- बन्धु पुष्कर
गुरु
घासीदास
द्वारा
प्रतिपादित
दर्शन
जिसे
हम
“सतनाम दर्शन” के
नाम
से
भी
जानते
हैं,
मूल
रूप
से
गुरु
घासीदास
के
ही
आन्दोलनों
और जीवन-चरित्रों
से
उपजे
विचारों
व
सिद्धांतों
का
दार्शनिक
स्वरूप
है. सतनामियों की
मान्यता
व
व्याख्या
अनुसार
- सतनाम को
ईश्वर का
एक नाम
बताया गया
है, जबकि
सतनामी सतनाम
को सृष्टिकर्ता
मानते हैं
न कि
ईश्वर को.
हो सकता
है सतनाम
को ईश्वर
का नाम
इसलिए लिखा
गया हो,
कि सम्बंधित
जानकारी लिखने
वाले और
उनके सहयोगियों
का ईश्वर
पर अटूट
विश्वास रहा
हो[1].
गुरु
घासीदास
के
जन्म
के
समय
छत्तीसगढ़
का
समाज
जाति-पाति,
ऊँच-नीच,
छुआछुत
के
कारण
क्षत-विक्षत
हो
चुका
था.
यहाँ
की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं
साहित्यिक
गतिविधियाँ
अनेक
ऐतिहासिक
कारणों
से
दूषित
हो
चुकी
थी।
समाज
में
विषमता
व
असमानता
वृहद्
रूप
में
व्याप्त
थी.
जाति-पाँति, छुआछूत और
पाखण्डवाद
आदि
सामाजिक
समरसता
न
ला
पाने
में
मुख्य
कारक
थे.
ऐसी
स्थिति
में
संत
गुरु
घासीदास
का
जन्म
पुरे
मध्य
भारत
में
लोक
जागरण
के
लिहाज़
से
एक
महातुपूर्ण
घटना
थी.
जो
गर्त
में
जा
चुकी
समाज
व्यवस्था
को
धर्म
और
संस्कृति
के
मार्ग
में
ला
सके.
गुरु
घासीदास
का
सतनाम
आन्दोलन
जितना
सामाजिक
एवं
सांस्कृतिक
था
उससे
कहीं
ज्यादा
धार्मिक
सुधार
आन्दोलन
के
रूप
जाना
गया. सतनामियों
की पूजा-अर्चना
का किसी
भी प्रकार
का कोई
सार्वजनिक स्थान
नहीं है
और उनका
कोई देवालय
भी नहीं
है उनका
अपना लिखित
धर्म भी
नहीं है,
न ही
पूजा का
कोई पूर्वनिर्धारित
रूप ही
देखने को
मिलता है.
जब वें
भक्तिभाव से
प्रवण होते
हैं, तब
केवल यह
आवशक है
कि “सतनाम”
का उच्चारण
करें और
आशीर्वाद के
लिए याचना
करें.[2]
गुरु
घासीदास
ने
अपने
रावटी
संदेशों
के
माध्यम
से
जिस
नराकार
सतनाम
की
उपासना
का
सन्देश
दिया
वही
इस
पंथ
का
मुख्य
दार्शनिक
विचार
बना.
सतनाम
को
मानने
वाले
अर्थात
सतनामी बिना
किसी दृश्य
या माध्यम
के सतनाम
की उपासना
या संसरण
करते है.
सतनाम को
सृष्टिकर्ता मानते
हैं. इस
शब्द का
प्रयोग अपने
अभिवादन के
लिए करते
हैं.[3]
सत्,
सतनाम,
गुरु
घासीदास
का
जीवन
और
सतनामी,
इस
दर्शन
के
चार
मूल
तत्त्व
है.
इन्ही
चारों
मीमांसाओं
से
मिलकर
‘सतनाम दर्शन’ की
रुपरेखा
तैयार
होती
है.
जिसमें
सतनाम
की
अध्यात्मिक
व्याख्या
तथा
गुरु
घासीदास
के
सामाजिक-सांस्कृतिक
जागरण
व
धार्मिक
सुधार
आन्दोलन
का
मुख्य
स्थान
है.
जो
उन्होंने
अपने
सप्त
सिद्धांत
और
रावटी
संदेशों
के
माध्यम
से
बताये
है.
दूसरी ओर
विदित
है
कि
17 वी. शताब्दी
में
उत्तरभारत
में
नारनौल
(तत्कलीन नारनौल पहले
पंजाब
प्रान्त
के
अंतर्गत
आता
था,
वर्तमान
में
यह
हरियाणा
राज्य
के
रेवड़ी
जिले
में
है)
के
संत
उदादास
के
नेतृत्व
में
इस
नाम
का
एक
पंथ
चलाया
गया
था.
सत्रहवीं शताब्दी
के दौरान
भारत के
धार्मिक एवं
राजनैतिक इतिहास
में नारनौल
के सतनामी
संप्रदाय का
महत्वपूर्ण स्थान
है. सन
1672 ई. में
सतनामियों ने
औरंगजेब के
विरुद्ध विद्रोह
किया था[4]
विद्रोह
की
शुरुआत
तब
से
माना
जाने
लगा
जब
एक
सतनामी
किसान
से
मुग़ल
सैनिक
की
किसी
बात
पर
झड़प
हो
गई
तथा
उस
सैनिक
ने
किसान
को
मारकर
ज़ख्मी
कर
दिया.
जिसके
जवाब
में
दुसरे
सतनामी
किसानों
ने
कुछ
मुग़ल
सैनिकों
को
भी
दण्ड
दिया.
यही
झगड़ा
तुल
पकड़ता
हुआ
विद्रोह
का
रूप
ले
लिया.
आगे
चलकर
वीरभान
एवं
जोगीदास
ने
इस
विद्रोह
का
नेतृत्व
किया
जिसे
“सतनामी विद्रोह”
के
नाम
से
जाना
जाता
है.
वें
दोनों
भी
इसी
पंथ
से
आते
थे.
सतनामी
विद्रोह
के
बहुत
से
कारण
थे.
जैसे-
कर
व
लगान,
धर्मान्तरण,
गुलामी
स्वीकार
न
करना,
मांसभक्षण
के
लिए
मजबूर
करना
आदि.
सतनामी
स्वाभाव
से
शालीन
एवं
सत्यनिष्ठ
थे
जन्म
लिए
धर्म
को
छोड़कर
किसी
दुसरे
धर्म
को
न
स्वीकार
करने
का
उन्होंने
पुरज़ोर
विरोध
किया.
यह
मूल
रूप
से
एक
राजनैतिक-सांस्कृतिक
प्रतिरोध
था.
औरंगजेब
के
बलपूर्वक
इस्लाम
अपनाये
जाने
का
विरोध
सबसे
पहले
करने
वाले
यही
दो
सैनिक
थे
जिन्हें
बाद
में
संत
का
दर्जा
दिया
गया.
इस
आन्दोलन
का
सबसे
बड़ा
प्रभाव
यह
हुआ
कि
बड़ी
मात्र
में
सतनामी
किसानों
एवं
कस्तगारों
ने
मुगलों
का
खुलकर
विरोध
किया.
कई
सतनामी,
औरंगजेब
की
सेना
से
मारे
गए
और
कई
सेना
से
बचकर
निकलने
के
कामयाब
रहे.
उन्ही
बचे
लोगों
में
से
एक
गुरुघासीदास
का
परिवार
भी
था.
जो
छत्तीसगढ़
के
जंगलों
में
अर्थात
महानदी
में
किनारे
बस
गया.
जिसमे
पाचवी
पीढ़ी
में
गुरु
घासीदास
का
जन्म
हुआ.
वही
गुरु
घासीदास
जिन्होंने
सतनाम
पंथ
का
प्रचार-प्रसार
कर
“सतनाम” को धर्म
के
रूप
में
पुनः
स्थापित
कर
इसे
एक
धार्मिक
सुधार
आन्दोलन
के
रूप
में
चलाया.
गुरु
घासीदास
द्वारा
चलाए
इसी
धार्मिक
सुधार
एवं
राजनैतिक
आन्दोलन
की
आध्यामिक
अभिव्यक्ति
को
सतनाम
दर्शन
के
नाम
से
जाना
जाता
है.
यह
मूल
रूप
से
गुरु
घासीदास
के
सत्य
आधारित
विचार
एवं
ईश्वर
के
निर्गुण-निराकार
स्वरुप
की
छवि
अपने
ह्रदय
में
देखने
या
दर्शन
का
प्रयास
है.
इस
धर्म
में
गुरु
या
सद्गुरु
को
सर्वोच्च
स्थान
प्राप्त
है.
यह
सतनाम
दर्शन,
गुरु
घासीदास
के
सप्त
सिद्धाँत,
उनके
रावटी
संदेश
व
42 अमृतवाणियां, उनकी
सामाजिक
जागरूकता
के
विचार
एवं
धार्मिक
आन्दोलन
का
ही
फल
है.
“सतनाम दर्शन” सद्गुरु
घासीदास
के
ऐसे
दार्शनिक
अनुभवों
पर
आधारित
ज्ञान
है
जो
शब्दों
से
परे
है.
गुरु घासीदास
जी को
सतनामी समुदाय
का संस्थापक
बताया गया
है, जिससे
लोगों में
यह भ्रम
पैदा होता
है, कि
गुरु घासीदास
जी से
पहले सतनामी
नहीं थे.
जबकि यह
बात अर्द्ध
सत्य है.
गुरु घासीदास
जी से
पहले भी
सतनामी थे,
लेकिन विभिन्न
कारणों से
उनका संख्या
कम हो
चुका था.
गुरु घासीदास
जी के
प्रभाव से
विभिन्न कथित
अनेक जाति
के लोग
सतनामी बने.
जिससे सतनामियों
के संख्या
में उल्लेखनीय
वृद्धि हुई,
चूँकि इससे
पहले कम
संख्या और
अपने को
किसी जाति
का नहीं
मानने के
कारन सतनामी
शब्द ही
एक तरह
से लगभग
विलुप्त था,
इसलिये लोगों
को लगा
कि गुरु
घासीदास जी
से पहले
सतनामी नहीं
थे. इस
कारण से
भी अनेक
लेखकों ने
गुरु घासीदास
जी को
सतनामी समुदाय
का संस्थापक
लिखा होगा.[5]
भारत
के
बहुत
से
स्थानों
में
सतनामी
पंथ
या
आन्दोलन
चलाये
गए.
जैसे
उत्तर
प्रदेश
के
बाराबंकी
एवं
कोटवा
शाखा
में
जगजीवन
दास
द्वारा
भी
एक
सतनामी
संप्रदाय
चलाया
गया.
हरियाणा
के
नारनौल
का
सतनाम
पंथ
जिसे
संत
उदादास
ने
चलाया
जिनका
ग्रन्थ
“निर्वाण ज्ञान” या
“पोथी” को माना
जाता
है.
पंजाब
के
सिक्ख
व
निरंकारों
में
एक
ओंकार
सतनाम
की
स्तुति
एवं
अभिवादन
करने
की
प्रथा
है.
लेकिन
छत्तीसगढ़
का
सतनाम
पंथ
संख्या
में
सबसे
ज्यादा
एवं
वर्तमान
में
सबसे
ज्यादा
प्रासंगिक
है.
सभी
शाखाओं
में
कुछ
भिन्नताएं
है.
लेकिन
किसी
भी
शाखा
के
सतनामी
हो
सभी
इस
बात
पर
एकमत
है
कि
इस
पंथ
में
किसी
भी
तरह
के
बाह्य
आडम्बर,
भेद-भाव,
ऊँच-नीच,
छुआ-छूत
आदि
को
सर्वदा
वर्जित
माना
जायेगा.
सतनामी साहित्य,
पंथ के
भीतर सामुदायिक
भिन्नता एवं
जातिगत भेदभाव
को नहीं
मानता है,
उनके मूल
ग्रन्थ में
आचार संहिता
की कुछ
नियमावली एवं
पद्धतियों का
उल्लेख है[6]
दार्शनिक
पक्ष इस
प्रकार हैं
-
सामाजिक
एवं नैतिक
दर्शन
गुरु
घासीदास
प्रतिपादित
सतनाम
दर्शन
में
पूर्ण
रूप
से
सामाजिक
समानता
का
भाव
निहित
है.
उनका
मानना
था
कि
सामाजिक
दृष्टिकोण
से
न
कोई
भी
बड़ा
होता
है
न
छोटा,
सभी
सामान
है.
गुरु
घासीदास
के
सामाजिक
दर्शन
में
सभी
जीवों
के
कल्याण
की
बात
कही
गई
है.
पीड़ित
जनों
एवं जीव-जन्तुओं,
पशु-पक्षियों,जानवरों,
वनस्पतियों
अथ्वा
पर्यावरण
आदि
के
प्रति
उनकी
कारुणिक
भावना
प्रबल
थी.
जिससे
उनके
सामाजिक
न्यायप्रिय
होने
का
पता
चलता
है.
समाज
में
शूद्रों
व
दलितों
से
भी
ज्यादा
उपेक्षित
जीवन
जीने
वाली
स्त्रियों
के
प्रति
गुरु
घासीदास
ने
सर्वदा
समानता
का
भाव
रखने
की
बात
कही
है.
चारों
ओर
वनों
से
घिरे
तात्कालिक
छत्तीसगढ़
में
टोना-जादू
आम
बात
थी.
जिसकी
ज्यादातर
शिकार
स्त्रियाँ
ही
होती
थी.
बात-बात
में
टोनही
कहकर
उन्हें
समाज
से
बहिष्कृत
कर
दिया
जाता
था,
विधवाओं
को
लेकर
भी
लोगों
में
दुर्भावनाएँ
भरी
पड़ी
थी.
जिससे
समाज
में
उनकी
स्तिथि
दिन-प्रतिदिन
और
दयनीय
होती
चली
जा
रही
थी.
गुरु
घासीदास
ने
इन
सारी
बुराइयों
को
समाज
से
दूर
करने
का
भरसक
प्रयास
किया.
स्त्रियों की
दयनीय दशा
तथा उनमें
प्रचलित टोनही
प्रथा, विधवाप्रथा,
सतीप्रथा का
भी उन्होंने
विरोध कर
नारी उत्थान
किया. उनके
प्रचार जत्था
में सफुरा
माता के
नेतृत्व में
स्त्रीशक्ति भी
सम्मलित थी.[7]
गुरु
घासीदास
का
चराचर
के
सम्पूर्ण
जीवों
के
लिए
एक
ही
मंत्र
था.
वह
है
- ''सतनाम'' अर्थात्
ऐसे
आचरण
का
पालन
करना
जो
सामाजिक
सत्य
की
स्थापना
में
सहायक
हो
जिससे
समाज
का
कल्याण
हो
सके।
सत्य
के
व्यवहारिक
पक्ष
पर
बल
देते
हुए
गुरु
घासीदास
ने
सामाजिक
आडम्बरों
से
दूर
रहने
के
लिए
संत
समाज
को
प्रेरित
किया. जिनमें जातिवाद, अस्पृश्यता, मदपान, माँसाहार, नरबलि, स्त्री-शोषण,
पशु-शोषण
आदि
का
त्याग
मुख्य
थे.
गुरु घासीदास
के दर्शन
में एकेश्वरवाद
तथा मानवता
का एक
बेजोड़ मिश्रण
हमें देखने
को मिलता
है. इसलिए
हमने उसे
“आध्यात्मिक मानवतावाद”
कहा है.[8]
गुरु
घासीदास
पूर्णतः
मानवतावादी
एवं
सामाजिक
समरसता
के
पक्षधर
थे.
इसलिए
उनका
सतनाम
आन्दोलन
लोगों
के
बीच
समानता
एवं
भाईचारे
पर
अटूट
विश्वास
करता
है।
अतः
गुरु
घासीदास
सतनाम
का
अनुसरण
करने
का
उपदेश
देते
थे.
गुरु
घासीदास
सामाजिक
एवं
अध्यात्मिक
दर्शन
के
साथ
ही
नैतिक
व
आचार
दर्शन
का
भी
उपदेश
देते
है.
उनका
सतनाम
दर्शन
काल्पनिक
नहीं
अपितु
नैतिकता
के
धरातल
पर
स्थित
व्यवहारिक
सत्य
पर
आधारित
दर्शन
है.
उन्होंने
साधारण
जनमानस
को
काल्पनिक
जगत
से
खींचकर
लौकिक
जगत
में
लाने
का
अथक
प्रयास
किया.
उनके
विचारों
में
धर्मान्धता,
आडम्बर.
पाखण्डवाद
आदि
का
सर्वदा
आभाव
देखने
को
मिलता
है.
परन्तु
वर्तमान
में
स्वयं
सतनामी
पंथियों
द्वारा
यह
कहकर
दुष्प्रचार
किया
जा
रहा
है
कि
वें
चमत्कारीं
पुरुष
थे.
गुरु घासीदास
जी द्वारा
सम्पूर्ण मानवता
के उद्धार
हेतु चलाए
गए आन्दोलन
को महाबारी,
निर्वाबारी, गन्नाबारी,
अधरे नागर,
अधरे तुतारी,
अधरे धोती
सुखाने, माता
सफूरा को
जियाने, गरियार
बैल चलने,
बिना आगि-पानी
के जेवण
बनाने जैसी
किवंदतियों से
दिग्भ्रमिक करने
की कोशिश
की गई
है[9]
जानकर
दुःख
होता
है.
मिथिकीय
कल्पना
से
परे
उनके
दर्शन
में
धरती
को
ही
स्वर्ग
(धन-धान्य से
परिपूर्ण
स्थान)
के
रूप
में
देखने
की
वकालत
है.
उनके
विचार
विशुद्ध
रूप
से
बौद्धिकता
की
कसौटी
पर
खरे
उतरते
हैं.
वे
संत
पुरुष
थे.
सादा
जीवन
उच्च
विचार
ही
उनके
जीवन
सार
है.
जैसे
-
नई तो मोला हुदेसना मा हुदसे कस लागही.[10]
गुरु
घासीदास
के
समय
राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक तथा
सांस्कृतिक
परिस्थितियाँ
अत्यधिक
अस्त-व्यस्त
थी.
दूसरे
शब्दों
में
कहें
तो
पूरे
देश
में
आध्यात्मिक
अंधकार
छाया
हुआ
था.
सती-प्रथा, टोनही-प्रथा, नरबलि, अंधविश्वास तथा
अनैतिक
आचार-विचार
पूरे
समाज
में
छाए
हुए
थे.
गुरु
घासीदास
ने
इन
कुरीतियों
के
विरुद्ध
आवाज़
उठाई.
ईश्वर
या सतनाम
का स्वरूप -
गुरु
घासीदास
के
निर्गुण-निराकार,
परमतत्व
सतनाम
का
बोध
उनके
तत्वमीमांसात्मक
ज्ञानानुभव
पर
आधारित
है
न
कि
किसी
धर्मग्रंथ
स्वरुप
या
सैद्धाँतिक
उपदेश
या
प्रवचन
पर.
वे
निरक्षर
थे
उनका
ज्ञान
भी
कबीरदास
के
ही
समान
अनुभव
आधारित
था.
गुरु
घासीदास
ने
भी
''मसि
कागद
छुओ
नहीं
कलम
गयो
नहीं
हाथ'' की तरह
और
“तू कहता कागज़
की
लिखी
मैं
कहता
आखिन
की
लेखी”
के
सामान
अनुभव
पर
आधारित
था.
मुझसे
कोई
पूछे
तो
मैं
कहना
चाहूँगा
कि
गुरु
घासीदास
छत्तीसगढ़
के
कबीरदास
थे.
किसी भी
दृष्टिकोण से
संत कबीर
और गुरु
घासीदास जी
के सिद्धांत
में कोई
अंतर नहीं
आता, किन्तु
आज भी
सतनामी और
कबीरपंथी लोगों
का मतभेद
समझ से
परे है[11].
क्योंकि
उन्हें
धरमदास
की
तरह
कोई
शिष्य
नहीं
मिला.
गुरु
घासीदास
ने
ईश्वर
को
एक
माना
है,
जिसे
सतनाम
की
संज्ञा
से
अभिहित
किया.
अतः
हम
ये
कह
सकते
है
कि
वें
एकेश्वरवादी
थे.
उनके
अनुसार
सभी
जीवों
का
ईश्वर
एक
है
और
वह
सभी
पर
समान
रूप
से
कृपा
करता
है।
वह
निर्गुण, निराकार और
निर्विकार
है।
उनका
आदि
नाम
सतनाम
है -
कंवल फूल मनसरवर मं फूले, खेले घासीदास.[12]
गुरु घासीदास
कहते
है
कि
ईश्वर
को
ढूंढने
के
लिए
कहीं
बाहर
जाने
की
आवश्यकता
नहीं
है।
जो
उन्हें
शुद्ध, सात्विक और
सरल
भाव
से
ढूंढता
है
वह
उन्हें
स्वयं
के
भीतर
ही
मिल
जाता
है.
अहिंसा
एवं सदाचार
उनके दो
मुख्य तत्त्व
है -
अहिंसा
- सभी धर्मों
में
अहिंसा
का
महत्वपूर्ण
स्थान
है.
अहिंसा
को
हम
केवल
शब्द
के
रूप
में
नहीं
देख
सकते
है
यह
अपने
आप
में
संपूर्ण
जीवन
है, परम धर्म
है.
जो
अहिंसा
को
अपने
जीवन
में
साकार
कर
लेता
है
वह
धर्म
को
भी
साकार
कर
लेता
है.
''अहिंसा
परमो
धर्मः'' अहिंसा
मानवता
का
प्रतीक
है।
अहिंसा
की
वृहत
सीमा
के
अंतर्गत
किसी
जीव
की
हत्या
न
करने
से
लेकर
किसी
भी
जीव
के
हृदय
को
चोट
न
पहुँचाने
तक
की
समस्त
क्रियाएँ
व चेष्टाएँ आती
है।
सतनाम
फिलोस्फी
में
किसी
भी
जीव
पर
आघात
करना
परमात्मा
पर
आघात
करने
के
बराबर
माना
गया
है.
गुरु
घासीदास
ने
माँस-भक्षण
के
साथ
ही
उसके
सामान
दिखने
वाले
चिजों
का
भक्षण
न
करने
की
बात
अपने
अमर
संदेशों
में
कहीं
है.
मांस ल
झन खाव
मांस ल
कोन पुछय
ओकर सहिनांव
तक ल
झन खाव.[13]
इस
पंथ
में
मादक
पदार्थों
के
सेवन
का
पूर्णतः
निषेध
है,
इसे
भी
हिंसा
का
ही
एक
रूप
माना
गया
है
गुरु
घासीदास
का
दर्शन
वैज्ञानिकता
और
तर्क
की
कसौटी
पर
आधारित
दर्शन
है।
गुरु
घासीदास
ने
तर्कशील
होकर
बताया
कि...
गाय गरवा
ला तको
मया करव
ओकर दुःख
तोरेच दुःख
हे ओकर
सुख तोरेच
सुख ये.[14]
सदाचार
-
सद
विचार, सत कर्म
और
सात्विक
मन
से
ही
सदाचार
का
निर्माण
होता
है.
सादगी,
दया,
करुणा,
क्षमा,
दान,
अहिंसा
और
निःछलता
सदाचार
के
अभिन्न
अंग
है।
इनसे
गुज़रकर
या
अपनाकर
कोई
भी
मनुष्य
मोक्ष
को
प्राप्त
कर
सकता
है.
क्षमा दान को राखि के, पावन मोक्ष प्रमाण.[15]
कहते
है
कि
लोगों
को
काम, क्रोध, लोभ, मोह, आदि
पर
नियंत्रण
रखते
हुए
मन
और
वचन
पर
एकाग्रता
बनाए
रखनी
चाहिए.
किसी
के
प्रति
दुराचार, अत्याचार, दुर्व्यवहार आदि
की
भावना
नहीं
रखनी
चाहिए।
ईर्ष्या, द्वेष, मिथ्या-भाषण,
आचरण
से
मनुष्य
को
सदैव
बचना
चाहिए।
अहम्
की
भावना
का
त्याग
शुद्ध
आचरण
के
विकास
के
लिए
अतिआवश्यक
है.
क्योंकि
जहाँ
अहंकार
है
वहाँ
शुद्ध
चरित्र
का
निर्माण
नहीं
हो
सकता
चाहे
वह
धन
का
हो
या
पद
का
हो
अथवा
बल
का।
अहंकार
को
ही
अज्ञानता
और
अशिक्षा
का
पर्याय
मानना
चाहिए.
गुरु
घासीदास
ने
किसी
भी
समाज
में
महिलाओं
का
सम्मान
एवं
उन्हें
समाज
में
ऊँचे
पद
पर
रखना
सदाचार
का
सर्व्रोपरी
लक्षण
माना
है.
समानता
एवं बन्धुतत्व
- गुरु घासीदास
सभी
जीवों
को
सामान
भाव
से
देखने
की
बात
कहते
है.
उनका
यह
कथन-
“मानव मानव
एक बरोबर”
काफी
प्रचलित
है.
मनुष्य-मनुष्य
में
जाति-पाँति, छुआछूत का
कोई
वैज्ञानिक
आधार
नहीं
है.
यह
पुरे
मानव
समुदाय
के
प्रति
अपमान
का
द्योतक
है.
यह
भेदभाव
अवैज्ञानिक
है
जिसका
कोई आधार नहीं
है.
धरती बर
सब बरोबर,
दाई दाई
आय यहाँ
दाई
का
अर्थ
धरती
माँ
से
है
जिस
तरह
कोई
माँ
अपनी
संतानों
में
भेद
नहीं
करती
उसी
तरह
हम
सबका
भार
उठाने
वाली
धरती
भी
सभी
को
एक
मानती
है.
प्रत्येक
मनुष्य
के
स्वाभिमान
और
आत्म
सम्मान
की
पूर्ण
रक्षा
की
जाने
की
बात
गुरु
घासीदास
कहते
है.
साथ
ही
माता-पिता
और
गुरु
के
प्रति
भी
सदा
आदर
का
भाव
रखते
हुए
विनम्र
बने
रहने
की
प्रेरणा
देते
है.
मानवता
के
आधार
पर
सभी
को
सामान
दृष्टिकोण
से
देखना
चाहिए.
सत्य
का
मार्ग
बताने
वाले
सिद्ध
पुरुष
चाहे
किसी
भी
धर्म
के
हो
उन्हें
संत
कहकर
ही
संबोधित
करता
चाहिए.
पंडित
हो या
मौलवी, मुल्ला
हो या
संत, छड़ीदार
हो या
भंडारी, महंत
हो या
संत - सब
ला सनते
जान.[16]
सत्
पर
बल
- गुरु घासीदास
ने
सत्
पर
विशेष
बल
दिया
और
सत्
को
ही
ईश्वर
कहा
है.
कहीं-कहीं
सत
के
स्थान
पर
‘सत्य’ शब्द लिखा
हुआ
देखने
को
मिलता
है.
यहाँ
‘सत्य’ और ‘सत’
में
अंतर
है.
परन्तु
दार्शनिकता
के
आभाव
व
मानव
समाज
को
साधारण
भाषा
में
समझाने
के
क्रम
में
परमतत्त्व
‘सत’ को सत्य
की
तरह
प्रयोग
कर
दिया
जाता
है.
उन्होंने
असत्
मार्ग
छोड़कर
सत्
के
मार्ग
पर
चलने
की
बात
कही
हैं, जहाँ लोगों में
समानता, करुणा, प्रेम बसता
है।
गुरु घासीदास
द्वारा स्थापित
‘सतनाम धर्म’
जीवन के
लिए व्यहार
स्वरुप है.
इसलिए सत्य
आचरण पर
गुरुबाबा ने
अधिक जोर
दिया. इसी
बुनियाद पर
सतनामी धर्म
खड़ा है.[17]
वह
सत्
को
सर्वव्यापी
मानते
हैं.
सत
को
धरती
का
कर्ता-धर्ता
एवं
नियंता
बताते
है,
इसी
सत
या
सतनाम
से
ही
चराचर
की
उत्तपत्ति
मानी
जाती
है
जिसमे
चंदा,
सूरज,
वायु,
पानी,
धरती
इसके
कारण
है
जैसे
एक
पद
देखिये
-
सत से पवन अऊ पानी चंदा सूरज प्रकाश[18]
अथवा
सत हा देवइया हे, सत ह लेवइयाया हे.
सते सत म रचे हवय, जग के जम्मो काम.[19]
गुरु
घासीदास
कहते
हैं
कि
उसी
मनुष्य
के
मन
में
सत्य
का
वास
होता
है
जिसका
मन
शुद्ध
एवं
मानवीय
गुणों
से
परिपूर्ण
हो.
सभी
प्राणियों
के
साथ
सत्य
का
आचरण
करना
ही
सर्वश्रेष्ठ
धर्म
है.
जो
सत्
का
आचरण
करता
है
वही
सत्य
अर्थात्
सतनाम
तक
पहुँच
सकता
है.
सतनाम
धर्म -
किसी
भी
दर्शन
अथ्वा
फिलौसफी
की
धार्मिक
अभिव्यक्ति
को
धर्म
कहा
जाता
है.
वह
पंथ
अथ्वा
संप्रदाय
जिनमें
ये
तीन
मुख्यतः
कारक
1.धर्मगुरु, 2.धर्मस्थल
एवं
3.धर्मग्रन्थ पाए
जाते
हो,
धर्म
होता
है.
धर्म
के
और
भी
तत्त्व
हो
सकते
है
परन्तु
न्यूनतम
इन
तीन
तत्त्वों
का
होना
अनिवार्य
है.
किसी
एक
के
भी
आभाव
में
धर्म
अधुरा
ही
कहा
जाएगा.
इसी
आधार
पर
सतनाम
को
एक
सम्प्रदाय
या
पंथ
कहा
गया.
जिसमे
धर्मग्रन्थ
का
आभाव
है
या
सतनामी
संत
धर्मग्रन्थ
को
लेकर
एक
मत
नहीं
हो
पाए
है.
यद्यपि
सतनामी
पंथी
खुद
के
लिए
सतनाम
धर्म
शब्द
सुनना
ज्यादा
पसंद
करते
है.
सतनामियों का
सत्य, समानता,
स्वतंत्रता, जनवाद,
प्रेम-बन्धुतत्व,
स्वाभिमान व
न्याय पर
आधारित स्वतंत्र
संस्कृति है.
इनका मूल
विचारधारा व
दिनचर्या अन्य
से अलग
विशिष्ट है.
जिसे सतनामी
धरम के
नाम से
उल्लेख किया
गया है.[20]
सतनामी
साहित्य
अथ्वा
सतनाम
संस्कृति
पर
अकादमिक
काम
करने
वाले
विचारकों
ने
भी
मुख्य
रूप
से
छत्तीसगढ़
के
अर्थात
गुरुघासीदास
को
मानने
वाले
सतनामियों
को
हिन्दू
धर्म
से
अलग
बताया
है.
सतनामियों
के
सम्बन्ध
में
सबसे
पहले
ब्रिटिश
अधिकारीयों
ने
ही
लेखन
की
शुरुआत
की.
ब्रिटिश
जनगणना
1881 (british india census 1881) में सतनामियों
के
लिए
स्पष्ट
रूप
से
‘सतनाम धर्म’ शब्द
का
उल्लेख
किया
गया
है.
संविधान(1950)
में
पहली
बार
सतनामियों
को
हिन्दू
धर्म
में
रखा
गया.
लोगो
को
संगठित
कर
उनमे
सतनाम
की
अलख
जगाने
हेतु
गुरु
घासीदास
द्वारा
दिए
सप्त
सिद्धांत
ही
उनके
दर्शन
का
मुख्य
आधार
है.
यह
सप्त
सिद्धांत
डॉ. अनिल
भतपहरी की
प्रसिद्ध
किताब
‘गुरु घासीदास
और उनका
सतनाम पंथ’
से
लिया
जा
रहा
है.
1. सतनाम ल
मानव अउ
सत ल
सुमरव. (सतनाम
को
मानो)
2. लोहा,
पथरा, मति
के मूर्ति
ल जहाँ
मानव वोला
सरोदव. (मूर्ति
पूजा
बंद
करों)
3. मांस ल
झन खाव
मांस ल
कों पुछय
ओकर सहिनांव
तक ल
झन खाव.
(मांसाहार तथा
मांस
जैसी
वस्तु
से
दूर
रहों)
4. मंद,
चोंगी, माखुर
ल झन
पीयव, खाव.
(मादक पदार्थो
से
दूर
रहों)
5. दुसर के
नारी ल
माता-बहिन
मानव. (परस्त्री
को
माता-बहन)
6. मंझनिया
नागर झन
जोतव. (दोपहर
जल
न
चलाओं)
7. गाय अव
भईसी ल
नांगर मं
झन फांदव.
(गाय या
भैस
को
हल
में
न
जोतों)[21]
समाज
को
दिए
उपर्युक्त
सात
सूत्र
लोगों
को
सत
मार्ग
में
लाने
एवं
सतनाम
का
अनुसरण
करने
के
लिए
प्रेरित
करते
है.
निष्कर्ष : अतः
हम
कह
सकते
हैं
कि
गुरु
घासीदास
के
सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक-दर्शन
पर
दिए
उपदेश
वर्तमान
सामाजिक
एवं
राजनैतिक
धरातल
पर
समाज
सुधार
के
लिए
काफी
उपयोगी
एवं
प्रासंगिक
है।
उनके
सप्त सिद्धाँत
एवं रावटी
सन्देश “सतनाम
दर्शन” का
मूल आधार
है. जो न
केवल
सतनामियों
बल्कि
समस्त
मानव
जाति
के
लिए
उपयोगी
है.
उनके
उपदेशों
में
एक
ओर
आचरण
की
शुद्धता
आध्यात्मिक
आदर्श
है
तो
दूसरी
ओर
सामाजिक-राजनैतिक
चिंतन
एक
महत्वपूर्ण
उपकरण
है.
गुरु
घासीदास
ने
अपने
तपोबल, आत्म बल
एवं
आध्यात्मिक
दर्शन
के
आधार
पर
सम्पूर्ण
मानव
समाज
में
सतनाम
की
अलख
जगाई
है.
अतः हमारा यह
दायित्व
है
कि
हम
गुरु
घासीदास
के
दर्शन
को
समझे
और
अपने
जीवन
में
उतारने
के
लिए
प्रतिबद्ध
हो.
तभी
समस्त
मानवसमाज
का
विकास
होगा.
आवश्यकता
है
कि
हम
गुरु
घासीदास
के
बताये
मार्ग
पर
न
केवल
चले
बल्कि
उसे
अपने
जीवन
चरित्र
में
उतरने
का
प्रयास
करें
साथ
ही
मानवीय
मूल्यों
को
पुनः
संचारित
करें, उन्हें मजबूत
बनाए.
अतः
हमें
गुरु
घासीदास
के
उपदेशों
वचनों
का
पालन
करते
हुए
उसे
अपने
जीवन
में
उतारना
होगा।
[1] रामकुमार लहरे, श्रुतिदेव गावस्कर, सतनाम, सतनामी धर्म व सतनामी आन्दोलन और ब्रिटिशकालीन अभिलेख, books clinic प्रथम संस्करण 2023, पृष्ठ सं. 184
[3] रामकुमार लहरे, श्रुतिदेव गावस्कर, सतनाम, सतनामी धर्म व सतनामी आन्दोलन और ब्रिटिशकालीन अभिलेख, books clinic प्रथम संस्करण 2023, पृष्ठ सं. 185
[9]. स्वरुप सर्वोत्तम, गुरु घासीदास और उनका सतनाम आन्दोलन, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 19
[11]. स्वरुप सर्वोत्तम, गुरु घासीदास और उनका सतनाम आन्दोलन, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 18
[13] वही पृष्ठ सं. 208
[16] बलदेव प्रसाद/जयप्रकाश मानस/रामशरण टण्डन, तपश्चर्या एवं आत्म चिंतन गुरु घासीदास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015, पृष्ठ सं. 168
[17] भतपहरी अनिल, गुरु घासीदास और उनका सतनाम पंथ, booksclinic publisihng, संस्करण 2021, पृष्ठ सं. 185
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