शोध आलेख : वाल्मीकि ‘रामायण’ के पाश्चात्य आलोचक और फ़ादर कामिल बुल्के / डॉ. जे. आत्माराम

वाल्मीकि ‘रामायण’ के पाश्चात्य आलोचक और फ़ादर कामिल बुल्के
- डॉ. जे. आत्माराम


            भक्ति-साहित्य के अध्ययन में रुचि रखने वाले पश्चिम के अनेक विद्वानों के लिए भारत का सदा ही महत्त्वपूर्ण अधिष्ठान रहा है, क्योंकि भारत के भक्ति-काव्य जैसी गहराई और सर्वजनीनता है, वह विश्व के किसी भी साहित्य में नहीं देखने को मिलती। भारत का भक्ति साहित्य देशीय होते हुए भी वैश्विक व सार्वभौमिक है, व्यक्तिगत होते हुए भी लौकिक है। इसलिए तो भारत का भक्ति साहित्य समस्त लोक के कल्याण का साहित्य माना जाता है, जिसने विश्व को ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्भकम्’, ‘सर्वेभवंतु सुखिनाः’, ‘अतिथि देवो भव’ जैसे अनेक आदर्श दिए। यही भाव हमारे आर्ष ग्रंथों –- ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘श्रीमद् भागवत’ तथा अन्य ग्रंथों में व्याप्त है जिसे महर्षि वाल्मीकि, महाकवि कालीदास, गोस्वामी तुलसीदास आदि ने अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रसारित किया है।

            पाश्चात्य विद्वान भक्ति साहित्य के ग्रंथों में जिस एक ग्रंथ के प्रति सबसे अधिक आकर्षित रहे, वह है आदिकवि वाल्मीकि द्वारा विरचित ‘रामायण’ । वाल्मीकि रामायण, वह ग्रंथ है, जिसने पश्चिम को भारतीय संस्कृति, सभ्यता, आदर्श एवं विश्वासों की महती परंपरा से परिचित कराता है। इस ग्रंथ ने पश्चिम के विद्वानों को अपनी भाषा में भारत के भक्ति साहित्य को अनूदित करने की प्रेरणा देने साथ-साथ उनके भाव एवं मर्म को समझने की दिशा में अनुसंधानपरक और आलोचनात्मक लेखन करने के लिए प्रेरित किया है। वाल्मीकि रामायण को समझने-समझाने की प्रक्रिया में उन्होंने जो धारणाएँ व स्थापनाएँ भी की हैं, जिनमें ऐसी धारणाएँ भी थीं, जो बहुत ही भ्रामक एवं पूर्वाग्रहपूर्ण थीं, जिनका खंडन आधुनिक काल जिन विद्वानों ने किया उनमें फ़ादर  कामिल बुल्के उल्लेखनीय हैं।

बीज शब्द : वाल्मीकि रामायण, फ़ादर बुल्के, पाश्चात्य आलोचक ए. वेबर, डॉ. याकोबी, एम. विंटरनित्स

मुख्य आलेख : पश्चिमी देशों में भारतीय भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार में यूरोपीय विद्वानों की भूमिका उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि भारत के आधुनिकीकरण में ब्रिटिश शासन की। इस संदर्भ में हिंदी भाषा का प्रथम व्याकरण लिखने वाले एच.एस. केलॉग से लेकर हिंदी साहित्य का व्यवस्थित इतिहास लिखने का प्रयास करने वाले गार्सा तासी ( इस्तेवार लितरेतर ऑफ़ इंदुई इंदुस्तानी) और हिंदी की बोलियों के सर्वेक्षणकर्ता जॉर्ज ग्रियर्सन (लिग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया) तक कई विदेशी विद्वानों का नाम लिया जा सकता है। किन्तु, इनमें फ़ादर  कामिल बुल्के एक बड़ा अंतर है, जिसकी ओक संकेत करते हुए बुल्के के गुरु और हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है:

            “यद्यपि उनसे पहले भी भारतीय विषयों पर कई यूरोपीय विद्वानों ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया, किन्तु उन्होंने इनका विवेचन मुख्यतः अंग्रेजी या किसी अन्य यूरोपीय भाषा में किया। उनमें से कुछ ही विद्वानों ने भारतीय भाषाओं को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बाइबिल के प्रारंभिक हिन्दी अनुवादक और ईसाई धर्म के हिन्दी प्रचार साहित्य के प्रारम्भिक लेखक यूरोपीय ही थे; किन्तु फ़ादर  कामिल बुल्के की स्थिति इनसे बहुत भिन्न है। आवश्यकता होने पर उन्होंने अंग्रेजी में भी लिखा है, किन्तु उनकी अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम हिन्दी है। उनके अधिकांश सर्वोत्तम लेखन की भाषा यही है।”

            फ़ादर  कामिल बुल्के का कृतित्त्व बहुत व्यापक है। तुलसीदास के साहित्य पर लिखे निबंधों से लेकर बाइबिल-अनुवाद और शब्द-कोश-निर्माण तक उन्होंने कई विषयों पर लेखन कार्य किया है, फिर भी साहित्य की दुनिया में उनकी ख्याति का प्रमुख आधार राम-कथा सम्बन्धी उनका शोधकार्य ही है। कामिल बुल्के पर साहित्य अकादमी, नई दिल्ली का मोनोग्राम तैयार करने वाले प्रसिद्ध लेखक डॉ. दिनेश्वर प्रसाद लिखते हैं: “डॉ. कामिल बुल्के की अक्षय कीर्ति का सबसे बड़ा आधार रामकथा-सम्बन्धी उनके कार्य हैं। उनके जीवन का सर्वाधिक भाग इसी विषय के सन्धान में व्यतीत हुआ है। वे बारम्बार इस विषय की ओर लौट कर आते रहे और शोध के दौरान संकलित नई सामग्री के आधार पर अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रामकथा’- उत्पत्ति और विकास’ का संशोधन-परिवर्द्धन करते रहे। उनके जीवनकाल में इसके तीन संस्करण प्रकाशित हुए और मृत्यु के पूर्व उन्होंने इसके चौथे संस्करण की पांडुलिपि में कुछ छूटी हुई प्रविष्ठियों और उपलब्ध नई सामग्री का समावेश किया।”(1)

            फ़ादर बुल्के ने अपने शोध प्रबन्ध ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ और शोध-निबन्धों में जिन विषयों पर मुख्य रूप से विचार किया है, वे हैं – “रामकथा की उत्पत्ति, मौखिक परम्पराओं में उपलब्ध रामगाथाओं का वाल्मीकि द्वारा संग्रथन और प्रबंध काव्य के रूप में विधान, वाल्मीकि-रामायण का प्रामाणिक पाठ, वाल्मीकि का परवर्ती भारतीय और एशियाई साहित्य एवं संस्कृति पर प्रभाव, रामकथा की विभिन्न परम्पराएँ, रामकथा के विकास के सोपान, भारतीय और विदेशी राम-साहित्य एवं राम के प्रसंगों और चरित्रों का विकास।”(2)

           बुल्के ने अपनी पुस्तक और निबन्धों के माध्यम से न केवल रामकथा सम्बन्धी यूरोपीय विद्वानों की भ्रांत धारणाओं का खंडन किया है, बल्कि इन्डोनेशिया, मलेशिया, जकार्ता से लेकर कम्बोडिया तक राम-कथा के अन्तरराष्ट्रीय प्रसार और व्यापक प्रभाव के कारणों को भी उद्घाटित किया है। इसी प्रक्रिया में वाल्मीकि रामायण का प्रमाणिक पाठ, आदिकाव्य के रूप में वाल्मीकि रामायण, वाल्मीकि रामायण का रचना-काल, वाल्मीकि रामायण और बौद्ध धर्म का सम्बन्ध आदि से सम्बन्धित उनका विश्लेषण-विवेचन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिससे वे  न केवल पश्चमी, बल्कि भारतीय विद्वानों की शंकाओं को भी दूर करते हैं। इस शोध-ग्रंथ के बाद यह विश्वासपूर्वक कहा जाने लगा कि ‘बुल्के ने राम-कथा को देखने का पूरा परिदृश्य ही बदल दिया।’

            दिलचस्प विषय यह है कि एक विदेशी विद्वान बुल्के ने कैसे भारत के इस प्राचीन व लोकप्रिय काव्य की इतनी गहरी समझ विकसित की है ? वस्तुतः फ़ादर कामिल बुल्के मूल रूप से बेल्जियम देश के निवासी थे। किंतु जब वे एक धर्म प्रचारक के रूप में बेल्जियम से भारत आए तो भारत के ही होकर रह गए। भारत और भारतीय साहित्य व संस्कृति को उन्होंने पूरे मन से अपनाया और भक्ति साहित्य, विशेषकर राम-कथा साहित्य पर अनुसंधान करते हुए इस विषय के आधिकारिक विद्वान बन गए।

            राम-कथा साहित्य   के विख्यात शोधकर्ता व तुलसी साहित्य के मर्मज्ञ फ़ादर कामिल बुल्के ने अपने शोध-ग्रंथ ‘रामकथा : उत्पत्ति एवं विकास’ के माध्यम से पाश्चात्य आलोचक ए. वेबर, हरमन याकोबी, एम. मोनियेर विलियम्स, ई. हाप्किन्स तथा ए.लूड्विग आदि की रामायण सम्बन्धी भ्रान्त-धारणाओं का न केवल खंडन किया, बल्कि वाल्मीकि ‘रामायण’ की ऐतिहासिकता को सप्रमाण सिद्ध करने के साथ-साथ दक्षिण एशियाई साहित्य एवं संस्कृति पर वाल्मीकि रामयाण के प्रभाव के कराणों पर भी विचार किया है।

वैदिक साहित्य में राम-कथा

            रामायण की कथा अत्यन्त प्राचीन है। राम-कथा के स्रोतों के संदर्भ में कई मान्यताएँ प्रचलित हैं। उनमें से एक मान्यता है - ‘राम-कथा वेदकालीन है’। इसका कारण है, रामायण में उल्लेखित इक्ष्वाकु, दशरथ, जनक, राम, सीता और अश्वपति आदि नामों की चर्चा वेदों में भी मिलती है। फ़ादर बुल्के इस सन्दर्भ उपलब्ध तमाम सामग्री का गहराई से अध्ययन करते हैं, और यह निष्कर्ष देते हैं कि यह कथा वैदिक नहीं है। वे स्पष्ट लिखते हैं कि वेदों में इक्ष्वाकु, दशरथ, राम, सीता, अश्वपति और जनक जैसे नामों की चर्चा अवश्य मिलती है। लेकिन वेदों में इनके बीच परस्पर क्या सम्बन्ध है ?  इसकी कोई सूचना वहाँ नहीं दी गई है। उदाहरण के लिए राम नाम को ही लें। वैदिक साहित्य में राम नामक अनेक व्यक्तियों की चर्चा मिलती है, अनेक संदर्भों में मिलती है। ऋग्वेद में राम नामक एक राजा, (ऋ.10/93/4), ऐतरेय ब्राह्मण में श्यापर्ण कुल के एक ब्राह्मण, (7/27-34), शतपथ ब्राह्मण में राम औपतस्विनि नामक एक आचार्य (4/6/1/7) और जैमिनीय उपनिषद् में रामक्रातुजातेय वैयाघ्रपथ (3/7/3/2; 4/9/1/1) की चर्चा मिलती है। ये सभी राम कोई एक व्यक्ति नहीं है। इस सन्दर्भ में विस्तार से किए गए अपने विवेचन के आधार पर बुल्के यह निष्कर्ष देते हैं कि “प्राचीनतम वैदिक काल से ही राजाओं और ब्राह्मनों, दोनों में ‘राम’ नाम प्रचलित था।”(3) किंतु यही राम कौशल्यासुत श्री राम हैं, इसकी जानकारी नहीं मिलती। यही बात उन्होंने रामायण के अन्य पात्रों के संदर्भ में भी कही है। जनक और वैदेही (सीता) के विषय में तो वे बहुत विस्तार से चर्चा करते हैं। “इस तरह हम देखते हैं कि वैदिक रचनाओं में रामायण के एकाध पात्रों के नाम अवश्य मिलते हैं, लेकिन न तो इनके पारस्परिक सम्बन्ध की कोई सूचना दी गई है और न इनके विषय में रामायण की कथावस्तु का किंचित भी निर्देश किया गया है। जनक और सीता का बार-बार उल्लेख होने के पर भी दोनों का पिता-पुत्री सम्बन्ध कहीं भी निर्दिष्ट नहीं हुआ है।”(4)

रामायण की इतिहासिकता

            वाल्मीकि रामायण की कथा के लेखन समय-संदर्भ के विषय में पश्चात्य आलोचकों की अलग-अलग धारणाएँ थीं। कुछ विद्वानों ने रामायण की कथा को काल्पनिक मानने की चेष्टा की थी, ऐसे विद्वानों में ए. वेबर और हरमन याकोबी प्रमुख हैं। ए. वेबर ने वाल्मीकि रामायण अर्ध-ऐतिहासिक कथा माना था। किंतु फ़ादर कामिल बुल्के उनकी इस भ्रान्त-धारणा का खंडन करते हुए रामकथा को वैदिक काल के बाद लिखी गई एक ऐतिहासिक कथा प्रमाणित करते हैं। वे उन विद्वानों से सहमत नहीं है, जो इसका मूल ‘दशरथ जातक’ या होमर के इलियड में ढूँढते हैं, या इसे आधा रूपक और आधा इतिहास, या एक से अधिक स्वतन्त्र रूप से प्रचलित कथाओं का योग के रूप में सिद्ध करने की कोशिश करते हैं।

            कामिल बुल्के सबसे पहले ए. वेबर के अपनी पुस्तक ‘ऑन द रामायण’ में प्रतिपादित उस मत का खंडन करते हैं, जिसमें वेबर ने रामकथा के दो मूल स्रोतों – ‘दशरथ जातक’ और इलियट - की चर्चा की हैं। वेबर का मत था कि, ‘दशरथ जातक’ वाल्मीकि रामायण से पहले की, यानी तीसरी शताब्दी ई.पू. की रचना है। ‘दशरथ जातक’ में राम वाराणसी के राजा दशरथ के पुत्र बताए गए हैं, जो अपनी विमाता के षड़यन्त्र के कारण अपने भाई लक्ष्मण और सीता के साथ हिमालय में वनवास करते हैं। वह वनवास के बाद अयोध्या लौटने पर सीता से विवाह करते हैं और सोलह हज़ार वर्ष शासन करते हैं। इस कथा में सीताहरण, लंका और राम-रावण-युद्ध का कहीं उल्लेख नहीं है। वेबर का तर्क है कि वाल्मीकि की कथा में राजधानी अयोध्या कर दी गई है, वनवास का स्थान दंडकारण्य का वृत्तान्त जोड़ा गया है, जो होमर के इलियड में वर्णित पोरस द्वारा हेलेन के अपरहरण और ट्रॉय के युद्ध पर आधारित है।

            बुल्के ने अपने शोध-ग्रंथ में इस पर पूरे विस्तार से विचार करने के बाद निष्कर्ष रूप में दो टूक शब्दों में कहते हैं कि ‘दशरथ जातक’ वास्तव में रामकथा का विकृत रूप है। इसी प्रकार वे ‘वाल्मीकि–रामायण पर इलियड के प्रभाव’ को भी पूरी तरह से निराधार मानते हैं।

            रामायण को कल्पना और इतिहास का मिश्रण माननेवाले विद्वानों की भी कमीं नहीं रही। यूरोपीय विद्वान हरमन याकोबी की स्थापना थी कि ‘रामकथा के पूर्वार्ध इतिहास और उत्तरार्ध रूपक’ है। किंतु बुल्के प्रमाणित करते हैं कि रामकथा के दोनों भाग इतने सुसंबद्ध हैं कि इसके दूसरे भाग की व्याख्या के लिए उसके किसी अतिप्राकृत स्रोत की कल्पना निराधार है।(5)

            इसी प्रकार फ़ादर बुल्के ने डॉ. दिनेशचन्द्र सेन के उस मत का भी विरोध किया है जिसमें दिनेशचन्द्र ने राम-कथा का निर्माण क्रमशः राम, रावण और हनुमान – सम्बन्धी गाथाचक्रों के संयोग से हुआ है, ऐसा माना है। दिनेशचन्द्र सेन के अनुसार वाल्मीकि रामायण का एक स्रोत उत्तर भारत में प्रचलित ‘दशरथ जातक’, दूसरा स्रोत दक्षिण भारत का रावण-विषयक आख्यान और तीसरा स्रोत हनुमान सम्बन्धी वह सामग्री है, जो वानर पूजा का अवशेष है।

            इस प्रकार रामकथा न ही कोई कल्पित अथवा रूपकात्मक-कथा है, और न विभिन्न स्रोतों में उपलब्ध सामग्री का संयोजन। रामायण के पात्र एवं घटनाएँ अतीत के वास्तविक पात्र और घटनाएँ हैं। इसके साक्ष्य ‘महाभारत’ और बौद्ध ग्रन्थों में मिल जाते हैं। ‘महाभारत’ में तो वाल्मीकि, उनके रामकाव्य और रामकथा का बार-बार उल्लेख हुआ है। शान्तिपर्व के षोडशराजोपाख्यान में रामकथा का समावेश यह बतलाता है कि महाभारतकार राम की गणना सोलह ऐतिहासिक राजाओं में करते हैं। बौद्ध साहित्य का ‘अनामकजातकम्’ और ‘दशरथकथानकम्’ में भी रामकथा मिलती है। ये सभी साक्ष्य यह बताते हैं कि यह कथा ऐतिहासिक है और बहुत प्राचीन काल से ही जनमानस में के बीच आख्यान काव्य के रूप में प्रचलित थी। “ ‘बौद्ध त्रिपिटक’, ‘महाभारत’ तथा ‘रामायण’ के अनुशीलन से यह निष्कर्ष निकलता है कि वैदिक काल के बाद चौथी शताब्दी ई.पू. के कई शताब्दियों पहले रामकथा-विषयक आख्यान-काल की उत्पत्ति हुई थी।”(6)

रामायण का रचनाकाल

            इसी प्रकार वाल्मीकि रामायण के रचनाकाल के विषय में भी पश्चिम विद्वनों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कुछ विद्वानों ने रामायण को 11वीं शताब्दी ई.पू. की रचना माना, तो अन्य ने 12 वीं शताब्दी ई.पू. की । और कुछ विद्वानों ने इसे दूसरी शती की रचना माना, तो कुछ और विद्वानों ने तीसरी शती की रचना। कुछ ऐसे भी विद्वान हुए जिन्होंने रायायण पर यूनान और बुद्ध का प्रभाव देखने की कोशिश की है।

            कामिल बुल्के ने इन सारे भ्रांतिपूर्ण विचारों का खंडन कर यह प्रमाणित किया कि वाल्मीकि रामायण की रचना काल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व है। बुल्के लिखते हैं – “एक शताब्दी के पूर्व रामायण पहले पहल पश्चिम में विख्यात होने लगा उस समय अनेक विद्वानों का मत था कि इसकी रचना अत्यन्त प्राचीन काल में हुई थी – ए. श्लेगेल के अनुसार 11वीं श.ई.पू. तथा जी. गोरेसियो के अनुसार लगभाग 12वीं श.ई.पू.। इस मत के प्रतिक्रियास्वरूप जी.टी. ह्वीलर तथा डॉ. वेबर ने रामायण पर यूनानी और बौद्ध प्रभाव मान कर उसकी रचना अपेक्षाकृत अर्वाचीन समझा है।”(7)  

            दरअसर, इतिहास में रामायण के दो अलग-अलग पाठों की चर्चा मिलती है - एक आदि रामायण (वाल्मीकि की प्रामाणिक रचना) और दूसरी प्रचलित वाल्मीकि रामायण । और विद्वान इन दोनों का अलग-अलग रचना काल निर्धारित करते हैं। कामिल बुल्के लिखते हैं कई विद्वान यह मानते रहे हैं कि वर्तमान समय में उपलब्ध वाल्मीकि रामायण (जिसमें सात कांड हैं) के रचनाकार स्वयं वाल्मीकि ही हैं। लेकिन बुल्के लिखते हैं कि “रामायण के भिन्न-भिन्न पाठों की तुलना करने पर स्पष्ट है कि उत्तरकाण्ड बाद का लिखा हुआ है। वास्तव में उत्तरकाण्ड तथा बालकांड दोनों वाल्मीकि कृत रचना में विद्यमान नहीं थे, ... वाल्मीकिकृत आदि रामायण (कांड 2-6) तथा प्रचलित वाल्मीकि रामायण में जो अन्तर पाया जाता है इसके लिए बहुत काल की आवश्यकता है। छोटे-मोटे प्रक्षेपों को छोड़कर प्रस्तुत प्रचलित वाल्मीकि रामायण का रूप (1-7 कांड) कम से कम दूसरी शताब्दी ई. का है, यह बहुसंख्य विद्वानों का मत है।”(8)

        अब प्रश्न उठता है कि आदि रामायण (वाल्मीकि की प्रामाणिक रचना) का रचना काल क्या होगा? ‘रामकथा’कार लिखते हैं कि “एम. विंटरनित्स ने इस प्रश्न का विस्तृत विश्लेषण करने के बाद एच. याकोबी के परिणाम पर पर पहुँचते हैं। डॉ. याकोबी रामायण का रचनाकाल पाँचवीं श.ई.पू. से छठी और आठवीं श.ई.पू. के बीच में मानते हैं। ए.ए. मैकडोनेल ने अपने संस्कृत साहित्य के इतिहास (लंदन 1905, पृ. 309) में याकोबी के तर्क स्वीकार कर रामायण को बुद्ध के पूर्व का माना था। बाद में उन्होंने छन्द शास्त्र की दृष्टि से पाली गाथाओं तथा रामायण के श्लोकों की तुलना के आधार पर माना है कि वाल्मीकि रामायण की रचना चौथी शताब्दी ई.पू. के मध्य में हुई थी। उनके अनुसार रामायण दूसरी श.ई. के अंत तक अपना वर्तमान रूप धारण कर चुका था। ए.बी. कीथ, डॉ. याकोबी के ग्रन्थ के बीस वर्ष बाद उनके तर्क का विस्तृत विश्लेषण तथा खंडन करके आदि रामायण की रचना चौथी शताब्दी ई.पूर्व में रखते हैं। एम. विंटरनित्स प्रायः ए.बी. कीथ से समहत हैं, लेकिन वे वाल्मीकि को तीसरी शताब्दी ई.पू. का मानते हैं। अतः अधिक संभव है कि प्रतीत होता है कि वाल्मीकि ने लगभग 300 ई.पू. अपनी अमर रचना की सृष्टि की है ।”(9)

            रामायण पर बौद्ध धर्म के प्रभाव के सम्बन्ध पर बुल्के लिखते हैं “प्रामाणिक वाल्मीकिकृत रामायण में बौद्ध धर्म की ओर निर्देश नहीं मिलता। अतः इसकी रचना बुद्ध के पूर्व ही अथवा पाँचवीं श.ई.पू. में हुई होगी । यह एम. मोनियेर विलियम्स तथा सी.वी. वैद्य का प्रधान तर्क प्रतीत होता है । लेकिन प्राचीन बौद्ध साहित्य तथा जातकों की सामग्री के विश्लेषण से स्पष्ट है कि तिपिटक के रचनाकाल में रामकथा सम्बन्धी स्फुट आख्यान-काव्य प्रचलित हो चुका था, लेकिन रामायण की रचना नहीं हो पाई थी।”(10)

            बुल्के बाद भी कई पश्चिमी विद्वानों के वाल्मीकि रामायण पर आलोचनात्मक लेखन किया है, जिनमें आर.पी. गोल्डमैन महत्त्वपूर्ण है। गोल्डमैन के अतिरिकिक्त जिन पश्चिमी विद्वानों के वाल्मीकि रामायण पर आलोचनात्मक लेखन किया है उनमें शैलडोन पोलक, मैसोन, शुलमैन का नाम उल्लेखनीय है।

निष्कर्ष : भक्ति साहित्य में महर्षि वाल्मीकि द्वारा विरचित रामायण का स्थान सर्वोपरि है। इस ग्रंथ की प्राचीनता, व्यापकता और लोकप्रियता को देख करवेस्ट ईस बेस्टकी मनोवृत्ति पाले पश्चिमी विद्वानों के लिए इसकी महानता को स्वीकार आसान नहीं था, इसीलिए उन्होंने इस ग्रंथ के संदर्भ में पूर्वाग्रहपूर्ण धारणाएँ आरोपित करने की कोशिश की। किंतुब फ़ादर कामिल बुल्के ने उनकी उन तमाम पूर्वाग्रहपूरित धारणाओं का सप्रमाण खंडन कर वाल्मीकि रामायण की ऐतिहासिकता एवं उसकी मूलकथा के स्वरूप से परिचय कराने के साथ-साथ भारत की साँस्कृतिक एवं सामाजिक एकता में भक्ति साहित्य की महती भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास भी किया है।

संदर्भ :

  1. दिनेश्वर प्रसाद, फ़ादर कामिल बुल्के, (2002), प्रथम संस्करण, साहित्य अकादमी, रवीन्द्र भवन-35, फीरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली,110 001,पृ. 21
  2. वही, पृ. 22
  3. फ़ादर कामिल बुल्के, रामकथा- उत्पत्ति और विकास, हिंदी परिषद् प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ.3
  4. वही, पृ, 24
  5. वही, पृ. 25
  6. वाल्मीकि और रामकथा की दिग्विजय – मंथन, पृ. 2
  7. फ़ादर कामिल बुल्के, रामकथा- उत्पत्ति और विकास, हिंदी परिषद् प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 24
  8. वही, पृ. 24
  9. वही, पृ. 24-25
  10. वही, पृ. 25

डॉ. जे. आत्माराम
सहायक प्रोफेसर,हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद 
9440947501
 

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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