मैनेजर पांडेय की सूरदास सम्बन्धी मान्यताएं
- आराधना चौधरी
भक्त कवियों की दृष्टि में मानुष्य - सत्य से ऊपर कुछ भी नहीं है-न कुल, न जाति, न धर्म, न सम्प्रदाय, न स्त्री पुरूष का भेद, न किसी शास्त्र का भ्रम और न लोक का भ्रम। इन सबका दुराग्रह हमेशा मनुष्यत्व के विकास में बाधक बनता है, इसलिए इनकी भक्तिकाव्य में निर्द्वद और निर्भीक आलोचना है। समाज में तरह-तरह के भेद-भाव पर टिकी व्यवस्था की जगह मनुष्यत्व पर आधारित समता मूलक और मानवीय व्यवस्था की कामना भक्तिकाव्य में है, जिससे आज भी शोषित पीड़ित भारतीय जनता प्रेरणा पाती है।" इसी क्रम में द्विवेदी जी की मानवतावादी दृष्टि पर भी विचार कर लेना आवश्यक है जो की यह मानकर चलते हैं 'सबार ऊपर मानुष्य सत्य' मतलब यह है कि मनुष्य चिंतन की प्रक्रिया में सबसे आगे है द्विवेदी जी मनुष्य को साहित्य का सर्जक तथा साहित्य का मकसद दोनों मानते है। वे मनुष्य से अधिक न तो परंपरा का महत्व देते हैं और न इतिहास को। भक्ति हृदय का धर्म है। हृदय के धर्मों मे सर्वाधिक व्यापक, उदात्त और मानवीय धर्म है 'प्रेम'। वही भक्ति का मूल भाव और भक्ति काव्य का बीज भाव भी है। वह मनुष्य को कुल, जाति, धर्म और संप्रदाय आदि की सीमाओं से ऊपर उठाता है और हर तरह की सत्ता से भयमुक्त करता है। भक्तिकाव्य में प्रेम सूफियों को वैष्णवों से मिलता है और सगुण भक्तों को निर्गुण संतो से। इस तरह व्यापक मानवीय भावभूमि पर मनुष्य मात्र की एकता का आधार बनता है। यही कारण है कि भक्ति काव्य में कहीं भी धार्मिक उन्माद और सांप्रदायिक संकीर्णता नहीं है। यह सही है कि सभी भक्त कवियों के प्रेम का रूप एक जैसा नहीं है। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा के प्रेम में अन्तर है लेकिन इस सबके काव्य के प्रेम में, रूपों और स्वरों की अनेकता के बावजूद उसकी भावना एक सी है। हिन्दी आलोचना मे यह बात फैली हुई है कि सूरदास अपने समय के समाज से बेखबर अपने भाव मे मग्न रहनेवाले कवि हैं।"
मैनेजर पाण्डेय अपनी पुस्तक 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य' के प्रथम संस्करण की भूमिका में लिखते हैं कि भक्ति आंदोलन के साथ भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य की विकास की नई अवस्था का आरम्भ होता है।
भक्ति आंदोलन व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन है, जिसकी अभिव्यक्ति दर्शन, धर्म, कला, साहित्य और संस्कृति के दूसरे रूपों में दिखाई देती है। वास्तव में यह सामंती संस्कृति के विरूद्ध जनसंस्कृति के उत्थान का अखिल भारतीय आंदोलन है। इसके मूल में ग्यारहवीं बारहवीं सदी से अखिल भारतीय स्तर पर विभिन्न जातियों के निर्माण, जातीय
भाषाओं के गठन की प्रक्रिया तेज होती है, और आधुनिक भारतीय भाषाओं के निर्माण का आधार तैयार होता है। भारतीय समाज, संस्कृति और साहित्य के इतिहास का अध्ययन करने वाले विद्वानों की राय है कि इस दौर में भारत में जातियों के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ होती है। जातियों के निर्माण का अर्थ यह है कि सामंतवाद के विघटन की प्रक्रिया का आरंभ होना और पूंजीवाद की उत्पत्ति होना। साहित्य और समाज के संबंध पर रामचन्द्र शुक्ल का कथन किसी भी सभ्य समाज में ऐसा नहीं होता कि "जीवन की दिशा कुछ और हो और साहित्य की दिशा कुछ और"। शायद यह कथन शुक्ल जी ने भक्तिकाल के आधार पर ही कहा हो। इसी संबंध में मैनेजर पाण्डेय अपनी पुस्तक 'भक्ति आंदोलन और सूर का काव्य' के प्रथम संस्करण की भूमिका मे लिखते हैं कि, "हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति आंदोलन और उसके काव्य के मूल्यांकन का इतिहास समाज तथा साहित्य के संबंध, साहित्य संबंधी दृष्टिकोण, काव्य - विवके और आलोचना दृष्टि के विकास का इतिहास है। रीतिकाल के दरबारी काव्य और सामंती काव्यरूचि के युग में भक्तिकाव्य अभिजात वर्ग द्वारा उपेक्षित था, लेकिन उस युग में भी आम जनता की सांस्कृतिक आकांक्षाओं को पूरा करने का मुख्य साधन था।" " भक्तिकाल के महत्व को समझाते हुए 'भारतेन्दु युग' में बालकृष्ण भट्ट ने साहित्य का ही स्परूप स्पष्ट नहीं किया बल्कि भक्तिकालीन साहित्य की मूलभूत विशेषताओं के ओर भी संकेत किया। साहित्य और भाषा के जातीय स्वरूप की चिंता करने वाले भारतेन्दु और उनके युग के लेखकों ने भक्तिकालीन साहित्य के महत्व और मूल्य को पहचाना था। बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तरह-तरह के रीतिवाद और रूढ़िवाद का विरोध करते हुए भक्ति - काव्य के उचित मूल्यांकन का मार्ग प्रशस्त किया।"
इसी संदर्भ में आगे बढ़ते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि, बड़े आलोचकों ने भक्तिकाल का सहारा लिया। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि बड़ा आलोचक बनने के लिए बड़ी रचनाशीलता पर विचार करना आवश्यक है। इस संदर्भ में पाण्डेय जी लिखते हैं कि, 'हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्ति काव्य के मूल्यांकन के उतार-चढ़ाव से यह सिद्ध होता है कि जब रचना और आलोचना में जातीय और जनवादी तत्वों का प्रभाव बढ़ा है तो भक्ति - काव्य का महत्व बढ़ा है और जब जनविरोधी और विजातीय प्रवृतियां प्रबल हुई तो भक्तिकाल की उपेक्षा हुई है।
निर्गुण और सगुण कवियों की रचना पर विचार करते हुए पाण्डेय जी लिखते हैं कि, “निर्गुण संतो की तरह सगुण भक्तों की कविता में सामंती समाज और उसकी विचारधारा के विरूद्ध ललकार की भाषा में उग्र विद्रोह की घोषणाएं कम हैं लेकिन उनकी कविता में चरित्रों के निर्माण, कथा की संरचना यथार्थ बोध भाव बोध जीवन मूल्य के बोध के स्तर पर सामंती व्यवस्था और विचारधारा का विरोध प्रकट हुआ है। सूर और तुलसी ने कृष्ण और राम की जिन कथाओं को आधार बनाकर उनपर काव्य रचना की है, वे संस्कृत काव्य की उदात्त परंपरा की उपज और लोकजीवन में प्रचलित कथाएँ हैं।
इन कथाओं के नायक अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करने वाले वीर" पुरूष हैं। सामंती समाज-व्यवस्था के अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष करनेवाली जनता इन कथा नायकों के संघर्ष में अपने संघर्ष की आकांक्षा को मूर्त रूप में देखती है। यही इन कथाओं के व्यापक लोकप्रियता का रहस्य है। सूर और तुलसी के कृष्ण और राम अन्यायी, अत्याचारी और दमनकारी शासकों को मारकर उनकी दमनकारी सत्ताओं के स्थान पर लोकहितकारी राज्य-व्यवस्था की स्थापना करते हैं। तुलसी की रामराज्य की कल्पना में अत्याचारी सामंती राजसत्ता के स्थान पर न्यायप्रिय और जनप्रिय राज्यव्यवस्था की जनाकंक्षा व्यक्त हुई है। यह तुलसी की सामंतवाद - विरोधी चेतना का एक प्रमाण है।
भक्तिकाल में देखा जाए तो कवियों ने सामंती व्यवस्था और राज्यसत्ता का विरोध किया है। कुंभनदास एक कविता है, में लिखा है कि "संतन को कहाँ सिकरी सो काम। आवत जात पनहियां टूटी बिसरी गए हरिनाम।" उसी व्यवस्था का विरोध करते हुए तुलसीदास लिखते हैं 'तुलसी अब का होइहे नर के मनसबदार' सामंती व्यवस्था और उसकी विचारधारा के विरूद्ध यह एक क्रांतिकारी कदम था। इस संदर्भ में पाण्डेय जी लिखते हैं- "संत कवियों का यह काल्पनिक देश लोक से अलग कोई परलोक नही है। कुछ लोग समझते हैं कि संत काव्य केवल असहमति और विरोध का काव्य है। यह संतकाव्य की अधूरी समझ का परिणाम है। इसी काल के सूफी कवि जायसी पर विचार किया जाए तो उनके द्वारा रचित 'पद्मावत' में नागमति का विरह-वर्णन अनुभूतियों की व्याप्ता के लिए याद किया जाता है। जायसी की सामंतवाद विरोधी चेतना का एक प्रमाण यह है कि उन्होंने सामंती व्यवस्था की सर्वोच्च सत्ता के एक प्रतिनिधि दिल्ली के सुल्तान अलाउदीन को 'शैतान' के रूप में चित्रित किया है। सामंती राजसत्ता के प्रति जायसी का दृष्टिकोण दिल्लीश्वर को जगदिश्वर कहने वालों से भिन्न था।" सूरदास पर विचार करते हुए मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं कि "सूरदास के काव्य में कृष्ण से राधा और दूसरी गोपियों का प्रेम सामंती नैतिकता के बंधनों से मुक्त प्रेम है, प्रेम के सहज मानवीय और उदान्त रूपों की गहराई, व्यापकता, विविधता का जैसा चित्रण सूर के काव्य में है
वैसा अन्यत्र बहुत कम उपलब्ध है। हिन्दी में सूर से बड़ा प्रेम का दूसरा कवि कोई नहीं है। सूर का वात्सल्य वर्णन अमानवीय व्यवस्था के बीच भी मनुष्य के मनुष्यता को जगाने और उसकी रक्षा करने में समर्थ है।" आगे पाण्डेय जी रामविलास शर्मा की राय पर दृष्टिपात करते हुए लिखते हैं कि, भक्तिकाल के संदर्भ में रामविलास शर्मा की राय है कि, "भक्ति आंदोलन किसी एक वर्ग का आंदोलन नहीं था, उसमें किसान, शिल्पकार, व्यापारी आदि सभी शामिल थे। वास्तव में भक्ति आंदोलन सामंती व्यवस्था से पीड़ित और उससे मुक्ति के लिए छटपटाते संघर्षशील सभी वर्गों का व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन था। लेकिन उसमें मुख्य भूमिका किसानों और शिल्पकारों की थी, इसीलिए वह जनसंस्कृति के उत्थान का आंदोलन बन सका।"
इस भूमिका के अंतर्गत मैनेजर पाण्डेय सूरदास की कविता पर विचार करते हुए लिखते हैं कि, 'सूर का काव्य हिन्दी जाति के सामाजिक- सांस्कृतिक इतिहास से दिलचस्पी रखनेवालों के लिए विशेष महत्वपूर्ण है इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उनकी कविता में उस युग के यथार्थ और इतिहास का जो कलात्मक पुनः सृजन है, उसका बार-बार अनुभव संभव है इसलिए वह अपने युग की ऐतिहासिक सीमाओं से मुक्त भी है। समाज के इतिहास को बार- बार जीना संभव नहीं होता, लेकिन कलाकृति में पुनर्रचित इतिहास का बार-बार अनुभव करना संभव होता है सूर की कविता मानवीय अनुभवों की विविधता का अक्षय भंडार है।'
सूर की कविता के संदर्भ में पाण्डेय जी ने उल्लेखित करते हुए लिखा है कि- "सूर की कविता हिन्दी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जातीय जीवन और सांस्कृतिक परंपराओं को व्यक्त करनेवाली कविता है। वह हिन्दी भाषा के जातीय रूप का निर्माण करने वाली कविता है। सूर की कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह शास्त्र और सत्ता के आतंक से मुक्त है, इसलिए वह ऐसे आतंक से मुक्ति दिलानेवाली कविता भी है। "
मेरी समझ से पाण्डेय जी का दूसरे संस्करण की भूमिका लिखने के पीछे एक कारण तो यह हो सकता है कि जो 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ था, और उसके एक साल बाद (1993) इन्होंने अपना दूसरे संस्करण की भूमिका लिखी। दूसरा कारण यह है लोग सूरदास की कविता को समाज से बेखबर होने की बात कह रहे थे। उनकी काव्यानुभूति और काव्यसंरचना से साबित होता है कि सूरदास का अपने समय के समाज से, विशेषतः किसान जीवन और उनके परिवेश से कितना अंतरंग संबंध है।
पाण्डेय जी का मानना है कि, "आज भारतीय समाज एक विकट संकट से गुजर रहा है। यह संकट जितना सामाजिक और राजनीतिक है उससे अधिक सांस्कृतिक है, क्योंकि संस्कृति के गोला-बारूद से ही राजीनीति की लड़ाई चल रही है सांस्कृतिक प्रतीक से राजनीतिक युद्ध के अस्त्र-शस्त्र बनाए जा रहे हैं। इस संस्कृति की राजनीति से जो राजनीति की नई संस्कृति पैदा हुई है वह धार्मिक उन्माद, सांप्रदायिक संकीर्णता और मानवद्रोही की आंधी पर सवार होकर आगे बढ़ रही है और भक्ति आंदोलन के उदात्त मानवीयमूल्यों और सांस्कृतिक आकांक्षाओं की विरासत को तहस-नहस कर रही है। ऐसी स्थिति में भक्ति काव्य की 'विगत सार्थकता और 'वर्तमान अर्थवता' की पहचान एक बार फिर आवश्यक हो गई है। वर्तमान संकट से उबरने के लिए भी भक्ति काव्य हमारी मदद कर सकता है, क्योंकि भक्तिकाल की कविता आज भी जीवन में रमी हुई कविता है, इसलिए उसके सहारे व्यापक जनता से आत्मीय संवाद संभव है।"
सुरसागर की कथावस्तु पर चर्चा करते हुए पाण्डेय जी ने लिखा है कि, सूरदास लोकप्रियता और मौलिकता की रक्षा करने वाले कवि है। उन्होंने एक लोकप्रचलित कथा को अपनाकर काव्य रचना की है, जिसमें साधरणीकरण की क्षमता है और सूर की मौलिकता भी है। सूरसागर के पद में साहित्य के दो भाग हैं - (क) विनय के पद और (ख) लीला के पद। विनय के पदों में भक्त का दैन्य निवेदन और आत्म निवेदन ही प्रधान है। सूरदास ने विनय के पदों में वेद, उपनिषद, पुराण, गीता और सांख्यदर्शन आदि का उल्लेख किया है और विभिन्न रूपकों के माध्यम से सामाजिक चेतना और सामाजिक दशा का भी वर्णन किया है।"
सूरसागर की बड़ी विशेषता है विषमताओं को एकसार करना, जो समृद्ध सर्जनात्मक रचना का प्रमुख लक्षण है।
चरित्र बोध का स्वरूप
मेरे शोध पर्यवेक्षक गजेन्द्र पाठक ने यह कहा है कि राममनोहर लोहिया ने राम, कृष्ण और शिव में कृष्ण के मिथकीय स्वरूप का चित्रण करते हुए लिखा है कि कृष्ण का चरित्र एक व्यापक चरित्र है। जो साधन की पवित्रता पर ध्यान नहीं देते और दामपत्य जीवन के सीमाओं का अतिक्रमण करते है जो राम और शिव के यहाँ नहीं है। राम और शिव का नाम उनकी पत्नी से जुड़ता है, जबकि, कृष्ण का नाम उनकी प्रेमिका से। यह अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। कृष्ण ने प्रेमिकाओं की सेवाओं का भी अतिक्रमण किया है उनकी प्रेमिकाओं की सूची बहुत लम्बी है, इसलिए कृष्ण ने धर्म का अतिक्रमण करते हए दूसरों को भी अपने ओर आकृष्ट किया है। कृष्ण की लोकप्रियता का कारण दरअसल यही है कि वे हर बंधी हुई मर्यादा का उल्लंघन करते है। भक्तिकाव्य को जो प्रेम काव्य मानते हैं, उनके लिए कृष्ण का चरित्र ज्यादा प्रेरणा परक है। क्योंकि कृष्ण के यहाँ किसी के लिए इन्कार नहीं है, कृष्ण का हृदय इतना विशाल और व्यापक है कि उसमें लाखों करोड़ों लोग गोता लगा सकते है।
प्रेम की काव्यानुभूति
सूरदास के काव्य में प्रेम की अनुभूति पर विचार करते हुए पाण्डेय जी ने लिखा है कि, "सूरदास प्रेम के कवि हैं। जिस प्रेम के वे गायक हैं, उसका
प्रसार मानव जीवन से लेकर प्रकृति जगत और ईश्वर तक है। उनके काव्य में मानवीय प्रेम की अपार व्यापकता और विविधता है। यही मानवीय प्रेम ईश्वरीय प्रेम या भक्ति के रूप में भी व्यक्त हुआ है। सूर का भक्तिमार्ग प्रेममार्ग ही है।" आचार्य रामचन्द्र शुल्क के अनुसार 'वासानात्मक अवस्था से भावात्मक अवस्था में आया हुआ राग हीं वास्तव में अनुराग या प्रेम है।" अतः शुक्ल जी की इस बात से यह स्पष्ट होता है कि प्रेम राग का ही विकसित रूप है।
सूरदास की पुस्तक 'सूरसागर में प्रेमतत्वों को खोजते हुए पाण्डेय जी ने लिखा है कि, सूरदास का काव्य प्रेम का काव्य है उसमें सौन्दर्य, माधुर्य, दीप्ति, उल्लास और आनंद का चरम उत्कर्ष अभिव्यंजित है। सुरसागर में कृष्ण के संपूर्ण लीलाओं का कारणतत्व प्रेम ही है। प्रेम के स्तर पर ऊँच-नीच, धनी - गरीब, स्त्री-पुरूष आदि में कोई भेद नहीं है।"
सूर का प्रेम आज भी रूढिमुक्त समाज और प्रेम के लिए संघर्ष में प्रेरणापद है, क्योंकि भारतीय समाज आज भी उन्हीं बन्धनों से जकड़ा हुआ है। जिनसे मुक्ति की आकांक्षा सूर के काव्य में है।
आराधना चौधरी
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक : अजीत आर्या, गौरव सिंह, श्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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