मैनेजर पाण्डेय अपनी पुस्तक अनभै सांचा में लिखते हैं कि-“आलोचना की समकालीनता का एक पक्ष यह भी है कि वह अतीत की महत्त्वपूर्ण रचनाओं की खोज करें। हाल के वर्षों में विजयदेव नारायण साही ने जायसी के पद्मावत के नए अर्थ और महत्त्व की खोज की है और विश्वनाथ त्रिपाठी ने मीरा की कविता की नयी पहचान विकसित की है। केवल नया ही समकालीन नहीं होता बल्कि जो सार्थक है वही समकालीन है, चाहे वह पुराना ही क्यों न हो।”[1]
भक्तिकाल नाम से सामान्य लोगों के मन में यह धारणा होती है कि इस काल खण्ड के सभी कवि भक्त हैं और यह केवल भक्ति करते हैं और भक्ति के पद रचते हैं। जबकि इन कवियों की रचनाओं में जीवन के रहस्य को समझने की शक्ति है। यह सभी भक्त कवि कामकाजी गृहस्थ हैं, इसीलिए इनके पदों में किसान, मजदूर के साथ बढ़ई और वे सभी कामगार आते हैं जो देश की स्थिति बदलने में सहायक हैं, जो मेहनत कर रहे हैं। इसको हम ऐसे समझ सकते हैं कि इनके पदों में पूरा समाज, समाज के लोग और उनका व्यवसाय भी सम्मिलित है। अर्थात भक्तिकाव्य में तत्कालीन समाज अपने पूरे ताने-बाने के साथ मौजूद है। इसलिए आज पूर्वाग्रह से मुक्त होकर भक्ति काव्य की एक नई व्याख्या की जरुरत है। इसमें भी खासकर संत काव्य की। संत कवियों के लिए आ. शुक्ल का यह कथन कि ये सारे संत लोगों को वैरागी बना रहे थे। ये सभी निवृत्ति गामी हैं जबकि ये सारे कवि प्रवृत्तिगामी हैं। जो लोगों को श्रम और कर्म करने की प्रेरणा देते हैं। निर्गुण संत श्रम की संस्कृति से आये हुए लोग हैं। कबीर कपड़ा बुनने का काम कर रहे थे। रैदास चर्म से जुड़े काम कर रहे थे। धन्ना और पीपा ठठेरे के काम से जुड़े थे। नामदेव दरजी हैं। यह बात अलग से बताने की जरुरत नहीं है कि संत साहित्य के सभी संत गृहस्थ थे। यही कारण है कि कबीर के यहाँ धर्म और अध्यात्म उस रूप में नहीं है जैसा अन्य के यहाँ है। वे धर्म और अध्यात्म को नये तरीके से परिभाषित करते हैं या कहें कि पहले की बनी परिभाषा को बदल देते हैं। उनके यहाँ अध्यात्म का मतलब घर-द्वार छोड़कर अपनी जिम्मेदारियों से बचकर संन्यास लेना नहीं था। बल्कि वे कर्म में रत रहकर भी जो एक गृहस्थ की कठिनाईयाँ हैं उसको समझकर अध्यात्म की नई पौध विकसित करते हैं। इस संबंध में गोपेश्वर सिंह लिखते हैं कि -“कबीर धर्म और अध्यात्म की नयी जमीन तैयार करते हैं। उनके साथ एक विलक्षण और अभूतपूर्व सिलसिले की शुरुआत होती है। वे संन्यास का अर्थ बदल देते हैं। कबीर के पहले संन्यास का अर्थ था-घर-द्वार छोड़कर, पत्नी वगैरह से मुक्त होकर अकेला जीवन जीना। बुद्ध पत्नी छोड़कर भागे थे। मतलब यह कि पत्नी संन्यास मार्ग में बाधक है, संन्यास के लिए घर छोड़ना जरुरी है। शंकराचार्य ने तो विवाह ही नहीं किया था। यह हमारे यहाँ संन्यास की परम्परा थी। कबीर ने घर में रहते हुए संन्यास को नया अर्थ दिया। उन्होंने बताया कि बाल-बच्चों के साथ रहते हुए, रोजी-रोटी कमाते हुए, चरखा चलाते हुए और कपड़ा बेचकर, पैसा कमाकर भी संन्यासी हुआ जा सकता है। यह संन्यास का नया अर्थ था, जिसकी घोषणा कबीर ने डंके की चोट पर की।”[2] इस उद्धरण से हम समझ सकते हैं कि इन कवियों ने संत की परिभाषा, परिधान और आडम्बर के स्थान पर आचरण और सहज विवेक को विकसित किया । कथनी के स्थान पर करनी पर बल दिया। काम करने से आत्मविश्वास बनता है और इस संत कवियों के आत्मविश्वास का सबसे बड़ा कारण उनका श्रममय जीवन था। कबीर लिखते हैं -
साधना स्वयं श्रम का पर्याय है । श्रम करने पर सभी कार्य संभव हो सकते हैं। इसके साथ ही कबीर एक चीज और जोड़ते हैं कि श्रम के साथ धैर्य भी होना चाहिए। कुआँ खोदने जैसा दुसाध्य काम करने पर मेहनत का ही फल है कि उसमें से पानी निकल आता है। अगर हम मेहनत के साथ धैर्य छोड़ दें तो यह काम कभी भी सफल नहीं हो सकता।
इस पद को यदि हम गौर से देखे तो पाएंगे कि यहाँ बर्तन बनाने वाला कुंभार भी है। मैला कपड़ा धोने वाला धोबी भी। यहाँ चमार भी है जो बर्तन रंगने का काम नहीं करता, यहाँ वह अघोरी जातियाँ भी हैं जो समाज के बनाये मानक से अलग काम कर रही हैं इस लिए वह जाति-पाँति और कुल से बाहर कर दी गयी हैं। यहाँ तेल निकालने वाला तेली भी है। कहने का तात्पर्य यह है कि कबीर के यहाँ अपने-अपने कामों के साथ सब श्रमिक जातियाँ कार्य कर रही हैं। सच तो यही है कि श्रम के बिना कुछ नहीं मिलता। कबीर के यहाँ सभी श्रमिक मौजूद हैं जो एक बेहतर समाज के लिए श्रम कर रहे हैं। श्रम करने वाला व्यक्ति किसी की दया पर नहीं चलता। यह सभी श्रमिक अपने कार्य और कर्म के गौरव से युक्त हैं। कबीर को भी यह गर्व है कि जब इतने श्रमशील लोग यहाँ हैं तब किसी भी भवसागर को पार किया जा सकता है, चाहे वह कितना ही दुष्कर ही क्यों न हो। गोपेश्वर सिंह लिखते हैं-“स्वतंत्रता आन्दोलन के बीच खड़ा गाँधी के एक हाथ में समता तो दूसरे में चरखे की कताई है। जहाँ एक ओर सामाजिक समानता है तो दूसरी ओर समाज को रोजगार भी है। कबीर की त्रिवेणी है श्रम, अध्यात्म और ग्राह्स्थ। गाँधी जी भी श्रम अध्यात्म और ग्राहस्थ को अपनाते हैं।”[5]
हम सभी जानते हैं कि कबीर जुलाहा थे और वह इस चरखे का इस्तेमाल सूत कातकर कपड़ा बनाने के लिए करते थे। इसी चरखे का उपयोग स्वतंत्रता आन्दोलन में गाँधी जी भी करते हैं और इस चरखे के माध्यम से ही सबको सूत कातने और स्वावलंबी बनने की प्रेरणा देते हैं। यह “चरखा जो कबीर की रोजी-रोटी का जरिया भी था और चरखा जो उनके आध्यत्मिक अर्थ का सबसे बड़ा रूपक भी था। कबीर कहते हैं कि यह सृष्टि चरखा है और ब्रम्हा रूपी जुलाहा उसे चला रहा है। यदि कबीर के लिए चरखा रोजी-रोटी कमाने का और स्वावलंबन का जरिया है तो उसका आध्यात्मिक अर्थ भी था। गाँधी जी के लिए भी चरखा यही अर्थ रखता है। वे कबीर के इस चरखे के जरिए स्वावलम्बी और आध्यात्मिक भारत का सपना देख रहे थे।”[6] गाँधी जी के चरखे के बारे में तो हम सभी जानते हैं लेकिन यह कम लोग जानते हैं कि यह चरखा आया कहाँ से, यह चरखा जुलाहा कबीर के यहाँ से आया जो सूत कातकर कपड़ा बना रहा था। जो सूत कातकर चादर बीन रहा था-
यहीं मेहनत गाँधी जी को प्रभावित करती है और कबीर के ‘चरखे’ के माध्यम से आजाद भारत का सपना देखते हैं। केवल ‘चरखा’ ही नहीं गाँधी जी कबीर से ‘हरिजन’ शब्द भी लेते हैं। कबीर लिखते हैं-
यहाँ ‘खुंदक’ शब्द का अर्थ ‘पैरों की रगड’ से है। कहने का तात्पर्य यह है कि धरती इतनी सहनशील है कि पैरों के नीचे रौदने के कष्ट को सहन कर लेती है। वन की लगी हुई पंक्ति बाढ़ को रोकने में समर्थ है। यहाँ ‘कुसबद’ का अर्थ लगाया जाय तो वह कुश के समान अंदर तक दुःख देने वाले वचन जो केवल ‘हरिजन’ ही सह सकते हैं।
प्रश्न यह है कि श्रमशील यह जातियाँ भक्ति की तरफ कैसे मुड़ती हैं जबकि संत कवियों का यह कहना है कि ‘भूखे पेट भजन न होई गोपाला’, उनकी पहली चिंता भोजन को जुटाने की होती है। जब नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है तथा व्यापार और कारोबार में लोगों की भागीदारी बढ़ती है। यातायात के साधनों की व्यवस्था होती है। सिक्के प्रचलन में आते हैं। इन सबसे सामंती ढाँचा कमजोर होने लगता है और इन श्रमशील जातियों की उपस्थिति सुदृढ़ होने लगती है। जाहिर सी बात है कि जब पेट भरा होता है तब भक्ति याद आती है। यहीं कारण है कि जब इन श्रमशील जातियों के पास कुछ पैसे हो जाते हैं तो वह भक्ति की ओर मुड़ता है। लेकिन यह याद रखना होगा कि संत कवियों की भक्ति ‘मानवता’ की भक्ति थी। यहाँ शोषण मुक्त भारत का स्वप्न है। यहाँ राजा और प्रजा का ‘कॉन्सेप्ट’ नहीं है। यहाँ पुरोहित भी नहीं हैं जो लोगों का शोषण करेंगे। यहाँ का समाज समानता का समाज होगा। यही कारण है कि जिस प्रकार से “कबीर चरखा के जरिये, जिस स्वाभिमान और आर्थिक स्वावलंबन का सन्देश दे रहे थे, उसके आशय को गाँधी जी ने ग्रहण किया था। उसके जरिये उन्होंने दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य से लोहा लिया और उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।”[9]
कबीर और रैदास समकालीन हैं। कबीर वर्त्तमान व्यवस्था के प्रति विद्रोही तेवर अपनाते हैं। लेकिन रैदास के यहाँ विनम्रता है। प्रो.चौथीराम लिखते हैं-“रैदास का व्यक्तित्त्व कबीर जैसा निर्भीक और प्रखर भले न रहा हो लेकिन दोनों समकालीन मित्र एक ही सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियों की देन थे जिनमें धार्मिक वर्चस्ववाद, धर्मान्धता, अत्याचार, अनाचार आदि समाज में हावी थे। सामंती-पुरोहिती उस अलगाववादी समाज व्यवस्था में साधनहीन असहाय जनता का धार्मिक-आर्थिक शोषण और राजसत्ता का दमन एवं उत्पीड़न बदस्तूर जारी था जिसका प्रतिरोध इन संतों के प्रेमभाव, अध्यात्म भाव और सामाजिक चिंतन आदि सभी में किसी न किसी रूप में व्याप्त दिखाई देता है।”[10]
प्रो.सदानंद शाही भाषा की उत्पत्ति के मूल में मानवीय श्रम को मानते हैं और कविता से श्रम का बहुत निकट संबंध जोड़ते हैं। यह बात सही है कि कविता और श्रम एक दूसरे के पूरक हैं। रैदास इसी श्रम कविताई के कवि हैं। वे लिखते हैं-
जब आज भी हम समाज की संरचना को देखते हैं कि यहाँ श्रम करने वाले व्यक्ति और अधिक पूँजी वाले व्यक्ति में एक गहरी खाई है। जो व्यक्ति जितना बड़ा और मुश्किल काम करता है वह समाज में उतना हेय माना जाता है।“रैदास जिस समय और समाज में हुए थे उसमें मनुष्य के श्रम को अवमानित किया जाता था। जो जितना ही उपयोगी श्रम करता है वह सामाजिक ढाँचे में उतना ही हीन माना जाता है। रैदास ने अपनी काव्य साधना से वर्ण श्रेष्ठता को चुनौती दी और मानवीय श्रम को प्रतिष्ठित किया। आम तौर पर हमारे समाज में अकर्मण्यता साधुता का प्रचलन रहा है। इसके बरक्स रैदास श्रमशील साधुता का आह्वाहन करते हैं और कहते हैं।........उनका साहित्य वर्ण आधारित श्रेष्ठता को चुनौती देता है। वर्ण व्यवस्था दर असल सामाजिक श्रम के अपहरण का ही रूप है, इस लिए सामाजिक श्रम की प्रतिष्ठा का जो संदेश रैदास की कविता और जीवन से मिलता है वह आज भी हमारे समाज की परम कामना है।”[12] लेकिन रैदास के यहाँ अपने काम को लेकर कहीं कोई हीन भावना नहीं है। चमड़े का काम करने वाले को आज भी उपेक्षित ही किया जाता है और तब भी यही स्थिति थी। रैदास को अपनी जाति और पेशे को लेकर कोई दुराग्रह नहीं है, दोनों को वह डंके की चोट पर स्वीकार करते हैं।
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ वाले रैदास ललकारते हुए कहते हैं और पंडितों से पूछते हैं चाम से न्यारा क्या हो सकता है। चमड़े को लेकर किसी के मन में घृणा हो सकती है लेकिन रैदास के लिए चमड़े में ही ब्रम्हा, विष्णु, धरती-आकाश, सूरज-चंदा, योगी, भोगी, गुरु सब हैं। यहाँ कोई अलग से ज्ञानी गुरु नहीं है। आगे कहते हैं-
रैदास अपनी जाति को लेकर कहते हैं-
हम देखते हैं कि सामाजिक जागरण का कोई भी आन्दोलन हिंदीतर राज्यों में पहले होता है। उसी तरह भक्ति आंदोलन के संबंध में भी यह कहा जा सकता है। इस सन्दर्भ में गोपेश्वर सिंह लिखते हैं-“उत्तर भारत में निर्गुणपंथी संतों ने जिस वैकल्पिक धर्म और समाज का स्वप्न देखा और जिसके लिए उन्हें ‘कविता के वर्जित प्रदेश’ में प्रवेश करना पड़ा, उसकी शुरुआत मराठी, कन्नड़, तेलगु आदि हिन्दीतर भारतीय भाषाओँ में कुछ पहले हो चुकी थी। वैकल्पिक धर्म और समाज-रचना का स्वप्न कुछ आगे-पीछे पूरे देश की निम्नवर्गीय जनता देखने लगी थी।”[16]
वसन्ना धार्मिक पाखंड और कर्मकाण्डों को अपने लपेटे में लेते हुए लिखते हैं-
नामदेव का जन्म 1292 ई. के आसपास माना जाता है। नामदेव के पिता कपड़े का व्यवसाय करते थे। इसी व्यवसाय से ही पूरे परिवार का पालन-पोषण होता था। नामदेव भी पिता के व्यवसाय को ही आगे बढ़ाया। नामदेव को लिखते हैं-
नामदेव को इस बात का कष्ट रहा कि श्रम करने वाली यह जातियाँ समाज में घोर उपेक्षा की शिकार रही हैं। आगे लिखते हैं-
“हरि दरजी का मरम न पाया। जिन बागा खूब बनाया।।”[20]
चोखा मेला बाहरी दिखावा, कर्मकांडों यज्ञ, हवन आदि को निरर्थक बताते हुए कर्म की साधना पर बल देते हैं। वे ऐसे किसी भी ज्ञान को स्वीकार नहीं करते जो अपने आचरण में दया, क्षमा और शांति जैसे मूलभूत बातों को जगह न दे सके। कबीर के समान ये भी छापा तिलक करने वाले ढोंगियों की खबर लेते हैं। इन संतों ने भक्ति के एकाधिकार समाप्त कर उसे जन सामान्य के लिए खोल दिया। भले ही इसके लिए उनकों तमाम यातनाएँ दी गयीं। उच्च जातियों का निम्न जातियों के साथ हुए दुर्व्यवहारों का वर्णन चोखा मेला के पदों में देखा जा सकता है। दुर्व्यवहार का आलम यह था कि लोग उनको भक्ति करने नहीं दिए और उनको शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देते रहे। अंततः उन्हें अपना गाँव छोड़ने के लिए मजबूर कर दिए। वे लिखते हैं -
उस समय महार गाँव की रखवाली और मजदूरी का काम करते थे। गाँव में काम जातियों के आधार पर बटे हुए थे। मजदूरी को ‘बतुलेदारी’ कहा जाता था। चोखा मेला भी ‘बतुलेदारी’ का काम करते थे। एक बार दीवार निर्माण के दौरान दीवार ढह गयी उसके नीचे दबकर कई महार मजदूर मर गये उनमें से चोखा मेला भी थे। चोखा मेला की पत्नी सोयरा भी अभंग के पद रचती थीं। उनकी कविताओं में भी तत्कालीन व्यवस्था के प्रति असंतुष्टि दिखाई पड़ता है।
संत तुकाराम वणिक जाति से आते हैं। इन्होंने धार्मिक आडंबर, जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच के भेदभाव को नष्ट करने का प्रयास किया। तुकाराम के जीवन संबंधी अनेक सूत्र उनके अभंगों से प्राप्त होते हैं। जिनके आधार पर हम उनके जीवन काल की घटनाओं का क्रमवार अध्ययन कर सकते हैं। तुकाराम का जन्म ई.स. 1608 में पूना जिले से 18 मील दूर इन्द्रायणी नदी के तट पर स्थित "देहू" नामक ग्राम के एक संपन्न परिवार में हुआ था। तुकाराम के पूर्वज महाजनी और व्यापार करते थे। उनकी जाति तत्कालीन जाति व्यवस्था के अनुसार शूद्र मानी जाती थी। तुकाराम हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं एवं उनकी पृष्ठभूमि से परिचित थे। तुकाराम लिखते हैं-
पानी पाथर ऐक ही डोर। कोरनभिगे अंग।।”[21]
तुकाराम कहते हैं गिरधर तो भाव का भूखा है। वह राग, कला और मधुर बानी नहीं चाहता। वह केवल चित्त मिलने की बात करता है। उसके लिए माध्यम कुछ भी हो सकता है। हम जानते हैं कि मेहनतकश किसान, दस्तकार, मजदूर आदि सभी उत्पादन से जुड़े हैं। इस लिए इनकी भाषा में किसानी, मजदूरी के औजार ही बोलते हैं।
मध्यकाल का यथार्थ है ‘भूख’ इसको तुलसीदास भी बताते हैं और संत कवियों के यहाँ तो भूख की निजी अभिव्यक्ति है। जहाँ भयंकर गरीबी है दो जून की रोटी के लिए भी अथक परिश्रम करना पड़ता है। नौबत तो भूखों मरने की आ जाती है। इसी ‘भूख’ की अभिव्यक्ति पलटू साहब के यहाँ दिखाई पड़ती है-
संतन के सिर ताज है, सोई सन्त ह्वै जाय।।”[22]
संत कवियों के यहाँ श्रम की महत्ता है। उनको वह वैराग्य किसी भी दशा में स्वीकार्य नहीं है जो श्रम और घर परिवार में रहकर ही, गृहस्थ का जीवन जीते हुए कवि कर्म करते हैं। पलटू साहब लिखते हैं-
पलटू साहब ऐसे वैराग्य से मरना भला मानते हैं।
भक्ति आंदोलन के संत कवि पीपा का जन्म राजस्थान में हुआ था। चली आ रही वर्ण व्यवस्था की जगह श्रमिक वर्ग के श्रृजन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। यह वर्ग दिन-रात परिश्रम करने के उपरांत भक्ति करता था -
पीपा का मानना था मानव मन में ही सारी सिद्धियाँ और उपलब्धियाँ विद्यमान हैं। इन्होंने गृहस्थ धर्म का निर्वहन करते हुए भक्ति का संदेश दिया। पलायनवादी भक्ति को वे स्वीकार नहीं करते। पीपा लोकमंगल की समन्वयवादी परंपरा के वाहक थे। ये सामाजिक भेद-भाव और पर्दाप्रथा के घोर विरोधी थे। बाद के दिनों में पीपा अपने हाथों से सिले वस्त्र ही पहने थे इस लिए दर्जी समुदाय इनको अपना गुरु मानता था।
धन्ना का जन्म राजस्थान के टान्क इलाका का धुवन गाँव माना जाता है। इनका पेशा कृषि था। वे लिखते हैं -
नीच कुला जोलाहरा भइंउ गुनीय गहिरा।।
‘वारकरी’ संप्रदाय की विशेषता ही रही है कि यहाँ पुरुषों के साथ स्त्री संत भी आती हैं। हाँ यह जरुर है इनकी संख्या अँगुलियों पर गिनी जा सकती है। जिनमें सोयराबाई, बहेणाबाई, निर्मलाबाई के साथ ही गणिका की पुत्री होने से निरंतर अपमान सहने वाली कान्होंपात्रा के साथ मुक्ताबाई और जनाबाई का नाम लिया जा सकता है। जनाबाई के पद स्त्री जीवन की अभिव्यक्ति है। इनके पद आत्मपरक हैं। उनको अपने स्त्री होने का दुःख नहीं है वह लिखती हैं- ‘स्त्री जन्म म्हणुनिया न व्हा उदास’ जनाबाई महाराष्ट्र के मराठवाड़ा संभाग के गंगाखेड़ में करूंड व दमा नामक विट्ठल दम्पति के घर हुआ था। बाल्यावस्था में ही माता की छाया से वंचित जनाबाई के पिता बेटी का पालन-पोषण करने में असमर्थ हुए और अपनी बेटी को नामदेव के पिता को शौंप दिया। जनाबाई नामदेव के घर की दासी हो गयीं। जनाबाई के कष्ट का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वह एक स्त्री, एक दासी, एक अनाथ और जाति के निम्न वर्ग से संबंधित थीं। यह एक स्त्री की अनोखी दृष्टि ही है जो अपने आराध्य विट्ठल को भी मानवीय धरातल पर खड़ा देती है। उन्होंने कठिन श्रम को ही अपना साथी बनाया। यह श्रम ही उनके एकाकीपन में उनकी सहायता करता था। वे सहजता से अपने श्रम के अनुभव को व्यक्त करती हैं कि झाड़ना, बुहारना, चक्की पीसना, उखल में कूट पीटकर धान से छिलके निकलना, पानी भरना, गोबर आदि से लिपाई-पुताई करना आदि उनके दैनिक जीवन का काम था। वे लिखती हैं-
“जनी जाय शेणासाठी उभा आहे तिच्या पाठी।
तांबराची कांस खोवी मागे चाले जनाबाई ।।”[26]
(गोबर लाने, लीपा पोती करने में पितांबरधारी मेरी मदद करते हैं)
“जनी जाय पाणीयासी मागे धांवे हृषिकेशी।
पाणी रांजणात भरी सडा सारवण करी ।।”[27]
(पानी भरने आदि में हृषिकेश मेरी सहायता करते हैं)
इस प्रकार हम देखते हैं कि जनाबाई श्रम को ही अपना आराध्य मान लेती हैं।
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[12] https://ashrutpurva.com/?p=10117
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[19] https://www.egyankosh.ac.in/handle/123456789/28104
[20] ibid
[21] https://www.egyankosh.ac.in/handle/123456789/28104
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[24] https://hihindi.com/sant-pipa-ke-dohe-with-meaning-in-hindi/
[25] https://www.hindisamay.com/content/6122/1
[26] https://www.hindisamay.com/content/6122/1
[27] https://www.hindisamay.com/content/6122/1
सहायक प्रो., हिंदी, राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गाजीपुर
sangitam84@gmail.com, 9026115390
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