आलेख : मराठी संतों का हिन्दी काव्य / प्रज्ञा शाकल्य

मराठी संतों का हिन्दी काव्य
प्रज्ञा शाकल्य

शोध सार : मराठी संतों ने हिन्दी काव्य प्रचुर मात्रा में लिखा है, मराठी भक्ति साहित्य में समय के साथ-साथ नए-नए संप्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ है, जिसके द्वारा एक विचारधारा प्रवाहित हुई है और संतों ने भिन्न-भिन्न संप्रदाय का अनुसरण किया । मराठी साहित्य को भक्ति के मार्ग की ओर प्रशस्त करने में तीन संप्रदाय प्रमुख रहें हैं - नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय और वारकरी संप्रदाय। इन संप्रदायों को मानने वाले संतों ने इनके सिद्धांतों का पालन करते हुए, आमजन को ध्यान में रखते हुए भक्ति मार्ग को सहज और सुलभ बनाया । मराठी संतों की विशेषता रही है कि ये समन्वयात्मक प्रवृत्ति को अपनाते हैं, सगुण-निर्गुण के खंडन-मंडन में न पड़कर समाज में व्याप्त ऊँच-नीच, सामाजिक विषमता का इन्होंने विरोध किया, समानता स्थापित करने का प्रयास किया और भक्ति भाव में लीन रहते हुए परमात्मा के सभी रूपों को स्वीकारा । इनमें से कुछ संत प्रमुख हैं- संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम, समर्थ रामदास आदि। इनके बारे में शोध लेख में विस्तृत चर्चा की गई है ।

बीज शब्द : संत, सगुण, निर्गुण, प्रादुर्भाव, नाथ, महानुभाव, वारकरी, संप्रदाय, प्रवृति, निवृति।

मूल आलेख : सर्वप्रथम जो मेरा विषय है “मराठी संतों का हिन्दी काव्य” उसमें संत शब्द को स्पष्ट कर देना आवश्यक है ।  हिन्दी साहित्य में ‘संत’ और ‘भक्त’ के लिए अलग-अलग शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं। निर्गुण की उपासना करने वाले को ‘संत’ और सगुण की उपासना करने वाले को ‘भक्त’ कहा जाता है परंतु मराठी साहित्य में ऐसी भिन्नता नहीं देखी जाती, मराठी साहित्य में सभी उपासकों को संत ही कहा जाता है क्योंकि इनकी मुख्य विशेषता है निर्गुणप्रधान-सगुणोपासना ।

संत नामदेव ने संतों की प्रवृति बताई है, उनका कहना है कि “जो सभी प्राणियों में परमात्मा को देखता है, जो सोने को मिट्टी और जवाहरात को पत्थर समझता है, जिसने अपने हृदय से क्रोध और वासना हटा दिया है, जो शांति और क्षमा को मन में स्थान देता है, जिसकी वाणी भगवान का नाम लेती रहती है, वह संत है”[1] । यहाँ संतों में निर्गुण-सगुण और द्वैत-अद्वैत का कोई वाद-विवाद नहीं, मराठी संतों ने समन्वयात्मक प्रवृति को अपनाया । इनके काव्य में दार्शनिकता, सरसता के साथ-साथ वैचारिक क्रांति भी लक्षित होती है। ये संत कवि सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि इन्होंने पूरे भारत की जनभाषा हिन्दी में काव्य रचना करके सम्पूर्ण भारत को अपने ज्ञान से आलोकित किया है । जहां उत्तर-भारत में लगभग सन् 1543 तक परंपरागत साहित्य की भाषा ‘ब्रजभाषा’ रही है, काव्य में खड़ी बोली का प्रयोग नहीं किया जा रहा था, वहीं पर मराठी संतों ने खड़ी बोली का व्यवहार किया, यद्यपि ये कहा जा सकता है कि इस खड़ी बोली का रूप आज की भाँति शुद्ध नहीं था तथापि हम कह सकते हैं कि उत्तर-भारत के संत कवियों से पूर्व मराठी संतों ने खड़ी बोली का व्यवहार किया । यह हिन्दी काव्य को मराठी संतों की महत्वपूर्ण देन है जिसे हम उपेक्षित नहीं कर सकते । आचार्य विनय मोहन शर्मा का कहना है कि उत्तर-भारत के ज्ञानाश्रयी हिन्दी-संतों ने जिस निर्गुण-धारा से देश के जन-मन को आप्लावित किया, उसका स्त्रोत वास्तव में मराठी संत नामदेव के हिन्दी-पदों में है”।

            महाराष्ट्र में 11वीं शताब्दी के लगभग अनेक संत कवियों का प्रादुर्भाव होता है जिनके साथ-साथ कई विचारधाराएँ उत्पन्न होती है। इसके आधार पर निम्नांकित भक्ति संप्रदाय अस्तित्व में आये जिन्होंने जनता को खूब प्रभावित किया है। ये संप्रदाय निम्न हैं -

      नाथ-संप्रदाय

      महानुभाव-संप्रदाय

      वारकरी-संप्रदाय

      दत्त-संप्रदाय

      समर्थ-संप्रदाय

            इनमें तीन प्रमुख हैं- नाथ संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय और वारकरी संप्रदाय । इन तीनों संप्रदायों ने मराठी साहित्य के भक्ति काव्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । इसके पूर्व अनेक देवी-देवताओं की उपासना की होड़ और अंधविश्वास से ऊपजी धार्मिक रूढ़ियाँ, कर्मकांड तथा जाति-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था के प्रति कट्टरता आदि समाज में व्याप्त थे, जिससे जनता भक्ति के मूल भाव को न समझकर धर्मांधता के कूप में डूबी हुई थी । जनता को इस कूप से निकालने का सारा श्रेय इन संतों को जाता है, जिनकी विचार-भूमि से उक्त संप्रदाय का आविर्भाव हुआ । नाथ संप्रदाय से पूर्व बौद्ध और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार हो चुका था, उनके मूल सिद्धांत अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, परोपकार आदि को नाथ संप्रदाय ने अपना लिया था, इस संप्रदाय ने वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था और छुआछूत  का घोर विरोध किया और सामाजिक समानता पर जोर दिया, इस संप्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ हैं । गोरखनाथ का समय ईसा की दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी माना जाता है । गोरखनाथ ने हठयोग और वैराग्य पर अधिक बल दिया जिसके कारण ये सभी के लिए अपनाना थोड़ा मुश्किल था । उनके एक शिष्य गहिनीनाथ थे जिन्होंने कृष्ण की सगुण भक्ति को इससे जोड़ दिया, परिणामतः जन साधारण हठयोग की अपेक्षा इस ओर ज़्यादा आकर्षित हुआ । इस संप्रदाय के प्रमुख संत हैं - मुकुंदराज, ज्ञानेश्वर, मुक्ताबाई, निवृतिनाथ, बिसोबा खेचर आदि ।

            महानुभाव संप्रदाय का उदय समानांतर रूप से तब हो रहा था जब नाथ संप्रदाय, वारकरी संप्रदाय में विलीन हो रहा था । महानुभाव संप्रदाय के प्रवर्तक हरपाल देव हैं जो गुजरात के रहने वाले थे, बाद में वो महाराष्ट्र चले आए और इन्होंने गोविंद प्रभु से दीक्षा प्राप्त की जिसके पश्चात वो चक्रधर नाम से विख्यात हुए । यह संप्रदाय बहुदेववाद के स्थान पर एकेश्वर पर विश्वास करता था, इस संप्रदाय के संतों ने हर तरह के भेदभाव का विरोध किया और समानता स्थापित की । इस संप्रदाय ने भक्ति और धर्म में स्त्री और शूद्रों के अधिकार का समर्थन किया ।

            इन सारे संप्रदायों में सबसे प्रमुख वारकरी संप्रदाय है जिसके संतों ने हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । यह सबसे समृद्ध और सशक्त संप्रदाय है, संत ज्ञानेश्वर ने इस संप्रदाय को सुव्यस्थित किया । वारकरी का अर्थ होता है ‘यात्रा करने वाला’ । जो पंढरपुर में स्थित विट्ठल की मूर्ति का दर्शन कर उपासना करते हैं, उन्हें ‘वारकरी’ कहा जाता है । इन्होंने आचरण की शुद्धता पर बल दिया है और अपने भक्ति का आधार अद्वैत दर्शन को माना है जिसमें ईश्वर और भक्त के बीच कोई भेद नहीं है । इसके प्रमुख संत हैं- ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ, जानाबाई, चोखामेला आदि। इन संतों एवं इनकी शिक्षाओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-

संत ज्ञानेश्वर 

            ज्ञानेश्वर ने अपने लेखन में मराठी भाषा को अधिक महत्ता दी है ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि इन्होंने मराठी के साथ-साथ हिन्दी में भी लिखा है। संत ज्ञानेश्वर, नामदेव के समकालीन थे । इन्होंने नामदेव के साथ पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण किया और चारों तरफ भक्ति, समता, सद्भाव का उपदेश दिया । इसी भ्रमण के क्रम में ये उत्तर-भारत की ओर भी गए, वहीं से इन्हें हिन्दी में लिखने की प्रेरणा मिली । विचारशील ज्ञानेश्वर समाज में व्याप्त कुरीतियों और अस्पृश्यता को देख कर चिंतित थे, वे जानते थे कि वर्ण-व्यवस्था और जातिगत भेदभाव से लड़ना कितना कठिन है, तथाकथित निम्न जाति अपने अधिकारों से वंचित है, उसे शास्त्र और विद्या ग्रहण की अनुमति नहीं है । इनके काव्य में भक्ति की उदारता है तो शास्त्र को चुनौती भी है । इनका मानना था कि ईश्वर सभी प्राणियों में निवास करता है, कबीर की भाँति संत ज्ञानेश्वर भी ईश्वर के निर्गुण-निराकार रूप की उपासना करते हैं, जिसे पोथी पढ़कर नहीं प्राप्त किया जा सकता बल्कि उसे देखने लिए एक विशेष अंतर्दृष्टि की आवश्यकता है-

            “सब घट देखो माणिक मौला
            कैसे न कहूँ मैं काला धवला ।
            पंचरंग से न्यारा होय
            लेना एक और देना दोय ।
            निर्गुण ब्रह्म भुवन से न्यारा
            पोथी पुस्तक भए अपारा ।
            कोरा कागद पढ़ कर जाए
            लेना एक और देना दोय ।
            अलख पुरुष मैं देखा वृष्टि
            कर कर भाउन समार मुष्टि”[2]


            ज्ञानेश्वर पर नाथ संप्रदाय का प्रभाव दिखाई देता है क्योंकि ये नाथ संप्रदाय में ही दीक्षित हुए थे परंतु इन्हें वारकरी संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है । कबीर ने जिस प्रकार गुरु की महत्ता को प्रतिपादित किया है वैसे ही ज्ञानेश्वर ने गुरु की महिमा को माना है, वे कहते है कि उस परम तत्व की प्राप्ति गुरु की कृपा से ही संभव है-

            “सोई कच्चा वे नहीं गुरु का बच्चा
            दुनिया तज-कर खाक रमाई, जाकर बैठा वन मों
            खेचरि मुद्रा वज्रासन मां ध्यान धरत है मन मों
            तीरथ करके उम्मर खोई जागे जुगति मो सारी
            हुकुम निवृति का ज्ञानेश्वर को तिनके ऊपर जाना
            सद्गुरु की (जब) कृपा भई तब आपहि आप पिछाना” [3]


इसी संदर्भ में कबीर के दोहे देख सकते हैं -

            कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय ।
            जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय ।। 

 

संत नामदेव

            संत नामदेव ने अपने जीवन का एक लंबा समय उत्तर-भारत में व्यतीत किया है, अतः इन्होंने हिन्दी में पर्याप्त काव्य रचना की हैं जिसमें से कई ‘गुरु-ग्रंथ साहिब’ में संकलित है । जब नामदेव का प्रादुर्भाव हुआ उस समय नाथ संप्रदाय और महानुभाव संप्रदाय पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो चुका था । नाथ पंथियों की योगसाधना और महानुभाव संप्रदाय का बहुदेववाद जनसाधारण का मन नहीं बांध सका और वे भक्ति के सरल और सुगम मार्ग की ओर आकर्षित हुए । नामदेव के समय में समाज में धर्म का बोलबाला था, मौलवी और पंडितों ने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए कर्मकांड, धार्मिक आडंबर को हथियार बनाया । जब नामदेव हिन्दू-मुस्लिम पर उनके किए गए ढोंग और बाह्य आडंबर के लिए व्यंग करते हैं अनायास ही कबीर स्मृत हो आते हैं, कदाचित कबीर के तेवर इन्हीं के प्रभाव से हो-

            “हिन्दू अंधा तुरकू काणा दोहा ते गियानी सियाना ।।
            हिन्दू पूजै देहुरा मुसलमान मसीत ।
            नामे सोई सेविआ जह देहुरा न मसीत” ।।[4]


            इन्होंने हिन्दू-मुस्लिम के बीच की वैमनस्यता को प्रेम और सौहार्द में बदलकर समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया, दोनों के धार्मिक कट्टरता को समाप्त कर राम और रहीम एक ही हैं इसका उपदेश दिया -

            “पांडे तुमरी गाइत्री लोधे का खेत खाती थी ।
            लैकरी ठेगा टगरी तोरी लांगत लांगत जाती थी ।।
            पांडे तुमरा महादेऊ धऊले बदल चढ़िआ आवत देखिआ था ।
            मोदी के घर खाना पाका वाका लड़का मारिआ था ।।
            पांडे तुमरा रामचंदु सो भी आवतुं देखिआ था ।
            रावन सेती सरवर होइ घर की जोई गवाई थी” ।।[5]


मौलवी पर भी तीखी चोट करते हुए कहते हैं -

            “काजी कौन कतेब बखाने,
            पढ़त पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नाहीं जाने,
            मुल्ला कहां पुकारै दूरि, राम रहीम रहया भरपूरी
            यह तो अल्लह गूंगा नाही देते खलक दुनी दिल मांही” ।

            नामदेव कहते है कि परमात्मा प्रत्येक जीव में हैं, वो घट-घट में समाया हुआ है फिर समाज में ये भेदभाव, असमानता क्यों है -

            “ऐकल  मींटी कुंजर चीटी भाजन रे बहु नाना ।
            थावर जंगम कीट पतंगा, सब घटि राम समाना ।।
            ऐकल चिता राहिले निता छूटे सब आसा ।
            प्रणवत नामा भये निहकामा तुम ठाकुर मैं दास” ।।[6]


            इनके काव्य में राम नाम की महत्ता और उसके स्मरण मात्र से प्राप्त होने वाली कृपा, सुकृति और मुक्ति परिलक्षित होती है, राम नाम के सुमिरन से सब पाप धूल जाते हैं और राम नामोच्चारण करते ही पापी भी पवित्र हो जाता है -

“कौन कै कलंक रह्यो राम नाम लेत ही ।
पतित पावन भयौ राम कहत ही ।।
राम संगि नामदेव जिनहु प्रतीति पाई ।
एकादशी व्रत करै काहे को तीरथ जाई ।।
भणत नामदेव सुमिरत सुकृत पाई ।
राम कहत जन को न मुक्ति जाई” ।।

x          x          x          x

“राम कहत जन कस न तरे ।
तारिले गनिका बिन रूप कुबीजा
बिआध अजामलु तारिअले” ।  [7]


            नामदेव ने मराठी काव्य की अभंग छंदों में और हिन्दी काव्य की रचना दोहा- साखी में की है, यही परंपरा बाद तक चलती रही । कबीर ने इसका अनुसरण करते हुए अपने काव्य की रचना दोहा- साखी में की । लक्षित होता है कबीर पर नामदेव का काफी प्रभाव रहा है । नामदेव की भाषा सरल और सुबोध है, जिससे वो अपना संदेश जनसाधारण तक पहुँचा सके, भक्ति का द्वार सभी के लिए सहज हो इसके लिए उन्होंने जन-सामान्य की भाषा में ही काव्य रचना की । उनके काव्य में वह तेवर है, जो मन-मस्तिष्क पर चोट करता है, जिसे उत्तरवर्ती संतों ने आत्मसात किया है।

संत एकनाथ

            एकनाथ संत होने के साथ-साथ अपूर्व कवि भी रहें हैं । इनकी रचनात्मकता प्रभावोत्पादक है । सफल गृहस्थ होते हुए भी परमतत्व की उपासना संत एकनाथ ने की है । और भी कई ऐसे संत रहें हैं जो गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भक्ति-साधना में संलिप्त रहे, परंतु उनका मन गृहस्थ आश्रम में न रमा जबकि इन्होंने प्रवृति और निवृति का सुंदर समन्वय प्रस्तुत किया है । ये गृहस्थ और अध्यात्म को साथ-साथ लेकर चलने वाले थे । इनका मानना था कि सांसारिक कर्मों से विमुक्त होकर, योगसाधना करना ही सच्चा मार्ग नहीं है बल्कि ब्रह्म सर्वव्याप्त है, इस अनुभूति के साथ अपने सांसारिक कर्तव्यों के प्रति निष्ठा, ढोंग से बचते हुए परमात्मा का स्मरण और नामोच्चारण ही सच्ची साधना है -

“दील को हमने पछाना बे,
काय कु सोंग बताना बे ।
जीदर उदर देखो भरीयो सब घटा
अल्ला अल्ला कर कर खावन मांगे मीठा ।
एका जनार्दन पग धरत है कहो वीठल वीठल अल्ला” ।[8] 


            संत ज्ञानेश्वर और नामदेव के बाद मराठी भक्ति काव्य में जिस संत का प्रमुख स्थान है, वो हैं संत एकनाथ, इसी संदर्भ में बहिनाबाई की पंक्तियाँ उद्धरणीय हैं-

            “ज्ञानदेव ने ज्ञानबल डाली जो बुनियाद
            नामदेव ने नामवश रचो भव्य प्रासाद ।
            एकनाथ ने भागवत दिया स्तम्भ और ।
            उसी भक्ति पर धर्म का तुकाराम सिरमौर” ।।[9]

         

            संत ज्ञानेश्वर ने भक्ति  की नींव डाली उसको एकनाथ ने और मजबूत किया।  एकनाथ ने ज्ञानदेव को खूब पढ़ा-गुणा और उनका अनुसरण किया, जिसके कारण लोग उन्हें ज्ञानेश्वर का अवतार कहने लगे लेकिन एकनाथ ने नाथपंथी और महानुभाव संप्रदाय में उपस्थित बाह्य आडंबर, वेश-भूषा और वैराग्य पर व्यंग किया है-

            “नाथपंथ को मुद्रा डाली, जग में सिंगी बजावत हैं,
            सिंगीनाद कू औरत भूला, बो वी लड़का झूटा है” ।
            “मानभाव बनके माला पैने, छान कर पानी पीता है ।
            आत्मज्ञान कू चोर लूटत है, बो वी सच्चा गद्धा है” ।[10]

 

            एकनाथ का मानना है कि संतों का साथ आपका उत्तम ही करता है -

“भला संतन का संग
खावे निज बोधन की भंग
सदा आनंद मो दंग
ऐसा मलंग फ़कीर
ज्ञान के मैदान खड़े
शम-दम से आन लढ़े
बहोताँ के तख्त चढ़े
ऐसा मलंग फ़कीर
किया संतन का दुमाल
मेरा लुटा बहू जंजाल
ऐसा ‘एकनाथ’ कंगाल
ऐसा मलंग फ़कीर” ।[11]

            इनके यहाँ सगुण-निर्गुण का सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है लेकिन इन्हें कर्मकांड, बाह्य आडंबर से गुरेज़ है । समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं जातिगत भेदभाव के विरोध में भी इन्होंने लिखा है । राम कथा पर आधारित लिखे गए काव्य में इनकी रचना ‘भावार्थ रामायण’ को नहीं भूलना चाहिए, यह एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसका आधार ‘वाल्मीकि रामायण’ है कदाचित इसी कारण तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ पर एकनाथ के ‘भावार्थ रामायण’ का प्रभाव लक्षित होता है ।

संत तुकाराम

            संत तुकाराम बहुत ही लोकप्रिय थे क्योंकि इनकी भक्ति और साधना लोकोन्मुखी रही है। ये जाति से शूद्र थे इसलिए  इन्हें ग्रंथों की भाषा संस्कृत में लिखने की स्वतंत्रता नहीं थी । ये काव्य-रचना मराठी में किया करते थे जिससे आमजन के लिए इनकी रचना पढ़ना-सुनना सरल था । इन्होंने जीवन में कष्ट झेला और फिर इनका झुकाव अध्यात्म की तरफ हुआ । कृष्ण भक्ति में इनका मन खूब रमा है । संत तुकाराम ने गोपी भाव में डूबकर कृष्ण की उपासना की है । कृष्ण के प्रति समर्पण के क्रम में संत तुकाराम ऐसी गोपी बन जाते हैं जो कान्हा को देखते ही पूरे संसार को विस्मृत कर देती है -

“मैं भूली घर जानी बाट ।
गोरस बेचन आयें हाट ।।
कान्हा रे मन मोहन लाल ।
सब ही बिसरूँ देखें गोपाल ।।
कहां पग डारूँ देख आनेरा ।
देखें तो सब वोहीन घेरा ।।
हूँ  तो थकित भैर तुका ।
भागा रे सब मन का धोका” ।।

 

“भलो नन्द जी को डिकरो ।
लाज राखी लीन हमारो ।।
आगल आयो देव जी कान्हा ।
मैं घर छोड़ी आई न्हाना ।।
उन सुं कलना न ब्हेतो भला ।
खसम अहंकार दादुला ।।
तुका प्रभु परबल हरी ।
छपी आये हूं जगाथी न्यारी” ।।[12]

            संत तुकाराम अपने द्वारा भोगे गए सांसारिक दुखों के लिए कभी भाग्य को दोष नहीं देते । जो कुछ हुआ उससे हताश और निराश नहीं होते बल्कि उसे भगवान का चाहा मान कर स्वीकार करते हैं । वह कहते हैं कि जो भगवान करता है वही होता है, भगवान असंभव को भी संभव कर सकता है-

            “अल्ला करे सो होय, करतार का सिरताज ।
            गाऊ बछरे तिसे चलाये, यारी बाघोन साथ ।।[13]

 

            इस क्रम में अक्सर ही तुकाराम भाग्यवादी हो जाते हैं-

            “ठेविले अनंते तैसेही रहावें ।
            चित्तो असों घावें समाधान” ।[14]


            तुकाराम भी अन्य संतों की भाँति नाम स्मरण की महत्ता को मानते हैं, उनके लिए किसी व्यक्ति की जाति महत्वपूर्ण नहीं है, ईश्वर के प्रति उसका समर्पण महत्वपूर्ण है । अधम से अधम व्यक्ति भी यदि राम का भक्त है, राम नाम का सुमिरण करता है तो वह उनके लिए प्रिय ही नहीं बल्कि वंदनीय है-

            “मेरे राम को नाम ज्यो लेवे वारंवार ।
            त्याके पाउं मौ तन कै पैज्यार’’ ।
            “ज्याका चीत लागा मेर राम को नाम ।
            कहे तुका मेरा चीत लागा त्याके पाऊं” ।[15]

           

समर्थ रामदास

            समर्थ रामदास एकनाथ के दूर के रिश्तेदार थे, इन्होंने गृहस्थ आश्रम में न जाकर राम की उपासना में लीन होना चुना । 12 वर्ष की तपस्या के पश्चात इन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। इन्होंने ‘करूणाष्टक’ नामक राम काव्य लिखा । तत्पश्चात ये भारत भ्रमण पर निकल पड़े । रामदास राम के परम भक्त थे जो राम का ही स्मरण करते रहते थे । समर्थ गुरु रामदास का राम के प्रति समर्पण उनके पदों में परिलक्षित होता है-

            “जित देखो उत राम हि रामा ।
            जित देखो उत पूरण कामा
            तृण तरुवर सातो सागर
            जित देखो उत मोहन नागर ।
            जल थल काष्ठ पषाण-अकासा ।
            चंद्र सुरज नच तेज प्रकासा ।
            मोरे मन मानस राम भजो रे ।
            रामदास प्रभु ऐसा करो रे” ।[16]


            रामदास का मानना है कि इस दुनिया को चलाने वाला कोई एक ही है, वही सर्जनहारा है वही पालक है । लोगों ने धर्म और जाति बाँट ली लेकिन लेकिन दोनों धर्म हिन्दू हो या मुस्लिम सभी को संचालित वही करता है-

            “हिन्दू मुसलमान मजहब चले सर्जनहारा
            साहेब अलम कुं चलावे सो अलम थी न्यारा ।
            घट घट साहियां रे अजब अला मियां रे ।
            ये हिन्दू मुसलमाना दोनों चलावें पछाने सो भावे” ।[17]


            ऐसे कई मराठी संत हैं जिन्होंने हिन्दी में काव्य रचना कर, हिन्दी को और समृद्ध किया है । भक्ति की परंपरा चलाई जिसका अनुसरण हिन्दी के भक्त कवियों ने किया है । अनंत महाराज, संत जसवंत, बहिणाबाई, रंगनाथ, केशव स्वामी आदि, इन संत कवियों की फेहरिस्त बहुत लंबी है और हिन्दी काव्य इन संत कवियों की रचनाओं से अटा पड़ा है।

निष्कर्ष : हम कह सकते हैं कि मराठी संतों का हिन्दी काव्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, इन्होंने समन्वयात्मक प्रवृति को अपनाकर ‘सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा’ पंक्ति को चरितार्थ किया है । इनके समन्वयात्मक  प्रवृति का ही प्रतिफल है मराठी के अतिरिक्त हिन्दी में भी काव्य रचना । ये सिर्फ महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रहना चाहते थे बल्कि अपने उपदेशों का चहुंदिशि विस्तार करना चाहते थे । भारतीय आमजन के हृदय तक अपनी वाणी को पहुँचाने के लिए इन्होंने हिंदी भाषा को चुना । निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि मराठी संतों ने हिन्दी भक्ति काव्य को अत्यधिक सशक्त एवं सबल किया है, इसमें दोराय नहीं है ।

संदर्भ :

 [1] आचार्य विनय मोहन शर्मा, हिन्दी को मराठी संतों की देन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1957, पृष्ठ 56 

[2] आचार्य विनय मोहन शर्मा, हिन्दी को मराठी संतों की देन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1957, पृष्ठ 61
[3] नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वाराणसी भाग–10, पृष्ठ 14
[4] टीकाकार प्रोफेसर साहिब सिंह, श्री गुरुग्रंथ साहिब दर्पण, पृष्ठ 875
[5] नामदेव, पंजाबातिल, पृष्ठ 111
[6] टीकाकार प्रोफेसर साहिब सिंह, श्री गुरुग्रंथ साहिब दर्पण, पृष्ठ 998
[7] नामदेव, पंजाबातिल, पद संख्या 1
[8] आचार्य विनय मोहन शर्मा, हिन्दी को मराठी संतों की देन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1957, पृष्ठ 140
[9] प्रो. बी. जी. देशपांडे, मराठी का भक्ति साहित्य, चौखंभा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 2016, पृष्ठ 127
[10] आचार्य विनय मोहन शर्मा, हिन्दी को मराठी संतों की देन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1957, पृष्ठ 142
 
[11] https://sufinama.org/dakni-sufi-kavya/bhalaa-santan-kaa-sang-eknath-dakni-sufi-kavya?lang=hi 14/Oct/2023, 06:00 pm
[12] हरि रामचंद दीवेकर (संपा०), संत तुकाराम, हिंदुस्तान अकादमी, त्रिवेणी इलाहाबाद, पृष्ठ 216
[13] वही, पृष्ठ 219
[14] आचार्य विनय मोहन शर्मा, हिन्दी को मराठी संतों की देन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, 1957, पृष्ठ 163
[15] विनायक लक्ष्मण भावे, तुकाराम बवांची अस्सलगाथा, आर्यभूषण प्रेस, पुणे महाराष्ट्र, पृष्ठ 253
[16] समर्थ रामदास की हिन्दी पदावली, अज़ाब प्रकाशन, पृष्ठ 83,.
[17]नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वाराणसी,  भाग – 63, पृष्ठ 34

सहायक ग्रंथ-

  1. डॉ० प्रभाकर माचवे, संत ज्ञानेश्वर, पेंगविन बुक्स इंडिया, 2019
  2. प्रभाकर सदाशिव ‘पंडित’, महाराष्ट्र के संतों का हिन्दी काव्य, उत्तर-प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, 1991
  3. शं० के० आडकर, हिन्दी निर्गुण काव्य का प्रारंभ और नामदेव की हिन्दी कविता, रचना प्रकाशन, 1972
  4. हरीकृष्ण देवसरे, संत एकनाथ, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, 2012
  5. डॉ० प्रभाकर माचवे, भक्त कवि संत एकनाथ, हिन्दी पॉकेट बुक्स, 2021

 

प्रज्ञा शाकल्य

शोधार्थीमहात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालयवर्धा

 

 चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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