सूफी संप्रदाय की भारत में लगभग चार शाखाएं प्रचलित हैं, चिश्तिया(12वीं), सुहरावर्दी(12 वीं) कादरिया(15 वीं) और नक्शबन्दिया(15वीं) । इन सम्प्रदायों में साधन-मार्ग और सिद्धांत आदि को लेकर अंतर है । भारत में इन सभी सम्प्रदायों में चिश्ती सम्प्रदाय सबसे प्रमुख है । इस सम्प्रदाय की शुरूआत ख्वाज़ा मुईनुद्दीन चिश्ती के साथ, 1142 ई० में सिस्तान में हुआ था । वहीं से ये सूफी सम्प्रदाय के प्रचार-प्रसार के लिए भारत आए और अजमेर में जाकर बस गये । इनका सादा जीवन, उद्दात विचार भारतीय समुदाय और यहाँ के धार्मिक जिज्ञासुओं को अपनी ओर आकर्षित करने लगा। भारतीय लोककथाओं का आश्रय लेकर अपने लौकिक जीवन से आध्यात्मिक विचार प्रस्तुत करना आरम्भ किया । इसमें भी दो धाराएं थीं,एक धारा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की थी जिसमें भारतीय लोक कथाओं की अधिकता थी दूसरी धारा दक्षिण की थी जिसमें ईरानी लोक कथाओं की प्रचुरता थी । बच्चन सिंह लिखते हैं, “हिन्दी सूफी कवियों की जमीन भारतीय है,जबकि दक्षिणी हिन्दी सूफी कवियों की जमीन ईरानी है । हिन्दी सूफी कवियों की कथाएं यहाँ लोकप्रचलित कहानियों पर आधारित हैं, और दक्षिण हिन्दी के कवियों के कथानक ईरानी काव्य में प्रयुक्त लोककथाएं हैं । उनका रंग इस्लामी और ढंग ईरानी था ।”1 यह ठीक वैसे ही है जैसे सगुण काव्यधारा के अंतर्गत रामकाव्य और कृष्ण काव्य। लेकिन यह लोकरुचि का सवाल है कि किसी क्षेत्र की जनता का हृदय किस भाव भूमि को स्वीकार करता है। ‘जायसी’ प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहिद्दी(मुहीउद्दीन) के शिष्य थे। इनका जन्म 1492 ई० में माना जाता है । ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इनकी तीन रचनाओं का जिक्र किया हैं । ‘पद्मावत’, ‘अखरावट’, ‘आखिरी कलाम’ । आचार्य शुक्ल का मानना था कि “जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है ‘पद्मावत’ जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और ‘प्रेम की पीर’ से भरा हुआ था ।”2
शुक्ल की दृष्टि वैज्ञानिक थी वह साहित्य को ऐतिहासिक, भौतिक और लेखक की भावप्रवणता, परिवेश के आधार पर मूल्यांकन कर किसी रचना की महत्ता को स्थापित करते हैं। इसी आलोक में छोटी रचनाएँ समाहित हो जाती हैं ।
इनकी एक अन्य रचना ‘कन्हावत’ भी है, जिसका मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है । हजारीप्रसाद द्विवेदी और बच्चन सिंह ने भी इस रचना का उल्लेख नहीं किया है । विश्वनाथ त्रिपाठी ने हिन्दी साहित्य के सरल इतिहास में इनकी तीन रचनाओं के अलावा ‘कन्हावत’ का उल्लेख करते हुए अप्रमाणिक माना है । जायसी की इस रचना का उल्लेख सर्वप्रथम ग्रासा द तासी ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में किया है । वह लिखते है, “घनावत, कविता जिसकी छोटे फोलियो में 1656-1657 ई० में प्रतिलिपि की गई, इसकी एक अत्यंत सुन्दर हस्तलिखित प्रति डॉ० ए० स्पेंगर(Sprenger) के पास है ।”3 इसमें घनावत लिखा है, तासी इसे पाद टिप्पणी में व्यक्तिवाचक और ‘घ’ का सप्राण से ‘ग’ लिखा गया, मानते हैं। इसके अलावा यह स्पष्ट हो जाता है कि इस रचना की मूल प्रति डॉ. ए. स्पेंगर के पास थी । परमेश्वरीलाल गुप्त इसके नाम और स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, “मध्यकालीन फारसी लिपि में काफ़ और गाफ़ की अभिव्यक्ति एक ही अक्षर अर्थात काफ़ से ही की जाती थी । काफ़ के ऊपर गाफ़ की अभिव्यक्ति के लिए दूसरे मरकज का प्रयोग नहीं होता था । अत: काफ और हे को किसी भी शब्द में संयुक्त मानकर ख अथवा घ तथा अलग-अलग मान कर कह अथवा गह पढ़ा जा सकता है ।”4 इसके अलावा जायसी ने स्वयं इस काव्य के प्रारम्भ में कान्ह कथा कहने और सबको सुनाने की बात कही है ।
“तो मैं कहा अमिय खण्ड खंड गाऊं । कान्ह कथा करि सबही सुनाऊं।।”(कन्हावत)
‘कन्हावत’ की रचनाकाल की बात करें तो जायसी ने इसकी तिथि कन्हावत में “सन नौ सै सैतारिस अहई । तहिया सरस वचन कवि कहई ।। कातिक महँ जो परत देवारी । गावहीं अहर खटकै तारी ।।”अर्थात ‘कन्हावत’ की रचना-तिथि सन 947 हिजरी(1541ई०) है । यह समय हुमायूँ के शासन काल का था ।
कन्हावत की कथा का अध्ययन करने से पहले इससे पूर्व लिखे गए प्रेमाख्यानों कथाओं की विषयवस्तु का अध्ययन करने के पश्चात ‘कन्हावत’ की कथा का रचना विन्यास, ऐतिहासिकता, दर्शन आदि का मूल्यांकन किया जा सकता है । सभी प्रेमाख्यानक कृतियों में कुछ-न-कुछ समानताएं अवश्य दिखाई देती है जैसे एतिहासिक राजाओं के साथ कल्पित या अर्द्धकल्पित पात्रों को आधार बनाकर प्रेम कहानियाँ लिखी जाती थीं। ‘कुतबन’ द्वारा रचित ‘मृगावती’ में चन्द्रगिरी के राजा गणपति देव के पुत्र तथा कंचनगिरि के राजा रूपमुरारि की पुत्री मृगावती कथा का वर्णन है । मंझन की ‘मधुमालती’ में राजकुमार मनोहर और राजकुमारी मधुमालती के रहस्यमयी प्रेम-प्रसंग है । जिसमें राजकुमारी की अप्सराएँ राजकुमार को उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में ले आती है और दोनों के प्रेम-प्रसंग वर्णन कथा में यहीं से आरम्भ होता है । इस तरह की कथा भारतीय साहित्य में उषा और अनिरुद्ध की कहानी में नायक को नायिका के घर पहुंचाए जाने की कथा-शैली पायी जाती है । उसमान कृत ‘चित्रावली’ में नेपाल के राजा धरणीधर के पुत्र सुजान कुमार और रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली की प्रेम-कथा वर्णित है । ‘जायसी’ की रचनाएँ अखरावट, आखिरीकलाम, कहरनामा, चित्ररेखा, कन्हावत, पद्मावत आदि महत्त्वपूर्ण हैं । ‘पद्मावत’ जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है । जिसमें सिंहल देश की राजकुमारी पद्मावती और चितौड़ के राजा रत्नसेन का प्रेम वर्णन है । कथा में शुक के द्वारा रानी पद्मावती के रूप सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर राजा रत्नसेन उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है। मात्र इस एक रचना से सूफी काव्य धारा की विशेषताओं को समझा जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पद्मावत की एतिहासिकता के संदर्भ में कहा है कि इस कहानी का पूर्वार्द्ध तो बिलकुल कल्पित है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक आधार पर है।
कन्हावत की कथा के संदर्भ में परमेश्वरी लाल गुप्त लिखते है- “हुमायूँ के शासन-काल 947 हिजरी (1541 ई०) में जिस समय उन्होंने कन्हावत की रचना की, उस समय तक उन पर सूफियाना रंग नहीं चढ़ा था पर कृष्ण-गोपी प्रेम-भावना में निहित भारतीय अद्वैतवाद और भक्ति से वे भली-भांति परिचित हो चुके थे ।”5
इसके आगे वे लिखते हैं, “सूफी सम्प्रदाय में दीक्षित होने के बावजूद कुछ दिनों तक वे भारतीय भक्ति-भावना से ओत-प्रोत रहे, फलस्वरूप उन्होंने वृन्दावन की यात्रा की । कदाचित वहाँ कुछ दिन रहे थे । वहाँ वे भारतीय अवतारवाद, अद्वैतवाद भक्ति और कृष्ण-गोपी की प्रेम-भावना से परिचित हुए और उन्होंने 947 हिजरी में कन्हावत (कृष्ण-कथा) की रचना की। इसमें कहीं भी वह सूफी आध्यात्मिक भावना दृष्टिगत नहीं होती जिसके लिए जायसी की ख्याति है ।”6 कन्हावत का रचना समय पद्मावत से पहले का है, ऐसा अक्सर देखा जाता है कि किसी लेखक को अपनी प्रथम रचना में ख्याति मिल जाती है या कभी अंतिम रचना में मिलती है। इसका सीधा सम्बन्ध लोक-रुचि, राजाश्रय, जीविका आदि से होता है ।
भक्तिकाल में जितने भी सूफी लेखक थे, उन्होंने राजा और रानियों के माध्यम से अपनी रचना में धार्मिक उद्देश्य को साकार करने का प्रयास किया। जिसमें कृष्ण काव्य को सूफियों ने आसानी से ग्रहण किया था जबकि भक्तिकाल में राम को केंद्र में रखकर अधिकााधिक साहित्य सृजन किया जा रहा था। निर्गुण तथा सगुण धारा के दोनों संतों ने किसी न किसी रूप में अपने काव्य का विषय रामकाव्य को बनाया है परन्तु सूफी कवियों ने कृष्ण और लोकप्रचलित कथाओं को अपनी काव्य रचना का आधार बनाया। इस सन्दर्भ में हजारीप्रसाद द्विवेदी ईश्वरदास द्वारा रचित ‘सत्यवती कथा’ के बारे में लिखते हैं, “गोस्वामी तुलसीदास जी की रामायण में एक ओर जहाँ काव्यगुण अत्यधिक मात्रा में प्राप्त था, वहीं दूसरी ओर उसमें धर्म भावना का योग था......रामायण का प्रवेश मुस्लिम घरों में बहुत कम हो सका, इसलिए वहाँ कुछ पुरानी प्रेम-कहानियाँ बच गईं।”7 सूफी संत थे, उनका मुख्य उद्देश्य समाज सुधार था इसलिए उन्होंने भारतीय परम्परा के उस अंश को चुना जिसमें धार्मिक मान्यताएं नहीं थी । सूफी संतों ने निर्गुण काव्य रचते हुए भी राम के बजाय कृष्ण के प्रेम और लोक तत्व को महत्व दिया ।
कन्हावत की कथा का मूल आधार क्या है ? इसका मूल स्रोत क्या है ? इसको जायसी स्वयं इस काव्य में लिखते है -
“हरि अनंत हरि कथा अनंता । गावहि वेद, भागवत, सत्ता ।। (कन्हावत)
अर्थात जायसी हरि यानी ईश्वर की सत्ता को अनन्त मानते हुए उसे स्मरण की बात कहते हैं। इसमें हरि मात्र एक सम्बोधन के रुप में है, उस निर्गुण ईश्वर का स्मरण भक्त कभी भी कर सकता है ।
कवि ने पद्मावत की भांति (पद्मावत, चित्ररेखा, और कन्हावत) तीनों काव्यों में कवि वेद व्यास का आदर-सम्मान के साथ उल्लेख किया है । कन्हावत में भी वेद व्यास का स्मरण किया है ।
“समिरौ वेद विआसक चरना । जन्ह हरिचरित सहस्सर बरना ।।
सुनेउ पढ़ेऊँ भागवत पुरानां । पाएऊँ प्रेम पंथ संधान ।।
जोग भोग तप और सिंगारू । धरम करम सत के वेवहारू ।। (कन्हावत)
इस कथन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि कवि ने ‘श्रीमदभगवत’ को सुना-पढ़ा था । उसे कृष्ण-कथा में ‘प्रेम-पंथ’ के दर्शन के अतिरिक्त योग, भोग, तप, श्रृंगार, धर्म आदि के दर्शन हुए । जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया है कि जायसी कुछ दिन वृन्दावन में रहे थे ।
कवि जायसी ने हृदय को अपनी प्रेम-साधना का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आधार माना है । जायसी का मानना है कि हृदय की दिव्य ज्योति मनुष्य का सर्वस्व है, परमप्रिय का दर्शन हृदय के दर्पण से होता है । भौतिक नेत्रों से उसे देखा नहीं जा सकता, हृदय के ‘सत’ से ही नेत्रों में भक्ति आती है :-
“नैन दिष्टि सों जाइ न हुआ । सहस करां सुरुज जनु ऊआ ।।”(कन्हावत)
जायसी का मत है कि ब्रह्म के निर्गुण निराकार रूप का दर्शन नेत्रों से नहीं होता है अपितु हृदय की अथाह गहराई से होता है । सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्म की लीला है, वह ही फल है, वह ही रखवाला है,वह ही सब का पालनहार है ।
‘कन्हावत’ में जायसी ने अनेक स्थलों पर स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि संसार में केवल कृष्ण ही एक मात्र पुरुष है, अन्य सब नारी हैं:-
“सोरह सहस इस्तरी,एक पुरूष सब माँह ।
राधै सबहि रात-दिन,देइ सिरहाने बाह ।”(कन्हावत)
‘कन्हावत’ का विश्लेषण करते हुए पाते हैं कि कृष्ण को साध्य माना गया है। जबकि सूफी काव्य धारा में स्त्री को साध्य माना गया है। प्रेमाख्यान काव्य में स्त्री के रुप में निर्गुण ईश्वर की परिकल्पना करना सूफी काव्य धारा की अपनी विशेषता है।
जायसी स्वतंत्र-चेतना रखने वाले एक मात्र सूफ़ी कवि हैं। वे इस्लामी चिंतन पर आस्था रखते हैं । साथ ही वेदान्त पर भी पूरी आस्था रखते हैं । जायसी के तत्व-चिंतन का वैशिष्ट्य है कि उन्होंने इस्लामी एकेश्वरवादी चिंतन और वेदांत के अद्वैतवाद चिंतन का सुन्दर समन्वय किया है । पिण्ड और ब्रह्मांड में हम और तुम में अंतर नहीं है:-
“हम तुम्ह दूसरा एकै दूसरा नाही । जैसे पिंड एक दोई माही ।।
मोहिं-तोहिं राही अंतर नाहीं । जइस दिख पिण्ड परछप्ति ।।”(कन्हावत)
काव्य-रूप के सन्दर्भ में विचार करने पर ज्ञात होता है कि सूफी काव्यधारा में परम्परा से कुछ नियम, सिद्धांत के रूप में मान्य हैं। उन नियमों और सिद्धांतों का प्रयोग जायसी ने अपनी कृति कन्हावत में किया है। उनमें से नियम एक मसनवी-शैली है, जिसका काव्यरूप उनकी कृति ‘कन्हावत’ में दिखाई देता है :-
हम्द (ईश्वर-स्तुति)
जायसी ने ‘कन्हावत’ के प्रारम्भ में ईश्वर की स्तुति की है – “ताकर अस्तुति कीन्ह न पाई । कौण जहि अस करौं बड़ाई” (कन्हावत)
नअत(मुहम्मद साहब की स्तुति)
“कहौं मुहम्मद दोसरे भानूं,जहि मिठान लेत मुख नाऊँ ।।”(कन्हावत)
मकबत(चार यारों की प्रशंशा)
अवूवकर, उमर, उस्मान, अली
“चारि मति विघनै बड़ किन्हें । नवी रसूल के गोहनें दीन्हें ।।”(कन्हावत)
मदह(शाहे वक्त)
जायसी ने कन्हावत में दिल्ली के बादशाह हुमायूँ की प्रशंसा की है ।
“देहली कहो छत्रपति नाऊँ । बादशाह बड़ साह हुमाऊँ ।।”(कन्हावत)
मुर्शिद(गुरू विषयक स्तुति)
“कहों तरीकर अगुआ गुरू । रौशन दीन दूनी सुर्खरू”(कन्हावत)
कन्हावत की कथा-वस्तु को किसी प्रकार से लोक-कथा मात्र नहीं कहा जा सकता है क्योंकि उसकी मूल कथा पुराणों में आबद्ध है। जायसी ने अपने काव्य रचना कन्हावत में कृष्ण की पौराणिक कथा को विषयवस्तु बनाया है, उन्होंने उसे सीधे पुराणों से ग्रहण न करके लोक-मानस से प्राप्त किया है जैसाकि उनका स्वयं का कहना है :-
“कातिक मंह जो परत देवारी । गावही आहिर कन्ह कै मारी।।
तो मैं कहा एहै खंड गावों । कन्ह कथा कर सबहि सुनावों।।”(कन्हावत)
कन्हावत के प्रत्येक कड़वक में सात यमक और उसके बाद एक धत्ता है । कड़वकों का यह रूप जायसी के पद्मावत में भी उपलब्ध है । कड़वक की इस परम्परा ने अपभ्रंश काव्य की वर्णनात्मक शैली का अनुसरण किया गया है । इसके अतिरिक्त सूफियों द्वारा रचित प्रेमाख्यान काव्य अन्योक्ति अथवा रूपक(अलेगरी) के रुप में देखे जाते हैं । इस तथ्य को सामने रखकर देखने पर ज्ञात होता है कि कन्हावत किसी प्रकार से सूफी (हजल)रूपक का प्रतीत नहीं होता है। ‘कन्हावत’ की कथा वस्तु से स्पष्ट है कि उसमें कृष्ण के जीवन का एक पूर्ण दृश्य उपस्थित है । उसमें घटनाएँ श्रंखलाबद्ध हैं और अत्यंत स्वभाविक क्रम में विन्यस्त हैं । उसमें हृदय को स्पर्श करने वाले एक से एक सुन्दर मनोरम स्थल हैं। कवि ने ऐसी वस्तुओं और व्यापारों का चित्रण किया है, जो किसी श्रोता या पाठक के हृदय में रसात्मक भाव उत्पन्न करने में समर्थ हैं । कवि ने कृष्ण जीवन के मर्मस्पर्शी स्थलों का चयन और चित्रण अत्यंत कुशलता से किया है- कृष्ण की बाल-क्रीड़ाएं, असुरों का वध, कंस का वध, गोपियों के प्रति प्रेम, चन्द्रावली तथा राधा के प्रेम प्रसंग, कुब्जा-प्रसंग और उसकी संयोगावस्था, गोपियों का विरह आदि बड़े अगाध, गंभीर, भाव-प्रवण आदि रसात्मक स्थल हैं ।
संदर्भ :
1)
सिंह.बच्चन,हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली,पृष्ठ.101
2)
शुक्ल.आचार्य रामचन्द्र,हिन्दी साहित्य का इतिहास1929,वाणी प्रकाशन , दिल्ली, पृष्ठ.88
3)
तासी.गार्सां द, हिन्दुई साहित्य का इतिहास (द्वितीय संस्करण), हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद. पृष्ठ. 86
4)
गुप्त.परमेश्वरी लाल, कन्हावत,1981, अन्नपूर्णा प्रकाशन, वारणसी, पृष्ठ.3,43,27
5)
द्विवेदी. हजारीप्रसाद, हिन्दी साहित्य उदभव और विकास1952, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ.145
6) पाठक. शिव सहाय, कन्हावत. 1981, साहित्य भवन (प्रा०) लिमटेड. (समस्त पद्यों का उदाहरण)
एक टिप्पणी भेजें