शोध आलेख : भक्ति आंदोलन के वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष के आलोक में समकालीन धार्मिक खतरों की पड़ताल / डॉ.शशिकला जायसवाल

भक्ति आंदोलन के वैचारिक- सांस्कृतिक संघर्ष के आलोक में समकालीन धार्मिक खतरों की पड़ताल

- डॉ.शशिकला जायसवाल


शोध सार : भक्ति आंदोलन एवं भक्ति साहित्य का अध्यन करते समय मन -मस्तिष्क में तमाम सवाल उभरते हैं। भक्ति विषयक विपुल साहित्य-संपदा के कारण हिंदी साहित्य के 'स्वर्ण युग' के रूप में विख्यात यह युग, आंदोलन युग के रूप में जाना जाता है। हिंदी साहित्य इतिहास के किसी युग को 'आंदोलन'की संज्ञा नहीं दी गई। इसका कारण उस युग की वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष-यात्रा ही हो सकती है। भक्ति काल पर हुए तमाम अध्ययन और प्रतिष्ठित आलोचकों की आलोचना दृष्टि भक्ति आंदोलन की ठीक से पड़ताल करती है। समसामयिक संदर्भ में हम जब भी भक्ति काल की बात करते है, तत्कालीन युग और धर्म को रेखांकित करते हुए वर्तमान संदर्भों से उसे जोड़ते हैं, तो अक्सर हम इस तथ्य को विस्मृत कर जाते हैं कि वह समय राजशाही तन्त्र था और वर्तमान युग लोकतंत्र का। इसके बावजूद भक्त कवियों ने जिस साहस, दृढ़ता और नैतिक बल के साथ धार्मिक  वितंडावाद, व्याप्त कुरीतियों, रूढ़ियों, वाह्याडंबरों, स्थापित जातिगत ढांचे,  छुआछूत जैसे तमाम ज्वलंत मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद की, क्या समसामयिक परिवेश में दूर-दूर तक हम ऐसा कुछ भी देख पाते हैं। इस शोध पत्र में भक्ति आंदोलन के वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष के आइने में समकालीन  राजनीतिक घुसपैठ, बाजारवाद, पूंजीवादी संस्कृति आदि के, धर्म में बढ़ते हस्तक्षेप को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द : भक्ति आंदोलन, वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष, समकालीन, धर्म, खतरे, पड़ताल।

मूल आलेख : जय श्री रामअल्लाह हो अकबरये दो नारे समकालीन भारतीय धर्म साधना का मूल वाक्य बन चुके हैं। क्या वास्तव में धर्म नारों से अभिव्यक्त होता है? धारयती इति धर्म: अर्थात जिसे धारण किया जाए वह धर्म है' इस चिंतनधारा के एकदम विपरीत शोर शराबे, हुल्लड ,धार्मिक दिखावे की संस्कृति समकालीन समाज का कड़वा सच है। एक ऐसा सच जो हमारे समक्ष धर्म की एक भयावह रूपरेखा प्रस्तुत करता है। आज हमारे सामने कल्पनाओं में नहीं वरन साक्षात वह दृश्य मौजूद है जहां तथा कथित धार्मिकमना, श्रद्धालु लोगों की भीड़, पवित्र रंग (भगवा, हरा आदि) की पोशाक के धारण किए, हाथ में धार्मिक झंडा और हथियारों से लैस, हुजूम में सड़कों पर निकलते हैं, ध्वनि विस्तारक यंत्रों से सजा उनका काफिला जिस तरफ से गुजरता है, धरती और आसमान  तथाकथित पवित्र नारों से थर्रा उठता है। यह धार्मिक उग्रवाद कहां से सीखा गया? धर्म में यह कटुता कब और कैसे प्रवेश कर गई?सर्वधर्म समभाव की भावना कहां विलुप्त हो गई? कम से कम प्राचीन भारतीय धर्म साधना का इतिहास ऐसी गवाहियों का साक्षी तो नहीं रहा कभी? धर्म में यह गिरावट,यहां 'गिरावट' शब्द केवल एक शब्द नहीं वरन धर्म में व्याप्त उसे 'आतंक 'का द्योतक है जो समकालीन समाज में विष की तरह फैल गया है।

       धार्मिक अपसंस्कृति का फैलाव जिस गति से समाज में हो रहा है, धार्मिक उग्रता से सराबोर  भारतीय धर्म साधना जिस मोड़ पर आज खड़ी है, वहां निश्चय ही यह विचार करना आवश्यक हो जाता है की क्या यही धर्म का वास्तविक स्वरूप है, जिसकी व्याख्या प्राचीन धर्मशास्त्रों और मध्यकालीन भक्त कवियों के द्वारा की गई थी।

      निस्संदेह आधुनिक युग धार्मिकता का युग नहीं वरन विज्ञान और वैज्ञानिक उन्नति का युग है। व्यक्ति की प्रज्ञा, वस्तु-स्थिति को तर्क की कसौटी पर परखती है, बार-बार उसका विश्लेषण करती है, तब तब कहीं जाकर स्वीकार की ओर कदम बढ़ाती है। किंतु धर्म की बात आते ही तमाम वैज्ञानिक सोच कहीं खो सी जाती है, आज भी समाज में हिंदुओं और मुसलमान के बीच धार्मिक टकराव की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। धर्म को सांप्रदायिक रंग देकर, समाज में दहशतगर्दीअलगाववाद,आतंकवाद जैसी विकृतियों का पोषण करना, धर्म के स्वरूप को विकृत करने की सोची- समझी साज़िश है।

        संत कबीर ने समस्त अवरोधों के बीच खड़े होकर घोषणा की थी कि मैं तो हिंदू हूं , मुसलमान- 'ना मैं हिंदू ना मैं मुसलमां' हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि धार्मिक तटस्थता की यह उक्ति हिंदी के मध्य युग के सबसे बड़े धर्मचेता कबीर के मुंह से निकली हुई है।"1 मंदिर-मस्जिद के झगड़ों में उलझा कर, समाज और राजनीति प्रदूषित विचारधारा की वाहक बनती जा रही है। हमें शताब्दियों पहले से आती हुई संतों की इन बानियों को ध्यान से सुनने की आवश्यकता है, कान बंद करने से धार्मिक वितांडवाद को प्रश्रय ही मिलेगा।

    मध्ययुगीन राजनीतिक परिस्थितियां वर्तमान समय से नितांत भिन्न थीं। भारत पर मुस्लिम शासकों का आधिपत्य,मनमाना आक्रमण की प्रवृत्ति,सत्ता हस्तगत करने के लिए बर्बरतापूर्ण कृत्य,जनता पर करो का बोझ, जैसी तमाम समस्याएं तद्युगीन जीवन परिस्थितियों में उपस्थिति थीं। भारतीय जनमानस अपनी ही भूमि पर बेदखली का जीवन जीने के लिए बाध्य था। राजनीतिक अराजकता के साथ-साथ धार्मिक अराजकता भी चरम पर थी। वर्तमान धार्मिक परिस्थितियां कुछ परिवर्तित रूपों में आज भी सदियों से चली रही सांप्रदायिक मतभेद, खून खराबे , दंगों के रूप में कायम है। छुआछूत,जातिगत वैमनस्य, जातीय श्रेष्ठता बोध, जैसी विकृतियों समाज में गहरी जड़े जमाए हुए हैं।

       संत साहित्य की काव्यभूमि हमें समतामूलक सामाजिक व्यवस्था की ओर ले जाती है। रविदास बेगमपुर नगर की संकल्पना करते हैं। दुखों से मुक्त एक ऐसा यूटोपियन शहर जो मानव को समान धरातल पर देखने का हामी हो। बेगमपुरा को कल्पना लोक  नहीं वरन् पराधीनता की बेड़ियों को खोलने की चाबी के रूप में देखा जाना चाहिए। संत रविदास के मन चेतना में उसकी स्पष्ट छवि विद्यमान है-

 

"बेगमपुरा सहर को नाऊ

दुखद अंदोहु नहिं तइहइं खाऊं।

ता तस्वीर खिराज मालू।

खउफ खता तरसु जवालु।।"2

 

संत रविदास का कल्पनालोक तुलसी के 'रामराज्य' की तरह यूटोपियन होकर भी उससे भिन्न है। किन्तु 'रामराज्य' और 'बेगमपुरा' दोनों एक भिन्न आदर्श पर स्थापित लोक होते हुए भी एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना पर बल देते हैं-

 

"अब मोहिं खूब वतन गह पाई।

ऊहां खैरि सदा मेरे भाई।

काइमु दाइमु सदा पातिसाहि।

दोम सेम एक सो आही।।"3

 

तुलसी बाबा  लिखते हैं-

 

"दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहिं व्यापा

           ×   ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×

नहिं दरिद्र कोउ दुःख दीना। नहिं कोऊ अबुध लछन हीना।।

           ×   ×  ×  ×  ×  ×  ×  ×

बरसत हरषत सब लखैं करषत लखै कोय।

तुलसी प्रजा सुभाग से भूप भानु सो होय।।"4

 

"रविदास के बेगमपुर की तुलना सर टामस  मोर (1478-1535) की महत्वपूर्ण कृति 'यूटोपिया' से की जा सकती है जो साम्यवादी काल्पनिक चिंतन पर आधारित है। यह कृति प्लेटो की परंपरा का नवीनीकरण करते हुए स्वयं 16वीं सदी के पश्चात साम्यवादी कल्पना लोक के सृजन में प्रेरणा स्रोत बन गई। यूटोपिया एक काल्पनिक द्वीप है, जिसका वर्णन एक पुर्तगाली यात्री रैफर हिथलोडे प्रमुख पात्र के रूप में करता है। वह इंग्लैंड और पश्चिमी यूरोप में प्रचलित सामंती समाज के व्यवस्थागत देशों की आलोचना करता है और यूटोपिया द्वीप की आदर्श साम्यवादी प्रणाली की प्रशंसा करता है।"5

      इसी बेगमपुरा के बारे में शंभूनाथ लिखतें हैं-"जाति धर्म क्षेत्र अमीर गरीब के भेद से ऊपर उठकर एक आत्मीय 'कॉमन प्लेस' बन रहा था।भक्ति आंदोलन, 'कॉमन प्लेसके निर्माण के साथ वैयक्तिकता को भी महत्व दे रहा था और मानसिक स्वतंत्रता के लिए स्पेस तैयार कर रहा था।"6

लेकिन इस प्रकार के स्वप्न लोक या आदर्श राज्य की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा सत्ता और शक्ति है जिसे पहचान कर किनारा करना दुष्कर कार्य है। सत्य तो यह है कि युग चाहे कोई भी हो सत्ता और शक्ति कभी भी इस प्रकार के आदर्शवादी राज्य की स्थापना में रुचि नहीं ले सकते।

       साम्राज्यवादी शक्तियां दूसरे राष्ट्र-समाज के संसाधनों का उपभोग/ दोहन करने के लिए अपना वर्चस्व स्थापित करती है। इसी प्रकार एक देश-समाज में वर्चस्वशाली वर्ग देश के संसाधनों पर कब्जा कर,अन्य वर्गों के अधिकारों का हनन करता है और उसे वर्चस्वी वर्ग के ऊपर आश्रित रहने को बाध्य करता है। वर्तमान सामाजिक- राजनीतिक परिदृश्य भी कुछ इसी प्रकार का है। आजाद देश में रहते हुए भी कमजोर, दलित-वंचित, हाशिए का समाज कुछ वर्चस्ववादी/ कॉरपोरेटर तथाकथित समाजसेवी सत्ता, के चंगुल में फंसा कराह रहा है। दूसरों पर आश्रित वर्ग की स्थिति को रैदास ने 'पराधीनता' की श्रेणी में रखा है और पराधीनता पाप है

 

  पराधीनता पाप है जान लेहुं रे मीत,

रविदास दास प्राधीन सो करै है प्रीत

पराधीन को दिन क्या,पराधीन बेदीनसही समझै हीन।।"7

   

        मध्ययुगीन सामाजिक व्यवस्था में पिसता हुआ श्रमिक/ निम्न वर्ग, पूंजीवादी व्यवस्था के आगमन के कारण पुनः शोषण एवं वर्गवादी व्यवस्था के चंगुल में पहुंचा है। "आज बाहर आधुनिकता है और भीतर कूपमंडूकता। यही वजह है कि बाजार एक है,पर देश भीतर से विभाजित है। हर तरफ धर्म का शोर है, पर धर्म कहीं नहीं है। उत्तर धार्मिक समय में कीकड़  के काठ को चंदन बताया जा रहा है और मधु में  फूलों का अलग-अलग रंग खोजे जा रहे हैं।"8

        समकालीन सामाजिक धार्मिक परिवेश में, पूंजीवादी व्यवस्था और राजनीतिक वर्चस्व को कायम रखने की मंशा से सत्ता का पूंजी से गठजोड़, इस धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिक हिंसा के मूल कारण के रूप में देखा जा सकता है। पूंजी/ कॉरपोरेट जगत मलाई काटने तथा फोर्ब्स सूची में अपना ग्राफ बढ़ाने की होड़ में लगा रहेगा, सत्ता आर्थिक गैर बराबरी, अशिक्षा, बेरोजगारी की चक्की में पिसती हुई जनता को धर्म और सांप्रदायिकता की अफीम चटाकार उसकी चेतना को सुप्त करती रहेगी।जब तक यह गठजोड़ आम जनता की समझ में नहीं आता, खेल जारी रहेगा।

        जहां 19वीं सदी धार्मिक सुधार आंदोलनों तथा तर्क प्रधान युग के रूप में जाना जाता है, 20वीं सदी विज्ञान के आविष्कार के लिए महत्वपूर्ण है, वहीं 21वीं सदी विज्ञान अंधविश्वास और पूंजीवाद की जुगलबंदी के रूप में हमारे सामने है। मनुष्य का उपभोक्ता में तब्दील होना बाजारवाद की एक अभूतपूर्व उपलब्धि है। जहां सब कुछ बिकाऊ हो, धर्म कैसे बचा रह सकता है? "धर्म के बाजार में ध्यानकेंद्र, प्रवचन, टीवी सीरियल, फिल्मी धुन के भजन, एल्बम, तंत्र ज्योतिष, तीर्थ पर्यटन ,डिजाइनर पूजा, योग, आयुर्वेद आदि कई सामान है।जो भागवत कभी भक्तों के लिए उच्च सौंदर्य बोध और मूल्यबोध की प्रेरणा थी, वह पाप धोने की वाशिंग मशीन बना दिया गया हैधर्म कहीं 'मास रिलिजन' है तो कहीं महज 'उत्सवधर्मिता'"9  कबीर जो घर जा जारौ आपना कहकर खुद का घर जला कर साधना के पथ पर जाने की बात कहते हैं, समकालीन समय भौतिकतावाद की कई तहों के भीतर बंद कर चुका है। मनुष्य जिस तरह स्वयं भौतिकता की चकाचौंध में डूबा है, उस तरह का भगवान चाहता है। बहुमूल्य धातुओं से जड़ित, संगमरमर के बने विशालकाय भवनों/ मंदिरों में अन्यान्य सुखोपभोग जुटाकर ईश्वर को पूज रहा है। आधुनिक मानव ने ईश्वर को अपने जैसा बना लिया है। इतना सब होने पर भी हमें अपने धार्मिकमना होने पर गर्व है। 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं', हम फलां हैं, हम ढीमका हैं। "इधर धार्मिक निरबुद्धिपरकता घृणा और अंतर्शत्रुता बड़े पैमाने पर बड़ी है धर्म के हजारों साल के इतिहास में धर्म को लेकर इतनी निष्ठुर एकरेखीयता नहीं थी। इतना व्यापक राजनीतिक सैन्यीकरण नहीं था और धर्म इस तरह महज प्रोपेगेंडा नहीं था। कभी धर्म का अर्थ इतना प्रदूषित था और और सहिष्णुता का इतना हिंसक रूप सामने नहीं आया था।"10

           समकालीन भारत की सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियां बहुतेरे स्तरों पर भक्तिकालीन सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों से बिल्कुल विपरीत हैं/भिन्न है। राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र (जहां तंत्र अधिक है लोक गायब), सामंतशाही व्यवस्था की जगह पूंजीवादी व्यवस्था, मीडिया फिल्म जैसे जनसंचार माध्यमों का सशक्त एवं प्रभावी प्रसार, (प्रसंस्कृत मीडिया एवं फिल्मों के द्वारा जनमानस का परिष्कार / शुद्धिकरण) जन्म के आधार पर वर्ग विभाजन के स्थान पर भौतिक समृद्धि के आधार पर वर्गों का विभाजन, ग्लोबलाइजेशन, बाजार द्वारा निर्धारित धार्मिक अनुष्ठान,और उसका प्रचार-प्रसार आदि आदि। इन सबके बीच भक्तिकालीन संतों और उनकी वाणियों के प्रासंगिक होने की बात को स्थापित करना एक कठिन कार्य है। सामाजिक धार्मिक विकृतियां अपने और अधिक भद्दे तथा खलनायकी वृत्ति में बढ़ोतरी के साथ हमारे बीच उपस्थित हैं। शत्रु की पहचान होने पर उससे लड़ना आसान है किंतु छिपे हुए शत्रुओं के गुप्त वार से कैसे बचा जाए? संत कवियों के सामने वेदों पुराणों की मनमाना व्याख्या करने वालों, तथा जन्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था एवं छुआछूत को महिमा मंडित करने वालों तथा धर्म एवं सत्ता के गठजोड़ अपनी भरपूर शक्ति के साथ उपस्थित था फिर भी  उन्होंने साहस किया,उन्हें चुनौती दी। ललकार कर कहापाथर पूजन, मुल्ला बाग, साहब बहरा है, बकरी पाती खात.. नर काढ़ी खाल, तुर्का तुर्की, बाभन-बभनी, जप माला छाप तिलक, मुसलमान के पीर औलिया , वैश्या के पायन तर सोवै..हिंदूआइ, चमरठा गांठ जनई, मूड़ मुड़ाए हरि मिलेके साथ-साथ 'मैं काशी का जुलाहा, ऐसी मेरी जाति बिखियात चमार', कहकर इन संतों ने यह जताया, कि तुम्हारे सामने मैं किसी गिनती में नहीं आता किंतु मेरे अस्तित्व को तुम नकार नहीं सकते।

        डा.रामविलास शर्मा के अनुसार-हमारे सामने कबीर एक निर्भीक और उद्दंड आलोचक के रूप में आते हैं।''11 आधुनिक युग में  संत कबीर की व्याख्या करते हुए एक आलोचक उन्हें 'निर्भीक' होने के साथ ही 'उद्दंड' कहते हैं, तो हम केवल कल्पना कर सकते हैं कि मध्ययुगीन समय में कबीर के लिए यह 'उद्दंडता' कितनी भारी रही होगी।

        आज भी बहुलतावादी धार्मिक कट्टरता को उकसाकर, हाशिए के समाज को रोजी- रोटी से विमुख कर, तथाकथित धर्म ध्वजा के वाहक उसके उग्रवादी स्वरूप को 'लाइमलाइट' में रखने के पक्षपाती क्यों है? क्या इसलिए की सत्ता का चेहरा एक ही होता है उसे जाति भेद, वर्ग भेद, जनता के आपसी  वैमनस्य से कोई लेना-देना नहीं है। उसका चेहरा उतना ही विकृत और क्रूर है जितना कि मध्यकालीन शासन-सत्ता का था। फिर भी एक प्रश्न यह भी बनता है कि लोकतंत्र क्या ऐसे फासीवादी मनोवृति की इजाजत देता है? अगर वर्चस्ववादी प्रवृत्तियां सत्ता पर काबिज होने के लिए धर्म का अपने हितों के लिए इस्तेमाल करती हैं, तो 'लोकतंत्र' कैसे बचा रह सकता है? ये कुछ जिंदा सवाल है जो बार-बार किसी जिन्न की तरह हमारे सामने उपस्थित होते हैं। इन प्रश्नों के हल हमें ही ढूंढने हैं।

           21वीं सदी में भक्ति आंदोलन को एक वृहतर भारतीय परिपेक्ष में देखने की जरूरत है। क्योंकि इधर कुछ दशकों से जो एक नई किस्म का धार्मिक पुनरुत्थान हुआ है वह सबसे अधिक चिंतित करने वाला विषय है। लोगों के बीच प्रेम करने की क्षमता का ह्रास हुआ है, मंदिर, मस्जिद, चर्च बढ़ रहे हैं पर धर्म घट रहा है क्योंकि धर्म ईंट पत्थरों में नहीं रहतापत्थर पूजन हरि मिलैं, तो मैं पूजूं पाहारआज धर्म एक हिंसा है धार्मिक होने से ज्यादा जरूरी है धर्म को दिखाना जबकि धर्म दिखावे की नहीं वस्तु नहीं ,धारण करने की वस्तु है।

        आज आवश्यकता है उसे लोकचेतना के पुनः उद्बुद्ध होने की जिस 'चेतना' से अनुप्राणित होकर मध्ययुग का भक्तिकालीन आंदोलन 'लोकजागरण' में परिवर्तित हो गया। एक ऐसी भक्ति चेतना जो आंदोलन में तब्दील होकर 'लोकजागरण' के रूप में अखिल भारतीय स्तर पर चिन्हित हुई और जिसने शोषित- जनों के हृदय में विद्रोह की चिंगारी को जन्म दिया।

संदर्भ :

1- -डॉ. के अजिता (संपादक) : कबीर:पाठ और अंत: पाठ :अनुशीलन (पत्रिका)- जुलाई 2019-अंक-41: पृ. 77
2- डॉ सुभाष चंद्र: दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास:आधार प्रकाशन पंचकूला हरियाणा : प्रथम पेपर बैक संस्करण- 2012: पृ.76
3- वही
4- श्री रामचरितमानस: उत्तरकांड: गीता प्रेस गोरखपुर
5- कृष्णकांत मिश्र: समाजवादी चिंतन का इतिहास-भाग 1:ग्रंथ शिल्पी दिल्ली: प्रथम संस्करण-2002 : पृष्ठ 38
6- शंभूनाथ : भक्ति आंदोलन और उत्तर धार्मिक संकट: वाणी प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली :प्रथम संस्करण 2023:पृ-35
7-डॉ सुभाष चंद्र: दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास:आधार प्रकाशन पंचकूला हरियाणा : प्रथम पेपर बैक संस्करण- 2012: पृ.77
8 -शंभूनाथ : भक्ति आंदोलन और उत्तर धार्मिक संकट: वाणी प्रकाशन, दरियागंज नई दिल्ली :प्रथम संस्करण 2023: भूमिका से।
9-  वही :पृ 44
10-  वही :पृ 46
11-भक्ति आंदोलन के सामाजिक आधार : संपादक - गोपेश्वर सिंह, भारतीय प्रकाशन संस्थान, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली: प्रथम संस्करण - 2002 : पृष्ठ 107

डॉ.शशिकला जायसवाल
सहायक आचार्य
shashishraddha7@gmail.com, 94 5586 8861

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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