हिंदी साहित्येतिहास लेखन की एक सुदीर्घ परंपरा है। वर्णानुक्रम, कालानुक्रम, वैज्ञानिक तथा विधेयवादी पद्धतियों को अपनाते हुए लगभग एक हजार वर्षों का साहित्येतिहास लिखा गया है। एक विदेशी विद्वान की कोशिशों से शुरू होकर साहित्येतिहास लेखन की परंपरा ने आज लम्बा सफर तय कर लिया है। साहित्येतिहास लेखन की परंपरा पर बात करते हुए हम अनायास ही लेखक के इतिहासबोध से परिचित होते हैं। लेखक का इतिहासबोध और परंपराओं के प्रति उसका दुराव-लगाव और तटस्थता हमें एक दृष्टि प्रदान करती है। हिंदी साहित्येतिहास लेखन की विभिन्न पद्धतियों से गुजरते हुए जब हम आगे बढ़ते हैं तो बीच में ठहरकर, लेखन की परंपरा और उसके इतिहासबोध पर विचारना आवश्यक जान पड़ता है।
परंपराओं के अधीन जिया जा चुका जीवन आगे चलकर इतिहास बन जाता है। जिस प्रकार अतीत की परंपराएँ व घटनाएँ हमारे लिए इतिहास है ठीक उसी प्रकार शब्द भी क्रमबद्ध रूप में पुराने होकर साहित्येतिहास की संज्ञा प्राप्त करते हैं। मूल्यों और मान्यताओं की गठरी पीठ बदलती हुई जब एक लंबी कालावधि तय कर लेती है तब वह परंपरा का निर्माण करती है। चूकि परंपराएं मनुष्यों द्वारा विकसित होती हैं यथा उसमें मानव चेतना के सभी अच्छे-बुरे प्राप्य का प्रतिध्वनित होना सहज ही है। परंपरा केवल अतीत की वस्तु मानी जाए यह उचित नहीं जान पड़ता क्योंकि हर युग में मान्यताओं की गठरी नैतिकता और अनैतिकता के बोझ को ढोती-उतारती है। हर युग अपनी सीमाओं में बंधा होता है जिसके तहत मान्यताएं आकार लेती हैं। यथा परंपरा कोई स्थिर वस्तु न होकर सतत् गतिशील चेतन मन की अवधारणा व उसका बोध है जिससे सामाजिक जीवन की गति और दिशा तय होती है। एक पीढ़ी की मान्यताएँ अगली पीढ़ी की परंपरा बन जाती है, इसमें थोड़ा भी फेरबदल नहीं होता ऐसा कहना अनुचित होगा। किंतु परंपराओं के खंडन और उसमें बदलाव का निर्णय समाज के हरेक व्यक्ति के हाथ में नहीं होता। जिस प्रकार परंपराएं सम्प्रभु वर्ग और जाति के लोग बनाते हैं उसी प्रकार उसमें बदलाव भी वे ही अपनी स्वेच्छा और आवश्यकतानुसार करते हैं। हालाँकि अस्मितामूलक विमर्शों के बाद स्थिति बदली है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है।
साहित्येतिहास के इतिहासबोध पर बात की जाए तो सुमन राजे की पंक्तियां याद आती हैं जिनमें वे कहती हैं "इतिहास-लेखन अपनी प्रकृति में सामंती होता है। इतिहास की सामंती प्रकृति, लेखन में कम सामग्री चयन एवं वैचारिकी पर अधिक लागू होती है। काल ने कितना छोड़ा है इससे बड़ी बात यह है कि कितना बचा रह सका है। सबसे बड़ी बात तो यही है कि अवशिष्ट में से हम कितना उपलब्ध कर पाते हैं, या करना चाहते हैं। अंततः हम कितना और क्या चुनते हैं।"(पृष्ठ-51)
इस पंक्तियों के
निहितार्थ को समझे तो हम समझ सकते हैं कि साहित्येतिहास लिखने वालों का इतिहासबोध पितृसत्तात्मक रहा है। जाति की दुर्भावना में
सराबोर रहा है। ऐसे में साहित्येतिहासकारों ने
अपनी लेखनी के साथ कितना न्याय किया है ये जानने योग्य है। विधेयवादी पद्धति में आचार्य शुक्ल जिस जाति, वातावरण और
क्षण विशेष की बात करते हैं उसके महत्त्व को
समझते हुए भी हम साहित्येतिहास में
व्यक्त भावनाओं की
पड़ताल कर सकते हैं। साहित्येतिहास लेखन
की वैज्ञानिक पद्धति को सर्वाधिक तार्किक माना जाता है। असल में विज्ञान शब्द
आते ही हम निर्भरता वाली
स्थिति में चले जाते हैं जबकि विज्ञान और
वैज्ञानिक दृष्टि रखने
वाले लोग भी इसी समाज के अंग होते हैं जो बाकियों की
तरह ही एक समान भाव से जाति, धर्म और लिंगगत असमानताओं के ध्वजवाहक होते
हैं।
हम इसे इतिहासबोध का
स्त्रीपक्ष कह सकते हैं। क्योंकि यदि
हम ऐसा नहीं करते हैं तब हम भी अन्यों की
भाँति ही साहित्य के
आधे इतिहास पर
बात करते हुए स्वयं को समाज और साहित्य का
हितैषी कहे जाने की वकालत करते रहेंगे। “ई.पू.
5वीं शताब्दी में
पाली भाषा में बौद्ध-वचनों का संकलन किया गया था, जिसके अंतर्गत दो
महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं- थेरगाथा एवं
थेरीगाथा। ये ग्रंथ खुददक निकाय के अंग हैं। थेरगाथा में
भिक्षुओं एवं थेरी गाथा में भिक्षुणियों की
कविताएँ संकलित हैं।
थेरीगाथा में तिहत्तर थेरियों की गाथाएँ हैं।
कुछ गाथाएँ सामूहिक रचनाएँ कही
गयी हैं, अतः थेरियों की
संख्या लगभग सौ स्वीकार की
गई है। थेरी गाथाओं की
अपनी पहचान है और यह पहचान अनेकमुखी है।
सबसे पहली पहचान स्त्री होने
की है, जो उनकी रचनाओं को
थेर गाथाओं से
अलगाती है। इसकी शुरुआत बाह्यप्रकृति के अलगाव से होती है। थेर गाथाएं प्रकृति-सौंदर्य में
रची-बसी हैं जबकि थेरी गाथाएं अपने
भीतर की यात्राएँ हैं,
जिसमें उनकी पूर्वस्मृतियाँ भी
जुड़ी हैं|” उब्बिरी, पटाचारा, वाशिष्ठी, ऋषिदासी, सोना, अड्ढकासी, अभयमाता, विमला तथा अम्बपाली इन्हीं थेरियों में
से कुछ हैं। इनमें से कुछ की लेखनी के उदाहरण निम्नलिखित है:
अड्ढकासी थेरी बनने से पूर्व प्रसिद्ध गणिका थी। उस समय काशी राज्य की एक दिन की आय एक हजार कार्षापण थी
और इतना ही अड्ढकासी का
एक रात का शुल्क था। रूपगर्विता की
यह स्मृति उसकी
गाथा में वर्णित है।
“जितनी समस्त काशी-राज्य की (एक दिन की) आय है,
उससे
कम नहीं–
भगवान सम्यक संबुद्ध के
शासन को पूरा कर लिया|”
अम्बपाली ने जो गाथाएँ संगृहीत की हैं, जिसमें अपने
ही अंगों का विरूपण और
उसका यथार्थ-चित्रण किया है।
“
ऐसे
किसी समय मेरे बाल थे,
सत्यवादी(बुद्ध) के वचन कभी मिथ्या नहीं
होते(टेक)
लटकी
हुई हैं...
...
...|”
इसी प्रकार अपनी
इस कविता में अम्बपाली ने
अपने केशपाश, स्तनों तथा शरीर का वर्णन किया है। एक स्त्री द्वारा अपने सौंदर्य का
नखशिख वर्णन शायद ही विश्वसाहित्य में
अन्यत्र हो। सिद्ध साहित्य में
चौरासी सिद्धों की
गिनती कराते हुए शुक्ल जी जहाँ हमें तीन महिला सिद्ध योगिनियों के
नाम गिनाते हैं
वहीं राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से उपलब्ध सिद्धों की सूची में मणिभद्रपा(65), मेखला(66), कनखला(67), एवं लक्ष्मीकरा(82) स्त्रियों के नाम बताते हैं।
“अपभ्रंश काव्य की चर्चा करते हुए हम कवयित्रियों की
अनुपस्थिति नोट करते हैं। जबकि यह अनुपस्थिति भाषा
में है, काल में नहीं। कवयित्रियों ने
इस काल में अपनी रचना के लिए संस्कृत भाषा
को चुना था। उनका झुकाव न तो जैन चरित काव्यों की
ओर था न सिद्ध-नाथों के सामाजिक विद्रोह और यौगिक साधनाओं की
तरफ। उन्होंने संस्कृत क्लासिकल काव्य की परंपरा से
अपने को जोड़े रखा|”
हिंदी साहित्य के
व्यवस्थित इतिहास को
सामने लेकर आने वाले शुक्ल जी अपने साहित्येतिहास ग्रंथ में जिस युग की रचनाओं को
साहित्य की कोटि में नहीं रखते उसी अपभ्रंश युग
के विषय में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने
लिखा हैं, "इस काल(अपभ्रंश, पूर्वकाल, 550-700 ई.) की एक विशेषता है,
कुछ स्त्री कवयित्रियों की कृतियों का
हमारे पास तक आना। दूसरे कालों में भी वह रही होंगी, किंतु उनकी कविता के अवशेष हमें इसी काल के मिलते हैं। जहाँ इस काल के पुरुष कवियों ने
शब्दाडंबर पर बहुत जोर दिया, वहाँ स्त्री कवयित्रियां(?) इस दोष से मुक्त हैं।"(पृष्ठ-113)
“कवि
हाल कृत 'गाथा सप्तशती' में
लगभग सोलह कवयित्रियों की
रचनाओं का उल्लेख टीकाकारों ने किया हैं|” विज्जका, शीला
भट्टारिका, सुभद्रा, फलगुनहस्तिनी, मोरिका, इंदुलेखा, मारुला, विकटनितम्बा, वीर सरस्वती, रजक
सरस्वती आदि इन्हीं में
से कुछ नाम हैं।
उपयुक्त स्त्री कवयित्रियों को जानने के पश्चात् जो एक महत्वपूर्ण बात मस्तिष्क में आ रही है वह यह कि ऐतिहासिक रूप से महिला लेखन को संरक्षण प्राप्त होने के दो महत्वपूर्ण कारण रहे। एक तो उनके लेखन को राज्याश्रय प्राप्त हुआ और दूसरा धर्माश्रय। लोकाश्रय में सांस लेता महिला लेखन कितना दर्ज हो पाया इसके प्रमाण निराश करने वाले हैं।
आदिकालीन सिद्ध, नाथ और जैन परंपरा से
आगे बढ़कर हम भक्ति युग में पहुँचते हैं।
धर्म के विषय में अपने विचार व्यक्त करते
हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि धर्म का प्रवाह कर्म,
ज्ञान और भक्ति, इन तीन धाराओं में
चलता है। आगे वे लिखते हैं "ज्ञान के अधिकारी तो
सामान्य से बहुत अधिक समुन्नत और
विकसित बुद्धि के
कुछ थोड़े से विशिष्ट व्यक्ति ही होते हैं। कर्म और भक्ति ही सारे जनसमुदाय की
संपत्ति होती है।"
शुक्ल जी जिस समुन्नत और
विकसित बुद्धि के
थोड़े से विशिष्ट व्यक्ति की बात कर रहे हैं, वे कौन लोग हैं और कर्म और भक्ति को जिस जनसमुदाय की
संपत्ति बता रहे हैं वे कौन लोग हैं, यह जानने की नितांत आवश्यकता है। सामाजिक संरचना में जनता का बंटवारा दो
आधारों पर होता है। एक वर्ग और दूसरी जाति। भक्तिकाव्य के
कवि भी निःसंदेह इसी
सामाजिक संरचना से
आते थे। शायद इसीलिए शुक्ल जी ने लगभग कवियों की
वर्ग व जातीय पहचान को उजागर किया है। निर्गुण और
सगुण दो खंडों में बंटा भक्तिकाव्य जातीय अस्मिता की
दृष्टि से भी हिंदी साहित्येतिहास में
बेहद मानक स्थान रखता है। निर्गुण काव्य के लगभग कवि समाज के तथाकथित निचली जातियों से
आते थे। उनके काव्य की विशेषता की
ओर अगर दृष्टिपात करें
तो हम यही पाते हैं कि संत कवियों ने
अपने काल में जिन समस्याओं को
समाज की प्रगति में
सबसे बड़ा रोड़ा पाया उनका उन्होंने विरोध किया। इसमें जाति, धर्म, रूढ़ियों, कुरीतियों और सामाजिक-बौद्धिक जकड़न के विभिन्न पहलुओं पर बात हुई है। कबीर, रैदास, नानक, दादू, मलूकदास आदि
के काव्य में ये लक्षित हुए
हैं।
जातीय अभिमान पर
चोट करते हुए कबीर लिखते हैं:
“
तो
आन बाट काहे नहि आया|”
मूर्तिपूजा की वकालत न करते हुए रैदास लिखते हैं:
“थावर जंगम कीट पतंगा पूरी रह्यो हरिराई|”
संसार की अनित्यता को
व्यक्त करते हुए नानक लिखते हैं:
यह
संसार रैन दा सुपना, कहीं देखा, कहीं नाहि दिखाया|”
जाति-पाँति निराकरण के
संबंध में दादू ने लिखा है:
“
मैं,
तैं, मेरी यह मति नाहीं निरबैरी निरविकारा।|”
आत्मबोध को लेकर मलूकदास की
यह बानी अत्यंत सुंदर है:
“
हमहीं मुल्ला हमहीं काजी। तीरथ बरत हमारी बाजी।|”
निर्गुण काव्य का प्रेममार्गी काव्य जिसे हम सूफ़ी काव्य के नाम से जानते हैं, वह प्रेम की पक्षधरता करता
है। वे मानव मात्र से प्रेम करके इश्क़ मिज़ाजी से
इश्क हक़ीक़ी का सफ़र पूरा करना चाहता है। सूफी कवि संसार को सांसारिक बुराइयों को त्यागकर अमूर्त ईश्वर की प्राप्ति करने
तथा उससे प्रेम करने को कहता है।
सगुण कविता के कवियों के
पास ईश्वर का एक मूर्त रूप है। कुछ ने उन्हें राम
के रूप में ग्रहण किया तो कुछ ने कृष्ण के रूप में। इन दोनों भक्त कवियों के
पास अपने-अपने ईश्वर की मूर्ति रही।
तुलसीदास ने राम को स्थापित कर
तत्कालीन जनता का आचरण नियंत्रित कर
एक बेहतर समाज की संकल्पना प्रस्तुत की। वहीं कृष्ण भक्त कवियों ने
अपने ईश्वर के रूपों और उनकी लीलाओं का
वर्णन कर जनता में वात्सल्य और
प्रेम भावना का संचार किया।
सगुण कवियों ने
धर्म की महत्ता और
धार्मिक भावना को स्थापित करने
में ही विशेष भूमिका निभाई। उनकी रुचि चली आ रही वर्ण व्यवस्था से
जुड़ी जातीय समस्या के
समाधान में नहीं थी। जाति-पाँति के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों का
अभेद, संसार की अनित्यता और
आत्मबोध आदि प्रश्नों से
सगुण भक्त कवियों का
कोई वास्ता नहीं
रहा।
वर्णाश्रम धर्म के प्रबल समर्थक के
रूप में तुलसीदास के
रामचरितमानस के निम्नलिखित पद्य
प्रचलित है। जिसमें हम
इसका प्रमाण पाते
हैं:
चलहि सदा पावहि सुखहि नहि भय शोक न रोग|”
स्वपच किरात कोल कलवारा|”
स्वपचादि अति अघरूप जे|”
बड़-वशिष्ठ सम को जग माहि|”
जासु
छांह छुई लेइय सींचा|”
भारत देश के पहले 'महात्मा' बुद्ध की मान्यताओं को
जानना भी महत्वपूर्ण है।
महात्मा बुद्ध की स्त्रियों के
प्रति जो दृष्टि रही
वह पारंपरिक नहीं
रही, ऐसा नहीं है। उन्होंने भी
स्त्रियों को पत्नी, बेटी और पुत्र जननी के रूप में ही देखा। धम्म में उनके प्रवेश को
लेकर भी वे आशंकित रहे
और सख़्त नियमों के
आधार पर उन्हें प्रवेश की अनुमति मिली। महात्मा बुद्ध की स्त्रियों को
लेकर जो मान्यताएं रही
हैं उसका सार हम इस रूप में ग्रहण कर सकते हैं कि बुद्ध ने स्त्रियों के
धम्म में प्रवेश को
लेकर अपने मन में जो भी शंका रखी उसके पीछे एक कारण यह रहा होगा कि पुरुष अनियंत्रित प्रकृति के होते हैं, स्त्रियों के
संसर्ग में नियंत्रित रहे
यह उनके स्वभाव में
नहीं है।
भक्ति मुक्ति नित
ध्यान में बैठ सके न कोय।|”
जा
मंदिर में ये बसे तहाँ न कीजै बास|”
कबीरा तिन की कौन गति जो नित नारी के संग|”
उत्तम ते अलग रहें निकट रहे ते नीच|”
कोउ
साधु जन उबरै सब जन मुआ लाग|”
बड़ू
अपजश सहतु जग माही, नारी हानि विशेष छती नाहि|”
जिनि
स्वतंत्र होई बिगरहि नारी|”
भय
अविवेक अशौज अदाया।|”
जिमि
रविमणि द्रव रविहिं विलोकी|”
निष्कर्ष : हिंदी साहित्येतिहास की परंपरा और उसके इतिहासबोध की समीक्षा स्त्रीदृष्टि से करते हुए हम पाते हैं कि साहित्यकारों को अभी बहुत सारे सत्यों की पड़ताल करनी है। आवश्यकता है कि हम चीजों को लुकाने-छिपाने की जगह उसकी व्याख्या कर उसके अच्छे-बुरे पहलुओं को बाहर लाएं ताकि इतिहास से सीख लेते हुए वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियाँ साहित्य के लेखन और पठन के साथ न्याय कर सके। आदिकालीन साहित्य के इतिहासबोध की व्याख्या और भक्तिकालीन काव्य को स्त्रीदृष्टि से देखते हुए उस युग के दो महान रचनाकारों की रचनाओं का स्त्रीपक्ष सामने रखी गयी। युग सीमाओं का निर्धारण करता है और भविष्य की पीढ़ियों के लिए स्वयं से आगे बढ़ने के कारण सुरक्षित कर लेता है। कबीर और तुलसी के स्त्री संबंधी विचारों का पढ़ा जाना इसलिए भी जरूरी है कि हम अपने आधुनिक और बुद्धिजीवी होने के दम्भ में फूल न जाएं। जब कबीर और तुलसी जैसे श्रेष्ठ व्यक्तित्वों को युग ने अपने युगपाश में ले लिया तो हमें तो अभी बहुत सीखने की आवश्यकता है। हम बुद्ध, कबीर और तुलसी के व्यक्तित्व का कुछ प्रतिशत भी हो पाए तो बड़ी उपलब्धि होगी। उसके लिए हमें बुद्ध से त्याग, कबीर से मुखरता और तुलसी से समन्वय सीखकर ही अपने युग की बुराइयों पर जीत पानी होगी। जब तक साहित्येतिहासकार अपने लेखन से जाति-धर्म का त्याग करने की सबलता, ग़लत के खिलाफ मुखर होने की ताक़त और जीवित प्राणियों के भीतर समन्वय पैदा करने की चाह नहीं रखते तब तक साहित्य का अधूरा इतिहास लिखा जाता रहेगा।
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- मैनेजर पांडेय, भक्ति आन्दोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन
- पुरुषोत्तम अग्रवाल, अकथ कहानी प्रेम की कबीर की कविता और उनका समय, राजकमल प्रकाशन, 2010
- शिवकुमार मिश्र, भक्ति आंदोलन और भक्ति काव्य, अभिव्यक्ति प्रकाशन, 1996
- रामस्वरूप वर्मा, अच्युतों की समस्या और समाधान, लखनऊ: अर्जक संघ, 1984
- गोस्वामी तुलसीदास, रामचरितमानस, अरण्यकांड, गीता प्रेस गोरखपुर
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अनिल कुमार, स्त्री विमर्श और तुलसी की स्त्री दृष्टि(आलेख) अपनी माटी, संस्करण- अगस्त 2018
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https://www.pravakta.com/male-and-female-high-point-in-the-hindu-tradition-deepa-sharma/
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https://www.forwardpress.in/2020/08/bahujan-hero-ramswaroop-verma-and-ramayana-hindi/
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