मीराबाई मेडतिया के राठौर रत्न सिंह की पुत्री थीं। इनका जन्म संवत् 1573 के चोकड़ी नामक गाँव में हुआ था।मीराबाई का विवाह उदयपुर के महाराणा राजकुमार भोजराज के साथ हुआ था। दुर्भाग्यवश महाराणा भोजराज शादी के कुछ ही महीनों बाद परलोग के वासी हो गए। अब मीराबाई का सारा संसार उजड़ जाता है और वह विधवा हो जाती हैं। विधवा स्त्री के जीवन का सही आँकलन तुलसीदास की इस पंक्ति के माध्यम से किया जा सकता है कि-
आज के समय में इस तरह की उक्ति सुनने में भले ही अजीब लग रही हो लेकिन यह भारतीय समाज की सच्चाई है कि उसके पति के न रहने पर यह समाज उसको दुरदुरा देता है। इस बात पर यकीन न आये तो वृद्धाआश्रम जाकर इसका सबूत देखा जा सकता है। एक विधवा स्त्री को समाज में हर समय- हर घड़ी परीक्षा देनी पड़ती है। वह हमेशा नैतिक, शारीरिक और मानसिक दबाव से गुजरती रहती है। मीरा का समय आज से हजार वर्ष पहले का है। आज जब 21वीं सदी में स्त्रियाँ पर्दा से मुक्त नहीं हो पाई है तब मीराबाई के समय का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। मीराबाई लिखती हैं-
इन पदों में आप भक्ति ढूँढते रहिए लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि मीराबाई का पूरा काव्य आत्मकथात्मक है। मीरा लिखती हैं उनका सावरिया एक ऐसे देश चला गया है जहाँ से लौटना संभव नहीं है। वे लिखती हैं उसके जाने से सभी आभूषण छोड़ दिया सिर के बाल भी मुड़ा दिए गए। लेकिन उसका कोई पत्र तक नहीं आया। शादी के समय के सारे परिधान को त्यागकर मीरा जोगियों का वेश धारण कर चारों दिशाओं में भ्रमण करने निकल जाती हैं। इस प्रकार पति की मृत्यु के बाद मीरा का वास्तविक संघर्ष शुरू होता है। मीरा लिखती हैं अब उसके बिना जीवन और जन्म के प्रति कोई इच्छा और उत्साह नहीं बचा। मीरा जिस विधवा स्त्री के जीवन को जी रही थीं वैसे में उत्साह कहाँ से लाया जा सकता है! मीरा लिखती हैं-
भारतीय समाज की विडंबना रही है कि यहाँ सती जैसी कुप्रथा, जौहर प्रथा आदि मौजूद रही है जो स्त्रियों को जिन्दा जला देने की प्रक्रिया है।जब एक कुलवधू उस समय की प्रचलित सती जैसी सामान्य परिपाटी पर चलने से इनकार कर देती है तब यह कल्पना किया जा सकता है कि कैसा कुहराम मचा होगा समाज में घर परिवार में! एक तरफ, मीराबाई स्वंय सती होने से इंकार कर देती हैं तो वहीं दूसरी तरफ उनके कई सौ वर्षों के बाद भी सती जैसी कुप्रथा के खिलाफ आन्दोलन चलाने वाले राजा राम मोहन रॉय अपनी विधवा भाभी को सती होने से नहीं बचा पाते हैं। ऐसे में मीराबाई एक अदम्य्य साहस का परिचय देतीं हैं।किसी भी स्त्री को जिन्दा जला देना अमानवीयता की हद है। मीरा इसके दर्द को अभिव्यक्त करती हुई कहती हैं -
मीराबाई का समय सतीप्रथा का समय है। धार्मिक आडंबर ओढ़े पितृसत्ता आधारित समाज में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी। जब स्त्रियाँ पति की चिता पर जबरजस्ती बाँध दी जाती थीं वैसे समय में मीरा का सती होने से इनकार सामंती समाज के बनाये ढाँचे को खुली चुनौती देना था। अरविन्द सिंह तेजावत लिखते हैं-“तत्कालीन मेवाड़ की धार्मिक स्थिति, सामाजिक मान्यताओं तथा राजनीति का अवलोकन करें तो मीरा का कृष्ण-भक्त होना कुछ आश्चर्यजनक है। इसे प्रामाणिक तौर पर कहा जा सकता है कि मीरा का कृष्ण-भक्त होना व्यक्तिगत आस्था का परिणाम न होकर सामाजिक, राजनीतिक तथा व्यक्तिगत जरूरत का परिणाम था। मीरा का समय धार्मिक आडंबरों, सामाजिक कुरीतियों तथा राजनीतिक अवसरवादिता का युग था। स्त्रियों की दशा अच्छी न थी। सती प्रथा का आमतौर पर प्रचलन था। राजकीय संग्रहालय, उदयपुर में एक सती स्तंभ मिलता है। यह सती स्तंभ संवत 1471 का है।.. आषाढ़ वदी 14 संवत्, 1471 को नाथीबाई सती हुई जिसका पति कोई राठौड़ राजपूत लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। इस सती का पति चूंकि लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ था अतः उसे वीरसती कहा गया।”[4]
आगे तेजावत यह भी लिखते हैं कि-“राजपूताने के कोने-कोने में ऐसे अनेक सती स्तंभ मिल जाएंगे। इन सती स्तंभों का समय वही समय है, जब मीरां का प्रादुर्भाव हुआ था। कुंवर भोजराज की मृत्यु के बाद मीरा को भी सती होने के लिए प्रेरित किया गया किंतु मीरा ने सती होने से साफ इनकार कर दिया।”[5]
जिस देश में एक स्वतंत्र स्त्री का जीवन कोई मायने नहीं रखता और वह जिन्दा जला दी जाने वाली वस्तु समझी जाती हो उस देश में स्त्रियों की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ कविता और कहानी लिखने से काम नहीं बनने वाला है। सामन्तवादी सोच का सबसे बड़ा शिकार अपने देश में कोई है तो वह स्त्री है।मीरा के पद इसके गवाह हैं -
सामंती समाज में जहाँ अन्य भक्त कवि सामंतों के शोषण के बारे में लिखते तो खूब हैं लेकिन उस शोषण करने वाले का नाम नहीं लेते ऐसे में साहसी मीरा बार-बार ‘राणा’ का नाम लेती हुई कहती हैं -
मीराबाई कहती हैं मुझे मत मारो राणा जी मैं आपका देश आपको सौंप कर महल से उतर रही हूँ। जहाँ उनकी कोई साथी सहेली नहीं है जहाँ अपना कहने को कोई नहीं है। जाहिर सी बात है विद्रोह का रास्ता चुनने वाले के साथ कोई खड़ा नहीं होता। ‘राणा’ विष देते हैं उनको डसने के लिए साँप भेजते है अर्थात् मीरा को सताने का कोई भी प्रयास छोड़ते नहीं हैं। उसके बाद भी मीरा अपने कर्तव्यपथ पर अडिग खड़ी हैं।गोपेश्वर सिंह लिखते हैं- “अपने अंतर में ‘भारी पीर’ लिए दर्द के मारे दर-दर डोलनेवाली इस भाव-प्रवण भक्त कवयित्री के पास वेदना की जो थाती है,वह उसके समकालीनों में किसी के पास नहीं। अपूर्व दर्द, अपूर्व साहस और अपूर्व विद्रोह से भरी इस प्रेम-साधिका ने ‘राणा’को चुनौती दी है, वैसी प्रत्यक्ष चुनौती दुर्जनों को शायद ही उस ज़माने में किसी ने दी हो।”[8]
हम कल्पना नहीं कर सकते कि ‘असुर्यपश्या’ वाले इस समाज में जहाँ की स्त्रियाँ सूर्य तक का स्पर्श नहीं कर सकतीं वैसे समाज में मीरा समाज के मानदंडों का विरोध करती हैं। इस संबंध में मैनेजर पांडे यह कथन कि “मीरा का विद्रोह विकल्पहीन व्यवस्था में अपनी स्वतंत्रता के लिए विकल्प की खोज का संघर्ष है। उनको विकल्प की खोज के संकल्प की शक्ति भक्ति से मिली है। यह भक्ति आंदोलन का क्रांतिकारी महत्त्व है। मीरा की कविता में सामंती समाज और संस्कृति की जकड़न से बेचैन स्त्री-स्वर की मुखर अभिव्यक्ति है। उनकी स्वतंत्रता की आकांक्षा जीतनी आध्यात्मिक है,उतनी ही सामाजिक भी। मीरा का जीवन संघर्ष, उनके प्रेम का विद्रोही स्वभाव और उनकी कविता में स्त्री स्वर की सामाजिक सजगता भक्ति आंदोलन की एक बड़ी उपलब्द्धि है।”[9]
यदि हम स्वयं स्त्रियों की अभिव्यक्ति की बात करें तो हम देखते हैं कि एक स्त्री जितना दुःख सहती है उसका दशमांश ही अभिव्यक्त कर पाती है। इस संबंध में ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की यह उक्ति सही ही चरितार्थ होती है कि -‘‘स्त्री के दुःख इतने गंभीर होते हैं कि उसके शब्द उसके दशमांश भी नहीं बता सकते’’ मीरा ने जितनी पीड़ा पाई, विषपान किया अनेक प्रकार की प्रताड़नाएँ झेलीं, उसका एक अंश ही अपनी कविताओं के माध्यम से कह पाईं। ऐसे समय में जब भक्ति का दरवाजा शूद्रों और स्त्रियों के लिए कभी खुला ही नहीं था उसे खटखटाकर भक्ति मार्ग में प्रवेश करना कत्तई आसान नहीं रहा होगा। ऐसे समाज में साधुओं के बीच भी मीरा की स्वीकारोक्ति कहाँ आसान थी। गोपेश्वर सिंह लिखते हैं-“इन सभी विघ्न-बाधाओं को पार करते हुए लोकापवाद का विष पीते हुए मीरा जब घर से निकल गयीं, भक्त हो गयीं, तब उनका संघर्ष भक्ति-क्षेत्र में फैली उस पुरुष-दृष्टि से शुरू हुआ, जिसकी नजर में नारी माया थी, मात्र माया। कंचन और कामिनी से बचने की सलाह भक्तगण भी दिया करते थे। साधु-संतों के बीच प्रवेश को लेकर स्वयं उनके बीच मीरा के प्रति जो उपेक्षा-भाव रहा होगा, उसका अनुमान भर किया जा सकता है। जहाँ कोई भी नारी माया थी, वहाँ यौवन, रूप और वैधव्य, तीनों की एकाकार प्रतिमा मीरा के साथ क्या सलूक होता होगा?”[10]
प्रो. गोपेश्वर सिंह की बात का समर्थन मीरा का यह पद करता है जिसमें वह कहती हैं- ‘साधू संग बैठी-बैठी लोक-लाज कोई’ कहने का तात्पर्य यह है कि औरों की बात तो छोड़ दीजिये साधुओं के साथ बैठने पर भी लोकलाज खोने का डर है।लेकिन मीरा इस सामंती समाज के सामने घुटने नहीं टेकती, वह रुकती नहीं, ठहरती नहीं बल्कि ललकारती हुई कहती हैं -
मीरा पैरों में घुंघुरू बाँधकर सबको बता रही हैं कि अब स्त्रियों को बहुत दिनों तक गुलाम नहीं बनाया जा सकता। जाहिर सी बात है व्यवस्था से विद्रोह करने वाली विद्रोहिणी तो कुलनासी घोषित कर ही दी जायेगी। जो स्त्री व्यवस्था से विद्रोह करती है पहला हमला उसके चरित्र पर होता है।
इस समाज में एक स्त्री की स्वीकारोक्ति तभी तक है जब तक समाज द्वारा निर्मित मानदण्ड को स्वीकारती है तथा उसके बताये रास्ते पर ही चलती है। भले ही वह रास्ता उसके शोषण से होकर गुजरता हो। जैसे ही वह अपने हक़-हुकुम की बात करेगी यह समाज उसे ताना मारना शुरू कर देगा, उसका मजाक उड़ायेगा। स्त्रियों के हक़ की बात मीरा भी करने निकली थीं, सावित्रीबाई फुले भी निकली थी यह समाज भला कैसे स्वीकार करता। हमला तो होना ही था। मीरा कुलनासी घोषित कर दी गयीं। अगर वह सती हो जातीं तब कहीं सती मैया का चौरा बना दिया जाता और सभी स्त्रियों को उनके कदम पर चलने की सीख दी जाती। लेकिन कुलनासी मीरा को यह स्वीकार नहीं था कि किसी स्त्री को जिंदा जला दिया जाय। इस लिए वह तमाम हमलों को सहते हुए भी डंटकर खड़ी हैं।
बहुत अच्छा डॉक्टर घनश्याम कुशवाहा जी, लेकिन इस पूरे आर्टिकल में संत रैदास जी से दूरी बनाकर रखी।
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