‘दरिया अगम गंभीर है’ (संत कवि दरिया और उनकी भक्ति)
- डॉ. अमरेन्द्र त्रिपाठी
शोध सार : दरिया नाम से संत साहित्य में दो रचनाकार हुए हैं। एक दरिया साहब का जन्म मारवाड़ के जैतराम गाँव में संवत 1733 में हुआ था। ये मुसलमान धुनिया थे। इनके शिष्य इन्हें दादू दयाल का अवतार मानते हैं। ये ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, और इनकी बहुत कम रचनाएँ मिलती हैं। दूसरे दरिया साहब बिहार के धरकंधा में हुए। इनकी बीस से भी अधिक कृतियों का पता चलता है। इन्होंने कबीर की परंपरा को आगे बढ़ाया, लेकिन तुलसी की लोकप्रियता से भी अत्यधिक प्रभावित रहे। इनका अधिकांश साहित्य तुलसी की शैली में अवधी भाषा और दोहा-चौपाई शैली में रचित है। ‘दरियासागर’ और ‘शब्द’ इनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। फ़ारसी भाषा में ‘दरियानामा’ का
लेखन किया। राम और कृष्ण की कथा के द्वारा निर्गुण ब्रह्म के
स्वरूप का उद्घाटन किया। ‘मूर्तिउखाड़’ में
मूर्तिपूजा का प्रत्यक्ष विरोध कर आजीवन हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों में
फैले बाह्याचार का
कड़ा प्रतिवाद करते
रहे। यह शोध-आलेख इन्हीं बिहारी दरिया साहब के योगदानों पर
केंद्रित है।
बीज शब्द : सत्पुरुष, निरंजन, छपलोक, सुक्रित, हंसउबारन, पैगंबरवाद, अद्वैतवाद, एकेश्वरवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, भेदाभेदवाद।
मूल आलेख : बिहार के
सम्मानित संत कवि दरिया साहब का जन्म विक्रम संवत
1731 में और देहावसान विक्रम संवत 1836 में हुआ था। ये मुसलमान थे,
लेकिन बहुत सारे विद्वान इन्हें हिन्दू मानते हैं। बी. बी. मजूमदार ने
इन्हें एक सूफ़ी संत बताया है। इनके पंथ में अधिकांशत: हिन्दू दीक्षित हुए,
इसलिए उनके शिष्य भी उन्हें राजपूत जाति से जोड़ कर देखते हैं। दरिया साहब पर गंभीरता से
काम करने वाले धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी ने इन्हें मुसलमान ही माना है। इसके लिए वे फ्रांसिस बुकानन की 1809-10 ई. की रिपोर्ट को
आधार बनाते हैं। दरिया के तीन शिष्यों के
वक्तव्यों के आधार पर बुकानन ने
उनकी मृत्यु के
लगभग तीस वर्षों के
बाद जारी अपनी रिपोर्ट में
लिखा है कि, “ इस जिले में एक मुसलमान दर्जी ने हाल ही में मुक्ति का एक नवीन मार्ग निकाला है। उन्होंने पैगम्बर को नहीं माना और हिन्दुओं को पंथ में सम्मिलित किया। उन्होंने अपना नाम दरियादास रखा।.................परन्तु उस घर को जो (करंगजा डिवीजन) धरकन्धा ग्राम में है और जहां वे रहते थे तख्त (गद्दी) कहते हैं, जिसपर अब उन दर्जी महात्मा के प्रिय शिष्य गुनादास के उत्तराधिकारी टेकादास विराजमान हैं।” [1] बुकानन की
रिपोर्ट की एक महत्वपूर्ण स्थापना यह है कि दरिया ने पैगम्बर को
नहीं माना और खुद को ‘हिन्दुओं के
पंथ में सम्मिलित’ कर
लिया। लेकिन यह बात पूर्णतया सही
नहीं है। दरिया ने कबीर की परंपरा का
अनुसरण किया और हिन्दू एवं
मुसलमान दोनों स्थापित धर्मों के श्रेष्ठ तत्वों को स्वीकार करते
हुए भी उनमें से किसी एक का अनुसरण नहीं
किया। उनकी सैद्धांतिकी पर
वेदांत का व्यापक प्रभाव है जबकि व्यवहार में
उनके अनुयायी इस्लाम के कुछ आचरणों का
अनुसरण करते हैं। “दरिया पंथियों के कई रिवाज मुसलमानों से मिलते जुलते हैं। प्रार्थना ये खड़े-खड़े झुककर करते हैं, जिसे ‘कोरनिश’ कहते हैं, और वंदना को ‘सिरदा’ याने सिजदा। इनके मूलमंत्र का नाम ‘वेवहा’ है। इनके हरेक साधु के पास एक मिट्टी का हुक्का होता है जिसे ये ‘रखना’ कहते हैं, और पानी पीने के बर्तन को ‘भरुका’।” [2] दरिया साहब एक नवीन पंथ के निर्माण को
लेकर बेहद सचेत थे।
दरिया साहब
बहुत अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन उन्होंने प्रचुर मात्रा में
ग्रंथों की रचना की है। उनके बीस से अधिक ग्रंथ मिलते है, जिनमें से
लगभग बीस प्रकाशित हो
चुके हैं। इनके द्वारा रचित
ग्रंथ हैं- ‘अग्रज्ञान’, ‘अमरसार’, ‘भक्तिहेतु’, ‘ब्रह्मचैतन्य’, ‘ब्रह्मविवेक’, ‘दरियानामा’, ‘दरियासागर’, ‘गणेशगोष्ठी’, ‘ज्ञानदीपक’, ‘ज्ञानमूल’, ‘ज्ञानरत्न’, ‘ज्ञानस्वरोदय’, ‘कालचरित्र’, ‘मूर्त्तिउखाड़’, ‘निर्भयज्ञान’, ‘प्रेममूल’, ‘शब्द या बीजक’, ‘सहसरानी’, ‘विवेकसागर’ और ‘यज्ञसमाधि’। इसमें ‘ज्ञानस्वरोदय’ फ़ारसी में रचित ‘दरियानामा’ का
हिन्दी अनुवाद है।
‘ज्ञानस्वरोदय’ के अंत में स्वयं दरिया साहब ने लिखा है- ‘दरियानामा फ़ारसी, पहिले कहा किताब/ सो गुन कहा सरोद में, गहिरि ग्यान गरकाब’। दरिया साहब भोजपुरी क्षेत्र के थे, लेकिन उनकी अधिकांश रचनाएँ अवधी भाषा और दोहा-चौपाई शैली में हैं। ‘दोहा’ को कई स्थलों पर
‘साखी’ कहा है। दोहा और चौपाई के क्रम या संख्या में
किसी प्रकार के
नियम का पालन नहीं है। किसी रचना में पांच चौपाइयों के
बाद दोहा है तो किसी में पंद्रह के
बाद। ‘ब्रह्मचैतन्य’, ‘यज्ञसमाधि’ और ‘सहसरानी’ केवल
दोहा छंद में रचित है तो ‘मूर्ति उखाड़’
और ‘निर्भय ज्ञान’ केवल चौपाई छंद में। ‘शब्द या बीजक’ एक विशालकाय ग्रंथ है, जिसमें संत
परम्परा का अनुसरण करते
हुए रागों में निबद्ध पद
संकलित हैं। इसमें सधुक्कड़ी भाषा
में अनेक पद हैं, मातृभाषा भोजपुरी का भी प्रभाव है।
सवैया छंद में रचित पद भी हैं। दरिया साहब की रचनाओं का
पाठालोचन या पाठ-संपादन नहीं
हुआ है। उनके अनुयायियों द्वारा इनका संकलन-संपादन किया
गया है, इसलिए इनकी प्रामाणिकता संदेहास्पद है। अनेक स्थलों पर
दरिया का गुणगान इस
संदेह को मजबूत करता है। वैसे उनकी जिन रचनाओं का
पाठ धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी ने तैयार किया है उसे पाठालोचन के
प्रसिद्ध विद्वान डॉ
कन्हैया सिंह ने प्रामाणिक और
अच्छा कहा है, लेकिन पाठ-संपादन की
प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं। “पाठालोचन की दृष्टि से संपादन की उपर्युक्त पद्धति साधु नहीं कही जा सकती है क्योंकि किसी एक प्रति का पाठ रचना का मूल पाठ नहीं हो सकता। मूल पाठ के अनुसंधान में एकाधिक प्रतियों का विनियोग आवश्यक प्रतीत होता है। पर संपादित पाठ और पाद-टिप्पणियों के अवलोकन से यह प्रतीत होता है कि संपादक द्वारा चयन की गयी आधार प्रतियाँ मूल के सर्वाधिक निकट हैं। फलत: उनके पाठ संतोषजनक हैं। ‘दरियासागर’ तथा अन्य ग्रंथों में विभिन्न प्रतियों के वैशिष्ट्य का कोई विवेचन संपादन में नहीं किया गया है।”[3]
कबीर की
तरह ही दरिया साहब भी हिन्दू और
मुसलमान जीवन के संधिस्थल पर
प्रकट हुए थे। इनके पिता पीरनशाह ने
भाइयों की जीवन-रक्षा के लिए औरंगजेब की
प्रिय रानी की दर्जिन की
पुत्री से विवाह कर इस्लाम ग्रहण कर लिया था। पीरनशाह का
मूल नाम पृथुदेवसिंह था
और ये मूलत: उज्जैन के
क्षत्रिय थे, जो कुछ पीढ़ी पहले बिहार के जगदीशपुर में
आकर राज्य करने लगे थे। कुछ विद्वानों का
कहना है कि इसी वंश में आगे चलकर वीर कुंवर सिंह का जन्म हुआ। पीरनशाह की
दो पत्नियाँ थीं।
‘दरिया सागर’ के संपादकों का
मानना है कि दरिया साहब का जन्म उनकी पहली हिन्दू पत्नी के गर्भ से हुआ था। वैसे ‘मूर्ति उखाड़’
में दरिया साहब ने खुद को पीरु दर्जी का पुत्र कहा है।
दरिया साहब
पर कबीर का अत्यधिक प्रभाव था- ‘सोइ कहौं जो कहहिं कबीरा/ दरियादास पद पायो हीरा। ’ इसकी
एक बड़ी वजह कबीरपंथ की
एक प्रमुख शाखा
धनौती का बिहार में काफ़ी प्रभाव होना
भी है। कबीर के देहांत के
बाद उनके नाम पर बारह शाखाओं का
निर्माण हुआ, जिसमें से
तीन शाखाएँ सर्वाधिक प्रभावशाली और
दीर्घजीवी हुईं- काशी शाखा, छतीसगढ़ी शाखा
और धनौती शाखा। धनौती शाखा बिहार के सीवान जिले
में स्थित है, जिसके मूल प्रवर्तक भगवान गोसाई थे। इन्हें कबीर
का समकालीन होने
का दावा किया जाता है लेकिन परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार ये
विक्रम की सत्रहवीं सदी
के अंतिम चरण में सक्रिय थे;
अर्थात दरिया साहब के लगभग सौ वर्ष पूर्व। पहले
ये निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित थे,
इसलिए इनके अनुयायियों की
वेशभूषा पर उसका प्रभाव भी
दिखता है। इस शाखा में कबीर के ‘बीजक’ की बहुत महत्ता है।
इस पंथ की दो अन्य शाखाएँ बिहार के मुजफ्फरपुर और
शाहाबाद में भी थीं। दरिया पंथ इसी शाहाबाद जिले
में सक्रिय है।
दरिया साहब ने ‘ज्ञानदीपक’ में
कबीर के जन्म की कथा बहुत विस्तार से
वर्णित कर उन्हें ईश्वर के अंश सुक्रित का
अवतार बताया है और उनके जीवन से जुड़ी किवंदतियों के
आधार पर उनका एक संक्षिप्त जीवन-परिचय भी दिया है। उनके अनुसार पूर्व जन्म में कबीर ब्राह्मण थे
पर ‘सतनाम’ की आराधना न करने
के कारण अगले जन्म में जुलाहा हो
गए। वे सत्पुरुष के
सोलह पुत्रों में
से एक हैं जो बार-बार जन्म लेते हैं। इन्होंने धर्मदास के रूप में जन्म लिया लेकिन कंठी फेंककर ‘कबीर
पंथ’ की स्थापना की।
इन्हीं के एक अवतार दरिया साहब भी हैं। एक प्रसंग यह
भी मिलता है कि धर्मदास द्वारा प्रवर्तित छतीसगढ़ी शाखा के एक अनुयायी भगवानदास का एक बार दरिया साहब से इस बात पर जबरदस्त विवाद हुआ कि कबीर और राम एक ही हैं। दरिया साहब ने इसे अस्वीकार किया
और वे विजयी हुए। इस प्रसंग के
दो निहितार्थ हैं-
कबीर के प्रति असीम आस्था के बावजूद दरिया के चिंतन में मौलिकता है,
और दरिया आत्मा और परमात्मा को
एक नहीं मानते थे।
कबीर की
आध्यात्मिक उपलब्धियों की
राह पर चलते हुए दरिया साहब ने अपना मार्ग निर्मित किया। वे उपनिषदों के
दर्शन, पुराणों के
अवतारवाद, शैव-शाक्त-सिद्ध-नाथ-योगियों के
हठयोग, रहस्यवाद एवं
कर्मकांड-खंडन, शंकर के मायावाद, रामानुज के विशिष्टाद्वैत, वैष्णव आचार्यों की
अहिंसा, भावुकता, समानता और बसुधैव कुटुंबकम की उदारता तथा
सूफ़ियों के प्रेम-तत्व, माधुर्य-भक्ति एवं भारतीय एकेश्वरवाद से प्रेरित-प्रभावित हुए। मध्यकालीन संतों के साहित्य पर
विचार करते हुए हम अक्सर उनके सैद्धांतिक विचारों की दार्शनिक निष्पत्तियों पर ध्यान देते हैं। पीताम्बर दत्त
बड़थ्वाल ने दरिया की दार्शनिक मान्यताओं पर विशिष्टाद्वैत का
प्रभाव देखा है। विशिष्टाद्वैत रामानुज का सिद्धांत है,
जिनकी परंपरा में
रामानन्द हुए। कबीर अद्वैतवाद के
करीब हैं, जबकि दरिया विशिष्टाद्वैतवाद के।
वैसे अंडरहिल ने
कबीर को भी विशिष्टाद्वैतवादी ही
कहा था और फर्कुहर ने
भेदाभेदवादी। असल में, मध्यकाल के
संतों की विचारधारा शास्त्रीय ज्ञान की जगह व्यक्तिगत अनुभवों से निर्मित हुई
थी, इसलिए उनके दर्शन को किसी खास खाँचे में बाँधकर देखना कठिन है। “ परन्तु जैसा इन संतों की रचनाओं का पूर्वापर संबंध समझकर उन्हें अध्ययन करने से पता चलेगा, वे लोग दार्शनिक विद्वान् नहीं थे और न इनमें से एकाध को छोड़कर कोई किसी दार्शनिक मतविशेष की ओर अपना ध्यान देना उतना आवश्यक ही समझता था। ये लोग मूलतः साधक थे और इनके द्वारा प्रचलित किये गए पंथों में यदि कोई अन्तर लक्षित होता है तो उसका प्रधान कारण इनके किसी साधनाविशेष को अन्य से अधिक महत्त्व देने में ही ढूंढा जा सकता है। इन संतों का दार्शनिक दृष्टिकोण किसी 'पुराने' दार्शनिक मत के साँचे में ढलकर तैयार नहीं हुआ था। ”[4] दरिया साहब ने अपने समय की लगभग सभी प्रभावशाली विचारधाराओं के श्रेष्ठ तत्त्वों का समावेश कर
अपना पंथ बनाया।
दरिया की
अधिकांश रचनाओं में
तत्वज्ञान का प्रतिपादन है।
ब्रह्म, जीव, जगत, माया, सृष्टि आदि
के मूल स्वरूप पर
विचार करते हुए जीव की मुक्ति के
मार्ग का निरूपण ही
उनका प्रधान लक्ष्य है। दरिया ने ब्रह्म को
अधिकांशत: ‘सत्पुरुष’ कहा
है, कभी-कभी इसे राम, अल्लाह, बेबहा और जिन्दा कहकर
भी संबोधित करते
हैं। यह एक ही है और सबमें व्याप्त है।
यह न सगुण है और न निर्गुण- ‘वोए निरगुन सरगुन ते भीन्हा/ जाके प्रान पिंड सम चीन्हा’।[5] यह
तीनों लोकों से परे चौथे लोक में निवास करता है, जिसका उल्लेख दरिया बार-बार करते हैं- ‘तीनि लोक वेद यह कहई/ चौथा लोक पुर्ख एक रहई/’।[6] कबीर ने भी इस लोक की चर्चा की है। तीनों लोकों पर माया के कारण तीन गुणों का प्रभाव है
लेकिन यह चौथा लोक इन गुणों से परे है। दुनिया के
सारे ग्रंथों और
मतों की पहुंच महज इन तीन लोकों तक ही है। वेद में भी चौथे लोक के विषय में चर्चा नहीं है- ‘तीनि लोक तीनि गुन फैलाई/ चौथा लोक निरगुन लै जाई/ तीनि लोक तो बेद बखाना/ चौथा लोक के मरम न आना।’[7] इस
लोक को दरिया ने अनेक नाम दिए हैं- अभयलोक (अभैलोक सतगुरु की बानी), अमरपुर या
अमरलोक (अमरपुर अम्रित रस पाई), छपलोक (सांच सब्द बूझो लौ लाइ/ हंस बोधि छपलोक पठाई), सत्तलोक (सत्त पुर्ख सत्तलोकहिं डेरा), जोतिमंडल(जोतिमंडल रवि कोटि है) आदि। यह लोक कबीर के ‘परमपद’ और वैष्णवों के
‘बैकुंठ’ का मिला-जुला रूप है। ‘बेगमपुरा’ और
‘रामराज्य’ की तरह इस लोक में भौतिक दुखों से मुक्ति की
कल्पना भी है- ‘तहां किसान करे नहीं खेती । भोजन पोखन पावहिं सेती ॥’[8] ‘सत्पुरुष’ अवतार नहीं लेता- ‘पुर्ख ना होहि आपु अवतारा/ जोति गढ़ै सभ करु उपकारा’[9] इसकी
ज्योति से ब्रह्मा, विष्णु और महेश सहित अनेक देवताओं का
जन्म हुआ है- ‘जोतिहिं ब्रह्मा बिस्नु हहीं, संकर जोगी ध्यान/ सत्तपुर्ख छपलोक हहीं, ताको सकल जहान।’[10] ये सभी देवता माया के अधीन हैं, लेकिन सत्पुरुष अवतार न लेने के कारण माया के अधीन नहीं है।
सत्पुरुष के
अतिरिक्त दरिया ने कबीर की तरह निरंजन की
भी खूब चर्चा की है। नाथपंथ में
निरंजन निर्गुण ब्रह्म या शिव का प्रतीक है।
कबीर पंथ में निरंजन ईश्वर का पुत्र है जिसने उनके आदेश पर इस सृष्टि की
रचना की है। यह ईश्वर की सातवीं संतान है, जिसने माया के साथ मिलकर इस जगत को रचा और फिर अंतर्धान होकर
अपने लोक में समाधिस्थ हो
गया। उसके स्थूल अंश से वेदों का निर्माण हुआ,
लेकिन वेदों के सूक्ष्म अंश
को उसने किसी को नहीं बताया। ‘कबीर
मंसूर’ के अनुसार कबीर
दास ने इस सूक्ष्म वेद
को अपनी वाणी के द्वारा अभिव्यक्त किया। कबीर ने ‘अवधू निरंजन जाल
पसारा’ कहकर उसके द्वारा निर्मित धोखे से आम जन को बचने की सलाह दी है। दरिया साहब का निरंजन, जिसे
वे कभी-कभी अब्दुल्ला भी
कहते हैं, कबीर के निरंजन का
समानधर्मा है। वह सत्पुरुष का
पुत्र और त्रिगुणात्मक जगत
का स्वामी है।
कन्या माया के साथ भोग-विलास कर उसने देवताओं को
जन्म दिया। इस संसार के सुख-दुख का कारण यही निरंजन है,
सत्पुरुष नहीं- ‘निरंजन ! धुंध
तेरी दरबार’। इस निरंजन के
धुंध से जीव को सत्पुरुष का
एक अन्य पुत्र सुक्रित(सुकृत) बचाता है। यह सत्पुरुष के
धाम से जंबूद्वीप आया
और अनेक अवतार लिए, जिसमें कबीर
और दरिया का अवतार भी शामिल है। कलियुग में
जीवों का उद्धारक अथवा
हंसउबारन यही है। ‘दरियासागर’ में
विस्तारपूर्वक इसका जिक्र है-
तीनी जुग जब जात ओराई/ तेहि पीछे कलजुग चलि आई//
तब सुक्रित कह आनि बोलाई/ साहब बचन कहा समुझाई//
कहे पुर्ख सुनो हो दासा/ जिव सभ बिनसै जम के त्रासा//
कहै पुर्ख सुनो चित लाई/ जीव बाचे के कवनि उपाई//
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
सब्द एक मैं कहौं बुझाई/ जग रछ्या होए एहि उपाई//
अंस हमार उहां चलि जाई/ जीव बाचे के एहि उपाई//
सुक्रित जाए लेहु अवतारा/ हंस बोधि छ्पलोक सिधारा//
लेहु सुक्रित तुम सत के बानी/ सत नाम होखै जमपुर हानी// [11]
वैदिक काल
की समाप्ति के
बाद भक्तों के
उद्धार के लिए भगवान के अवतार की व्यापक कल्पना की गई। गीता में स्वयं ईश्वर अपने अवतार का वर्णन करते हैं। महाभारत के
‘नारायणीयोपाख्यान’ में छ: अवतारों की
चर्चा है- वराह, नृसिंह, वामन,
भार्गव राम (परशुराम), दाशरथि राम और वासुदेव कृष्ण । बाद में चार और अवतारों की
कल्पना की गई- हंस, कूर्म, मत्स्य और
कल्कि । यह संख्या में
कुल दस हुए । यह अवतारवाद वैष्णव भक्ति के मूल में अवस्थित है।
निर्गुण संत भी इस अवतारवाद से
प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके, लेकिन उन्होंने इसकी
मूल अवधारणा में
हेरफेर कर दिया। दरिया साहब का सत्पुरुष अवतार नहीं लेता बल्कि उसके पुत्र अवतार लेते हैं। ये ब्रह्म के
अंश हैं, स्वयं ब्रह्म नहीं। अन्य कबीर पंथों में भी यही परिकल्पना है।
परशुराम चतुर्वेदी का
मानना है कि यह बौद्धों और
नाथों से होते हुए इन के पास आया। यह कुछ-कुछ सामी धर्मों के
पैगंबरवाद की तरह है। लेकिन पैगंबरवाद में
पैगंबर ईश्वर के दूत होते हैं, अंश नहीं। दरिया साहब के यहाँ ब्रह्म और
उसके अवतार में अंशी-अंश का भाव है। दरिया साहब ने अलग-अलग युगों में दस अवतारों की
कल्पना की है- सुक्रित, अगस्त्य, नामदेव, लोमस,
बलभद्र, शेष, करुनामा, मुनीन्द्र आदि। दस अवतारों के
बाद कबीर का अवतार होता है, जो बार-बार अवतार लेते हैं। इन्हीं अवतारों के क्रम में एक अवतार स्वयं दरिया साहब है- ‘फिर कलह मँह धरा सरीरा/ अगम ग्यान असल रंग हीरा// सत नाम कीन्ह विचारा/ दरिया नाम से पंथ सुधारा/’ [12] हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं, “भक्ति के लिए भगवान् के साथ वैयक्तिक सम्बन्ध आवश्यक है और अवतार उस सम्बन्ध के लिए उपयुक्त सामग्री प्रदान करते हैं। यही कारण है कि मध्यकाल के प्रायः सभी धार्मिक सम्प्रदायों ने अवतार की कोई-न-कोई कल्पना अवश्य की है। शिव के भी अनेक अवतारों की चर्चा मिलती है। नकुलीश या लकुलीश शिव के अवतार माने गये हैं, गोरखनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ को भी शिव का अवतार स्वीकार किया गया है। और तो और, आगे चलकर अवतारवाद के घोर विरोधी कबीर को भी अवतार ही स्वीकार किया जाने लगा था।” [13] सगुण और निर्गुण दोनों पंथों के अवतारवाद की
परिकल्पना और स्वरूप में
मूलभूत अंतर है।
दरिया-साहित्य में सृष्टि-निर्माण की वृहद परिकल्पना मिलती है। वैसे तो लगभग सभी पंथों, संप्रदायों ने
सृष्टि के निर्माण की
कल्पना की है, लेकिन इसका सर्वाधिक व्यवस्थित रूप वेद, उपनिषद और
पुराण जैसे प्राचीन धर्म
ग्रंथों में है। वैष्णव मत
ने इसका अनुसरण किया,
और तुलसी आदि भक्तों ने
काव्यानुवाद। संतों के यहाँ यह सिद्धों-नाथों से होते हुए पहुँचा। “अतएव जान पड़ता है कि बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध सम्प्रदाय महायान ने पौराणिक हिंदू धर्म के साथ कई बातों के पारस्परिक आदान-प्रदान करते समय सृष्टि रचना के उक्त वर्णन के भी सारांश को ग्रहण कर लिया था और उसे अपने निजी ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया था। अंत में हिंदुओं के पौराणिक धर्म की ही बातें क्रमशः बौद्धों के विविध सम्प्रदायों एवं नाथपंथ आदि के हाथों न्यूनाधिक परिवर्तित होती हुई कबीर पंथ में भी आकर सम्मिलित हो गई। प्रजापति क्रमशः धर्म से निरंजन बन गए, आद्याशक्ति वा प्रकृति ने माया-नारी का रूप धारण कर लिया और कल्पना का रंग कुछ गहरा चढ़ जाने के कारण एक विचित्र सी कथा अस्तित्त्व में आ गई।” [14] दरिया साहब के सृष्टि संबंधी विचारों पर
इसकी गहरी छाप है। वे कहते हैं कि आदि में केवल शून्य था, न देवता थे, न अवतार, केवल पुरुष था। पुरुष, जिसे दरिया साहब सत्पुरुष कहते
हैं, के मन में सृष्टि की
इच्छा जागी और उसने निरंजन नामक
पुत्र और ज्योति या
जगज्जनी नामक एक पुत्री को
जन्म दिया। इनके मिलन से ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उत्पत्ति हुई।
‘जा दिन पुरुष अकेला रहई, ता दिन सक्ति संग नहि कहई । रहे वह निरंजन अंजन नाहीं, सेवक सदा पुरुष के पाहीं । रचेव कन्या एक बहु बिधि नीका, अति छवि सुन्दर मनि जग टीका। देखि निरजन रहेव लोभाई, सक्ति संग सुख बेलसेव जाई । तबहि तीन देव जो भएऊ, रजगुन सतगुन तमगुन कहेऊ ।” [15] माता जगज्जनी ने इन्हें समुद्र मंथन की आज्ञा दी, जिससे तीन वस्तुएँ वेद,
तेज और हलाहल निकला। तीनों देवताओं को
क्रमश: इनमें से एक-एक मिला। माता ने इन्हें क्रमश: सावित्री, लक्ष्मी और देवी नाम कुमारियाँ दी,
जिनसे इस सृष्टि की
सृजन प्रक्रिया प्रारंभ हुई। इन्होंने वेदों के प्रसिद्ध रूपक
वृक्ष के द्वारा भी
सृष्टि की विकास प्रक्रिया को
व्याख्यायित किया है। कबीर ने दृश्य जगत को केवल व्यावहारिक रूप
में सत्य माना है पारमार्थिक रूप
में नहीं, परंतु दरिया के लिए यह जगत सत्य है। उनके लिए विवर्त विवर्त न होकर विकास है। सृष्टि रचना
क्रम केवल कहने-सुनने भर का नहीं, बल्कि वास्तविक रूप
में सत्य है। इसी क्रम में दरिया साहब युगों में विभाजित काल-गणना
की भारतीय चिंतन परंपरा की
मूलभूत अवधारणा के
परिप्रेक्ष्य में कलियुग की
व्याख्या करते हैं- ‘बिमल नाम प्रेम नहिं चाखे/ कलि में कथा बहुत चित राखे/ कवि आखर करि बहुत बनाई/ माया भेद ग्यान नहिं पाई/” [16] उन्होंने वैष्णवों के पुनर्जन्म और
कर्म-सिद्धांत को
स्वीकार किया है। चौरासी लाख
योनियों में भटकने की अवधारणा को
इन दोनों सिद्धांतो के
आधार पर व्याख्यायित करते
हैं। अपने पूर्व जन्म के विषय में बताते हैं। मृत्यु और
नरक के देवता के साथ ही चित्रगुप्त के
बही खातों का अनेक स्थलों पर
उल्लेख करते हैं। नरक की यातनाओं के
चित्रमय वर्णन के साथ ही यह विश्वास भी
दिलाते हैं कि सत्पुरुष की
कृपा से इससे बचा जा सकता है। कुछ स्थलों पर
नरक और स्वर्ग की
प्रतीकात्मक व्याख्या भी
की है- नरक मतलब परमात्मा के
प्रेम से रहित, और स्वर्ग से
तात्पर्य है परमात्मा से
मिलन। उनके शब्द हैं- “ बिनु मासूक की आस की, यहि दोजख की आंच/ मिलि रहना महबूब सै, सोई भिश्ति है सांच॥ ” [17]
दरिया साहब
पत्नी को ‘दासी’ बुलाते थे।
इसकी व्यंजना माया
संबंधी विचारों में
मिलती है। माया नारी शक्ति की प्रतीक है,
जो काली नागिन, काया द्रुम में लिपटी विषैली लता,
वासना की मदिरा, कलवारिन, झगड़ा
लगाने वाली चूहड़ी, वेश्या, चंचला और विश्वासघातिनी दासी
है। इन संबोधनों से
नारी संबंधी उनकी
संकीर्ण सोच का अनुमान और
भोजपुरी क्षेत्र की
पितृसत्तात्मक सोच का उन पर गहरा असर लक्षित होता
है। उनके लिए कनक और कामिनी माया
के दो प्रभावशाली रूप
हैं, लेकिन कटु आलोचना कामिनी की ही की है- ‘जो जिव फंदे नारि सों, नहिं बंस हमार। बंस राखि नारी जो त्यागै, सो उतरै भवपार’।[18] भवानी और सीता भी माया ही हैं, जिनसे शिव और राम भी मुक्त नहीं हैं, फिर आम आदमी की क्या बिसात। पार्वती की अज्ञानता पर
शिव का व्यंग्य समस्त नारी जाति को लांछित करता
है- ‘तुम त्रिया तन बुधि की थोरी। कबे बचन नाहिं मानहुं थोरी।’[19] इस माया के कारण भ्रम और दुखों से परिपूर्ण यह
जगत ‘मुरदों का
गाँव’ है। इसके जाल में फँसा जीव बार-बार जन्म लेता है, और मरता है- ‘मरिमरि जनम
होय जिहि ठाऊँ’। जीवन-मरण के इस बंधन से केवल सत्पुरुष की
कृपा से ही बचा जा सकता है, वेद या उस पर आधारित भक्ति से नहीं- ‘दरिया कहै सब्द निरबाना। अबरि कहौं नहिं बेद बखाना। बेदै अरुझि रहा संसारा। फिर-फिर होहि गरभ अवतारा’।[20] वेद की पहुंच तीन लोकों तक ही है, चौथे लोक का द्वार सब्द से खुलता है। दरिया ने अनेकानेक स्थलों पर वेद की आलोचना की
है, क्योंकि आम
जन में उसके प्रति गहरी आस्था थी। निर्गुण पंथ
परंपरा से वेद और कतेब का विरोध करता रहा है।
जीव का
निर्वाण ‘सब्द’ से संभव है। ‘सब्द’ का ज्ञान गुरु और सत्संगति से
प्राप्त होता है। सतगुरु आदर्श संत है, इसलिए मुक्ति का
वाहक है। दरिया ने गुरु और संत को ‘हंसउबारन’ की
संज्ञा दी है। ‘हंस’ मतलब जीव। ये दोनों यदि स्वयं को ईश्वर कहते हैं, तो इस पर आश्चर्य नहीं
करना चाहिए- ‘कहै जो वह मैं हौं भगवाना, तौ तेहि कहै ना ताजुब माना।’[21] सतगुरु से
प्राप्त ‘सब्द’ ही वह गुप्त मंत्र है जिसके स्पर्श मात्र से जीव मुक्ति के
पथ पर दौड़ पड़ता है- ‘गुरु के बचन सिष्य जो धरई । जाय छपलोक नरक नहिं परई।। कह दरिया जाब बीरा पावै। जाय सतलोक बहुरि नहिं आवै ’।[22] दरिया पंथ में आज भी गुरु द्वारा मंत्र देने का चलन है।
दरिया ने
ज्ञान और भक्ति दोनों को समान महत्व दिया है। ज्ञान प्राप्ति का
मार्ग कठिन है, इसलिए भक्ति के द्वारा भी
मुक्ति पाई जा सकती है। भक्ति और ज्ञान अंतिम अवस्था में
एक हो जाते हैं। सतगुरु की
सेवा से भक्ति आसान हो जाती है- ‘निर्मल ग्यान बिचारहु, भक्ति करहु लव लाए/ सत्त सरन सतगुर सेवा, आवागमन मेटाय/ ’[23]भक्ति प्रेम के द्वारा उत्पन्न होती है और प्रेम शरणागति के
बिना अधूरा है- ‘बिना प्रेम नहीं भगति है, कँवल सुखे बिनु वारि’। आध्यात्मिक उत्कर्ष का मूल मंत्र है प्रेम। लेकिन यह प्रेम, भक्ति और शरणागति भूले
भी सगुण अवतारों की
नहीं की जानी चाहिए। जो
स्वयं भवसागर में
भटक रहा है, वह किसी को क्या मुक्त करेगा! ‘ब्रह्म बिबेक’ में ब्रह्मा के
मन में पिता अर्थात आदिपुरुष को जानने की इच्छा होती है। वे शिव, विष्णु, गायत्री आदि के पास जाते हैं और निराश होते हैं। वेद और कुरान भी उन्हें भटकाते हैं- ‘बेद कितेब दुइ फंद पसारा । तेही फंदा महं जीव बेचारा ॥ धोखा देइ जीव सब राखा । करम अनेग बेद जो भाखा ॥’[24] अंत में वे इस निष्कर्ष पर
पहुंचते हैं कि-‘अजर लोक उदित उजियारा । जहां पुर्ख है अछै करतारा।’[25] इसलिए इस निर्गुण, निराकार सत्पुरुष का
ज्ञान ही जीव को मुक्त कर सकता है।
ईश्वर के
नाम और रूप की उपासना वैष्णव मत का प्रधान अंग
है। कबीर आदि संत कवियों ने
नाम-स्मरण को तो महत्व दिया लेकिन उसके रूप तत्व को छोड़ दिया। यह अव्यावहारिक है
कि नाम की कल्पना तो
हम करें लेकिन उसके रूप को नकार दें। जिसका नाम होगा उसका तो रूप होगा ही। इस दुविधा को
दूर करने के लिए ही कबीर को बार-बार कहना पड़ा कि ‘दशरथ सुत तिहू लोक बखाना, राम नाम को मरम है आना। ’ वैसे नाम और रूप की इस दुविधा का
समाधान निर्गुण मत
को मानने वाले कई संतों-भक्तों ने
सहजता से किया है। असम के शंकरदेव ने
ईश्वर के निर्गुण रूप
की उपासना की,
उन्होंने मूर्ति-पूजा
की मनाही की, लेकिन भगवान की लीला का गान किया। दरिया साहब के यहाँ भी इसी तरह की भक्ति हम देखते हैं। ‘मूर्ति उखाड़’
नामक रचना में उन्होंने मूर्ति पूजा का जबरदस्त विरोध किया है। गणेश पंडित के साथ इस मसले को लेकर पर्याप्त विवाद भी हुआ है। आम जनता के मन से मूर्ति के
भय को दूर कर और उसके नाम पर होने वाली बलि को रोकने के लिए उन्होंने दुर्गा की एक मूर्ति को
तीन माह के लिए छिपा दिया था। बहुत से लोग इस कारण उन्हें मूर्तिभंजक या हिन्दू-विरोधी भी कह सकते हैं, लेकिन ठीक इसी तरह असम में नव-वैष्णववाद के
प्रवर्तक शंकरदेव ने
भी अपने एक शिष्य को केवल इसलिए अपने पंथ से निकाल दिया था कि उसने चापरा देवी की पूजा की थी और उसके लिए बलि अर्पित की
थी। बलि-प्रथा और जाति-प्रथा मूर्तियों के
विरोध के प्रमुख तात्कालिक कारण थे। शंकरदेव ने
मूर्ति पूजा के संस्कार को
ध्यान में रखते हुए लीला गान को प्रचारित किया। उन्होंने ‘अंकिया नाट’ की रचना की और उसे पूरे असम में मंचित किया। भगवान की मनोमय मूर्ति की
आराधना का वैकल्पिक मार्ग सुझाया। तुलसीदास की अद्भुत लोकप्रियता के दबाव में दरिया साहब ने भी भगवान का लीलागान किया,
लेकिन इस लीलागान की
व्याख्या वे निर्गुण आधार
पर करते हैं। दरिया साहब के अतिरिक्त अन्य
संतों ने भी ऐसा किया है। सहजोबाई लिखती हैं- धन्य जसोदा, नन्द धन, धन ब्रजमंडल-देस/ आदि निरंजन सहजिया, भयो ग्वाल के भेष। [26] हिन्दी प्रदेश के बाहर यह चलन आम है। वारकरी इसके
एक प्रमुख उदाहरण हैं।
दरियासाहब के
जमाने में उत्तर भारत में तुलसीदास की
लोकप्रियता शीर्ष पर थी। जन-जन को प्रिय ‘रामचरितमानस’ के
असर से दरिया बच नहीं पाए। उनकी अधिकांश रचनाएँ अवधी भाषा और दोहा-चौपाई शैली में लिखी गई हैं, जबकि दरिया साहब भोजपुरी क्षेत्र के थे और उस समय साहित्य की
प्रधान भाषा ब्रजभाषा थी,
अवधी नहीं। राम कथा पर केंद्रित ‘ग्यान रतन’ ‘रामचरितमानस’ की
नकल की हद तक भावानुवाद है।
“तुलसी के ग्रंथों से छन्द या वाक्यांश लेने की बात केवल ‘ग्यानरत्न’ तक ही सीमित नहीं है। दरिया के अन्य ग्रंथों में भी यत्र-तत्र तुलसी की छाप स्पष्ट रूप से दीखती है। गोस्वामी जी को दरिया साहब बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते थे। जिस आदर और सम्मान से वे गोस्वामी जी का वर्णन करते हैं तथा अपनी उक्ति के समर्थन में उनकी कविताओं को उद्धृत करते हैं, उनसे उनकी सद्भावना का स्पष्ट परिचय मिलता है। उदाहरणस्वरूप ‘ग्यानसरोदै’ में तुलसी का एक लोकप्रसिद्ध दोहा सम्मानपूर्वक उद्धृत कर दरिया साहब पाठकों को उसका अर्थ और भाव हृद्यंगम करने की सम्मति देते हुए कहते हैं- ‘बूझहू, तुलसी कर यह साखी’।’”[27] दरिया के राम दशरथ के ही सुत हैं। उनकी कथा सीता स्वयंवर के
साथ प्रारंभ होती
है, फिर राम के जन्म से लेकर उनके लंका विजय तक संक्षिप्त रूप
में पहुंचती है,
ठीक वैसे ही जैसे तुलसी ने ‘उत्तरकांड’ में
रची है। कथा के बीच-बीच में दरिया तुलसी की तरह ही पाठकों को
सचेत करते चलते हैं कि ये राम-सीता असल में निर्गुण हैं,
जिन्हें ज्ञान के द्वारा ही
प्राप्त किया जा सकता है। राम ईश्वर के नहीं बल्कि निरंजन के
अवतार हैं। सीता सत्पुरुष की
पुत्री और माया का रूप हैं। ‘ग्यान सरौदे’ में वे लिखते हैं-
अति कौतुक है अगम अतीता । भौन भरमि कोइ चीन्है ना सीता ॥
सत्त पुर्ख कै कन्या कुमारी । इन्ह परिपंच बिदित जग डारी ॥
सोई राम निरंजन अहई । यह जग जानि त्रिगुन में बहई ॥
यह लीला सतगुरु कहि दीन्हा । बेद परिपंच जानि हम चीन्हा ॥
अति अतीत गुन अगम अथाहा । कहि कबि परे त्रिगुन जलवाहा ॥
वेद समुद्र खारो जल तीता । खाए न पिवे देखन कह हीता ॥
बेद मथि ग्यान घ्रित काढ़ी। सतगुर महिमा इमि करि बाढी ॥
त्रिगुन धार चले नहिं तरनी । बिनु गुन ग्यान कहा कबि बरनी ॥
गुन है पुर्ख नाम निजु हीता । गुन औ निर्गुन प्रेम प्रतीता ॥ [28]
‘ग्यानरतन’ ‘रामचरितमानस’ की तरह ही संवाद-शैली में रचित है। इसमें शुजा शाह और दरियादास का
संवाद है। स्थल-स्थल पर शिव-पार्वती और
कागभुशुंडि-गरुड़ संवाद भी है। ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का उद्घाटन करते
हुए बहुत ही आत्मविश्वास के
साथ दरिया साहब अपने अनुयायियों से
कहते हैं कि यह कथा मैंने सत्पुरुष के
मुख से सुनी है, इसलिए इस पर अविश्वास की
कोई वजह नहीं है। ‘सत कहों लिखि कागज कोरे/ सत पुर्ख आए ग्रिह मोरे॥ जीवन मुक्ति जिंद जग मूला/ दर्सन देखि मिटा जम सूला॥ निजु निजु कथा कहेउ सत बानी। सुक्रित चिन्हा सो निर्मल ग्यानी॥ माया ग्यान औ भक्ति बिरागा। दया कीन्ह प्रेम निजु पागा॥ आदि भवानी कन्या अहई। सोई सीता सती यह कहई॥ माया चरित्र चिन्है नाहिं कोई। पंडित पढ़ि कै चले बिगोई॥ जंत्र मंत्र मोह मद डारी। बह्मा बिस्नु हारे त्रिपुरारी॥ जाके बेद निरंजन कहई। बार बार अंजन में रहई॥ सोई राम है क्रिस्न कन्हाई। दस औतार धरि जग में आई॥ बूझहु ग्यानी करहु बिबेखा। यह तिर्गुन माया कर रेखा॥’ [29] राम और कृष्ण सत्पुरुष के
अंश और निरंजन के
अवतार हैं। वे निर्गुण हैं,
और ज्ञान और प्रेम मिश्रित भक्ति के द्वारा प्राप्त किये जा सकते हैं। लेकिन कथा के प्रवाह में
अक्सर वे इस स्थापना को
भूल जाते हैं। हनुमान जब
राम से मिलते हैं तो कहते हैं- ‘दशरथ तनय राम रघुराई । जाके बेद लोक सभ गाई॥ फिरि फिरि चरण कंवल पर लोटा। बाढ़ि प्रीति मन भए गौ छोटा॥’[30] यहाँ
हनुमान के राम वही हैं, जो दशरथ के बेटे हैं और जिनके गुणों को वेद और लोक गाते रहते हैं। हनुमान केवल
राम के दर्शन-लाभ से समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं। ‘पानि जोरि कै बिनती, महा दरसन फल पाए/ अघभंजन, सो प्रभु भए सहाय॥’[31] निर्गुण मार्ग में दर्शन-लाभ के लिए अवकाश कहाँ होता है! शिव पार्वती से
कहते हैं कि राम तीनों लोकों के स्वामी हैं
और रावण के पाप से त्रस्त पृथ्वी के उद्धार हेतु
अवतार लिया है- ‘सती कहे सुनो सिव ग्याता/ यह संसय भर्म हम कहं राता/ आदि अनादि जाहि कहं कहई/ सो त्रिगुन में कैसे रहई/ जब जब पहुमी होखै भारा, तब तब लीला धरै अपारा। मुए जिए नाहिं ब्रह्म सरूपा/ माया त्रिगुन है अभिगति रूपा/’ [32] यहाँ राम
निरंजन के नहीं सत्पुरुष के
अवतार प्रतीत होते
हैं। परंतु अनेक स्थलों पर
वे सत्पुरुष की
श्रेष्ठता सचेत रूप से स्थापित करते
हैं। राम के वाणों पर सत्पुरुष का
अंकन है। सेतुबंध के
समय पत्थरों पर
सत्पुरुष लिखते ही वे तैरने लगते हैं- ‘लछमुन लिखा सत्त की रेखा/ जल मंह उपला सभै कोइ देखा/ सत्तपुर्ख के जानहिं मर्मा/ लखन प्रेम प्रीति निजु धर्मा/’[33] यहाँ सत्पुरुष राम
से बड़े और उनकी शक्ति के स्त्रोत हैं।
संप्रदाय प्रेरित अधिकांश संत-भक्त कवियों में
अपने अराध्य को
अन्य देवताओं से
ऊँचा दिखाने की
प्रवृत्ति मिलती है। ‘उत्तरकांड’ में
कागभुशुंडि कहते हैं कि जिन-जिन लोकों में गया वहाँ सभी देवताओं को
अलग-अलग रूपों में देखा लेकिन सभी लोकों में राम एक ही थे- ‘भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरि जान/ अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखउँ आन।’ दरिया ने सचेत रूप से अपने पंथ का निर्माण किया
था इसलिए उनके द्वारा अपने
आराध्य को सर्वोच्च दिखाना स्वाभाविक ही
था।
दरिया साहब
ने बाह्याचारों का
आक्रामक भाषा में खंडन किया है, क्योंकि उन्हें लगता था कि ये जीव को भरमा रहे हैं और उसकी मुक्ति में
बाधा बन रहे हैं- ‘पंडित पत्थर पूजते, भटके जम के द्वार’।[34] मूर्तिपूजा के
वैचारिक विरोध के साथ ही व्यावहारिक प्रतिरोध भी किया। ‘मूर्तिउखाड’ और
‘गणेशगोष्ठी’ में धरकंधा के
गणेश पंडित के साथ हुए विवाद का उल्लेख है।
‘दरियासागर’ और ‘शब्द’ में भी कर्मकांडों का
जोरदार प्रतिवाद है।
वर्णाश्रम की उपेक्षा है-
‘जाति पांति किछु गरब न करिए । सत्तनाम निजु हिरदै धरिए॥’[35] तीर्थाटन की निरर्थकता का
उद्घाटन है। बलि का विरोध एवं अहिंसा की
प्रशंसा है। इस्लाम के
अनुयायी दरिया साहब के लिए अहिंसा को
न्यायोचित ठहराना कठिन
था। उन्होंने इस्लाम की मान्यताओं का
नवीन भाष्य करते हुए पैगम्बर साहब
को हिंसा का विरोधी बताया और कहा कि इब्राहिम ने
इस्लाम में हिंसा का बीजारोपण किया। वे कहते हैं कि हिंसा तो काफ़िर का लक्षण है, यह महान पाप है, सच्चा मुसलमान परपीड़ा से बचता है।
नबी महंमद दीन पैगंमर । काहु खूब समझा दिल अंदर ॥
गुजर गरीबी बुजरुग होई । फ़ाका फकत फकीरा सोई ॥
राज किया दुख काहु न दीन्हा । लेकर करंद जबह नहिं कीन्हा ॥
खून खराबा मना सभ किएउ । पहिलहि इबराहिम से भएऊ ॥
तेहि कुल जन्म लीन्ह उन्हि आई । निजु कर बिसमिल कीन्ह न भाई ॥
जौ तुम्ह उमत महंमद अहहू । मानहू बचन दीन मैं रहहू ॥ [36]
इस्लाम में
जेहाद आंतरिक बुराईयों के खिलाफ़ होता है, न कि गैर-धर्मावलंबियों के
प्रति। दरिया निरीह पशुओं की जगह मानव मन को भटका रहे काम-वासना आदि दुर्गुणों को
मारने की सलाह देते हैं- ‘ गुयान खरग दिढ़ कर गहो, कामादिक भट मारि/ पांच पचीसहिं जीति कै, करम भरम सम झारि / ’[37] तत्कालीन समय
में कई हिन्दू पंथों में भी हिंसा का बोलबाला था
। दरिया साहब ने गीता के उपदेश के द्वारा उन्हें भी समझाने की
कोशिश की- ‘तैसे क्रिस्न गीता महं कहेउ/ बिरला करि बिबेक सो लहेऊ/ निज मुख क्रिस्न सो कहा बखानी/ जीवदया गीता महं जानी।’[38] धार्मिक हिंसा को रोकने के लिए सभी धर्मों की
एकात्मता को उन्होंने सबके
सामने रखा- ‘जो हज्रत सोइ हरी है, वोए गीता कहै कोरान/ वोह कहै मलेछ है वोह, काफ़िर किर्तम को ज्ञान।’ [39]
‘उत्तरी भारत
की संत परंपरा’ में
परशुराम चतुर्वेदी ने
दरिया साहब के समय की प्रधान प्रवृत्ति समन्वय और
सांप्रदायिकता चिह्नित की
है। दरिया ने निर्गुण-सगुण
पंथ के सभी प्रभावी विचारों का समन्वय किया
और अपने संप्रदाय का
आग्रहपूर्वक निर्माण किया। कबीर के प्रति गहरी आस्था के बावजूद विचार विशेष से नहीं बंधे। स्वानुभूति के
आधार पर खुद की राह बनायी। भारतीय मानस मूलत: समन्वयधर्मी है।
अलगाव की हजारों कोशिशों के बीच वह समानता के
सूत्र तलाश ही लेता है। दरिया ने विभिन्न पंथों, संप्रदायों और
मान्यताओं का समन्वय कर
अपना मत स्थिर किया। अलगाव से ज्यादा लगाव
पर ध्यान दिया। पिता को प्रताड़ित करने
वाले औरंगजेब की
कट्टरता को त्याग दारा शुकोह की उदारता को
गले लगाया। भारतीय चिंतन से प्रभावित अकबर
द्वारा आरंभ किए गए ‘दीन-ए-इलाही’ के प्रयासों का
ही यह प्रतिफल था।
तमाम विभेदों के
बावजूद भारतीय समाज
प्रत्येक काल में किसी शंकराचार्य नामदेव, कबीर, शंकरदेव, तुलसी या दरिया के द्वारा विरुद्धों के बीच सामंजस्य रचता ही रहता है। जब तक भारत में समन्वयधर्मी चेतना जीवित रहेगी, इनकी महत्ता भी बनी रहेगी।
संदर्भ :
धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी, ‘संत कवि दरिया: एक अनुशीलन’,
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, 1954 : 02
वियोगी हरि, ‘संत सुधा सार’, सस्ता साहित्य मंडल
प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004 (तीसरी आवृति) : 616
कन्हैया सिंह, ‘हिन्दी पाठानुसंधान’, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,
1990 : 97
परशुराम चतुर्वेदी, ‘उत्तरी भारत की संत परंपरा’, भारती
भंडार, लीडर प्रेस, इलाहाबाद, 2010 : 274
डॉ धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी, ‘दरिया ग्रंथावली’, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,
पटना, 1962 : 36
‘दरिया ग्रंथावली’ (‘दरियासागर’): 13
वही : 14
वही (‘ब्रह्म विवेक’) : 334
वही (‘दरियासागर’) : 03
वही : 03
वही : 19, 20
वही : 11
हजारी प्रसाद द्विवेदी, ‘मध्यकालीन धर्म-साधना’, साहित्य-भवन
प्रा. लिमिटेड, प्रयागराज, 2003 : 75
वही :
75
‘संत कवि दरिया: एक अनुशीलन’ (‘ज्ञानदीपक’) : 9
वही : 16
‘संत कवि दरिया: एक अनुशीलन’
(‘ज्ञान स्वरोदय’) : 19
‘संत सुधा सार’ : 622
‘दरिया ग्रंथावली’ (‘ग्यान रतन’) : 166
‘संत-सुधा-सार’ : 623
‘संत कवि दरिया : एक अनुशीलन’ (`ग्यान रतन’) : 110
‘संत-सुधा-सार’ : 618
‘दरिया-ग्रंथावली’ (‘भक्ति हेतु’) : 276
‘दरिया-ग्रंथावली’ (‘ब्रह्म विबेक’) : 345
वही : 346
‘संत-सुधा-सार’ : 701
‘दरिया: एक अनुशीलन’ : 210
‘दरिया: एक
अनुशीलन’ (‘ग्यांन सरोदे’) : 135
‘दरिया ग्रंथावली (’ग्यान रतन’) : 150
वही : 155
वही : 156
वही : 165
वही : 163
‘संत-सुधा-सार’ : 623
‘दरिया ग्रंथावली’ (’दरियासागर’) : 25
‘दरिया: एक अनुशीलन’ (‘ग्यांन सरोदे’) : 19
वही : 21
वही : 20
‘दरिया-ग्रंथावली’ (‘ब्रह्म विबेक’) : 55
डॉ. अमरेन्द्र त्रिपाठी
हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज
महत्वपूर्ण आलेख। हार्दिक बधाई!
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें