शोध आलेख : भक्ति कविता की पहचान पर पुनर्विचार / प्रो. माधव हाड़ा

भक्ति कविता की पहचान पर पुनर्विचार
प्रो. माधव हाड़ा


            ये विषय ऐसा है जिसके संबंध में हम अध्यापकों, शोधार्थियों, विद्यार्थियों को बहुत आरंभिक कक्षाओं से ही जानकारी प्राप्त होना शुरू हो जाता है। भक्ति आंदोलन के बारे में हम बहुत आरंभिक कक्षाओं से जानना शुरू कर देते हैं। थोड़ा-बहुत। उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन के संबंध में विडंबना ये है कि उसकी जो पहचान है, जैसा कि अभी अजीत ने कहा वो थोड़ी आधी-अधूरी और अपर्याप्त पहचान है। विडंबना यह है कि इतने समय बाद भी उस पर पुनर्विचार की, या उसके पहचान पर पुनर्विचार की कोई बड़ी पहल यूँ जिसे समेकित पहल कहते हैं वह अभी तक नहीं हुई है। वैसे तो लोगों ने अलग-अलग कवियों अलग-अलग संतों और अलग-अलग भक्तों पर ख़ूब लिखा है। उनकी वैयक्तिक पहचानों पर पुनर्विचार का प्रस्ताव या आग्रह किया है। किन्तु इससे भक्ति आंदोलन की एक समेकित पहचान बने, ऐसा कोई प्रयास अभी तक देखने में नहीं आया।

            मुझे लगता है कि ये पहचान मुख्यतः आरंभिक पहचान है यद्यपि वो पहचान अब नहीं है फिर भी भक्ति आंदोलन की जो पहचान हमारे सामने है वह उपनिवेश काल में बनी। हमारे सभी सांस्कृतिक और साहित्यिक रूपों की पहचान कमोबेश उपनिवेश काल में ही बनी। आरंभिक अध्येता जो थे सारे के सारे उपनिवेशकालीन, यूरोपीय विद्वान थे और उन्होंने इसकी एक छवि तैयार की। कभी-कभी लगता है उन्होंने बहुत मनोयोग और निष्ठा से यह काम किया। ख़ासतौर पर जैसे गिलक्राइस्ट, थॉमस कोलब्रुक, जार्ज ग्रियर्सन, गार्सा तासी साथ ही राजस्थान में दो विद्वान काम कर रहे थे लेफ्टिनेंट कर्नल टॉड, टेस्सीटोरी। इसी तरह भारत के विभिन्न भू-भागों में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत से अधिकारी अपनी रूचि से बहुत सारे काम कर रहे थे जबकि उनका ये पेशा या व्यवसाय भी नहीं था। किन्तु अब उनकी बनायी पहचान और मूल्यों पर आपत्ति की जानी चाहिए। उनकी निष्ठा और मंशा पर मुझे कोई संदेह नहीं है लेकिन उनकी दृष्टि में एक तो संस्कार, दूसरा एक औपनिवेशिक साम्राज्यवादी स्वार्थ कहीं कहीं अंतनिर्हित है। इस बात को लेकर आजकल विद्वानों में विऔपनिवेशीकरण की चर्चा बहुत है। तो हम हिन्दी वालों को भी भक्ति आंदोलन की जो पहचान उपनिवेशकाल के दौरान बनी, उस पर तार्किक बहस अवश्य करनी चाहिए। जार्ज ग्रियर्सन की कुछ स्थापनाओं पर बाद में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आपत्ति की थीं। इस प्रकार किन्हीं साहित्यिक स्थापनाओं को देखें तो धीरे-धीरे कुछ चीज़ें बदली हैं। लेकिन अभी भी बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जिन्हें बदलने की ज़रूरत है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि औपनिवेशिक विद्वानों की कुछ धारणाएं बद्धमूल थीं। एक तो वे मानते थे कि भारतीय समाज ठहरा हुआ और गतानुगतिक है। कबीर हों, मीरा हों, जायसी हों या तुलसी हों या अन्य कोई भी कवि हो उनके लिये वे भारतीय समाज की गतिशीलता का एक रूप नहीं है। क्योंकि उनके मन और मस्तिष्क में यह छवि बनी हुई है कि भारतीय समाज ठहरा हुआ और गतानुगतिक है। यदि कबीर हैं तो हाशिये का स्वर है, मीरा हैं तो हाशिये का स्वर हैं। इसी तरह यदि कोई मुख्यधारा से अलग काम कर रहा है, कुछ भिन्न होकर अपने स्वर को मुखर कर रहा है तो ये मानकर चल रहे हैं कि ये समाज के हाशिये का स्वर हैं। ये समाज का केंद्रीय और मुख्य स्वर नहीं है।

            ये धारणा बद्धमूल औपनिवेशिक विद्वानों में थी। जैसे लेफ्टिनेंट जेम्स टॉट मीरा की छवि बनाते हैं जो कमोबेश वैसी ही है। कबीर की जो छवि बनती है यही है, तुलसी की जो छवि बनती है, ऐसी ही है।क्योंकि भारतीय समाज को देखने का यह नज़रिया उनके स्वभाव और परंपरा में शामिल था। समाज का जो असाधारण है, अद्भुत है, रहस्य- रोमांस, कौतूहल, अद्भुत इन असाधारण तत्वों को उन्होंने प्राथमिकता दी। समाज के सामान्य स्वरों को उन्होंने प्राथमिकता नहीं दी। भक्ति का विवेचन करते समय, भक्ति की पहचान बनाते समय भी उनकी यही दृष्टि निर्णायक रही थी। इसके लिए उनकी मंशा पर संदेह मत करिये। लेकिन उनकी समझ और संस्कार यूरोपीय थे। वास्तव में कहा जाए तो यूरोप में भारत की छवि कमोबेश आज भी वही है। उसमें कोई बड़ा रद्दोबदल अब तक नहीं हुआ है। जो लोग इस पर विचार करते हैं,वे यह जानते हैं। हमारी जो भारत विद्या है ख़ासकर इंडिक स्टडीज, उसमें बहुत सारे यूरोपीय विद्वान बिना किसी औपनिवेशिक स्वार्थ के काम कर रहे हैं। लेकिन भारतीय समाज को, भारतीय साहित्य को, भारतीय सांस्कृतिक रूपों को देखने का नजरिया और संस्कार उनके वही हैं जो कभी उपनिवेश काल में बने थे। ख़ासतौर पर जार्ज ग्रियर्सन की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। एक तो उन्होंने भाषा वैज्ञानिक अध्ययन किया था और हमारी भाषाओं का अध्ययन एवं वर्गीकरण किया। इस क्रम में उन्होंने बहुत सारे साहित्यकारों के बारे में ज्ञान एकत्रित किया, संत कवियों से संबंधित जानकारी को एकत्र किया। सबसे अधिक विस्तार से उन्होंने तुलसी पर लिखा।

            एक जिस तरीके का वैविध्य हमारे समाज में है, सांस्कृतिक वैविध्य हमारे समाज में है उसकी आदत और संस्कार यूरोपीय विद्वानों को नहीं थी। उनके यहाँ इस तरह का सांस्कृतिक वैविध्य नहीं है। किन्तु हमारे यहाँ भक्ति में बहुत वैविध्य है। यह विडंबना ही है कि इसके क्षेत्रीय वैशिष्ट्य की बहुत अवहेलना हुई। उसको नज़रअंदाज़ किया गया। जिसका एक कारण है कि उनके यहाँ (यूरोप में) इस तरह का वैविध्य नहीं था, सांस्कृतिक वैविध्य नहीं था, भाषाई वैविध्य नहीं था, सरोकारों का भी वैविध्य भी नहीं था। जबकि यह हमारे आपके यहां ख़ूब मिलता है। आप थोड़ी ही दूर जाएंगे एक भक्त की चिंता और सरोकार बदल जाएंगे, दूसरे संत के सरोकार बदल जाएंगे। कबीर की चिंता और सरोकार अलग हैं, मीरा की चिंता और सरोकार अलग हैं, तुलसी के अलग हैं। एक क्षेत्र में रहते हुए भी हो सकता है कि उनकी चिंता और सरोकार अलग-अलग हों। दूसरी, एक बात और है जिसकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए ख़ासतौर पर आग्रहपूर्वक कि उस समय तक स्रोत सामग्री बहुत सीमित थी।दरअसल भक्ति आंदोलन की पहचान बनाने में भारतीय विद्वानों का भी योगदान है जिनकी समझ और संस्कार कमोबेश यूरोपीय हैं। वे भी कुछ सीमित संसाधनों के आधार पर, सीमित स्रोत सामग्री के आधार पर भक्ति आंदोलन की एक छवि बना रहे हैं। धीरे-धीरे शोधकार्य हुए, कुछ विश्वविद्यालयों में हुए, कुछ विश्वविद्यालयों से बाहर हुए।कई शोध संस्थानों में हुए, बहुत सारी संस्थाएँ जैसे नागरी प्रचारिणी सभा, उदयपुर का साहित्य संस्थान, राजस्थान का प्राच्य विद्या संस्थान और भी बहुत सारी संस्थाएँ हैं जिन्होंने देश भर में बिखरी हुई पांडुलिपियों को संकलित किया। उनमें से कई पांडुलिपियों पर अभी भी काम नहीं हुआ।जबकि बहुत पांडुलिपियों पर महत्वपूर्ण काम हुए हैं। ख़ैर, वे जितनी भी सामग्रियां एकत्रित हुईं उन सभी के साथ बाद में मिली सामग्री और शोध सामग्री हमें उपलब्ध हुईं, वे सभी भक्ति आंदोलन की पारंपरिक पहचान में रद्दोबदल का आग्रह करती है।

            इसलिए भक्ति आंदोलन की दो बातों पर पुनर्विचार की ज़रूरत है। एक तो ये कि आरंभिक जो विद्वान थे, सारे के सारे चाहे वे भारतीय हों या यूरोपीय हों उन सबके समझ या संस्कार कमोबेश यूरोपीय है। हमारी शिक्षा में ही देखिएऔपनिवेशीकरण केवल देश का नहीं होता, चेतना का भी होता है और चेतना का औपनिवेशीकरण भारतीय विद्वानों का भी हुआ।हमारे साहित्य को भी देखने-समझने का नजरिया, ख़ासकर आरंभिक विद्वानों का नजरिया वैसा ही है। इस पुनर्विचार की जो दूसरी बात है- स्रोत सामग्री। संसाधन बहुत सीमित हैं। पांडुलिपियाँ सामने नहीं आयीं थीं, रचनाएँ सामने नहीं आयीं थीं, संत और कवियों का जीवन, उनकी जीवन की विकास यात्रा सामने नहीं आयी थी। बहुत सारी नई चीज़े अब सामने गयी हैं। लेकिन हम भक्ति आंदोलन की पुरानी पहचान पर अभी ठहरे हुए हैं।

            अब इस व्याख्यान के दूसरे पड़ाव पर आते हैं। भक्ति आंदोलन की ये पहचान जो अभी तक बनी हुई है। जैसा अजीत ने कहा कि हम उत्तर भारतीय ख़ासतौर पर उसमें भी हिन्दी समाज भक्ति आंदोलन को कबीर, सूर, तुलसी और कभी-कभी मीरा  के नाम से जानता है। भक्ति आंदोलन का बहुत समय और स्थान दोनों की दृष्टि से उसके विस्तार का, उसके वैविध्य का दायरा बहुत विस्तृत और बड़ा है। विडंबना यह है कि भक्ति आंदोलन को अभी हम इस रूप में नहीं जानते हैं। ये एक देशव्यापी और लगभग 12-13 शताब्दियों के विस्तार में फैला हुआ आंदोलन है। आप सोचिए कि बारह-तेरह शताब्दियाँ, जहां एक शताब्दी भी महत्वपूर्ण होती है। वहां एक आंदोलन बारह-तेरह शताब्दियों में फैला हो, उसकी विकास यात्रा कैसी रही होगी। हम भक्ति आंदोलन को उसकी फलश्रुति  के रूप में जानते हैं कि उसने हमें क्या दिया। लेकिन ये जो दिया वह सबकुछ एक विकास-यात्रा से गुजरकर हम तक आया है। हम उस यात्रा के बारे में अभी नहीं जानते हैं।देश के विभिन्न भागों में पाँचवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक यह आंदोलन निरंतर चला। ये पहला आंदोलन है जिसने हमारी चेतना को आंदोलित भी किया और जिसने हमारी समझ संस्कार को कई मायनों में बदला। यह आप मानकर चलिये कि भक्ति आंदोलन हमारे संस्कार और स्मृति में अब भी हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने एक बहुत अच्छी बात कही है, आप ये मानकर चलते हैं बौद्ध धर्म ख़त्म हो गया लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बौद्ध धर्म ख़त्म नहीं हुआ, वह हमारे विचार में, दैनंदिन जीवन में किसी किसी तरह से अब भी शामिल है।

            इसी तरह भक्ति आंदोलन भी है हम सोचते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी में उसका समापन हो गया, ऐसा नहीं है। हमारे जीवन के नैतिक मूल्यों में, आचरण की कसौटी पर उसके कहीं कहीं अवशेष हैं, उसके संस्कार, उसकी स्मृति बची हुई है। भक्ति आंदोलन... दक्षिण और उत्तर भारत को हम थोड़ा सा अलग स्थितियों में देखते हैं... वैसे तो इसमें एक निरंतरता है और जो सांस्कृतिक एकता हैं वो भी भक्ति आंदोलन के दौरान ही हुई। लेकिन इस अर्थ में थोड़ा-सा अलग करते हैं कि भक्ति आंदोलन की शुरूआत दक्षिण भारत में हुई। पाँचवीं-छठी शताब्दी से यह शुरू हुआ और नवीं-दसवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में विविध रूपों में निरंतर जारी रहा। भक्ति आंदोलन का कोई एक रूप नहीं है। यदि आप भक्ति आंदोलन को सार्वदेशिक और उसकी किसी एक पहचान में समझना चाहेंगे तो बहुत मुश्किल काम है। के रामानुजन जोकि भक्ति साहित्य के बड़े विद्वान हैं ने एक जगह लिखा, मैं जो कह रहा हूँ वो मेरे क्षेत्र से संबंधित है, जो मैं कह रहा हूँ वह जिस कवि को मैं जानता हूँ या जिस भक्त संत को मैं जानता हूँ उसके संबंध में है, ये और किसी के संबंध में नहीं है। यदि आप दक्षिण भारत में बैठकर किसी उत्तर भारतीय संत भक्त के बारे में स्थापना दे रहे हैं तो बहुत सावधानी की ज़रूरत है। इसी तरह आप उत्तर भारत में बैठकर दक्षिण भारत के संत भक्त के बारे में निष्कर्ष निकाल रहे हैं तो ये मुश्किल काम है। दक्षिण भारत में 12 आलवार संत हुए, 63 नयनार हुए। जिसमें दो रचनाएँ महत्वपूर्ण हैं, एक जिसे हम कहते हैं तमिल प्रबंधम, एक तिरुमदई। तमिल प्रबंधम की ख्याति तो पाँचवे वेद के रूप में है दक्षिण भारत में। बहुत महत्वपूर्ण रचना है। अब तो इसका हिन्दी अनुवाद भी हो गया है। जयराम ने सभी आलवार संतों की वाणियों का हिन्दी अनुवाद करके, उसका हिन्दी रूपांतरण करके प्रकाशित करवा दिया। हम प्रायः आलवार संतों के बारे में नहीं जानते हैं। लेकिन भक्ति आंदोलन के संस्कार और स्मृति में कहीं कहीं आलवार संत रहते हैं।

            हम अक्सर कहते तो हैं भक्ति द्राविड़ उपजी। लेकिन भक्ति द्रविड़ प्रदेश में उत्पन्न होकर उत्तर भारत में किस रूप में प्रसारित हुई, किस रूप में फैली, क्या-क्या उसमें रूपांतरण हुए, कैसे आयी इस बारे में हम लोग कम जानते हैं। उत्तर भारत में चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक इसका विकास हुआ। लेकिन कहीं भी ये मत कहिए कि चौदहवीं शताब्दी में इसकी शुरुआत हुई। क्योंकि ये एक निरंतरता में विद्यमान है... आप यदि अपभ्रंश, पालि में जाएंगे तो भी है, आप यदि अपभ्रंश में जाएंगे तब भी है, प्राकृत में भी है और यदि बहुत दूर तक जाएंगे तो ऋग्वैदिक काल से हमारे यहाँ किसी किसी तरह एक निरंतरता में है। अक्सर यूरोपीय विद्वानों ने ये किया कि उन्होंने इस निरंतरता में बार-बार एक विच्छेद लाने की कोशिश की। अभी-अभी वे यही करते हैं। वे बाइनरी में खड़ा करते हैं। वे देशभाषाओं को संस्कृत के विरुद्ध खड़ा करते हैं, वे प्राकृत को देशभाषाओं के विरुद्ध खड़ा करते हैं, पालि को प्राकृत के विरुद्ध खड़ा करते हैं। लेकिन ये सारी विकास की प्रक्रिया एक निरंतरता में है और इसे निरंतरता में ही समझा जाना चाहिए। देखिए, कोई भी आंदोलन जब जनसाधारण में चलता है तो सबसे पहले जो प्रयास शुरू होते हैं उसे दार्शनिक आधार देने के प्रयास शुरू होते हैं। भक्ति आंदोलन को भी, ख़ासतौर पर दक्षिण भारत में जब ये बहुत लोकप्रिय हुआ..... बाद में क्या होता है कि फलश्रुति के दौरान कभी-कभी हम केवल उसके दार्शनिक आधार पर चले जाते हैं, केवल उसका दार्शनिक पक्ष देखना शुरू कर देते हैं। ऐसा नहीं है। भक्ति आंदोलन पहले एक जन आंदोलन है, पहले वह लोक में फैला हुआ, लोक की ज़रूरतों के अनुसार बना हुआ आंदोलन है। ये फलश्रुति में जो उसे दार्शनिक आधार देने के प्रयत्न हुए हैं, ये केवल उस तक सीमित आंदोलन नहीं है। लेकिन भक्ति आंदोलन को दक्षिण में ही एक दार्शनिक आधार देने की कोशिश हुई है। उसमें बहुत सारे लोग शामिल हैं। रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य। एक बात और समझ लीजिए ये जो दार्शनिक आधार देने वाले विद्वान हैं इनका योगदान, इनका अवदान इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि उन्होंने भक्ति केवल द्विजेन्द्रों के लिए थी, सीमित थी लेकिन धीरे-धीरे फलश्रुति तक आते-आते वह केवल प्रपत्ति तक रह जाती है। ये बहुत महत्वपूर्ण परिवर्तन है। ये एक साथ ही नहीं हुआ। ये क्रमशः धीरे-धीरे हुआ।

            सबसे पहले रामानुजाचार्य ने, रामानुजाचार्य वैदिक और पौराणिक धर्म के समर्थक थे। जब ज्ञान और भक्ति केवल द्विजों तक सीमित थी। लेकिन रामानंद, रामानुजाचार्य के विरुद्ध खड़े व्यक्ति नहीं हैं, रामानुजाचार्य मध्वाचार्य के विरुद्ध खड़े व्यक्ति नहीं हैं, इन्होंने क्रमशः एक निरंतरता में थोड़ा-थोड़ा करके भक्ति आंदोलन की नागरिकता का दायरा बड़ा किया। उसको द्विजों से निकालकर सबके लिये सुलभ किया। नाथ मुनि जिन्होंने ये संकलन तैयार किया और प्रमुख आलवार संतों में से एक हैं उन्होंने एक बात कही थी, हे भगवान मैं द्विज हूँ, मुझे वेद आते हैं, मैंने कभी इंद्रिय निग्रह किया लेकिन मैं आपके चरणों में समर्पित हूँ। आप मेरा उद्धार कर दीजिए। इस भक्ति की चौथी योग्यता है प्रपत्ति, समर्पण, निष्ठा और प्रेम। प्रपत्ति के जितने ही रूप हैं भक्ति को वहाँ तक लाने का श्रेय दक्षिण के बहुत सारे आचार्यों को है। उत्तर भारत में जब भक्ति आती है तो प्रपत्ति उसमें शामिल है।

            भक्ति आंदोलन में क्षेत्रीय भिन्नताएँ बहुत हैं, दक्षिण भारत में भी है। आराध्य को लेकर, पूजा को लेकर, साधना को लेकर, धारणाओं को लेकर, मान्यताओं को लेकर बहुत वैविध्य है। ये वैविध्य इसलिए है कि हमारे अलग-अलग क्षेत्रों की सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ज़रूरतें अलग-अलग हैं। आप आश्चर्य करेंगे महाराष्ट्र में भक्ति ने अलग रूप धारण किया। वहाँ की सांस्कृतिक ज़रूरतें अलग प्रकार की थीं। और आप आश्चर्य करेंगे पंजाब में जाकर भक्ति में शौर्य और पराक्रम के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी, हिंसा के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी, भक्ति में यह भी जुड़ गया। शस्त्र भक्ति में शामिल नहीं था। लेकिन पंजाब में जाकर वो सिख धर्म के साथ आया। उड़ीसा, छत्तीसगढ़, कश्मीर इन विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक और सामाजिक ज़रूरतों के तहत भक्ति आंदोलन ने अलग-अलग रूप धारण किया। बाद में इन पर कई... ख़ासतौर पर उत्तर मध्यकाल में ऐसे कई संप्रदाय अस्तित्व में आए। छत्तीसगढ़ में, पंजाब में, महिमा, सिख, बहुत सारे संप्रदाय राजस्थान में रामस्नेही संप्रदाय, विश्नोई संप्रदाय, कई संप्रदाय अस्तित्व में आये। ये भक्ति आंदोलन का ही संस्थानीकरण था एक तरह से। इस संस्थानीकरण को भी हम कभी-कभी नकारात्मक अर्थ में देखते हैं। लेकिन भक्ति आपके लिए वैयक्तिक मोक्ष का साधन थी, वैयक्तिक उद्धार का साधन थी। लेकिन ये आंदोलन संस्थानीकरण का रूप लेकर सामाजिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप का साधन भी बना। यदि भक्ति का संस्थानीकरण नहीं होता तो सामाजिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना संभव नहीं होता। इन संगठित संप्रदायों ने पूरी की पूरी जातियाँ बनाईं। आप कभी-कभी देखते हैं कि... गुरु घासीदास संप्रदाय हैबहुत रैडिकल किस्म की, बहुत क्रांतिकारी किस्म की स्थापनाएँ इन आंदोलनों ने दी। इसके जो पंथों और संप्रदायों में इसका जो संस्थानीकरण है भक्ति आंदोलन का कभी-कभी उसको हम नकारात्मक अर्थ में लेते हैं।

            लेकिन अगर आपको सामाजिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप करना है, यदि आपको सामाजिक रूपांतरण करना है, जातिगत भेदभाव के खिलाफ़ एक मूवमेंट करना है, यदि आपको लोगों की आदतें बदलनी हैं, लोगों में नये प्रकार के संस्कार डालने हैं तो मुझे लगता है संस्थानीकरण ही एकमात्र विकल्प था। उत्तर मध्यकाल में ख़ासतौर पर जो संस्थान अस्तित्व में आये उन्होंने ये काम किया। सभी के संप्रदाय बने। कबीर के भी बने, दादू के बने, जम्बो जी के बने, जसनाथ, दरिया, महिमा, तुकाराम कई संत भक्तों के संप्रदाय बने। उनके अनुयायियों के संगठन बने। उन्होंने सामाजिक प्रक्रिया में बहुत निर्णायक ढंग से हस्तक्षेप किया। उनके कारण बहुत बड़ा परिवर्तन भी आया। ख़ासतौर पर दलित और पिछड़ी जातियों में इन संगठित संप्रदायों ने बहुत काम किया। किन्तु ये केवल धार्मिक ही नहीं था। आप यदि गुरु घासीदास की शिक्षाओं पर विचार करेंगे, बाद में इस तरह का अध्ययन हमारे यहाँ कम हुआ। एक ही अध्ययन हुआ है। वह बद्रीनारायण ने किया है। भक्ति के जो ये संगठित संप्रदाय हैं इन्होंने, रैदास वाले संप्रदायों ने, कबीर वाले संप्रदाय ने, किस तरह हमारे समाज में रैडिकल परिवर्तन किये। आपको गुरु घासीदास की शिक्षाएं बताता हूँ। आप इसे धार्मिक आंदोलन कैसे कहेंगे। शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो, जातिविहीन समाज का निर्माण करो। तो भक्ति के संस्थानीकरण की भी हमारे यहाँ एक रचनात्मक भूमिका है। इसलिए मुझे लगता है कि हमें इस पक्ष पर भी विचार करना चाहिए।

            10-12 शताब्दियों में फैले आंदोलन से एकरूपता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, यह मैंने आरंभ में भी आपसे कहा। उसका कारण ये है कि हमारे यहाँ छोटी-छोटी सांस्कृतिक इकाईयाँ थीं। आवागमन के साधन नहीं थे, संचार के साधन नहीं थे। ये सांस्कृतिक इकाईयाँ कमोबेश स्वायत्त ढंग से विकसित हुईं। उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक ज़रूरतें भी अलग-अलग प्रकार की थीं एक प्रकार की सार्वदेशिक ज़रूरतें नहीं थीं। हर क्षेत्र की अलग-अलग ज़रूरत थी। कबीर एक क्षेत्र में पैदा हुए वहाँ अलग प्रकार की ज़रूरत थी। मीरा एक अलग क्षेत्र में, परिवेश में पैदा हुईं वहाँ अलग प्रकार की ज़रूरत थी। इसलिए आप देखें कबीर के सरोकारों में, मीरा के सरोकारों में, गुरुनानक के सरोकारों में, घासीदास के सरोकारों में, तुकाराम के सरोकारों में बहुत फ़र्क़ है। एक बात और ध्यान रखने की है, इन सभी संत भक्तों को प्रायः हमने एक ही तरह के औजारों से समझने-परखने की कोशिश की। सार्वदेशिक औजारों से समझने की कोशिश की। आप थोड़ा ध्यान से देखेंगे तो क्योंकि ये अलग-अलग क्षेत्रों में पैदा हुए, अलग-अलग क्षेत्र की सांस्कृतिक ज़रूरत के तहत पैदा हुए इसलिए इनकी पहचान, इनके मूल्यांकन के लिए भी अलग-अलग औजारों की ज़रूरत है। कबीर के विद्रोह को और मीरा के विद्रोह को आप एक औजार से देखना चाहेंगे तो मुश्किल होगी। शस्त्र की उपस्थिति सिख समाज में थी, सिख धर्म में थी....

            भक्ति आंदोलन केवल धार्मिक आंदोलन नहीं है। धर्म का हमारी परंपरा में व्यापक अर्थ है। जिस अर्थ में आज हम धर्म शब्द का प्रयोग कर रहे हैं वह हमारी परंपरा का वाहक शब्द नहीं है, ये अच्छी तरह से समझने की ज़रूरत है। 'रिलीजन' एक संप्रदाय, संकीर्ण संप्रदाय छोटा-सा, हमारे यहाँ धर्म का बहुत व्यापक अर्थ है। ये बात बहुत आरंभ में हिंदी साहित्य के एक बहुत बड़े कवि और मनीषी साहित्यकार ने आग्रह किया था कि धर्म हमारी परंपरा में बहुत व्यापक अर्थ रखता है। इस अर्थ में जिस अर्थ में पश्चिम में रिलीजन शब्द का प्रयोग होता है हमारे यहाँ धर्म का नहीं होता। हमारी परंपरा में कल्चर शब्द नहीं है। संस्कृति शब्द नहीं है। हमारी परंपरा में संस्कृति के पर्याय के रूप में धर्म शब्द ही इस्तेमाल होता रहा है। बहुत व्यापक अर्थ है। धर्म के दायरे में सब कुछ जाता है। हमारे जीवन का बहुत सारा भाग, बल्कि यूँ कहना चाहिए कि हमारे जीवन से जुड़ी हुई सब चीज़ें धर्म के दायरे में जाती हैं।

            एक बहुत महत्वपूर्ण बात यह है आज हम जिस अर्थ में संस्कृति शब्द का प्रयोग कर रहे हैं कमोबेश उसी अर्थ में हमारी परंपरा में धर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। ये केवल धार्मिक आंदोलन नहीं है। समाज-सुधार, अन्याय उत्पीड़न का प्रतिरोध, वैयक्तिक कामनाओं की अभिव्यक्ति, यह सब कुछ धर्म के दायरे में आता है। आप देखिए दिल्ली में सल्तनत काल में शासन पलटने का काम बहुत सारे सूफ़ी संतों ने किया। हमारे यहां बहुत सारे संत ऐसे रहे। नाथों की सत्ता परिवर्तन में बड़ी भूमिका रही। जोधपुर में उनका बहुत वर्चस्वकारी प्रभाव रहा। अन्याय का प्रतिरोध, जातिगत भेदभाव का विरोध, उत्पीड़न का प्रतिरोध धर्म के दायरे में ही आता है। आप देखें कि किसी भी कर्म, विचार, आचार को आप सामाजिक वैधता देना चाहते हैं तो भारतीय समाज ये अपेक्षा करेगा कि वो धर्म के दायरे में आता है या नहीं आता। यदि धर्म के दायरे में नहीं आता तो उसे सामाजिक वैधता नहीं मिलेगी। आप देखिए हमारे यहाँ बहुत सारे आंदोलन, भक्ति आंदोलन ने शुरू किया। जाति के विरुद्ध आंदोलन, भक्ति आंदोलन ने शुरू किया। बहुत सारे अन्यायों का संगठित प्रतिरोध भक्ति आंदोलन के दौरान शुरू हुआ। धर्म हमारे संस्कार, जातीय संस्कार में इस तरह शामिल है कि अंततः कोई बात हो हम उसे धर्म के दायरे में ले आयेंगे। ख़ासतौर पर मध्यकाल में तो ये बहुत ज़रूरी था। बहुत सारे रैडिकल आंदोलन, परिवर्तनकारी आंदोलन, जिनको वास्तव में आंदोलन कहते हैं, वे धर्म के दायरे में ही शामिल थे। मंदिर इसीलिए दक्षिण भारत में आंदोलन के केंद्र रहे। दक्षिण भारत की सारी सामाजिक गतिविधियों के केंद्र में थे। इसीलिए भक्ति आंदोलन को केवल धार्मिक आंदोलन तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। धर्म क्योंकि हमारी परंपरा में बहुत व्यापक अर्थ रखता है। कल्चर शब्द वैसे भी हार्टीकल्चर, एग्रीकल्चर उनसे संबंधित है। हमारी परंपरा में धर्म ही संस्कृति का पर्याय है। धर्म एक व्यापक शब्द है और केवल इसे धार्मिक आंदोलन नहीं कहना चाहिए।

            भक्ति आंदोलन को समझने की सबसे बड़ी बाधा है पारंपरिक वर्गीकरण और विभाजन। बहुत सारे पारंपरिक वर्गीकरण, विभाजन, प्रवृत्तिगत विभाजन हमारे पास पहले से मौजूद हैं। राम, कृष्ण, सगुण, निर्गुण, प्रेममार्गी, ज्ञानमार्गी, सूफी धारा, प्रेमाख्यान, बहुत सारे वर्गीकरण हमारे पास मौजूद हैं। एक अकादमिक की मुश्किल भी होती है कि वो सारे डिस्कोर्स को, आंदोलन को एक वर्गीकरण में समझे। ये हमारी मजबूरी है। हम ऐसा देखते हैं, करते ही हैं। लेकिन कभी-कभी वर्गीकरण एक आंदोलन की आत्मा को समझने में बहुत बड़ा अवरोध, बहुत बड़ी बाधा बन जाते हैं। ये अंतर्बाधाएं चली रही हैं। यदि भक्ति आंदोलन को समझना है तो सबसे पहले इन विभाजनों से बाहर लाकर समझना पड़ेगा। बहुत मुश्किल हो जाएगा। जैसे कबीर सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं भाव का आवेग है जो उनके भीतर वो तो सगुण है। यदि मीरा की बात करें, परशुराम चतुर्वेदी के सामने बड़ी मुश्किल हुई होगी जब उन्होंने मीरा को पढ़ना शुरू किया। क्योंकि विभाजन और वर्गीकरण की आदत और संस्कार उनके मन में थे। इसलिए उन्होंने कभी उसे सगुण कहा, कभी निर्गुण कहा। आप मीरा को अच्छी तरह पढ़िए वो एक पद में अपने  को सगुण कहती हैं, आप उसे सगुण सिद्ध कर सकते हैं, दूसरे पद में आपको गलत सिद्ध कर देगी। 'चलो अगम के देश', अब आप इस पूरे पद को अच्छे से पढ़ जाइए तो आपको लगेगा ये सगुण भी है और निर्गुण भी।

            सगुण और निर्गुण के विभाजन ने हमारे संत कवियों को समझने में बड़ी अंतर्बाधाएँ खड़ी कीं। सबसे पहले आपको भक्ति आंदोलन समझना है तो इससे बाहर जाइए। इस तरह का कोई विभाजन हमारे यहाँ नहीं है। लोक में भी इस तरह का विभाजन नहीं है। भक्ति आंदोलन की शुरूआत भी इस विभाजन से नहीं हुई। ये अलग बात है कि आप कभी-कभी सोचेंगे कि कबीर सूर का प्रतिपक्ष है। लेकिन दरअसल ऐसा है नहीं। देखिए राम और कृष्ण... मीरा की कविता पढ़ जाइए, कबीर की कविता पढ़ जाइए, लोक में इस विभाजन का कोई औचित्य नहीं। देवता सभी पूज्य हैं। सभी आराध्य हैं। सभी जगह आप जा सकते हैं। सबसे अधिक जो जोर दिया गया है वो प्रपत्ति पर दिया गया है। प्रेम, समर्पण, निष्ठा, ये तीनों चीज़ें होनी चाहिए। यही एक विशेषता है भक्ति आंदोलन की। जिसमें सबसे अधिक जोर प्रपत्ति पर है। लोक में भी जोर प्रपत्ति पर है। महत्व प्रपत्ति का ही है बाकी विभाजनों का कोई औचित्य नहीं। मैं आपको एक बहुत रोचक उदाहरण देता हूँ। राजस्थान में वल्लभाचार्य की पीठ है वहाँ जाएँ तो आपको बहुत सारी महिलाएं बैठकर सब्जी काटती हुई मिलेंगी। भक्ति का यह भी एक रूप है। भगवान खायेंगे। हम अच्छे वस्त्र ले जाते हैं भगवान के घर। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है कि जो हमको सबसे अधिक प्रिय है वह हम भगवान को देते हैं। जो हमको सबसे अच्छा लगता है उसे हम भगवान को समर्पित करते हैं। कोई वर्गीकरण और विभाजन से आप भक्ति को समझने का प्रयास करेंगे तो आपको लगेगा आप सगुण समझ रहे हैं उसके यहाँ कुछ निर्गुण भी गया। जिसे आप रामभक्त कह रहे हैं... तुलसीदास ने कृष्ण पर लिखा ही है। उनके यहाँ है ही। किसी प्रकार के सांप्रदायिक विभाजन का भी कोई औचित्य नहीं।

            एक बात और जिसकी ओर ध्यान आकृष्ट करना ज़रूरी है भक्ति आंदोलन में जो औपनिवेशिक संस्कार और आदत के कारण आयी है, वह है पाठों की प्रामाणिकता का सवाल। हमारे संत भक्तों के पाठ। औपनिवेशिक संस्कार और शिक्षा के अनुसार यदि जिसे हम कहते हैं मूल, प्रामाणिक, हस्तलिखित और प्राचीन तो किसी भी संत भक्त का पाठ इस रूप में उपलब्ध नहीं है। यूरोपीय इतिहासकार और यूरोपीय विद्वान इस आधार पर हमारे संत भक्तों की कविता पर संदेह करते हैं। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक बड़ी अच्छी बात कही थी, सब खेतों में एक जैसी फसलें नहीं होती। यदि आप धान के खेत में बैंगन ढूँढ़ेंगे तो आपके निष्कर्ष ग़लत ही निकलेंगे। और यूरोपीय इतिहासकार और यूरोपीय विद्वानों का आग्रह आज भी सबसे अधिक यही होता है कि उसका प्रामाणिक और मूल पाठ ढूँढ़ लिया जाए। ये चेष्टा अच्छी है लेकिन हमारी जो परंपरा है हमारी जातीय परंपरा है वो श्रुत को बहुत महत्व देती है। हम श्रुत से पाठ को निरंतर जीवंत रखते हैं। श्रुत से लिखित में ले जाते हैं, लिखित से फिर श्रुत में लेते हैं और पाठ जीवंत रहता है। मीरा की कविता में बहुत जोड़ बाकी हुआ। कबीर की कविता में भी बहुत जोड़ बाकी हुआ। सूरदास की कविता में भी जोड़ बाकी हुआ। इधर कई लोग कहने लगे हैं कि एक सूर हैं ही नहीं। 3-4 सूर हैं। लेकिन एक बात का ध्यान रखिए पाठों की प्रामाणिकता और दस्तावेज का आग्रह भारतीय परंपरा में नहीं है। ठहरे हुए दस्तावेज का आग्रह भारतीय परंपरा में नहीं है। इसलिए इस आग्रह से जाएंगे तो ये पश्चिमी ज्ञान मीमांसा का आग्रह होगा। वहाँ दस्तावेज की परंपरा है। हमारे यहां दस्तावेज की डॉक्युमेंट की कोई परंपरा नहीं मिलती। डॉक्युमेंट है तो भी हम से श्रुत में ले जाते हैं। श्रुत है तो भी हम उसे लिखित में ले जाते हैं। आप देखिए मीरा के कई पाठ, आप देखिए कबीर के एकाधिक पाठ कई रूपों में उपलब्ध हैं।

            हमारे यहाँ आप देखें रामायण एक निरंतर परंपरा में है, महाभारत एक निरंतर परंपरा में है, कबीर की कविता एक निरंतर परंपरा में है। कभी-कभी यह भी होता है कि हम अपने सुख-दुःख भी उसमें जोड़ देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वो प्रामाणिक रचनाएँ नहीं हैं। यदि आप श्रुत परंपरा में ढूँढ़ेंगे, खोजेंगे तो कम से कम मूल का अवशेष तो मिल ही जाएगा। किसी रचना को पाठ के वैविध्य और भाषा के वैविध्य के आधार पर ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए। जो हमारे यहां बहुत हुआ। अब आप देखिए कभी-कभी भाव के वैविध्य का यूरोपीय संस्कार, औपनिवेशिक संस्कार अपने रचनाकारों को समझने में किस तरह बाधा बनता है। मीरा की कविता है, कबीर की कविता है तो आप देखें कि वो कह रहे हैं कि साहब ये देखिए कि कांताभाव की भक्ति कृष्णभक्ति मीरा राम की भक्त कैसे हो सकती है। हमारे यहाँ लोक का वैविध्य इसलिए है, भाव का वैविध्य इसलिए है कि हमारे संतों की लोकव्याप्ति बहुत है। आपको लगता है कि रामस्नेही संप्रदाय में गयी मीरा की कविता में राम गये। किसी कृष्ण भक्ति संप्रदाय में गयी तो कृष्ण गये। जार्ज ग्रियर्सन ने अगर भाषा का वर्गीकरण और सर्वे नहीं किया होता तो हमारे यहाँ भाषाई अस्मिता का आग्रह नहीं था। मीरा की कविता गुजराती में भी है, ब्रज में भी है, राजस्थानी में भी है। अब पश्चिमी विद्वान कह रहे हैं कि एक कवि की कविता तीन भाषाओं में या दस-बारह भाषाओं में कैसे हो सकती है। अब कोई भारतीय विद्वान ही जिसकी सरोकार और जड़ें भारतीय खाद-पानी में हो वही इसे बेहतर तरीके से समझ सकेगा कि हमारे यहाँ भाषाई वैविध्य नहीं है। एक ही भाषा बहुत दूर तक क्षेत्रीय वैविध्य के साथ यात्रा करती है। गुजराती ही धीरे-धीरे राजस्थानी हो जाती है। मध्यकाल में गुजराती और राजस्थानी दो सांस्कृतिक इकाईयां नहीं हैं। मध्यकाल में राजस्थान और ब्रज दो सांस्कृतिक इकाईयां नहीं हैं। भाषाओं में भी, जो भाषा कबीर और मीरा इस्तेमाल कर रहे हैं कमोबेश वो सारे उत्तर भारत की समझे जाने वाली भाषा है। लेकिन जार्ज ग्रियर्सन ने वर्गीकरण कर दिया, विभाजन कर दिया, भाषाओं के नामकरण कर दिये। अब अस्मिताई आग्रह से ये भाषाएं अपनी पृथक पहचान बना रही हैं। इसी आधार पर हमको लगता है कि मीरा की कविता गुजराती में क्यों है, ब्रज में क्यों है। यूरोपीय इतिहासकारों को, विद्वानों को बहुत आश्चर्य होता है।

            मुझे लगता है मुझे आप लोगों के लिए समय छोड़ना चाहिए। इसलिए दो-तीन चीज़ें छोड़ूंगा। एक भक्ति आंदोलन में केवल लोकोत्तर को तरजीह नहीं दी गयी, केवल लोकोत्तर को महत्व नहीं दिया गया जैसा कि मान लिया गया। भक्ति आंदोलन में पार्थिव की भी बहुत महिमा है। इस बात को अच्छी तरह से नहीं समझा गया। निर्गुण संतों की कविता को भी इस आधार पर नहीं समझा गया कि उनके सरोकार भी अंत में पार्थिव के सरोकार हैं। कृष्ण भक्ति कवियों के यहाँ तो अपार्थिव की, लोकोत्तर की खिल्ली तक उड़ाई गयी। उपहास किया गया। उद्धव कोकिल कूजत कानन, मर गया क्या लेना देना तुम्हारे इस निर्गुण से। हमें तो वो चाहिए। आप कृष्ण भक्त कवियों को पढ़ें, विद्यापति को पढ़ें, भ्रमरगीत सार को पढ़ें तो लगेगा कि जीवन का जो पार्थिव रूप है, उसकी महिमा का इतना बखान है, उसकी महिमा की इतनी चर्चा है। आपको लगता है कि सूरदास की सारी कविता आपको निर्गुण का प्रतिपक्ष लगेगी।

            सूरदास की कविता के यदि सामाजिक संदर्भ में जाएं, उसके ऐतिहासिक संदर्भ में जाएं तो आपको लगेगा कि एक समय ऐसा आया जब निर्गुण भक्ति का जोर-शोर से प्रसार होने लगा। घर छोड़कर जाने वालों की संख्या बढ़ गयी, साधु होने वालों की संख्या बढ़ गयी तो इस आधार पर उन्होंने लोक की प्रतिष्ठा, भक्ति की फिर से प्रतिष्ठा की।उन्होंने जीवन की फिर से प्रतिष्ठा की अपनी कविता से। हम अपनी ज़रूरतों के अनुसार, अपनी पार्थिव ज़रूरतों के अनुसार, ईश्वर का रूपांतरण करते हैं, ईश्वर को बदलते भी हैं। हम उसे अपने अनुसार ढाल लेते हैं। नरसी मेहता का नाम आप सबने सुना है उनके जीवन की जनश्रुति पर आधारित एक रचना है।....... (नाम सुनाई नहीं दिया) जनश्रुति ये है कि नरसी की बेटी की बेटी का विवाह हुआ। आप लोग थोड़े से दक्षिण भारत के हैं। हमारे यहाँ उत्तर भारत में ये प्रथा है कि यदि बेटी की बेटी या बेटे का विवाह हो रहा है तो पीहर पक्ष के लोग हैं वो बहुत सारे वस्त्र लेकर जाते हैं। वस्त्र, संपदा, धन लेकर जाते हैं देने के लिए। प्रतीक्षा करती है बेटी कि मेरे भाई पिता यह सब लेकर आएंगे। आप देखिए कि नरसी ने कहा कि मैं तो भक्त हूँ, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। भगवान ले जाएंगे मायरा। अब देखिए कि कृष्ण मायरा लेकर जाते हैं, अपनी पत्नी रुक्मिणी और राधा को भी लेकर जाते हैं। और वे वहाँ जाकर सारे रीति-रिवाज निभाते हैं जो मायरे में होते हैं। उत्तर भारत में ये प्रथा है कि गालियाँ गाती हैं औरतें। भगवान श्रीकृष्ण बैठकर वहाँ गाली सुनते हैं।

            देखिए, एक भगवान को हमारी अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों के अनुसार भक्तिकाल में ढालने के प्रयास हुए। हम इसको लोकोत्तर आंदोलन कहते हैं। लोकोत्तर के लिए आंदोलन कहते हैं। लेकिन ऐसा है नहीं। भक्ति आंदोलन पार्थिव की महिमा का, पार्थिव की प्रतिष्ठा का, लोक के महत्व का आंदोलन भी है। अंतिम बात जिसे कहकर मैं अपनी बात समाप्त करूंगा वो है दाखिल ख़ारिज। हिन्दी में ये प्रवृत्ति बहुत है। जिसे हम ख़ारिज करते हैं पूरी तरह से ख़ारिज कर देते हैं। हिन्दी आलोचकों ने भी ऐसा बहुत किया। वैष्णव धर्म सांप्रदायिक नहीं है, जैन धर्म है।........... सारे भक्ति आंदोलन के दायरे में हम जैन साहित्य को लेते ही नहीं। वो एक निरंतरता में है। अपभ्रंश, प्राकृत और पालि के साहित्य को हमने बाहर कर दिया। इसी तरह सांप्रदायिक आधार पर बहुत सारे साहित्य को, जैन साहित्य बहुत महत्वपूर्ण साहित्य है, आख्यान की, अनुकरण की, प्रशस्ति की, भक्ति की, ख़ासतौर पर भक्ति का कथा में नियोजन की जो परंपरा जैन साहित्य में है वो भारत के किसी भूभाग में नहीं मिलती। किसी संप्रदाय के साहित्य में नहीं मिलती। यदि आप भक्ति आंदोलन की कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक पहचान बना रहे हैं तो फिर इस दाखिल ख़ारिज के आग्रह से भी आपको बाहर आना चाहिए।

            भक्ति आंदोलन की जड़ें दक्षिण भारत में है, हम उत्तर के भक्ति आंदोलन को समझने वाले लोग..... हम नयनारों को नहीं जानते, आलवारों को नहीं जानते। कभी-कभी परंपरा एक निरंतरता में होती है। पद जो भक्ति आंदोलन का सबसे लोकप्रिय काव्य रूप है जिसे हम कभी-कभी भजन कहते हैं, वह कहाँ से आया। वो भी दक्षिण से ही आया। तमिल प्रबंधम। कड़वक जिसमें रामचरित मानस लिखा गया वो प्राकृत परंपरा से चली रही है। पद, गीत जिसे हम कहते हैं विद्यापति के यहाँ वो बौद्धों के चर्या गीतों से चला रहा है। तो काव्यरूपों पर भी विचार होना चाहिए। भक्ति आंदोलन के ये जो लोकप्रिय काव्य रूप है कड़वक, जिसे कभी-कभी हम जल्दी से कह देते हैं कि रामचरितमानस की कड़वक शैली जायसी से आयी है। लेकिन ये गलत धारणा है। जायसी ने भी ये शैली हमारी परंपरा से ली। प्राकृत और अपभ्रंश कड़वक शैली में जिसमें चौपाई एक दोहे का धत्ता लगाया जाता है, बहुत पहले से चली रही है पद्धड़िया छंद वगैरह में। तो यदि आप भक्ति आंदोलन की एक सार्वदेशिक और बारह-तेरह शताब्दियों की एक पहचान बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको उसके अलग-अलग क्षेत्रीय रूपों को देखना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। इसी तरह क्योंकि उसकी जड़ें दक्षिण भारत में हैं आपको उसे देखना पड़ेगा। क्योंकि उसके काव्य रूप हमारी परंपरा से आते हैं। प्राकृत, अपभ्रंश की परंपरा से आते हैं, बौद्धों और सिद्धों से आते हैं उनको देखना पड़ेगा। भक्ति आंदोलन की कोई भी पहचान या केवल एक सार्वदेशिक पहचान बनाने के लिए आप उसके इस सारे वैविध्य को, उसकी जड़ों को समेटेंगे, तभी भक्ति आंदोलन की कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक पहचान बन पाएगी।

 

प्रोमाधव हाड़ा

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

1 टिप्पणियाँ

  1. भारतीय भक्ति कविता के वैविध्य को कैसे अकादमिक परिसर का हिस्सा बनाया जाये, इसकी समझ देता यह व्याख्यान नुमा लेख है | माधव हाड़ा जी इस समय हिन्दी के अकादमिक परिसर के बहुपठित और सम्यक समझ के आलोचक हैं | उनकी किताबें हमारे गवाक्ष खोल रही हैं | पुन: सर और अजित का आभार |

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