‘रीतिकालीन कवियों
की भक्ति-भावना’
- डॉ. गुड्डू कुमार
शोध सार : मध्यकालीन हिंदी साहित्येतिहास को दो धाराओं में विभाजित किया गया है । प्रवृत्ति विशेष के आधार पर पूर्वमध्यकालीन साहित्य को ‘भक्तिकाल’ तथा उत्तर मध्यकालीन साहित्य को ‘रीतिकाल’ कहा गया है । भक्तिकाल में परंपरा प्रेरित भक्ति की जो धारा थी, वह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच कर क्षीण होने लगी थी । रीतिकालीन साहित्य में भक्ति परंपरा की यही क्षीण धारा युगीन प्रवृत्ति को आत्मसात करके अपने चरमोत्कर्ष पहुँची । भक्तिकाल के कवि भक्ति-भावना को आधार बनाकर लोक से परलोक की ओर जाते हैं, अर्थात उनकी भक्ति पारलौकिक/अलौकिक है जबकि रीतिकालीन कवियों ने भक्ति-भावना को परलोक से लोक पर लाया और उसे अपने आश्रयदाताओं के मनोरंजनार्थ एहलौकिक बनाया । यही कारण है कि रीतिकालीन भक्ति-भावना में ईश्वर के ईश्वरत्व तिरोहित होकर शुद्ध मनुष्य-लीला रह गया है । हालाँकि यह कहना असंगत होगा की ‘रीतिकालीन कवियों की भक्ति-भावना’ में भक्ति का सर्वथा अभाव है । इस काल के कवियों ने भक्ति-भावना को परलोक से लोक पर लाया, यह हिंदी साहित्येतिहास की अपनी विशेषता है, जो अन्यत्र दुर्लब्ध है । रीतिकालीन भक्त कवियों ने परंपरागत भक्ति-भावना को नकारते हुए ईश्वर को भी मनुष्य बनाया और भक्त कवियों के रहस्यवाद को प्रकाश में लाया । भक्ति-भावित व्यभिचार को आमजन के समक्ष नग्न रूप में परोसने के लिए रीतिकालीन भक्त-कवियों का नाम सर्वाधिक सम्मान से लिया जा सकता है ।
रीतिकाल के रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त और रीतेतर (भक्ति-वीर और नीतिकाव्य) काव्य-धाराओं में भक्ति का कोई निश्चित फार्मूला दृष्टिगोचर नहीं होता है, इनके यहाँ एकेश्वर (किसी एक ईश्वर की भक्ति चाहे वे गोचर हो या अगोचर) की भावना कमजोर होती हैं और एकाधिक ईश्वर की उपासना देखने को मिलती है । रीतिकाल के भक्ति-भावना में किसी एक कवि के यहाँ प्रसंगवश राधा-कृष्ण, सीता-राम, पार्वती-शिव, गणेश, सरस्वती, काली, दुर्गा, भवानी आदि देवी-देवताओं के साथ ही साथ गंगा आदि नदियों की वंदना एक साथ देखने को मिल जाती है । रीतिकालीन भक्ति-भावना मठों-मंदिरों की भक्ति भावना न होकर सामान्य जन की भक्ति-भावना है । यह भक्ति-भावना यथार्थवादी दृष्टि से भक्तिकालीन भक्ति-भावना से भी अधिक प्रभावी है और आमजन के निकट जान पड़ती है । स्पष्ट है कि रीतिकालीन भक्त-कवि गृहस्थ-जीवन में रहते हुए और अपने दुःख-सुख को याद करते हुए भक्ति-परंपरा की ओर प्रेरित हुए थे । यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि परंपरा प्रेरित एकेश्वरवादी भक्ति-परंपरा (संत, सूफी, राम और कृष्ण भक्तिधारा) भक्तिकाल में चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर रीतिकाल में भी मंद गति से प्रवाहित होती रही । रीतिकालीन संत, सूफी, राम और कृष्ण काव्यधाराओं में से रामकाव्य-धारा में रसिकता का समावेश हुआ, पर इसमें राम के मर्यादावादी दृष्टि को अधिकाधिक सुरक्षित रखा गया है । रीतिकालीन कृष्णकाव्य धारा में युगीन प्रवृति के कारण रसिकता का समावेश अधिक हुआ है । तुलनात्मक रूप से भक्तिकाल की अपेक्षा रीतिकालीन सूफीकाव्य में सांप्रदायिकता की भावना देखने को मिल जाता है । रीतिकालीन भक्ति-भावना का सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस काल के संत-भक्त कवियों ने भक्तिकालीन संत कवियों की तुलना में स्त्री को अधिक सम्मान दिया है । इनके यहाँ स्त्री ‘नरक का द्वार’ नहीं आधी आबादी का हिस्सा है जिसे उतना ही सम्मान मिलना चाहिए जितना पुरुषों को मिलता है । इस संदर्भ में दरिया साहब कहते हैं कि -
“नारी जननी जगत की, पाल पोस दे तोष ।
मुरख राम बिसार कर, ताहि लगावत दोष ।।”[1]
मूल
आलेख : रीतिकालीन कवि राज्याश्रित थे । स्वामी को प्रसन्न रखना, उनका कर्त्तव्य था । चमत्कार-पूर्ण उक्तियों से वे अपने आश्रयदाताओं का मनोरंजन किया करते थे । ऐसा न करने पर उन्हें जीविकोपार्जन के लिए दर-दर भटकना पड़ता था । उनमें भक्तों की-सी निष्ठा और दृढ़ता का अभाव था । उनका नैतिक बल क्षीण हो गया था । वे शृंगारिक काव्य की रचना कर अपने आश्रयदाताओं का मनोरंजन किया करते थे । राजाओं की शृंगारी वृत्तियों का प्रभाव आम जनता पर भी पड़ रहा था । राम के मर्यादित लोक-रक्षक रूप के प्रति तो वे श्रद्धावान और भयभीत थे; परंतु उन्होंने कृष्ण के विलासी रूप को अपना लिया था । काव्य-प्रेमी और रसिक होने के कारण कमोबेश आमजन भी इन शृंगारिक कवियों के वासनात्मक विष को अमृत समझकर पान कर रही थीं । इस काल की कविता राजा और दरबारियों तक ही सीमित थी जो स्वाभाव से विलासी थे । सामान्य जनता तक यह काव्य नहीं पहुँच पाता था। फिर भी ‘राजा करे सो सब ठीक है’ वाली कहावत तत्युगीन लोक-मानस में प्रचलित थी ।
भक्तिकाल का रीतिकाल में रूपांतरण के कई कारणों में राजनैतिक स्थिरता और उससे उपजी विलासिता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था । प्रेम और भक्ति की अनभूति में से भक्ति क्रमशः क्षीण पड़ती गयी तथा प्रेम का शृंगारिक रूप केन्द्र में आ गया । भक्तिकाल के दाम्पत्य प्रतीकों जैसे - ‘हरि मोरा पिउ, मैं हरि की बहुरिया’[2],
‘कामहि नारि पियारि जिमि’[3],
का प्रचलन रीतिकाव्य का आधार स्तंभ बनकर उभरा । डॉ. नगेन्द्र ने रीतिकाल की व्याख्या करते हुए लिखा कि- ‘इसका स्वरूप सर्वत्र ही गार्हस्थिक है ।‘[4]
रीतिकाल की विशेषता इस बात में है कि इसकी मूल प्रेरणा ऐहिक है । भक्तिकाल की ईश्वर केंद्रित दृष्टि के सामने मनुष्य केंद्रित दृष्टि का अंतर साफ समझ में आता है । भक्तिकाल में ईश्वर की मनुष्य-लीला का चित्रण है तो रीति काल में ईश्वर एवं मनुष्य दोनों का मनुष्य रूप में चित्रण है । तुलसीदास लिखते है – ‘कवि न होउ नहि चतुर कहावउँ, मति अनुरूप राम गुन गावहु’[5]
पर आचार्य भिखारीदास का कहना है -
“आगै के सुकवि रीझिहै, तो कविताइ न तौ ।
राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है ।।”[6]
रीतिकाल में रसिकता एवं शास्त्रीयता का योग हुआ है । रीति कालीन कवि भक्तिकाल की तुलना में अपने कवि कर्म पर ज्यादा सजग थे । रीति कालीन कवियों की भाषा अलंकरण और कृत्रिम प्रधान थी । भक्त-कवियों की भाषा के संबंध में मान्यताएँ थीं - ‘सन्सकिरत है कूप जल, भाखा बहता नीर’, ‘भाखाबद्ध करबि मैं सोई, मोरे मन प्रबोध जेहि होई’ परन्तु केशवदास के लिए प्रसिद्ध है कि 'भाखा' में रचना करने के कारण वे लज्जित एवं कुंठित थे ।
“भाखा बोलि न जानही, जिनके कुल के दास ।
भाखा कवि भो मंद मति, तेहि कुल केशवदास ।।”[7]
रीतिकवियों की भक्ति-भावना रीतिकाल की मुख्य विशेषता न होकर गौण विशेषता है । उनकी भक्ति-भावना दरबारों की शृंगारिकता और रसिकता की प्रवृत्तियों से हटकर शांति प्रदान करने का संबल प्रतीत होता है । सहज भावनाओं की उपज नहीं होने के कारण उनकी भक्तिपरक-काव्य या पद्य भक्ति परंपरा की शरणभूमि-सी लगती है । हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखा जाए तो एक काल की काव्यधारा दूसरे काल में प्रवाहित होती हुई प्रतीत होती है । इसी प्रकार रीतिकाल में भक्तिकाल की एक प्रवृति ‘भक्ति निरूपण की प्रवृति’ विद्यमान है । यद्यपि रीतिकाल में अधिकाधिक शृंगारिकता प्रदर्शन के कारण भक्ति का स्वरूप कुछ संकुचित सा प्रतीत होता है किन्तु अनेक दृष्टियों से आज भी ‘रीतिकालीन कवियों की भक्ति-भावना’ का महत्व विद्यमान है ।
रीतिकाल में शृंगारिक रचनाओं के मध्य भक्ति-निरूपक काव्य का सृजन भी खूब किया गया । जहाँ एक ओर रीतिकवियों ने शृंगारिकता का स्वतंत्र वर्णन किया वहीं दूसरी ओर भक्ति भावना से ओत–प्रोत रचनाएँ भी कीं। रीतिकवियों के काव्यों में भक्ति भावना भी मुखर हो उठा है । रीतिकाव्य के अंतर्गत भक्ति के रूप में रामभक्ति और कृष्णभक्ति दोनों को ही महत्व प्रदान किया गया है । शुद्ध शृंगारिक कवियों में प्रमुख रूप से सेनापति और मतिराम ने रामभक्ति से परिपूर्ण रचनाएँ की और बिहारी तथा देव ने कृष्णभक्ति परक रचनाओं का सृजन किया । रीतिकाव्य में कृष्ण-भक्ति एवं राम-भक्ति के अतिरिक्त निर्गुणोपासक संतों और प्रेममार्गी सूफियों की परंपरा भी विद्यमान थीं ।
रीति-कवियों ने भक्ति का निरूपण अवश्य किया किन्तु भक्ति-भावना के अंतर्गत जो श्रद्धा और ईश्वरीय प्रेम होना चाहिए उसका प्रभाव रीतिकालीन भक्ति निरूपण में प्राप्त नहीं होता । रीति-कवियों के मन में ईश्वर की विभिन्न शक्तियों के प्रति साधारणतया हिन्दू जाति के लोगों के मन में ईश्वर के प्रति जो श्रद्धा विद्यमान होती है, जैसे - ईश्वरीय सत्ता के प्रति भक्ति-भावना, आस्था, श्रद्धा आदि रीतिकालीन कवियों में भी विद्यमान थी । यही आस्था और श्रद्धा रीतिकालीन कवियों के काव्यों में भक्ति-भावना के रूप में प्रस्फुटित हुई है । रीतिकवियों ने सर्वप्रथम शृंगारिकता और रसिकता का वर्णन किया तत्पश्चात वे भक्ति निरूपण की ओर उन्मुख हुए । रीतिकालीन भक्ति निरूपण को अधिकांश विद्वान शृंगारिकता का प्रभाव मानते हैं । डॉ. नगेंद्र ने रीति-कवियों की भक्ति-भावना के विषय में लिखा है कि - “यह भक्ति भी रीतिकवियों की शृंगारिकता का ही अंग थी । जीवन की अतिशयता अथवा अतिशय रसिकता से जब ये लोग घबरा उठते होंगे तो राधा–कृष्ण का यही अनुराग उनके धर्म भीरु मन को आश्वासन देता होगा । इस प्रकार रीतिकालीन भक्ति एक ओर सामाजिक कवच और दूसरी ओर मानसिक शरणभूमि के रूप में इनकी रक्षा करती थी ।”[8]
शृंगारी कवियों के भक्ति-निरूपण के अतिरिक्त रीतिकाल में कुछ संत, सूफ़ी एवं कुछ भक्त कवि ऐसे भी थे, जो वैष्णव धर्म से संबद्ध माने गए हैं । इनमें नागरीदास, हितवृन्दावनदास, मधुसूदनदास और भगवतरसिक आदि के नाम उल्लेखनीय है । ये कवि प्रमुख रूप से भक्त कवि ही माने गए हैं । इन्होने शिव, पार्वती, दुर्गा, हनुमान आदि देवी-देवताओं, नदियों एवं तीर्थ-स्थलों के प्रति भक्ति एवं श्रद्धा प्रस्तुत की है । इनके काव्यों में शक्ति की भी उपासना है । विद्या की देवी के रूप में माँ सरस्वती का सम्मान सदियों से होता आया है । रीतिकवियों ने भी माँ सरस्वती के स्वरूप को श्रद्धेय मानते हुए, उनकी उपासना की है । ‘काशी नागरी प्रचारणी सभा के आर्य पुस्तकालय में छत्र कवि के ‘विजय मुक्तावली’ नामक एक हस्तलिखित ग्रंथ उपलब्ध है । इस ग्रंथ में अन्य देवी-देवताओं के साथ ‘विद्या की देवी सरस्वती’ की वंदना की गई है । कवि ने देवी से प्रार्थना किया है कि वे उन्हें ग्रंथ लिखने की श्रेष्ठ बौद्धिक प्रेरणा प्रदान करें । कवि ने लिखा है कि –
“जग जननी जग वंदिनी जग पावन सुखकारि ।
गिरा थिरा मति दीजिये वर नोग्तंध विचारि ।।”[9]
मध्यकालीन हिंदी काव्य को प्रवृत्ति विशेष के आधार पर दो भागों में विभक्त कर क्रमश: भक्तिकाल और रीतिकाल नाम दिया गया है । भक्तिकाल में भक्ति-भावना और रीतिकाल में रीति-निरूपण की प्रधानता के कारण इन दोनों काव्य-धाराओं के अन्य प्रवृत्तियों को गौण मान लिया गया है । इन गौण प्रवृत्तियों को साहित्येतिहासकारों व आलोचकों ने उल्लेख मात्र किया है । साहित्येतिहासकार और अलोचकों ने हिंदी साहित्य के रीतिकाल की मुख्य प्रवृत्ति रीति और शृंगार मानकर, उस पर दरबारी संस्कृति का प्रभाव दिखाकर विवेचन-विशलेषण तो खूब किया किन्तु इस कालखंड की भक्ति, नीति, और वीरादि से संबंधित काव्यधारा की ओर से उदासीन रहे हैं । रीतिकालीन काव्यधारा के उदय के कारणों का पड़ताल करते हुए दरबारी संस्कृति और आश्रयदाताओं की मनोवृत्तियों को अधिकाधिक मान्य ठहराया गया है किंतु भक्ति-भावना जो संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य से होते हुए हिंदी में आयी और भक्तिकाल में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँची तथा रीतिकाव्य में भी तत्युगीन चेतना के साथ प्रवाहित रही, भक्तिभावना की इस परंपरा को साहित्येतिहासकारों और आलोचकों ने प्रकाशमय नहीं किया, जबकि रीतिकालीन भक्ति-भावना दरबारी संस्कृति के आतप से विह्वल हो जाने पर भी भक्तजनों को सुख, शांति और संतोष प्रदान कर रही थी । रीतिबद्ध कवि पद्माकर ने राम के प्रति भक्ति का मर्यादित रूप अंकित किया है । कवि ने राम को चन्द्रमा के समान पवित्र तथा उनकी कीर्ति को को हिम की भांति निर्मल माना है । उनके अनुसार सांसारिक सुख विलास के मूल में भी राम का नाम विद्यमान है –
“अन्न मूल धन बनन को मूल जज्ञ अभिराम ।
ताको धन धन को धरम दारण-मूल हरिनाम ।।”[10]
रीतिकाल के आरंभकर्ता माने जाने वाले केशवदास ने रीति ग्रंथों की परंपरा भक्तिकाल में ही प्रारंभ कर दी थी किन्तु उनके काव्यों में भक्ति के तत्त्व भी हैं जिसकी साहित्येतिहासकारों और आलोचकों ने उपेक्षा की है । केशव के उपरांत परवर्ती रीतिकवियों ने कहीं प्रसंगवश तो कहीं स्वतंत्र रूप से भक्ति-भावना में लीन थे । रीतिकाल के रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त और रीतेतर काव्यकारों में निहित भक्ति-चेतना युगीन दरबारी और सामाजिक चेतना को प्रस्तुत करती है । रीतिकाव्यकारों के भक्ति-चेतना को आधार बनाकर प्रस्तुत आलेख ‘रीतिकालीन कवियों की भक्ति-भावना’ में यह दिखाया गया है कि रीतिकालीन कविता रीति या शृंगार तक सीमित नहीं थी । इस कालावधि में प्रणीत समस्त काव्य रूपों का संकलन तैयार किया जाए तो रीतिकालीन भक्ति-भावना, इस कालखंड की मुख्य काव्य-प्रवृत्ति की स्पर्धा में खड़ी हो सकती है ।
रीतिकाव्य के शुरुआत का यह अर्थ नहीं था कि भक्तिकाव्य का लिखा जाना बंद हो गया । कोई भी काव्यधारा एक झटके में ख़त्म नहीं होती, धीरे-धीरे क्षीण होते हुए एक लंबी प्रक्रिया में समाप्त होती है । यही स्थिति रीतिकाल में भक्ति की विभिन्न धाराओं की रही । भक्तिकाल की चारों परंपराओं इस काल में बनी रही हालाँकि उनमें वह प्रभाव और रंग नहीं बचा जो भक्तिकल में दिखता था । रीतिकाल में रचित विविध काव्य प्रवृत्तियों वाले ग्रंथों में भक्ति कहीं शृंगार तो कहीं रस के रूप में वर्णित हुआ है । रीतिकाव्य में शृंगार, प्रेम और वीर रस के मध्य भक्ति की धारा भी प्रवाहित होती रही । रीतिकालीन साहित्येतिहास का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि शृंगारोपासक कवि भी आत्मचिंतन के क्षणों में भगवद स्मरण की उपेक्षा नहीं कर पाए हैं । रीतिकाव्य के शृंगारिक कवि चाहे वे रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध या रीतिमुक्त धारा के हो, उनमें के कुछ संप्रदाय विशेष से जुड़े थे तो कुछ संप्रदाय विहीन थे किन्तु इनके काव्य में प्रसंगवश भक्ति-भावना से संबंधित मार्मिक पद मिलते हैं, जो तत्युगीन भक्तिभावना के परिचायक हैं ।
पूर्वमध्यकाल (भक्ति काल) में भक्ति की जो संत, सूफी, राम और कृष्ण काव्य की धारा प्रवाहित हुई थी, वह अविरल रूप से रीतिकाल में भी चलती रही । संत कवियों में यारी साहब, दरिया साहब, जगजीवन दास, पलटू साहब, चरनदास, शिवनारायण दास और तुलसी साहब (हाथरस वाले) के नाम उल्लेखनीय हैं । सूफी या प्रेमाख्यान कवियों में कासिमशाह, नूरमुहम्मद तथा शेख निसार के नाम उल्लेखनीय हैं । बोधा और चतुर्भुजदास ने भी प्रेमाख्यानक काव्य लेखन में यदाकदा योगदान दिया है । राम काव्य परम्परा में गुरु गोविन्द सिंह, जानकी रसिक शरण, जनकराय, किशोरी शरण, भगवंत राय खींची, विश्वनाथ सिंह आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । रीतिकालीन कृष्णकाव्य में भक्ति की पवित्र धारा पर शृंगार हावी हो गया था । फलत: राधा-कृष्ण की आड़ में मानवी शृंगार का प्रचलन बढ़ा । प्रबंधात्मक कृष्ण-भक्ति-काव्य रचनाकारों में ब्रजवासीदास तथा मंचित कवि उल्लेखनीय हैं । रीतिकाल में मुक्तक कृष्ण-काव्य की बहुलता रही, ऐसे रचनाकारों में रूपरसिकदेव, नागरीदास, अलबेली अली , चाचा हितवृन्दावन दास आदि का नाम लिया जा सकता है । इस काल के अन्य भक्त कवियों में बख्सी हंसराज, संत तुकाराम, समर्थ रामदास का नाम भी उल्लेखनीय हैं ।
रीतिकाल में भक्ति-भावना को प्रतिष्ठित करने हेतु अथक प्रयास किए जा रहे थे । भक्तिकालीन निर्गुण और सगुन भक्ति से संबंधित विविध संप्रदायों के अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं की वंदना रीतिकालीन भक्ति-भावना की मुख्य विशेषता है । हिन्दू धर्म में कोई भी कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व गणेश वंदना का प्रावधान होता है, इस परंपरा को रीति-कवियों ने स्वीकार किया है । यही नहीं शिव, दुर्गा, काली आदि देव-देवियों की भी वंदना रीतिकाव्य में देखने को मिलता है । कविवर देव ने शिव के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि -
“भस्म भुजंग अंग डमरू कर त्रिनयन तिय अरधंग ।
मुंड माल गज छाल धर सीस जटा ससि गंग ।।”[11]
रीतिकवियों की मान्यता थी कि ईश्वर के प्रति भय एवं आस्था होने से ही मनुष्य को भक्ति के मार्ग में प्रवेश प्राप्त हो सकता है । दूर्वासनाओं एवं अनैतिकता के नाश के लिए भक्ति भावना से परिपूर्ण होना आवश्यक है । ईश्वर कि भक्ति का आश्रय प्राप्त करते ही मनुष्य के मन से अज्ञान रूपी समस्त अंधकार का नाश हो जाता है । उनका मानना था कि ईश्वर सदैव अपने भक्तों की रक्षा करते हैं । अत: ईश्वर कि भक्ति वह संबल है जिसका आश्रय लेकर मनुष्य समस्त संकटों से उबर सकता है । ईश्वर की भक्ति के अतिरिक्त अन्य सभी संबंध नश्वर एवं क्षणभंगुर हैं, इस नाशवान संसार में मात्र ईश्वर की भक्ति ही ऐसा वरदान है जो सदैव अपने भक्तों का कल्याण करता है । कविवर बिहारी ने अपने आराध्य को याद करते हुए लिखा है कि –
“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोई ।
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होई ।।”[12]
रीतिकवियों ने स्वीकार किया कि ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति ही मनुष्य को अज्ञान रूपी अंधकार से निकाल कर ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर अग्रसर करती है । सभी प्रकार के प्रेम में ‘ईश्वर-प्रेम’ को ही महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि ईश्वर से प्रीत करने से मन शुद्ध और पवित्रता होता है । ईश्वर के नाम स्मरण मात्र से ही मनुष्य का कल्याण संभव है । यदि मनुष्य सच्चे मन से ईश्वर के नाम का स्मरण करे तो वह भवसागर से पार हो जाता है । रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि घनानन्द ने ईश्वर भक्ति के साथ-साथ भक्तों के लिए हरि नाम का महत्व प्रतिपादित करते हुए कहा हैं कि -
“यह मन है हरि नाम तिहारो कहूं कबहूं सुधि भूली न लीजै ।”[13]
संत और सूफी काव्य धारा का सम्यक विकास रीतिकालीन काव्य में दृष्टव्य होता है । इस कालावधि में निर्गुण साधकों की भक्तिभावना शृंगार की अतिशयता से प्रभावित नहीं है । भक्तिकाल में कबीरादि के द्वारा जिस भक्ति-भाव का निरूपण किया गया था, उसका सहज विकास रीतिकाल में देखने को मिलता है । संतकाव्यधारा तुलनात्मक रूप से इस काल की सबसे निर्मल काव्यधारा है, जिसमें रीतिवादी मानसिकता का असर नहीं दिखता है । इनका काव्य भक्तिकाल के संत काव्य से मिलता जुलता है जिस पर शंकर के अद्वैतवाद और नाथों के हठयोग परंपरा का प्रभाव देखा जा सकता है । नाथ-सिद्धों की वाणियों से प्रभावित दरिया साहब कहते हैं कि – “जात हमारी ब्रह्म है, माता पिता है राम । गिरह हमारा सुन्न में, अनहद में बिसराम ।।”[14]
रीतिकाल की संतकाव्यधारा की विशेषता यह है कि इसमें नारी को अधिक सम्मान दिया गया है । इस दृष्टि से रीतिकालीन संत-काव्यधारा भक्तिकाल के संतकाव्य पर भारी पड़ता है । नारी के महत्त्व को उजागर करते हुए रीतिकालीन संत कवि दरिया साहब कहते है कि –
“नारी जननी जगत की, पाल पोस दे तोष ।
मुरख राम बिसार कर, ताहि लगावत दोष ।।”[15]
रीतिकाल में सूफ़ी काव्य भी लिखा गया । इस कालावधि में सूफी काव्यकारों की संख्या अपेक्षाकृत कम है । इस काल के प्रमुख सूफी कवि हैं – कासिमशाह, नूर मुहम्मद, शेखनिसार आदि । भक्ति-भावना की दृष्टि से इन कवियों का प्रेमाख्यान जायसी के पद्मावत का क्रमिक विकास है । इस काल के सूफी कवियों का झुकाव ब्रह्म और जीव के दार्शनिक सिद्धांतों की ओर अधिक रहा है । सूफियों ने एकेश्वरवाद तथा अद्वैतवाद का जो सामंजस्य प्रस्तुत किया है, वह काल और देश की सीमाओं से मुक्त, चिरंतन सत्य का प्रदर्शन प्रस्तुत करता है । कासिमशाह ने ‘हंस जवाहिर’ तथा नूर मुहम्मद ने ‘अनुराग बाँसुरी’ जैसी प्रसिद्ध कविताएँ इसी कल में रची गई । इस काल में कई हिन्दू कवि भी प्रेमाख्यानक काव्याधारा में शामिल रहे , जिसमें दुखहरण दास सबसे प्रसिद्ध हैं । इस काल के सूफ़ी काव्य में न तो भक्तिकाल जैसी रंगत है न तड़प । यहाँ ‘प्रेम की पीर’ कुछ संकीर्ण हो गई है और कहीं-कहीं तो सांस्कृतिक समन्वय की चेतना के आधार पर सांप्रदायिकता की बू आने लगी है । उदाहराण के लिए, नूर मुहम्मद के निम्न काव्य-पंक्ति को देखा जा सकता हैं –
‘जहँ इसलामी मुख सो निसरी बात,
तहँ सकल सुख मंगल कष्ट नसात ।’[16]
संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के काव्य में लौकिक शृंगारिक लीलाओं के वर्णन मिलते हैं । इसी के अनुकरण पर जयदेव की ‘गीत-गोविंद’ और विद्यापति की ‘पदावली’ की रचना हुई थी । सूर में भी यही शृंगारिक भावना पल्लवित हुई; परंतु भक्ति का आवरण धारण कर अलौकिक बन गई । रीतिकाल में विलासपूर्ण जलवायु पाकर ये शृंगारिक भावनाएँ वृक्ष की भांति लहराने लगी थीं । कामशास्त्र और फारसी-काव्य की ऊहा का भी इस शृंगारी वृत्ति को बढ़ाने में यथेष्ठ हाथ रहा । अत: यह कहना असंगत है कि भक्तिकाल के कृष्ण भक्त-कवियों के शृंगारिक-चित्रण ने ही रीतिकालीन कवियों को राधाकृष्ण के घोर विलासी रूप का चित्रण करने की प्रेरणा प्रदान की थी ।
भक्तिकाल के अधिकांश कृष्ण-भक्त-कवि वात्सल्य, माधुर्य और सख्य भाव से ओत-प्रोत थी । नन्द-नंदन कृष्ण के मधुरकांत पक्ष अत्यंत प्रबल हो चुका था । कृष्ण भक्ति के क्षेत्र में निम्बार्क, बल्लभ, राधाबल्लभ एवं सखी संप्रदायों की प्रतिष्ठा हो चुका था । ये सभी संप्रदाय रीतिकाल में भी विद्यमान थीं । भक्ति के क्षेत्र में रसिकता के जिस भाव का बीजारोपण चैतन्य संप्रदाय ने किया तथा जिसे राधाबल्लभ संप्रदाय का प्रश्रय मिला; रीतिकालीन भक्ति-भावित काव्यों में उसका सर्वतोमुखी विकास हुआ । रीतिकालीन कृष्णोपासना में युगालोपासना का स्वरूप अधिक सुदृढ़ हुआ । सखी का सेवा क्षेत्र शयन-शैय्या तक माना गया । भक्तों का उद्देश्य सखी पद प्राप्त कर राधा-कृष्ण के केलिकीड़ा व रासलीला से आनंद प्राप्त करना था । रीतिकालीन भक्ति-भावना में मुक्ति की कामना नहीं की गई हैं; यहाँ युगालोपासना सर्वोच्य कोटि की भक्ति है । भोग्य होने के कारण कृष्ण भक्ति से संबंधित संप्रदायों में अधिकांशत: राधा का महत्त्व कृष्ण से अधिक माना गया है । रीतिकालीन कृष्ण भक्ति-काव्य में युगलोपासना की प्रतिष्ठा हो चुकी थी । कोई भी संप्रदाय युगलोपासना से वंचित नहीं था । रीतिकालीन कवियों ने राधा-कृष्ण के मधुर व्यक्तित्त्व को अपने भक्ति-भावना का आधार बनाया । उनके द्वारा राधा-कृष्ण की अलौकिक प्रेम-लीलाएँ साधारण विलासी युगल की लौकिक लीलाओं के रूप में चित्रित की गई । रीतिमुक्त कवि घनानंद ने होली की मस्ती को ‘प्रिय देह अछेह भरी दुति देह, दियैतरुनाई केतेह तुली’ से तुक देते है तो रीतिबद्ध कवि पद्माकर कृष्ण संग गोपियों की होली की मस्ती को लौकिक रूप से लोक के लिए प्रस्तुत करते हैं –
छीनि पितंबर कम्मर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाय, कही मुसुकाय, लला फिर खेलन आइयो होरी ।।”[17]
कृष्ण भक्त कवियों के लिए उनके आराध्य और उनका मंदिर ही सब कुछ है । वृंदावन स्वर्ग है, जहाँ भगवान कृष्ण अखंड लीला में रत रहते हैं । राधा ब्रह्म की शक्ति और गोपियाँ जीवात्माएं हैं । यही इन भक्तों का संसार है । मधुरा भक्ति के अनुयायी होने के कारण इन भक्तों ने कृष्ण के मधुर रूप की उपासना की । इस धारा में प्रेम की प्राधानता थी; क्योंकि कृष्ण की भक्ति रागानुगा-पद्धति की भक्ति थी, जिसमें प्रेम को ही एकमात्र आधार माना जाता है । जहाँ प्रेम की प्रधानता तथा श्रद्धा का आभाव होता है, वहाँ भक्ति कालांतर में, लौकिक ऐन्द्रिक भावना में परिणत हो जाती है । शुक्ल जी का मत है कि ऐसी स्थिति में ‘भक्ति इन्द्रियोपयोग की भावना से कलुषित हो जाती है । भक्ति की निष्पत्ति जहाँ श्रद्धा या पूज्य बुद्धि का अवयव – जिसका लगाव धर्म से होता है – छोड़कर केवल प्रेम-लक्षणा भक्ति ली जाएगी, वहाँ वह अवश्य विलासिता से ग्रस्त हो जाएगी । ... वैष्णवों की कृष्ण-भक्ति शाखा ने केवल प्रेम-लक्षणा भक्ति ली, फल यह हुआ कि उसने अश्लीलता की प्रवृति जगाई ।‘ हिंदी साहित्य के कृष्ण भक्ति परंपरा में (विशेषकर रीतिकाल में) राधा को सर्वशक्ति स्वरूपा स्वीकार करते हुए अधिक महत्व प्रदान किया गया है । राधा के स्वरूप से ही कृष्ण का अस्तित्व माना गया है । राधा की वंदना एवं अर्चना करने से मानव जाति का कल्याण संभव है । राधा के स्वरूप को महत्व प्रदान करते हुये कविवर किशोरीदास ने रीतिकाव्य में भक्ति की धारा को प्रवाहित किया है -
“रे मन राधे राधे राधे रटि निस भोर ।
तजि उपाधि साधन करि संतत जनम रहित नव नित्य किसोर ।।”[18]
भक्तिकालीन कृष्ण भक्त कवियों की उपासना पद्धति में भोग, राग तथा विलास की सामग्री का प्रदर्शन था । प्रात: से संध्या तक ये भक्त और पुजारी भगवान् कृष्ण की दैन्दिनी लीलाओं का आयोजन और गायन करते थे । वैभव और विलास की प्रचुर सामग्री और शृंगार के रसीले, मादक वातावरण से मंदिर गूंजते रहते थे । भगवान् के राजसी ठाठ थे । अत: भगवान के इस वैभवपूर्ण और विलासी जीवन के चित्र इन भक्त-कवियों के काव्य में साकार हो उठा है । इन भक्तो ने राधा और गोपियों के माध्यम से अपने ह्रदय की उत्कट विरह-वेदना व्यक्त की है, संयोग वर्णन में उन्होंने राधा-कृष्ण के मादक और मार्मिक चित्र खींचे हैं । इनके काव्य में भक्ति का वास्तविक आवेश है परंतु भक्ति-भावना से शून्य साधारण जनता इस आवेश को समझ और ग्रहण न कर सकी थीं क्योंकि वे इन लीलाओं का अध्यात्मपरक अर्थ समझने में असर्मथ थे । उन्होंने इन लीलाओं को लौकिक लीला समझा, परिणामस्वरूप परवर्ती काव्य (रीतिकालीन काव्य) में राधा-कृष्ण को आराध्य मानकर वासना का नग्न रूप मुखरित हो उठा । कविवर बिहारीलाल के पुत्र श्रीकृष्ण कवि ने कृष्ण द्वारा राधा को पान खिलाने का वर्णन करते हुए दोनों (राधा-कृष्ण) के मानसिक उद्वेलन का सुंदर चित्रण किया है –
“आज दुहूँ को बिलास अली मैं दुरै दरश्यो कहते नहिं आवत,
नदंलाल अति ही हठकै वृषभानु कुमारि को पान खवावत ।
ओठन सो बिय अंगुलि ह्वै मुसकाय के नैन सो नैन मिलावत,
नासिका मोरि मरोरि कै भौंह करै तिय नाहि त्यों त्यों सुख पावत ।।”[19]
मंदिरों के उस भोग-विलासी वातावरण का प्रभाव वहाँ रहने वाले सेवक-सेविकाओं पर भी पड़ता था । जब भगवान् ही विलासी हैं तो उसके सेवक क्यों न विलासी बनें ? इस विलासी वातावरण का ऐसा घातक प्रभाव पड़ा कि क्रमश: राधा-कृष्ण का देवत्व तिरोहित होता चला गया और कालांतर में, हिंदी के शृंगारकालीन कवियों के चुंगल में फँसकर वे साधारण नायक-नायिका मात्र रह गए । वे विद्यापति के राधा-कृष्ण के सामान पुन: लौकिक रति-क्रीड़ा में व्यस्त हो उठे । इन तथाकथित भक्तों ने कहीं-कहीं लोक-निंदा के भय से राधा-कृष्ण के अलौकिक रूप का भी चित्रण किया; परंतु यह सब प्रवंचना मात्र था । उनके राधा-कृष्ण सदैव काम-पीड़ित युगल के रूप में ही विशेष स्पष्ट हुए हैं ।
रीतिकाव्य में ‘प्रेम के पीर’ नाम से जाने जानेवाले कवि घनानंद, बोधा, आलम जैसे स्वच्छंद-धारा के कवियों ने भी यदा-कदा राधा-कृष्ण को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर, शृंगार की ऐसी लौकिक धारा बहाई है जो अपनी गहनता के कारण अनुपम और अलौकिक-सी तो प्रतीत होती है, पर रहती लौकिक ही है । घनानंद, सुजान से प्रेम करते थे लेकिन आगे जाकर उनका सुजान प्रेम कृष्ण-प्रेम में परिणत हो गया । उन्होंने अपने काव्य में श्रीकृष्ण की लीलाओं का सुंदर वर्णन किया है । इन लीलाओं में राधा को विशेष महत्त्व दिया गया है । वह कृष्ण की शक्ति है और लीला प्रसारण में सहयोगिनी भी है । उनकी भक्ति-भावना में दांपत्य भक्ति की प्रधानता है । कहीं-कहीं वात्सल्य भाव भी प्रकट होता है । कविवर घनानंद ने राधा-कृष्ण के केलि-लीला को आधार बनाकर संयोग के चित्र भी खींचे हैं, जिनमें से एक निम्नलिखित है –
“द्रुम-बेलि-महारास-केलि-पगे करि दंपति के हिय को हरनै ।
कहि कौन सके दुति लेस कछु जिहि राधिया मोहनहूं बरनै ।।”[20]
रीतिकालीन कृष्ण काव्यधारा भी भक्तिकाल की तुलना में कमजोर नजर आती है । अष्टछाप के कवियों के साथ-साथ मीरा, रहीम एवं रसखान ने जिस ऊँचाइयों को छू लिया था, उसके बाद उस परंपरा को और ऊँचा उठाना संभव नहीं था । इस काल के प्रमुख कृष्ण भक्त-कवियों में गुमान मिश्र (कृष्णचंद्रिका), ब्रजवासीदास (रसविलास), तथा कृष्णदस (माधुर्यलहरी) शामिल हैं । इनके अतिरिक्त पद्माकर जैसे रीतिबद्ध, बिहारी जैसे रीतिसिद्ध कवियों और घनानंद जैसे रीतिमुक्त कवियों ने भी कृष्णकाव्यधारा में योगदान दिया है । इन सभी कवियों ने कृष्ण काव्यधारा को इसलिए चुना क्योंकि यही काव्यधारा प्रेम-भाव की अभिव्यक्ति के लिए सुलभ थी । इस काव्यधारा के प्रेम-भाव को निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों में देखा जा सकता है जो रीतिकालीन भक्ति-भावना के साथ ही तत्युगीन सामंती समाज का भी चित्रण करता है –
“या अनुराग की फाग लखौ, जहँ राजत राग किसोर किसोरी ।
गोरिन के रंग भिजिगो साँउरी, साँउरो के रंग भिजियो गोरी ।।”[21]
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“ऐरी रूप अमाधे राधे, राधे राधे राधे राधे ।
तेरी मिलिवे को ब्रजमोहन, बहुत जातां है साधे ।।”[22]
रीतियुगीन राम-भक्ति का स्वरूप भक्तिकालीन रामकाव्य धारा से भिन्न प्रतीत होता है । तुलसी के समकालीन रामभक्त मर्यादावादी थे तथा वे हनुमान से आत्मसात करके दास्य-भक्ति परक पदों का प्रणयन करते थे । मर्यादावादी रामभक्ति की छाया में राम का मधुर रूप भी पनप रहा था जो रीतिकाल के पूर्व प्रकाश में नहीं आया था; जिसका मुख्य कारण तुलसी के प्रखर व्यक्तित्व एवं भक्ति-भावना के संमुख साहित्येतिहासकारों या रामभक्ति काव्य के आलोचकों का ध्यान रामभक्ति के मधुर रूप की ओर नही गया था । सोलहवीं शताब्दी में अग्रदास ने रामभक्ति के माधुर्योपासना को एक संप्रदाय का रूप दिया था । उत्तरोत्तर उक्त परंपरा का इतना विकास हुआ कि रीतिकाल तक आते-आते यह रामभक्ति काव्य पर आधिपत्य स्थापित कर लिया । इस काव्य धारा में राम के किशोर तत्व की प्रतिष्ठा होने के कारण रसिकोपासना की प्रधानता दृष्टव्य हुआ । रामभक्ति के रसिक काव्य में उपास्यदेव साकेत निवासी दशरथ पुत्र रामचंद्र हैं । वे साकार भी हैं और निराकार भी । सीता उनकी परमशक्ति है जिनके अंश से अनेक शक्तियाँ उत्त्पन्न होती है । इस संप्रदाय में सखी भाव की उपासना पद्धति को उपासना का मुख्य तत्व माना गया है । सखी भाव के स्वकीया और परकीया दोनों रूपों की स्वीकृति प्रस्तुत मत में उपलब्ध है । भक्तों का सीधा संबंध राम से नहीं होता; वे सीता के माध्यम से राम तक पहुँचते हैं । माधुर्योपासना से प्रभावित गोप कवि के पदों में सीता-राम के ‘नित्य विहारी’ स्वरूप का उल्लेख निम्नलिखित है -
“रामचंद्र सीता सहित वन में करत विहार ।”[23]
रीतिकालीन रामभक्ति काव्यधारा में राम के मर्यादावादी स्वरूप का ध्यान अधिक रखा गया है । रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने राम के परंपरागत मर्यादा पुरुषोत्तम रूप ही ग्रहण किया है । दुष्टों का दलन करने वाले राम की विभिन्न लीलाओं का वर्णन करते हुए रीति-कवियों ने भक्ति परंपरा का पूर्ण निर्वाह किया है । राम के शौर्य-शील आदि का वर्णन करते हुए कवियों के कहा है कि उनके अवतरित होने का मुख्य उद्देश्य लोकमर्यादा का रक्षा करना है । वे सत्पुरुषों को सुख देने वाले तथा दुर्जनों का नाश करने वाले हैं । इन्हीं के प्रकाश से संसार आलोकित है । अधिकांश रीतिकालीन कवियों की राम-भक्ति में दास्य भाव की प्रधानता है । रीतिबद्ध कवि भिखारीदास राम के चरणों में सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं तथा तुलसी की भांति अनाथ बनकर भीख मंगाते है । ‘काव्य निर्णय’ में भिखारीदास ने हनुमान, जामवंत आदि के आश्रयदाताओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि –
“मैं हौं अनाथ अनाथानि मैं इक तेरोई नाम न दूजे सहायक ।
मंगन तेरो को मंगन सौं कलपद्रुम आजु हौं माँगिवे लायक ।।”[24]
रीतिकाल में विष्णु के अवतरित राम-कृष्ण से इतर देवी-देवताओं का अंकन भी खूब हुआ है । लोक-मानस में उपस्थित अनेकानेक देवी-देवताओं में से अधिकाधिक का चित्रण रीति-कवियों ने अपने-अपने मान्यताओं के अनुसार किया है । रीतिकाव्य-धारा के कवियों को किसी एक देवी-देवता का उपासक कहना कठिन है । इनके काव्य में प्रसंगवश एकाधिक देवी-देवताओं की उपासना है । इन देवी-देवताओं में राधा-कृष्ण और सीता-राम के अतिरिक्त शिव, सरस्वती, गणेश, भवानी, दुर्गा, काली, पार्वती, सूर्य आदि के साथ ही साथ अन्य लोक-मान्यताएँ जैसे – पशु-पक्षियों, नदियों, वृक्षों आदि के प्रति भी रीतिकाव्यकारों ने अपनी भक्ति-भावना व्यक्त की है । कवि जोधराज ने शिव के परंपरात स्वरूप का वर्णन करते हुए उनके प्रति विन्रम भावों की अभिव्यक्ति की है । उनके ग्रंथ ‘हम्मीररासों’ में जटा, विष, विषधर, त्रिनेत्र, चंद्र, गंगा आदि से सुसज्जित शिव का स्मरण कल्याकारी है –
“नमामि ईस संकर जटी पीनाकयं हरं ।
सिव त्रिसुल पाणिय, बिंभ प्रभु सुजाणिय ।।
त्रिनेत्र अग्नि भालायं, गले सुमुंडमालायं ।
भवानी बाभ भागयं, ललाट चंद्र लागयं ।।”[25]
निष्कर्ष : निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि परंपरा प्रेरित भक्तिकाव्य की प्राणवान धारा भक्तिकाल के साथ ही सूख नहीं गई, वह रीतिकाल में भी प्रवाहित होती रही । भक्ति की भावना इन कवियों के काव्य में उतना अधिक विकास नहीं पा सकी जितना सूर, तुलसी, कबीर, जायसी जैसे भक्तिकालीन कवियों के काव्य में मिलती है । इस काल में यह उतनी सपन्न तो नहीं रही जितनी भक्तिकाल में थी; किन्तु कुछ क्षेत्रों (जैसे संत काव्य में नारी के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण तथा लोकमानस में उपस्थित सभी देवी-देवताओं की उपासना) में भक्तिकाल की सीमाओं को तोड़ती हुई नजर आती है । रीतिकालीन कवि सभी देवी-देवताओं को पूजते थे । वे किसी प्रकार के भेद भाव नहीं मानते थे । इसी कारण रीतिकाल में स्थिर रहने वाली भक्ति परंपरा का उदय नहीं हो पाया । रीतिकाल का कोई भी कवि भक्ति-भावना से हीन नहीं है - हो भी नहीं सकता था; क्योंकि भक्ति उसके लिए एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता थी । यही कारण है कि पद्माकर जैसे रीतिवादी कवियों ने भी जीवन के उत्तरार्द्ध में भक्ति की राह पकड़ ली थी । उन्होंने लिखा है - ‘यो जगजीवन को है यहै फल, जो छल छाँड़ि भजै रधुराई ।’ यही कारण है कि रीतिकाल के सामाजिक जीवन और काव्य में भक्ति का आभास अनिवार्यत: वर्तमान है और नायक-नायिका के लिए बार-बार हरि और राधिका शब्दों का प्रयोग किया गया है । रीतिकालीन भक्ति-भावना धर्म से विलग होकर ऐहिक रूप में विकसित होती है । उसके लिए धर्म और दर्शन की प्रेरणा सार्थक नहीं रही और एक माने में वह अधिक मानवीय कविता का स्रष्टा है जिसका पूरक रूप आधुनिक काल में खुलता है। आधुनिक काल में यह धारा भारतेंदु युग में देश-प्रेम से संबंधित हो गया और द्विवेदी युग तक आते-आते आधुनिकता का असर इतना गहरा हुआ कि ईश्वर भक्ति का स्थान देश-भक्ति ने ले लिया।
संदर्भ :
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डॉ. गुड्डू कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जे. एस. विश्वविद्यालय, शिकोहाबाद, य़ू०पी०
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