शोध आलेख : संत साहित्य में श्रम सौन्दर्य के गीतों का सामाजिक संदर्भ / डॉ. संगीता मौर्य

संत साहित्य में श्रम सौन्दर्य के गीतों का सामाजिक संदर्भ
डॉ. संगीता मौर्य

मैनेजर पाण्डेय अपनी पुस्तक अनभै सांचा में लिखते हैं कि-“आलोचना की समकालीनता का एक पक्ष यह भी है कि वह अतीत की महत्त्वपूर्ण रचनाओं की खोज करें। हाल के वर्षों में विजयदेव नारायण साही ने जायसी के पद्मावत के नए अर्थ और महत्त्व की खोज की है और विश्वनाथ त्रिपाठी ने मीरा की कविता की नयी पहचान विकसित की है। केवल नया ही समकालीन नहीं होता बल्कि जो सार्थक है वही समकालीन है, चाहे वह पुराना ही क्यों न हो।”[1]  पाण्डेय जी के इस बात से इत्तेफाक रखते हुए यह कहा जा सकता है कि संत कवियों की रचनाओं की समकालीनता एवं प्रासंगिक बने रहने का एक कारण यह भी है। हिंदी कविता के इतिहास में इनकी लोक व्याप्ति अब भी सबसे अधिक है। यही कारण है कि इनकी पहुँच केवल पढ़े लिखों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इनके पद गाँव में बिना पढ़े-लिखे लोगों के बीच भी विद्यमान है। निर्गुण गायन की परम्परा को गाँवों या  शहरों में सब जगह सुना जा सकता है। सच्चाई यही है कि भक्तिकालीन साहित्य समय की दृष्टि से पुराना भले ही है लेकिन इसके  विचारों  में  ओजस्विता है, शोषण मुक्त भारत का स्वप्न है। गाँव है, किसान हैं, उनकी समस्याएँ हैं, उनका श्रम है। कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक भारत के निर्माण का जो स्वप्न है, वह भी वहाँ मौजूद है। इसलिए भक्ति काल का साहित्य समृद्ध और कालजयी साहित्य है। जिसके आधार पर विद्वानों ने इसे स्वर्ण युग कहा है।

            भक्तिकाल नाम से सामान्य लोगों के मन में यह धारणा होती है कि इस काल खण्ड के सभी  कवि  भक्त  हैं और यह केवल भक्ति करते हैं और भक्ति के पद रचते हैं। जबकि इन कवियों की रचनाओं में जीवन के रहस्य को समझने की शक्ति है। यह सभी भक्त कवि कामकाजी गृहस्थ हैं, इसीलिए इनके पदों में किसान, मजदूर के साथ बढ़ई और वे सभी कामगार आते हैं जो देश की स्थिति बदलने में सहायक हैं, जो मेहनत कर रहे हैं। इसको हम ऐसे समझ सकते हैं कि इनके पदों में पूरा समाज, समाज के लोग और उनका व्यवसाय भी सम्मिलित है। अर्थात भक्तिकाव्य में तत्कालीन समाज अपने पूरे ताने-बाने के साथ मौजूद है। इसलिए आज पूर्वाग्रह से मुक्त होकर भक्ति काव्य की एक नई व्याख्या की जरुरत है। इसमें भी खासकर संत काव्य की। संत कवियों के लिए आ. शुक्ल का यह कथन कि ये सारे संत लोगों को वैरागी बना रहे थे। ये सभी निवृत्ति गामी हैं जबकि ये सारे कवि प्रवृत्तिगामी हैं। जो लोगों को श्रम और कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। निर्गुण संत श्रम की संस्कृति से आये हुए लोग हैं। कबीर कपड़ा बुनने का काम कर रहे थे। रैदास चर्म से जुड़े काम कर रहे थे। धन्ना और पीपा ठठेरे के काम से जुड़े थे। नामदेव दरजी हैं। यह बात अलग से बताने की जरुरत नहीं है कि संत साहित्य के सभी संत गृहस्थ थे। यही कारण है कि कबीर के यहाँ धर्म और अध्यात्म उस रूप में नहीं है जैसा अन्य के यहाँ है। वे धर्म और अध्यात्म को नये तरीके से परिभाषित करते हैं या कहें कि पहले की बनी परिभाषा को बदल देते हैं। उनके यहाँ अध्यात्म का मतलब घर-द्वार छोड़कर अपनी जिम्मेदारियों से बचकर संन्यास लेना नहीं था। बल्कि वे कर्म में रत रहकर भी जो एक गृहस्थ की कठिनाईयाँ हैं उसको समझकर अध्यात्म की नई पौध विकसित करते हैं। इस संबंध में गोपेश्वर सिंह लिखते हैं कि -“कबीर धर्म और अध्यात्म की नयी जमीन तैयार करते हैं। उनके साथ एक विलक्षण और अभूतपूर्व सिलसिले की शुरुआत होती है। वे संन्यास का अर्थ बदल देते हैं। कबीर के पहले संन्यास का अर्थ था-घर-द्वार छोड़कर, पत्नी वगैरह से मुक्त होकर अकेला जीवन जीना। बुद्ध पत्नी छोड़कर भागे थे। मतलब यह कि पत्नी संन्यास मार्ग में बाधक है, संन्यास के लिए घर छोड़ना जरुरी है। शंकराचार्य ने तो विवाह ही नहीं किया था। यह हमारे यहाँ संन्यास की परम्परा थी। कबीर ने घर में रहते हुए संन्यास को नया अर्थ दिया। उन्होंने बताया कि बाल-बच्चों के साथ रहते हुए, रोजी-रोटी कमाते हुए, चरखा चलाते हुए और कपड़ा बेचकर, पैसा कमाकर भी संन्यासी हुआ जा सकता है। यह संन्यास का नया अर्थ था, जिसकी घोषणा कबीर ने डंके की चोट पर की।”[2] इस उद्धरण से हम समझ सकते हैं कि इन कवियों ने संत की परिभाषा, परिधान और आडम्बर के स्थान  पर आचरण और सहज विवेक को विकसित किया । कथनी के स्थान पर करनी पर बल दिया। काम करने से आत्मविश्वास बनता है और इस संत कवियों के आत्मविश्वास का सबसे बड़ा कारण उनका श्रममय जीवन था। कबीर लिखते हैं -

“श्रम ही ते सब होत है, जो मन सखी धीर।
श्रम ते खोदत कूप ज्यों, थल में प्रागटे नीर।।[3]


            साधना स्वयं श्रम का पर्याय है । श्रम करने पर सभी कार्य संभव हो सकते हैं। इसके साथ ही कबीर एक चीज और जोड़ते हैं कि श्रम के साथ धैर्य भी होना चाहिए। कुआँ खोदने जैसा दुसाध्य काम करने पर मेहनत का ही फल है कि उसमें से पानी निकल आता है। अगर हम मेहनत के साथ धैर्य छोड़ दें तो यह काम कभी भी सफल नहीं हो सकता।

“कुँभरा ह्वै करि बासन धरिहूँ, धोबी ह्वै मल धोऊँ।
चमरा ह्वै करि बासन रँगों, अघौरी जाति पाँति कुल खोऊँ।। 
तेली ह्वै तन कोल्हूँ करिहौं, पाप पुंनि दोऊँ।
  पंच बैल जब सूध चलाऊँ, राम जेवरिया जोरूँ।।”[4]


            इस पद को यदि हम गौर से देखे तो पाएंगे कि यहाँ बर्तन बनाने वाला कुंभार भी है। मैला कपड़ा धोने वाला धोबी भी। यहाँ चमार भी है जो बर्तन रंगने का काम नहीं करता, यहाँ वह अघोरी जातियाँ भी हैं जो समाज के बनाये मानक से अलग काम कर रही हैं इस लिए वह जाति-पाँति और कुल से बाहर कर दी गयी हैं। यहाँ तेल निकालने वाला तेली भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि कबीर के यहाँ अपने-अपने कामों के साथ सब श्रमिक जातियाँ कार्य कर रही हैं। सच तो यही है कि श्रम के बिना कुछ नहीं मिलता। कबीर के यहाँ सभी श्रमिक मौजूद हैं जो एक बेहतर समाज के लिए श्रम कर रहे हैं। श्रम करने वाला व्यक्ति किसी की दया पर नहीं चलता। यह सभी श्रमिक अपने कार्य और कर्म के गौरव से युक्त हैं। कबीर को भी यह गर्व है कि जब इतने श्रमशील लोग यहाँ हैं तब किसी भी भवसागर को पार किया जा सकता है, चाहे वह कितना ही दुष्कर ही क्यों न हो। गोपेश्वर सिंह लिखते हैं-“स्वतंत्रता आन्दोलन के बीच खड़ा गाँधी के एक हाथ में समता तो दूसरे में चरखे की कताई है। जहाँ एक ओर सामाजिक समानता है तो दूसरी ओर समाज को रोजगार भी है। कबीर की त्रिवेणी है श्रम, अध्यात्म और ग्राह्स्थ। गाँधी जी भी श्रम अध्यात्म और ग्राहस्थ को अपनाते हैं।”[5]

            हम सभी जानते हैं कि कबीर जुलाहा थे और वह इस चरखे का इस्तेमाल सूत कातकर कपड़ा बनाने के लिए करते थे। इसी चरखे का उपयोग स्वतंत्रता आन्दोलन में गाँधी जी भी करते हैं और इस चरखे के माध्यम से ही सबको सूत कातने और स्वावलंबी बनने की प्रेरणा देते हैं। यह “चरखा जो कबीर की रोजी-रोटी का जरिया भी था और चरखा जो उनके आध्यत्मिक अर्थ का सबसे बड़ा रूपक भी था। कबीर कहते हैं कि यह सृष्टि चरखा है और ब्रम्हा रूपी जुलाहा उसे चला रहा है। यदि कबीर के लिए चरखा रोजी-रोटी कमाने का और स्वावलंबन का जरिया है तो उसका आध्यात्मिक अर्थ भी था। गाँधी जी के लिए भी चरखा यही अर्थ रखता है। वे कबीर के इस चरखे के जरिए स्वावलम्बी और आध्यात्मिक भारत का सपना देख रहे थे।”[6] गाँधी जी के चरखे के बारे में तो हम सभी जानते हैं लेकिन यह कम लोग जानते हैं कि यह चरखा आया कहाँ से, यह चरखा जुलाहा कबीर के यहाँ से आया जो सूत कातकर कपड़ा बना रहा था। जो सूत कातकर चादर बीन रहा था-

“झीनी झीनी बीनी चदरिया।
काह के ताना काह के भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।
इंगला पिंगला ताना भरनी, सुषमन तार से बीनी चदरिया।।
आठ कमल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त्व गुण तीनी चदरिया।।
साईं को सियत मास दस लागे, ठोक-ठोक के बीनी चदरिया।।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़िन, ओढ़ि के मैली किनी चदरिया।
दास कबीर यतन से ओढ़िन, ज्यों का त्यों धरि दीनी चदरिया।।”[7]


            देखने में यह पद भले ही आध्यात्मिक लगे लेकिन ‘झीनी झीनी’ चादर बीनने का काम कबीर कर रहे थे। एक कपड़ा बुनने वाला व्यक्ति ही यह जान पाता है कि कौन सा तार या सूत कहाँ लगाना है। इंगला और पिंगला दो इंद्रियाँ हैं जो कपड़ा बुनने में सहायक होती हैं। यानि ताना भरने का काम करती हैं। उसमें जिस तार का उपयोग हुआ है वह सुषमन तार है यानि सारी नस या सिराएँ। जब आठो पहर यह चरखा चलता रहता है और जब शरीर के पाँचों तत्व मिल जाते हैं तब जाकर इस तरह के चादर का निर्माण हो पाता है। जो इसको बनाने वाला अर्थात साईं है, निर्माण कर्ता है, उसको इस तरह की चादर ठोक-ठाक कर बनाने में दस महीने लग जाते हैं। तब जाकर यह चादर बन पाती है। उसी एक चादर को सुर भी ओढ़ते हैं, नर भी ओढ़ते हैं और मुनि भी ओढ़ते हैं। लेकिन उस चादर के अनुरूप आचरण न करने से वह चादर मैली हो गयी है। जो मेहनत करके उसको बुन रहा है वह इसकी कीमत पहचानता है। मेहनत करने वाले ही मेहनत की कद्र करना जानते हैं। जो केवल बाहरी दिखावा करना जानता हो उसको इस चादर की और इसकी मेहनत की कद्र नहीं कर पाता। इस पद के माध्यम से कपड़ा बुनने वाले बुनकर की मेहनत का अंदाजा लगाया जा सकता है।

            यहीं मेहनत गाँधी जी को प्रभावित करती है और कबीर के ‘चरखे’ के माध्यम से आजाद भारत का सपना देखते हैं। केवल ‘चरखा’ ही नहीं गाँधी जी कबीर से ‘हरिजन’ शब्द भी लेते हैं। कबीर लिखते हैं-

“खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ।
कुसबद तौ हरिजन सहै, दुजै सह्या न जाइ।।”[8]


            यहाँ ‘खुंदक’ शब्द का अर्थ ‘पैरों की रगड’ से है। कहने का तात्पर्य यह है कि धरती इतनी सहनशील है कि पैरों के नीचे रौदने के कष्ट को सहन कर लेती है। वन की लगी हुई पंक्ति बाढ़ को रोकने में समर्थ है। यहाँ ‘कुसबद’ का अर्थ लगाया जाय तो वह कुश के समान अंदर तक दुःख देने वाले वचन जो केवल ‘हरिजन’ ही सह सकते हैं।

            प्रश्न यह है कि श्रमशील यह जातियाँ भक्ति की तरफ कैसे मुड़ती हैं जबकि संत कवियों का यह कहना है कि ‘भूखे पेट भजन न होई गोपाला’, उनकी पहली चिंता भोजन को जुटाने की होती है। जब नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है तथा व्यापार और कारोबार में लोगों की भागीदारी बढ़ती है। यातायात के साधनों की व्यवस्था होती है। सिक्के प्रचलन में आते हैं। इन सबसे सामंती ढाँचा कमजोर होने लगता है और इन श्रमशील जातियों की उपस्थिति सुदृढ़ होने लगती है। जाहिर सी बात है कि जब पेट भरा होता है तब भक्ति याद आती है। यहीं कारण है कि जब इन श्रमशील जातियों के पास कुछ पैसे हो जाते हैं तो वह भक्ति की ओर मुड़ता है। लेकिन यह याद रखना होगा कि संत कवियों की भक्ति ‘मानवता’ की भक्ति थी। यहाँ शोषण मुक्त भारत का स्वप्न है। यहाँ राजा और प्रजा का ‘कॉन्सेप्ट’ नहीं है। यहाँ पुरोहित भी नहीं हैं जो लोगों का शोषण करेंगे। यहाँ का समाज समानता का समाज होगा। यही कारण है कि जिस प्रकार से “कबीर चरखा के जरिये, जिस स्वाभिमान और आर्थिक स्वावलंबन का सन्देश दे रहे थे, उसके आशय को गाँधी जी ने ग्रहण किया था। उसके जरिये उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य से लोहा लिया और उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।”[9]

            कबीर और रैदास समकालीन हैं। कबीर वर्त्तमान व्यवस्था के प्रति विद्रोही तेवर अपनाते हैं। लेकिन रैदास के यहाँ विनम्रता है। प्रो.चौथीराम लिखते हैं-“रैदास का व्यक्तित्त्व कबीर जैसा निर्भीक और प्रखर भले न रहा हो लेकिन दोनों समकालीन मित्र एक ही सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियों की देन थे जिनमें धार्मिक वर्चस्ववाद, धर्मान्धता, अत्याचार, अनाचार आदि समाज में हावी थे। सामंती-पुरोहिती उस अलगाववादी समाज व्यवस्था में साधनहीन असहाय जनता का धार्मिक-आर्थिक शोषण और राजसत्ता का दमन एवं उत्पीड़न बदस्तूर जारी था जिसका प्रतिरोध इन संतों के प्रेमभाव, अध्यात्म भाव और सामाजिक चिंतन आदि सभी में किसी न किसी रूप में व्याप्त दिखाई देता है।”[10] कोई भी लेखक अपने समय से निरपेक्ष नहीं रह सकता। रैदास के काव्य में भी पूरा समय देखा जा सकता। रैदास मनुष्य का धर्म दिन-रात काम करना मानते हैं। निश्चित ही कर्म करने वाला व्यक्ति फल को प्राप्त करता है।

            प्रो.सदानंद शाही भाषा की उत्पत्ति के मूल में मानवीय श्रम को मानते हैं और कविता से श्रम का बहुत निकट संबंध जोड़ते हैं। यह बात सही है कि कविता और श्रम एक दूसरे के पूरक हैं। रैदास इसी श्रम कविताई के कवि हैं। वे लिखते हैं-

“रविदास मानुष का धर्म है करम करहिं दिन रात।
करमह फल पावना नहि काहू के हाथ।।”[11]


            जब आज भी हम समाज की संरचना को देखते हैं कि यहाँ श्रम करने वाले व्यक्ति और अधिक पूँजी वाले  व्यक्ति में एक गहरी खाई है। जो व्यक्ति जितना बड़ा और मुश्किल काम करता है वह समाज में उतना हेय माना जाता है।“रैदास जिस समय और समाज में हुए थे उसमें मनुष्य के श्रम को अवमानित किया जाता था। जो जितना ही उपयोगी श्रम करता है वह सामाजिक ढाँचे में उतना ही हीन माना जाता है। रैदास ने अपनी काव्य साधना से वर्ण श्रेष्ठता को चुनौती दी और मानवीय श्रम को प्रतिष्ठित किया। आम तौर पर हमारे समाज में अकर्मण्यता साधुता का प्रचलन रहा है। इसके बरक्स रैदास श्रमशील साधुता का आह्वाहन करते हैं और कहते हैं।........उनका साहित्य वर्ण आधारित श्रेष्ठता को चुनौती देता है। वर्ण व्यवस्था दर असल सामाजिक श्रम के अपहरण का ही रूप है, इस लिए सामाजिक श्रम की प्रतिष्ठा का जो संदेश रैदास की कविता और जीवन से मिलता है वह आज भी हमारे समाज की परम कामना है।”[12] लेकिन रैदास के यहाँ अपने काम को लेकर कहीं कोई हीन भावना नहीं है। चमड़े का काम करने वाले को आज भी उपेक्षित ही किया जाता है और तब भी यही स्थिति थी। रैदास को अपनी जाति और पेशे को लेकर कोई दुराग्रह नहीं है, दोनों को वह डंके की चोट पर स्वीकार करते हैं।

 “बता रे पंडित ज्ञानी कौन चाम से न्यारा।
चाम का ब्रहमा चाम का विष्णु चाम का सकल पसारा ।। 
चाम अम्बर चाम की धरणी चाम का है जग सारा ।
चाम का चन्दा चाम का सूरज चाम का नौलख तारा ।।
चाम का योगी चाम का भोगी चाम के गुरू तुम्हारा ।
 कह रविदास सुनो रे पंडित ज्ञानी चाम का गुरू नाहि हमारा ।।”[13]


            ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ वाले रैदास ललकारते हुए कहते हैं और पंडितों से पूछते हैं चाम से न्यारा क्या हो सकता है। चमड़े को लेकर किसी के मन में घृणा हो सकती है लेकिन रैदास के लिए चमड़े में ही ब्रम्हा, विष्णु, धरती-आकाश, सूरज-चंदा, योगी, भोगी, गुरु सब हैं। यहाँ कोई अलग से ज्ञानी गुरु नहीं है। आगे कहते हैं-

“जब देखा तब चामे चाम मन्दिर मह खेले राम ।
चाम का ऊंट चाम का नगारा चामे चाम बजावन हारा।। 
चाम का बछड़ा चाम की गाय चामे चाम दुहावन जाय ।
चाम का घोड़ा चाम की जीन चामे चाम करे तालीम ।। 
चाम पुरुष चाम कीजो चामे चाम मिलावा हो ।
कहि रविदास चाम हमारा भाई चाम मन्दिर मह हर देह दिखाई।।”[14]


            जहाँ देखो वहाँ चाम ही दिखाई दे रहा है। सारा संसार चाममय हो गया है। यह शरीर रूपी मंदिर भी चाम का ही बना है। हिन्दुओं के यहाँ पूजी जाने वाली गाय और उसका बछड़ा भी चाम के ही हैं ।यहाँ तक कि घोड़ा और उसकी जीन भी चाम का ही है, चाम ही चाम को तालीम दे रहा है। चाम का पुरुष है और चाम से ही काम कर रहा है। संत रविदास कहते हैं यह चाम ही हर मंदिर-मस्जिद सब जगह दिखाई पड़ता है।

रैदास अपनी जाति को लेकर कहते हैं-

“मेरी जाति कमीनी, पांति कमीनी, ओछा जनमु हमारा।
तुम सरनागति राजा रामचंद, कहि रैदास चमारा।।”[15]


            हमारा यह समाज श्रमिक वर्ग को सबसे निचले पैदान पर रखता है। चमड़े का काम करने वाली, जाति के आधार पर तथा कर्म के आधार पर समाज में उपेक्षित रहे हैं। लेकिन रैदास कहते हैं हमारी जाति-पाति कमीनी घोषित कर दी गई है। इस जाति में जन्म लेना भी उपेक्षित मान लिया गया है। हे! ईश्वर मैं रैदास चमार तुम्हारी शरण में आ गया हूँ। रैदास को इस जाति में जन्म लेने का कोई मलाल नहीं है। अगर मलाल होता तो वे ‘रैदास चमारा’ नहीं कहते है।

            हम देखते हैं कि सामाजिक जागरण का कोई भी आन्दोलन हिंदीतर राज्यों में पहले होता है। उसी तरह भक्ति आंदोलन के संबंध में भी यह कहा जा सकता है। इस सन्दर्भ में गोपेश्वर सिंह लिखते हैं-“उत्तर भारत में निर्गुणपंथी संतों ने जिस वैकल्पिक धर्म और समाज का स्वप्न देखा और जिसके लिए उन्हें ‘कविता के वर्जित प्रदेश’ में प्रवेश करना पड़ा, उसकी शुरुआत मराठी, कन्नड़, तेलगु आदि हिन्दीतर भारतीय भाषाओँ में कुछ पहले हो चुकी थी। वैकल्पिक धर्म और समाज-रचना का स्वप्न कुछ आगे-पीछे पूरे देश की निम्नवर्गीय जनता देखने लगी थी।”[16] इस तरह हम देखते हैं कि ये संत कवि धर्म की एक नयी आधारशीला रख रहे थे। वे बता रहे थे कि मंदिर-मस्जिद बाहर नहीं है बल्कि हमारा शरीर ही मंदिर है। यही बात कबीर के बहुत समय पहले लगभग 12वीं शताब्दी के कन्नड़ कवि वसवन्ना कर रहे थे -

धनी लोग तुम्हारे मंदिर बनवाएँगे
मैं क्या करूँगा?
मैं-एक गरीब आदमी?
मेरे पैर ही स्तंभ हैं
शरीर मंदिर
और सिर सोने का गुम्बद
हे भगवान !हे कूडल संगम देव !
सुनो !
स्थावर चीजें मिट जाएँगी
किन्तु जंगम चीजें सदा बनी रहेंगी।”[17]


            हमें याद करना होगा कि आज भी दक्षिण में बड़े-बड़े मंदिर स्थापित हैं, जहाँ लाखों का कारोबार रोज होता है। जितना बड़ा और भव्य मंदिर होगा वहाँ की कमाई और ज्यादा होगी। वसन्ना इन सबको देख-समझ रहे थे। इसी लिए कहते हैं कि इतना बड़ा मंदिर बनवाना हमारे वश की बात नहीं, यह केवल वसवन्ना की ही बात नहीं है। कोई भी साधारण व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है। इसी लिए वसन्ना शरीर को ही मंदिर और अपने हाथ पैर को मंदिर का स्तंभ मानने की बात करते हैं। वसन्ना कहते हैं जो यह ‘स्थावर’ (यहाँ ‘स्थावर’ जो जल्द ही नष्ट होने वाली वस्तु से लगाया गया है) चीजें हैं वह मिट जाएँगी लेकिन ‘जंगम’ (जिसका परिवर्तन जल्दी नहीं होता) चीजें हमेशा बनी रहेंगी।

वसन्ना धार्मिक पाखंड और कर्मकाण्डों को अपने लपेटे में लेते हुए लिखते हैं-

“देखा-पनचक्कियों के सिर झुके हैं
किन्तु उससे क्या?
क्या वे प्रभु के प्रति समर्पित हैं?
देखा-चिमटे के हाथ जुड़े हैं
किन्तु उससे क्या
क्या वे प्रभु की पाद-सेवा विनम्रतापूर्वक कर सकते हैं?
देखा-तोते पढ़ते हैं
किन्तु उससे क्या ?
क्या वे प्रभु को पढ़ सकते हैं।”[18]


            वसन्ना यहाँ सवाल खड़ा करते हैं कि बाहरी दिखावा कुछ नहीं होता जब तक अन्दर आत्मा से जुड़ाव न हो। यहाँ कवि एक रूपक बांधता है और पनचक्की, चिमटा, तोता आदि का दृष्टान्त देते हुए कहता है कि इसको भक्ति नहीं कहा जा सकता। कवि यहाँ उन वस्तुओं को अपनी कविता में उपमा देता है जो उसके दैनिक व्यवहार की चीज है, जिससे उसका रोज पाला पड़ रहा है। गोपेश्वर सिंह के शब्दों में कहें तो संत कवियों के उत्पादन के औजार ही कविता के उपकरण बन जाते हैं।

            मध्यकाल के समय में महाराष्ट्र में वारकरी पंथ प्रचलित था। ‘वारकरी’ का अर्थ ‘यात्रा करने वाला’ से लगाया जाता है। पंथ की दृष्टि से ‘वारकरी’ से आशय पढंरपुर के बिट्ठल के उपाशक हैं जो वर्ष में दो बार बिट्ठल के दर्शन करने जाते हैं। इस संप्रदाय को प्रतिष्ठित करने का श्रेय संत ज्ञानेश्वर को जाता है। संत ज्ञानेश्वर और नामदेव समकालीन थे जो अपनी भक्ति और कार्य के कारण महाराष्ट्र के बाहर भी स्थान पाये। इस संप्रदाय की विशेषता यह रही कि इसके जाति-पांति का भेदभाव तो नहीं ही था साथ ही स्त्री-पुरुष का भी भेद नहीं था। सबके लिए द्वार खुले थे। इस संप्रदाय से जुड़े सभी संत निम्नवर्गीय एवं श्रम से जुड़े हुए थे जिनमें संत ज्ञानेश्वर और नामदेव (दर्जी), गोरा कुम्हार, नरहरि सुनार, चोखा मेला महार, जनाबाई दासी,कान्होपात्रा वेश्या आदि हैं।

            नामदेव का जन्म 1292 ई. के आसपास माना जाता है। नामदेव के पिता कपड़े का व्यवसाय करते थे। इसी व्यवसाय से ही पूरे परिवार का पालन-पोषण होता था। नामदेव भी पिता के व्यवसाय को ही आगे बढ़ाया। नामदेव को लिखते हैं-

“हीन दीन जाति मोरी पंढरी के राया।
ऐसा तुमने नामा दरजी कायक बनाया।।”[19]


            नामदेव को इस बात का कष्ट रहा कि श्रम करने वाली यह जातियाँ समाज में घोर उपेक्षा की शिकार रही हैं। आगे लिखते हैं-

“हरि दरजी का मरम न पाया। जिन बागा खूब बनाया।।”[20]


            महाराष्ट्र में इसी समय एक और महत्वपूर्ण संत चोखामेला जी हुए। इनके जन्म के विषय में सटीक जानकारी का अभाव है लेकिन विद्वान इनका जन्म सन 1270 या इसके आसपास, महाराष्ट्र के मेहुणपुरी, तालुका देऊलगाव, जिला बुलढाणा में हुआ मानते हैं। ये जाति के महार थे। चोखा मेला नामदेव को अपना गुरु मानते थे। इनके पदों में सामाजिक परिवर्तन का संदेश है। ये समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता, व्याप्त शोषण और विषमता को सबके सामने रखते हैं इनकी रचनाएँ वंचित समाज के लिए चिंतन का एक बेहद महत्वपूर्ण दस्तावेज है इन्हें भारत के वंचित वर्ग का पहला कवि भी स्वीकार किया गया है। इन्होंने जन सामान्य के लिए भक्ति का सरल मार्ग चुना।

            चोखामेला का समय वह समय था जब उनके दादाओं को उच्च हिन्दू वर्ग के लोगों के मरे हुए जानवरों को बिना मजदूरी के ढोना पड़ता थाइन्हें अपने रहने के लिए गाँव के बाहर मुर्दाहिया ही घर बनाना पड़ता था जूठन के सहारे ही अपना पेट पालना पड़ता था। इस सामाजिक असमानता के बीच चोखा मेला का पालन पोषण होता है। इसी लिए तो वह लिखते हैं-

“धिक् तो आचार धिक् तो विचार। धिक् तो संसार धिक् जन्म।
धिक् ते पठन धिक् में पुराण। धिक् यज्ञ हवन केलें तेणें।।
धिक् ब्रह्मज्ञान वाउग्या ह्या गोष्टी। दया क्षमा पोटी शांति नाहीं।
धिक् तें आसन जटाभार माथा। वायांचि हे कंथा धरिली जेणें।।
चोखा म्हणें धिक् जन्मला तो नगर। भोगी नरक घोर अंतकाली।।”


            चोखा मेला बाहरी दिखावा, कर्मकांडों यज्ञ, हवन आदि को निरर्थक बताते हुए कर्म की साधना पर बल देते हैं। वे ऐसे किसी भी ज्ञान को स्वीकार नहीं करते जो अपने आचरण में दया, क्षमा और शांति जैसे मूलभूत बातों को जगह न दे सके। कबीर के समान ये भी छापा तिलक करने वाले ढोंगियों की खबर लेते हैं। इन संतों ने भक्ति के एकाधिकार समाप्त कर उसे जन सामान्य के लिए खोल दिया। भले ही इसके लिए उनकों तमाम यातनाएँ दी गयीं। उच्च जातियों का निम्न जातियों के साथ हुए दुर्व्यवहारों का वर्णन चोखा मेला के पदों में देखा जा सकता है। दुर्व्यवहार का आलम यह था कि लोग उनको भक्ति करने नहीं दिए और उनको शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देते रहे। अंततः उन्हें अपना गाँव छोड़ने के लिए मजबूर कर दिए। वे लिखते हैं -

              उस समय महार गाँव की रखवाली और मजदूरी का काम करते थे। गाँव में काम जातियों के आधार पर बटे हुए थे। मजदूरी को ‘बतुलेदारी’ कहा जाता था। चोखा मेला भी ‘बतुलेदारी’ का काम करते थे। एक बार दीवार निर्माण के दौरान दीवार ढह गयी उसके नीचे दबकर कई महार मजदूर मर गये उनमें से चोखा मेला भी थे। चोखा मेला की पत्नी सोयरा भी अभंग के पद रचती थीं। उनकी कविताओं में भी तत्कालीन व्यवस्था के प्रति असंतुष्टि दिखाई पड़ता है।

            संत तुकाराम वणिक जाति से आते हैं। इन्होंने धार्मिक आडंबर, जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेदभाव को नष्ट करने का प्रयास किया। तुकाराम के जीवन संबंधी अनेक सूत्र उनके अभंगों से प्राप्त होते हैं। जिनके आधार पर हम उनके जीवन काल की घटनाओं का क्रमवार अध्ययन कर सकते हैं। तुकाराम का जन्म ई.स. 1608 में पूना जिले से 18 मील दूर इन्द्रायणी नदी के तट पर स्थित "देहू" नामक ग्राम के एक संपन्न परिवार में हुआ था। तुकाराम के पूर्वज महाजनी और व्यापार करते थे। उनकी जाति तत्कालीन जाति व्यवस्था के अनुसार शूद्र मानी जाती थी। तुकाराम हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं एवं उनकी पृष्ठभूमि से परिचित थे। तुकाराम लिखते हैं-

“कहाँ से लाऊँ मधुरा बानी। रीसे ऐसी लोक बिरानी।
गिरधर लाला तो भाव का भुका। राग कला नहीं जानत तुका।।
चित्त मिले तो सब मिले। नहीं तो फुकट संग।
पानी पाथर ऐक ही डोर। कोरनभिगे अंग।।”[21]


               तुकाराम कहते हैं गिरधर तो भाव का भूखा है। वह राग, कला और मधुर बानी नहीं चाहता। वह केवल चित्त मिलने की बात करता है। उसके लिए माध्यम कुछ भी हो सकता है। हम जानते हैं कि मेहनतकश किसान, दस्तकार, मजदूर आदि सभी उत्पादन से जुड़े हैं। इस लिए इनकी भाषा में किसानी, मजदूरी के औजार ही बोलते हैं।

                मध्यकाल का यथार्थ है ‘भूख’ इसको तुलसीदास भी बताते हैं और संत कवियों के यहाँ तो भूख की निजी अभिव्यक्ति है। जहाँ भयंकर गरीबी है दो जून की रोटी के लिए भी अथक परिश्रम करना पड़ता है। नौबत तो भूखों मरने की आ जाती है। इसी ‘भूख’ की अभिव्यक्ति पलटू साहब के यहाँ दिखाई पड़ती है-

“पलटू रहे गरीब होय, भूखे को खाय।
संतन के सिर ताज है, सोई सन्त ह्वै जाय।।”[22]


           संत कवियों के यहाँ श्रम की महत्ता है। उनको वह वैराग्य किसी भी दशा में स्वीकार्य नहीं है जो श्रम और घर परिवार में रहकर ही, गृहस्थ का जीवन जीते हुए कवि कर्म करते हैं। पलटू साहब लिखते हैं-

“जियते मरना भला है, नहीं भला बैराग।”[23]
पलटू साहब ऐसे वैराग्य से मरना भला मानते हैं।


           भक्ति आंदोलन के संत कवि पीपा का जन्म राजस्थान में हुआ था। चली आ रही वर्ण व्यवस्था की जगह श्रमिक वर्ग के श्रृजन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। यह वर्ग दिन-रात परिश्रम करने के उपरांत भक्ति करता था -

“हाथां सै उद्यम करै, मुख सौ ऊचरे राम।
पीपा सांधा रो धरम, रोम रमारै राम।।”[24]


            पीपा का मानना था मानव मन में ही सारी सिद्धियाँ और उपलब्धियाँ विद्यमान हैं। इन्होंने गृहस्थ धर्म का निर्वहन करते हुए भक्ति का संदेश दिया। पलायनवादी भक्ति को वे स्वीकार नहीं करते। पीपा लोकमंगल की समन्वयवादी परंपरा के वाहक थे। ये सामाजिक भेद-भाव और पर्दाप्रथा के घोर विरोधी थे। बाद के दिनों में पीपा अपने हाथों से सिले वस्त्र ही पहने थे इस लिए दर्जी समुदाय इनको अपना गुरु मानता था।

            धन्ना का जन्म राजस्थान के टान्क इलाका का धुवन गाँव माना जाता है। इनका पेशा कृषि था। वे लिखते हैं -

“बुनना तनना तिआगिकै, प्रीति चरन कबीरा।
नीच कुला जोलाहरा भइंउ गुनीय गहिरा।।


            ‘वारकरी’ संप्रदाय की विशेषता ही रही है कि यहाँ पुरुषों के साथ स्त्री संत भी आती हैं। हाँ यह जरुर है इनकी संख्या अँगुलियों पर गिनी जा सकती है। जिनमें सोयराबाई, बहेणाबाई, निर्मलाबाई के साथ ही गणिका की पुत्री होने से निरंतर अपमान सहने वाली कान्होंपात्रा के साथ मुक्ताबाई और जनाबाई का नाम लिया जा सकता है। जनाबाई के पद स्त्री जीवन की अभिव्यक्ति है। इनके पद आत्मपरक हैं। उनको अपने स्त्री होने का दुःख नहीं है वह लिखती हैं- ‘स्त्री जन्म म्हणुनिया न व्हा उदास’ जनाबाई महाराष्ट्र के मराठवाड़ा संभाग के गंगाखेड़ में करूंड व दमा नामक विट्ठल दम्पति के घर हुआ था। बाल्यावस्था में ही माता की छाया से वंचित जनाबाई के पिता बेटी का पालन-पोषण करने में असमर्थ हुए और अपनी बेटी को नामदेव के पिता को शौंप दिया। जनाबाई नामदेव के घर की दासी हो गयीं। जनाबाई के कष्ट का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वह एक स्त्री, एक दासी, एक अनाथ और जाति के निम्न वर्ग से संबंधित थीं। यह एक स्त्री की अनोखी दृष्टि ही है जो अपने आराध्य विट्ठल को भी मानवीय धरातल पर खड़ा देती है। उन्होंने कठिन श्रम को ही अपना साथी बनाया।  यह श्रम ही उनके एकाकीपन में उनकी सहायता करता था। वे सहजता से अपने श्रम के अनुभव को व्यक्त करती हैं कि झाड़ना, बुहारना, चक्की पीसना, उखल में कूट पीटकर धान से छिलके निकलना, पानी भरना, गोबर आदि से लिपाई-पुताई करना आदि उनके दैनिक जीवन का काम था। वे लिखती हैं-

“झाडलोट करी जनी केर भरी चक्रपाणी”[25] (मैं झाड़ती-बहारती हूँ, मेरा ईश्वर कचरा उठाता है)
“जनी जाय शेणासाठी उभा आहे तिच्या पाठी।
तांबराची कांस खोवी मागे चाले जनाबाई ।।”[26]
(गोबर लाने, लीपा पोती करने में पितांबरधारी मेरी मदद करते हैं)
“जनी जाय पाणीयासी मागे धांवे हृषिकेशी।
पाणी रांजणात भरी सडा सारवण करी ।।”[27]

(पानी भरने आदि में हृषिकेश मेरी सहायता करते हैं)


            इस प्रकार हम देखते हैं कि जनाबाई श्रम को ही अपना आराध्य मान लेती हैं।         

            अंततः आज के दो धारी समय में जब साधू-संतों का काम जनता को ठगने का हो गया है। बिना श्रम के वह बड़ी-बड़ी गाड़ियों और महलों में रहकर विलासी जीवन जीने के आदि हो गये है तब इन श्रमशील कवियों को याद किया जाना ज्यादा जरुरी हो जाता है। कालखण्ड के हिसाब से संत साहित्य मध्ययुगीन होने के बावजूद उसकी  वैचारिकी आधुनिक भारतीय समाज और राष्ट्र निर्माण का जो  सपना आधा अधूरा सा है, उसको पूरा करने के लिए एक निहायत आधुनिक हथियार है, किन्तु विडम्बना तो यह है कि अब भी भारतीय मध्यवर्ग इस दृष्टि एवं परम्परा से दूर है। वह इनके द्वारा रोपी गई श्रम की संस्कृति के बजाय इनके नाम पर फैलाए जा चमत्कार के भ्रम में फस जा रहा है। जबकि संतों की बानिया समाज के सामान्यजन और हाशिये के लोगों के लिए एक परिवर्तन का  युगान्तकारी हथियार साबित हो सकता है।

            संतों ने लोगों  के साथ अपने भजनों में अध्यात्म और श्रम के गीत गाए हैं। यह उनकी लोक व्याप्ति की एक बड़ी ताकत है। यही कारण है कि इनकी कविताएँ सैकड़ों वर्षों से लोक कंठ में सुरक्षित हैं, यह  श्रमशील संत लोगों  के साथ भजन करते हैं और अपनी जनजागरूकता की बात भजन के सहारे प्रस्तुत करते हैं जो कि सहजता से लोक में, लोगों के मन में पैठ बनाती जाती है। इस जन जागरूकता एवं साधुता के साथ श्रम की प्रतिष्ठा करने वाले संत कभी राज्याश्रय में नहीं रहे, सदैव लोकाश्रय में रहे। जिनके साथ भजन करते थे उन्हीं की व्यवस्था में भोजन तथा विश्राम करते थे जिससे व्यक्तिगत कठिनाइयों एवं समाजगत सच्चाइयों से रू--रू होते रहते थे। साथ में भोजन करते थे, उस समय की जटिल जाति व्यवस्था (जो कि आज भी जटिल है), जिसका सीधा संबंध छुआछूत से है, टूटती थी। सामाजिक वैमनुष्यता कम होती थी और मनुष्यता की नींव मजबूत होती है। इस सन्दर्भ में पुरुषोत्तम अग्रवाल के मत से हम सहमत हो सकते हैं कि -“साहित्यिक बिरादरी से बाहर निकलकर व्यापक समाज में देखें तो कबीर, तुकाराम, तुलसी, मीरा, नरसी मेहता किसी भी समकालीन कवि से अधिक समकालीन हैं।” इसी भक्तिकाल की एक शाखा संत कवियों के रूप में देखी जा सकती है। संत साहित्य वह साहित्य है जो वर्तमान समय की जाति-पाति के भेदभाव पर टिकी इस सामाजिक और धर्म की व्यवस्था को बदलने की शक्ति देता है। संत कवि शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से दबने वाले कवि नहीं हैं बल्कि वे लोकजीवन के कवि हैं और पूरा संत साहित्य सामन्तवाद विरोध का काव्य है।

संदर्भ :
                                                                                                                                  
[1] अनभै सांचा, मैनेजर पाण्डेय, पूर्वोदय प्रकाशन, नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 2002,पृष्ठ.2
[2] भक्ति आंदोलन और काव्य- गोपेश्वर सिंह,वाणी प्रकाशन,दरियागंज नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 2017,पृष्ठ-85
[3] कबीर ग्रंथावली, संपादक- श्यामसुन्दरदास, पृष्ठ-               
[4] जाति के प्रश्न पर कबीर- कमलेश वर्मा, द मार्जिनलाइज्डइग्नू रोड नई, दिल्ली, प्रथम संस्करण2017,पृष्ठ.110
[5] कबीर का काव्य उद्योग और आध्यात्म का मिलन: प्रो. गोपेश्वर सिंह, https://livevns.news/uttar-pradesh/union-of-Kabir-s-poetry-industry-and-spirituality/cid8332444.htm
[6] भक्ति आंदोलन और काव्य- गोपेश्वर सिंह,वाणी प्रकाशन,दरियागंज नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 2017,पृष्ठ-884
[7] जाति के प्रश्न पर कबीर- कमलेश वर्मा, द मार्जिनलाइज्डइग्नू रोड नई, दिल्ली, प्रथम संस्करण,148 
[8] कबीर ग्रंथावली सटीक, संपादक- श्यामसुन्दरदास, पृष्ठ-244         
[9] भक्ति आंदोलन और काव्य- गोपेश्वर सिंह,वाणी प्रकाशन,दरियागंज नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 2017,पृष्ठ-86
[10] उत्तरशती के विमर्श और हाशिए का समाज-चौथीराम यादव,अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड, प्रथम संस्करण2014, पृष्ठ-81 
[11] संत रविदास एक विश्लेषण-कँवल भारती, बोधिसत्त्व प्रकाशनरामपुर, परिवर्धित द्वितीय संस्करण-2000, पृष्ठ-166
[12] https://ashrutpurva.com/?p=10117
[13] संत रविदास एक विश्लेषण-कँवल भारती, बोधिसत्त्व प्रकाशनरामपुर, परिवर्धित द्वितीय संस्करण-2000, पृष्ठ171
[14] संत रविदास एक विश्लेषण-कँवल भारती, बोधिसत्त्व प्रकाशनरामपुर, परिवर्धित द्वितीय संस्करण-2000, पृष्ठ171
[15] जाति के प्रश्न पर कबीर- कमलेश वर्मा, द मार्जिनलाइज्डइग्नू रोड नई, दिल्ली, प्रथम संस्करण,100
[16] भक्ति आंदोलन और काव्य- गोपेश्वर सिंह,वाणी प्रकाशन,दरियागंज नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 2017,पृष्ठ-57
[17] भक्ति आंदोलन और काव्य- गोपेश्वर सिंह,वाणी प्रकाशन,दरियागंज नई दिल्ली,प्रथम संस्करण 2017,पृष्ठ-57
[18] वही, पृष्ठ-58
[19] https://www.egyankosh.ac.in/handle/123456789/28104
[20] ibid
[21] https://www.egyankosh.ac.in/handle/123456789/28104
[22] भक्ति आंदोलन: इतिहास और संस्कृति- संपादक:प्रो.कुँवरपाल सिंह, प्रकाशन-वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण-2008, पृष्ठ-179
[23] भक्ति आंदोलन: इतिहास और संस्कृति- संपादक:प्रो.कुँवरपाल सिंह, प्रकाशन-वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण-2008,पृष्ठ-185
[24] https://hihindi.com/sant-pipa-ke-dohe-with-meaning-in-hindi/
[25] https://www.hindisamay.com/content/6122/1
[26] https://www.hindisamay.com/content/6122/1
[27] https://www.hindisamay.com/content/6122/1


डॉ. संगीता मौर्य
सहायक प्रो., हिंदी, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर
sangitam84@gmail.com, 9026115390


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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