभी भयंकर गर्मी और लू के थपेड़े चलते हैं तो कभी अकाल का सामना करना पड़ता है तो कभी प्रदूषित वायु में श्वास लेना भी मुश्किल हो जाता है। ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बिगड़ जाता है। संभवत: इस भयावह स्थिति को पहचान कर ही गुरु जाम्भो जी ने मानव को बहुत पहले सचेत कर दिया था। गुरु जांभोजी का वृक्षों के प्रति अनन्य प्रेम, विश्नोई संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा वृक्ष हितार्थ 'खेजड़ली बलिदान' की घटना समूचे विश्व के लिए प्रेरणा स्रोत है। "सिर खांटै रूख रहै तो भी सस्तौ जाण"। वृक्षों के बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गुरु जी का सदुपदेश था कि प्रकृति के सजग प्रहरी दिन में सूर्य, अंधेरी रात्रि में चंद्रमा आदि ग्रह हैं, इसलिए हरे वृक्ष काटना सदा ही वर्जित है।
"सोम अमावस आदितवारी कांय काटी बनरायो।"6
जांभो दर्शन और पर्यावरण का गहरा संबंध है। गुरु जी ने अपना अस्तित्व भी वहां बताया है जहां वृक्षों की बहुलता है
"हरि कंकहेड़ी मंडप मैडी जहां हमारा वासा।" 7
जांभणी दर्शन के अनुसार प्रकृति ब्रह्म है। वृक्ष माता-पिता है। वे अपने अमृत तत्त्व से समस्त मानव जाति और प्राणी जगत का पालन-पोषण करते हैं। संत जांभों ने वनस्पति के महत्व को रेखांकित करते हुए सामान्य लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत किया है। उन्होंने संपूर्ण धरती को ध्यान आसन बताते हुए वृक्ष आदि के रूप में ईश्वरीय तत्त्वों का निवास होने की संकल्पना करते हुए वैश्विक सरोकार का परिचय दिया है–
"मौरे धरती ध्यान वनस्पति वासौ ओंजु मंडल छायों।"8
भारत आस्थाओं का देश है। यहां पयस्विनी नदी मां रूप में वंदनीय है लेकिन आस्था के साथ-साथ प्रकृति का सम्मान करना भी जरूरी है। भारत में जैसे ही त्योहारों का मौसम शुरू होता है, वैसे ही अनेक केमिकल्स से तैयार मूर्तियों को नदियों के पवित्र जल में विसर्जित कर उन्हें प्रदूषित करने का काम शुरू हो जाता है। गुरु जी का मानना है कि जल और जंगल में साक्षात परमात्मा निवास करते हैं। अत: उन्हें काटना पूर्णत: वर्जित है। वे लिखते हैं कि जीवों पर अत्याचार का परिणाम मनुष्य को निश्चित तौर पर भोगना पडता है–
"कै तै सूवा गाय का बच्छ बिछोड़या कै तै चरती पिवती गऊ विडारी " 9 इसी प्रकार वे लिखते हैं –
"महमद साथ पयंबर सीधा, एक लख असी हजारूं
महमद मरद हलाली होता, तुम ही भये मुरदारू।"10
गुरु जी का कहना है कि जीव हत्या घृणित मानसिकता का परिणाम है ऐसे पाप की सजा से बचा नहीं जा सकता। ऐसा माना जाता है कि त्रेता युग में महाराज दशरथ और उनके पुत्र श्रीराम को शिकार करने की कीमत चुकानी पड़ी थी। गुरु जांभोजी ने मनुष्य को सचेत करते हुए कहा कि यदि जीवों पर अत्याचार करते हो तो भविष्य में इसके भयंकर परिणाम भुगतने होंगे अर्थात तुम्हारा जीवन मूल ही नष्ट हो जाएगा। यह परम सत्य है की जलचर और नभचर तो प्रकृति के नियम से बंधे अपने जीवन का निर्वाह कर ही लेते हैं लेकिन क्या वह समझ पाया होगा कि मानव सबका स्वामी बनने के लालच में दूसरों के आश्रय में सेंधमारी कर ढेर सारे जीवों को जीने के अधिकार से वंचित करने पर तुला है। लेकिन वह नहीं जानता कि जीवों पर अत्याचार करने से संसार रूपी भवसागर को पार नहीं किया जा सकता "जीवां ऊपर जोर करीजै अंत काल होयसी भारूं।" एक समय था जब खरमोर पक्षी राजस्थान में बहुतायत पाए जाते थे पर अब यह संख्या में बहुत कम रह गए हैं इसकी कारण मनुष्य का पक्षियों के प्रति क्रूर व्यवहार है। निरीह मूक प्राणियों को मारने पर चेतावनी देते हुए गुरु जंभेश्वर जी कहते हैं–
"तानबे तानबा छानबे छानबा
तोड़बे तोड़बा कूक बे पुकारबा
ताकि कोई न करबा सारुं।"11
संक्षेप में कहा जा सकता है कि मनुष्य का नैतिक बौद्धिक, धार्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक उत्थान प्राकृतिक संपदा के विवेकपूर्ण उपयोग से ही संभव है। गुरु जंभेश्वर की वाणी का केंद्रीय बिंदु भी यही है। नि:संदेह गुरु जंभेश्वर वाणी को जीवन में आत्मसात कर हम भयंकर आपदाओं से बच सकते हैं और अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुनहरा भविष्य दे सकते हैं।
उपसंहार : संतो ने जहां भक्ति, ज्ञान, उपासना और वैराग्य पर बल दिया, वहीं गुरु जम्भेश्वर जैसे संत ने वन्य संरक्षण और पर्यावरण की महत्ता को प्रतिपादित कर विश्व को एक नया संदेश दिया। नि:संदेह वह पहले पर्यावरणविद संत महात्मा और वैज्ञानिक हैं। आज इक्कीसवीं सदी में स्वस्थ हवा-पानी न मिलने से जहां मानव जीवन को खतरा पैदा हो गया है। वह शुद्ध हवा में सांस लेने को तरस गया है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण अनायास ही प्रकृति का चक्र बदल गया है। अब न समय पर वर्षा होती है, न सर्दी-गर्मी, कभी शीत हवाएं चलती हैं, कभी मर्मांतक लू के थपेड़े। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में तो हरियाली ना होने से प्रदूषण का खतरा बढ़ा है। शहर के बीचों - बीच स्थित जहर उगलते कल कारखानों से निकलने वाली प्रदूषित गैस मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाल रही है जिस कारण हजारों लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बन रहे हैं अथवा जानलेवा असाध्य रोगों से पीड़ित हो रहे हैं। प्राचीन काल में मानव और प्रकृति के बीच भावनात्मक संबंध था। मानव अत्यंत कृतज्ञ भाव से प्रकृति के उपहारों को ग्रहण करता था। प्रकृति के किसी भी अवयव को क्षति पहुंचाना पाप समझता था। आज अंधाधुंध बढ़ती जनसंख्या, भौतिक विकास और समृद्धि की चाह में प्रकृति का ऐसा दोहन हुआ कि हमने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए पृथ्वी की कोख को बंजर बना दिया। लगातार घातक रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के प्रयोग से न केवल असंख्य वन्य प्रजातियां लुप्त हो गई वरन धरती की उपजाऊ शक्ति भी नष्ट हो गई। यह प्रकृति से खिलवाड़ नहीं तो क्या है? हमने भूमि की कोख से अपार खनिज संपदा निकाल कर पृथ्वी को न केवल बंजर बना दिया बल्कि छायादार हरे-भरे वृक्षों को काटकर उसके सौंदर्य को नष्ट कर दिया परिणामस्वरूप वृक्षों के अभाव और जंगलों के कटान से अनेक वन्यजीव बेघर हो गए। गुरु जी ने अपने सबदों में बार-बार शुद्ध जल, शुद्ध हवा, शुद्ध देसी खानपान की और संकेत किया है। एक समय था जब हमारी पावन-पवित्र नदियां जंगलों को चीरते हुए समुद्र में समाया करती थी अब उनमें विषाक्त जल प्रवाहित होने लगा है, जिनमें स्नान करना तो दूर सैंकड़ों रोग जग रहे है, नदियां और समुद्र के पानी में अम्लता और भारी धातुओं की मात्रा बढ़ रही है जिससे समुद्र का पानी काफी जहरीला हो गया है जिसकारण तलवासी जीवों पर संकट मंडराने लगा है। औद्योगीकरण के कारण जहर उगलती चिमनियों तथा गंदे जल ने वातावरण को विषाक्त और घातक बना दिया है। दरअसल आधुनिक भौतिक विज्ञान के कारण पहाड़ों में लगातार गलेशियर पिघल रहे हैं जिससे पृथ्वी के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है। यह सब पर्यावरणीय चेतना के अभाव के कारण है। नि:संदेह गुरु जम्भेश्वर अपने युग के सबसे बड़े पर्यावरणविद् हैं। यदि समय रहते हम उनके महान् संदेशों को आत्मसात कर लें तो निश्चित रूप से मानवता को भीषण आसन्न संकट से बचाया जा सकता है।
संदर्भ :
1.आचार्य कृष्णानंद, टीकाकार, जंभ सागर, जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, अष्टम संस्करण, 2013 पृष्ठ. 286
2. आचार्य कृष्णानंद, पौथों ग्रंथ ज्ञान, जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, संस्करण 2013, पृष्ठ. 29
3. आचार्य कृष्णानंद, टीकाकार, जम्भ सागर, जांभाणी साहित्य अकादमी, बीकानेर, अष्टम संस्करण, 2013 पृष्ठ संख्या. 38
4. वही, पृष्ठ संख्या. 39
5.
वही, पृष्ठ संख्या. 28
6. वही, पृष्ठ संख्या. 35
7. वही, पृष्ठ संख्या. 167
8. वही, पृष्ठ संख्या. 74
9. वही, पृष्ठ संख्या. 129
10. वही, पृष्ठ संख्या. 43 - 44
11. स्वामी ज्ञान प्रकाश, जंभ सागर, शब्दवाणी, पृष्ठ संख्या. 283 - 284
डॉ.ओम प्रकाश सैनी (डी. लिट्. हिंदी)
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, आर. के. एस. डी. कॉलेज, कैथल, हरियाणा
Gmai:sainiop100@gmail.com, 9466544566
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