वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर सिंह से शोधार्थी तेजप्रताप कुमार तेजस्वी की बातचीत

वरिष्ठ आलोचक गोपेश्वर सिंह से शोधार्थी तेजप्रताप कुमार तेजस्वी की बातचीत



1. सवाल - भक्ति काव्य संबंधी हिन्दी आलोचना आज भी एक चुनौती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय आदि के महत्वपूर्ण आलोचनात्मक प्रयत्नों के बाद भी भक्ति काव्य संबंधी हिन्दी आलोचना कठिन है । इसका क्या कारण है और इन्हें कैसे सरल किया जा सकता है? 

जवाब - भक्ति काव्य आज भी चुनौती है। आपने जिन आलोचकों का नाम लिया है उन सभी ने भक्ति काव्य संबंधी महत्वपूर्ण आलोचना लिखी है। लेकिन आज भी उसके अध्ययन का सिलसिला बंद नहीं हुआ है। उसके बहुत से आयाम अब भी खुल रहे हैं। भक्ति काव्य विश्व का सर्वाधिक गंभीर और बहुआयामी काव्य है। नये युग के साथ उसकी नई-नई व्याख्याएँ होती रहेंगी। जब से दलितों और स्त्रियों के मुक्ति आंदोलन  तेज हुए हैं , तब से  भक्ति काव्य की नयी-नयी व्याख्याएँ सामने आयी हैं। उपभोक्तावादी समय में भक्ति काव्य की प्रासंगिकता और बढ़ गयी है। उपभोक्तावाद को बढ़ावा देनेवाली नीति ने सिर्फ मानवीय संबंधों के सामने गंभीर संकट पैदा किया है, बल्कि प्रकृति और मनुष्य के संबंधों के भी सामने भी अनेक संकट पैदा किये हैं।

            भक्ति काव्य बहुआयामी अर्थ-छवियों वाला काव्य है। वह सिर्फ ईश्वर और भक्त के बीच संबंधों की व्याख्या भर नहीं है। मनुष्येतर प्राणियों और प्रकृति -पर्यावरण के प्रति भी उसकी चिंता प्रकट होती है। इसलिए जब आज नये किस्म के संकट से मानव सभ्यता गुजर रही है, तब भक्ति काव्य उससे उभरने के लिए रामबाण की तरह है। इसलिए मुझे लगता है कि उसकी नयी व्याख्या की संभावनाएं बनी हुई हैं। चूंकि भक्ति काव्य महान उदेश्य से संचालित है, इसलिए उसकी व्याख्या करनेवाली दृष्टि के सामने उस महानता को नये ढंग से पहचानने की चुनौती हमेशा बनी रहेंगी।

2. सवाल - भक्ति काव्य सामंती समाज की प्रतिक्रिया की उपज है। भक्ति काव्य का अध्ययन करने वाले को सामंती समाज की समझ विकसित करने हेतु और उसकी सही व्याख्या करने हेतु क्या प्रयास करना चाहिए ?

जवाब - भक्ति काव्य में ईश्वर के सामने सभी जीवों को बराबर मानने का भाव है। भक्त की कोई जाति नहीं होती है। भक्ति पंचम वर्ण है। इस तरह भक्ति में समतामूलक समाज का स्वप्न है। इस आधार पर आप कह सकते हैं कि वह सामंती समाज की प्रतिक्रिया की उपज है। लेकिन भक्त कवियों के पास सामंतवाद का ठोस विकल्प नहीं है। भक्त कवियों में रैदास के समता मूलक स्वप्न की अक्सर चर्चा होती है। लेकिन वहाँ भी एक ऐसे राजा की कल्पना है जो ‘कर’ न लें और जिसके राज्य में सबको अन्न मिलें। इसलिए मुझे लगता है कि भक्ति काव्य को पूरी तरह सामंतवाद विरोधी कहना उससे अधिक की अपेक्षा है। भक्त कवियों के विचार स्त्रियों के बारे में अच्छे नहीं हैं। वह उनकी नजर में माया है। फिर कैसे कहा जा सकता है कि भक्ति काव्य पूरी तरह सामंती समाज का विरोधी है? हाँ, समता के स्वप्न उसके पास जरूर है।

 3. सवाल - भक्तिकालीन कवियों के यहाँ किसानों और मजदूरों की दुर्दशा का चित्रण अनेक बार आया है। जैसे तुलसीदास –‘‘खेती न किसान को भिखारी को न भीख भली।’’ भक्तिकालीन कवियों के यहाँ किसानों की दुर्दशा और आधुनिक किसानों की दुर्दशा को साहित्य के सापेक्ष में आप कैसे देखते हैं। आप चाहें तो इसकी व्याख्या विगत वर्ष के किसान आंदोलन से जोड़कर भी कर सकते हैं?

जवाब - भक्तिकालीन समाज में किसानों की जो दशा थी। उससे आज के किसानों की हालत की तुलना करना पूरी तरह ठीक नहीं है। भक्तिकालीन किसान पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर था। अकाल के समय उसकी सुध लेनेवाला कोई नहीं था। खेती के आधुनिक संसाधन उसके पास नहीं थे। आज का किसान लोक-कल्याणकारी जनतंत्र के भीतर का किसान है। उनकी समस्याएँ सुनी जाती हैं और सरकार की ओर से उसे सुविधा भी मिलती है। लेकिन आधुनिक विकास ने खेती कार्य को महंगा कर दिया है और उसकी हालत कभी-कभी इतनी मुश्किल हो जाती है कि वह आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। विकासनीति ऐसी है कि कभी-कभी उसका लागत मूल्य भी नहीं निकलता । आप कह सकते हैं कि भक्ति कालीन किसान भी परेशान थे और आज का भी किसान  परेशान हैं।

4. सवाल - भक्ति आंदोलन के सांस्कृतिक पक्ष को अखिल भारतीय आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में कैसे समझा जा सकता है, क्योंकि काशी [बनारस] भक्ति साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष अलग है और मराठी भक्ति साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष अलग है। इसी तरह से राजस्थानी-गुजराती भक्ति साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष अलग है और बिहार,बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के भक्ति साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष अलग है। एक शोध छात्र शोध के दौरान इस सांस्कृतिक पक्ष से जुड़ी समस्या को कैसे समझें और उन्हें मूर्त रूप प्रदान करें?

जवाब - यह सही है कि अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन की मूल आत्मा एक है। भगवान के सामने सभी भक्त नतमस्तक हैं, लेकिन भाषा, क्षेत्र , जाति, धर्म,, लिंगभेद के कारण ईश्वर की आराधना और उसे पुकारने का मार्ग अलग-अलग है। बनारस में निर्गुण पंथ के अग्रणी कवि कबीरदास हैं जो जाति से जुलाहें हैं , तो सगुण पंथ के तुलसीदास भी है जो जाति से ब्राह्मण है। कबीर वर्ण व्यवस्था के कठोर आलोचक हैं और तुलसीदास समर्थक।  लेकिन असम के शंकरदेव ऐसे भक्त कवि हैं जो ‘नामघर’ निर्माण का आंदोलन चलाते हैं। नामघर ईश्वर का ऐसा घर है जहाँ सभी जातियों के लोग जाते हैं। 12वीं शताब्दी के कन्नड़ कवि वसवन्ना शरीर को ही मंदिर मान लेते  हैं और उसी मंदिर में ईश्वर की खोज करते है। वसवन्ना ब्राह्मण हैं। 15 वीं शताब्दी के बनारस के कबीर भी शरीर को मंदिर मानते हैं और बाहर के मंदिर – मस्जिद को व्यर्थ बताते हैं। वसवन्ना और कबीर का लक्ष्य एक है। इस तरह आप देखे तो अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन में कई तरह के लोग हैं और कई तरह की धाराएँ है। किसी एक धारा का प्रतिनिधित्व कोई एक जाति नही करती। 

5 सवाल - संत काव्य का आरंभ सल्तनत काल में होता है और राम काव्य का आरंभ मुगल काल में होता है। इससे दोनों की रचनाशीलता प्रभावित है। साकार और निराकार के प्रश्नों को लेकर अक्सर आलोचक दार्शनिक समाधान तलाशते हैं और कवियों को शिविरों में बांटकर अध्ययन करते हैं। इस दार्शनिक व्याख्या और बँटवारे से कैसे बचा जा सकता है?

जवाब - इस प्रश्न  का उत्तर बहुत कुछ पिछले प्रश्न में दिया जा चुका है। यह ठीक है कि भक्ति काव्य में वैविध्य है, विस्तार है और भक्ति काव्य की अनेक व्याख्याएं हैं, लेकिन मैं भक्ति काव्य को बाइनरी में देखे जाने के पक्ष में नहीं  हूँ, निर्गुण बनाम सगुण और कबीर बनाम तुलसी के रूप में बनामों का जो आसान खेल हिन्दी आलोचना में जो लोग खेलते हैं उनसे मेरी सहमति नहीं हैं।

‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎‎ 6 सवाल - मुक्तिबोध निर्गुण भक्ति धारा की असफलता का कारण सगुण धारा को मानते हुए कहते हैं कि ‘ जो भक्ति आंदोलन जन साधारण से शुरू हुआ और जिसमें सामाजिक कट्टरपन के विरुद्ध जन साधारण की अपेक्षाएं बोलती थीं, उसका मनुष्य-सत्य बोलत था, उसी भक्ति आंदोलन को उच्चवर्गियों ने आगे चलकर अपनी तरह का बना लिया, और उनसे समझौता करके, फिर उस पर अपना प्रभाव कायम करके और अनंतर जनता के अपने तत्वों को उनमें से निकालकर उन्होंने उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।’ मुक्तिबोध की इस राय पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ?

जवाब - मुक्तिबोध ने भक्ति साहित्य संबंधी अपने एकमात्र लेख में जो कुछ कहा है उस पर मैंने लिखा है जो मेरी पुस्तक ‘भक्ति आंदोलन और काव्य’ में संकलित है। उसमें एक लेख ‘भक्ति आंदोलन और मुक्तिबोध’ है। उसमें मेरे विचार देखे जा सकते हैं । मुक्तिबोध के सामने अखिल भारतीय भक्ति आंदोलन का परिप्रेक्ष्य स्पष्ट नहीं था। वे सिर्फ हिन्दी को ध्यान में रखकर ये सारी बातें कह रहे हैं। बहुत से शूद्र रामभक्त हुए हैं और बहुत सारे ब्राह्मण निर्गुण भक्त हुए हैं। वसवन्ना का उदाहरण दिया जा चुका है। तेलगु की भक्त मोला  थी जो जाति से कुम्हार थी। उसने ‘मोला रामायण’ नाम से रामकथा लिखी।

7. सवाल - भक्ति काव्य संबंधी हिन्दी आलोचना की लोक जीवन संबंधी दृष्टि की जटिलता को कैसे समझा जा सकता है, क्योंकि शुक्ल जी के लिए लोक जीवन की दृष्टि तुलसीदास से निर्मित होती है जबकि द्विवेदी जी की कबीर से?

जवाब - शुक्लजी वेद-पुराण की परंपरा में जो मानवीय है और लोकमंगलकारी है, उससे निर्मित लोक दृष्टि को रेखांकित करते हैं जबकि द्विवेदी जी लोक दृष्टि पर विचार करते हुए वैदिक-पौराणिक परंपरा के साथ बौद्धों-सिद्धों-नाथों आदि की परंपरा को भी। यह दोनों आचार्यों की लोकदृष्टि का बुनियादी फर्क है।

8 सवाल - रामविलास शर्मा की लोकजागरण संबंधी दृष्टि पर टिप्पणी करते हुए मैनेजर पांडेय ने ‘हिन्दी साहित्य और इतिहास दृष्टि’ में लिखा है कि ‘ रामविलस शर्मा ने भक्ति काव्य को जातीय उत्थान के व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन की अभिव्यक्ति मानते हुए उन्होंने उसके सामंतवाद विरोधी और मानवतावादी स्वरूप का विवेचन किया है। इस प्रक्रिया में एक और भक्ति साहित्य को पुराणपंथियों के हाथों हथियार बनने से उन्होंने बचाया है और दूसरी ओर प्रगति आंदोलन के प्रारंभिक दौर के प्रगतिवादी आलोचकों की अंधी आलोचना से भी उसकी रक्षा की।’’ ये पुराणपंथी और प्रगतिवादी अंधी आलोचना दृष्टि क्या है ? मैनेजर पांडेय किसे पुराणपंथी या प्रगतिवादी अंधी आलोचना कहते हैं?

जवाब - पुराणपंथी आलोचना दृष्टि का मतलब उन आलोचकों की लिखी आलोचना से है जो भक्ति काव्य की बैकुंठवादी व्याख्याएं करते हैं और उसका संबंध लौकिक जगत से न जोड़कर परलोक से जोड़ते हैं। प्रगतिवादी अंधी आलोचना दृष्टि जब मैनेजर पांडेय कह रहे हैं, तब उनका संकेत प्रगतिशील आंदोलन के प्रारंभिक दौर के भक्ति काव्य संबंधी आलोचना की ओर है। उस आलोचना में भक्ति काव्य संबंधी निषेधवादी दृष्टि थी। रांगेय राघव की तुलसीदास संबंधी आलोचना की ओर संभवतः इशारा है।  

9 सवाल - गोपेश्वर सिंह की किताब ‘ भक्ति आंदोलन और काव्य’ ऐसे समय में प्रकाशित हो रही है जब  किसिम-किसिम की अस्मितवादी तरकीबें इस विरासत को हथियाने में एडी-चोटी एक कर रही हैं।– यह कथन  बजरंग बिहारी तिवारी की है। क्या आपको लगता है कि अस्मितवादी विमर्श भक्ति काव्य जैसी विरासत को हथियाने की अथक प्रयास कर रही है?

जवाब - अस्मितवादी विमर्श के पीछे एकांगी दृष्टि है। भक्ति काव्य के व्यापक सरोकारों से उसे कोई मतलब नहीं है। अपनी पहचान के लिए जो जरूरी है उनके यहाँ स्वीकार है और जो जरूरी नहीं उसका पुरजोर विरोध है।

10 सवाल - ‘भक्ति आंदोलन और काव्य’ की भूमिका में आपने लिखा है कि आधुनिक युग के हमारे राष्ट्र नायकों – महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया आदि की प्रेरणा भूमि कई मायनों में भक्ति काव्य रहा है। आपने कई बार गांधी जी से जोड़कर कबीर और तुलसी की व्याख्या की है। जिसमें आप कहते हैं कि गांधी जी चरखा चलाते थे और चरखा श्रम का प्रतीक और गांधी जी के हाथ में ‘रामचरितमानस’ हैं, जहां से वे रामराज्य जैसा स्वप्न देखते हैं और आप नरसी मेहता के प्रसिद्ध गीत- “वैष्णव जन तो तेनों कहिए जो पीर पराई जानी रे ।।” आप लोहिया की व्याख्या भक्ति काव्य के संदर्भ में कैसे करते हैं ? थोड़ा विस्तार से समझाइए।

जवाब - भक्ति काव्य और गांधी का जो संबंध है उस पर मैंने कई जगह लिखा है। आपकी जिज्ञासा डॉ. राममनोहर लोहिया और भक्ति काव्य के संदर्भ में है। गांधी के बाद डॉ. लोहिया भारतीय राजनीति के दूसरे व्यक्ति हैं जो संस्कृति संबंधी सवालों से टकराते हैं और बार-बार राम, कृष्ण और शिव के चरित्र की अद्भुत आधुनिक व्याख्या करते हैं। उन्होंने रामायण पर तो लिखा ही है। ये सगुण-निर्गुण में बांटकर भक्ति काव्य को नहीं देखते हैं। वे मानते हैं कि दोनों की कुछ विशेषताएं हैं और दोनों की कुछ सीमाएं हैं । मेरी पुस्तक ‘भक्ति आंदोलन और काव्य’ में आप लोहिया के विचार देख सकते हैं।

  


तेजप्रताप कुमार तेजस्वी

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

4 टिप्पणियाँ

  1. गोपेश्वर जी का प्रिय विषय भक्तिकाव्य रहा है | उनकी संतुलित दृष्टि से भक्ति आंदोलन, समाज और आज के समय को समझना विवेकशीलता का परिचायक है | सर का विशेष आभार |

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  2. बहुत सही लिखे हो तुम!

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