शोध आलेख : आधुनिकता अपने साथ नई आलोचना दृष्टि भी लेकर आई। उस दृष्टिकोण ने न केवल समकालीन रचना और रचना-प्रक्रिया को देखने का अलहदा नजरिया दिया बल्कि साहित्य की ‘क्लासिक’ मानी जानी वाली पुरानी रचनाओं को भी समकालीनता की कसौटी पर कसने के लिए प्रेरित किया।। यह शोध-आलेख आधुनिकता के सवाल मसलन प्रेम और उसकी पारंपरिक प्रकृति के विश्लेषण की दृष्टि से रामचरितमानस के ‘बाल-कांड’ को देखने का एक प्रयास है। इस शोध आलेख में यह दिखाने की कोशिश की गई है कि तुलसीदास प्रेम और मर्यादा के बीच जो समन्वय लेकर आते हैं उसका निर्वहन बिना किसी रचनात्मक क्षति या टूट के वह कैसे करते हैं और क्यों करते हैं।। ऐसा करते हुए उनके युग की सीमाएं तो जरूर निश्चित हो जाती हैं पर यह भी देखा गया है कि राम-भक्त तुलसी ने प्रेम को अलग से आरोपित न करके विश्वसनीय रूप में रचना-प्रक्रिया में शामिल किया है। वह कहीं से भी ‘काव्य-चरित्र’ पर अतिरिक्त आरोपण नहीं लगता।
बीज शब्द : मर्यादा-भाव , प्रेम , विद्रोह , सहजता , परंपरा , समन्वय , सौंदर्य-बोध , लोकतन्त्र , आज़ादी , मध्यकालीन, आधुनिकता, रचना-प्रक्रिया , भाषा, सामाजिक मान्यताएँ, स्व-अनुभूति।
मूल आलेख : साहित्य की परिभाषा देते हुए संस्कृत के प्रसिद्ध आचार्य कुंतक ने एक रोचक बात कही कि जब शब्द और अर्थ के बीच सुन्दरता के लिए स्पर्धा या होड़ लग जाती है तब साहित्य की सृष्टि होने लगती है| सुन्दरता के इस दौड़ में शब्द अर्थ से आगे निकलने की कोशिश करता है और अर्थ शब्द से| ऐसे में यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कौन अधिक सुन्दर है , साहित्य यही आकर आकार लेता है। यह सुन्दरता का संतुलन है , समन्वय है। विशेष रूप से भक्तिकाल का काव्य इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। उसमें भी तुलसीदास जैसा कवि जिसके सामने एक चुनौती थी कि “ शास्त्रीयता को लोक ग्राह्य कैसे बनाया जाय , यह तुलसीदास की मुख्य समस्या है जिसमें वह हर दृष्टि से सफल हुए हैं। ‘भाखा’ में वह काव्य-रचना करके लोक में प्रिय होते हैं और शास्त्रीय मर्यादाओं का वहन करके क्रमश: पंडितों में” {1} लेकिन
ऐसा
भी
नहीं
कि
लोक
के
साथ
शास्त्र का नियोजन केवल तुलसीदास ने ही किया है। सूर, मीराँ, जायसी तक में इसके कुछ गुण-सूत्र देखे जा सकते हैं।यही वजह है कि आलोचक मैनेजर पाण्डेय ने सम्पूर्ण भक्तिकाल के बारे में लिखा “भक्तिकाल की विशेषता हिन्दी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है”{2} भक्तिकाल का काव्य भाषा और भाव के सम्यक संधान का काव्य है। किन्तु इस प्रक्रिया में यह भी ध्यान देने कि जरूरत है कि साहित्य के विषय–वस्तु के रूप में प्रस्तावित कुछ भाव ऐसे शाश्वत किस्म के और ताकतवर होते हैं जिनको रचना-प्रक्रिया में पूर्वाग्रहों के साथ नहीं पचाया जा सकता| ऐसे भावों की विशेषता यह है कि वे अपने आदिम गठन में आधे से अधिक अपरिवर्तित होते हैं , शेष हिस्से में युग –युगांतर के रचनाकार और दार्शनिक भले ही फेरबदल करते रहे हों| भावों की शाश्वतता के बावजूद इस शेष फेरबदल के हिस्से में, लेखक शब्द और अर्थ की सुन्दरता की प्रतियोगिता में किसे ज्यादा छूट देता है , वही चीज उस लेखक को अमर और नश्वर बनाती है| यहाँ मानवीय संवेदना की पक्षधरता और लोकतांत्रिक चेतना ही लेखक की कसौटी है जिससे उसकी रचना कालजीवी हो जाती है , संभवतः सुन्दरता की उसकी निजी अवधारणाएं यही विकसित होती हैं| शब्द और अर्थ के बीच सौंदर्य-प्रतियोगिता की दृष्टि से तुलसी और ‘मानस’ युगों से सराहा जाता रहा है| लेकिन जिस तुलसी ने मर्यादापुरुषोत्तम राम को निखारने में अपनी सारी रचनात्मकता झोंक डाली, उस राम और सीता के भीतर एकदूसरे के लिए ‘अशोक वाटिका’ में जन्मनेवाले प्रेम के वर्णन को लेकर मर्यादित तुलसी के सामना विकट रचनात्मक चुनौती आ खड़ी होती है| ‘बाल–काण्ड’ का एक दृश्य है ,जहाँ पुष्प-वाटिका में राम पहली बार सीता को देखते हैं ; तुलसी के मर्यादापुरुषोत्तम राम के कंठ पहली बार इसी दृश्य में फूटे हैं, राम ने लक्षमण से कहा –
“तात जनकतनया यह सोई| धनुषजग्य जेहि कारन होई|| पूजन गौरी सखीं लै आईं| करत प्रकासु फिरत फुलवाई|| जासु बिलोकि अलौकिक सोभा| सहज पुनीत मोर मनु छोभा|| सो सबु कारन जान बिधाता| फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता|| रघुवंसिन्ह कर सहज सुभाऊ| मनु कुपंथ पगु धरई न काऊ|| मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी| जेहिं सपनेहुँ परनारी न हेरी||”{3}
तुलसी के पास ‘राम’ शब्द मंत्र की तरह है जिसे वह बार-बार बुदबुदाते रहते हैं। पर उनके राम के पास दो और मंत्र हैं ‘तात’ और ‘जनकतनया’- अर्थात लक्षमण और सीता| पूरा ‘मानस’ तुलसी राम के सहारे लिखते हैं और राम पूरे ‘मानस’ को लक्ष्मण और सीता के सहारे जीते हैं। ये शब्द मानस में छाये हुए हैं| राम का पूरा व्यक्तित्व अपहृत सीता को पाने में विकसित हुआ है , वहां भी लक्षमण साथ-साथ हैं| मन की बात यहाँ ‘जनक वाटिका’ में भी राम अपने भाई से ही कहते हैं| जनक–वाटिका में राम सीता पर मुग्ध हो चुके हैं पर तुलसी का हस्तक्षेप देखिये ‘सो सब कारन जान बिधाता’| वे राम से सफाई तक दिलवा देते हैं ‘रघुवंसिन्ह कर सहज सुभाऊ’ , जबकि शब्द और अर्थ सुन्दरता की अपनी प्रतियोगिता में चरम पर हैं| सीता प्रकाश फैलाते हुए फुलवारी में घूम रहीं हैं और इधर राम का मन ,‘मोर मनु छोभा’ के साथ प्रकट होता है। यह कुछ और नहीं प्रेम है , जो झटके से पैदा हुआ है| तुलसी लाख लिखते रहें ‘प्रीति पुरातन लखे न कोई’{4}
पर ‘पाठ’ में सौंदर्य की प्रतियोगिता इस अनचाहे हस्तक्षेप को रौंदते हुई अबाध है , राम-जानकी विवाह के पीछे नियति , पूर्वग्रह , दैवीय आदेश रचना में उस तरह पुष्ट हो कर नहीं उभरते हैं जैसे कि सघन प्रेमानुभूति| प्यार अपनी सारभौमिकता में प्यार की तरह ही अभिव्यक्त होता है , उस पर चढ़ी काई की पहचान मुश्किल नहीं| मिखाइल बाख्तिन ने हालांकि “अनचाहे लेखकीय हस्तक्षेप की निंदा और अंतर्विरोधी स्वरों के लोकतांत्रिकरण की प्रशंसा” {5} वाली बात उपन्यासों के सन्दर्भ में कही थी ,पर उपन्यासों को आधुनिक जीवन का महाकाव्य कहा गया है , इस लिहाज से उपन्यास और महाकाव्य सहोदर हैं , आगे पीछे| परस्पर विरोधी दृष्टियों पर बराबर बल डालने का आग्रह तुलसी से करना अवांछनीय भी है| अंतर्विरोधी स्वरों को जगह देना आधुनिकता का आग्रह भले ही हो , फिर भी प्रेम एक ऐसा विषय है जो अपनी बुनियादी अवस्था से ही क्रन्तिकारी और लोकतांत्रिक होता है ,यदि वह अपनी वास्तविक अनुभूति में रचना-प्रक्रिया में मौजूद है तो वह किसी भी रचनाकार और युग की ‘मर्यादाओं’ का मोहताज नहीं , वह सामाजिक मान्यताओं से भी कुछ हद तक बेपरवाह होता है भले उसके सामने चाहे ‘मानस’ ही क्यों न हो| तुलसी की लाख सावधानी के बावजूद प्रेम का बगावती रूप यहाँ छुप नहीं पाया है , तुलसी पूरे ‘बाल–काण्ड’ में मर्यादा के भाव को लेकर ‘प्रेम’ को लगातार नियंत्रित करने कि चेष्टा कर रहे हैं जबकि उनके नायक और नायिका दोनों का ‘प्रेम’ तब की मान्यताओं और रूढ़ियों (सिमित अर्थों में ही सही) के कगार में दरारें डाल देते हैं , यह बोध कम से कम ‘बाल–काण्ड’ पर जरूर लागू होता है|
राम सीता की छवि निहार कर फुलवारी से लौट चुके हैं , अब रात हो गई है और “प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा|सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा|| बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं| सिय बदन सम हिमकर नाहीं||”{6} राम के भीतर सीता घुमड़ती रहती हैं ,झटके से पैदा हुआ प्रेम अब गंभीर निर्णयों की ओर ले जाना चाहता है| प्रेम उत्साहित कर रहा है ,प्रेम के लिए| अनायास अंतरंगता अपनी मूल प्रकृति में चाहे वह जीवन हो या कविता, अस्थायी होती, उसमें स्थायित्व प्रेम में भावों की आवृति लाती है , अज्ञेय की कविता में ‘ मैं रह गया क्षितिज को अपलक देख। और अन्तः स्वर रह गया मन में - / क्या जरूरी है दिखाना तुम्हें वह जो दर्द मेरे पास है” {7} जैसे आधुनिक भावबोध की कविता तब के राम के “अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही,बैदेही मुख पटतर दीन्हे” खीझ में प्रकट हुए थे| राम द्वारा सीता-स्मरण की निरंतरता , उसमे पलता हुआ प्रेम शिव–धनुष ‘पिनाक’ को एजेंडे पर ले आता है, जो पहले कही नहीं था, पिनाक यहाँ प्रेम के रास्ते में एक बाधा है| एरिक फ्राम ने ‘आर्ट ऑफ़ लविंग’ में लिखा है “अगर आप प्रेम को उत्साहित किए बगैर प्रेम करते हैं ,या यूँ कहें कि अगर आपका प्रेम , प्रेम को पैदा नहीं करता ; अगर प्रेम करनेवाले व्यक्ति के रूप में और जीवन की अभिव्यक्ति के माध्यम से , आप अपने आप को ‘एक प्रेम किया जा सकनेवाला व्यक्ति’ नहीं बना पाते – तो आपका प्रेम एक दुर्भाग्य है”{8} धनुष-भंग भी यहाँ एक अभिव्यक्ति ही है जिसे पुरुषार्थ से नहीं प्रेमार्थ से जोड़कर देखने की जरूरत है , बस तुलसी इसे पुरुषार्थ की सीमा में ले आते हैं क्योंकि यही शास्त्र-सम्मत है। शास्त्र सम्मत यह भी है कि प्रेम की अनुभूति में राम समान्य प्रेमी की तरह विचलित नहीं होते बल्कि विचलित होते होते रह जाते हैं , राम को मर्यादित करने की तुलसी की साधना यहाँ सफल हो जाती है , पर सीता तुलसी के नियंत्रण से कई बार बाहर चली जाती हैं| कहा जाता है कि जिसे किसी चीज का ज्ञान नहीं है ,वह किसी चीज से प्रेम भी नहीं करता| ‘जनक–वाटिका’ में सीता की एक सखी साहस बटोर कर कहती है कि देवी-गौरा की पूजा बाद में कर लेना पहले उन दो सुन्दर राजकुमारों को देख लो , फिर “सकुचि सियँ तब नयन उघारे|सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे| नख सिख देखि राम कै सोभा| सुमिरि पिता मनु अति छोभा||”{9} राम के नाख़ून से बालों तक कोमलता का साक्षात्कार करती हैं सीता और साथ ही सीता के मन क्षोभ भी प्रकट होता है | यहाँ भी ‘छोभा’ है , राम में‘मोर मनु छोभा’ मन के विचलन और अंगों के फड़कने के रूप में तुलसी शब्द गढ़ते हैं पर वहाँ अर्थ राम के लिए प्रेम की अनुभूति के रूप में खुलते हैं। लेकिन यहाँ सीता का यह क्षोभ उस राम को पाने में आने वाली बाधा को लेकर है जिस राम को सीता ने पहली नजर में पसंद कर लिया है| यह ‘छोभा’ मध्ययुगीन काव्य–रूढ़ियों का एक हिस्सा बनकर आता है जो प्रेम की त्रासदी को ही रेखांकित करता है ; व्यक्तिगत आजादी , निजता और निर्णय की स्वतंत्रता के विरुद्ध खड़ी एक संरचना के प्रति नफ़रत है यह क्षोभ|यह प्रश्न प्रकारांतर से स्त्री की आजादी से भी जुड़ा हुआ है| सीता के सामने चयन की गुंजाइश कम है ,सामन्ती –समाज की स्त्री के सामने चयन है ही नहीं , पर प्रेम की पात्रता है , यह पात्रता ही समाज को लेकर क्षोभ के रूप में व्यक्त हुआ| सीता का क्षोभ पिता के अतार्किक धनुष–यज्ञ से है ,पिनाक की गुरुता से है , एक राजा के पितृसतात्मक हठ से है, भयभीत सलाहकारों से है , प्रबुद्ध समाज की चुप्पी से है “अहह तात दारुन हठ ठानी|समुझत नहीं कछु लाभ न हानी| सचिव सभय सिख देई न कोई|बुध समाज बड अनुचित होई||” {10} बेचैन सीता ‘भवानी’ को याद करती हैं ,प्रार्थना के सिवाय उस दौर की लड़की कर ही क्या सकती थी ? इस पूरे कसमसाहट से कई सामन्ती रूढ़ियाँ एक साथ टूटती हैं , उन पर प्रश्न खड़े करती हैं, जिसकी आवाज अब तक नहीं सुनी गई| सच्चे अर्थ में प्रेम का प्रश्न या मनचाहे साथी के चुनाव की आज़ादी का प्रश्न इतिहास का एक दीर्घकालीन प्रश्न है|‘तौ भगवानु सकल उर बासी , करिहि मोहि रघुबर के दासी’ में एक छटपटाती हुई लड़की है जिसे तुलसी समेत आलोचकों ने अलौकिक करके वर्णनातीत कर दिया। क्या हम कह सकते हैं कि ‘लोचन जलु रह लोचन कोना ,जैसे परम कृपन कर सोना’ {11} में सदियों की स्त्रियों की सिसकियाँ और आंसू भरे हुए हैं ? काव्य की भावभूमि में अलौकिकता के आरोपण से दर्द की मात्रा कम दिखती है या छुपी हुई सी लगती है , पर वह अपने स्वरुप में वैसे ही है जैसे की प्रेम होता है| प्रेम यदि अपनेआप में ‘लक्ष्य’ है तो उस दाह का ‘समाधान’ प्रेमी के मिलने पर ही संभव है| मारक प्रेम यहाँ अंतिम अवस्था में है| अब यही तुलसीदास के सामने संकट है। प्रेम हो या सौंदर्य-बोध , ऐसा नहीं है कि मर्यादा भाव के कवि तुलसीदास की ही यह समस्या थी। रामविलस शर्मा ने कालिदास से तुलना करते हुए एक जगह लिखा है “ ऐसी समस्या तुलसीदास के पहले कालीदास के सामने भी आई थी” {12} तुलसी रामराज्य जैसी ताकतवर अवधारणा के लेकर आते हैं , वह जहां तक भविष्य देख सकते थे ‘दैहिक, दैविक भौतिक तापा’ के हरण के लिए , देखा भी और उसकी प्रशंसा भी हुई। पर हर रचनाकार की एक युगीन समस्या होती ही है। मर्यादा इतनी कमजोर और खोखली अवधारणा नहीं जिसे कुछ आलोचक त्याज्य मानते हैं। समाज के नियामन के लिए यह इस कवि का ‘कोड ऑफ कंडक्ट’। समय के बदलाव के साथ यह अवधारणा भी बदलती है। कात्यायनी ने लिखा है “मुक्ति की चाहत को/सपनों की दुनिया से/बाहर लाना होगा.../ मुक्ति की चाहत को/ अदम्य लालसा ही नहीं / दुर्निवार जरूरत बनाना होगा” {13} किन्तु यह विचार समय के साथ आया। इस विचार का आरोपण हम चार सौ साल पहले के साहित्य पर नहीं कर सकते। सीता के चेतना में यह सोच संभव ही नहीं क्योंकि रचनाएँ अपने देश-काल से बिंधी रहती हैं। हम बस यह पाते हैं कि रामचरितमानस के ‘बाल-कांड’ में इस सहज प्रेम को तुलसी जितना दबाते हैं , प्रेम अपनी स्वभावगत संरचना की वजह से उतना ही उतरोत्त्तर पुष्ट होता चला जाता है| यह दृष्टि आधुनिक ढँक से सोचने पर ही पाई जा सकती है। क्षोभ यहाँ बग़ावत के हल्के अर्थ को लिए हुए है। यही अनुभूति जब आधुनिक काल कि स्त्री के भीतर चेतना और विचार के स्तर पर जैसे ही जगह बनाती है , बग़ावत हो जाता है , पहले गोत्र फिर जाति और अंततः धर्म का अतिक्रमण हो जाता है| प्रेम की आज़ादी का सवाल बदलती सामाजिक मानसिकता का भी सवाल है , उसके लेखकीय ‘ट्रीटमेंट’ से उदारता की सीमाओं का निर्धारण होता है| मध्यकाल में यह एक दी हुई स्थिति या ‘ढांचे’ के भीतर है , मगर यह होते हुए भी उसमे नहीं है , तुलसी उसके खिसकाव से परेशान दिखते हैं| पर मध्यकालीन साहित्य और समय यहाँ इस भाव-तंतु का निर्वाह नहीं कर सकते थे , इसका निर्वाह आधुनिकता को ही करना था| एरिक फ्राम ने अपनी किताब कि भूमिका में लिखते हुए कहा है कि “प्रेम किसी एक व्यक्ति के साथ संबंधों का नाम नहीं है ; यह एक दृष्टिकोण है , चारित्रिक रुझान है – जो व्यक्ति और दुनिया के संबंधों को अभिव्यक्त करता है , न कि प्रेम के सिर्फ एक ‘लक्ष्य’ के साथ उसके संबंधों को|” बाल-काण्ड का जनक-वाटिका से लेकर धनुष–भंग तक का सारा काव्य‘पाठ’ प्रेम–काण्ड है, बेहद विश्वशनीय और शास्त्र-सम्मत। हाँ , आधुनिकता कि निगाह से देखें तो उस में अलौकिकता का आरोपण अनुभूति को सर के बल उल्टे खड़े करने जैसा लगता है जिसे बहुत बाद में चलकर आधुनिक कविता और साहित्य ने पैरों के बल सीधा खड़ा किया , यहाँ अज्ञेय को याद करें ‘प्रेम का कोई भी स्तर मूल्यवान है ,एक उन्मेष है ,पर एक स्तर वह आता है , जहाँ दिख जाता है कि यह प्रेम तो इस और उस दो मानव इकाइयों के बीच नहीं ,यह तो ईश्वर के एक अंश और ईश्वर के एक दूसरे अंश के बीच का आकर्षण है ,जिसकी ये दो मानव इकाइयाँ मानो साक्षी –भर हैं| पर कितना बड़ा सौभाग्य है यह यों साक्षी होना - ईश्वर के साक्षात्कार से कुछ कम थोड़े ही है उसके दो अंशों के मिलन का साक्षात्कर ..” {14} अज्ञेय के ‘क्षण भर लय हों – मैं भी ,तुम भी’{15} का अध्यात्म ‘सीय चकित चित रामहि चाहा’ की भावभूमि से पहली नज़र में अलग नहीं ,पर अलगाव की तलाश हम कथन के पीछे के आत्मविश्वास से जरूर कर सकते हैं| तुलसी साहित्य के आत्मविश्वास उसने मर्यादा-निर्धारण के रूप में है जो तब के जमाने के हिसाब से जितना काव्योचित है उतना ही शास्त्रोचित , उतना ही लोक के लिए उचित। आज भूमंडलीकरण और बाजार ने ऐसे कई सम्बन्धों को प्रेरित किया है जिसे हम लाख आधुनिकता के बावजूद स्वीकार नहीं कर प रहे हैं। यह हमारे युग का क्या निकष नहीं है ? हर युग ने प्रेम जैसे भाव को अपने समय की कसौटी पर कसा है। इसी लिहाज से शब्द और अर्थ की सुन्दरता की प्रतियोगिता में पूर्वग्रहों का हस्तक्षेप बस इतना भर बताता है कि प्रेम अपनी स्वाभाविक प्रकृति में स्वतंत्र और लोकतांत्रिक होता है , उसका निर्वहन करनेवाले उसे तय नहीं करते वरन प्रेम रचनाकारों की मानसिकता, उम्र और युगीन स्थितियों की सीमाएं तय करता है|
{1} हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास , रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन,ग्यारहवाँ संस्करण-1999, पृष्ठ-47
{3} तुलसदासकृत रामचरितमानस, टीकाकार-हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रेस – तीसरा संस्करण1986, पृष्ठ-224
{9} तुलसदासकृत रामचरितमानस, टीकाकार-हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रेस – तीसरा संस्करण1986, पृष्ठ-226
{13} दुर्ग द्वार पर दस्तक , कात्यायनी ,परिकल्पना प्रकाशन, तृतीय संस्करण-2004, पृष्ठ-31
{15} प्रेम के रूपक, आधुनिक हिन्दी की प्रेम कविताएं , मदन सोनी , वाणी प्रकशन , प्रथम संस्करण-2006, पृष्ठ-364
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