शोध आलेख : भक्तिकाल : देवदासी प्रथा का अंधकार युग / उमंग वाहाल

भक्तिकाल : देवदासी प्रथा का अंधकार युग
 - उमंग वाहाल

शोध सार : स्त्री-विमर्श में हिन्दी-साहित्य के स्त्री-दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन की मांग उठना सर्वथा उचित ही है क्योंकि विशेषकर भक्तिकाल को एकांगी दृष्टि से ही व्याख्यायित किया गया है। मध्ययुग में धर्म के आगमन के साथ ही पितृसत्ता की जड़ें और अधिक गहरी और मज़बूत हो गईं। देवदासी-प्रथा धर्म की आड़ में छोटी-छोटी कन्याओं के यौन-शोषण का संस्थागत रूप है जिसे मात्र एक धार्मिक रिवाज़ समझना भूल होगी। यह स्त्री की यौनिकता पर पितृसत्ता के नियंत्रण का धार्मिक षड्यंत्र है जिस पर विद्वत समाज अधिकांशत: चुप ही है। केवल इतिहास,संस्कृति और साहित्य के सकारात्मक पहलुओं को ही महिमामंडित नहीं किया जाना चाहिए अपितु स्त्री के प्रति की गई इस अमानवीयता को भी मध्ययुग के अंतर्गत विशेष रूप से रेखांकित किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

बीज शब्द देवदासीवेश्यावृत्तिपितृसत्ताधर्मषड्यंत्रमध्यकालयौनिकताकौमार्यभंगस्त्री-अस्मितास्त्री-दृष्टि

मूल आलेख : धर्म और पितृसत्ता का समीकरण स्त्री के लिए कितना घातक हो सकता है यह इस बात से ही समझा जा सकता है कि स्त्रियों के खिलाफ हो रहे अपराधों को धर्म-सम्मत बताकर और प्रथा बनाकर स्त्री समाज को बार-बार छला जाता रहा है और पूरा समाज अपितु स्त्रियां भी इस अमानवीयता को धर्म मानकर,उससे डरकर स्वयं इसका पालन करती रहीं हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी पालन करवाती भी रहीं हैं। धर्म संस्थागत रूप से अपराधों को प्रश्रय देता है फिर चाहें वह किसी स्त्री को पति की मृत्युशैय्या पर जिंदा जलाना हो या फिर पुजारी और रसूखदारों के लिए वेश्यावृत्ति करवाना हो। धर्म का सुनहरा आवरण हर अपराध को महिमामंडित कर ही देता है।

संवत् 1350 से संवत् 1700 तक के मध्ययुगीन कालखंड को हिंदी साहित्य में 'भक्ति काल','स्वर्णयुग' तथा 'भक्ति-आंदोलन' की संज्ञा दी गई है। यदि हम इस काल को नैराश्य से उबरने के अथक प्रयास में,अपनी क्षीण होती अस्मिता से उपजी हीन-भावना से बच निकलने की उत्कंठा से उपजा आंदोलन कहते हैं तो अस्मिताओं के इस संघर्ष में 'स्त्री-अस्मिता' को कितने इतिहासकारों और आलोचकों ने रेखांकित किया है?  भक्तिकाल को जॉर्ज ग्रियर्सन ने 'स्वर्णयुग' कहा इस बात पर आज तक विद्वत समाज फूले नहीं समाता है। साथ ही भक्तिकाल की मंदिर-निर्माण कला,शिल्प कला,चित्रकला,स्थापत्य कला,नृत्य और गायन कला पर भी ढेरों कसीदे लिखे गए लेकिन इन सब के बीच क्या किसी विद्वान ने धर्म का स्त्रियों पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ा उस पर विशेष रूप से अपनी कलम चलाई? क्यों बड़े-बड़े आलोचकों ने केवल भक्तिकाल का महिमामंडन करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली? मेरा प्रश्न यह है कि क्या उस समय-समाज में हुए सबसे बड़े शोषण का दस्तावेजीकरण करना इन आलोचकों और विद्वानों का कर्तव्य नहीं था?

भक्ति-आंदोलन के समय में धर्म की उन्नति तो हुई  लेकिन स्त्री को देवदासी प्रथा का सामना भी करना पड़ा। ‘रेखा कस्तवार के अनुसार- “भक्ति-आंदोलन ने यद्यपि स्त्री को बाहर निकलने का मौका दिया परन्तु ऐसी स्त्रियाँ कम हैं व उन्होंने इसकी भारी कीमत चुकाई।ʼʼ¹

रामायण काल में भारतीय स्त्री की स्थिति परडॉमेघवाल लिखती हैं- "रामचरितमानस के रचयिता और महान साहित्यकार एवं कवि माने जाने वाले तुलसीदास ने "ढोल,गंवार,शूद्र,पशु,नारी,यह सब ताड़न के अधिकारी" लिखकर नारी के साथ जो अन्याय किया उससे उबरने का प्रयास नारी निरंतर करती आ रही है। किंतु सीता का आदर्श उनके सामने रखकर उन्हें दबाया जा रहा है। खेद और आश्चर्य का विषय तो यह है कि अभी तक नारी समाज की ओर से भी ऐसे साहित्य एवं साहित्यकारों के विरुद्ध कोई जोरदार आंदोलन नहीं किया गया है और ना इनकी भर्त्सना ही की गई है।"²

 'जोसेफ गाथिया' ने इस प्रथा के ऐतिहासिक साक्ष्यों की चर्चा अपनी पुस्तक 'एशिया में देह व्यापार' में की है- "अनेक परवर्ती पुराणों में इस प्रथा का संदर्भ मिलता है। भविष्य पुराण में कहा गया कि सूर्यलोक की प्राप्ति का उत्तम मार्ग वेश्याओं को सूर्य मंदिर में अर्पित करना है। पदमपुराण में कन्याओं को क्रय करने,मंदिरों में दान देने का उल्लेख किया गया है। मेघातिथि ने ऐसी कन्याओं के तीन प्रकार बताए हैं। जिनमें से एक वह है जो मंदिर को अर्पित कर दी गई है।...अलेकतर के अनुसार इस प्रथा का जन्म छठी शताब्दी के आस-पास हुआ। राजतरंगणी में अनेक स्थलों पर देवदासियों का उल्लेख व्याप्त है। यह प्रथा पूर्व मध्ययुगीन समाज में काफी फली-फूली। ह्वेनसांग ने मुल्तान के सूर्य मंदिर में देवदासियों के होने का उल्लेख किया है। अरबी लेखक जकरिया अल कलबीनी के अनुसार सोमनाथ के मंदिर के द्वारों पर 500 युवतियां गाती और नृत्य करती थीं। अबू जैद ने इस प्रथा पर विस्तार से लिखा है।अलबरूनी भी देवदासी प्रथा का उल्लेख करता है।"³ इससे देवदासी प्रथा के बीज प्राचीन समय के मध्यकाल में गहरे दबे मिलते हैं जो परवर्ती समय में एक विषाक्त पेड़ के रूप में अपनी जड़ें फैलाते दिखते हैं।

 देवदासी शब्द का अर्थ :-

 'देव' अर्थात 'देवता','दासी' अर्थात 'ग़ुलाम स्त्री' यानि 'देवता की ग़ुलाम स्त्री'। इसे अलग-अलग नामों से पुकारा जाता रहा- 'ब्रह्मचारिणी','नित्य सुमंगली','अखंड सौभाग्यवती','खुदाकर','मुरलाय','बसवी','भेविन','देवली,'देवदासी','नैकिन','जोगिन' आदि।

'लुईज़ ब्राउन' ने एशिया के सेक्स बाज़ार का ख़ुलासा करते हुए हिंदू धर्म में 'धार्मिक वेश्यावृत्ति' के विषय में लिखा है - "यह कोई विरोधाभास नहीं है बल्कि एक अपरिहार्यता है कि हिंदू धर्म संस्थागत वेश्यावृत्ति की गुंजाइश रखता है। वेश्यावृत्ति के इस रूप पर धार्मिक मुलम्मा चढ़ा है ताकि इसे सम्मान हासिल हो। दक्षिण भारतीय देवदासी प्रथा इसका सटीक उदाहरण है। हालांकि यह तकनीकी तौर पर अवैध है लेकिन रजस्वला होने से पहले लड़की को देवता को समर्पित करना आज भी जारी है। यह प्रथा इस तरह चलती है- अमीर ग्राहक गरीब परिवार की बच्ची को खरीदता है और देवता से उसका विवाह करवा के मंदिर को समर्पित कर देता है। ऐसा वह अपने और परिवार के लिए पुण्य कमाने की उम्मीद में करता है। उसके बाद लड़की का किसी से विवाह निषिद्ध कर दिया जाता है। जब वह रजस्वला होने को होती है तो उसके कौमार्य की नीलामी होती है और सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को उसका कौमार्य भंग करने का अधिकार मिलता है। आमतौर पर वह शख्स इलाके का प्रभावशाली व्यक्ति होता है और वही होता है जिसने उसे मंदिर को समर्पित किया था। चूंकि देवदासी विवाह नहीं कर सकती और परिवार का सुख और आर्थिक सुरक्षा चाहती है इसीलिए उसे धार्मिक वेश्यावृत्ति के जीवन में धकेल दिया जाता है और फिर उसकी बेटियाँ भी उसके पदचिन्हों पर चलते हुए देवदासी बन जाती हैं।"⁴

धर्म और वंश के नाम पर छोटी बालिकाओं को देवताओं के बहाने पुजारी और वासनायुक्त पुरुषों को समर्पित करना अमानवीयता है।ऐसे अपराध की शिकार लड़की को शिक्षा से भी वंचित कर दिया जाता था,युवावस्था के अगले पड़ाव में वह वैश्यालयों में और वृद्धावस्था में वह सड़कों पर भीख मांगने के लिए मजबूर होती थीं क्योंकि उपयोगिता समाप्त होते ही वह मंदिर के लिए  निरर्थक हो जाती थीं। यह भी स्त्री को धर्म के जाल में फंसाकर ज्ञान के क्षेत्र और उच्च स्तरीय जीवन से दूर रखने की राजनीति के सत्तापक्ष अर्थात पितृसत्ता का एक अस्त्र ही है।

'सुधा अरोड़ा' इस संदर्भ में ठीक ही कहती हैं कि- "ज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध धार्मिक मान्यताएं ही हैं,जिन्हें ध्वस्त किए बिना विश्व कल्याण की बात करना भी व्यर्थ है। धर्म एक अच्छा खासा व्यवसाय बन गया है। इसके जाल में फँसा आम आदमी कभी यह बात समझ ही नहीं पाता क्योंकि धार्मिक गिरोहों का प्रचार तंत्र बहुत मज़बूत है। किसी भी मजहब की बुनियाद झूठ,शोषण और पाखंडों पर ही खड़ी है जिसे कायम रखने के लिए धर्मों को हिंसा का सहारा लेना पड़ता है। धार्मिक जहालत के अंधकार को शिक्षा और वैज्ञानिक तर्कों से मिटाया जा सकता है पर सत्ताधारी वर्ग ऐसा कभी होने नहीं देगा। उनके लिए जनता का मूर्ख बने रहना ही देश के हित में है।"⁵

  देवदासी प्रथा मुख्य और गौण कारण :-

ईसा की पांचवीं-छठी शताब्दी से मध्यकाल का प्रारंभ माना जाता है। इस समय भक्ति-संस्कृति के विकास ने मंदिर-निर्माण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति-आंदोलन ने सभी वर्गों-जातियों के लोगों को अपने अनुसार आराध्य-देव पूजने का 'स्पेस' दिया। इसी समय राजनीति,राजा और धर्म का नया समीकरण बनने लगा।दक्षिण में उभरती हुई भक्ति के लिए सातवाहन राजाओं ने अपना खजाना खोल दिया मंदिर-निर्माण,मंदिर-पुनरुद्धार,मंदिर प्रांगण का परिष्कार,आराध्य की स्तुति-गान के लिए नृत्यांगनाओं की कतारें,रंगभोग और अंगभोग की व्यवस्था,इन सभी कारणों से मंदिर के विधि-विधान में 'धन का ऐश्वर्य और जटिल व्यवस्थाएं बढ़ती गईं। नौवीं शताब्दी तक आते-आते पूजा-पद्धतियां महंगी हो गई,विशेष अनुष्ठान और त्यौहारों के लिए विशेष प्रबंध राजाओं की समृद्धि का सूचक बन गए। जिस मंदिर में सबसे ज्यादा नृत्यांगनाएं या देवदासी होती थीं,वही लोगों की आस्था के आकर्षण का केंद्र होता था।

'गरिमा श्रीवास्तव' ने अपने लेख 'या देवी सर्वभूतेषु' में इस प्रथा के तथ्य प्रस्तुत किए हैं-

"इतिहास साक्षी है कि मंदिर संस्कृति में हज़ारों-लाखों स्त्रियों को धर्म के नाम पर वेश्यावृति के गर्त में धकेला गया। एक बार मंदिर को समर्पित किए जाने के बाद स्त्री का सतीत्व बचना असंभव था। तंजौर के राजराजेश्वर मंदिर जिसे चोल नरेश राजराजा ने बनवाया था उसमें ग्यारहवीं सदी के आरम्भ में चार सौ देवदासियाँ थीं,जिन्हें बाद में चोल साम्राज्य के विभिन्न मंदिरों में भेज दिया गया। इस चार सौ देवदासियों के नाम मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण किए गये। ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के बीच देवदासी प्रथा अपने चरमोत्कर्ष पर थी। इस काल के शिलालेखों में देवदासियों का उल्लेख बहुतायत से मिलता है,जो चौदहवीं शताब्दी आते-आते अपेक्षाकृत कम हो जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि देवदासी प्रथा समाप्तप्राय थी। बल्कि इस प्रथा ने दक्षिण भारतीय समाज और धार्मिक जीवन में अपनी ठोस जडें जमा ली थीं। इस प्रथा को धर्माश्रय के साथ-साथ राजाश्रय भी मिला। तन्जौर के शिलालेखों में देवदासियों(चार सौ) का उल्लेख मिलता है,जिनको नृत्य-शिक्षा देने के लिए राज्य की ओर से बारह नृत्य गुरु नियुक्त किए गए थे। नृत्यगुरुओं को देवदासियों से ज्यादा पारिश्रमिक मिलता था। वह देवदासियों को नृत्यकला में पारंगत करने के अलावा पुरुषों को रिझाने के लिए भाव-भंगिमाएँ भी सिखाया करते थे।"⁶

देवदासी बनाने के लिए गरीब परिवार के आसानी से मान जाने के पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण इस प्रथा की भागीदार देवदासी का परिवार के भरण-पोषण के लिए आय का साधन बनना था। यह एक भव्य अनुष्ठान के तहत किया जाता था। पुजारी भगवान का प्रतिनिधि बनकर कन्या को मंगलसूत्र पहना कर देवदासी बनाता था। देवदासियां न केवल मंदिरों को समृद्धशाली बनाती थीं अपितु स्वयं उन्हें भी सम्मान और एक लंबे समय के लिए समृद्ध व्यक्ति की रक्षिता बनने का अवसर भी मिलता था।"देवदासियों को मंदिर संस्कृति में सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। कहने के लिए तो ये 'देवपत्निया'  होती थीं,जिनका विवाह कौमार्यावस्था में ही देव प्रतिमाओं से कर दिया जाता था। लेकिन,व्यावहारिक सच्चाई कुछ और थी। मंदिर व्यवस्थापक और इनके ग्राहक दोनों मनुष्य होते थे-जो उनका नित्य उपभोग करते थे।"⁷

● ईश्वर को बलि देने की प्रथा एशिया के कई देशों में है। जिंदा कन्या को ईश्वर को समर्पित करना बलि का ही एक रूप है।

● 'बासवी' व्यवस्था,जो की देवदासी प्रथा के समान ही है,ने भी इस प्रथा को पुष्ट करने का काम किया।

● समाज के निचले तबके पर ब्राह्मणवादी संस्कृति के द्वारा किए गए शोषण का धार्मिक स्वरूप।

● राजाओं के द्वारा वैभव प्रदर्शन का एक घृणित माध्यम।

● अशिक्षा,अस्पृश्यता और निर्धनता इस प्रथा के पोषण के मुख्य कारण बनें।

● पिछड़े वर्ग के लोगों को इस प्रथा से सम्मान की प्राप्ति होती थी।

धर्म के माध्यम से स्त्री का दमन-

धार्मिक प्रथाएं सदैव स्त्रियों के विरुद्ध रही हैं। इस प्रथा के फलने फूलने का भी सबसे बड़ा कारण है-धर्म का हमारे देश में बिगड़ा हुआ स्वरूप। धर्म के माध्यम से पितृसत्ता ने स्त्री-समाज को दोयम-दर्जे पर ला खड़ा किया। स्त्री देह का धर्म के नाम पर सरलता से उपयोग किया जाता रहा है। स्त्रियां ही धर्म को सबसे ज्यादा चलाती हैं। सभी व्रत-उपवास,पूजा-पाठ विधियों और कर्मकांडों को पूरा करने का दायित्व स्त्रियों के कंधों पर ही है। यदि यही समय और ऊर्जा स्त्री अपने विकास के लिए लगाती तो शायद वर्तमान युग में कोई भी स्त्री पुरुषों पर आश्रित ना होती।

मुद्राराक्षस के अनुसार-

"यह सच है कि जो समाज जितना ज्यादा धर्मात्मा होता है,स्त्री के प्रति उसका नजरिया उतना ही खराब होता है,क्योंकि धर्म पुरुष-प्रधान व्यवस्था होता है। धर्म ने अपना ईश्वर भी पुरुष को ही बनाया है और धर्मग्रंथ पुरुषों की कृति है। निश्चय ही ऐसी स्थिति स्त्री की स्वतंत्रत और सम्मानजनक हैसियत कभी स्वीकार नहीं करती? "⁸

 स्त्री समाज के बीच असमानता बढ़ने का एक कारण धर्म भी है। धर्म ने सदैव स्त्री से यौन-शुचिता की परीक्षा ली है जबकि पुरुष इस प्रकार के प्रश्नों से ही स्वतंत्र है।धर्म ने सबसे बड़ा षड्यंत्र स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण रखकर किया है जहां स्त्री अपनी ही देह को लेकर स्वतंत्रत नहीं है। स्त्री स्वयं भी इन सभी नियमों और कानूनों को मानती आ रही है क्योंकि भारतीय समाज में चाहें कोई भी धर्म हो हर जगह स्त्री सदैव से ही पुरुष ही अनुगामिनी रही है?  'रमणिका गुप्ता' ने इस विषय में बड़ी ही सटीक बात लिखी है- "स्त्री यौनिकता का हौवा धर्म ने ही शुरू किया। असली खुराफात की जड़ धर्म है,जिसने स्त्री को अपनी जकड़ में लेने के लिए हर हथियार का इस्तेमाल किया। इस पूरी ब्राह्मणवादी सोच की पृष्ठभूमि में धर्मशास्त्र और मनु की आचार-संहिता है।"⁹

हमारा समाज दोहरे मापदंडों पर आधारित है। भक्ति-आंदोलन में भी कुछ अंतर्विरोध उभरते हैं।कुछ लोग मीरा को इस युग में स्त्री-जाति की प्रतिनिधि साबित करने का प्रयास करते हैं जो कि पूर्णरूपेण असत्य है क्योंकि जो समाज जबरन बनाई गई देवदासियों की इस क्रूर प्रथा को धर्मसम्मत मानता है वही समाज,जो स्वयं को कृष्ण 'देव' की 'दासी' घोषित करती हैं मीरा को विष का प्याला क्यों पिलाता है?  मीरा ने अपने लेखन के माध्यम से मध्यकालीन समय-समाज की मान्यताओं का खुलकर विरोध किया और साफ-साफ अपना संबंध अपने ‘देव’ से डंके की चोट पर सबके समक्ष रखा-

"राणाजी हूं तो गिरधर कै मन भाई।

जैमल के घरि जन्म लियो है,

राणा नैं परणाई।

सांचा स्नेही म्हारै रामसंत जन,जासूं प्रीति लगाई।...

जौ पकड़ोगा हाथ हमारो,खबरदार मन माहीं सांचा मनसूं सरपा ज द्यूंली,बलि'रे भसम होइए जाई

 जनम जनम की मैं दासी राम की,थारी नहीं लुगाई।"¹⁰

इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर या देव को ‘उच्च  कुल और समृद्ध घर की कन्या’ के स्थान पर ‘पिछड़े समाज के गरीब घर की कन्या’ ही स्वीकृत होगी और समाज तथा पितृसत्ता को भी?  इतना भारी भेदभाव केवल भारतीय समाज  में ही संभव है। जहां सवर्ण समाज अपने घर से उठी आवाज़ को दबाने के लिए ज़हर का सहारा भी ले सकता है?  अर्थात चाहें स्त्री किसी भी जाति,वर्ण और तबके की हो धर्म के द्वारा उसका शोषण जायज ठहरा दिया जाएगा?

इतना ही नहीं साहित्यिक क्षेत्र में भी मध्यकालीन साहित्य में मीरा के लेखन का मूल्यांकन अनुचित रूप से किया गया है। ‘सुजाता ने अपनी पुस्तक ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ में लिखा है –“अधिकांश  इतिहासकार तो इस भ्रम में किताबें लिख गए हैं मानो वे हिन्दी साहित्य का नहीं हिन्दू-जाति का साहित्येतिहास लिख रहे हों।हिन्दी काव्य की कोकिलाएँ के लेखक लिखते हैं- मीरा हिन्दू समाज की सबसे उच्च कोटि की परकीया नायिका हैं- वह परकीया नायिका जिसका किसी भी साहित्य को गर्व हो सकता है। पहली बात यह कि मीराँ कवि हैं,नायिका नहीं।उसका कवित्व एक तरफ़ रखकर उसे नायिका की तरह देखने की यह दृष्टि वही है जिसमें स्त्री कवि को उसके अभिकर्तृत्व से वंचित किया जाता है।ʼʼ¹¹ इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान स्त्री आलोचकों द्वारा  मध्यकालीन स्त्री साहित्य के तटस्थ दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन की मांग करना सर्वथा उचित है।

धर्म की गलत व्याख्याओं ने किस प्रकार हाशिए के समाजों को ठगा है यह बात ‘डॉधर्मवीर की इन पंक्तियों में स्पष्ट होती है- “इस देश में इन शास्त्रों और संस्कृत की परंपरा के विरोध में एक समानांतर परंपरा भी रही है।इस कारण हुआ कि शास्त्रों में जो लिखा गया था वह समाज के सभी लोगों की राय लेकर नहीं लिखा गया था।विशेषकर शास्त्र लिखते समय शूद्रों और नारियों से कोई सलाह नहीं ली गई थी।एक तरह से शूद्र और नारियों पर तरह-तरह के एक तरफा सामाजिक बंधन लगाए गए थे।“¹²

केवल मध्यकाल ही नहीं अपितु आज भी धर्म ने स्त्रियों पर अपना नियंत्रण बनाया हुआ है। स्त्रियों को बराबरी का दर्जा किस प्रकार मिल सकता है जब  तक धर्म उनका समाज में स्थान तय करता रहेगा?  सुधा अरोड़ा के शब्दों में “धर्म कितना और किस स्तर पर स्त्रियों पर आज भी अनाचार कर रहा है। इसे बहुत से अनुष्ठानों और रवायतों में देखा जा सकता है। केरल के एक मन्दिर में स्त्रियों को ऊपर के वस्त्र पहनकर जाने की अनुमति नहीं है। सोचने की बात है कि स्त्रियाँ मन्दिर में क्या पहनकर  जायें,इसे तय करने का अधिकार मन्दिर के पुरुष पुजारियों को किसने दिया? ”¹³

स्त्री विमर्श को भारतीय संस्कृति के आंतरिक अंतर्विरोधों से ही लड़ना है।इस बात को हम ‘राम नरेश राम’ के कथन से समझ सकते हैं- "इस विविधवर्णी भारत में 'भारतीय संस्कृति' की एक विवादास्पद अवधारणा है जिसकी बुनियाद में 'हिंदू संस्कृति' की एकायामी वर्चस्ववादी बातें ही निहित हैं। स्त्री विमर्श से बनी नयी संस्कृति की सीधी टकराहट इस भारतीय संस्कृति से होती है। दरअसल 'भारतीय संस्कृति' का अस्तित्व ही तमाम प्रगतिकामी और मुक्तिकामी संस्कृतियों की दमन की शर्त पर है। 'प्रतिरोध की संस्कृति' में प्रतिरोध किस बात का,वह,मूल्य का,संरचना का,सत्ता का,या इतिहास का,तो उत्तर होता है,स्त्री पराधीनता के उन सभी कारकों का जो उसको स्वाधीन होने में बाधा पहुंचाते हैं।"¹⁴

निष्कर्ष : निष्कर्षत: यह कहना ज़रूरी है कि यदि किसी देश की विरासत में उसकी ‘आधी आबादी’ अंधकार से ढकी-छुपी रही है तो हम उस पर गर्व कैसे कर सकते हैं?  ‘जोसेफ गाथिया’ ने रूढ़िवादी संस्कृति के अंधकारमय युग से निकलना ज़रूरी बताया है- “एशिया को अपने अतीत से स्वतंत्र होना होगा और रूढ़िवादी संस्कृति के समान वर्ग के पूर्वाग्रहों को हटाकर शिक्षा नीति का पुनःनिर्माण करना होगा। कोई समाज मात्र रूढ़ियों का पालन करके विकसित नहीं हो सकता है। इसके लिए हमें अपने सोचने के तरीकों में पूर्ण बदलाव लाना होगा। अधिकांश सामाजिक परिवर्तन धीमा एवं दर्दनाक होता है।ʼʼ¹⁵

अतः स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि मध्ययुग का स्त्रीवादी दृष्टि से मूल्यांकन अत्यधिक आवश्यक है। उस दृष्टि में भी ‘प्रतीकों की राजनीति’ को खोजने की कोशिश करना बहुत जरूरी है क्योंकि धर्म ने इन प्रतीकों का जो किला खड़ा किया है उसमें स्त्री सदियों से बंदी है और अपनी त्रुटियों से अनभिज्ञ भी है।स्त्री को स्वयं ही इस मानसिक ग़ुलामी से आज़ाद होना होगा। ‘अनुकरण’ और ‘चयन’ दोनों के अंतर की गहराई से पड़ताल करनी होगी। यह कार्य सामाजिक,मानसिक,भाषाई,साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर पर करना होगा यही वर्तमान समय की मांग है।


संदर्भ :

1.- रेखा कस्तवार,’स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ’,राजकमल प्रकाशन प्रा•लि•,1-बी,नेताजी सुभाष मार्ग,दरियागंज नई दिल्ली-110002,दूसरा संस्करण-2016,पृ•-68 ।
2.- एस.एस.गौतम,‘डॉ.अंबेडकर और दलित महिला’,सिद्धार्थ बुक्स,1/4446,रामनगर एक्सटेंशन,गली नं•-4,डॉ.अंबेडकर गेट,मंडली रोड,शाहदरा,दिल्ली-110032,संस्करण-2019,पृ•-117 ।
3.- जोसेफ गाथिया,’एशिया में देह व्यापार’,अशोक कुमार मित्तल कन्सेप्ट पब्लिशिंग कंपनी,ए/15-16,कमर्शियल ब्लॉक,मोहन गार्डन,नई दिल्ली-110059,प्रथम संस्करण-2003,पृ•-39 ।
4.- लुइज़ ब्राउन,’यौन दासियाँ:एशिया का सेक्स बाज़ार’,वाणी प्रकाशन,4695,21-ए,दरियागंज नई दिल्ली-110002,संस्करण (आवृत्ति)-2017,पृ•-45
5.- के•अजिता(संपादक),’स्त्री की दुनिया’,वाणी प्रकाशन,4695,21-ए,दरियागंज नयी दिल्ली-110002,प्रथम संस्करण-2019,पृ•-18 ।
6.- वही,पृ•-53-54
7.- वही,पृ•- 54 ।
8.- मुद्राराक्षस,’बीच बहस में:स्त्री,दलित और जातीय दंश’,गौतम बुक सेंटर,रामनगर एक्सटेंशन,डॉ.अंबेडकर गेट,शाहदरा,दिल्ली-110032,संस्करण-2022,पृ•-7 ।
9.- रमणिका गुप्ता,’स्त्री-मुक्ति:संघर्ष और इतिहास’,सामूहिक प्रकाशन,3320-21,जटवाड़ा,नेताजी सुभाष मार्ग,दरियागंज नई दिल्ली-110002,संस्करण-2022,पृ•-112 ।
10.- रोहिणी अग्रवाल,’स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प’,राजकमल प्रकाशन प्रा• लि•,1-बी,नेताजी सुभाष मार्ग,दरियागंज नई दिल्ली- 110002,तीसरा संस्करण-2019,पृ•-16 ।
11.- सुजाता,’आलोचना का स्त्री पक्ष:पद्धती,परंपरा और पाठ’,राजकमल प्रकाशन प्रा• लि•,1-b,नेताजी सुभाष मार्ग,दरियागंज नई दिल्ली-110002,प्रथम संस्करण-2021,पृ•-185 ।
12.- डॉ.धर्मवीर,’सीमन्तनी उपदेश’,वाणी प्रकाशन,21-ए,दरियागंज नयी दिल्ली- 110002,संस्करण-2006,पृ•-25 ।
13.- के•अजिता(सम्पादक),’स्त्री की दुनिया’,वाणी प्रकाशन-4695,21-ए,दरियागंज नयी दिल्ली- 110002,प्रथम संस्करण-2019,पृ•-17 ।
14.- राम नरेश राम,’दलित स्त्रीवाद की आत्मकथात्मक अभिव्यक्ति’,नयी किताब,1/11829,प्रथम मंजिल,पंचशील गार्डन,नवीन शाहदरा,दिल्ली-110032,प्रथम संस्करण-2017,पृ•-17 ।
15.- जोसेफ गाथिया,’एशिया में देह व्यापार’,अशोक कुमार मित्तल कन्सेप्ट पब्लिशिंग कंपनी,ए/15-16,कमर्शियल ब्लॉक,मोहन गार्डन,नई दिल्ली-110051,प्रथम संस्करण-2003,पृ•-73 ।

 

 उमंग वाहाल
 शोधार्थी- पीएच.डी.,हिन्दी विभागदिल्ली विश्वविद्यालयदिल्ली-110007
umangwahal@gmail.com9205409875, 8929019205

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

3 टिप्पणियाँ

  1. वाह बढ़िया आलेख लिखा है उमंग... भक्तिकाल में स्त्री अस्मिता की पड़ताल करने का शानदार प्रयास।

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  2. बहुत धन्यवाद आपका🙏🏻

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  3. बहुत ही सारगर्भित और विश्लेषणात्मक लेख लिखने के लिए आपको बहुत बधाई । आप आगे भी ऐसे लेख लिखती रहें।

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