राम का चरित्र और उनकी कथा भारतीय जनमानस में रची-बसी है। राम कथा के संवाहकों ने मानव मात्र के अभ्युदय और नि:श्रेयस को प्रदान करने वाले जीवन-दर्शन और जीवन-मूल्य को समस्त संसार में फैलाया। विश्व के विभिन्न देशों जैसे थाईलैंड, मॉरीशस, श्रीलंका आदि में यह कथा विस्तारित है। किंतु भारत-भूमि को इस संस्कृति प्राकट्य और प्रसार के मूल स्थान होने का गौरव प्राप्त है। ऋषियों की तपोभूमि और अवतारों की लीलास्थली भारत-भूमि में संस्कृति का प्रवाह कभी अवरुद्ध नहीं हुआ। इसी कारण राम चरित्र की कथा लोक में सर्वाधिक प्रचलित और समयानुसार कुछ परिवर्तित और सकारात्मक पहलुओं को समेटते हुए परिपक्व ही होती रही है। राम कथा भारतीय मानस के चिंतन-मनन का परिणाम और प्रक्रिया का नैरंतर्य है। भारतीय धरातल के विभिन्न भागों में इसने अपने अलग-अलग मानस की उपज से कई कथाप्रकार धारण किए हुए हैं, जिसकी प्रक्रिया अनंतकाल तक चलती रही है और आगे भी चलती रहेगी। मर्यादा पुरुषोत्तम राम की कथा अनादि से आरंभ हुई है जिसका आदि और अंत समझना कि सर्वप्रथम किसने कही, यह मुश्किल है क्योंकि यह लोककथा के रूप में अनंत काल से चली आ रही है। हालांकि साहित्यिक साक्ष्य में महर्षि वाल्मीकि आदिकवि कहे जाते हैं और उन्होंने ही सर्वप्रथम: राम चरित को साहित्यिक काव्य रूप में उकेरा। महर्षि वाल्मीकि के बाद भवभूति, स्वयंभू, कम्बन, तुलसी, केशव निराला आदि कवियों ने इस कथा के उत्कर्ष को आगे बढ़ाया। माना जाता है कि विश्वभर में 300 से अधिक राम कथाओं की रचना की गई है। रोचक तथ्य यह है कि इस चिंतन-मनन में सर्वाधिक विवादास्पद और परस्पर विरोधी अध्ययन भी रामकथा संदर्भित ही हैं। यद्यपि इसके कई कारण खोजे जा सकते हैं किंतु इसके सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारणों में अखिल भारतीय भक्ति संवेदना और तत्कालीन ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, परिस्थितियों में न देखकर किसी खास निर्धारित सांचे में ढालने की तथाकथित बुद्धिजीवियों के प्रयासों का ही नतीजा है। इस समस्या के अनसुलझे धागों को सुलझाने का एक प्रयास यह पुस्तक 'जन-जन के राम' है। यह पुस्तक 'दयानिधि मिश्र' द्वारा चयनित और संपादित है और इसमें सम्मिलित निबंधों में कई व्याख्यान हैं जो विभिन्न अवसरों पर विद्यानिवास मिश्र जी ने राम चरित संबंधी प्रस्तुत किए हैं। सीधे सरल शब्दों में कहा जाए तो यह मिश्र जी (विद्यानिवास मिश्र जी) के विचारों का संकलन है।
मिश्र जी शुक्लोत्तर युग के ललित निबंधकार हैं। मिश्र जी के विचार पुरातन से अद्यतन और अद्यतन से पुरातन की बौद्धिक यात्रा करते हैं। इस पुस्तक के लगभग सभी लेख भी इसी विचार से ओत-प्रोत हैं। सम्मिलित किए गए लेखों को पढ़ने पर कुछ विषयों की पुनरुक्ति हुई है जो कि स्वयं 'दयानिधि मिश्र' अपने संपादकीय में भी स्पष्ट करते हैं इनमें से कुछ विषय जैसे सीता निर्वासन पर राम की प्रतिक्रिया, अग्निपरीक्षा का प्रश्न, राम के मानवीय संबंधों और गुणों का प्रश्न आदि प्रसंग महत्वपूर्ण हैं। किसी संदर्भ में व्यक्ति के मूल्य की पहचान वैचारिकी और व्यवहार से होती है वहीं साहित्यकार के आलोचकीय विवेक से। इसका अर्थ यह कतई नहीं कि प्रत्येक रचनाकार का आलोचक होना आवश्यक है। मिश्र जी को आलोचक कहने से मेरा तात्पर्य नहीं है किंतु रामकथा के विभिन्न संदर्भों का मूल्यांकन तो उन्होंने किया ही है। मूल्यांकन के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति विवेक को लिटमस पेपर की तरह होना चाहिए अर्थात सही और गलत के मिश्रण को उचित स्थान पर रखते हुए ही मापना। किन्तु मिश्र जी अवध के रहने वाले हैं राम कथा का विस्मरण कर ही नहीं सकते। अवध क्षेत्र का निवासी राममय होता है अर्थात वह मात्र राम या राम कथा सुनता नहीं उसे जीवनपर्यंत स्वयं में जीता चलता है। ऐसे में मिश्र जी से राम के प्रति पूर्ण तटस्थता से खड़े होने की उम्मीद रखने को मैं नासमझी ही कहना चाहूँगी। उपर्युक्त बात से मेरा तात्पर्य मिश्र जी के संपूर्ण विचारों को नकार देना कतई नहीं है। राम स्वघोषित रूप से मर्यादा पुरुषोत्तम, सर्वश्रेष्ठ राजा, सर्वोत्तम पुत्र और उत्तम भाई के रूप में जाने जाते हैं। राम की आलोचना कुछेक बिंदु पर ही देखी जाती है जैसे वे एक अच्छे पति के रूप में नहीं देखे जाते।
इस पुस्तक के माध्यम से जिन मुख्य बिंदुओं को स्थापित करने का प्रयास किया गया है उन्हें हम कुछ इस प्रकार देख सकते हैं: 1)मानस के राम इतिहास के नहीं; 2)राम के मानवीय रूप की बाध्यता; 3)सीता के हवाले से रामचरित्र की शुद्धि का प्रयास; 4)राम मानवीय मूल्यों के विचारक; 5)राम भारतीय अस्मिता के प्राण; 6)सीता निर्वासन में निहित राम का निर्वासन।
संकलन का पहला ही लेख 'राम:आज के संदर्भ में' इस पुस्तक का प्राण तत्व है। मिश्र जी ने यहाँ उन लोगों के प्रति असहमति व्यक्त करने के साथ लताड़ा भी है कि राम को इतिहास में खोजने का प्रयास करना ही क्यों है? वे मानते हैं कि राम बुद्धि से समझ नहीं आते वह सीधे हृदय में उतरते हैं। रामचरित्र और राम-कथा किसी अन्य विधा की भाँति देश, काल, वातावरण और विचार से बंधी नहीं है। राम शून्य है उनकी ऐतिहासिकता, प्रासंगिकता और अप्रासंगिकता का प्रश्न भारतीय जन का प्रश्न होना ही नहीं चाहिए। "राम स्मृति के विषय नहीं हैं वे बस मन में बसे रहते हैं"(विद्या निवास मिश्र)। वे हमारे भारतीय जन से इतना तादात्म्य स्थापित कर चुके हैं कि भारत के विभिन्न भागों से सभी जनों से लाड़, प्यार, दुलार और फटकार सहज स्वीकार करते हैं और ईश्वरीय श्रेष्ठता के बाबजूद प्रत्येक जन क्रोध और फटकार राम को देने से पहले किंचित मात्र भी संकोच नहीं करता। संकलन के अन्य निबंधों में मिश्र जी के विचार नितांत राममय होते हुए भी समकालीन परिस्थितियों की गंभीरता को ध्यान में रखकर राम चरित्र की व्याख्या, उसकी उपयोगिता, मायने और अर्थ समझाते हुए भी राम की प्रासंगिकता और ऐतिहासिकता पर प्रश्न करने वाले दोनों पक्षों के प्रति तटस्थ रहकर राम होने का अर्थ व्यक्त करते हैं। भारतीय संस्कृति के प्रति अथाह आस्था और श्रद्धा मिश्र जी का विशेष गुण है और भारतीयता को राम से पृथक समझना वे संभव नहीं मानते। मिश्र जी के ध्यान में वाल्मीकि रामायण, तुलसी का रामचरितमानस, भवभूति का उत्तररामचरित, अध्यात्म रामायण, जैन रामायण, तमिल रामायण, थाई रामायण के साथ-साथ लोक प्रचलित कथाओं में मौजूद राम का चरित्र भी रहा है। ऐसा वे इसलिए आवश्यक भी मानते हैं की राम साहित्य से ज्यादा लोक के हैं। 'राम का अयन वन' नामक यह उद्धरण अव भी है कि " यह कथा प्रासादों में नहीं, लोक में विहरेगी, लोकचित्त में विहरेगी।" वे राम के ईश्वरीय गुण और मानवीय संबंधों पर बात करते समय संदर्भ लोक कथाओं से ही ज्यादा उठाते हैं। शूर्पणखा प्रसंग पर राम का बचाव करते हुए वह कहते हैं कि आलोचकों ने इस दृष्टि से नहीं देखा कि वह मिलते ही सीता पर आक्रमण करती है और कहती है कि 'यह विकृत है, विरूप है, तुम्हारे अनुरूप नहीं है। मैं ही तुम्हारे अनुरूप हूँ।' यही नहीं, वह सीता जैसी अद्वितीय सुंदरी को स्थूल उदरवाली, कराल और असती कह डालती है। इसके विरोध में राम शूर्पणखा का सुरूपता का गर्व खंडित करने हेतु लक्ष्मण को 'नाक-कान' काटने का आदेश दे देते हैं। जबकि आलोचक किसी भी स्त्री के साथ इस प्रकार के व्यवहार को न्यायोचित नहीं ठहराते वे प्रश्न उठाते हैं कि शूर्पणखा का सीता को असती कहना गलत है, तब लंका से लौटने पर सीता की अग्नि परीक्षा लेना कहाँ तक उचित ठहर सकता है? मिश्र जी इसे वाल्मीकि रामायण के संदर्भ से बताते हुए कहते हैं कि राम पर देवताओं ने इस पाप को न करने को कहा और उन्हें उनके ईश्वरीय होने की याद दिलाई। तब राम ने कहा कि, 'मैं जो कर रहा हूँ, दशरथ-पुत्र रघुवंशी के रूप में कर रहा हूँ ना करूं तो लोक क्या कहेगा।' और चूँकि राम उत्तम राजा हैं इस कारण लोक की चिंता का स्मरण उन्हें है किंतु पत्नी सीता का नहीं। इस पूरे प्रकरण को एक दृष्टि से देखा जाए तो मिश्र जी सर्वत्र अपने विचारों में सीता निर्वासन जैसे कर्म को भी राम के स्वयं का निर्वासन कहकर रामचरित्र की शुद्धि का ही प्रयास करते नजर आये हैं। उनका मानना है कि राम इन गलतियों को मानवीय गुणों के कारण कर रहे हैं और उन्हें लोक की चिंता के साथ-साथ सीता की चिंता भी है। वे कहते हैं कि यदि राम सीता के प्रति कठोर ना होते तो जन-मानस में सीता को घृणा ही प्राप्त होती, वे पूज्य नहीं रह सकती थीं। वे भवभूति के उत्तर रामचरित का हवाला देते हैं जहाँ बासंती के प्रश्न करने पर राम उत्तर देते हैं कि,'मैंने दारुणकर्म इसलिए किया कि लोग सीता को अयोध्या में रानी के पद पर सहन नहीं कर सके।"
संकलन के ज्यादातर लेखों में लोक संदर्भों का सहारा लेते हुए मिश्र जी ने आलोचकों के आक्षेपों से राम को बचाने और भारतीय मानस में धूमिल होती छवि को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया है। आधुनिकता के साथ साहित्य में प्रत्येक बात को विमर्शों के आलोक में देखने का चलन बढ़ गया है, बदलती परिस्थितियों के साथ प्रतिमानों का बदलना भी स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे सहज स्वीकारना हमारा दायित्व। पुरुषवादी मानसिकता ने सदैव राम के संघर्षों को ही महत्व दिया किंतु अब स्त्री की नजर से रामचरित को देखे जाने पर सीता के संघर्ष राम से अधिक जटिल और कष्टपूर्ण प्रतीत होते हैं, वहीं सीता के अतिरिक्त रामकथा में उर्मिला और कैकेयी की पीड़ा भी जनमानस की चर्चा का बिंदु बनकर उभरी है। मिश्र जी का सीता के माध्यम से राम को उनके दोष से मुक्ति दिलाना आलोचकों को प्रश्न उठाने का ही अवसर देता है। वे परंपरावादी दृष्टिकोण और राममय विचार से बाहर आकर नहीं देखते वे सीता के कष्ट से ऊपर राम की पीड़ा को ही अनुभव करते हैं। यहां मिश्र जी द्वारा राम का पक्ष लेना जबरदस्ती थोपा और राम के मानवीय गुण के अनुरुप अपराध को सहज स्वीकार करते नहीं दृष्टिगत होता। वे कालिदास की तेजस्विनी सीता की कथन को उद्धृत करते हैं: सीता ने लक्ष्मण के माध्यम से संदेश दिया राम को कि, "राजा से कहना, राम से नहीं, राजा से कहना कि जो किया है क्या वह रघुकुल के यश के अनुकूल है?" मिश्र जी यहाँ यह भूल जाते हैं कि यह कथन जितना राम को, राम होने के लिए दोष मुक्त करता है उतना ही एक राजा के न्याय को प्रश्नांकित करता है। अन्याय जिससे भी हुआ हो सही सिद्ध नहीं ही किया जा सकता चाहे कितना भी जायज़ ठहराने का प्रयास किया जाता रहे।
भवभूति का उत्तररामचरित जितना राम-सीता-लक्ष्मण के अयोध्या वापसी के बाद सीता निर्वासन की कथा का ग्रंथ है उतना ही वह सीता के वियोग में राम की कथा का भी है, राम की ओर से मात्र व्यक्ति दृष्टि से ईश्वरीय या राजा की पद श्रेष्ठता से नहीं। यहां राम राजा नहीं हैं वह आम मनुष्य की तरह आहत हैं, निराशा और हताशा के शिकार हैं। मिश्र जी भवभूति के माध्यम से राजा राम और व्यक्ति राम के बीच के अंतर्द्वंद पर बात करते हुए राम की व्यक्तिगत पीड़ा को समाज के समक्ष रखने का प्रयास करते हैं जो कि सत्य की प्रमाणिकता के नजदीक भी है किंतु यदि व्यक्ति और राजा अलग-अलग है तब रामराज्य का पुल तो ढहेगा ही, क्योंकि राजा राम सधे और दृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी हैं जबकि व्यक्ति राम प्रिया के वियोग में खण्डित व्यक्तित्व धारण किए हुए है। वे राम को समाज के लिए मानवीय करुणा और संबंध निर्वाह के प्रतिमान के रूप में स्थापित करना चाहते हैं वे मानते हैं कि मानवीय करुणा ज्ञान और धैर्य का पुल ढहा सकती है। मिश्र जी ने तीन प्रसंगों की चर्चा की है जहां राम क्रोध में अपना धैर्य खो देते हैं: पहला अवसर, जब सीता का हरण हुआ तब वे इतने अधिक विह्वल होते हैं की सारी सृष्टि के विनाश की बात करते हैं; दूसरा, जब सीता की अग्नि परीक्षा होती है वे राम ज्ञान खो देते हैं और स्वयं को नहीं पहचानते; तीसरा, जब सीता पृथ्वी में समा जातीं हैं तो पृथ्वी को छिन्न-भिन्न कर देना चाहते हैं। मिश्र जी ने राम की मानवीय करुणा को पग-पग पर अपने विचारों में रखा है। साथ ही इतने कठोर निर्णयों जो कि तत्क्षण के लिए धैर्य और ज्ञान का लोप कर देते हैं वहाँ पर राम ही हैं जो अपने कर्तव्यों और संबंधों का उचित निर्वाह करने हेतु डटकर भी खड़े हो सकते हैं। वे राम चरित्र को मानवीय मूल्य का संवाहक कहते हैं वे मानते हैं कि वही व्यक्ति निष्ठुर हो पाता है जो अपने साथ प्रिय का तादात्म्य स्थापित कर चुका हो। जो अपने प्रेम के विषय का तादात्म्य कर लेता है उसके साथ वही निष्ठुर होता है। यह भी कहते हैं कि जिसमें विवेक होता है उसी में विवेक भ्रंश की संभावना होती है। और राम सर्वत्र टूटते तो हैं किन्तु बिखरते नहीं, वे हार स्वीकार करते हैं किन्तु जीत की उम्मीद के साथ। वे मानते हैं कि राम स्वयं उन मूल्यों की स्थापना के लिए दु:ख झेल कर उनका अर्थ स्थापित कर रहे हैं। इन मूल्यों में सबसे बड़ा मूल्य 'विश्वास की रक्षा' है राम ऋषि, देव, आमजन सभी के विश्वास की रक्षा करते हैं राम जहाँ रक्षा नहीं कर पाए तो वहां स्वयं अनुतापमय जीवन बिताते हैं। जिसका एक उदाहरण मिश्र जी सीता का निर्वासन में राम की पीड़ा को इंगित करते हुए देते हैं।
रामचरित संबंधी सर्वाधिक विवादास्पद और प्रश्नांकित प्रश्न सीता का निर्वासन ही रहा है। जिसे इस संकलन में मौजूद मिश्र जी के लगभग सभी लेखों में निर्वासन के पीछे के सकारात्मक इरादों को रेखांकित करते हुए और बाद में राम को असंतुष्ट, व्याकुल, चित्रित किया गया है। साथ ही तमाम खुशियों का हिस्सा न बन पाने पर अपनी व्यथा पर रोते हुए भी बताया गया है। पुस्तक में 'सीता के निर्वासन में राम का निर्वासन' नामक लेख में मिश्र जी वाल्मीकि की सीता के कथन को उद्धृत करते हैं, वे कहती है कि "मेरी तो सृष्टि ही विधाता ने दु:ख के लिए की है राम का कोई अपराध नहीं है।" इसके अतिरिक्त वे अन्यत्र कहती हैं कि "मैं रानी नहीं, मैं सामान्य स्त्री हूँ। मेरे लिए केवल पति का ही एक रिश्ता है, मेरे लिए और कोई रिश्ते नहीं हैं। कोई रिश्ता अर्थ नहीं रखता। मेरे लिए सब कुछ राम हैं।“ इस प्रकार के कई अन्य उदाहरणों से मिश्र जी राम को इन आरोपों से बरी कर भारतीय समाज के लिए वही आदर्श पुनः स्थापित करना चाहते हैं जो विमर्शों के आने के पहले राम का था। किंतु विभिन्न विद्वानों और जन सामान्य द्वारा भी राम की आलोचना सीता निर्वासन, सूर्पनखा प्रसंग को लेकर होती ही रहती है। तमाम प्रयासों के पश्चात भी रामचरित्र की कुछ खामियां जस की तस मौजूद हैं और प्रश्नों के जालों में उलझती ही जा रही हैं। 'नवनीता देव सेन' अपने "स्त्री लोककाव्य" के अध्ययन के माध्यम से बताती हैं कि' सीता इन सारे प्रदेशों (आंध्र प्रदेश, मिथिला देश, बंगाल, बांग्लादेश, छोटा नागपुर और महाराष्ट्र) की स्त्रियों के लिए जन्म दु:खिनी हैं। उस चिरदुखी स्त्री से वे अपनापा महसूस करती हैं और इसके लिए इन प्रदेशों की स्त्रियाँ राम को सीता का अपराधी मानती हैं। इन प्रदेशों में शायद ही कोई पुत्री को यह आशीर्वाद देता हो कि राम जैसा पति मिले।' मिश्र जी मानते हैं कि स्त्री के बारे में परिवाद फैलाना ही लोगों का स्वभाव है इस अमानवीयता को रेखांकित करने के लिए समय-समय पर रामचरित रचे गए राम का पत्नीव्रता होने को रेखांकित करते हुए वे राम-सीता के अगाध प्रेम की ओर इशारा करते हैं और कहते हैं की रामायण को भीतर से फिर से लिखने का एकमात्र प्रयोजन यही है की गहरे संबंधों के भीतर जाना। तमाम कष्टों के बावजूद सीता का पुनः राम को पति के रूप में मांगना इसी गहरे संबंध की ओर इशारा है, मिश्र जी इस इशारे को अपने बल बनाते हुए राम के निर्वासन को स्थापित करना चाहते हैं।
इस संकलन के यह स्पष्ट है कि मिश्र जी के राम को 'भारतीय अस्मिता का प्राण' मानते हैं। क्योंकि रामायण धर्म और प्रेम के गहरे अंतर्द्वंद की कथा है और राम द्वंद्व के गहरे तक तो जाते हैं पर डूबते नहीं विजय पाते हैं। वे राजा राम होने से ज्यादा स्वीकारते हैं व्यक्ति राम होना; वे कर्तव्य निर्वाह को प्राथमिकता देते हैं संबंध निर्वाह से; तो वहीं वे धर्म को चुनते हैं व्यक्तिगत प्रेम पर। यह केवल इसलिए नहीं हुआ है कि वे ईश्वरीय अवतार थे, बल्कि वे(राम) मानते हैं कि 'आदमी में जीवन है, जीवन की आशा है, जीवन की अभिलाषा है, तो आनंद लौटकर आता है।' इसी कारण व्यक्तिगत सुख से अधिक लोक को महत्व देते हुए अपने सबसे निकटतम सम्बन्ध के प्रति इतने कठोर और निष्ठुर बने रहकर समाज के लिए आदर्श की स्थापना करते हैं। मिश्र जी कहते हैं कि 'साधारण लौकिक पुरुष की दुर्बलता राम के द्वारा इसलिए नहीं लीलायित होती कि वह मात्र आदर्श है, इसलिए होती है कि वह यथार्थ है भारतीय समाज का यथार्थ'। मिश्र जी राम की चर्चा करते हुए युधिष्ठिर से तुलना करते हैं वे कहते हैं, दोनों वनवासी हुए पर राम भारतीय जन के विशाल मनोराज्य के राजा बन पाए क्योंकि राम ने पिता के सत्य के लिए तप का वरण किया और ऋषियों की रक्षा के लिए शस्त्र का वरण किया। वे कहते हैं कि राम आक्षेप सहते हैं किंतु बाली और रावण का वध धर्म विरुद्ध करते हैं, क्योंकि वहाँ धर्म को स्थापित करने के लिए धर्म का विरोध आवश्यक था और वहीं युधिष्ठिर अपने व्यक्तिगत धर्म के लिए भाई और पत्नी को भी दांव पर लगा देते हैं किंतु धर्म को त्यागना नीतिगत नहीं समझते। इसके अतिरिक्त सुख का त्याग करना भारतीय जीवन में एक महत्वपूर्ण मूल्य है, वहीं दूसरों के सुख के लिए कष्टप्रद जीवन का वरण करना उससे भी बड़ा जीवन मूल्य है। हालांकि वर्तमान दौर में स्वयं को महान तपस्वी घोषित करने की अंधी दौड़ चल पड़ी है।इसी कारण भी मिश्र जी राम को और उनके त्याग व तप को स्थापित कर भारतीय जन को भटकाव से उबार लेना चाहते हैं। अब जब राम चरित्र मात्र भारतीय मूल्यों का ही नहीं समस्त जन के जीने का आधार हो तब वह 'भारतीय अस्मिता का प्राण' होगा ही।
उपर्युक्त सभी प्रसंगों और संदर्भों पर बात करते हुए एक बात तो स्पष्ट ही है कि इस संकलन के माध्यम से राम के चरित्र की छवि को पुन: मर्यादवादी पुरुषोत्तम के सांचे में ढालने का एक पुरजोर प्रयास है, जिसमें बहुत हद तक विद्यानिवास मिश्र के विचार प्रभावित भी करते हैं। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठक के विचारों में परिवर्तन निश्चित तौर पर आता है, पूर्व धारणाओं का खंडन और नए विचारों का प्रस्फुटन स्वाभाविक ही होते चले जाता है। यह भी तथ्य है कि वर्तमान दौर बुद्धिजीवियों का दौर है तब यह जरूरी है कि प्रत्येक विचार पर क्या, क्यों किया ही जाएगा। इसी कारण कहना चाहूँगी कि कई प्रसंगों में मिश्र जी राम के वकील के रूप में प्रस्तुत होते प्रतीत होते हैं लोक संदर्भों का हवाला देते हुए सीता से रामचरित्र को सही साबित करवाना इसी का एक उदाहरण है। खैर मिश्र जी यह मानते हैं कि राम मानवीय चरित्र में जो गलतियां कर रहे हैं वह भारतीय समाज का कड़वा यथार्थ है जिसे कथावाचक या रचनाकार समय-समय पर बताना चाहता है इससे मुँह फेरना वैसा ही है जैसा स्वयं से भागना। मिश्र जी कई जगहों पर शोक भी व्यक्त करते हैं कि वर्तमान भारतीय लोकमानस रामकथा के मूल आशय से भ्रमित हो रहा है वे कहते हैं कि,”कितना अभागा हूँ मैं और मेरी ही तरह अर्धशिक्षित साक्षर समुदाय जो राम को उपस्थिति के रूप में नहीं देख पाता जमीन की खुदाई करके पुराने ठीकरों में राम का अस्तित्व तलाशता रहता है, राम को अपने पुलक में नहीं देख पाता, राम को अपने अश्रु में झलकते नहीं देख पाता।“ वस्तुत: मिश्र जी आधुनिक दौर के भ्रमित विश्वास, आस्था, श्रद्धा और बेढंगे प्रतिमानों पर राम को बैठाने पर आक्रोश व्यक्त करते हुए सही तथ्यों को सामने रखने का प्रयास करते नज़र आते हैं।
संदर्भ :
■ मिश्र, दयानिधि (सं) : जन – जन के राम, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2020
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