शोध सार : भारतीय साहित्य की जमीन बहुत व्यापक है। पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण भारतीय साहित्य का विस्तार है। बड़े-बड़े साहित्यकार इन क्षेत्रों से हुए हैं। कुछ साहित्यकारों ने अत्यधिक ख्याति प्राप्त की और न सिर्फ भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर में स्वयं को स्थापित किया है। और कुछ साहित्यकार ऐसे हैं जिन्होंने साहित्य में योगदान तो बहुत दिया पर किसी एक क्षेत्र तक ही सीमित रह गए। उनके योगदान की चर्चा संपूर्ण भारतवर्ष में नहीं हो पाई। भारत का राज्य असम के श्रीमंत शंकर देव(1449-1568) एक ऐसे ही धर्म सुधारक, संत और कवि हैं जिनका न सिर्फ साहित्य बल्कि समाज-सुधार में भी बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। भक्तिकालीन कवि तुलसी, जायसी, कबीर आदि के समकालीन यह कवि अपने साहित्य में उस समय की सामाजिक स्थिति का वर्णन कर रहा था। उनके यहाँ सूर की भाँति कृष्ण के प्रति प्रेम, तुलसी की भाँति राम के प्रति प्रेम, कबीर की भाँति सामाजिक सरोकार, रैदास की भाँति दलितोद्धार, सब एक साथ दिखाई पड़ता है। कबीर की भाँति ये भी पहले समाज सुधारक, बाद में कवि थे।
बीज शब्द : भक्ति, संत, कवि, धर्म सुधारक, वैष्णव धर्म, मध्यकालीन काव्य, तीर्थाटन, समाज, परिवर्तन, कृष्ण कथा, श्रीमद्भागवत, धार्मिक सौहार्द, ब्रजबुलि, असमिया।
मूल आलेख : भक्तिकालीन साहित्य एक विराट सीमा रेखा का साहित्य है। अगर रामचंद्र शुक्ल के अनुसार कहा जाए तो 1375 संवत से 1700 तक इसकी सीमा रेखा है। इस समय न सिर्फ हिंदी में बल्कि संपूर्ण भारतीय भाषाओं में साहित्य रचे जा रहें थे। वैसे देखा जाए तो भक्ति काल में खड़ी बोली जैसी कोई भाषा बनी नहीं थी। ब्रज, अवधी, मैथिली आदि में ही साहित्य का सृजन हो रहा था। आज हम हिंदी साहित्य की जब बात करते हैं तो इन्हीं सब बोलियों में रचे गए साहित्य को हिंदी में सम्मिलित करते हैं। इन सभी बोलियों के सम्मिश्रण से ही हिंदी का विकास हुआ है। यही कारण है कि हिंदी के अंतर्गत एक विशाल साहित्य है। अस्तु, जब भक्तिकाल चल रहा था तब भारत जैसा बड़ा तथा सांस्कृतिक धरोहर वाले देश में अलग-अलग क्षेत्र में अलग-अलग कवि, संत, आचार्य भक्ति का प्रचार कर रहे थे। पूरब में अगर शंकर देव तथा उनके शिष्य माधवदेव ने भक्ति को साहित्य और समाज का आधार बनाया तो वहीं पश्चिम में नरसी मेहता, प्रेमानंद भट्ट, नामदेव, तुकाराम, जनाबाई आदि संतों ने साहित्य में भक्ति का प्रसार किया। दक्षिण में हम पाते हैं की भक्ति का उदय सबसे पहले हुआ था और यहाँ से भक्ति उत्तर भारत की तरफ रामानंद द्वारा ले जाया गया था। इसके लिए एक दोहा प्रसिद्ध है, "भक्ति द्रविड़ ऊपजी, लाए रामानंद / प्रकट किया कबीर ने सप्तद्वीप नवखंड।"¹ उत्तर भारत में भक्ति का प्रसार अत्यधिक हुआ और यहाँ कबीर, सूर, तुलसी, जायसी, मीराँ, रैदास, नंददास, चतुर्भुजदास, कृष्णदास, गुरुनानक आदि अनेक कवि और संत हुए जिन्होंने भक्ति साहित्य को हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यहाँ थोड़ा रूक कर एक बात अवश्य कहना चाहिए कि भक्तिकाल स्वर्ण युग कहलाता है इसके पीछे सिर्फ उत्तर भारत नहीं बल्कि संपूर्ण भारत का योगदान है।
जब हम हिंदी साहित्य में भक्तिकालीन साहित्य का अध्ययन करते हैं तब सूर, तुलसी, कबीर, नानक आदि के साथ चंडीदास, चैतन्य महाप्रभु, लल्लदेव, नरसी मेहता आदि के बारे में पढ़ते हैं। इसी समय एक महान धर्म सुधारक और कवि पूर्वोत्तर भारत में विद्यमान सामाजिक रूढ़ियों, आडम्बरों को तोड़ने में लगा हुआ था। वे असम के समाज में नवजागरण के अग्रदूत के रूप में जाने जाते हैं। उनके द्वारा बनाए गए 'नामघर' और 'सत्रों' में भजन-कीर्तन, पूजन तथा उनके उपदेशों का अनुसरण आज भी होता है। उनकी प्रसिद्ध गीत रचना "कीर्तन घोषा" को आज भी असम में वेद की तरह माना जाता है। इनके गीतों का गायन आज भी किया जाता है। श्रीमंत शंकरदेव का स्थान असम में ठीक उसी प्रकार है जैसे हिंदी क्षेत्र में कबीर, सूर, तुलसी का है। और अगर कहा जाय कि इनसे भी बढ़कर है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अगर इन कवियों में साम्यता की बात की जाय तो हम देखते हैं कि कबीर ने बाह्याडंबर, छुआछूत आदि का विरोध किया, सूर ने वैष्णव धर्म अपनाकर कृष्ण की उपासना की, तुलसी ने दास्य भाव से राम की उपासना की। शंकरदेव ने भी कबीर की भाँति बाह्याडंबर, छुआछूत, जाँति-पाँति आदि का विरोध किया, सूर की भाँति कृष्ण की उपासना की, तुलसी की भाँति राम नाम का जाप भी किया। पर उनके यहाँ विष्णु के अवतार कृष्ण ही सर्वोपरि रूप से दिखाई पड़ते हैं और उन्हीं की उपासना शंकरदेव ने जीवन भर किया एंव वैष्णव धर्म का प्रचार पूरे असम में किया।
डॉ कृष्ण नारायण प्रसाद 'मागध' शंकरदेव के विषय में लिखते हैं "शंकरदेव न केवल भक्ति परंपरा के महान कवि थे अपितु एक श्रेष्ठ साहित्यकार, नाटककार, गायक, नृत्यरचनाकार, गीत-रचनाकार, चित्रकार, वादक तथा अभिनेता थे। एक महाकवि के रूप में शंकरदेव की रचनाओं का असम और पूर्वोत्तर प्रदेशों के निवासियों पर गहरा प्रभाव पड़ा। शंकरदेव ने वैष्णव भक्ति काव्य को असम में नई दिशा प्रदान की। इसी कारण उन्हें युग प्रवर्तक भी कहा गया। उनके प्रयासों के कारण ही नृत्य, नाटक तथा संगीत में कृष्ण भक्ति के नवल गति, लय व तान मिली जो धीरे-धीरे असम के लोगों के तन-मन में बस गई तथा असम की संस्कृति का हिस्सा बन गई।"²
1449 ईस्वी में सौर आश्विन महीने की शुक्ल दशमी तिथि को असम के नगाँव जिले के "आलि पुखरी" अंचल में जन्मे शंकरदेव का जीवन कठिनाइयों से भरा रहा है। माता-पिता की जल्दी मृत्यु के बाद उनका लालन-पालन उनकी दादी खेरसुती(सरस्वती) ने किया। बचपन में उन्हें गांव के एक टोल(विद्यालय) में दाखिला दे दिया गया, जहाँ पर उन्हें महेंद्र कन्दली जैसे शिक्षा-गुरु मिले और उनके आश्रय में रहकर शंकरदेव ने पठन-पाठन किया और अपने अंदर आध्यात्मिक चेतना जाग्रत की। शिक्षा ग्रहण करने के बाद इन्होंने विवाह किया पर विवाह के कुछ वर्ष बाद ही उनकी पत्नी एक बेटी को जन्म देकर स्वर्गवासी हो गयी। श्रीमंत शंकरदेव ने बेटी जिसका नाम मनु था, का विवाह कर दिया तत्पश्चात वे सब कुछ से मुक्त होकर तीर्थाटन करने का मन बना लिया और कुछ साथियों को लेकर पैदल यात्रा करना शुरू कर दिया। इन्होंने कुल 12 वर्षों तक यात्रा की और सभी धार्मिक स्थलों जैसे काशी, गया, मथुरा, वृंदावन, प्रयाग, जगन्नाथ पुरी, द्वारका, बद्रिकाश्रम, रामेश्वरम आदि तीर्थ का पर्यटन किया। इस पर्यटन के पश्चात ही उनके अंदर भक्ति-भावना का विशेष जागरण हुआ और एक सामान्य से शंकर देव को श्रीमंत शंकरदेव बनाने में योगदान दिया। "कहा जाता है कि श्रीमंत शंकरदेव ने अपने प्रथम बरगीत 'मन मेरी राम चरणेहि लागू' की रचना संवत् 1538 वि. के लगभग अपने तीर्थ-यात्रा-काल में बद्रिकाश्रम में की थी"³
शंकरदेव का रचना-संसार काफी विशाल है। इन्होंने काव्य के साथ-साथ नाटकों की भी रचना की है। उनकी रचनाओं के अंतर्गत हरिश्चंद्र उपाख्यान, रुक्मिणिहरण(काव्य), कीर्तन-घोषा, बरगीत, गुणमाला, भक्ति-प्रदीप, भक्ति-रत्नाकर, महाभागवत, भटिमा, उत्तरकांड (रामायण), पत्नीप्रसाद, रुक्मिणिहरण(नाटक), केलि-गोपाल, कालिय-दमन, पारिजात-हरण और राम विजय है। उनकी कविताओं के अध्ययन के पश्चात हमें उनके अंतर्गत एक ऐसे कृष्ण भक्त कवि का दर्शन होता है जो कृष्ण की भक्ति तो करता ही है, साथ ही समाज में विद्यमान रूढ़िवादी ग्रंथियों, अंधविश्वासों, आडंबरों को भी तोड़ने का प्रयास करता है। सामान्य जन के बीच रहकर उनके मन के भाव को समझना, उनके साथ जीना उनकी भावनाओं का सम्मान करना, शंकर देव के स्वभाव का प्रमुख गुण था। इन्होंने उँच-नीच, छुआछूत, जाँति-पाँति का डटकर विरोध किया और 'नामघरों' की स्थापना कर छोटी से छोटी जातियों को भी उसमें शामिल होने का अधिकार प्रदान किया। 'नामघर' ईश्वर की भक्ति में लीन होकर भजन-कीर्तन करने के स्थान को कहा जाता है। इन नामघरों में सांस्कृतिक गतिविधियों (जैसे अभिनय, नाटक, संगीत आदि) का प्रदर्शन होता था। शंकरदेव ने धर्म, वर्ग, जाति से ऊपर उठकर सभी को इसका हिस्सा बनाया। यही कारण है कि असम के अनेक ऊँचे कुल के लोगों ने संत शंकरदेव का विरोध किया। "शंकरदेव जी ने नामघरों तथा सत्रों की स्थापना की, महंगे तथा खर्चीले मंदिर बनाने के स्थान पर गांव के लोगों की सहायता से भी बिना दीवार का, बाँस के सहारे, फूस आदि से छाया हुआ नामघर ही ग्राम के सभी धार्मिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बन गया। इस नामघर में किसी मूर्ति की स्थापना नहीं थी। गाँव की सभी जातियों के स्त्री-पुरुष मिलकर इन नामघरों में भजन-कीर्तन आदि करते थे। ऐसे हजारों नामघर आज भी असम में लोक संस्कार के कार्य में रत हैं। उन्होंने भक्त की तरह जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को सत्राधिकारी बनाने का चलन चलाया।"⁴
शंकरदेव के यहाँ कृष्ण के प्रति भक्ति विद्यमान है। उन्होंने अपनी रचना "कीर्तन घोषा" को श्रीमद्भागवत की कथा के आधार पर लिखा है। शंकरदेव जिनका जन्म सूर से पहले हुआ था। पूर्वोत्तर भारत में उन्होंने सूर से पहले कृष्ण की उपासना की शुरुआत कर दी थी। श्रीमद्भभागवत की कृष्ण कथा के आधार पर शंकरदेव कृष्ण की लीलाओं को अपनी रचना में स्थान देते हैं। शंकरदेव के जीवन में कृष्ण इस प्रकार से रचे बसे हुए थे कि आज भी इन्हें असम में लोग विष्णु के अवतार के रूप में पूजते हैं। किसी भी व्यक्ति को अवतार के रूप में यूँ ही नहीं पूजा जाता है। इसके पीछे कोई न कोई इतिहास होता है। इतिहास में ऐसे व्यक्तियों ने सामान्य लोगों के लिए बहुत कुछ किया है। ये ऊँचे कुल से होने के बावजूद भी सामान्य जन के बीच रहकर उनके दुख-सुख का साझीदार रहें। इन्हें संस्कृत आती थी फिर भी अपनी रचना के लिए इन्होंने आमजन की भाषा असमिया और ब्रजबुलि को चुना। इस संबंध में भूपेंद्र राय चौधरी की इन पंक्तियों को हम देख सकते हैं- "कृष्ण भक्त कवि महापुरुष शंकरदेव का विपुल साहित्य प्रधानत: भागवत पर आधारित है। मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन के संदर्भ में उन्होंने यह अनुभव किया था कि संस्कृत भाषा में रचित शास्त्रों का अध्ययन अनुशीलन सामान्य लोगों के लिए संभव नहीं है इसलिए उन्होंने स्थानीय भाषा में साहित्य सृजन का महत्वपूर्ण दायित्व निभाया। इसके साथ ब्रजावली(ब्रजबुलि) भाषा को अपनाना उनकी राष्ट्रीय दृष्टि का परिचायक है। विस्तृत एवं गहन संस्कृत वाड्मयों के अध्ययन से शंकरदेव के वैचारिक चिंतन में जो स्थिरता, परिपक्वता, आई है, उसका निदर्शन उनका बहुआयामी कृतित्व है।"⁵
श्रीमंत शंकरदेव द्वारा रचे गए गीतों, कविताओं पर ध्यान दें तो हमें उनके साहित्य में सामान्य जीवों के प्रति विशेष प्रेम दिखाई पड़ता है। मनुष्य ने इस संसार में रहने के लिए अन्य जीवों के साथ जो दुश्मनी मोल ली है। उसके खिलाफ श्रीमंत शंकरदेव आवाज उठाते हैं और कहते हैं कि जब तक यह मनुष्य संपूर्ण संसार के जीवों का सम्मान नहीं करेगा तब तक वह भक्ति कैसे कर पाएगा। यह संसार हजारों जीवों से भरा पड़ा है। छोटे-छोटे कीट-पतंग से लेकर हाथी तक इस संसार में विद्यमान है। साथ ही मनुष्य जैसा बुद्धिमान प्राणी भी है। मनुष्य भले ही बुद्धिमान हो पर वह इन जीवों की हत्या करता आया है। शंकरदेव कृष्ण से भक्ति करना तो चाहते हैं पर वे स्वयं को पापी समझते हैं। उनका मानना है कि इस संसार में न जाने कितने जीवों की हत्या मैंने की है। ऐसे में मुझे भक्ति करने का अधिकार नहीं है। यहाँ शंकरदेव सिर्फ स्वयं के बारे में नहीं कह रहे बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के लिए कह रहें हैं। यथा -
"नारायण काहे भक्ति करो तेरा।
मेरि पामरू मन, माधव घने - घन, घातुक पाप नाछोरा।।"⁶
कविवर शंकर देव हर किसी के जीवन को सम्मान देना चाहते हैं। उनका मानना है कि हर जीव में राम बसते हैं। इसलिए हर किसी का सम्मान करना चाहिए। एक स्थान पर वह कहते हैं -
"कुक्कुर चंडाल गर्दभरो आत्मा राम।
ऐतेके सबाको परि प्रणाम।।"⁷
(अर्थात मनुष्य की तो बात ही नहीं, कुत्ते, चांडाल, गधे की आत्मा में भी राम ही है। अतः सबको ( ईश्वर-अंश मानकर) नमन करना चाहिए।)
शंकरदेव सूर की भाँति कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन करते हैं। श्रीकृष्ण के अपने बाल सखाओं के साथ खेलने का चित्रण हमें अन्य भक्तिकालीन कवियों के यहाँ दिखलाई पड़ता है। जैसे सूर, चतुर्भुज दास, परमानन्द दास आदि। शंकरदेव ने भी इसका चित्रण किया है। एक उदाहरण देखिए -
"बालेक गोपाले करत रे केलि।
उच्चाया, पांचनि, नाचे, हासे गोप मेलि।।"⁸
(अर्थात, गोपाल गोप बालकों के साथ तरह-तरह के खेल खेल रहे हैं। सोंंटी को ऊपर उठकर नाच रहे हैं। जिसे देख-देख कर गोप हँस रहे हैं।)
शंकर देव के यहाँ गोपियों का विरह भी विद्यमान है। यह स्वभाविक सी बात है जहाँ कृष्ण का चित्रण हो रहा हो वहाँ गोपियों का चित्रण होना लाजिमी है। बगैर कृष्ण के गोपियाँ विरहाकुल रहती हैं। ऐसे में कृष्ण उद्धव को गोकुल भेजते हैं। ताकि वे गोपियों को समझा सकें। यथा-
"उद्धव, चलहु गोकुले लाइ।
हामु बिने गोपीक तिलेके युग याय।।"⁹
(अर्थात, श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं- उद्धव, तुम गोकुल जाओ। मेरे चले आने के कारण, मेरे बगैर गोपियों के लिए वहाँ एक-एक पल युग जैसा बीत रहा है।)
उद्धव जब गोकुल आते हैं, गोपियों का विरह देखकर उनकी आंखों में भी आंसू आ जाती है- "गोपिनी प्रेम पारशि नीर झुरय।"¹⁰
कृष्ण की कथा के अधार पर काव्य रचना करना पहले के कवियों, कवयित्रियों की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। हिंदी साहित्य का अध्ययन करते हुए हम जब मध्यकालीन काव्य को देखते हैं तो यहाँ एक कृष्ण संप्रदाय चल रहा होता है जिसमें बहुत कवि शामिल हैं। कृष्ण संप्रदाय के कवियों को मिलाकर ही विठ्ठलदास ने 'अष्ठछाप' की स्थापना की थी जिसमें कृष्ण भक्ति में लीन होकर भजन -कीर्तन किया जाता था। श्रीमंत शंकर देव भी उसी समय असम में सामान्य जनों को लेकर 'नामघर', 'सत्र' आदि की स्थापना की। विडंबना यह है कि सम्पूर्ण भक्ति साहित्य में हमें शंकरदेव के बारे में पढ़ने को नहीं मिलता है। यही कारण है कि उत्तर, दक्षिण, पश्चिम में बैठे लोग शंकरदेव से परिचित नहीं हो पाते हैं। आज लोग उस तरफ बढ़ रहें हैं पर मध्यकालीन काव्य में उन्हें स्थान नहीं दिया गया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी अपनी पुस्तक "मध्यकालीन धर्म साधना" में ठीक लिखते हैं - "सूरदास को अच्छी तरह समझने के लिए यदि हम संपूर्णत: सूरदास तक या कुछ और अधिक बढ़कर ब्रजभाषा के साहित्य तक ही सीमा बाँधकर बैठे रहें तो उस महान रससमुद्र का केवल एक ही पहलू देख सकेंगे जिसे उत्तरमध्यकाल के भक्त कवियों ने अमरवाणी रूप निर्झरिणियों से भर दिया है। सूरदास को समझने के लिए विद्यापति, चंडीदास और नरसी मेहता परम आवश्यक है। यदि हम सचमुच सूरदास को समझना चाहते हैं तो चंडीदास और विद्यापति या अन्य वैष्णव कवियों को समझें क्योंकि उन्हें समझे बिना हम बहुत घाटे में रहेंगे। वस्तुत इस कोने से उस कोने तक फैले हुए विविध प्रकार के सामाजिक रीति-रस्म, पूजा-उपासना, व्रत-उपवास, शास्त्रीय मान्यता आदि बातें जिस प्रकार जनसमूह के अध्ययन के लिए नितांत आवश्यक उपादान हैं उसी प्रकार और उन सबसे अधिक आवश्यक वस्तु है तत्कालीन साहित्य। इस साहित्य के माध्यम से यदि हम अध्ययन शुरू करें तो ऐसा लगेगा कि समूचा भारतवर्ष नाना भाँति की साधनाओं, विश्वासों, और अंत:संबंध विचारों के सूत्र से कसकर सी-सा दिया गया है। इस सूत्र का एक टांका यदि बंगाल में है तो दूसरा पंजाब में, तीसरा मारवाड़ में और आश्चर्य नहीं की चौथा मालाबार में निकल आए। भारतवर्ष का मध्यकालीन साहित्य वस्तुतः समूचे भारतवर्ष का साहित्य है, प्रांतवार बँटा हुआ विभिन्न बोलियों का नहीं।"¹¹ यहाँ एक बात गौर करने वाली है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी भले ही शंकरदेव का नाम नहीं लिखते हैं पर वह इशारा करते हैं कि अगर कृष्ण भक्ति साहित्य को समझना है तो हमें सभी वैष्णव कवियों के बारे में पढ़ना चाहिए।
शंकरदेव ने कबीर की भांति बाह्याडंबर, छुआछूत, जाँति-पाँति, ऊँच-नीच आदि का विरोध किया है। यह उनकी रचनाओं में हमें देखने को मिलता है। इन्होंने दलितोत्थान के लिए लड़ाई लड़ी। उच्च वर्ग का विरोध सहा। पर धार्मिक सौहार्द को बनाया। "इन्होंने अपने संप्रदाय में कोई जातिगत भेदभाव नहीं रखा और संपूर्ण समाज को एक पथ का अनुयायी बनाकर मनुष्य मात्र में समानुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा की। उनकी इस दृष्टि के स्पष्ट चित्रण हमें निम्नलिखित गीत में दिखाई देता है -
"किरात, कछारी, खासी, गारी, मोरी, यवन, कंक, गोवाल।
असम मुलुक, रजक तुरुक, कवँछा, म्लेंछ चंडाल॥
आन पापी नर कृस्न सेवा कर संगते पवित्र हय।
भक्ति लभिया, संसार तरिया, बैकुंठ सुखे चलय॥"¹²
"शंकरदेव स्वयं उच्च वर्गी होने के बावजूद यह चुनौती देते हैं कि जिन्हें हम शूद्र, कैवर्त आदि कहकर दूर हटाए रखते हैं। कलियुग में वे ही ईश्वर-तत्व का महाज्ञान प्राप्त कर प्रमुख हो जाएंगे; जबकि उच्च वर्ग का अहंकार रखने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि हरि भक्ति से विमुख होने के कारण अध:पतित हो जाएंगे।"¹³
जब उच्च जाति को ही ईश्वर भक्ति का अधिकार था। मंदिरों में जाने का अधिकार था तब शंकरदेव ने उनके विरोध में लिखा और उच्च वर्ग के स्थान पर निम्न वर्ग को हरि भक्ति और भजन करने के अधिकार की बात करते हैं।
"ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इटो तिनि जाति।
नुशुनिबे हरि भकतिक काणपाति।
शरद सब अनेक कैवर्त आदि करि।"¹⁴
शंकरदेव सभी धर्मों के सम्मान की बात करते हैं और इसी को 'भागवत धर्म' कहते हैं -"परर धर्मक निहिंसिबा कदाचित/ करिबा भूतक दाया सकरुण चित्त/ शांत चित्त हुई सर्व धर्मत वत्सल/ एहि भागवत धर्म जाना महाबल।। "¹⁵
मोह-माया, विषय-वासना, कर्मकांड आदि का विरोध उनकी कविता में दिखलाई पड़ता है। हम यहाँ उनकी कुछ काव्य पंक्तियाँ तथा उसके अर्थों के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे -
"ओजा सोजा पन्थ नाहेरि, कोटी करम कायी।
हरि को नाहि पायी, परल भव बेरि-बेरि।"¹⁶
इन पंक्तियों में कवि पंडितों पर प्रहार करते हुए कहते हैं ओ पंडितों तुम्हें तो सीधा मार्ग दिखाई नहीं देता (स्वर्ग मुक्ति के लिए), तुम करोड़ों तरह के कर्म करते-करवाते हो। पर उन (कार्यों) से हरि को प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसलिए बार-बार संसार में पड़ना पड़ता है। आगे एक पंक्ति देखिए-
"नारायण चरणे करोहो गोहारि।
विषय विलास पाश छान्दि इन्द्रिय, सोही ओहि लुटे बाटोवारी।।"¹⁷
(अर्थात हे नारायण, तुम्हारे चरणों में मैं यह गुहार लगा रहा हूंँ। देखो न, सारे इंद्रियों को विषय-विलास रूपी पाश में बाँधकर यह सारे लुटेरे बटमार इसी प्रकार से मुझे लूट रहे हैं।)
श्रीमंत शंकरदेव का साहित्य बृहत्तर साहित्य है। यह एक साथ कवि, संत, धर्म सुधारक, प्रचारक आदि सब थे। इनका प्रादुर्भाव असमिया समाज में क्रांति के सूर्योदय के लिए हुआ था। इन्होंने संपूर्ण असम को भारत के अन्य भागों से सांस्कृतिक रूप से जोड़ने का कार्य किया। आज इनका सम्मान संपूर्ण भारत में किया जाता है और एक अवतारी व्यक्तित्व जाना जाता है जिन्होंने न केवल समाज में परिवर्तन की बात की बल्कि समाज में विद्यमान जड़ता, कट्टरता, रूढ़ि आदि से ऊपर उठकर 'एक शरण धर्म' अर्थात सबका ईश्वर एक है यानी कृष्ण में विश्वास दिलाया। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि असमिया साहित्य, भाषा, कला, धर्म-जीवन, सामाजिक-सांस्कृतिक संबंधों पर शंकरदेव का काफी गहरा प्रभाव पड़ा। इनसे प्रभावित होकर ही असम में भक्ति को एक नई दिशा मिली। काव्य, नाट्य, गीत, अभिनय हर क्षेत्र में इन्होंने क्रांति लायी। शंकरदेव असम समाज के उन्नायक के रूप में जाने जाते हैं।
2) मागध' प्रसाद नारायण कृष्ण, महाकवि शंकरदेव : विचारक एवं समाज सुधारक, भूमिका से
3) गुप्त लक्ष्मीशंकर, महापुरुष शंकरदेव ब्रजबुलि ग्रंथावली, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संस्करण- 1975, पृष्ठ- 06
4) डॉ. कृष्णगोपाल, प्राग्ज्योतिष क्षेत्र की समरसता के उन्नायक: श्रीमंत शंकरदेव, समन्वय पूर्वोत्तर, नवंबर-जनवरी 2017,पृष्ठ संख्या-05
5) चौधरी राय भूपेंद्र , श्रीमंत शंकरदेव व्यक्तित्व और कृतित्व, पृष्ठ 44
6) वर्मा नवारुण, महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव: जीवन, कृतित्व एवं संदेश, बृहत्तर फैंसीबाजार साहित्य सभा, गुवाहाटी, प्रथम संस्करण- 2000, पृष्ठ संख्या- 68
7) वही, पृष्ठ संख्या- 58
8) वही, पृष्ठ संख्या-83
9) वही, पृष्ठ संख्या-84
10) वही, पृष्ठ संख्या-85
11) द्विवेदी प्रसाद हजारी, मध्यकालीन धर्म साधना, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- 1952, पृष्ठ 126-127
12) गुप्त लक्ष्मीशंकर, महापुरुष शंकरदेव ब्रजबुलि ग्रंथावली, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संस्करण- 1975, पृष्ठ-15
13) वर्मा नवारुण, महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव: जीवन, कृतित्व एवं संदेश, बृहत्तर फैंसीबाजार साहित्य सभा, गुवाहाटी, प्रथम संस्करण- 2000, पृष्ठ-49
14) वही, पृष्ठ संख्या-50
15) वही, पृष्ठ संख्या-51
16) वही, पृष्ठ संख्या-74
17) वही, पृष्ठ संख्या-69
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