शोध आलेख : लोकजागरण और नवजागरण / विवेक कुमार तिवारी

लोकजागरण और नवजागरण 
विवेक कुमार तिवारी

शोध सार : भारतीय इतिहास और ख़ास तौर पर हिंदी साहित्य के इतिहास में दो ऐतिहासिक घटनाओं का युगांतरकारी महत्त्व है। ये घटनाएँ हमेशा चिन्तन और चर्चा के केंद्र में रहीं। इनमें पहले का सम्बन्ध मध्यकाल से है और दूसरे का सम्बन्ध आधुनिक काल से है। सर्वमान्य रूप से मध्यकाल से सम्बन्धित घटना कोलोकजागरणऔर आधुनिक काल से सम्बन्धित घटना कोनवजागरणकहा जाता है। ऐतिहासिक रूप से इन घटनाओं की ख़ास बात यह थी कि इनकी व्याप्ति अखिल भारतीय थी। लेकिन जब हम हिंदी भाषा-भाषी समाज में जागरण की बात करते हैं, तब हमारे सामने भारत के हिंदी प्रदेश का जीवंत भूगोल ही उपस्थित होता है। सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर यह ज्ञात होता है कि भारत की विविध भौगोलिक और भाषाई इकाईयों के अंतर के बावजूद भी एक अंत: सम्बन्ध इनके बीच मौजूद है। भले काल-प्रवाह की दृष्टि से विविध इकाईयों में ये घटनाएँ थोड़ा आगे-पीछे घटती रहीं, पर संवाद की दृष्टि से इनके मध्य कोई विशेष अंतर या दुराव नहीं है। अपने युग को आन्दोलित कर भारतीय समाज, संस्कृति और ज्ञान परम्परा के विकास तथा स्वत्व की पहचान को निश्चित करने के क्रम में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पर इस सम्बन्ध में कुछ सवाल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे- लोकजागरण और नवजागरण की संज्ञाएँ क्या इनके चरित्र के अनुरूप ठीक हैं? वह कौन से तत्व थे, जो इन दोनों के बीच अंतर को स्पष्ट करते हैं? वह कौन से अंत: सूत्र थे, जो दोनों के मध्य समान रूप से काम कर रहे थे? किस प्रकार भक्तिकालीन लोकजागरण आगे चलकर नवजागरण के रूप में विकसित होता है? एक जागृत आन्दोलन के रूप में उन्हें सफलता मिली या असफलता? यह सब अध्ययन और विश्लेषण का विषय है। इस शोध आलेख में यथासम्भव इन सवालों को हल करने का प्रयास किया गया है।

बीज शब्द : लोकजागरण, नवजागरण, जनजागरण, मध्यकाल, आधुनिक काल, सामंतवाद, साम्राज्यवाद, राज्य-क्रान्ति, एनलाइटेंमेंट, रेनेसां, भद्रलोक, आन्दोलन, लोकधर्म, लोकभाषा, लोकजीवन आदि।

मूल आलेख : हिंदी साहित्येतिहास के मध्यकाल अर्थात् चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के कालखण्ड को भक्तिकाल और दो शताब्दियों के अन्तराल के बाद उन्नीसवीं शताब्दी से शुरू होने वाले कालखण्ड को आधुनिक काल के रूप में जाना-समझा जाता है। इन दोनों कालखण्डों के अन्तर्गत तद्युगीन परिस्थितियों के सापेक्ष भारतीय समाज में एक ख़ास किस्म की जागृति और स्वत्व विकास की प्रेरणा दिखाई देती है। इनकी अपनी कुछ जातीय विशेषताएँ थीं, जिन्हें लक्ष्य करते हुए डॉ० रामविलास शर्मा ने इन्हें लोकजागरण और नवजागरण की संज्ञाओं से अभिहित किया। लेकिन प्रथमतया तो प्रश्न यही उठता है कि लोकजागरण को लोकजागरण और नवजागरण को नवजागरण कहना क्या ठीक है? तात्विक रूप से देखा जाए तो मध्यकाल का जागरण केवल लोक का जागरण भर नहीं है। आचार्य शुक्ल जिसजनतापर इस्लाम के प्रभाव द्वारा भक्ति आन्दोलन के उद्भव की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, उस जनता में लोक के साथ अन्य सभी वर्गों के जनमानस की चितवृत्ति शामिल है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जिसलोककी प्रधानता को स्वीकार करते हैं, वहाँ वे अन्य वर्गों को सीधे-सीधे खारिज़ कर देते हैं। भक्ति आन्दोलन के उद्भव की जो उनकी व्याख्या है, वह लोक और शास्त्र के संघर्ष को सूत्र रूप में व्याख्यायित करने का प्रयास है। दूसरी बात उन्नीसवीं शताब्दी का नवजागरण तो अधिकांश रूप में यूरोप केएनलाइटेंमेंटअथवाज्ञानोदयसे प्रेरित दिखाई देता है और जिसरेनेसांके आलोक में आधुनिक काल को नवजागरण कहा गया, उसकी असल प्रेरणा तो मध्यकाल के भक्ति आन्दोलन में लक्षित होती है।

            नामवर सिंह के अनुसार- “डॉ० रामविलास शर्मा ने पंद्रहवीं शताब्दी के भक्ति आन्दोलनलोकजागरणऔर उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक जागरण के लिएनवजागरणशब्द का प्रयोग किया है। इन शब्दों के बदले और नए शब्दों को गढ़ने की अपेक्षा इन्हीं शब्दों को प्रचलित करना बेहतर है और सुविधाजनक भी। लोकजागरण और नवजागरण से पंद्रहवीं शताब्दी और उन्नीसवीं शताब्दी की सांस्कृतिक प्रतिक्रियाओं के बीच परम्परा का सम्बन्ध भी बना रहता है और अंतर भी स्पष्ट हो जाता है। इसके अतिरिक्त यूरोपीय इतिहास के अनावश्यक अनुषंग से मुक्ति भी मिल जाती है।[1] उपर्युक्त विचार में नामवर जी कोई ठीक-ठीक समस्या का समाधान नहीं बताते। पहली बात तो यह है कि लोक और नव शब्दों के मार्फ़त वे मध्यकाल और आधुनिक जागरण में सम्बन्ध तथा अंतर दोनों को व्याख्यायित कर देते हैं। दूसरी बात इन शब्दों के आलोक में यूरोपीय अनुषंग से दोनों जागरण को मुक्त भी बताते हैं, जबकि इसी लेख में लोकजागरण और नवजागरण सम्बन्धी उनके विश्लेषण एनलाइटेंमेंट और रेनेसां जैसे यूरोपीय प्रत्ययों से ही अंत: सम्बन्धित हैं।

            भक्ति आन्दोलन को यदिमध्यकालीन जागरणऔर आधुनिक आन्दोलन कोआधुनिक जागरणकहा जाए तो इसमें कोई विशेष समस्या नहीं दिखाई देती। साथ ही चौदहवीं शताब्दी और उन्नीसवीं शताब्दी की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिक्रियाओं के बीच परम्परा का सम्बन्ध भी बना रहता है और अंतर भी स्पष्ट हो जाता है। बिना यूरोपीय प्रत्ययों के इनकी व्याख्या करने पर किसी विदेशी सन्दर्भ का प्रभाव भी नहीं रह जाता। आखिरकार भक्तियुगीन जागरण के समय यूरोप का समाज भारतीय समाज की तुलना में कम सभ्य और पिछड़ा था। आधुनिक जागरण भी पूरी तरह यूरोपीय प्रत्ययों से प्रभावित था, वह कुछ अंशों में प्रेरित भले था। ध्यान देने वाली बात यह है कि आधुनिक जागरण साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में उपजा था, प्रभाव में नहीं। साथ ही अपने आन्तरिक सामाजिक-सांस्कृतिक जटिलताओं को हल करने के लिए भारतीय समाज स्वत: और अंत: प्रेरित हुआ था। हाल की कुछ मनगढंत स्थापनाओं ने इस तरह की वैचारिकी को पैदा किया है, जिसमें सब कुछ का श्रेय यूरोप को दे दिया जाता है। जैसे- वीरभारत तलवार पूरी स्पष्टताबोध के साथ यह स्थापना करते हैं कि- “भारतीय नवजागरण की खासियत यूरोपीय सम्पर्क से हासिल आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को आत्मसात् करके, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मुआफिक एक आधुनिक समाज बनाने की आत्म निर्भर कोशिशों में थी। नवजागरण की यह विशेषता 19वीं सदी के हिंदी-उर्दू प्रदेश में अपने सबसे कमज़ोर रूप में दिखाई देती है।[2] दरअसल वीरभारत तलवार की दृष्टि हिंदी प्रदेश के प्रति एक बनी बनाई सीमा का अतिक्रमण नहीं कर पाती। जाहिर है इस स्थापना से उनका पहला मंतव्य है कि भारतीय नवजागरण यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान से प्रभावित और परिचालित था, दूसरा नवजागरण का असल रूप उन्हें बांग्ला नवजागरण में ही दिखाई देता है। ऐसा करते समय वो नवजागरण की अखिल भारतीय व्याप्ति को सिरे से खारिज़ कर देते हैं। तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण बात वे भूल जाते हैं कि हिंदी प्रदेश का नवजागरण भक्तिकालीन लोकजागरण के सबसे निकट और एक परम्परा के विकास के रूप में दिखाई देता है। भक्तिकालीन आन्दोलन के नायक निम्न वर्ग के किसान और मजदूर तबके के लोग थे। सत्तावन की राज्य-क्रांति करने वाले हिंदी प्रदेश के नायक भी इसी वर्ग से थे। जबकि बांग्ला नवजागरण के अग्रदूतों और नायकों का उद्गम वहाँ के भद्र और शिक्षित वर्ग से था। ध्यान देने वाली बात है कि बंगाल के भद्रवर्ग का लोक के साथ कोई सीधा सरोकार था।

            लोकजागरण और नवजागरण को एकदम अलग-अलग मानकर देखने से हम इन दोनों के असल चरित्र को स्पष्ट नहीं कर पाते। साथ ही मध्यकाल और आधुनिक काल के बीच जो अंतर्निहित जुड़ाव है, उसकी परम्परा से भी हम दूर भटक जाते हैं। इस विषय पर शंभुनाथ जी का कहना ठीक है- “भक्ति आन्दोलन और नवजागरण को एक दूसरे से विच्छिन्न करके नहीं, बल्कि निरंतरता में देखा जाना चाहिए। दोनों की समझ आपस में जुड़ी हुई है।[3] दरअसल दोनों जागरण कई स्तरों पर गहरे में जुड़ते हैं तो कई स्तरों पर इनके चरित्र में भिन्नताएँ भी स्पष्ट होती हैं। जुड़ाव की बात करें तो दोनों ही आन्दोलनों की व्याप्ति अखिल भारतीय थी। भक्ति आन्दोलन का मूल्यांकन करते हुए बच्चन सिंह ने लिखा है कि- “यह पहला भारतीय नवजागरण था जो कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से असम तक फैला हुआ था।[4] दोनों में समान बात यह थी कि दोनों में धर्म की अहम भूमिका रही। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीहिंदी साहित्य की भूमिकामें लिखते हैं- “जिन दिनों बौद्ध धर्म उत्तरोत्तर लोक-धर्म में घुल-मिल रहा था, उन्हीं दिनों ब्राह्मण-धर्म उत्तरोत्तर अलग होता जा रहा था।[5] द्विवेदी जी ने यहाँ लोक की शक्ति को रेखांकित किया है, जिसके आगे धर्म और पंथ भी झुकने को विवश हैं। लेकिन बौद्धों के घुलने-मिलने और ब्राह्मणों के अलग होने का कारण क्या था? ध्यान से देखा जाए तो बौद्ध मत की उत्पत्ति ही शास्त्र के विरुद्ध लोक के आवरण में हुई थी। आगे चलकर नागार्जुन आदि ब्राह्मणों के प्रवेश ने बौद्ध मत को भी एक जटिल धर्म बना दिया और उसे शास्त्रीय अनुशासनों में इस कदर बांधना शुरू किया कि भक्तिकाल की पूर्व पीठिका तक आते-आते वह खुद को पुन: लोक की ओर ले जाने को विवश होता है। इधर अधिकांश ब्राह्मण बौद्ध धर्म से निकलकर अपने सनातन धर्म के आधार ग्रंथों की टिकाएँ और भाष्य लिखना शुरू करते हैं। इसमें उनका केंद्रीय ध्येय इस्लाम और अन्य मतों के सामने खुद को श्रेष्ठ और सही सिद्ध करना था। शास्त्रीय ब्राह्मणों के बाहर निकलने पर बौद्ध मत का लोक की ओर झुकना बेहद स्वाभाविक बात थी।

            धर्म की प्रधानता भक्तिकाल के उदय के सन्दर्भ में भी है और यह सबसे महत्त्वपूर्ण है। आचार्य शुक्ल सीधे इस्लाम जैसे अन्य मज़हब के सापेक्ष भक्ति आन्दोलन को रखते हैं। आचार्य द्विवेदी जी शुक्ल जी के मतों का खण्डन करते हुए भी कहीं कहीं उनकी बातों से पूरी तरह इंकार नहीं कर पाते। सोलह आने में चार आने का स्वीकार दिलचस्प है। अपने विवेचन-विश्लेषण में आचार्य द्विवेदी, कई जगहों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस्लाम के प्रभाव को भी स्वीकार करते हैं। अपनी पुस्तकहिंदी साहित्य : उद्भव और विकासमें भक्तिकाल को सांस्कृतिक द्वन्द्व का काल घोषित करते हुए वे लिखते हैं कि- “जिस काल से हिंदी साहित्य बनना शुरू हुआ, वह काल भारतीय इतिहास का बहुत ही उथल-पुथल और परिवर्तन का काल है। इस समय देश की केंद्रीय शक्ति क्षीण हो गई थी और पश्चिम सीमांत से मुसलमानों का आक्रमण हो रहा था।..इस बार का आक्रमण एक विशिष्ट धर्ममत और संस्कृति का भी आक्रमण था।[6] कुल मिलाकर भक्तिकाल के उदय और भक्तिकालीन लोकजागरण में धर्म एक अहम भूमिका निभा रहा था। इस सन्दर्भ में शिवकुमार मिश्र जी लिखते हैं कि- “जहाँ तक मध्यकालीन आन्दोलन का सवाल है, वह मूलत: एक धार्मिक-सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में सामने आता है, सच पूछा जाए तो, अधिकांशत: एक धार्मिक आन्दोलन के रूप में ही उसकी पहचान हमें होती है।[7]

            आधुनिक युग के नवजागरण में भी धर्म की अहम भूमिका रही। इस युग के नायक और साहित्यकार धर्म से गहरे में जुड़े थे। भक्तिकाल में सनातन धर्म इस्लाम के सामने खड़ा हुआ था तो आधुनिक काल में ईसाई मत के। हिंदी प्रदेश के नवजागरण में तो ईसाई धर्म के विरोध का स्वर सहज सुना जा सकता है। सत्तावन की राज्य क्रान्ति ही धर्म की अवमानना को लेकर शुरू हुई। भले बाद मेंधर्म हिंसा तथैव के अलोक में क्रान्ति के दौरान उन्हीं कारतूसों का प्रयोग विदेशी शासन के खिलाफ़ किया गया यह तथ्य इस बात की ओर संकेत करता है कि धर्म अहम भूमिका में अवश्य था, लेकिन वही क्रान्ति का मात्र और मात्र कारण बिल्कुल नहीं था। बहरहाल भारतेन्दु युग और आधुनिक काल के लगभग साहित्यकार धर्म से जुड़े थे और उसपर लिख रहे थे। नवजागरण के अग्रदूत माने जाने वाले भारतेन्दु तो वैष्णव धर्म को भारत का राष्ट्रीय धर्म सिद्ध कर ही रहे थे। लेकिन बंगाल का अति शिक्षित भद्रलोक भी पीछे था, वह भी धर्म को अपनी भारतीयता और स्वत्व का प्रतीक मान चुका था। सन् 1840 ई० में ब्राह्मों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए अक्षय कुमार दत्त ने कहा था- “हम विदेशी शासन के अधीन हैं, एक विदेशी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं, और विदेशी दमन झेल रहे हैं, जबकि ईसाई धर्म इतना प्रभावशाली हो गया है गोया वह देश का राष्ट्रीय धर्म हो। मेरा हृदय यह सोचकर फटने लगता है।[8] इस तरह धर्म लोकजागरण और नवजागरण दोनों में एक आधारभूत और महत्त्वपूर्ण प्रेरक तत्व था। शंभुनाथ जी के अनुसार- “इसमें संदेह नहीं कि भारत में नवजागरण धर्म के परिसर से बाहर नहीं निकल पाया। इस देश के लोग शुरू से धार्मिक थे।[9] असल अर्थों में जनजागरण की इन दोनों परिधियों में धर्म जनता के स्वत्व की पहचान बन चुका था। धर्म अब कर्मकाण्ड और बाह्याचार से ऊपर उठकर विरोधी शक्तियों के खिलाफ़ अखिल भारतीय आन्दोलन के सशक्त हथियार के रूप में काम कर रहा था।

            लोकजागरण और नवजागरण की एक बड़ी और ध्यान देने वाली समानता है, आन्दोलन के रूप में इसको चरितार्थ करने वाले नायक किसान और मजदूर वर्ग के लोग थे। अक्सर मूल्यांकन करते हुए लोग गलती कर बैठते हैं और किसान तथा मजदूर का अर्थ निम्न वर्ग की दलित जातियों से ही लेते हैं। जबकि किसान और मजदूर में उच्च तथा निम्न दोनों वर्गों के वे लोग थे, जिनका आर्थिक आधार कमजोर था और जो सामंती व्यवस्था द्वारा समान रूप से शोषित थे। भक्ति आन्दोलन में क्या तुलसी, मीरा, सूर के स्वरों को भुला दिया जाना चाहिए? ये तो उच्च वर्ण से सम्बद्ध थे। क्या भक्ति आन्दोलन की सारी लड़ाई अकेले कबीर और रैदास आदि संतों ने लड़ी थी? जो निम्न वर्ण से सम्बद्ध थे। समस्या यह है कि भक्ति आन्दोलन और नवजागरण का जो वैचारिक मूल्यांकन किया जाता रहा है, वह आज भी स्वस्थ और तटस्थ भाव से नहीं बल्कि सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के खाँचे में ही किया जाता है। समग्रता में इनकी आलोचना प्रस्तुत नहीं की जाती। कहीं ऐसा जानबूझकर किया जाता है और कहीं इसके पीछे कुछ कारण भी होते है। जिसकी ओर संकेत करते हुए मैनेजर पाण्डेय ने लिखा है कि- “भक्तिकाव्य की व्याख्या हिंदी आलोचना के लिए आज भी चुनौती है। इसका एक कारण है भक्तिकाल की अपार सृजनात्मक समृद्धि। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा की कविता एक व्यापक आन्दोलन से जुड़ी हुई है, लेकिन उन सबकी कविता एक सी नहीं है। उनमें से हरेक की कविता का अपना विशिष्ट रूप, रंग और स्वर है। एक की कविता से निकलकर दूसरे की कविता में प्रवेश करना लगभग कविता की दूसरी दुनिया में पहुँचना है।[10] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ही विचारों के विकास के रूप में मैनेजर पाण्डेय भक्ति आन्दोलन को शास्त्र के विरुद्ध लोक के उत्थान की प्रक्रिया सिद्ध करते हुए लिखते हैं- “भक्ति आन्दोलन शास्त्रीय धर्म का विरोध करने वाले लोकधर्म के उत्थान का आन्दोलन है। उस लोकधर्म में उस युग के किसानों और दस्तकारों के विविध वर्गों-उपवर्गों की मिली-जुली भावनाओं की अभिव्यक्ति और दमनकारी सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध विद्रोह की चेतना है।[11] वे यह स्वीकार करते हैं कि यह आन्दोलन किसान और दस्तकारों के विविध वर्गों और उपवर्गों का था। जिसमें सभी वर्ण और वर्ग के लोग थे, जिनका सम्मिलित रूप से एक ही वर्ग था- शोषित का। उन्होंने सूर के काव्य में कृषक जीवन की विस्तार से चर्चा की है, जिसे ध्यानपूर्वक पढ़ा जाना चाहिए। डॉ० रामविलास शर्मा नवजागरण की शुरुआत करने वाले सन् सत्तावन की राज्य क्रान्ति के नायकों के सन्दर्भ में लिखते हैं- “इस संग्राम की चौथी विशेषता यह है कि इसका नेतृत्व उन किसानों ने किया जो फौज में सिपाहियों और सूबेदार के रूप में काम कर रहे थे।..लड़ने वाले किसानों में केवल उच्च वर्ण के हिन्दू नहीं थे, उनके साथ निम्न वर्ण के सैकड़ों आदमी थे। हिन्दुओं के साथ हजारों मुसलमान थे।[12]

            लोकजागरण और नवजागरण में केवल धर्म और निम्नवर्गीय नायकत्व की ही समानता नहीं थी, बल्कि कई अन्य स्तरों पर भी उनका जुड़ाव था। इन दोनों घटनाओं के बीच लगभग पाँच सौ सालों का एक लम्बा अंतराल था। इनके बीच लगभग दो सौ सालों का एक अन्य कालखंड भी था, जिसे हम रीतिकाल के नाम से जानते हैं। जिसकी अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राजनीतिक विशेषताएँ भी थीं। रीतिकाल इन दोनों कालखण्डों से सर्वथा भिन्न या महत्त्वहीन नहीं था बल्कि वह कई स्तरों पर इनको जोड़ने वाला था। आधुनिक युग को उद्वेलित और प्रेरित करने के लिए जो ज़मीन तैयार हुई, वह इसी कालखण्ड में हुई। डॉ० रामविलास शर्मा थोड़े व्यंग्य के लहज़े में ही सही पर उसे रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि- “जिस समय रीतिवादी कवि अलंकारों के और नायिकाओं के भेद-उपभेद गिनाने में लगे थे। उस समय इसी देश के सेठों से पैसा उधार लेकर, यहीं के सामंतों को कर्ज देकर, अंग्रेज व्यापारी अब केवल व्यापारी रहकर, हिन्दुस्तान के राजा बनने जा रहे थे।[13] अंग्रेजों के दमनकारी दख़ल ने उस ज्वालामुखी को पुनः जागृत कर दिया जो एक लंबे समय से सुगबुगा रही थी। अंग्रेज भी आए होते तो आधुनिक काल में परिवर्तन के लिए जनता आन्दोलित अवश्य होती, बशर्ते उसका रूप, रंग और कलेवर कुछ और होता। यह बात ठीक वैसी ही है जैसे भक्तिकाल में इस्लाम के आने से उसका चरित्र कुछ और होता। बाहरी दख़ल के बिना भी क्या लोकजागरण और नवजागरण का ठीक-ठीक वही स्वरूप और चरित्र होता? जिस रूप में आज हम उन्हें देखते हैं।

            नामवर जी ने लोकजागरण और नवजागरण में अंतर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- “उन्नीसवीं शताब्दी का नवजागरण भक्तिकालीन लोकजागरण से भिन्न इस बात में है कि यह उपनिवेशवादी दौर की उपज है, इसलिए इसकी ऐतिहासिक अंतर्वस्तु भी भिन्न है। यह उस लोकजागरण से इसलिए भी भिन्न है कि इसके पुरस्कर्ता और विचारक नए शिक्षित मध्यवर्ग के हैं, जिन्हें बंगाल में भद्रलोक की संज्ञा दी गई है। यह नया भद्रलोक भक्त कवियों की तरह तो सामान्य लोक के बीच से आया था और लोकजीवन से घुल-मिल पाने में ही सफल हो सका। इनमें से कुछ विचारों में लोकोन्मुख अवश्य थे, लेकिन आचार में लोक के साथ तादात्म्य स्थापित कर पाए। इस प्रकार भक्तिकालीन लोकजागरण की तुलना में इस नवजागरण का प्रसार भी सीमित था। इसका प्रभाव बहुत कुछ नए नगरों तक ही सीमित था।[14] नामवर जी की बातों को ध्यानपूर्वक देखा जाए तो पहली बात यह निकलकर सामने आती है कि इन दोनों जागरणों के मध्य कुछ मूलभूत स्तरों पर अंतर अवश्य था। इनकी ऐतिहासिक अंतर्वस्तु एकदम भिन्न थी। लेकिन हिंदी प्रदेश के नवजागरण का नायकत्व वे पूर्ण रूप से भद्रलोक को दे देते हैं। बड़ी आसानी से कह देते हैं कि व्यवहार के स्तर पर इनका लोक के साथ कोई तादात्म्य था। ऐसा कहते समय वे नवजागरण के अशिक्षित किसान और मजदूर वर्ग के नायकों को एकदम विस्मृत कर देते हैं। वे लगभग सभी किसान और मजदूर आन्दोलनों की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ करते हैं, जिन्होंने नवजागरण को मजबूती देने का काम किया था। वे भद्रलोक से आए उन नायकों को भी ख़ारिज कर देते हैं, जिनकी चेतना लोक से गहरे में जुड़ी थी। सबसे जरूरी बात एक स्तर पर वे लोकजागरण की तुलना में नवजागरण को ख़ास नगरों तक ही सीमित बताते हैं। जबकि यह सर्वमान्य और सामान्य बात है कि हिंदी प्रदेश कृषि और लोक प्रधान क्षेत्र रहा है। नवजागरण का आन्दोलन हिंदी प्रदेश के हर कोने से चरितार्थ हो रहा था। हिंदी प्रदेश ही नहीं कृषि और लोक प्रधान देश भारत वर्ष में इस आन्दोलन की व्याप्ति अखिल भारतीय थी।

            लोकजागरण और नवजागरण दोनों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि बहुत भिन्न थी। इसलिए दोनों का महत्त्व, सीमा और विस्तार अपनी-अपनी जगह निश्चित है। किसी एक की तुलना में दूसरे को सीमित या श्रेष्ठ बताने की कवायद ठीक नहीं। यदि गौर से देखा जाए तो एक तरफभक्तिकाल के पथ प्रदर्शकों ने अपने काल के सभी सामाजिक वर्गों के सामने प्रश्न चिह्न लगाए परन्तु संस्थाओं को स्वीकार करते हुए केवल नैतिक आपत्ति की कि इन संस्थाओं के संचालक अपने अधिकार और दायित्व का दुरुपयोग करते हैं।..इससे शासक वर्ग को कोई खतरा दिखाई नहीं देता। इस आन्दोलन के केन्द्र में अन्याय के प्रति रोष है, किन्तु विद्रोह नहीं।[15] कहने का भाव बस यही है कि युगानुरूप दोनों जागरणों की अपनी सीमाएँ और शक्तियाँ हैं, इसलिए किसी एक की तुलना में किसी एक को कमतर या सीमित आंकना सही नहीं है। भाषा के स्तर पर दोनों में एक अन्तर दिखाई देता है जो ध्यान देने योग्य है। भक्तिकाल में रचनाकारों ने संस्कृत और अपभ्रंश को छोड़कर लोक भाषाओं में लिखना शुरू किया। भाषाई विविधता की दृष्टि से यह काल बहुत समृद्ध था। बच्चन सिंह जी लिखते हैं- “भक्ति आन्दोलन के साथ देश के विभिन्न अंचलों में जातीय संघटन की शुरुआत भी हो जाती है। संस्कृत और अपभ्रंश का पल्ला छोड़ भक्तों ने देशभाषा में लिखना आरम्भ कर दिया।[16] इसके ठीक उलट आधुनिक काल के नवजागरण मेंएक देश एक भाषाका सवाल भी उठाया जाता है और हिंदी भाषा को उसके समाधान के रूप में देखा जाता है। हिंदी के लिए कई व्यापक आन्दोलन भी किए जाते हैं।

            लोकजागरण आगे चलकर किस प्रकार नवजागरण के रूप में विकसित होता है? यह समझना बेहद जरूरी है। इस सन्दर्भ में डॉ० रामविलास शर्मा लिखते हैं- “भारतेन्दु युग भारत में जनजागरण का पहला या प्रारम्भिक दौर नहीं है, वह जनजागरण की पुरानी परम्परा का एक ख़ास दौर है।[17] यहाँ रामविलास जी ने पुरानी परम्परा कहकर भक्तिकाल की ओर संकेत किया है। ख़ास दौर उन्होंने उसकी ऐतिहासिक अंतर्वस्तु की भिन्नता के कारण कहा है। भारतेन्दु युग के साहित्य और जन आन्दोलनों पर भक्तिकालीन जागरण का प्रभाव अवश्य था, कहीं यह मुखर और प्रत्यक्ष था तो कहीं अप्रत्यक्ष। यह प्रभाव भारतेन्दु युग तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि छायावाद से होता हुआ प्रगतिवाद तक पहुँचता है। मैनेजर पाण्डेय जी लिखते हैं- “निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन तो भक्तिकाल से कभी उदासीन नहीं रहे। भक्तिकाल के कवियों से उनका लगाव और उनकी कविता में भक्तिकाव्य की गहरी प्रतिध्वनियाँ जग-जाहिर हैं।[18] इस प्रकार भक्तिकालीन चेतना आगे नवजागरण के रूप में विकसित होती है।भक्ति साहित्य में संस्कृत के वृत्त अथवा वार्णिक छंदों की उपेक्षा, जातीय अथवा मात्रिक छंदों का प्रयोग किया गया।..ये छंद लोकभाषा और लोकजीवन से आए हैं।[19] भक्तिकाल का साहित्य शास्त्रीय छंदों की जकड़न से बाहर निकलकर जातीय और लोक छंदों की ओर रुख करता है और इसका विकास हम निराला के यहाँ मुक्त छंद के साहित्यिक आन्दोलन में बखूबी देख पाते हैं। रामविलास जी ने भक्तिकालीन लोकजागरण का मुख्य स्वर सामंतवाद विरोधी और आधुनिक नवजागरण का स्वर भी सामंतवाद विरोधी बताया है, इसमें साम्राज्यवाद विरोधी स्वर तत्कालीन परिस्थितियों से आया, जो नवजागरण की अपनी विशेषता भी है।

            भक्तिकालीन आन्दोलन की असफलता कहीं कहीं नवजागरण में अपनी समस्या का समाधान खोजती दिखाई देती है। भक्तिकालीन आन्दोलन के कमज़ोर होते जाने के कई कारण थे। लेकिन उसके सभी कारणों का अनुसंधान केवल सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के भीतर ही नहीं करना चाहिए।जो लोग भक्ति आन्दोलन की असफलता की वजह सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों में ढूंढते हैं, उन्हें भक्तिकाव्य के भीतर झाँककर देखना चाहिए। उसकी असफलता के कारण उसके भीतर ही मौजूद थे।..निर्गुणियों के काव्य में माया और नारी की निन्दा का, उससे परहेज़ का, संसार से उदासीनता और वैराग्य का जो विसंवादी स्वर है, वह भक्ति आन्दोलन की परिवर्तनकारी शक्ति को बैक गियर में डाल देता है।[20] इसी प्रकार आधुनिक युग का नवजागरण भी अपने कई लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाता, जिसका सबसे बड़ा कारण था- संगठन और एकता का अभाव। इसके अतिरिक्त भी बहुत से कारण थे, जिन्होंने नवजागरण को वह रूप और रंग नहीं पाने दिया, जो वास्तव में होना चाहिए था। इसके लिए भी केवल अंग्रेजी शासन को कोसना ठीक नहीं। हमारी खुद की अपनी बहुत सी सामाजिक और सांस्कृतिक जटिलताएँ थीं, जो इसके लिए ज़िम्मेदार थीं। बावजूद इसके लोकजागरण और नवजागरण का महत्त्व भारतीय इतिहास और संस्कृति के विकास क्रम में निश्चित है। इस सन्दर्भ में शिवकुमार मिश्र ने ठीक लिखा है- “एक समग्र राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष की खरी तथा सही पहचान कराने वाली अब तक दो ही ऐसी घटनाएँ घटित हुई हैं, जिन्हें प्रायः सभी ने महान् तथा युगांतरकारी घटनाओं के रूप में रेखांकित किया है।[21] असल बात तो यह है कि कोई भी आन्दोलन या जागरण कभी भी पूरी तरह असफल नहीं होता। वह अपने समय और समाज को किसी किसी रूप में अवश्य प्रेरित और उद्वेलित करता है।

निष्कर्ष : इस प्रकार हम देख पाते हैं कि भारतीय इतिहास में दो ऐसी युगांतरकारी घटनाएँ घटित होती हैं, जो व्यापक रूप से भारतीय समय, समाज और संस्कृति को प्रभावित करती हैं। एक का सम्बन्ध मध्यकाल से है तो दूसरे का सम्बन्ध आधुनिक काल से। अध्ययन की सुविधा के लिए क्रमश: इन्हें लोकजागरण और नवजागरण की संज्ञा से अभिहित किया गया। इन संज्ञाओं को लेकर उपर्युक्त लेख में विस्तृत बातचीत हो चुकी है। लेकिन इन दोनों घटनाओं को इन्हीं दोनों संज्ञाओं से इतनी अधिक बार और इतना ज़ोर देकर पुकारा गया है कि हमें इनका अध्ययन इसी रूप में करना पड़ता है। बहरहाल यह आन्दोलन भारत की नैसर्गिक विकास यात्रा के दो सोपान की तरह हैं, इनके पीछे भी भारतवर्ष आन्दोलित और जागृत होता रहा है, और आगे भी आवश्यकता पड़ने पर पुनः होगा। इनका महत्त्व इस बात में है कि इन घटनाओं ने भारतीय समाज को विकास की एक दृष्टि दी। इनमें कई स्तरों पर समानता थी तो कई स्तरों पर असमानता भी। इनमें धार्मिक समानता को रेखांकित करने का उद्देश्य यह है कि इन दोनों जागरणों को मात्र भौतिक आधारों पर ही व्याख्यायित और मूल्यांकित नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि धर्म और आध्यात्मिक चेतना इनके केन्द्र में काम कर रही थी। तमाम समानताओं और असमानताओं के बीच इनका अस्तित्व एक है। दोनों ने मानव एकता और स्वत्व के लक्ष्य को निर्धारित किया था, वर्ग और वर्ण से रहित एक समतामूलक स्वस्थ समाज की संकल्पना की थी। भक्तिकाल का लोकजागरण अपने उन तमाम प्रश्नों की तलाश आधुनिक युग के नवजागरण में करता है, जिनको वह हल नहीं कर सका था। इन दोनों जागरणों के कई ऐसे प्रश्न हैं, जो आज भी हल नहीं हो पाए हैं। जिन पर भारतीय समाज को विचार करना चाहिए।


सन्दर्भ :

[1] नामवर सिंह, हिंदी नवजागरण की समस्याएँ, हिंदी समय (-पत्रिका), महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, देखें-
https://www.hindisamay.com/content/3389/1/%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%B5%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9-%E0%A4%86%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%9A%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80-%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B0%E0%A4%A3-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%81.cspx
[2] वीरभारत तलवार, रस्साकशी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृष्ठ-30
[3] शंभुनाथ, भारतीय नवजागरण : एक असमाप्त सफर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2022, पृष्ठ-19
[4] बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2022, पृष्ठ-75
[5] हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1991, पृष्ठ-23
[6] हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृष्ठ-64
[7] शिवकुमार मिश्र, भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2015, पृष्ठ-16
[8] नामवर सिंह, हिंदी नवजागरण की समस्याएँ, हिंदी समय (-पत्रिका), महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा   
[9] शंभुनाथ, भारतीय नवजागरण : एक असमाप्त सफर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2022, पृष्ठ-28
[10] मैनेजर पाण्डेय, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृष्ठ-23
[11] वही,
[12] रामविलास शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2021, पृष्ठ-9
[13] रामविलास शर्मा, परम्परा का मूल्यांकन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृष्ठ-23
[14] नामवर सिंह, हिंदी नवजागरण की समस्याएँ, हिंदी समय (-पत्रिका), महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
[15] सम्पादक- कुँवरपाल सिंह, भक्ति आन्दोलन : इतिहास और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, 2021, पृष्ठ-67
[16] बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2022, पृष्ठ-75
[17] रामविलास शर्मा, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिंदी नवजागरण की समस्याएँ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2022, पृष्ठ-15
[18] मैनेजर पाण्डेय, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृष्ठ-19
[19] सम्पादक- कुँवरपाल सिंह, भक्ति आन्दोलन : इतिहास और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-139
[20] प्रेमशंकर, भक्तिकाव्य का समाजदर्शन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ-52
[21] शिवकुमार मिश्र, भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य, पृष्ठ
-15
 
विवेक कुमार तिवारी
शोधार्थी, हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालयवाराणसी, उत्तर प्रदेश, 221005
vivektt331@gmail.com9454690180
 
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

2 टिप्पणियाँ

  1. सुचिंतित आलेख। लोकजागरण की परंपरा और भक्ति काव्य के आसंग में विषय केंद्रित सटीक मूल्यांकन। बधाई हो।

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    1. विवेक कुमार तिवारीअप्रैल 16, 2024 12:49 am

      सादर धन्यवाद 🙏💐

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