शोध आलेख : ट्रैजिक विज़न की संकल्‍पना और ‘पद्मावत’ / शशि मुदीराज

ट्रैजिक विज़न की संकल्पना औरपद्मावत
- शशि मुदीराज


            ट्रैजिक विज़न की संकल्‍पना प्रसिद्ध समालोचक लूसिएं गोल्‍डमान ने अपने बहुविवेचित वर्ल्‍डविज़न या विश्‍वदृष्‍टि के संदर्भ में दी और इसके सैद्धांतिक तथा तकनीकी आधार का विवेचन करते हुए उन्‍होंने एक ऐसी दृष्‍टि और प्रविधि का विकास किया जिसके द्वारा श्रेष्‍ठ रचनाओं के स्‍थायित्‍व के रहस्‍य का विश्‍लेषण किया जा सकता है। इस विश्‍वदृष्‍टि की अवधारणा को एक औजार के रूप में प्रयोग करते हुए गोल्‍डमान ने पिछली सदी में उठाए गए इस महत्‍वपूर्ण प्रश्‍न का उत्‍तर देने की चेष्‍टा की, कि क्‍यों कुछ रचनाऍं दस्‍तावेज या डाक्‍यूमेंट बनकर रह जाती हैं, जबकि कुछ रचनाऍं स्‍मारक या मान्‍युमेंट की कोटि को पहुँच जाती हैं। रचना, रचनाकार और आस्‍वादक दोनों पक्षों की ओर से अपने समय और परिवेश से जुड़ी रहती है। यही नहीं, रचना की विषयवस्‍तु और शिल्‍प को निर्धारित करने में भी सामाजिक तन्‍त्र ही उत्‍तरदायी होता है। ऐसी स्‍थिति में मूल्‍यांकन का प्रतिमान क्‍या हो, रचनाओं की सामाजिक संस्‍थिति और प्रतिबद्धता की पड़ताल की प्रविधि क्‍या हो और रचना के संदर्भ में उठाए गए वस्‍तुगत प्रश्‍नों का क्‍या उत्‍तर दिया जाए? लूसिएं गोल्‍डमान ने जॉर्ज लुकाच की समग्रता या टोटेलिटी की अवधारणा का उपयोग करते हुए कालजयी रचनाओं की प्रक्रिया की छानबीन की और इस निष्‍कर्ष पर पहुँचे कि – ‘’हर महान रचना या कलाकृति एक प्रकार की विश्‍वदृष्‍टि की अभिव्‍यक्‍ति होती है। यह दृष्‍टि एक समवेत समूह-चेतना की उपज है जो कवि या चिंतक के मानस में अपनी चरम अभिव्‍यक्‍ति को पहुँच जाती है।‘’1

17वीं-18वीं सदी के फ्रेंच ट्रेजडीज़ के संदर्भ में इस वर्ल्‍ड विज़न को ‘ट्रैजिक विज़न’ के रूप में व्‍याख्‍यायित करते हुए गोल्‍डमान ने रचना की कालांकितता और कालातीतता के द्वैत की समीक्षा प्रस्‍तुत की। भारतीय संदर्भ में भक्‍ति-साहित्‍य अपनी अपार ऊर्जस्‍विता और उदात्‍त भूमि के कारण समीक्षकों के विस्‍मय के साथ उनकी चिंता का भी विषय बना है। इस साहित्‍य की केंद्रीय विशेषता है लौकिक यथार्थ के मार्मिक चित्रण के साथ उसके अतिक्रमण का उदात्‍त प्रयास, जिसके क्रम में इसके केंद्रीय वक्‍तव्‍य और मूल्‍य की सृष्‍टि होती है और वह है – प्रेम। यह प्रेम विरहमूलक है, इसकी परिणति ट्रैजिक है चाहे वह मीरा, राधा, गोपी, कृष्‍ण आदि का सगुण रूपात्‍मक प्रेम हो या कबीर, जायसी आदि का निर्गुणमय प्रेम हो। यहॉं तक कि राम और सीता जैसे दाम्‍पत्‍यक्रम में बंधे पात्रों को भी वनवास और निर्वासन की संघर्ष-कथा से गुज़र कर ही अपने प्रेम को सिद्ध करना पड़ता है। गोल्‍डमान के इस ट्रैजिक विज़न की संकल्‍पना का सतर्क प्रयोग, इस कालजयी साहित्‍य और इसके चरम मूल्‍य की सिद्धि के साथ इसकी लौकिकता के संधान में उपयोगी हो सकता है। विस्‍तार-भय से इस अध्‍ययन का क्षेत्र जायसी रचित ‘पद्मावत’ काव्‍य तक ही सीमित रखा गया है।

जायसी ने एक ऐसी कथा उठाई जो लोकमानस में बँधी, कुछ इतिहास से समर्थित और कुछ परम्‍परा से पुष्‍ट वृत्‍त थी, स्‍पष्‍ट है कि ‘’हिंदू घरों की इन प्रेम-कहानियों’’ को चुनने में एक विशाल जनसमाज को आंदोलित कर सकने की आकांक्षा काम कर रही थी। यही नहीं, जायसी ने महाकाव्‍य के रूप में एक ऐसा काव्‍यरूप उठाया जो लोकहृदय को छूने और युगजीवन का प्रतिनिधित्‍व करने की सर्वाधिक क्षमता रखता है। वस्‍तु और रूप दोनों ही स्‍तरों पर अपने चयन में जायसी एक विशाल पाठक-समूह को आंदोलित करने, ‘प्रेम की पीर’ से उसे विचलित करने और ‘पण्‍डितों की विराट सेना का अनुकरण करते’ चलने की एषणा से परिचालित हैं। स्‍पष्‍ट है कि मात्र सूफी मत का प्रचार या उसकी चर्चा जायसी का अभीष्‍ट नहीं है बल्‍कि वे संप्रेषण के प्रतिमानों और अपने काव्‍य के आस्‍वाद में एक ‘सामूहिक भागीदारी’ की अपेक्षा से उतने ही प्रेरित हैं जितने कि भक्‍तिकाल के अन्‍य कविगण थे। जायसी का तीव्र और संवेदनशील जीवनबोध अपने काव्‍य के आरंभ में ईश्‍वर-स्‍तुति की औपचारिकता और आवश्‍यकता का निर्वहण करते हुए ईश्‍वरीय सृष्‍टि के ऐश्‍वर्य का विस्‍तृत और मुग्‍ध वर्णन करते हुए उन असंगतियों को भी रेखांकित करता है जो इस सृष्‍टि में विद्यमान है –

कीन्‍हेसि राजा भजहि राजू।
कीन्‍हेसि हस्‍ति घोर तिन्‍ह साजू।।
            कीन्‍हेसि तिन्‍ह कँह बहुत बेरासू।
            कीन्‍हेसि कोई ठाकुर कोई दासू।।
कीन्‍हेसि दरब गरब जेहि होइ।
कीन्‍हेसि लोभ अघाइ न कोई।
            कीन्‍हेसि जिबन, सदा सब वहा।
            कीन्‍हेसि मीचु, न कोई रहा।।
कीन्‍हेसि सुख और क्रीड़ अनन्‍दू।
कीन्‍हेसि दु:ख चिन्‍ता खो दन्‍दू।।
            कीन्‍हेसि कोइ भिखारी कोइ धनी।
            कीन्‍हेसि सम्‍पति विपति पुनि घनी।।
कीन्‍हेसि कोइ निभरोसी, कीन्‍हेसि कोइ वरिआर।
छार हुते सब कीन्‍हेसि, पुनि कीन्‍हेसि सब छार।। 2


यह वह सृष्‍टि है जो ईश्‍वर ने रची और यह वह मानवीय संसार है जो जायसी को प्रदत्‍त स्‍थिति के रूप में मिला था। इस मानवीय संसार की अंतर्विरोधात्‍मक प्रकृति इन पंक्‍तियों में स्‍पष्‍ट है। इसमें राजा है तो रंक भी है, असमाप्‍त सुख-विलास है तो अनन्‍त दरिद्रता और तज्‍जन्‍य असहायता भी है। ‘असंगति’ का यह बोध ही ट्रैजेडी का मूल भाव है। जैसा कि गोल्‍डमान लुकाच को उद्धृत करते हैं कि ‘’ट्रैजेडी एक क्रीड़ा है .... एक ऐसी क्रीड़ा जिसका दर्शक है ईश्‍वर। वह एक दर्शक से अधिक कुछ नहीं है, और वह कभी हस्‍तक्षेप नहीं करता, न अपने शब्‍दों से और न ही अपने कर्म से ....’’3

यह एक तथ्‍य है कि ट्रैजिक विज़न के सभी रूपों में एक तत्‍व सामान्‍यत: पाया जाता है कि उनमें मनुष्‍य तथा उसके सामाजिक और आध्‍यात्‍मिक संसारों के बीच संबंध की चरम संकटावस्‍था व्‍यक्‍त होती है। स्‍वभावत: यह चरमावस्‍था उस विसंगति की उपज है जो मनुष्‍य मानवीय संसार और आध्‍यात्‍मिक मूल्‍यों के बीच से उत्‍पन्‍न है। इस विसंगति को ठोस वस्‍तुगत आधार देने के लिए ही जायसी ने फारसी मसनवी काव्‍यों के ‘एकांतिक लोकबाह्य और आदर्शात्‍मक’ (शुक्‍लजी) से हटकर ‘’संसार की वास्‍तविक परिस्‍थितियों’’ के बीच संघर्ष से विकसित प्रेम-दर्शन का निरूपण किया है। यह प्रेम अनिवार्यत: ट्रैजिक है, यह वह चरम मूल्‍य है जिसकी प्राप्‍ति के लिए सिर की कीमत देनी पड़ती है। जैसाकि अपने काव्‍य के आरंभ में ही जायसी ने स्‍पष्‍ट कर दिया है :  

मुहमद कवि जो प्रेम का, ना तन रक्‍त न मांसु।
जेहं मुख देखा तेई हंसा, सुना तो आए आंसु।। 4

            

            ट्रेजेडी के रचनाकार की ही नहीं ट्रेजेडी के नायक की भी यही नियति है क्‍योंकि रचनाकार और रचना दोनों एक ऐसे संसार में चरम मूल्‍य की खोज के लिए प्रयत्‍नशील हैं जो कहीं से उनके लिए कोई अनुकूलता उपस्‍थित नहीं करता। यहॉं फिर गोल्‍डमान का कथन याद आता है कि ‘’दु:खांतिक मनुष्‍य की दो अनिवार्य विशेषताऍं हैं जिन पर ध्‍यान दिया जाना आवश्‍यक है यदि हम उसे एक सुसंगत मानवीय वास्‍तिवकता के रूप में देखना चाहें, पहला यह कि वह असंभव और अप्राप्‍य मूल्‍यों के लिए परम और ऐकांतिक संघर्ष करता है, और दूसरा, इसके परिणामस्‍वरूप वह उन मूल्‍यों को (या अपने लक्ष्‍य को) या तो समग्र रूप में पाने की ज़िद करता है या नहीं कुछ पाने की स्‍थिति में रहता है।‘’5 अर्थात् समझौता, कुछ कम या कुछ ज्‍यादा का महाजनी मोलभाव न तो उस नायक की प्रकृति हो सकती है और न ही उस रचनाकार की। इस दिशा में जायसी का एक और साहस ध्‍यातव्‍य है। उन्‍होंने एकांतिक, लोक-बाह्य प्रसंगों में अपने पूर्व निर्धारित सूफ़ी प्रेम-दर्शन की व्‍यंजना के उद्देश्‍य को सिद्ध ही नहीं किया बल्‍कि लोक-जीवन के द्वंद्वों में इसकी साधना भी की। यही कारण है कि ‘पद्मावत’ एक अभूतपूर्व ट्रेजेडी बन पड़ा है और यह ट्रेजेडी सूफ़ी प्रेम-दर्शन से कहीं अधिक उस समय की विसंगति से निष्‍पन्‍न है जिसमें जायसी ने अपने जीवनानुभव प्राप्‍त किये थे। संक्षेप में कहा जा सकता है कि युद्धों, षड्यंत्रों और राजनीतिक दुरभिसंधियों से परिचालित उस समय की राजनीतिक व्‍यवस्‍था में रूढ़ मूल्‍यों और बद्धमूल संस्‍कारों की धुरियों पर चलती उस धार्मिक-सामाजिक मानसिकता में एक ही मूल्‍य चरम पर पहुँचा दिखाई देता है और वह चरम मूल्‍य है – अधिकार-लिप्‍सा। अधिकार – चाहे वह धरती पर हो, या धरती के वैभव पर, या स्‍त्री पर – इनमें कोई अंतर नहीं है। अधिकार-लिप्‍सा का यह ताण्‍डव इतना प्रलयंकारी है कि ‘पद्मावत’ के प्रथमार्ध में सभी लौकिक और दर्शन की परिभाषिक बाधाओं व स्‍थितियों को पार कर चरम मूल्‍य पद्मावती को पाने में सफल रत्‍नसेन को ‘पद्मावत’ के उत्‍तरार्ध में विशुद्ध भौतिक द्वंद्व के स्‍तर पर खो देना पड़ता है, उससे वियुक्‍त होना पड़ता है, और फिर ‘प्राप्‍ति’ होती भी है तो कब जब भौतिक जीवन की सीमाओं का अतिक्रमण होता है। रत्‍नसेन और अलाउद्दीन दोनों की अधिकार-लिप्‍सा का अंत निस्‍सारता के एक ही बिंदु पर जायसी करते हैं –

छार उठाइ लीन्‍हि एक मूंठी।
दीन्‍हि उड़ाइ पिरिथिमी झूठी।। 6


यह परिणति है, यह निष्‍कर्ष है और इसकी तुलना में आरंभ के वे सारे अंश रखकर देखे जाएं जहॉं जायसी ‘शाहेवक्‍त’ की प्रशस्‍ति की परंपरा में शेरशाह सूरी के बल-वैभव, आतंक और उसके न्‍याय-विवेक और दंड़-व्‍यवस्‍था का वर्णन करते हैं। सामंती व्‍यवस्‍था में न्‍याय, नैतिकता और व्‍यवस्‍था का उत्‍तरदायी राजा ही होता है, उसकी इच्‍छा ही कानून है, जायसी इससे अनवगत नहीं है, लेकिन ‘ईश्‍वरीय न्‍याय’ और रचनाशीलता का अपना ट्रैजिक न्‍याय और निर्णय है जिसके आगे यह सब कुछ अर्थहीन हो जाता है। जायसी जिस सामाजिक-सांस्‍कृतिक और आर्थिक व्‍यवस्‍था का चित्रण कर रहे हैं वह सामंती है। इस सामंती व्‍यवस्‍था के दो स्‍तर हैं – हिन्‍दू और इस्‍लामी  - किन्‍तु गहराई में देखा जाए तो प्रवृत्‍ति और मूल्‍यों की  दृष्‍टि से दोनों में कोई अंतर नहीं है। अधिकार-लिप्‍सा दोनों ही की केंद्रीय धुरी है। इस स्‍वामित्‍व और अधिकार के आगे रत्‍नसेन और अलाउद्दीन दोनों एक ही मानसिकता से चालित होते हैं। इस लिप्‍सा के मूल में है – लोभ। पद्मिनी के रूप का वर्णन सुनकर रत्‍नसेन जिस लोभ से परिचालित हुआ था और अलाउद्दीन में जो लोभ जागा था दोनों में कोई तात्‍विक अंतर नहीं है। वस्‍तुपरक और मनोवैज्ञानिक बारीकी से छानबीन करते हुए रामचंद्र शुक्‍ल इस निष्‍कर्ष पर पहुँचे हैं कि – ‘’यदि इस अनौचित्‍य का विचार छोड़ दें तो रूप-वर्णन सुनते ही तत्‍काल दोनों के हृदय में जो चाह उत्‍पन्‍न हुई वह एक दूसरे से भिन्‍न नहीं जान पड़ती।‘’ इस निष्‍कर्ष पर पहुँचने से पूर्व शुक्‍लजी ने लोभ और प्रेम में अंतर स्‍पष्‍ट करने में लगभग दो पृष्‍ठ खर्च किए हैं, वह इसलिए कि राजा रत्‍नसेन के हृदय में उत्‍पन्‍न रूप-लोभ, जो प्रकारांतर से प्रेम में परिणत होता है, के साथ वे न्‍याय करना चाहते थे, फिर भी शुक्‍ल जी यह बताने से नहीं चूकते कि ‘कोई वस्‍तु बहुत बढ़िया है, जैसे वह सुनकर हमें उसका लोभ हो जाता है, वैसे ही कोई व्‍यक्‍ति बहुत सुंदर है, इतना सुनते ही उसकी जो चाह उत्‍पन्‍न हो जाती है, वह साधारण लोभ से भिन्‍न नहीं कही जा सकती .... सुंदर स्‍त्री कोई बहुमूल्‍य पत्‍थर नहीं कि अच्‍छा सुना और लेने के लिए दौड़ पड़े। इस प्रकार का दौड़ना रूप-लोभ ही कहा जाएगा, प्रेम नहीं।‘’ किन्‍तु जायसी स्‍वयं भी रत्‍नसेन की लोभ-वृत्‍ति को छिपाना नहीं चाहते। गर्व, मद और लोभ तो सामंती नायक की प्रवृत्‍ति है जो रत्‍नसेन के उदात्‍तीकृत चरित्र में भी स्‍पष्‍ट दिखाई देती है। पद्मिनी से विवाह कर प्रचुर धन-संपत्‍ति लेकर रत्‍नसेन जब सिंहलद्वीप से विदा लेता है तो इतना सब कुछ देखकर उसके मन में गर्व जागता है कि -

देखि गवन राजा गरवाना।
दिस्‍टि गांह कोई और न आना।।
जों मैं होव समुद के पारा।
को मोरि जोरि जगत संसारा।।7


इस गर्व से उत्‍पन्‍न दर्प, लोभ और अहंकार इतने विनाशकारी हैं कि जब समुद्र याचक बन कर आ खड़ा होता है तो रत्‍नसेन दान नहीं करता। स्‍वामित्‍व की यह भावना इतनी सर्वग्रासिनी है कि इसके आगे धन-द्रव्‍य और स्‍त्री सब वस्‍तु की कोटि में ही हैं। रत्‍नसेन की पत्‍नी है नागमती, अतुल रूपवती और गुणवती, किन्‍तु केवल रूप और गुण का होना ही पुरुष को बांध रखने के लिए काफी नहीं है। यह कटु यथार्थ नागमती के आगे तब उजागर होता है जब वह हीरामन सुआ के मुह से पद्मावत का रूप-वर्णन सुन कर उसे मरवाने की आज्ञा देती है और बदले में राजा रत्‍नसेन से उसे जो प्रतारणा मिलती है उसकी प्रतिक्रिया नागमती की व्‍यथा में देखिए –

एतिनिक दोस विरचि पिउ रूठा।
जो पिउ आपन कहे से झूठा।।8


इतने ही मेरे दोष से प्रिय जो रूठ गया ऐसे प्रिय को अपना समझना कैसी छलना है। आये देखिए – ‘मिल मह जलु अहहु किनारे’। पति-पत्‍नी के एकनिष्‍ठ प्रेम की यह कैसी विडंबना है। रानी बार-बार पश्‍चात्‍ताप करती है और कहती है –

‘’का रानी का चेरी कोई।
जा कह मया करहु भलि सोई।।‘’


पति-पत्‍नी के संबंध की यह दरार और दोनों के एकनिष्‍ठ प्रेम की इस गहरी फांक को व्‍यंजित करना भले ही जायसी का उद्देश्‍य और सचेत प्रयास न रहा हो, लेकिन यह सचाई बराबर क्रियाशील रहती है कि रचना रचनाकार की प्रतिभा, ज्ञान और संवेदना का ही चुनाव नहीं होती, वह उन सभी प्रेरक और सक्रिय शक्‍तियों का प्रतिफल होती है जो रचनाकार के जीवनानुभव का रूपायन करती हैं। इसके लिए गोल्‍डमान ने ‘’मानसिक संरचनाऍं और परावैयक्‍तिक विषय’’ शब्‍द का प्रयोग किया है। इसलिए इन पंक्‍तियों की सूफ़ी दार्शनिक व्‍याख्‍या अलग है और इन पंक्‍तियों की पृष्‍ठभूमि के रूप में क्रियान्‍वित वस्‍तुगत संदर्भ कुछ और ही छवि प्रस्‍तुत करता है। सामंती व्‍यवस्‍था में एकनिष्‍ठता और सतीत्‍व स्‍त्रियों के लिए आरक्षित मूल्‍य है। पुरुष के आचरण के प्रतिमान अलग हैं। पद्मावती और नागमती के आपसी कलह का निर्णय करते हुए रत्‍नसेन समझाता है –

‘’जूझव छांडहु, बूझहु दोऊ।
सेब करहु सेवा फल होऊ।।‘’ 9


इसकी रोचक व्‍याख्‍या शुक्‍ल जी ने दी है – ‘’जिस प्रकार करोड़ों मनुष्‍यों का उपास्‍य एक ईश्‍वर होता है उसी प्रकार कई स्‍त्रियों का उपास्‍य एक पुरुष हो सकता है।‘’ आगे वे लिखते हैं – ‘’पुरुष की यह विशेषता उसकी सफलता और उक्‍त स्‍थिति की भावना के कारण है जो बहुत प्राचीनकाल से बद्धमूल है।‘’ इसीलिए आकस्‍मिक नहीं कि नागमती के वियोग-वर्णन को इस महाकाव्‍य में परिपूर्ण विस्‍तार दिया गया है। लोकहृदय में जायसी की पैठ और मानवीय हृदय की गहरी पहचान – ये ही दो संदर्भ हैं जिनके कारण जायसी ने सामंती संबंधों के जटिल तंत्र को अधिकाधिक मार्मिक और विश्‍वसनीय बनाया। नागमती के वियोग-वर्णन की जिस समग्र मानवीय गुणवत्‍ता का विवेचन शुक्‍ल जी ने प्रस्‍तुत किया, उसके मूल में जायसी का यही ट्रैजिक विज़न क्रियाशील है। इसकी मार्मिक परिणति है –

तगिउं जरै, जरै जस भारूं।
फिरि फिरि भूंजेसि, तजिएं न बारू।। 10


भाड़ की तपती बालू के बीच पड़ा हुआ अनाज का दाना जल-भुन कर उछलता तो है लेकिन वह जाएगा कहॉं? उसकी नियति तो भाड़ में भूने जाने की ही है। क्‍या यह पंक्‍ति सामंती व्‍यवस्‍था में स्‍त्री की दशा को व्‍यंजित करने में समर्थ नहीं है? और क्‍या अपनी व्‍याप्‍ति में यह पंक्‍ति उस व्‍यवस्‍था में मनुष्‍य मात्र की स्‍थिति को व्‍यंजित नहीं करती? लोभ, मोह, स्‍पर्धा और अहंकार के चक्रों पर चलती इस व्‍यवस्‍था में ईर्ष्‍या तो मनुष्‍य मात्र का स्‍वाभाविक धर्म है। यह स्‍त्री मात्र की प्रवृत्‍ति नहीं, पुरुष में तो यह और अधिक बद्धमूल दिखाई देती है। सिंहलद्वीप जैसे अलौकिक परिवेश में भी इस ईर्ष्‍या तत्‍व का प्रवेश है। पद्मावती के यौवनागम के बाद उसके विवाह के विषय से उदासीन रहने वाला पिता गंधर्वसेन इस दिशा में तोते के प्रयास की बात जानकर ईर्ष्‍या और क्रोध से भरकर तोते का काल बन जाता है। ‘पद्मावत’ का सारा तंत्र इस ईर्ष्‍या, स्‍पर्धा और उसके सहयोगी अहंकार आदि प्रवृत्‍तियों से बुना गया है। रत्‍नसेन, नागमती और पद्मावती का यह त्रिकोण दार्शनिक शब्‍दावली में जीव, जगत और चरम मूल्‍य ईश्‍वर की ही त्रयी नहीं है, बल्‍कि उस समय के सामाजिक संबंधों का जीवंत प्रतिबिंब भी है।

‘पद्मावत’ के पूर्वार्द्ध और उत्‍तरार्द्ध के बीच के द्वंद्व और दरार को इतिहास और मिथक, यथार्थ और फेण्‍टेसी आदि अनेक रूपों में व्‍याख्‍यायित करने की चेष्‍टाऍं की गई हैं। वास्‍तव में यह उस भक्‍तिकालीन विश्‍व-दृष्‍टि और ट्रेजिक विज़न की साधना और प्राप्‍ति का संघर्ष है जिसमें अध्‍यात्‍म और मिथक के कुहासे को चीर कर जीवन-यथार्थ अपनी पूरी प्रखरता में व्‍यक्‍त हुआ है। ट्रेजेडी का प्राय: समापन होता है मृत्‍यु में। ‘पद्मावत’ का अंत भी तीनों मानवीय सत्‍ताओं का अंत है। ‘पद्मावत’ के अंत की पंक्‍तियॉं  देखिए –

‘’कहॉं सो रतनसेनि अब राजा कहां सुवा असि बुधि उपराजा।।‘’
कहां अलाउद्दीन सुलतानू कहं राघव जेइ कीन्‍ह बखानू।।
कहं सुरूप पद्मावति रानी कोई न रहा जग रही कहानी।।11


यह कहानी ही इसकी चरम उपलब्‍धि है और इसकी संप्राप्‍ति है इस कहानी से निसृत मूल्‍य। इस मूल्‍य की प्राप्‍ति के संघर्ष में अपने वैयक्‍तिक वैशिष्‍ट्य को रेखांकित करते हुए जायसी लिखते हैं –

केइ न जग  जस बँचा, केइ न लीन्‍ह जस मोल।
जो यह पढै कहानी, हम्‍ह संवरै दुह बोल।।12


संदर्भ :

1.         “…. Any great literary or artistic work is the expression of a world vision. This vision is the product of a collective group consciousness which reaches its highest expression in the mind of a poet or a thinker.” – ‘The Hidden God’, Lucien Goldmann, (English Translation : Edition 1977), P. 19, Routledge & Keganpaul Ltd., London. 
2.         जायसी ग्रंथावली, (सं. रामचंद्र शुक्‍ल – चतुर्थ संस्‍करण), ‘पद्मावत’, पृ. 2
3.         “Tragedy is a game, a game of man and of his destiny, a game which is watched by God. But God is nothing more than a spectator, and he never intervenes, either by word or deeds.” – George Lukacs, ‘The Metaphysics of Tragedy’, Ed. 1908, ‘The Hidden God’
4.         जायसी ग्रंथावली, (सं. रामचंद्र शुक्‍ल – चतुर्थ संस्‍करण), पद्मावत, पृ. 9
5.         “There are two essential characteristics of tragic man which should be noted if we are to see him as a coherent human reality : the first is that he makes this absolute and exclusive demand for impossible values; and the second is that, as a result of this, his demand is for ‘all or nothing’ …. ‘The Hidden God’, Lucien Goldmann, (English Translation : Edition 1977), P. 63, Routledge & Keganpaul Ltd., London. 
6.         जायसी ग्रंथावली, (सं. रामचंद्र शुक्‍ल – चतुर्थ संस्‍करण), पद्मावत, पृ. 300
7.         वही, पृ. 171
8.         वही, पृ. 36
9.         वही, पृ. 197
10.       वही, पृ. 156
11.       वही, पृ. 301
12.       वही, पृ. 302 


शशि मुदीराज
सेवानिवृत्‍त प्रोफेसर , हिंदी विभाग, हैदराबाद केंद्रीय विश्‍वविद्यालय, हैदराबाद-500046.
shashi1948mudiraj@gmail.com +91 8897927936 +91 9391092053
 
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

2 टिप्पणियाँ

  1. मैडम आपका बोला हुआ और लिखा हुआ हम सबका मार्गदर्शन करता रहा है | आज भी इस आलेख से शोध-दृष्टि की अनिवार्यता को चार चाँद मिल गए हैं | आपका विशेष आभार |

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  2. पद्मावत पर गोल्डमान की विश्व दृष्टि की अवधारणा का प्रभावी विश्लेषण। साहित्य के समाजशास्त्रियों हेतु उत्प्रेरक!

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