शोध आलेख : ‘हिंदी में क्रांतिकारी कविता की परंपरा और कबीर’ / डॉ. दिवाकर दिव्यांशु

‘हिंदी में क्रांतिकारी कविता की परंपरा और कबीर’
- डॉ. दिवाकर दिव्यांशु

            हिंदी साहित्य के इतिहास में जब भी प्रतिरोध की संस्कृति और क्रांतिकारी कविता की चर्चा की जाती है तो सबसे पहले हमारे मानस पटल पर कबीर का नाम उभर कर आता है यहीं से हिंदी की क्रांतिकारी और भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था के विरोध में विद्रोह की कविता की शुरुआत भी मान ली जाती है जबकि हकीकत में ऐसा नहीं है क्योंकि कबीर जब भी व्यवस्था और सामाजिक संरचना के खिलाफ विद्रोह करते हैं और इस विद्रोह के लिए जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं उन शब्दों को हम सिद्धो-नाथों की परंपरा से जोड़ कर देख सकते हैं। वे जिस जाति-पांति, छुआछूत और बाह्याडम्बरों का विरोध करते हैं, उसका विरोध सिद्ध-नाथ पहले ही कर चुके होते हैं। इसके अतिरिक्त सामान्य जनता के मन में जिस आत्मगौरव की भावना को जगाने का प्रयास उन्होंने किया था उसे जगाने का प्रयास सिद्धों-नाथों के द्वारा इनसे बहुत पहले ही हो चुका होता है। अतः कबीर के क्रांतिकारी और विद्रोही व्यक्तित्व को जानने और समझने के लिए भी नाथों से होते हुए सिद्धों के पास जाने की जरुरत पड़ती है। साथ ही यह भी जिज्ञासा होती है कि इस परंपरा में ऐसी कौन सी ताकत थी जो कबीर को सामाजिक कुरीतियों का विरोध करने के लिए प्रेरित करती है। इस प्रतिरोधी चेतना को समझने के लिए नाथों से होते हुए आदि सिद्ध सरहपा के पास जाने के पश्चात् हमें यह पता चलता है कि कबीर को यह ताकत सरहपा से मिल रही है।

आदिकाल की आठवीं शताब्दी में सरहपा के रूप में एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व का उदय होता है। यहीं से सिद्ध साहित्य की शुरुआत होती है। सिद्धों की संख्या चौरासी बताई जाती है। सरहपा इन्हीं चौरासी सिद्धों के आदि सिद्ध थे। हिंदी साहित्य के इतिहास में पहली बार उन्होंने ही वर्णाश्रम व्यवस्था में व्याप्त पाखण्ड, जाति-पांति, ऊँच-नीच, और छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई थी। सामान्य जनता के अधिकारों की बात करते हुए उनमें आत्मगौरव का भाव जगाने का प्रयास किया था और उनकी सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना के विकास में अपना अहम योगदान दिया था।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने मशहूर निबंध ‘भारतवर्ष में इतिहास की धारा’ के अंतर्गत भारतीय सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के संदर्भ में दो लोगों के योगदान को विशेष रूप से रेखांकित किया है। उनमें से पहले बुद्ध हैं और दूसरे कबीर। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कबीर को ठीक से नहीं समझ पाए इस बात की चर्चा प्रायः होती है। मुझे ऐसा लगता है कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अगर कबीर को समझ पाए तो इसका कारण यह था कि वे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रेरणा से बुद्ध और कबीर के बीच प्रतिरोध की परंपरा की एक धारा को देख रहे थे। मुझे ऐसा लगता है कि बुद्ध और कबीर के बीच अगर सरहपा को शामिल किया जाए या उस पर ठीक से विचार किया जाए तो यह धारा और भी स्पष्ट होगी। राहुल जी ने बहुत सोच-समझ कर ही सरहपा पर विचार का प्रस्ताव रखा था। बुद्ध के प्रभाव से ही अश्वघोष ने वर्णाश्रम व्यवस्था पर सबसे बड़ा प्रहार किया था। उनकी वज्रसूची इस बात का प्रमाण है। वर्णाश्रम व्यवस्था पर दूसरा बड़ा प्रहार सरहपा करते हैं। कबीर की पूर्वपीठिका यदि अश्वघोष और सरहपा में निर्मित होते हुए दिखाई पड़ती है तो हमें गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की उस स्थापना पर ध्यान से विचार करने की जरूरत है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी यह मानते थे कि यदि इस्लाम न भी आया होता तो भी हिंदी साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है तो द्विवेदी जी रवीन्दनाथ की स्थापना का ही समर्थन कर रहे होते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस परंपरा को समझ नहीं पाए थे, अतः वे सिद्धों और कबीर के महत्त्व को रेखांकित करने में चुक जाते हैं। परिणामस्वरूप सरहपा जैसे व्यक्तित्त्व का सम्यक मूल्यांकन भी वे नहीं कर पाए। बाद में राहुल सांकृत्यायन ने बार-बार तिब्बत जाकर सरहपा की कविताओं को, जो कि भोट भाषा में अनुदित होकर मूल रूप में वहाँ मौजूद थीं, हिंदी में लाने का काम किया और यह बताया कि सरहपा की कविताएँ समाज की विद्रूपताओं के खिलाफ विद्रोह की कविता है। उनकी कविताएँ तत्कालीन समय और समाज के लिए तो प्रासंगिक थीं ही आज के समय और समाज के लिए भी उतनी ही प्रासंगिक हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सरहपा ने जिस विकृत सामाजिक व्यवस्था का विरोध कर समरसता और भाईचारे का समर्थन किया था उसी की बात कबीर मध्यकाल में करते हैं। देखा जाय तो सरहपा का विचार नाथों द्वारा होते हुए कबीर तक पहुँचा था।

 दरअसल सरहपा के उपदेश जब अन्य सिद्धों के द्वारा विकृत किए जाने लगे थे तब उनमें से कुछ सिद्धों ने अलग होकर नाथ पंथ की स्थापना की थी और सरहपा के विचारों के साथ-साथ कुछ नए विचारों को जोड़कर अपना अलग संप्रदाय बना लिया था पर मूल रूप से इन्होंने सरहपा के विचारों को ही आगे बढ़ाने का काम किया था। इस संदर्भ में रामकुमार वर्मा ने लिखा है कि, “चौरासी सिद्धों का समय सं. 769 से 1257 तक माना गया है, यद्यपि सिद्धों की परंपरा इसके बाद भी अनेक वर्षों तक चलती रही।  इस परंपरा को नाथपंथ का नाम देना उचित है। यह नाथपंथ मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ द्वारा चलाया गया था जो बारहवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी के अंत तक अपने चरमोत्कर्ष पर था। इसी ने हमारे साहित्य में संत-साहित्य की नींव डाली, जिसके सर्वप्रथम कवि कबीर (जन्म सं. 1456) थे। अतः संत साहित्य का आदि इन्हीं सिद्धों को, मध्य नाथपंथियों को और पूर्ण विकास कबीर से प्रारंभ होने वाली संत परंपरा में नानक, दादू, मलूकदास, सुन्दरदास आदि को मानना चाहिए।”1 हालाँकि कबीर ने सिद्धों और नाथों की कुछ बातों का विरोध भी किया है। उनका यह विरोध वास्तविक है क्योंकि सरहपा के समय का समाज नाथों के समय के समाज से अलग था और फिर कबीर का समाज इन दोनों के समाज से अलग था। अर्थात् तीनों की सामाजिक परिस्थितियाँ अलग-अलग थीं। यही कारण है कि नाथों ने सरहपा के विचारों में कुछ नई बातों को जोड़कर अपने लिए अलग व्यवस्था बनाई और अपने मत का प्रचार किया। फिर कबीर इनसे प्रभावित होकर अपने मत का प्रचार करते हैं और जो मत उन्हें मिथ्या और भ्रामक मालूम पड़ते हैं उसका वे विरोध करते हैं। कबीर के इस विरोध पर डॉ. रामकुमार वर्मा लिखते हैं कि, “कबीर ने यद्यपि स्थान-स्थान पर चौरासी सिद्धों की सिद्धि में शंका की है तथापि इससे उनकी विचार परंपरा में अंतर ही ज्ञात होता है, विरोध नहीं। नाथपंथ के हठयोग आदि पर तो कबीर की आस्था थी ही, क्योंकि उन्होंने न जाने कितनी बार कुण्डलिनी, इड़ा, पिंगला, सुसुम्णा आदि के सहारे ‘अनहदनाद’ सुनने की रीति बतलाई है।”2 कहना न होगा कि सरहपा ने जिस विरोधी चेतना और प्रतिरोध की कविता की शुरुआत की थी उसी का उत्तरोत्तर विकास नाथ पंथ और कबीर में दिखाई पड़ता है। प्रो. सदानंद साही ने लिखा है कि, “हिंदी कविता की क्रांतिकारी उत्स की तलाश करते हुए हम बहुत आसानी से कबीर तक पहुँच जाते हैं किन्तु स्वयं कबीर की क्रांतिकारिता के स्रोतों की पहचान करनी हो तो हमें अनिवार्यतः नाथ पंथियों से होते हुए चौरासी सिद्धों की रचनाओं तक जाना होगा। चौरासी सिद्धों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और ओजस्वी व्यक्तित्व सरहपा का है। सरहपा के जीवन और रचनाओं का अनुशीलन करने के बाद कोई चाहे तो उन्हें हिंदी की क्रांतिकारी काव्य-धारा का आदि कवि कह सकता है।”3 यही कारण है कि कबीर के क्रांतिकारी रूप पर बात करने से पहले हमें उसके उत्स तक जाना चाहिए।

कबीर की विद्रोही प्रवृति पर सरहपा का स्पष्ट प्रभाव है। सरहपा के विद्रोही रूप और क्रांतिकारी व्यक्तित्व को हम इस रूप में देख सकते हैं कि उन्होंने ब्राह्मण जाति को त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया था और वर्णाश्रम व्यवस्था का खुलेआम विरोध किया था। उन्होंने ब्राह्मणों और उनके कर्मकांडों का उपहास उड़ा कर लोक में यह संदेश देने का प्रयास किया था कि इस भ्रम जाल में उलझने की कोई जरुरत नहीं है। उन्होंने उन तमाम धर्मों और विचारों की खिल्ली उड़ाई थी जो मोक्ष की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के बाह्याडम्बरों को फैला रहे थे। उन्होंने बौद्ध धर्म के महायान शाखा का प्रचार करते हुए इनके कष्टों को दूर करने का उपाय बताया था। साथ ही इस संप्रदाय में सभी को प्रवेश पाने का अधिकार भी दिया था। इसके पश्चात् वे सहजयान की स्थापना कर मुक्ति का नया मार्ग दिखलाते हुए उन्हें सहज होकर जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने जिस श्रेष्ठता ग्रंथि का जोरदार विरोध किया था और वर्णाश्रम व्यवस्था का खंडन किया था उसी का विरोध नाथों से होते हुए कबीर और अन्य निर्गुनियाँ संतों के यहाँ दिखाई पड़ता है।

कबीर और सरहपा दोनों की परिस्थितियां अलग थीं। सरहपा के समय में समाज चार वर्णों में विभक्त था। तत्कालीन समाज में जहाँ ब्राह्मणों को श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था वहीं शूद्रों की स्थिति दयनीय थी। चारों ओर छुआछूत व्याप्त थी। साधारण और गरीब जनता पर तरह-तरह के जुल्म किए जाते थे। सरहपा ने इसका विरोध किया था। उन्होंने ऊँची और नीची जाति जैसी भावनाओं के खिलाफ खुलेआम विद्रोह किया था। स्वयं ब्राह्मण जाति में जन्म लेने के बावजूद इस जाति का परिहास उड़ाया था और अपने धर्म और जाति को त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया था। साही जी ने इस पर पर्याप्त प्रकाश डालते हुए लिखा है कि, “सरहपा के समय पूरा समाज वर्ण व्यवस्था के शिकंजे में ग्रस्त था। राज्याश्रय प्राप्त ब्राह्मण असहिष्णु हो चले थे। समाज का बुरी तरह शोषण करने के कारण उनमें कुत्सित प्रवृतियों का समावेश होता जा रहा था। ब्राह्मणों में उच्चादर्शों के बदले काम, क्रोध, मद, लोभ आदि कुप्रवृतियों का समावेश हो गया था। वैसे ही ब्राह्मणों का बोलबाला था जिनके लिए आगे चलकर तुलसीदास ने कहा - ‘बेचहिं वेद धरम दुहि लेहिं। धीरे-धीरे जनसामान्य ब्राह्मणों से ऊब गया था। किन्तु रूढ़ियों और अंधविश्वासों के चलते वे ब्राह्मण व्यवस्था और परम्परा को साहसपूर्वक ठुकरा नहीं पा रहे थे।”4

 ऐसी ही परिस्थितियों में सरहपा साधारण गरीब और मजदूर लोगों के बीच प्रकाशपूंज बनकर सामने आते हैं और छुत-अछूत, ऊँच-नीच, समाज में फैले बाह्याडम्बर, पाखंड, सामाजिक कुरीतियों, कुप्रथाओं और कर्मकांडों का विरोध कर लोगों को सही राह दिखाते हैं। उनमें जीवन जीने का उत्साह पैदा करते हैं। नीची समझी जाने वाली जातियों में आत्मसम्मान की भावना जगाते हैं। उनके इस कदम से तत्कालीन सामंती सामाजिक व्यवस्था को गहरा आघात पहुँचता है। इसके परिणामस्वरूप ब्राह्मणों के साथ सत्ता पक्ष भी उनके खिलाफ हो जाता है। बावजूद इसके वे निर्भीकतापूर्वक उनके कुकर्मों और सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ विरोधी प्रवृति जारी रखते हैं। उनके इसी रूप को स्पष्ट करते हुए राहुल जी ने लिखा है कि, “सरह विद्रोही थे। राजनीतिक विद्रोही नहीं, विचारों की दुनिया के विद्रोही और कितने ही अंशों में सामाजिक विद्रोही भी।”5 यही कारण था कि उन्होंने ब्राह्मण जाति की श्रेष्ठता को त्याग कर अछूत समझी जाने वाली जाति की कन्या से विवाह कर सामाजिक बंधनों की बेड़ियों को तोड़ कर तत्कालीन जनता के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया था। सरहपा की विद्रोही प्रवृति का उल्लेख करते हुए द्विवेदी जी ने लिखा है कि, “इन खंडनों का स्वर एकदम वही है जो कबीरदास का। अंतर इतना ही है कि कबीर के युग में अवस्था और जटिल हो गई थी। उन्हें मुसलमानों, हिन्दुओं, योगियों और इन सिद्धांतों तथा इनके साधकों - सबसे एक-एक हाथ लड़ लेना था।”6 कबीर के समय में भी वर्णाश्रम व्यवस्था व्याप्त थी। एक नई बात जो हुई थी, वह यह थी कि उनके समय में इस्लाम का आगमन हो चुका था। अतः उनकी चुनौतियाँ और बढ़ गई थी। उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था और ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के साथ-साथ इस्लामी कट्टरता, पाखण्ड और उनके आडम्बरों का विरोध किया था। जो काम सरहपा ने आदिकाल में किया था ठीक वही काम मध्यकाल में कबीर करते नजर आते हैं। कबीर के साथ-साथ अन्य निर्गुण संतों पर पड़े सिद्धों एवं नाथों के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए द्विवेदी जी ने लिखा है कि, “यदि कबीर आदि निर्गुणमतवादी संतों की वाणियों की बाहरी रुपरेखा पर विचार किया जाए तो मालूम होगा कि यह संपूर्णतः भारतीय है और बौद्ध धर्म के अंतिम सिद्धों और नाथपंथी योगियों के पदादि से उसका सीधा संबंध है। वे ही पद, वे ही राग-रागिनियाँ, वे ही दोहे, वे ही चौपाइयाँ कबीर आदि ने व्यवहार की हैं जो उक्त मत के मानने वाले उनके पूर्ववर्ती संतों ने की थीं। क्या भाव, क्या भाषा, क्या अलंकार, क्या छंद, क्या पारिभाषिक शब्द, सर्वत्र वे ही कबीरदास के मार्गदर्शक हैं। कबीर की ही भांति ये साधक नाना मतों का खंडन करते थे, सहज और शून्य में समाधि लगाने को कहते थे, दोनों में गुरु के ऊपर भक्ति करने का उपदेश देते थे। इन दोहों में गुरु को बुद्ध से भी बड़ा बताया गया है और ऐसे भाव कबीर में भी बड़ी आसानी से मिल सकते हैं जहाँ गुरु को गोबिंद के समान ही बताया गया है। सद्गुरु शब्द सहजयानियों, ब्रजयानियों, तांत्रिकों, नाथपंथियों में समान भाव से समादृत हैं।”7 इसके साथ-साथ हम यह भी देख सकते हैं कि कबीर ने सरहपा के कई दोहों को हुबहू अपनी भाषा में दोहराया है। उदाहरण के तौर पर इन पंक्तियों को देखा जा सकता है :

        सरहपा -    दीहणक्ख जइ मलिण बेंसें, णग्गल होइ उपाडिअ केसें।

 खबणेहिं जाण विडंबिअ बेसें, अप्पण बाहिअ मोक्ख उबेसें।।

 जइ णग्गाविअ होइ मुत्ति, ता सुणह सिआलह।।”8

(यदि नग्न रहने से मोक्ष हो तो कुत्ते और सियार भी मुक्त हो जाएंगे। मोर पंख ग्रहण करने से यदि मोक्ष हो तो मोर और चमार भी मुक्त हो जाएंगे। शिला चुगकर खाने से यदि ज्ञान हो जाए तो करि और तुरंग भी ज्ञानी हो जाएंगे)

         कबीर -    “का नांगे का बांधे चाम। जौ नहिं चीन्हसि आतम राम।

             नांगे फिरे जोग जो होई। वन का मृग मुक्ति गया कोई।

             मुंड मुड़ाये जौ सिद्धि होई। स्वर्ग हि भीड़ न पहुँची कोई।।”9

इसके अलावा जिस सहज शब्द पर जोर देते हुए कबीर ने सहज जीवन जीने पर काफी बल दिया है। ‘सहज सहज सब लोग कहत हैं सहज न रह्यौ कोई।’ उस सहज शब्द पर सबसे पहले सरहपा ने ही जोर दिया था –

“जइ जग पुरइ सहजाणंदे। णाच्चहु गायहू विलसउ चंगे।।”10

(यह संसार सहज आनंद से भरा हुआ है। यहाँ नाचो गाओ और खुशियाँ मनाओ)।

उन्होंने लोगों को इन्हीं विचारों के अनुरूप जीवन-यापन करने का उपदेश दिया था और इस पर पर्याप्त जोर देते हुए ‘सहजयान’ की स्थापना की थी। अतः हम कबीर और सरहपा दोनों को अलगा नहीं सकते। इसलिए चीजों को परंपरा से काट कर नहीं बल्कि उन्हें उससे जोड़ कर देखने की जरुरत है।

कबीर को तत्कालीन सामंती व्यवस्था के खिलाफ और धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ लड़ने की ताकत लोक से मिलती थी। लोक की साधारण जनता का उन्हें पूरा साथ था। सरहपा के साथ भी यही स्थिति थी। इसलिए व्यवस्था चाह कर भी उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकी थी। सरहपा के विचार और शब्द नाथों से होते हुए कबीर तक पहुँचने की एक लंबी परंपरा रही है। इसी परंपरा का अवगाहन कबीर एवं अन्य निर्गुण संत करते नजर आते हैं। इसका जिक्र शुक्ल जी ने इस प्रकार किया है - “कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ के लिए बहुत कुछ सामग्री और सधुक्कड़ी भाषा भी।”11 यहाँ पर शुक्ल जी ने कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी भाषा’ कह कर उनके महत्त्व को कमतर बताया है। सरहपा का उल्लेख किया भी है तो नकारात्मक अर्थ में किया है। उन्होंने लिखा है कि, “जनता की श्रद्धा शास्त्रज्ञ विद्वानों पर से हटाकर अंतर्मुख साधना वाले योगियों पर जमाने का प्रयत्न सरह के इस वचन ‘घट में ही बुद्ध है यह नहीं जानता, आवागमन को भी खंडित नहीं किया, तो भी निर्लज्ज कहता है कि मैं पंडित हूँ’ में स्पष्ट झलकता है।”12 यहाँ पर स्पष्ट देखा जा सकता है कि शुक्ल जी ने सरहपा को शास्त्रज्ञ विद्वानों का उपहास उड़ाने वाला बताकर उनकी आलोचना की है। कबीर ने जब यह कहा था कि, ‘पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय’ तो उन्होंने भी पंडितों और उनके शास्त्रों का उपहास उड़ाया था। इसलिए शुक्ल जी ने उनकी भी आलोचना की थी। हालाँकि उन्होंने कबीर के योगदान को रेखांकित करते हुए उनकी सराहना भी की है। उन्होंने लिखा है कि, “इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को संभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक काम हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे से ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।”13

सिद्धों एवं नाथों ने और खास कर सरहपा ने भी यही किया था। लेकिन शुक्ल जी ने उनके महत्त्व को रेखांकित करने का कोई प्रयास नहीं किया है। उन्होंने अपने इतिहास ग्रंथ में उनका उल्लेख तो किया है लेकिन उनकी रचनाओं में साम्रदायिकता के तत्व दिखाकर उन्हें साहित्य के इतिहास से बाहर कर दिया है। बाद के आलोचकों ने भी यही परिपाटी अपनाई है। द्विवेदी जी ने कबीर के योगदान की विस्तृत चर्चा करते हुए उन्हें ‘भाषा का डिक्टेटर’ कहा है और उनके महत्त्व का गहन विवेचन-विश्लेषण किया है, किन्तु सरहपा की भाषा पर ज्यादा नहीं लिखा है। द्विवेदी जी के बाद भी अन्य आलोचकों ने कबीर पर महत्त्वपूर्ण काम किया है किंतु कबीर के प्रेरक रहे सरहपा पर विचार करना जरूरी नहीं समझा है।

सरहपा से शुरू हुए ‘सिद्ध संप्रदाय’ की ही अगली कड़ी ‘नाथ संप्रदाय’ है। सिद्धों-नाथों का और खास कर सरहपा का भक्तिकाल पर स्पष्ट प्रभाव है। सरहपा के विचारों की परंपरा नाथों से होते हुए भक्तिकाल तक पहुंची है और कबीर पर उसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है। अस्वीकार का साहस और झाड़-फटकार की ताकत उन्हें सरहपा से ही मिल रही होती है। कबीर के अलावा अन्य भक्त कवियों पर उनका कितना प्रभाव है इसका जिक्र हिंदी के किसी आलोचक ने अभी तक नहीं किया है। भले ही इसका जिक्र किसी ने नहीं किया है फिर भी परंपरा से चली आ रही यह प्रतिरोधी प्रवृति हमें यह मानने पर विवश करती है कि इसी का विकसित रूप मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन और भक्तिकाव्य है। चाहे वह काव्य शैली और छंदों के स्तर पर हो या फिर लोक भाषा के स्तर पर, वे सगुण मार्गी भक्तकवि हों या निर्गुण मार्गी संतकवि सब के सब प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से सरहपा और उनकी कविताओं के साथ-साथ उनके विचारों से प्रभावित प्रभावित जरुर हैं। खास कर ज्ञानाश्रयी शाखा के संत काव्य जिसके केंद्र में जाने-अनजाने सरहपा के ही विचार हैं। हालाँकि इसका स्पष्ट उल्लेख किसी भी भक्तिकालीन कवि ने नहीं किया है और न ही उनका नाम लिया है। बावजूद इसके लोक के प्रति उनका झुकाव और उनकी भाषा में उनके दुःख दर्द को अपनी कविता का माध्यम बनाना ही इसका प्रमाण है कि कहीं न कहीं इसके मूल में सरहपा विद्यमान हैं। भक्तिकाल में यह प्रवृति सभी कवियों के यहाँ दिखाई पड़ती है। जहाँ तक कबीर की बात है तो उन पर सरहपा का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। ऐसा कहने के पीछे कई कारण हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि जिस सामान्य और शोषित-पीड़ित जनता को केंद्र में रखकर ये कविताएँ लिख रहे थे उन्हीं को केंद्र में रख कर आदिकाल में सरहपा लिख रहे थे। जिस लोक भाषा को तरजीह सरहपा ने दी थी उसी से प्रभावित होकर इन कवियों ने भी लोक में व्यवहृत भाषा को अपने काव्य का माध्यम बनाया था। राहुल सांकृत्यायन, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे हर उस आलोचक ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है जिन्होंने कबीर पर गंभीरतापूर्वक विचार किया है । हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर पड़े उस प्रभाव के बारे में लिखा है कि, “सहजयानी सिद्धों और नाथपंथी यागियों का अक्खड़पन कबीर में पूरी मात्र में है और उसके साथ ही उनका स्वाभाविक फक्कड़पन मिल गया है। इस परंपरागत अक्खड़पन और व्यक्तिगत फक्कड़पन ने मिलकर कबीरदास को अत्यधिक प्रभावशाली और आकर्षक बना दिया है।” 14 इसे और स्पष्ट करते हुए यदि हम विचार करें और कबीर और तुलसी की कविताओं के साथ तुलनात्मक रूप में देखें तो ज्यादा स्पष्ट ढंग से समझ सकते हैं। तुलसीदास जब यह लिखते हैं कि :

‘जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़हि असुर अधम अभिमानी।।

करहिं अनीति जाई नहीं बरनी। सीदहिं विप्र धेनु सुर धरनी।।

तब तब प्रभु धरि विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।’

            तब वे बतला रहे होते हैं कि धर्म की हानि होने, अधम और अभिमानी असुरों के बढ़ने पर ईश्वर अलग-अलग रूपों में इस पृथ्वी पर आते हैं और इन कमियों को दूर करते हैं ताकि प्राणियों का कल्याण हो सके। यहाँ पर यह सवाल उठता है कि तुलसीदास जिस धर्म और नीति की बात कर रहे थे, वह कौन सा धर्म और कौन सी नीति थी ? अधर्मी और अभिमानी असुर कौन थे ? यह प्रभु कौन हैं जो अलग-अलग शरीर धारण कर प्राणियों के कष्टों को दूर करने के लिए इन बुराइयों को नष्ट करते हैं ? इसका उत्तर तुलसीदास की नज़रों में चाहे जो भी हो पर मुझे ऐसा लगता है कि जिस धर्म की वे बात कर रहे थे, वह था - ‘मनुष्यता और भाई-चारे का धर्म’। ‘दया और करुणा का धर्म’। जिस अनीति की बात वे कर रहे थे, वह थी - ऊँच-नीच, छुआछूत, गरीबी और भूख से बिलबिलाती जनता के साथ होने वाली उपेक्षा। और जिस प्रभु की ओर वे इशारा कर रहे थे वे भले ही उनके लिए दशरथ पुत्र राम थे, जो इन सभी कुरीतियों को ख़त्म कर रामराज्य की स्थापना करने वाले थे और भले ही यह तुलसीदास द्वारा गढ़ा गया एक यूटोपिया हो परंतु यदि हम अपने अतीत पर नजर डालें तो पाएंगे कि ऐसे ऐतिहासिक महापुरुषों की एक लंबी परंपरा रही है जिसकी कल्पना तुलसीदास कर रहे थे। इसके लिए त्रेता, द्वापर या सतयुग तक जाने की जरुरत नहीं है बल्कि ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में बुद्ध से इसकी शुरुआत मानकर अब तक के कई ऐसे महापुरुषों के नाम लिए जा सकते हैं जिन्होंने मनुष्यता की रक्षा के लिए भ्रष्ट सत्ता और शोषक वर्ग से अकेले ही लड़ाई लड़ी थी। बुद्ध के बाद पहली ई. में अश्वघोष, आठवीं सदी में सरहपा और पंद्रहवीं सदी में कबीर तो आधुनिक काल में महात्मा गांधी, अम्बेडकर और दशरथ मांझी तक को देखा जा सकता है। इनमें से कोई ईश्वर नहीं था बल्कि ये सामान्य व्यक्तियों की तरह ही हमारे बीच उठने-बैठने, बोलने-बतियाने वाले रहे हैं। लोगों ने इन्हें देखा है, सुना है, इनके साथ-साथ चलने का प्रयास किया है।

हिंदी साहित्य के इतिहास को व्यवस्थित ढंग से सामने लाने का कार्य आचार्य शुक्ल ने किया था। यहीं से इसका प्रस्थान बिंदु माना जाता है क्योंकि इसके पहले जो भी इतिहास के नाम पर लिखा गया था वह इतिहास नहीं था। शुक्ल जी के शब्दों में कहें तो वे कविवृत्त संग्रह मात्र थे। शुक्ल जी ने अपने ग्रन्थ में जिस दृष्टिकोण का परिचय दिया था उसमें बहुत हद तक छोड़ने और छांटने वाला दृष्टिकोण देखने को मिलता है। उन्हें जो अच्छा लगा उस पर तो उन्होंने खूब लिखा है और जो उनकी मान्यताओं के विपरीत नजर आया उसे उन्होंने अपने साहित्य के इतिहास से बाहर कर दिया। आज तक बहुत कुछ इसी ढर्रे पर चलने का प्रयास किया गया है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इनकी मान्यताओं का खंडन करते हुए कुछ नए दृष्टिकोण सामने लाने के प्रयास किए थे परंतु उस पर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं की गई है।

दूसरी जो समस्या है, वह है परंपरा से चीजों को काटकर देखने की प्रवृति। इसे इस रूप में समझा जा सकता है कि हम वर्णाश्रम व्यवस्था और वैदिक कर्मकांडों के समर्थक तुलसीदास के सामने इन सबका खंडन करने वाले कबीर को खड़ा कर देते हैं और यह भी कह देते हैं कि तुलसी से ज्यादा प्रासंगिक कबीर हैं। जबकि सच्चाई तो यह है कि न तो तुलसी और न ही कबीर बल्कि दोनों में से कोई कम या ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं हैं क्योंकि दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। दोनों के विचार कहीं न कहीं सरहपा के विचारों से प्रभावित हैं। अगर प्रभावित नहीं हैं तो उसी का अगला रूप जरुर हैं, इसलिए क्योंकि जिस व्यवस्था का विरोध ये दोनों कवि कर रहे थे उसका विरोध सरहपा इनसे बहुत पहले ही कर चुके थे।

            कबीर के क्रांतिकारी रूप पर बात करते हुए सरहपा का उल्लेख न किया जाए तो गलत होगा। ये गलती शुक्ल जी से हुई थी और आज भी हो रही है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘कबीर’ के माध्यम से इस खाई को पाटने की कोशिश जरुर की है परंतु उनकी पुस्तक के मूल्यांकन करने की प्रक्रिया में भी इस विषय पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। यदि ऐसा हुआ होता तो सिद्ध-नाथ साहित्य और खास कर सरहपा आज तक उपेक्षित नहीं रहते। इस उपेक्षा का प्रमाण इससे ज्यादा और क्या हो सकता है कि एक भी ऐसी आलोचनात्मक पुस्तक नहीं है जो उनके व्यक्तित्व और कृत्तित्व को संपूर्णता में देखने में सहायक हो। इसके लिए हमें राहुल जी की संपादित पुस्तकें ‘दोहा-कोश’ और ‘हिंदी काव्यधारा’ पर ही पूर्ण रूप से निर्भर रहना पड़ता है। अब ये दोनों पुस्तकें भी अप्राप्य होने की स्थिति में हैं।

सरहपा और अन्य सिद्धों की कविताओं पर ज्यादा न लिखे जाने का एक कारण यह भी बताया जाता है कि इनकी भाषा दुरूह है। जब भाषा ही किसी को समझ में ही नहीं आती तो कोई लिखेगा भी तो कैसे ? इसका उत्तर देते हुए राहुल जी ने लिखा है कि, “इस संग्रह में इन पुराने कवियों की कविताओं के जो नमूने दिए गए हैं उनको एक बार देखते ही पाठक समझने में असमर्थ हो कह पड़ेंगे कि यह तो हिंदी भाषा है ही नहीं। इसलिए यहाँ यह बतलाने की आवश्यकता है कि वह उससे भी कहीं अधिक हिंदी-भाषा है, जितनी कि आज की मालवी, मारवाड़ी, मल्ली (भोजपुरी) और मैथिली। आपको जो दिक्कत हो रही है, वह दादी (पालि) की इस प्रतिज्ञा ही के कारण, कि उनके पास कोई शुद्ध संस्कृत-तत्सम-शब्द फटक नहीं सकता। दादी की इस प्रतिज्ञा को चाहे बुढ़भस कह लीजिए, उनके यहाँ ‘गज’ को ‘गय’ बोला जाएगा; लेकिन ‘गजेन्द्र’ की जगह ‘गयद’ तो अब भी आप सुनते हैं, मृगांक (चंद्र) के स्थान पर मयंक अब भी प्रयुक्त होता है। इस भाषा के समझने में जो दिक्कत होती है, वह इसी संस्कृत-रूप के पूरे बायकाट और एकमात्र तद्भव-अपभ्रंश-रूप के प्रचार ही के कारण।”15 आगे फिर लिखते हैं कि, “आप जैसे ही तद्भव ‘मयंक’ को तत्सम (मृगांक) रूप देने की कुंजी पा जाएंगे, वैसे ही यह भाषा आपके लिए उतनी ही आसान हो जाएगी जितनी सूर और तुलसी की। आपके लिए यह काम हमने आमने-सामने के पृष्ठों पर तद्भव (मूल) भाषा और तत्सम-भाषा (छाया) देकर कर दिया है। आप अपने किसी मित्र को सामने का पृष्ठ पढ़ने के लिए कह कर यदि मूलभाषा की पंक्तियों को देखते जाएँ तो खुद समझने लग जाएंगे कि यह भाषा संस्कृत-प्राकृत नहीं, हिंदी है।”16 अतः अब भी यदि कोई यह कहता हो कि यह हिंदी से अलग है और दुरूह है या समझ में नहीं आती तो या तो यह उसका पूर्वाग्रह से चिपके रहना है या फिर उसकी अकर्मण्यता है। दरअसल यह एक बहाना है अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से बचने की क्योंकि राहुल जी ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि इनकी भाषा हिंदी है, इसे शुक्ल जी और गुलेरी जी के साथ-साथ रामकुमार वर्मा ने भी माना है। बावजूद इसके अब तक इस विषय पर पर्याप्त विचार नहीं हुआ है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कबीर और सरहपा कवि और समाज सुधारक की दृष्टि से एक दूसरे के पूरक हैं। सरहपा के बिना कबीर पर बात करना बिना जड़ के तने या वृक्ष पर बात करने जैसा है। हिंदी साहित्य के इतिहास में अब तक यही होता आया है। कबीर पर सिद्धों-नाथों का प्रभाव मात्र दिखाकर पल्ला झाड़ लिया गया है। जबकि होना तो यह चाहिए था कि सरहपा और कबीर दोनों की कविताओं को साथ रख कर चला जाता। दोनों की कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो बहुत कुछ नए सूत्र हमें मिल सकते हैं जिससे यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाएगा कि कबीर जिन साखियों (साक्ष्यों) की बात कर रहे होते हैं वे साक्ष्य बहुत पुराने न होकर सातवीं-आठवीं शताब्दी के सरहपा की कविताएँ ही हैं। यदि यह कहा जाए कि अब तक कबीर संबंधी जितने विचार हुए हैं वह शुक्ल जी और द्विवेदी जी के दृष्टिकोण को ही केंद्र में रख कर हुए हैं। इनकी छाया से बाहर जाकर सरहपा और कबीर के बीच एक सूत्र रूप में स्वतंत्र विचार होना अभी बाकी है।

संदर्भ :

  1. डॉ. रामकुमार वर्मा, हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, सं.-2010, पृ.सं.53
  2. वही, पृ.सं.53
  3. सदानंद साही, परंपरा और प्रतिरोध, हिंदी अकादमी, दिल्ली, संस्करण-2011, पृ.सं.-29
  4. वही, पृ.सं.- 35
  5. राहुल सांकृत्यायन (सं.), दोहा-कोश, , बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, संस्करण-1997, पृ.सं.- 26
  6. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2009, पृ.सं.- 43
  7. वही, पृ.सं.- 43
  8. राहुल सांकृत्यायन (सं.), दोहा-कोश, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, संस्करण-1997, पृ.सं.-26 
  9. श्यामसुंदर दास (सं.), कबीर ग्रंथावली, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2014,  पृ.सं.-147
  10. राहुल सांकृत्यायन (सं.), दोहा कोश, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, संस्करण-1997, पृष्ठ सं.-26
  11. आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, संस्करण-2012, पृ.सं.- 12
  12. वही, पृ.सं. - 8
  13. वही, पृ.सं. – 36
  14. हजारीप्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2009, पृ.सं.- 43
  15. राहुल सांकृत्यायन (सं.), हिंदी काव्यधारा, किताब महल प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-1945, पृ.सं.- 4-5
  16. वही, पृ.सं.- 4-5

 

डॉ. दिवाकर दिव्यांशु

सहायक प्राध्यापक, हिंदी विभाग, राजकीय पुरुष महाविद्यालय, कर्नूल, आंध्र प्रदेश



चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
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