शोध सार : हमारा स्वाधीनता आंदोलन केवल 200 वर्षों का नहीं है और न ही हम केवल अंग्रेजों से पराधीन रहे। हम 800-900 वर्ष गुलाम रहे हैं और इस दौरान हम तुर्क, अफगान, मुगल और अंग्रेजों सहित पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसियों की भी पराधीनता सही है। यह भी विचारणीय है कि जैसे ही पराधीनता का समय शुरू होता है, वैसे ही हिंदी साहित्य का प्रारंभ होता है। हिंदी के साहित्यकार ने उस पराधीनता के खिलाफ लिखा है। रासोकर हो या भक्तिकाल के कवि, सभी ने अपने काव्य के माध्यम से पराधीनता के खिलाफ आवाज उठाई है। भक्तिकाल को हम केवल ईश्वर की ओर जाने वाले मार्ग के रूप में ही देखा है जबकि कबीर हो या तुलसी, संत हो या भक्त, सभी के काव्य में स्वाधीनता की चेतना व्याप्त है। कबीर को ज्ञानमार्गी कहना या उनको केवल भक्त बताना, एक पक्षीय मूल्यांकन है। कबीर ने उस समय जो मंदिर टूट रहे थे, मूर्तियों का अपमान हो रहा था, उसकी पीड़ा को महसूस करते हुए ही मूर्ति पूजा और मंदिर जाने की मनाही की। समाज की एकता के लिए जातिवाद, ऊंचनीच की भावना के विरुद्ध आवाज उठाई। कह सकते हैं कि कबीर स्वाधीनता आंदोलन के सिपाही हैं और उन्होंने उस समय और समाज को देखते हुए स्वाधीनता क्रांति की चेतना जगाई तथा विदेशी सत्ता के विरुद्ध स्वर बुलंद किया था।
बीज शब्द : पराधीनता, रासोकार, सगुण, कबीर, पुर्तगाली, साहित्यकार, पृथ्वीराज, शंकराचार्य, आडंबर, मूर्ति,अवतार, ज्ञानमार्गी, कर्मकांड, पाखंड, सनातन धर्म, इतिहास, तुलसीदास, वाणी, जगदीश, आक्रमण, बुतशिकन, मस्जिद।
मूल आलेख : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम इतिहास हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है परन्तु हम अब तक इस इतिहास को संकुचित रूप में ही अपनी पीढ़ी को बताते आए हैं। हम मोटे रूप में यह मानते हैं कि हम अंग्रेजों के ही गुलाम रहे हैं और लगभग 200 वर्षों की गुलामी के बाद सन 1947 में स्वतंत्र हो गए हैं। परन्तु यह एक विभ्रम-सा ही है। इतिहास पर नजर डालते हैं तो पाते हैं कि पहले पहल हम तुर्कों द्वारा शासित हुए, फिर अफगान, मुगल फिर बीच में अफगान और मुगलों से होते हुए यूरोपीय जातियां आती गईं, पुर्तगाली, डच, फ्रेंच और अंग्रेज, सब ने भारत भू को पराधीन बनाने की कोशिश की। तो, उत्तर हम पाते हैं कि पराधीनता का काल लगभग 800-900 वर्षों का है। दूसरी बात हम केवल अंग्रेजों द्वारा ही नहीं पुर्तगाली, डच, फ्रांसिसी और तुर्क, अफगान मुगलों द्वारा भी पराधीन हुए।
यह संयोग ही है जब हम पराधीनता में जा रहे थे, ठीक उसी समय हिंदी साहित्य का उद्भव हो रहा था। हिंदी का साहित्यकार उस विदेशी सत्ता से संघर्ष का साक्षी स्वयं बन रहा था। हम कह सकते हैं कि हिंदी का साहित्य विदेशी सत्ता के बढ़ाव के साथ-साथ जवान हुआ है। प्रारंभ से ही विदेशी सत्ता के विरुद्ध अपना स्वर साहित्यकार ने उद्घोषित किया है।
रासोकार ने समस्त क्षत्रियों को एक हो जाने का आह्वान किया, जब पृथ्वीराज कैद कर लिया जाता है-
“प्रथिराज देव दूवन गहउ रे।
क्षत्रिय कर षग्ग गहु न ।।”1
अर्थात् हे क्षत्रियों ! देव पृथ्वीराज को दुर्जन ने पकड़ लिया है क्यों नहीं तलवार उठाते।
संतों ने निर्गुण भक्ति के प्रचार के उपरांत भी ‘राम' नाम के द्वारा समाज व राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ने का प्रयास किया। पराधीनता के कारण समाज में आई रुग्णताओं के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया -
“जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान।।”2
संत रैदास ने स्वतंत्रता के लिए व्यक्ति को सक्षम होने के लिए प्रेरित करने वाली वाणी कही है -
“पराधीनता पाप है जान लेहू रे मीत।
रविदास पराधीन सो कौन करे हैं प्रीत।।”3
इस समय जो संत-भक्त अपनी साहित्य रचना द्वारा जनता को जाग्रत कर रहे थे, वे स्वाधीनता की अलख जगा रहे थे। संतों के काव्य में केवल ज्ञान की बात नहीं है, भक्तों के काव्य में केवल भक्ति की बात नहीं है।
कबीर की बात करें तो उसे हम ज्ञानमार्गी कह देते हैं जबकि सच बात तो है कि वह भक्त हैं और उसे निर्गुण भक्तों के अंतर्गत रखा जाता है। कबीर का निर्गुण ईश्वर ‘राम’ है । संतों ने निर्गुण राम जपने का उपदेश दिया है। निर्गुणपंथियों को ज्ञानमार्गी माना जाता है सामान्यतः इनको भक्त नहीं कहा जाता, पर ये निर्गुण राम को मानते हैं-
“निर्गुण राम जपो रे भाई ।
अविगत की गति लखी न जाई ।।
चारि वेद औ सुंभ्रित पुरांना ।
नौ व्याकरनां मरम न जांनां।।”4
यह राम घट घट में समाया हुआ है, उसका मर्म कोई नहीं जानता। वह समस्त वेद और विभेद से विवर्जित है पाप और पुण्य से अतीत है, ज्ञान और ध्यान का अविषय है, स्थूल और सूक्ष्म से परे है।
संतों का यह ‘राम’ किन्तु शंकराचार्य के ‘ब्रह्म’ जैसा नहीं है। शंकराचार्य का ‘ब्रह्म’ निर्मम और निष्ठुर है जबकि संतों का राम परम ममतामयी, परम दयालु और परम प्रेम स्वरूप है। शंकराचार्य का ‘ब्रह्म’ तो ज्ञान का विषय है जबकि ‘निर्गुण’ ईश्वर भक्ति का। कबीर का निर्गुण प्रेम का भिखारी है, उसे शंकराचार्य के ब्रह्म के समकक्ष मानकर समीक्षा करना गलत है। शंकराचार्य का ब्रह्म जीव के दुःख दर्द को नहीं सुन सकता, क्योंकि उसके कान, आंख और बुद्धि नहीं है हृदय भी नहीं है। इसलिए वह भक्ति के लिए और भक्तों के लिए बेकार है। इसके विपरीत ‘निर्गुण’ भक्तों की पुकार पर द्रवित हो उठता है-
“चींटी के पग नेवर बाजे
तो भी साईं सुनता है।”5
संतों के विषय में एक बात और भी कही जाती है कि ये समाज सुधार को लेकर आगे बढ़ते हैं, जाति- पांति पर ये प्रहार करते हैं । सामान्यतः ये स्वयं ही निम्न समझे जानी वाली जातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। धार्मिक आडंबर को लेकर भी ये सजग रहते हैं। जप, माला, छापा, तिलक आदि पर संत प्रहार करते हैं और ऐसा कबीर के काव्य में आया है-
“तहां जाहु जह पाट पटंबर,
अगर चंदन घसि लीना।”6
कर्मकांड को भी कबीर पाखंड के अंतर्गत मानते हैं, क्योंकि परमात्मा की भक्ति का संबंध मन से है। कर्मकांड और पाखंडों के बारे में वे कहते हैं-
“जप तप पूजा अरचा जोतिग जग बौराना ।
कागद लिखि लिखि जगत भुलाना
मन ही मन न समाना।।”7
इसी प्रकार आडम्बरों और स्वांगों पर भी कबीर चोट करते हुए कहा -
“ठाकुर पूजहि मोल ले, मन हठ तीर्थ जाहि।
देखा देखी स्वांग धरि भूले भटका खाहि।।”8
इसी प्रकार कबीर अन्य जगह लिखते हैं -
“काया मंजन क्या करें कपड़े धोइम धोई।
उजल हूवा न छूटिए, सुख नींदडी न सोई।।”9
कबीर के बारे में सबसे अधिक समझी जाने वाली मान्यता यही है कि वे एक समाज सुधारक हैं और निर्गुण संत हैं। उन्होंने सामाजिक बुराइयों पर अपनी वाणी से प्रहार किया है। वे भक्त कवियों से बिल्कुल अलग हैं, भक्ति विरोधी हैं।
कबीर राम के अलावा राम-कृष्ण आदि के अवतारों ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं; नारद, ध्रुव, प्रह्लाद आदि भक्तों; गोरख, भरतरी, गोपीचंद आदिनाथ आदि सिद्धों के संबंध में भी अपनी श्रद्धा भाव प्रकट करते हैं-
“बैस्नौ की कूकरी भली साकत की बुरी माई।
वह बैठी हरिजस सुनै वह पाप बिसाइन जाई।”10
कह सकते हैं कि निर्गुण कहे जाने वाले संतों को सगुण ईश्वर के नामों से कोई परहेज नहीं है । हरि, विष्णु, राम, जगदीश, गंगा, स्वर्ग आदि शब्द उनके काव्य के अंतर्गत आते हैं। जैसे-
“गोकुल नायक बीठुला
मेरो मन लागो तोहि रे।”11
इसी प्रकार -
“कबीर सूता क्या करै
जागि न जपै मुरारि।”12
इसी प्रकार
“यहु तनु जालै मसि करौं
ज्यूं धूंआ जाइ सरग्गी।”13
इसी प्रकार-
“भेला पाया श्रम सो
भौसागर के मांह।”14
हम देख सकते हैं कि यहां कबीर ने सगुण से संबंधित शब्दावली भगवान विट्ठल, मुरारी, स्वर्ग भवसागर आदि का प्रयोग अपने काव्य में किया है। यहां यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है कि निर्गुण और सगुण का भेद बता कर साहित्य का अध्ययन किया जाता रहना और कबीर को किसी अलग धारा का प्रवर्तक बताकर उनके कार्यों का सही मूल्यांकन नहीं किया जाना, कबीर और हिन्दी साहित्य के साथ छल है।
कबीर स्वयं भक्त है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता और सगुण और निर्गुण के बीच कोई बहुत बड़ी रेखा भी यहां नहीं खींची जा सकती है। कबीर का उद्देश्य केवल मूर्ति पूजा और मंदिर जाने से ही रोकना का है, इसके पीछे मोटा-मोटा उद्देश्य यही है कि विदेशी आक्रांताओं द्वारा उस काल में मूर्तियों को तोड़ा जा रहा है। ऐसे में मूर्तियों- मंदिरों और धर्म पर होने वाले आक्रमणों से बचाने के लिए संतों का यह उपक्रम है। क्योंकि जब तुर्की शत्रु द्वारा पहले पहल आक्रमण होता है उस समय कबीरादि संत ही सामने आते हैं और वे अपने हिसाब से समाज को दिशा दिखाने का कार्य करते हैं।
निर्गुण संतों के सामने देश की पराधीनता की समस्या थी। इस समय तुर्कों ने देश को गुलाम बना लिया था। मारकाट और हिंसा का माहौल हो चला था। समय ऐसा चल रहा था कि मंदिर लूटे जा रहे थे, मूर्तियां तोड़ी जा रही थी और भारतीय सनातन धर्म के चिह्नों को नष्ट किया जा रहा था, जो व्यक्ति भारतीय धर्म चिह्नों को जितना अधिक धारण किए जा, प्रहार उस पर ही ज्यादा हो रहा था। शिवलिंग, मूर्ति तोड़कर मस्जिदों की सीढ़ियों में चुनवाए जा रहे थे। बाहर से आने वाले आततायी अपने आपको गाजी, मूर्ति भंजक, बुतशिकन की उपाधियों से विभूषित कर रहे थे।
ऐसे समय में जो क्रांतिचेता साहित्यकार होता है उसका दायित्व होता है कि वह समाज को इस घड़ी से बचाए तथा विधर्मी ताकतों से लड़ने के लिए समाज को जाग्रत करे। ऐसे में संतों के सामने तीन तरह के कार्य थे। एक था मंदिरों में होने वाले नुकसानों को कम करना, दूसरा- हिंदू चिह्नों-प्रतीकों पर होने वाले हमलों से समाज को बचाना और तीसरा समाज को एकजुट कर शक्ति संगठित करना।
इसके लिए संतों और जिसके मुखिया कबीर थे, उन्होंने पहला कार्य किया कि जनता को जाग्रत किया और कहा कि मंदिरों में मूर्ति पूजा के लिए जाना ही नहीं है। अपने घर में ही ईश्वर को याद करें और निर्गुण पर विश्वास रखें और उसका नाम जपे। “नाम जपना” कबीर के काव्य की मुख्य प्रवृत्ति है।
कबीर सगुण ईश्वर के विरोधी नहीं है इसलिए उन्होंने नाम जपने के लिए “राम का नाम” जपने को कहा, हरि का नाम जपने को कहा और राम के प्रति उनकी आस्था इतनी थी कि उन्होंने अपने आप को ‘राम का कुत्ता तक’ कह दिया।
“कबीर आपन राम कहि औरां राम कहाइ।
जेहि मुख राम न ऊचरे तिहि मुख राम कहाइ।।”15
कबीर ने नाम सिमरन को महत्व देते हुए इतना तक कह दिया कि ‘नाम ही भक्ति है’ और इसके अलावा जो कुछ है वह केवल दुःख ही दुःख है-
“भगति भजन हरि नाम है दूजा दुक्ख अपार।
मनसा बाचा कर्मणा कबीर सुमिरन सार।।”16
दूसरा कार्य जो लोग माला पहनते थे, छापा लगाते थे, तिलक लगाते थे, विधर्मी आक्रांता उन ज्यादा प्रहार करते थे, ज्यादा चोट करते थे। ऐसे लोग उनकी गाजी की उपाधियों में तथा ‘दार उल इस्लाम’ की राह में मारे जाते थे। ऐसे में कबीर आदि संतों ने धार्मिक चिह्नों को त्यागने लिए कहा-
“कबीर माला काठ की, और संसारी भेष।
माला पहर्या हरि मिलै तो अरहट कै गलि देष।”17
इसलिए कबीर ने तन योगी के बजाय मन को योगी करने पर जोर दिया और सभी बाह्य चिह्नों से दूर रहने के लिए आह्वान किया-
“तन कौन जोगी सब करें,
मन को बिरला कोई।”18
तीसरा समाज को संगठित करना था, इसके लिए जो समाज में जाति प्रथा थी, भेदभाव था, उससे समाज में एकता का अभाव हो चला था। समाज की एकता और मजबूती के लिए ऐसी बुराइयों को दूर करने का उन्होंने आह्वान किया।
“अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे।
एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले को मंदे।”19
उन्होंने जाति की, छोटे-बड़ेपन की भावनाओं को अस्वीकार करते हुए कहा कि जो लोग जाति के जिस छोटेपन पर हॅंसते हैं, वही छोटापन या लघुताई ईश्वर तक पहुंचने में सहायक होती है। इसलिए जाति का भेद व्यर्थ है-
“कबीर मेरी जाति की सब कोई हंसेनहारु।
बलिहारी इस जात कौ जिह जप्यो सिरजनहारु।”20
कह सकते हैं कि कबीर के काव्य में यही कुछ विशेषताएं हैं। ईश्वर का निर्गुण स्वरूप है, मूर्तिपूजा का विरोध है, जपमाला, छापा, तिलक आदि कर्मकांडों का विरोध है तथा समाज को एकता के सूत्र में बांधने के लिए जाति प्रथा, ऊंच-नीच भेदभाव आदि बुराइयों पर उनका प्रहार है।
इसके बाद धीरे-धीरे विदेशी मुस्लिम सत्ता स्थापित हो जाती है और कई सौ वर्षों के बाद जब सत्ता जम जाती है और यह कहा जाने लगता है कि “दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा।” अर्थात दिल्ली का नरेश ही जगत का नरेश हो गया है। जब मुगलिया सत्ता अपने पांव बहुत मजबूती से जमा चुकी। मंदिर-मूर्तियां तोड़ने फिर कम हो गए। राजपूतों से हिन्दुओं से रिश्ते बनाने शुरू हुए। जब इस सत्ता को हटाया जाना बिल्कुल असंभव-सा हो गया। यह समय संतों का न रहकर भक्तों का आ जाता है। सगुण भक्तों की कमान तुलसीदास जी के हाथ में आती है। अब मूर्ति पूजा, छापा तिलक जैसा विषय महत्त्वपूर्ण नहीं रह जाता। इस कारण अब उनके काव्य में दूसरी बात पराधीनता से ‘बचाव’ के स्थान पर ‘संघर्ष’ प्रमुख हो जाती है। अतः वे जो प्रबंध लिखते हैं, उसमें लंका की आसुरी शक्ति के व्याज से बड़ी मुगलिया सत्ता से जूझने का आमजन को संदेश देते हैं।
तुलसीदास ने विदेशी सत्ता द्वारा अपनी भूमि को अनाधिकृत काबिज हो जाने पर समस्त जन को आक्रांताओं और सत्ता के विरुद्ध खड़े करने के लिए रामचरितमानस की रचना की। एक रूपक के द्वारा अपनी धरती (सीता) को बड़ी व अधर्मी सत्ता (रावण) द्वारा अधीन कर लिए जाने पर गिरिजन, वनजन द्वारा एकसूत्र में बंधकर अपनी अस्मिता को पुनः प्राप्त करने का संदेश दिया। तुलसीदास ने पराधीनता के समय का चित्रण अपने काव्य में भी किया-
“वेद धर्म दूरि गए, भूमि चोर भूप भये।
साधु सीद्यमान , जान रीति पाप पीन की।।”21
इसी प्रकार अन्य भक्तों ने भी देश प्रेम जन्मभू और स्वाधीनता के प्रति अपने उद्गार के स्वर प्रस्फुटित किए। सूरदास जन्मभूमि के प्रति अपने भाव इन स्वरों में व्यक्त करते हैं-
“हमारी जन्मभूमि यह गाऊं।
सुनहु सखा सुग्रीव विभीषण,
अवनि अयोध्या नाऊं।।”22
स्पष्ट है कि संत हो या भक्त सभी स्वाधीनता के संघर्ष से जुड़े हैं, परंतु हम केवल कबीरादि को कवि कह देते हैं, समाज सुधारक कह देते हैं या उनको निर्गुण संत आदि कह कर इतिश्री कर लेते हैं । बात यह है कि कबीर स्वाधीनता के एक सिपाही हैं और जब विदेशी सत्ता यहां काबिज होती है और उस समय गुलामी के बाद हिंसा का नंगा नाच होता है । उसको रोकने के लिए तथा भारतीय जनता को जगाने के उद्देश्य से कबीर ने अपना काव्य लिखा।
निष्कर्ष : समाज की जरूरत के हिसाब से साहित्य लिखा जाता है, जनजागृति पैदा की जाती है, यही साहित्यकार से अपेक्षा की जाती है। कबीर साहब अपने साहित्य के द्वारा तत्कालीन समाज से जो कहना चाहते हैं, उनके मूल में यही जन जागरण की बात है। अतः कबीर को स्वाधीनता का 'क्रांतिचेता कवि' और उनके साहित्य को 'स्वाधीनता का साहित्य' मानना चाहिए।
कबीर आदि संतों और उसके बाद तुलसी आदि भक्तों की तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए, उनके कृतित्व को समझते हुए उनके सही पक्षों को सामने रखना चाहिए। वास्तव में ये सभी स्वाधीनता आंदोलन के प्रहरी हैं, साहित्यकार हैं। इसी समय जब देश विदेशी आक्रांताओं से पराभूत हो रहा था, इन साहित्यकारों ने अपनी लेखनी के द्वारा आम जनता को जगाने का सार्थक प्रयत्न किया। हम सामान्यतः हम कबीर को केवल निर्गुणमार्गी या ज्ञानमार्गी कहकर उसके एक पक्षीय रूप पर ही विचार करते हैं या पूरे संत साहित्य को भक्ति के अंतर्गत लेकर उसके स्वरूप, उसके स्वाधीनता पक्ष के स्वरूप को अनदेखा करते हैं। वास्तव में कबीर स्वाधीनता संघर्ष के सैनिक है और उन्होंने तत्कालीन समाज की स्थितियों को देखकर, समय समाज के हिसाब से साहित्य रचना कर समाज जागरण का कार्य किया। भक्तिकाल केवल ईश्वर की ओर जाने का मार्ग नहीं दिखाता बल्कि पराधीनता से मुक्ति की ओर बढ़ने का मार्ग भी प्रशस्त करता है और इसमें कबीर का स्वरूप भी क्रांतिचेता का उभर कर आता है।
संदर्भ :
- पृथ्वीराज रासो- चंद बरदाई, सं. कविराज मोहन सिंह, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2013, पृष्ठ-61
- कबीर ग्रंथावली - श्यामसुंदर दास, तक्षशिला प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019, पृष्ठ-43
- श्री गुरु रविदास एवं मीरा पदावली- डेराश्री 108 संत सखन दास जी प्रकाशन, पृष्ठ-64
- कबीर ग्रंथावली-पारसनाथ तिवारी, राका प्रकाशन, इलाहाबाद,1978,पद-153
- कबीर ग्रंथावली- श्यामसुंदर दास, तक्षशिला प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019, पृष्ठ-51
- वही, पृष्ठ-98
- वही, पृष्ठ-81
- कबीर ग्रंथावली-श्यामसुंदर दास, लोक भारती प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2011, पृष्ठ-241
- कबीर ग्रंथावली-श्यामसुंदर दास, तक्षशिला प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2019,पृष्ठ 52
- कबीर ग्रंथावली-पारसनाथ तिवारी, राका प्रकाशन,इलाहाबाद,1978,पृष्ठ-212, साखी क्रमांक 10
- कबीर ग्रंथावली-श्यामसुंदर दास, लोक भारती प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2011, पृष्ठ-39
- वही, पृष्ठ-52
- वही, पृष्ठ-54
- वही, पृष्ठ -56
- वही, पृष्ठ-53
- वही, पृष्ठ-52
- वही, पृष्ठ-83
- वही, पृष्ठ-84
- वही, पृष्ठ-252
- वही, पृष्ठ-244
- कवितावली-तुलसीदास,सं.सुधाकर पांडेय, लोक भारती प्रकाशन,नयी दिल्ली, 2009, पृष्ठ-129
- सूरसागर- डॉ. देवेन्द्र कुमार एवं सुरेश अग्रवाल, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010,पृष्ठ 469
अच्छा विवेचन।
जवाब देंहटाएंआदरणीय डॉ गोपीराम शर्मा जी का आलेख पढ़ा, संत कबीर जी के शब्द साहित्यिक अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, संत कबीर जी की वाणी कालजयी वाणी है जो युगों युगों तक मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाती रहेगी। उत्तम लेखन और सुंदर रचनांकन की प्रस्तुति के लिए डॉ शर्मा जी को अभिनंदन।
जवाब देंहटाएंउम्दा
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें