शोध आलेख : भक्ति आंदोलन : एक सतत् सामाजिक प्रतिरोध / विजय नाथ जायसवाल

भक्ति आंदोलन : एक सतत् सामाजिक प्रतिरोध
विजय नाथ जायसवाल

शोध सार : भक्ति आंदोलन और भक्ति की उत्पत्ति के संबंध में अनेक मत प्रचलित है। सभी आलोचकों ने अपने-अपने नजरिए से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है, लेकिन आज भी कोई सर्वमान्य मत स्थापित नहीं किया जा सका है जिससे सवाल वैसा का वैसा ही बना हुआ है। इसी के साथ एक सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या भक्ति आंदोलन का मुख्य उद्देश्य भक्ति भावना को रूपायित करना रहा है? भक्ति साहित्य के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है की भक्ति आंदोलन का उद्देश्य भक्ति भावना स्थापित करना नहीं अपितु भक्ति के माध्यम से एक आधुनिक, बंधुत्ववादी एवं मानवीय समानता पर आधारित समाज का निर्माण करना रहा है तथा समाज को वैमनस्यपूर्ण, धार्मिक कर्मकाण्डों व वितण्डावाद से निकाल कर समानतावादी समाज बनाना रहा है। जिसके प्रति विरोध एवं प्रतिरोध भक्ति साहित्य में प्रमुख रूप से प्राप्त होते हैं। जिससे सवाल पैदा होता है कि भक्ति आंदोलन की उत्पत्ति के पीछे यही सामाजिक प्रतिरोध तो नहीं? क्योंकि सामाजिक प्रतिरोधों ने कई आंदोलनों को जन्म दिया है। चाहे वह प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन हो या अन्य धार्मिक आंदोलन। जैसा कि कोई भी आंदोलन अचानक से पैदा नहीं हो जाता बल्कि उसके पीछे कई वर्षों का असंतोष एवं प्रतिरोध कार्य कर रहा होता है। जिसकी एक परंपरा हमें समाज से प्राप्त होती है। इसी तरह एक प्रतिरोध की परंपरा भक्ति आंदोलन के पीछे भी कार्य कर रही थी। जिसकी फलाभूति भक्ति आंदोलन है।

बीज शब्द : भक्ति, प्रतिरोध, विरोध, कर्मकांड, आंदोलन, आलवार, नयनार, शैव, परम्परा, समाज, संस्कृति, सिद्ध, बौद्ध, जैन संप्रदाय, नाथ संप्रदाय, मध्यकाल, उपनिषद, कठोपनिषद, सरहपा, तिरुमंगैयालवार, तंत्रयान, सहजयान, हठयोग।

मूल आलेख : मनुष्य समाज निर्माता है जिसने समाज को विकसित बनाने के लिए समयानुकूल परम्पराओं और रीतियों का निर्माण करता रहा है। मानव समाज की परम्परा और संस्कृति का वाहक भी रहा है। प्रत्येक समाज के इतिहास में एक दौर ऐसा आता है जब समाज को एक सजीव रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखना हो और अपनी प्रगति जारी रखना हो तो सामाजिक व्यवस्था में कुछ परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है,यदि वह प्रयत्न करने में असमर्थ रहे, यदि उसकी शक्ति समाप्त हो चुकी हो और उसका पुरुषार्थ निःशेष हो चुका हो तो इतिहास के पन्नों से ओझल हो जाएगा। भारतीय समाज विविधताओं का समाज रहा है जिसमें अनेक संप्रदाय, जातियों एवं वर्गों के लोग निवास करते हैं। जहां समाज में भिन्नताएं पायी जाती है, वहां गतिरोध का होना स्वाभाविक है। जब किसी समाज में गतिरोध पैदा होता है तो प्रतिरोध का जन्म होता है। समाज की गतिरोधकता को खत्म करने के उद्देश्य से समाज के लोगों के मध्य से प्रतिरोध का स्वर पैदा होता है और यही प्रतिरोध समाज के विकास में सहायक होता है। कभी-कभी ऐसे लोगों का प्रतिरोधी वर्ग भी बन जाता रहा है जो समाज में सामाजिक शक्ति एकत्र करके अपने महत्व को ज्ञापित करता रहा। किसी समाज में जो भी परिवर्तन होता है वह मतभेद के कारण प्रतिरोध और विपरीतता का विरोध होता है, अन्यथा कोई परिवर्तन नहीं होता। प्रतिरोध और मतभेद सर्वदा हिंसात्मक क्रिया के माध्यम से ही नहीं व्यक्त किया जाता बल्कि हिंसा के विपरीत भी व्यक्त किया जाता है।1रेमंड विलियमसन ने लिखा है ‘कि प्रत्येक समाज में बहुत सारी परंपरा के समांतर प्रतिरोध और विकल्प की चिंता, चेतना और स्मृतियाँ भी होती हैं जो दूसरी परंपराओं का निर्माण करते है’।2 भारत में प्रतिरोध की एक परंपरा देखने को मिलती है। जब-ज़ब भारतीय समाज में गतिरोधकता आयी है, तब-तब भारतीय समाज में प्रतिरोध की एक मुखर आवाज अस्तित्व में आती है। समाज में निरंतर नए अर्थ और मूल्य,नए व्यवहार, नए अनुभव कई सालों तक का निर्मित होते चलते हैं, जिनको अपने पक्ष में करने की कोशिश बहुत सारी परंपरा की ओर से होता है और प्रतिरोध की परंपरा की ओर से भी। जब हम वैदिक या ऋगवैदिक काल के साहित्य और समाज का अध्ययन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि आर्यों के पूर्ववर्ती निवासियों ने आक्रामक आर्य जाति को चुनौती दी थी तथा प्रतिरोध के लिए अपना स्वर मुखरित किया था। यह संघर्ष राजनीतिक प्रभुता स्थापना के अतिरिक्त जाति समूहों की विशिष्टता स्थापना के लिए भी था। समाज में आर्यों एवं अनार्यों के परस्पर विरोध से समाज में गतिरोधकता आ गई थी। परस्पर उत्पन्न प्रतिरोध के कारण ही तत्कालीन समाज में यज्ञ का आगमन हुआ तथा वर्ण व्यवस्था रूपी सामाजिक व्यवस्था को अंगीकार करने का प्रयास किया गया। आर्यों के वैदिक धर्म ने भी अपने से पुराने भारतवासियों के धर्म मतों के स्वरूपों एवं अनुष्ठानों को आत्मसात कर लिया और साथ ही द्रव्यों तथा भारत की अन्य आदिवासियों के सामाजिक जीवन की कई बातें अपने भीतर ग्रहण कर ली।4

            वैदिक कालीन समाज में समय परिवर्तन के साथ-साथ परम्पराओं और रीतिओं में आडम्बरों का समावेश होता रहा है तथा इन्हीं आडम्बरों, रूढ़िओं के प्रति विरोध हमें उपनिषदों में प्राप्त होता है। उपनिषद काल में वैदिक काल से चली आ रही परंपरा और समाज में अनेक आडंबरों एवं रूढ़िओं का स्वरूप नजर आता है।जो वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी, वह जन्म आधारित रूढ़ि को ग्रहण कर चुकी थी। यज्ञ ही भवसागर से पार होने का एकमात्र रास्ता निहित किया जा चुका था, जिसपर पुरोहित वर्ग का एकाधिकार हो गया था। साथ ही ब्राह्मण वर्ग के लोग स्वयं को सर्वोच्च स्थान पर स्थापित कर चुके थे। जिससे समाज में प्रतिरोध के स्वर का प्रश्न स्वाभाविक हो गया था जिसका स्पष्ट प्रभाव हमें उपनिषदों में देखने को मिलता है जहां एक ओर मोक्ष के लिए ज्ञान को कारक के रूप में प्रस्तुत किया गया, वहीं कठोपनिषद ग्रंथ में यज्ञ की निस्सारता को स्पष्ट किया गया। इतिहासकार जयशंकर का मत है कि उत्तर वैदिक काल में धर्म की दो धाराएं दिखाई पड़ती हैं एक का बल कर्म पर था दूसरी का ज्ञान पर। उत्तर वैदिक काल के धार्मिक जीवन की दूसरी धारा जिसका बल ज्ञान पर था उपनिषदों पर आधारित थी। उपनिषदों के विचारों ने यज्ञ आदि अनुष्ठानों को ऐसी कमजोर नौका बताया है जिसके द्वारा मनुष्य भवसागर पार नहीं कर सकता उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान मार्ग का प्रतिपादन किया। यज्ञ मोक्ष प्रदान नहीं करती है बल्कि ज्ञान के कारण मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

“प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म ।
एतच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति ॥ ७ ॥“5

            

            यज्ञ आदि कर्मकांड का विरोध उपनिषद आदि ग्रंथों में हमें प्राप्त होता है लेकिन वैदिक कर्मकांडों का स्वरूप पूर्णरूपेण समाज में बना रहा। उपनिषद आदि में यज्ञ आदि कर्मकांड के प्रति जो प्रतिरोध अभिव्यक्त है वह केवल उच्च वर्ग के लोगों, जिन्हें शिक्षा का अधिकार प्राप्त था, उन्ही तक सीमित रहा। उसका समाज के निचले पायदान के लोगों पर प्रभाव नहीं पड़ा और निचले पायदान की जातियों को शिक्षा एवं मोक्ष के अधिकार से वंचित रखा गया। जिससे समाज में प्रतिरोध होना स्वाभाविक था। इसी प्रतिरोध के परिणाम स्वरूप अनेक धर्मों का जन्म हुआ। इतिहासकार जयशंकर मिश्र कहते हैं कि “कठोर हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों कठिन कर्मकांड और जटिल यज्ञ क्रियाओं से सतत समाज ऊब चुका था तथा उसके सदस्य असंतुष्ट और विकल हो चुके थे। हिंदू समाज अब नियंत्रित उन्मुक्त और स्वतंत्र वातावरण की अपेक्षा करता था। हिंदू धर्म और समाज के विरुद्ध जैन और बौद्ध मतों की प्रतिक्रिया ही नहीं थी बल्कि तत्कालीन समाज की आवश्यकता थी।“6 धार्मिक उथल-पुथल के काल में कुछ ऐसे धर्म का जन्म हुआ जिन्होंने प्राचीन धर्म का रूप ही बदल दिया, इसमें चार प्रमुख है बौद्ध,जैन,वैष्णव और शैव। इनमें जैन और बौद्ध धर्म एक प्रकार से वैदिक धर्म के विरुद्ध थे।5 सर्वपल्ली राधाकृष्णन लिखा है कि ‘जब वर्ण व्यवस्था की मूल योजना में अत्यधिक रूढ़िवाद आ गया तब उसके विरोध में बौद्ध और जैन मतों के अनुयायियों ने प्रतिवाद की आवाज उठाई और उन्होंने मानवीयता के आदर्श पर जोर दिया,विशेष रूप से वे लोग इन मानवीय नए मतों में दीक्षित हो गए जिन्होंने अपनी शक्तियों को उच्चतम सीमा तक विकसित करने का अवसर प्राप्त नहीं था’।7 दीर्घनिकाय से ज्ञात होता है कि यज्ञ के लिए मनुष्यों को पशु की हत्या करनी पड़ती थी, घास के लिए घास के मैदान साफ कर दिए जाते थे,यूंपों के लिए जंगल काट डाले जाते थे,साधारण जनता के लोग प्रतिरोध में आंसू बहाते थे। श्रवण परम्परा के लोगों की यज्ञों की उपयोगिता में आस्था नहीं थी, ऐसी दशा में क्षत्रियों ने समाज का नेतृत्व किया और उनके प्रतिरोध के फलस्वरूप गौतम बुद्ध और महावीर ने नए धार्मिक आंदोलन को प्रारंभ किया।8

            बौद्ध एवं जैन धर्म के प्रभाव से पूर्णतया वैदिक धर्म समाप्त नहीं हो गया बल्कि उसका प्रभाव बना रहा तथा कुछ लोग जो वैदिक धर्म के आडंबरों और मिथ्याचारों से असंतुष्ट थे, वे नए संप्रदाय और धर्म को ग्रहण कर रहे थे। बौद्ध एवं जैन धर्म के समानांतर वैष्णव, शैव एवं आजीवक आदि संप्रदाय अपना प्रभाव लोकमानस पर स्थापित करने में लगे हुए थे। जैसा की इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि बौद्ध एवं जैन धर्म को राज्याश्रय एवं वैश्य वर्ग का सानिध्य प्राप्त हुआ, जिससे इसका प्रभाव समाज पर तेज गति से पड़ा और मानने वालों की संख्या में वृद्धि हुई। जैन धर्म को कई राजाओं बिंबिसार, चंड प्रद्योत,अजातशत्रु, उदययिन तथा चंद्रगुप्त मौर्य जैसे राजाओं का आश्रय प्राप्त हुआ। 322 ईस्वी पूर्व चंद्रगुप्त गुप्त मौर्य के काल में प्रथम जैन संगीत आयोजित की गई जिसमें जैन संघ भी श्वेतांबर एवं दिगंबर नामक दो संप्रदाय में विभक्त हो गया। अजातशत्रु के राज्यकाल में प्रथम बौद्ध संगीत का आयोजन किया गया तथा शिक्षाओं और अनुशासन के नियमों का ग्रंथ सुत्तपिटक और विनयपिटक लिखा गया। इसी के उपरांत बौद्ध धर्म में बुद्ध द्वारा परिवर्तित कठोर श्रवण आचारों के विरुद्ध एक प्रतिरोध उत्पन्न हुआ जिसका सूत्रपात वैशाली के भिक्षुओं द्वारा हुआ, जिन्होंने दस नियमों के स्थान पर दस ऐसे सिद्धांतों का प्रचार प्रारंभ किया जिसमें सोना चांदी आदि ग्रहण करने, रस आदि ग्रहण करने की स्वतंत्रता थी।9 जिस कारण लगभग 386 ईस्वी में वैशाली में द्वितीय संगीति हुई, जिसमें दस नियम गरहित माने गए। बौद्ध संप्रदाय में दो दल बने। एक थेरवादी और एक महासंघिक दल। इसी समय मौर्य सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकृत कर लिया जिसने बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार में अपनी महती भूमिका निभाई। अशोक की धर्म नीति के कारण ब्राह्मणों में एक प्रतिरोध का स्वर उभरने लगा और मौर्य वंश के पतन से निर्मित राज्यों के शासक ब्राह्मण हुए। जिन्होंने बौद्ध धर्म का निर्ममता से दमन किया। जिसके फलस्वरूप बौद्ध उत्तर भारत से भाग कर दक्षिण में आंध्र प्रदेश और मिलिंद के आश्रम में चले गये। जिससे पुनः वैदिक धर्म और ब्राह्मण वाद को राज्याश्रय प्राप्त हुआ। पुष्यमित्र शुंग एक ब्राह्मण सेनानी था, जो मौर्य सेना में सेनापति के पद पर था उसने 184 ईसवी पूर्व के लगभग मौर्य साम्राज्य के अंतिम सम्राट प्रज्ञादुर्बल बृहद्रथ को मारकर सत्ता हस्तगत कर ली। जिससे तत्कालीन समाज में नया परिवर्तन आया। यह श्रवण समर्थक हिंदू मत विरोधी क्षत्रियों के विरुद्ध ब्राह्मणों की एक प्रतिरोधी भावना थी।10 शुंगों के काल से समाज को और अधिक कठोर नियमों और व्यवस्थाओं से आबद्ध कर दिया गया तथा समाज की विभिन्न जातियों के लिए उन नियमों का अनुगमन अनिवार्य माना गया। इसके उपरांत लगभग 78 से 80 ई. के आसपास कुषाण शासक कनिष्क राजा बना जिसने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया तथा उसने पुनः अशोक की तरह ही बौद्ध मत का प्रचार-प्रसार किया। इस काल में बौद्ध मत से प्रभावित बुद्ध,बोधिसत्व,स्तूप और चैत्य जैसी कलाकृतियों का निर्माण किया गया जो वस्तुतः शुंग, कणव,सातवाहन जैसे ब्राह्मण राजाओं के विरुद्ध यह पूनर्प्रतिक्रांति थी तथा ब्राह्मण मत साहित्य और समाज के प्रति पुनः प्रतिरोध था।11 गुप्तकालीन समाज में ब्राह्मण मत और सिद्धांतों का पूर्ण प्रभाव पुनः स्थापित हुआ लेकिन समाज के लोग अन्य मतों को स्वच्छंद रूप से अपना कर अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे। 606 से 647 ई में हर्ष के शासनकाल में पुनः ब्राह्मण और बौद्ध मतों के अनुयायी प्रतिरोधी भावना से ग्रस्त हो गए तथा एक दूसरे पर प्रभावशाली होने का प्रयास करने लगे।

            वैदिक धर्म या ब्राह्मण धर्म अपना खोया हुआ स्थान ग्रहण करने लगा तथा बौद्ध एवं जैन धर्म का प्रभाव क्षीण होने लगा, जिसका प्रमुख कारण था बौद्ध एवं जैन धर्म के नियम अत्यंत कठोर हो गए थे जिससे लोगों में विद्रोह उठने लगा और प्रतिरोध स्वरूप बौद्ध एवं जैन संप्रदाय कई संप्रदायों में विभक्त हो गये। बौद्ध एवं जैन धर्म से लोगों का विकास बाधित होने लगा था तथा वैदिक धर्म अपने को परिमार्जित कर सामान्य जनता तक अपनी पैठ बनाने लगा था। लोक की ओर धर्मों के आकर्षण के प्रभाव से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म एवं अन्य धर्मों एवं सम्प्रदायों ने अपने प्रभाव को स्थापित करने के लिए तंत्रो एवं मंत्रो आदि को समाहित कर लिया। जिससे तांत्रिक सन्यासियों एवं चमत्कार प्रदर्शन की एक परंपरा सी चल पड़ी।जिसके प्रतिरोध में बौद्ध सिद्ध सन्यासियों की एक लम्बी परम्परा प्राप्त होती है।

            उत्तर भारत में सिद्धओं ने तंत्र एवं जादू के प्रतिरोध में सहज मार्ग की स्थापना की। डॉक्टर धर्मवीर भारती के अनुसार सिद्ध बाह्य तंत्र -मंत्रो का विरोध भी करते थे और अंनुतर पद पाने के उपरांत वे समस्त आचार बंधनों और कर्मकांड विधानो के निषेध का भी प्रतिपादन करते थे। परंपरागत पांडित्यपूर्ण ज्ञान की अपेक्षा वे जीवन की भावनात्मक अनुभूतियों को अधिक महत्व देते थे। इस प्रकार सिद्धओँ ने निसंदेह लोक धर्म की विशेषता बौद्ध परंपरा में की और एक नया जीवन दर्शन सम्मुख रख।12 सिद्ध मतावलम्बियों द्वारा अपनी रचनाओं में सामाजिक भेदभाव और पाखंडों के प्रति अपना प्रतिरोध व्यक्त किया। सिद्ध सरहपा ने ब्राह्मणों की पाखंड पूर्ण जीवन पद्धति की कठोर आलोचना करते हुए कहते हैं कि -

ब्रह्मणेहि म जाणन्त भेउ। एवइ पढ़िअउ एच्चउ वेउ ॥
मट्टी पाणी कुस लइ पढ़न्त ।घरहि वइसी अग्गि हुणन्त ॥13

 

            केवल ब्राह्मणों की ही नहीं बल्कि जैनियों के आचारों के प्रति प्रतिरोध व्यक्त किया है –

दी हणक्ख जई मलिणे वेसें ।
णग्गल होइ उपाडिइ केसें ।
जइ नग्गा विअ होइ मुत्ति।
ता सुणइ सिआलह।
लोम पारणें अत्थि सिद्धि ता जुवइ णिअम्वह।14


            सिद्धओँ के सहज मार्ग में कुछ आडंबर और असयमों का अतिरेक होने लगा जिसकी प्रतिक्रिया प्रतिरोध स्वरुप नाथ पंथ की स्थापना हुई। जिसने हठयोगी क सिद्धांत का प्रतिपादन किया। गोरखनाथ संप्रदाय के प्रमुख विचारक हुए जिन्होंने सामाजिक और वैयक्तिक बाह्यआचारों का स्पष्ट विरोध किया है -

धोवन, मोहन, वसीकरन छाड़ौ औचाट।
सुणौ हो जोगेसरो जागारम्भ की बाट ।
पूजा-पाठ जपौ जिनि आप। जोग माँहि बिटम्बौ आप।
पसुआ होइ जयै नहि जाप ।
सो पसुआ भोषि क्यों जात ।15


            दक्षिण भारत में बौद्ध एवं जैन धर्म का जो वर्चस्व स्थापित हो चुका था, उसे भी आलवारों एवं नयनारों के प्रतिरोध का सामना करना पड़, जिससे उनके प्रभाव पर पूर्णतया विराम लगता हुआ दिखाई देता है। जब बौद्ध एवं जैन धर्म ने अपनी धार्मिक मान्यताओं को कठोर कर दिया और बौद्ध धर्म में प्रतीकों एवं मूर्तियों पर विशेष बल दिया जाने लगा। जब इन धर्मों में भी आडंबरों, मिथ्याचारों एवं वामाचारों की प्रधानता हो गई तो इसके प्रतिरोध में भी आवाज़ उठनी प्रारंभ हो गई। “कळप्पिरर्” लोगों के कालोपरान्त पुरातन तमिल संस्कृति की चेतना जागृत होने लगी। विद्वान लोग पुराने तमिल ग्रंथों का अध्ययन करने लगे। पंडित एवं विद्वान लोगों के मन में भी जैन धर्म के सिद्धान्तों एवं कार्य-कलापों से घृणा पैदा हो गयी। क्योंकि जैन धर्म ने भौतिक सुखों को सम्पूर्ण रूप से वर्जित माना था, स्त्रियों को मोक्ष की बाधा बताकर उनकी बेइज्जती की थी। कठोर चाल-चलन के शुष्क विचारों पर अधिक जोर दिया गया था। जनसाधारण पर भी ये नियम कठोर रूप से लागू करने लगे थे। । परन्तु वैदिक धर्म, शैव एवं वैष्णव मत वैवाहिक जीवन के खिलाफ नहीं बोल रहे थे। वे शुष्क विचारों के मत भी न थे। विवाहित जीवन में इस लोक की खुशियाँ समेटते हुए परलोक (मोक्ष) की ओर अग्रसर होने के मार्गदर्शन करने लायक जनसाधारण को भी आकर्षित करने वाले संप्रदाय थे। इससे बौद्ध एवं जैन धर्मों का विरोध करने की भावना जनता के मन में पैदा हुई और उसने एक बहुत बड़े आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। जैन धर्म के खिलाफ लड़ने के लिए एक जन आंदोलन की जरूरत समझी जाने लगी इसकी कोशिश में पंडित एवं विद्वान लोग रहे परिणाम स्वरुप वैदिक संप्रदाय की पढ़ाई कर उसकी सुरक्षा करने के लिए भक्ति आंदोलन का जन्म हुआ यह आंदोलन तमिल तथा वैदिक संप्रदाय को पुनर्जीवित करने वाले सिद्धांतों से भरा था।16 जिसका समर्थन वैष्णव संप्रदाय एवं शैव संप्रदाय ने किया। जैन एवं बौद्ध धर्म को शैव एवं वैष्णव सम्प्रदाय के मतावलम्बियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा जिससे वह क्षीण हो गए। शैव संप्रदाय के संतो ने जैन संप्रदाय के लोगों को अपने संप्रदाय में दीक्षित करने लगे। ‘देवारप्पाटल’ जैसे ग्रन्थ में कहा गया है कि राजा नेडुमारन ने जैनों को मृत्युदंड दिया अथवा स्वयं जैनों ने तर्क में हार जाने के कारण मृत्यु को अपनाया था। आलवारों में तोण्डरडिप्पोडिख तिरुमंगैयालवार ने अपने पदों में अन्य धर्म का खंडन अत्यंत कठोर शब्दों में किया है -

“वेरुप्पेडु समणर मुण्डर विदिइल साक्कियरगळ् निपाल
पोरुप्परियनगळ् पेसिल.....तलैयायै आडनेगे
अरुप्पदे करुमम्र कण्डाय असंगमा नगरुळाने”17


            के दामोदरन ने लिखा है कि ‘दक्षिण भारत में छठी शताब्दी में या उसके आस-पास जो शैव और वैष्णव सम्प्रदाय आविर्भूत हुए, उनका मूल स्रोत चाहे जो भी रहा हो, यह एक अटल सत्य है कि उत्तर भारत के उन समानान्तर धर्मों से ये बिल्कुल भिन्न थे, जो वैदिकपूर्व, वैदिक तथा वैदिकोत्तर काल में प्रचलित थे। दक्षिण में वे सारतः धार्मिक आन्दोलन थे, जो बौद्ध और जैन धर्म के विरोध में आरम्भ हुए थे और वहां उन्होंने सामन्तवाद के युग का सूत्रपात किया।18

            वहीं दक्षिण भारत में पांचवी से नवी शताब्दी के अंतराल में वैष्णव एवं शैव संप्रदाय प्रमुख संप्रदाय के रूप में स्थापित हो चुके थे तथा दोनों ने सम्मिलित रूप से जैन तथा बौद्ध संप्रदाय के प्रभाव को क्षीण कर दिया था, लेकिन अलवार और शैव संत इतने लोकप्रिय और देव तुल्य हो गये तथा उनकी पूजा की जाने लगी। 600 से 660 ईस्वी में इन संपदाय में दीक्षित राजाओं ने सैकड़ो मंदिरों का निर्माण कराय। जिनमें पल्लव शासक महेंद्र वर्मन प्रमुख था। परमेश्वर वर्मन (670 से 685 ई)राज सिंह (650-705 ई) नंदिवर्मन (825-850) आदि पल्लव राजाओं ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। पल्लव राजाओं के उपरांत चोल राजाओं ने भी मंदिरों का निर्माण करवाया।19 स्वाभाविक सी बात है कि मंदिरों के निर्माण से भक्ति का स्वरूप निर्मित हुआ लेकिन उनमें आडंबरों एवं रूढ़ियों का समावेश होने लगा था। जिस संदर्भ में के दामोदरन ने लिखा है कि ‘मठों और मंदिरों की संख्या में वृद्धि हुई और इन्होंने दर्शन,धर्म और पूजा-पाठ को सम्मिश्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। सामंती राजाओं और सरदारों ने अपने दान-संरक्षण के द्वारा इन प्रयत्नों को प्रोत्साहित किया। अतीत को पुनर्जीवित करके पतनोन्मुख धर्म को नया जीवन प्रदान करने के व्यग्रतापूर्ण प्रयास किए गए। विवाह संस्कार तथा अन्य शुभ अवसरों पर वैदिक मंत्रो का पाठ फिर से जारी किया गया। यज्ञ की प्रथा भी जीवित की गई। इसके साथ ही,कितने ही लोगों ने तंत्र की शरण ली। तांत्रिक पंथों को पुनर्जीवित करने के नाम पर समाज के रूढ़िवादी तत्वों ने कितने भ्रष्ट आचारों को अपनाया।‘20

            तत्कालीन सामंती समाज तथा आडंबर एवं रूढ़िओं के प्रति जन समुदाय में प्रतिरोध होना स्वाभाविक था।जिस प्रतिरोध की शुरुआत रामानुजाचार्य ने की। रामानुज ने ब्राह्मणों के साथ निम्न जाति के शूद्रों को भी अपने श्री संप्रदाय में शिक्षा-दीक्षा के लिए सम्मिलित किया लेकिन रामानुज के बाद उनके अनुयायी दो वर्गों में विभाजित हो गए। एक तेनकलाई और दूसरा वदगाली। पहला वर्ग जिसका नेतृत्व पिल्लाली लोकाचार्य कर रहे थे, दक्षिण में ही सीमित रहा जबकि दूसरा वर्ग जो वैदिक चिंतन को महत्व दे रहा था। जिसका नेतृत्व वेदांत के अनुयायी कर रहे थे, उत्तर भारत में प्रत्यारोपित हुआ और यही प्रतिष्ठित हो गया। वैदिक चिंतन पर आधारित होने के कारण उत्तर भारत के रामानुजी वर्ग की उदारवादी प्रवृत्ति में कमी आ गई। जिसके कारण निम्न जाति के लोगों के लिए प्रवेश द्वार भी बंद हो गया।21 इसके साथ ही उत्तर भारतीय समाज में विकसित हो रही उदारवादी प्रवृत्तियां भी आवाज़ उठा रही थी। जिसे सम्राटों द्वारा दमित करने का प्रयास किया जा रहा था। हिंदू दरोगा नवाहू, अहमद बिहारी या लोधन ब्राह्मण की हत्या इसके उदाहरण है। शहाबुद्दीन इराकी ने लिखा है कि ‘नवाहू की हत्या भक्ति चिंतन के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया थी, जो फिरोजशाह के समय में जड़ पकड़ रही थी’।22 लेकिन इनका प्रतिरोध केवल सामाजिक कुरीतियों एवं सामन्ती व्यवस्था के प्रति था ना की पूर्णतः धार्मिक सुधार की ओर। उनके द्वारा कहीं भी मंदिरों, मठों और कर्मकांडीय आडंबरों के प्रति विरोध या प्रतिरोध परिलक्षित नहीं होता है। लेकिन जब रामानंद अपनी भक्ति मत के प्रचार के लिए उत्तर भारत आते हैं और तत्कालीन समाज कि शूद्र कही जाने वाली जातियों के कई अछूतों को अपना शिष्य स्वीकार करते हैं,जो उत्तर भारतीय रामानुजी संप्रदाय के प्रतिरोध स्वरूप था। इन अछूतों को मंदिर एवं मठों में पूजा आदि का अधिकार नहीं था, मुस्लिम संप्रदाय के लोगों द्वारा भी इन्हे निम्न समझा जाता था तो मंदिर, मस्जिद, मठों तथा कर्मकांडीय आडम्बरों के प्रतिरोध होना स्वाभाविक था। जिससे प्रतिरोध की एक लहर सी उमड़ पड़ी। इसके प्रमुख स्वर के रूप में कई संत उभर कर आए और अपने विचारों के माध्यम से प्रतिरोध अभिव्यक्त किया। यही प्रतिरोध एक जन आंदोलन का रूप लिया जिसे भक्ति आंदोलन के नाम से जाना गया। जिसका प्रमुख उद्देश्य भक्ति के माध्यम से धार्मिक सुधार लाना तथा मानवीय समता को स्थापित करना। समाज में व्याप्त समस्त धर्म और सम्प्रदायों के आडंबरों एवं रूढ़ियों का दमन करना रहा है। जिसके संदर्भ में कृष्णदत्त पालीवाल लिखते हैं कि ‘भक्ति आंदोलन प्रभुता संपन्न वर्गों-जातियों से न उठा था, वह उठा था पीड़ित जनता की कराह से। इसलिए भक्ति आंदोलन ने धर्म, संस्कृति, भाषा, साहित्य, दर्शन, समाज के ऊपर से पुरोहितवाद -मुल्लावाद, पंडित-मौलवीवाद आदि का अधिपत्य तोड़ा।‘23

निष्कर्ष : भारतीय समाज विविधताओं का समझ रहा है जिसमें समय-समय पर जड़ता देखी जा सकती है, जिसके विरोध में प्रतिरोध का स्वर मुखर होता रहा है। हमारे भारतीय समाज में प्रतिरोध की एक सामाजिक परंपरा रही है। जब समाज वितण्डावाद, धार्मिक आडम्बरों तथा रूढ़ियों से ग्रस्त हुआ है तब भारतीय समाज में प्रतिरोध के स्वर का अंकुर फूटा है। यही प्रतिरोध का स्वर जनप्रतिरोध का स्वरूप ग्रहण कर समाज में बदलाव का आगाज करता है। परिवर्तन की एक नई दिशा प्रस्तुत करता है। भक्ति आंदोलन के संदर्भ में देखा जाए तो  भारतीय समाज में मानवतावादी, समतामूलक प्रतिरोध की परम्परा है। जो समय-समय पर समाज को एक नई दिशा की ओर अग्रसर करती रही है। चाहे वह उत्तर वैदिक काल में कर्म के प्रतिरोध में ज्ञान की महता का स्थापन रहा हो या गौतम बुद्ध एवं महावीर के समय में यज्ञ आदि धार्मिक जड़ता की नकार तथा बंधुत्ववादी समता मूलक समाज की अवधारणा। यही बंधुत्ववादी समतामूलक समाज की धारणा बाद में सिद्धों एवं नाथों द्वारा उत्तर-पश्चिम भारत में तथा शैव एवं अलवारों द्वारा दक्षिण भारत में अपनी प्रतिरोधमूलक स्वर का विस्तार करती है। यही प्रतिरोध  13वीं 14वीं शताब्दी में उत्तर भारत में संतो द्वारा एक आंदोलन का स्वरूप ग्रहण करता है, जिसे भक्ति आंदोलन के नाम से जाना जाता है। जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज में जब धार्मिक वितण्डावाद का ज्वार बढ़ता है तो उसके बरक्स एक प्रतिरोध की धारा उमड़ पड़ती है। भक्ति आंदोलन भी मंदिरों, मस्जिदों, मठों, में व्याप्त धार्मिक आडम्बरों, समाज में व्याप्त छुआछूत, ऊंच-नीच का भेद तथा ब्राह्मणीय श्रेष्ठता के विरुद्ध पैदा हुए प्रतिरोध का सामाजिक प्रतिफलन है जिसकी एक भारतीय सामाजिक परंपरा रही है।


सन्दर्भ :

  1. रोमिला, थापर: डिसेंट इन अर्ली इंडियन ट्रेडीशन, (मेनस्ट्रीम), भाग-17, नम्बर-40, जून 2,1979, पृष्ठ 16
  2. मैनेजर, पाण्डेय: भारतीय समाज में प्रतिरोध की परंपरा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020, पृष्ठ 16
  3. रामशरण, शर्मा:  इंडियन सोसाइटी: हिस्टोरिकल प्रोविंस, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस,1993 पृष्ठ 98
  4. पी., जयरामन: भक्ति के आयाम, वाणी प्रकाशन, 2003,पृष्ठ 85
  5. कठोपनिषद, द्वितीय खंड, श्लोक संख्या 7
  6. जयशंकर, मिश्रा: प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, 2013,पृष्ठ 31
  7. सर्वपल्ली, राधाकृष्णन: इंडियन फिलासफी,खंड-1, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2008, पृष्ठ 510
  8. ओमप्रकाश: प्राचीन भारत का सामाजिक एवं राजनीतिक इतिहास, विश्व प्रकाशन, 2001, पृष्ठ17
  9. धर्मवीर, भारती: सिद्ध साहित्य, लोकभारती प्रकाशन, 2021, पृष्ठ 87
  10. जयशंकर, मिश्र: प्राचीन भारत का सामाजिक इतिहास, बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, 2013, पृष्ठ 35
  11. वही, पृष्ठ 37
  12. सुनील बाबूराव, कुलकर्णी: भारतीय भक्ति साहित्य में अभिव्यक्त सामाजिक समरसता, लोकभारती प्रकाशन,  2016,पृष्ठ 118
  13. राहुल, सांस्कृत्यायन: हिंदी काव्यधारा, किताब महल प्रकाशन,1945, पृष्ठ 4
  14. वहीं, पृष्ठ 4
  15. वही, पृष्ठ 163
  16. कल्याणमल, लोढ़ा: भक्ति तत्व (दर्शन,साहित्य,कला) भारतीय भाषा परिषद,1995, पृष्ठ- 355
  17. वही, पृष्ठ 357
  18. के, दामोदरन: भारतीय चिंतन परंपरा, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, 2018, पृष्ठ 246
  19. मलिक, मोहम्मद: वैष्णव भक्ति आंदोलन का अध्ययन, राजपाल एंड संस, 1971,पृष्ठ- 146
  20. के, दामोदरन, भारतीय चिंतन परंपरा, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, संस्करण 2018, पृष्ठ 314
  21. शहाबुद्दीन, इराकी: मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन, रचना प्रकाशन, 2012, पृष्ठ 76
  22. वही, पृष्ठ 76
  23. कृष्णदत्त, पालीवाल: संस्कृति से संवाद, (शास्त्र से ऊपर लोक, सस्ता साहित्य मंडल, 2021, पृष्ठ 13

 

विजय नाथ जायसवाल
शोधार्थी ,हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी,उत्तरप्रदेश,221005
सम्पर्क : vijaynathjay88@gmail.com 8305862853 
 
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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